कभी पुतला हुआ महान है ?

भीड़ आई है दरवाज़े के बाहर
बता रही है गंभीर मुझे
सरोकार से सने सनकी की तलाश में
दहलीज़ पर हिंदी जगत के
मेरे कहे पर बेताब है चलने को
पूछती हुई पता अपने घर का
कुर्ता फाड़ रही है मिट्टी के महान का
हा हा हा ये हंसी मेरी है बेख़ौफ़
लौट जाओ लौट जाओ
नहीं अभिलाषी प्रशंसा पात्र का
जगत जो हिन्दी नहीं है और
जगत जो हिन्दी भी है
जगत जो जगत ही है
मैं नहीं साहूकार किसी दुकान का
कुर्ता क्यों फाड़ते हो चीख चीख के
मिट्टी के महान का
माधो माधो ओ माधो
ढेला मार भगा सब साधो
एकांत की मुक्ति की मेरी साधना में
ये किसने कर लिया जुटान है
कभी पुतला हुआ महान है ?

पटना के अशोक राजपथ से अग्निपथ तक का सफर

भोर होने में कुछ घंटे बाक़ी रहे होंगे। दरवाज़े के सांकल को चुपचाप लगाकर निकल गया था। गांधी मैदान की तरफ पैदल ही। फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का जुनून टीवी और मल्टीप्लेक्स के आने के पहले सिनेमा संस्कृति का हिस्सा रहा है। टिकट खिड़की पर कतार में खड़ी भीड़ के कंधे के ऊपर से चलते हुए काउंटर तक पहुंच जाने वाले भले ही लफंगे कहे जाएं मगर उनका यह करतब मुझे सचिन तेंदुलकर के छक्के जैसे अचंभित कर देता था। पर्दे तक पहुंचने के पहले ऐसे हीरो से मुलाकात न हो तो सिनेमा देखने का मज़ा नहीं मिलता। तय हुआ कि पहले दिन और पहले ही शो में देखेंगे वर्ना अग्निपथ नहीं देखेंगे। पैसा दोस्तों का था और पसीना मेरा बहने वाला था। जल्दी पहुंचने से काउंटर के करीब तो आ गया मगर काउंटर के उस्तादों के आते ही मुझे धकेल कर कोई अस्सी नब्बे लोगों के बाद पहुंचा दिया गया। लाइन लहरों की तरह डोल रही थी। टूट रही थी। बन रही थी। लाइन बहुत दूर आ गई थी। लोग धक्का देते और कुछ लोग निकल जाते। नए लोग जुड़ जाते। यह क्रम चल रहा था। तभी पुलिस की पार्टी आई और लाठी भांजने लगी। तीन चार लाठी तबीयत से जब पैरों और चूतड़ पर तर हुई तो दिमाग गनगना गया। तब तो गोलियां खाते हुए अग्निपथ अग्निपथ बोलते हुए प्रोमो भी नसीब नहीं था वर्ना वही याद कर बच्चन मुद्रा में खुद के इस त्याग को महिमामंडित करते हुए लाइन में बने रहते।

खैर चप्पल पांव का साथ छोड़ गए। हम नीचे से नंगे हो चुके थे। टिकट लेने के बाद होश ठीक से उड़ा कि इस हालत में घर गया तो वहां भी लाठी तय थी। किसी ने चप्पल का इंतज़ाम किया और पहले शो की तैयारी से हम फिर सिनेमा हाल के करीब पहुंच गए। मोना या रिजेन्ट में लगी थी अग्निपथ। यह वही साल था जब मुझे दिल्ली शहर के बारे में भारत की राजधानी से ज्यादा कुछ पता नहीं था। अग्निपथ देख चुके थे और अब बंद हो चुकी इलेवन अप से, जिसे दिल्ली एक्सप्रेस कहा जाता था, दिल्ली के लिए रवाना हो चुके थे। इन दोनों के बीच कुछ हफ्तों या महीनों का अंतराल ज़रूर रहा होगा। स्मृतियां लिखते वक्त ऐसा घालमेल हो जाता है। मगर विजय दीनानाथ चौहान। बाप का नाम मास्टर दीना नाथ चौहान। ऐसे संवाद दून स्कूल से पास होकर स्टीफंस पहुंचने वाले नौजवानों को लुभाते होंगे मगर वो इसे जी नहीं पाते होंगे। इस बात का सुकून तो था ही कि अग्निपथ देख चुके थे। उस टेलर की तलाश आज तक करता हूं जिसने कांचा के इतने अच्छे कपड़े सिले थे। अपने बाप के हत्यारे कांचा को मारने का जुनून लिए विजय दीनानाथ चौहान भी तो हत्यारे के दर्ज़ी को ढूंढ रहा था। ख़ैर ।

