विकास के आंकड़ों में बिहार की राजनीति

बिहार इनदिनों आर्थिक संवृद्धि (इकॉनामिक ग्रोथ) को लेकर खासे चर्चा में है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) द्वारा जारी आंकड़े में बिहार का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) काफी बढ़ गया है। आंकड़े के अनुसार 2004 से 2009 के बीच राज्य के जीडीपी में औसतन 11.03 प्रतिशत का सालाना इजाफा हुआ है। यह 8.49 के राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। पूरे देश में सिर्फ गुजरात के जीडीपी के ग्रोथ रेट का औसत बिहार से थोड़ा अधिक 11.06 प्रतिशत है।

इस खबर के आने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चुनावी वर्ष में एक बड़ा हथियार मिल गया है। साथ ही उनकी मुरीद मीडिया को सुशासन का भोंपू और तेजी से बजाने का मौका हाथ लग गया है। दोनों इस अवसर को लेकर इतने मदांध हैं कि उन्हें सही-गलत और असलियत को जानने-समझने या समझाने की कोई जरूरत नहीं रह गई है। इसी का नतीजा है कि इकॉनामिक ग्रोथ को आर्थिक विकास (इकॉनामिक डेवलपमेंट) बताने की मुहिम छेड़ दी गई है। दोनों शब्दों(इकॉनामिक ग्रोथ और इकॉनामिक डेवलपमेंट)को पर्यायवाची बना कर परोसा जा रहा है।

जबकि इकॉनामिक ग्रोथ और इकॉनामिक डेवलपमेंट दो अलग-अलग चीजें हैं। सकल घरेलू उत्पाद में होने वाली वृद्धि को इंगित करने के लिए इकॉनामिक ग्रोथ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। इस इकॉनामिक ग्रोथ को सकल घरेलू उत्पाद में होने वाले बदलाव की दर के आधार पर मापा जाता है। इकॉनामिक ग्रोथ अपने आप में इकॉनामिक डेवलपमेंट नहीं है। इकॉनामिक ग्रोथ या सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर विकास को नहीं आंका जा सकता। दरअसल, इकॉनामिक ग्रोथ सिर्फ उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं के परिमाण को बताता है। इनका उत्पादन किस तरह हुआ , इसके बारे में यह कुछ नहीं बताता। इसके विपरीत आर्थिक विकास (इकॉनामिक डेवलपमेंट) वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन के तरीके में होने वाले बदलावों को बताता है। सकारात्मक आर्थिक विकास के लिए ज्यादा कुशल या उत्पादक तकनीक या सामाजिक संगठन की जरूरत पड़ती है।

इसी तरह प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद देश या राज्य के औसत आय को बताता है। इससे इस बात का पता नहीं चलता कि आय को किस तरह बांटा गया है या आय को किस तरह खर्च किया गया है। इस कारण प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अधिक होने के बावजूद आम जनता के विकास का सूचकांक नीचे रह सकता है। उदाहरण के लिए ओमान में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बहुत अधिक है, लेकिन वहां शिक्षा का स्तर काफी नीचे है । इसके कारण उरग्वे की तुलना में ओमान का ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स (एचडीआइ) नीचे है जबकि उरग्वे का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद ओमान की तुलना में आधा है।

हकीकत तो यह है कि पिछले कुछ सालों में भारत का तीव्र इकॉनामिक ग्रोथ हुआ है। इसके बावजूद देश के समक्ष गंभीर समस्याएं बनी हुई हैं। हालिया ग्रोथ ने आर्थिक विषमता को और ज्यादा चैड़ा किया है। इकाॅनामिक ग्रोथ का दर ऊंचा रहने के बावजूद देश की करीब 80 प्रतिशत आबादी बदहाली की जिंदगी जीने को विवश है। बिहार के तीन साल से कम उम्र के 56 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट हैं। बिहार की आधी से अधिक आबादी गरीबी की सीमा रेखा के नीचे जीवन वसर करने को मजबूर है।

यह सही है कि गरीबी उन्मूलन के साथ सकारात्मक विकास के लिए एक सीमा का इकॉनामिक ग्रोथ जरूरी है। लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि इकॉनामिक ग्रोथ होने से विकास हो ही जाएगा। इकॉनामिक ग्रोथ इस बात की कोई गारंटी नहीं देता कि सभी लोगों को समान रूप से लाभ मिलेगा। यह ग्रोथ गरीब और हाशिए पर रहने वालों की अनदेखी कर सकता है। इसके कारण विषमता बढ़ सकती है। आर्थिक विषमता बढ़ने पर गरीबी उन्मूलन का दर घटेगा और अंततः इकॉनामिक ग्रोथ भी घटेगा। राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक सौहार्द पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। इसलिए विषमता को पाटना विकास नीति की प्रमुख चुनौती बनी हुई है और यही कारण है कि हाल के वर्षों में सम्मिलित संवर्धन (इनक्लूसिव ग्रोथ) पर जोर दिया जा रहा है। जिस ग्रोथ के तहत सामाजिक अवसर बढ़ेगे उसे इनक्लूसिव ग्रोथ कहा जाएगा। यह सामाजिक अवसर दो बातों, आबादी को उपलब्ध औसत अवसर और इस अवसर को आबादी के बीच किस तरह बांटा गया, पर निर्भर करता है।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ग्रोथ को लेकर स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर के जिस लेख की चर्चा बार-बार कर रहें हैं उसमें बिहार,केरल,ओड़िसा,झारखंड और छत्तीसगढ़ के ऊंचे ग्रोथ रेट का उल्लेख तो किया गया है,लेकिन इसका श्रेय केंद्र सरकार को नहीं दिया गया है। लेख में कहा गया है कि 1980 के दशक और फिर 1991 से उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद केंद्र की नीतियों का लाभ तो इन राज्यों को मिला, लेकिन हाल के वर्षों में इनका जो ग्रोथ बढ़ा है वह पूरी तरह राज्य सरकार की करामात है। लेकिन इस करामात को साबित करने के लिए स्वामीनाथन उसी लेख में बताते हैं कि इसके कारण ग्रामीण इलाकों में मोटर साइकिलों और ब्रांडेड उत्पादों की बिक्री बढ़ी है। उनके अनुसार ग्रोथ रेट बढ़ने का इससे भी बड़ा सबूत सेलफोन की क्रांति है। प्रति माह लगभग सवा करोड़ (12-15 मिलियन) सेलफोन की बिक्री हो रही है। बिहार और झारखंड में सेलफोन की बिक्री में 99.41 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेकिन स्वामीनाथन साहब पहले टाइम्स आफ इंडिया (3जनवरी,2010) और फिर इकॉनामिक टाइम्स (6 जनवरी, 2010) के अपने पूरे लेख में इससे अधिक और कोई सबूत नहीं दे पाए हैं,जो साबित करे कि सचमुच में विकास हो रहा है।

स्वामीनाथन ने ग्रोथ के जो प्रमाण दिए हैं उससे हाल में एशियाई विकास बैंक के द्वारा व्यक्त की गई आशंकाओं को ही बल मिलता है। एशियाई विकास बैंक के एक अध्ययन दल ने रिपोर्ट दी थी कि ग्रोथ की मौजूदा प्रक्रिया ऐसे नए आर्थिक अवसरों को सृजित करती है जिनका बंटवारा असमान तरीके से होता है। आम तौर पर इन अवसरों से गरीब वंचित रह जाते हैं। साथ ही बाजार का प्रभाव उन्हें इन अवसरों का लाभ नहीं लेने देता। नतीजा होता है कि गैर गरीबों की तुलना में गरीबों को ग्रोथ का लाभ कम मिल पाता है। ऐसे में अगर ग्रोथ को पूरी तरह बाजार के हाथों में छोड़ दिया जाएगा तो इसका लाभ गरीबों को नहीं मिल पाएगा। ऐसी स्थिति नहीं बने इसके लिए सरकार को सजग रहना होगा और ऐसी नीतियां बनानी होगी जिसमें गरीबों की हिस्सेदारी बढ़े। ऐसा होने पर ही इनक्लूसिव ग्रोथ हो पाएगा। लेकिन बिहार सरकार की नीतिगत कार्रवाइयां इन पैमानों पर सकारात्मक नहीं दिखतीं।

बिहार की 80 प्रतिशत से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है। इसके बावजूद राज्य में भूमि सुधार के लिए गठित भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट को लागू करने से सरकार ने साफ तौर पर इंकार कर दिया है। तमाम दावों के बावजूद मात्र एक हजार करोड़ से कुछ ज्यादा का कुल निवेश पिछले चार साल में हुआ है। शिक्षण संस्थानों में तीस से चालीस प्रतिशत पद रिक्त हैं। राज्य में बिजली की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। अगले पांच साल तक कोई राहत मिलने की उम्मीद नहीं है।