इसीलिए कहता हूं कि अग्निपथ एक ऐसी फिल्म है जिसमें मैं भी हूं। मुकुल एस आनंद की अग्निपथ में भी मैं था और करण जौहर द्वारा निर्मित और करण मल्होत्रा द्वारा निर्देशित अग्निपथ में भी मेरा रोल बचा रहा। दो फिल्मों के बीच का यह दर्शक दो दशकों की ज़िंदगी जी चुका है। गाज़ियाबाद के स्टार एक्स सिनेमा हाल में पहुंचने से पहले बदनाम हिन्दी चैनलों की बारात का वो बाराती बन चुका था जिसे कुछ लोग शरीफ समझते हैं। नाचना भले न आए मगर नगीनिया डांस की तड़प हमेशा रही है। अमर उजाला के एक पत्रकार से बाहर मुलाकात हुई। मैंने उनको यह कह कर रवाना कर दिया कि मैं अकेले रहना पसंद करता हूं। वो निराश हो कर चले गए कि सर कहने पर झड़प देने वाला यह मशहूर पत्रकार बदतमीज़ भी है। उन्हें नहीं मालूम था कि यह पत्रकार खुद अपनी प्रेरणाओं को नहीं समझ पाया इसलिए दूसरे जब इसे प्रेरणा बनाते हैं तो चिढ़ जाता है। तो बीस रुपये का पान बनवाया। तीन सौ रुपये के दस ग्राम वाले किमाम का एक छोटा सा हिस्सा पान के पत्ते पर घिसवा कर दबाया और स्टार एक्स सिनेमा के भीतर। कुछ लोग पहचान रहे थे । कुछ हैरान कि भर मुंह पान दबाए ये फटीचर है या एंकर है। हॉल में पहुंचा तो दो बजे के शो के लिए लेकिन हाथ में टिकट था एक बजे के शो का। सिनेमा हाल का मैनेजर दिलफेंक सिनेमची समझता है इसलिए उसने एक मेहरबानी की। सलाम किया और उसी नंबर के टिकट पर दो बजे के हाल में सीट दिला गया। अब शुरू होने वाला था अग्निपथ। इस बार प्रोमो तो बने थे पर टीवी नहीं देखने के कारण एक भी नहीं देख पाया। लाठी नहीं चली और दोस्त नहीं थे। तब दर्जन भर थे अब अकेला। लेकिन फेसबुक और ट्वीटर के अपने मानस मित्रों की फौज को बताने की बेताबी ज़रूर थी। ढैन ढैन ढैन....अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।


एक सुपुरुष घोती कुर्ताधारी मास्टरनुमा हंसमुख कवि। देखते ही पिता की याद आ गई। धोती कुर्ता में वो भी काफी जंचते थे। आंखें थोड़ी देर के लिए नम तो हुईं मगर मास्टर दीनानाथ चौहान के चेहरे पर अभिनय की कशिश उतरते देखी तो लगा कि मामला जंचेगा। कैमरा कमाल तरीके से काम कर रहा था। मांडवा । बच्चन की ज़ुबान पर जब मांडवा उच्चरित होता था तो लगता था कि भारत छोड़ो मांडवा में ही बसो। अपने गांव के बाद मांडवा का ही नाम लेने में मज़ा आता था, लगता था काश मांडवा में पैदा हुए होते। करण मल्होत्रा ने मांडवा को तो रखा मगर उसे पहचान की पटरी से उतार दिया। वो सिर्फ मुंबई के नक्शे के बाहर का गांव है जहां पुलिस मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के डर से नहीं पहुच पाती। खुद भी नहीं जाती और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी जाने के लिए नहीं कहती कि जाकर देखो मांडवा में क्या हो रहा है। खैर। हिन्दी सिनेमा को सिनेमा की तरह नहीं देखना चाहते तो दुनिया में बहुत अच्छे विश्वविद्यालय हैं जहां आप जाकर गंभीर पढ़ाई कर सकते हैं।