अभी बिहार में जो ग्रोथ हुआ है, उसमें क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ता नजर आ रहा है। विश्व बैंक अगर कहता है कि व्यापार करने के लिए दिल्ली के बाद पटना देश का सबसे उपयुक्त जगह है तो हमें इससे गौरवान्वित होने की जरूरत नहीं। हम ग्रोथ के उस पैटर्न पर चल रहे हैं जिसमें ऐसी ही स्थिति उभरेगी। पैसा पटना में संकेद्रित हो रहा है। पटना में फ्लैटों के दाम एनसीआर के बराबर हो गए हैं। पटना में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों का औसत दिल्ली के बराबर है। हवाई यात्रा करने वालों की संख्या पटना में दिल्ली के बराबर हो रही है। राज्य के अंदर ही विषमता बढ़ रही है। लेकिन उत्तर बिहार, पूर्वी बिहार बदहाल है। आधी आबादी गरीबी की सीमा रेखा के नीचे है।

इस तरह स्वामीनाथन हों या विश्व बैंक, उदारीकरण के हथियार से पूंजीवाद का साम्राज्य फैलाने की जुगत में लगे हर व्यक्ति और संस्था के लिए विकास का मानक यही, यानी उपभोक्तावाद और विषमता, है। बिहार सरकार अपने कामकाज के पक्ष में बार-बार विश्व बैंक के प्रमाण पत्र का हवाला दे रही है, लेकिन वह भूल जाती है और लोगों से यह कहने की हिम्मत नहीं करती कि देश की गुलाम बनाने में ईस्ट इंडिया कंपनी की जो भूमिका थी वही भूमिका आज अमेरिकी साम्राज्यवाद को दुनिया पर लादने में विश्व बैंक अदा कर रहा है। इसलिए विश्व बैंक के प्रमाणपत्र पर आज बिहार या नीतीश जी को इठलाने की जरूरत नहीं , बल्कि चैकस होने की जरूरत है। लेकिन मुख्यमंत्री शायद चैकस नहीं हो पाएंगे। अभी तो वे कारपोरेट सेक्टर के हीरो बने हुए हैं। लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए, एक समय में इसी कारपोरेट सेक्टर, विश्व बैंक और मीडिया के हीरो अटल बिहारी वाजपेई से लेकर चंद्राबाबू नायडू, दिग्गविजय सिंह और राम कृष्ण हेगड़े तक थे। लेकिन उनका हश्र क्या हुआ, यह बताने की जरूरत नहीं है। यह हर कोई बखूबी जानता है।

जीडीपी के ग्रोथ को लेकर इतना हल्ला मचाने की कोई जरूरत नहीं। इसे लेकर सुशासन की ढाल बजाने जैसी कोई स्थिति नहीं बनती। ध्यान देने की बात है कि जिन आंकड़ों का हवाला दिया जा रहा है, उसी के अनुसार सभी पिछड़े राज्यों में जीडीपी का ग्रोथ रेट बढ़ा है। यहां तक कि झारखंड जैसे राजनीतिक रूप से अस्थिर और कुशासित राज्य में भी यह ग्रोथ रेट बढ़ा है। सवाल उठता है कि अगर बिहार में सुशासन और मुख्यमंत्री के कुशल नेतृत्व के कारण ग्रोथ रेट बढ़ गया तो आखिर झारखंड का ग्रोथ रेट कैसे बढ़ा।

हकीकत तो यह है कि हाल के वर्षों में प्रायः सभी राज्यों में केंद्र प्रायोजित योजनाएं बड़े पैमाने पर शुरू की गई हैं। पिछड़े राज्यों का ग्रोथ रेट बढ़ने में उसका बड़ा योगदान है। फिर इसमें लो बेस इफेक्ट का भी योगदान है। राज्य सरकार का कामकाज पहले की अपेक्षा ठीक हुआ है, उसका भी निश्चित तौर पर योगदान है, लेकिन यह सिर्फ उसी का नतीजा नहीं है। क्योंकि सरकारी कामकाज में सुधार का जितना प्रचार मीडिया में तथाकथित विशेषज्ञों के द्वारा किया जा रहा है वह हकीकत नहीं है। हकीकत का पता लगाना है तो कोई दूरदराज की बात छोड़िए, पटना मुफ्फसिल अंचल कार्यालय में जाकर कोई व्यक्ति निधार्रित समय के अंदर मामूली आय प्रमाण पत्र या निवास या जाति प्रमाण बनवा लें और फिर यह बात कहे तो मैं सुशासन की बात स्वीकार करने को तैयार हूं।

और अंत में एक सवाल और है। बिहार के ग्रोथ से अति उत्साहित मुख्यमंत्री और उनकी हमदर्द मीडिया गलतबयानी क्यों कर रहे हैं। इनके द्वारा बार-बार कहा जा रहा है कि जीडीपी का जो ग्रोथ रेट सामने आया है वह पूरी तरह प्रामाणिक है, क्योंकि इसे केंद्रीय संगठन सीएसओ ने तैयार किया है। क्या मुख्यमंत्री और मीडिया वालों को यह पता नहीं कि सीएसओ राज्यों के जीडीपी का आकंड़ा नहीं तैयार करता। राज्यों के जीडीपी का आंकड़ा संबंधित राज्य सरकार खुद तैयार करती हैं और उसे जारी करने के लिए सीएसओ को सौंप देती है। सीएसओ सभी राज्यों के इस आंकड़े को जारी भर करता है, वह इसे सत्यापित नहीं करता।

इस संबंध में भारत सरकार के मुख्य सांख्यिकीविद् और केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के सचिव प्रणब सेन का बयान भी आया है कि ‘‘ सीएसओ राज्यों के जीडीपी का डाटा नहीं उपलब्ध कराता है। सीएसओ और राज्यों के बीच एक व्यवस्था बनी हुई है जिसके तहत राज्य सरकारें खुद अपने जीडीपी का अनुमानित डाटा सीएसओ को देती हैं और सीएसओ उसे जारी करता है। इन डाटा को सीएसओ सत्यापित नहीं करता है। इसलिए इसे सीएसओ का डाटा कहना उचित नहीं है। ’’ इस संबंध में सही जानकारी के लिए भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम मंत्रालय की साइट (http:// mospi.gov.in/state-wise_SDP_1999-2000_20nov.pdf ) को देखा जा सकता है, जहां से इस डाटा को जारी किया गया है। राज्यवार डाटा के नीचे स्पष्ट तौर पर स्रोत अंकित है। इसमें लिखा हुआ है कि राज्यों के आंकड़े संबंधित राज्य के वित्त एवं सांख्यिकी निदेशालय के हैं, जबकि राष्ट्रीय आंकड़े सीएसओ के हैं। इसके बावजूद मुख्यमंत्री के द्वारा किया जा रहा दावा क्या चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत को चरितार्थ नहीं करती।

(विपेंद्र बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं। १३ साल की उम्र से अखबारों में छप रहे हैं। १६ साल की उम्र में ही मासिक पत्रिका युवा चिंतन निकाली। 2004 से प्रभात खबर(रांची),पाटलिपुत्र टाइम्स (पटना),हिंदुस्तान (पटना) और फिर प्रभात खबर (पटना) में अप्रैल, 2009 तक उप संपादक से लेकर समाचार समन्वयक तक का काम किया। इसी बीच 2004 में पटना से दोपहर का दैनिक महानगर टूडे भी निकाला।)

11 comments:

ashok dubey said...

Bihar ke vikas ke bina desh ka vikas shayad sambhav nahi .....
lekin bihar sirf patna ya nalanda
me hi nahi balki bihar supol saharsa purnia araria darbhanga madhubani khagaria samastipur sitamarhi champaran banka jamui aur kishanganj me bhi basta hai....

sabse zyada in ilake se hi migration hota hai delhi punjab ya mumbai jaise mahanagro me......

so bihar ki chakachondh tab tak syah hi rahega jab tak in ilako me vikas ki kiran nahi pahuchegi

rashmi ravija said...