जल्दी समझ में आने लगा कि संजय दत्त ने फिल्म को लूट लिया है। फिर लगा कि कुछ माल ऋषि कपूर भी लूट रहे हैं। खलनायक में जोकर लगने वाले संजय दत्त इस अग्निपथ में वाकई खलनायक लगे हैं। बीस सालों में हमारे पर्दे का खलनायक हीरो की तरह कमनीय हो चला था। अमरीश पुरी के भयावह खलनायकी के बाद संजय दत्त ने उस क्रूरता को उभारा है। वांडेट का खलनायक नहीं भूलियेगा। खैर। मास्टर के मारने का दृश्य कमाल का है। समंदर के किनारे की हत्यारी शामें शायद ऐसी ही होती होंगी। बारिश और नीली काली लाइटिंग के बीच मशाल की पीली रौशनी उस क्रूरता को खूबसूरती से रचती है जिसे लेकर फिल्म आगे चलने वाली थी। मांडवा से मुंबई आते ही रऊफ लाला का किरदार। मक्कारी से लबरेज़ ऋषि कपूर ने मकबूल के पंकज कपूर के अभियन के करीब खुद को ला खड़ा कर दिया। आज के ज़माने में जब कसाई भी सूट पैंट वाले हो गए हैं और विधायकी का चुनाव लड़कर पसमांदा मुस्लिम के हकों की लड़ाई में शामिल हैं, गनीमत है कि मुस्लिम पात्र का यह चित्रण सांप्रदायिक दौर की मुंबई की पैदाइश नहीं लगता। कहानी कमज़ोर होती हुई अपने किरदारों से मज़बूत होने लगती है। विजय दीनानाथ चौहान बड़ा हो जाता है। पंद्रह साल गुज़रने का एलान होता है। माधवी बनी नर्स की जगह प्रियंका चोपड़ा ब्यूटी पार्लर वाली काली के रूप में जगह ले चुकी होती है।

पहली अग्निपथ में अमिताभ बच्चन का नायकत्व छाया रहता है। वो अपने परिचय वाले संवाद को दोहराते दोहराते थकाते भी रहे और पकाते भी रहे। करण मल्होत्रा की अग्निपथ में विजय दीनानाथ आधी से ज़्यादा फिल्म में बीजू बन कर ही रहता है। वो मौत के साथ अपीटमेंट जैसी कामचलाऊ इंग्लिश की कोशिश नहीं करता। औरतों से भरे मोहल्ले में रहता है। औरतें उसकी ढाल हैं। मुकुल आनंद की फिल्म में कृष्णन अय्यर बाडीगार्ड था। करण मल्होत्रा की फिल्म में सीढ़ियों, बालकनियों और बरामदे में नज़र आने वाली असंख्य औरते बीजू की बाडीगार्ड हैं। रोहिणी हट्टंगड़ी और विजय के बीच गहरा रिश्ता बना रहता है। यहां ज़रीना वहाब पूरी फिल्म में टेंपोरेरी यानी अस्थाई मां लगती है। इन्हीं सब बिंदुओं पर फिल्म टूटती है। मगर शानदार बने रहने का रास्ता नहीं छो़ड़ती।

नई अग्निपथ में ह्रतिक रौशन मांडवा पहुंचने से पहले तक मोहल्ले का बागी से ज़्यादा नहीं लगता। उसके गुस्से की थरथराहट कंपकंपाहट पैदा करती है। लेकिन जब वो कमिश्नर के घर पहुंच कर जान बचाने की बात करता है तो डान की जगह मुखबिर नज़र आने लगता है। मुकुल आनंद की फिल्म में कमीश्नर और विजय दीनानाथ के बीच का रिश्ता ग़ज़ब का था। इस फिल्म में पड़ोसी का लगता है। इसीलिए ह्रतिक नायकत्व की उस ऊंचाई को नहीं छू पाते जिसे बच्चन ने छुआ। पहली अग्निपथ में बच्चन नायक थे मगर इस अग्निपथ में फिल्म नायक है। उस फिल्म में वृतांत बच्चन तय करते हैं, इस फिल्म में वृतांत यानी नैरेटिव निर्देशक अपने पात्रों के ज़रिये तय करता है। पहली फिल्म में विजय दीनानाथ बनने से पहले अमिताभ एंग्री यंग मैन की छवि को कई दशक जी चुके होते हैं। इस फिल्म में विजय बनने से पहले तक ह्रतिक चौकलेटी हीरो की छवि की तलाश में मुख्य से लेकर सहयोगी किरदार में भटकते रहे हैं। मगर आखिरी सीन में मांडवा पहुंचने के बाद ह्रतिक का अभिनय उन्हें एक नई ऊंचाई पर ले जाता है। मैं काग़ज़ के फूल का रिव्यू नहीं लिख रहा उस फिल्म का लिख रहा हूं जो चलती भी हैं और बनती भी हैं।

इस फिल्म में गाने यादगार नहीं हैं। चिकनी चमेली टपकी हुई लगती है। दोस्त होते नहीं सब हाथ मिलाने वाले। इस कव्वाली के सेट पर जब कांचा और विजय दीनानाथ मिलते हैं तो ग़ज़ब का समां बंधता है। डैनी का ज़ोरदार अभिनय और बच्चन का स्टारडम एक किस्म की बराबरी का टक्कर पैदा करता है। वो हेलिकाप्टर से मांडवा में लैंड करता है। यहां नाव से ह्रतिक बाबू जाते हैं। शाट्स काफी अच्छे हैं। क्लोज़ अप शानदार हैं। कांचा भयावह है। गीता का पुनर्पाठ कर रहा है। उम्मीद है कि कोई गीता के इस पुनर्पाठ को लेकर रूस की अदालत नहीं जाएगा। ख़ैर। कांचा जब मांडवा में बैठ कर न्यूज़ चैनलों के ज़रिये लाइव रिपोर्ट देख सकता है तो फिल्म में सिक्के डालने वाले पब्लिक फोन रखने का क्या मतलब था समझा नहीं।

लेकिन गानों, हांडी फोड़ने के दृश्य विहंगम तरीके से रचे गए हैं। कव्वाली को बेजो़ड़ फिल्माया गया है। रऊफ लाला के बेटे को मारने का प्लाट शानदार है। और बीजू की बहन की नीलामी का दृश्य छाती तोड़ देने वाला। यह वही सीन है जब ह्रतिक पूरी तरीके से हीरो की तरह उभऱ कर फिल्म पर कब्ज़ा करते हैं। ठीक इसके बाद चौपाटी पर सूर्या को मारने का सीन शानदार है। यही वो सीन है जहां बीजू पहली बार अपना और अपने बाप के नाम वाला पूरा संवाद बोलता है। विजय दीनानाथ चौहान। बाप का नाम मास्टर दीनानाथ चौहान। करण मल्होत्रा ने पुरानी फिल्म से यह सबक सीख लिया था। इसीलिए इस संवाद के लिए वो दर्शकों को इंतज़ार करवाते हैं। कुछ संवाद तो बेहतरीन लिखे गए हैं। प्रबुद्ध खिलाड़ी। हा हा। मज़ा आ गया। कांचा का कहना कि अब भी माया मोह बाकी है। यह संवाद मांडवा की लड़ाई को फिल्मी कुरुक्षेत्र में बदल देती है। बिना माया मोह को त्यागे कोई ख़लनायक नहीं बन सकता। कोई नायक भी नहीं बन सकता। जब इसी झमेले से ह्रतिक निकलते हैं तो आखिरी सीन में उनका स्टंट छाप अभिनय बेजोड़ हो जाता है। संजय दत्त मोटे थुलथुल बचे खुचे खलनायक की तरह पेड़ पर लटका दिये जाते हैं। शायद यह निर्देशक की योजना होगी कि नायक को शुरू से नायक बनाकर नहीं रखना है। उसे बाद में स्थापित करना है।