बहुत ही विस्तारपूर्वक और सही आकलन किया है...कि मेरे जैसे layman(woman) को भी सारी बातें समझ में आ गयीं...फिर भी कम से कम पिछली सरकार से नितीश की सरकार ने कुछ तो अच्छा किया है...मीडिया के साथ जितना अपने कार्य का बखान कर रहें हैं..उतना ना सही...पर थोड़ा सुखद बदलाव तो आया है...यह मैंने आम जन-जीवन को देख महसूस किया है...साल में एक बार ही जाती हूँ...पर परिवर्तन नज़र आता है,अच्छी दिशा की ओर.पर यह कहना सही है...यह विकास सिर्फ पटना में ही केन्द्रित नहीं होना चाहिए...दूर के गाँवों में भी नज़र आनी चाहिए...

rakhshanda said...

i agree with rashmi ji, change to aaya hai,lekin abhi kafi time lagega..lekin koi bat nahi ummeed to bani hai..kash aisa hi U.P OR UTTRAKHAND KE SATH BHI HO...

Archana said...

Bihar Gaye To Kaafi Saal Ho Gaye..Shayad 4 Saal ..Itne Dino Mei Kaafi Kuchh Badla Hai..Aye Waha Se Aanewali Khabro Se Bhi Mahsus Kiya Ja Sakta Hai..Nitish Ji Ki Sarkaar Ane Ke Baad Haalat Kaafi Sudhre Hain...Jis Bihar Per Kabhi Pure Desh Ko Garv Thha Us Ko 20 Saal Mein Rasatal Mein Pahucha Diya Gaya...
Uske Sudhrne Ki Umeed Itni Jaldi Karna..Bewkufi Hi Hai...Isliye Thoda Waqt Dijiye...Aur Umeed Rakhiye....Ki Bihar Ek Baar Fir Buland Hoga...
AAMIN...

JC said...

एक अंग्रेजी भाषा के प्रसिद्द चौतरफा अनुभव् प्राप्त लेखक हुए जिनका नाम पार्किन्सन था...भारत में नेहरु ने शायद पार्लिआमेंट में सबसे पहले उनका उदाहरण दिया - जिसके कारण अन्य अधिकतर हमारे जैसे भारतीयों ने भी उनकी मजेदार पुस्तक 'पार्किन्संस लौ' को पढ़ा...उसमें उन्होंने एक लौ किसी भी प्रशासनिक संस्थान कि सेहत के विषय में बताया है कि फाइल आदि के निरिक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है; केवल यदि उसकी कैंटीन में अच्छा भोजन मिलता है तो समझ लीजिये सब सही है (आल इज वेल :)

Shambhu kumar said...

आंखे खोलने वाली रपट... विकास की झूठमूठ की डूगडूग्गी के सहारे आंख चौंधिया रहे नीतीश कुमार सरकार की पोल खोलती रिपोर्ट कार्ड... लेकिन हां... निश्चित नर्क से अनिश्चित स्वर्ग सूख भी मन को खूब भाता है...

SM said...

Mujhe lagta hai apko koi niji khunnas hai Nitish G se.Fark dekhna hai to kisan/vyapari/student ki nighah se dekhiye.road,bijli pani dekhiye.Hum logon ko lalu g ke raj ki yad bhi mat dilayen.

5 sal mein mein bahut fark aya hai Ravish ji. tarif karna sikhiye.Communist vichardhara admi ka satyanash kar deti hai.

Raag said...

आपने इससे पहले बिहार की तरक्की की तारीफ़ की थी और इस बार उसकी कमियों को उजागर किया है. अच्छा है की आप सभी बातों को मद्देनज़र रखते हैं.

Anonymous said...

Ankron ka khel jo bhi ho. Jab 20 saal ka pichharta khel khela hai fir agle 10 saal yah khel bhi dekhiye. CYNICAL hone se kaam nahin chalega. Han Nazar rakhna jaroori hai.

kiran said...

bihar kya sach me badal raha hai...ya badla hai...ye mahsus karne ki baat hai...aankhen nishpaksh hon to saaf dikhai deta hai...lekin dusron ke chasme se dekhenge to chizen dhundhli bhi nazar aa sakti hain...kyunki har vyakti ke chasme ka power alag alg hota hai...bihar 11.03 fisdi ki dar se grow kar raha hai...fir bhi kyun migration nahi ruk raha....kyun kam ke liye bahar nikle bachche apne shahar nahi laut rahe.....gujrat me jitna nri invest kar rahe khulkar...bihar ke kyu nahi kar rahe..jabki bihar ka skilled force...desh se lekar videsh tak me apna danka baja raha....aise me nitish ki daal me kuch to kala jarur hai...jara sochiye.....

Ranjan said...

Sir , this story was first raised by www.bihartimes.com and unfortunetly mad NRB do not want to listen anything against media darling NITISh KUMAR .