इस फिल्म की रौशनी,संगीत,कविता के पाठ और पुनर्पाठ के दृश्य बेहतरीन हैं। मांडवा को उड़ाने का दृश्य हो या गणपति के विसर्जन या फिर हांडी फोड़ने का । रंगों को लेकर निर्देशक का फन नजर आता है। गाना ही इसकी कमज़ोरी है। किसको था खबर किसको था पता वी आर मेड फार इच अदर। दोस्त होते नहीं सब हाथ मिलाने वाले। चिकनी चमेली दारू के ठेके पर आबाद तो हो जाएगी मगर अग्निपथ की आत्मा नहीं कहलाएगी। फिल्म की समीक्षा नहीं की है मैंने। मुझे यह फिल्म शानदार लगी। एक ऐसे वक्त में जब सिनेमा हाल खाली हों और बोरियत भरी सर्दी अपना रजाई समेट रही हो, यह फिल्म कमा ले जाएगी। बस एक कमी को पूरी कर देती तो कमाल हो जाता। जज़्बातों को झकझोरने वाले संवादों और दृश्यों की कमी रह गई। भावुकता से भरपूर सिनेमा न भी हो तो चलेगा मगर भावुकता ही न हो यह नहीं हो सकता। हम हिन्दी सिनेमा देख रहे हैं। कुरासोवा की फिल्म नहीं,जिनकी एक भी फिल्म मैंने नहीं देखी है। प्रियंका चोपड़ा ने काफी अच्छा अभिनय किया है मगर उसकी कोई कहानी नहीं है। कंबल फेंक कर गोली मारने के दृश्य में मारी जाती है। ऐसे दृश्य कई फिल्मों में आ चुके हैं। आप देखियेगा कि कैसे यह फिल्म अपनी ही पुरानी कथा का शानदार पुनर्पाठ करती है। बहुत चीज़ें बदल देती हैं। बहुत चीज़ें जोड़ देती है और एक अवसर बना जाती है कि एक तीसरी अग्निपथ ज़रूर बनेगी। उम्मीद है मेरे बिना नहीं बनेगी। अग्निपथ... अग्निपथ...अग्निपथ।
(कृपया रिव्यू पढ़ने के बाद फिल्म देखने न जाएं, रिव्यू एक व्यक्ति का नज़रिया है)

त्वरितर के अनुचर- मीडिया बनते शोहरतमंद

जब बरखा दत्त को साढ़े चार लाख से अधिक और राजदीप सरदेसाई को पौने चार लाख से ज्यादा लोग ट्वीटर पर फॉलो कर रहे हों तो क्या आप इस सवाल से टकराना चाहेंगे कि व्यक्तिगत फॉलोअरों की संख्या ख़बरों की दुनिया की मान्यताओं को कैसे बदल रही है? क्या प्रसार या दर्शक संख्या के बाद अब फॉलोअर संख्या का भी कोई पेशेवर और व्यापारिक औचित्य हो सकता है? क्या ट्वीटर ख़बरों और संवाद को अख़बार,रेडिया,टीवी,वेबसाइट,एजेंसी जैसी संस्थाओं से निकाल कर व्यक्तिगत मीडिया में बदलता जा रहा है? क्यों पत्रकारिता के बड़े नाम ट्वीटर पर हर पल ख़बरों और क्रायक्रमों को अपडेट करते हैं बल्कि उन कार्यक्रमों के वीडियो लिंक भी देते हैं?

हिन्दुस्तान में राजदीप और बरखा मिलकर करीब साढ़े आठ लाख लोगों तक पहुंच रखते हैं। सीएनएन के एंकर एंडरसन कूपर को दुनिया भर में उन्नीस लाख लोग फॉलो करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय चैनलों की तुलना में हमारे भारतीय पत्रकार कम हैं मगर इनकी संख्या इनके चैनलों के फॉलोअरों से ज़्यादा है। सीएनएन को इकसठ लाख लोग ट्वीटर पर फॉलो करते हैं तो बीबीसी को साढ़े चौबीस लाख और न्यूयार्क टाइम्स को करीब तैंतालीस लाख। जो खबर बरखा, राजदीप, विक्रम,सागरिका, भूपेंद्र चौबे टीवी पर ब्रेक करते हैं,कई बार टीवी से पहले ट्वीटर पर ब्रेक कर देते हैं। यह नई प्रवृत्ति चैनलों के प्रति निष्ठा को भी नए सिरे से बदल रही है। पहले हम अपने चैनल पर ख़बर चलने से पहले किसी को भनक नहीं लगने देते थे अब चैनल से पहले ट्वीट कर देते हैं। शायद इस उम्मीद में कि ट्वीट देखने के बाद कोई टीवी या चैनल ऑन करेगा। हमारे पास कोई भी शोधपरक प्रमाण नहीं हैं कि ट्वीटर की फॉलोओर संख्या मशहूर एंकरों के कार्यक्रमों की टीआरपी या लोकप्रियता के बीच कोई सीधा रिश्ता है या नहीं। फिर हम सब ट्वीटर के ज़रिये दर्शक जुटाओं अभियान में शामिल हो चुके हैं। यह काम पहले संस्था का था अब व्यक्तिगत रूप से पत्रकार भी कर रहा है। मैं इसके गुण दोष पर टिप्पणी नहीं कर रहा मगर इस प्रवृत्ति को नज़रअंदाज़ भी नहीं कर सकते। टीवी के दर्शकों की अनुमानित संख्या तो टैम रिकार्ड करता है और उसका मार्केटिंग मतलब भी होता है। ट्वीटर पर फॉलोअर की संख्या का भी कभी मार्केटिंग मतलब ज़रूर होगा। ख़बर ट्वीट होते ही प्रतिक्रियाओं की भरमार लग जाती है। मैं खुद अपने कार्यक्रम के ज़रिये दर्शकों से संवाद करने से पहले ट्वीटर पर भिड़ चुका होता हूं। इस तरह जो हंगामा टीवी देखकर मचना चाहिए था वो हलचल टीवी के पत्रकार टीवी से दूर ट्वीटर की दुनिया में पैदा कर रहे होते हैं। अब पहले से पता होता है कि अमुक दर्शक क्या सोच रहा है।



पहले न्यूज़ एजेंसी के मार्फत ख़बरें फ्लैश की तरह आती थीं अब हर कोई फ्लैश कर रहा है। यहां तक कि पीटीआई और यूनीआई भी ट्वीट कर रहे हैं। अखबार, टीवी और पत्रकार सब फ्लैश करने के काम में लगे हैं। दुनिया भर में मशहूर रॉयटर न्यूज़ एजेंसी को चौदह लाख लोग ट्वीटर पर फॉलो करते हैं। न्यूज़ एजेंसियां भी संस्थानों को किराये पर ख़बर देने के अलावा अपने फॉलोअर में फ्री की बांट रही हैं। मोबाइल फोन पर ट्वीटर ख़बरों का बड़ा माध्यम बनने लगा है। ट्वीटर पुराने माध्यमों से होड़ करता हुए एक नए माध्यम के रूप में स्थापित हो चुका है। जो काम वेबसाइट, यू ट्यूब या फेसबुक नहीं कर सके, न्यूज़ के मामले में ट्वीटर ने कर दिखाया है। कई लोग तो ऐसे भी हैं जो वेबसाइट से ख़बरों को उठाकर ट्वीटर पर लिंक भेजते रहते हैं। एक नया पाठक और दर्शक वर्ग है जो किसी पत्रकार या चैनल के विशेष काम को उस तक पहुंचे बिना देख रहा है या सराह रहा है। बल्कि अब चैनल का दर्शक से सीधा रिश्ता कमज़ोर पड़ रहा है और उसके पत्रकारों का सीधा रिश्ता बन रहा है। वीडियो लिंक ट्वीट करने से हो सकता है कि फॉलो करने वाले लाखों लोगों ने उसे देखा हो मगर इस काम के लिए ये लोग उस चैनल पर नहीं गए हों। कुल मिलाकर खबरों के प्रति हमारी सोच को बदल रही है। जो हो रहा है उसे हम जल्दी देखना शुरू कर दें।


यह सब नए सवाल हैं जिनपर सोचा जाना चाहिए। ख़बरों की दुनिया बदल रही है लेकिन ध्यान रहे कि ख़बरों की मौत नहीं हो रही है। ट्वीटर ने ख़बरों की परिभाषा नहीं बदली है। ख़बरों का स्वरूप ज़रूर संक्षिप्त हो गया है। लोग तीन पंक्तियों में प्रतिक्रिया दे रहे हैं और इस तरह से टीवी पर चलने वाली लंबी बहसों और अख़बार में छपने वाले लंबे लंबे संपादकीय से आज़ाद विचारों की नई कड़ियां आपस में टकराने लगती हैं। निश्चित रूप से इसका हमारी विचार शैली पर असर पड़ रहा है। आखिर नेताओं और फिल्म अभिनेताओं ने ट्वीटर पर प्रेस कांफ्रेंस करना क्यों शुरू कर दिया है? सुष्मा स्वराज से लेकर शशि थरूर और अभिताभ बच्चन तक अपनी बात सीधे रख रहे हैं। अमिताभ बच्चन को उन्नीस लाख लोग फॉलो करते हैं। उन्हें प्रेस कांफ्रेंस की अब कितनी ज़रूरत रह गई होगी। इसलिए वे अपने ट्वीट के ज़रिये मीडिया की खिंचाई करने से नहीं चूकते। दिग्विजय सिंह को भले ही ग्यारह हजार लोग फॉलो नहीं करते मगर उनके ट्वीट की चर्चा ट्वीटर से लेकर टीवी और अखबार तक में होने लगती है। दलाई लामा को तीस लाख लोग फॉलो करते हैं। क्या ये लोग खुद में मीडिया नहीं बन रहे हैं? मीडिया ने आम लोगों को छोड़ खास किस्म के वर्गीय चरित्र वाले लोगों से सांठ गांठ की और अब यही कुलीन ट्वीटर के ज़रिये अपने आप में मीडिया बन गया है।कहीं ट्वीटर मदर मीडिया या मातृ-माध्यम तो नहीं बन रहा जिस पर तमाम तरह के माध्यम आकर अपना नया वजूद खोज रहे हैं। ट्वीटर जिसे हिन्दी में मैं त्वरितर कहता हूं, ख़बरों की रफ्तार और प्रतियोगिता को बदल रहा है।

क्या इससे टीवी के कंटेंट में बदलाव आ रहा है? लोग टीवी पर ख़बरों के लिए आ रहे हैं या किसी और चीज़ के लिए। टीवी की नई चुनौतियां सामने आ रही हैं। इसीलिए आप देखेंगे कि टीवी पर ख़बरों की जगह विचार-बहस के कार्यक्रमों की भीड़ बढ़ गई है। ये विचार बहस के कार्यक्रम कल को अखबारों के संपादकीय पन्नों के कंटेंट को कैसे बदलेंगे? वहां भी तो वही जाने पहचाने लोग लिख रहे हैं। जैसे टीवी में पांच दस लोग ही बोल रहे हैं। अखबारों के कोने में छपने वाली संक्षिप्त ख़बरें टीवी पर स्पीड न्यूज़ बनकर दौड़ रही हैं। स्पीड न्यूजड एक तरह से टीवी का ट्वीट बन गया है। ये और बात है कि अख़बारों में अभी भी रिपोर्टिंग हो रही है। ख़बरें गंभीरता और गहराई से छप रही हैं। लेकिन ट्वीटर ने रिपोर्टिंग को भी बदला है। ज़्यादातर रिपोर्टर अब अपने फॉलोअर के बीच ख़बरों को ब्रेक कर संतुष्टि पा रहे हैं। रिपोर्टरों के बीच पेशेवर प्रतियोगिता अब उनके चैनलों पर नहीं होती बल्कि ट्वीट पर होती है। मैं कोई निष्कर्ष नहीं दे रहा लेकिन लगता है कि मीडिया संस्थानों और व्यक्तिगत मीडिया के बीच एक जंग चल रही है।

इस पूरे बदलाव में हिन्दी धीमी रफ्तार से बढ़ रही है। कई फोन ऐसे हैं जो हिन्दी के फोन्ट को पठनीय नहीं बनने देते। लिहाज़ा रोमन में लिखना पड़ता है। हिन्दी में चैनलों और उनके एंकरों के फॉलोअर की संख्या चंद हज़ार ही हैं। टैम के आंकड़ों के मुताबिक हिन्दी के लोग गुमान में रहते थे कि अंग्रेजी से कई गुना हिन्दी के दर्शकों की संख्या है। मगर ट्वीटर ने इस धारणा को ध्वस्त कर दिया है। हिन्दी में शायद ही कोई एंकर है या चैनल है जिसके फॉलोअर की संख्या पचास हज़ार भी हो। इस बदलाव पर खुल कर सोचा जाना चाहिए। मेरी तरह क्या आप भी ट्वीटर पर ख़बरों को फॉलो करते हैं? अनुचरण बनने की होड़ मची है ट्वीटर पर तो बताइये आप लीडर हैं कि फोलोअर हैं?
(यह लेख दैनिक भास्कर में शनिवार को प्रकाशित हो चुका है)

मूर्तियों में जड़ मत करो विवेकानंद को

गौरव की मुद्रा में शांत भाव से बाजूबंद किये सामने देखते हुए विवेकानंद की मूर्तियां और तस्वीरों को किसने नहीं देखा होगा। इन मूर्तियों में ढाले गए विवेकानंद दुर्लभ साहस के प्रतीक बना दिये गए हैं। मूर्तियों की ऊंचाई ने विवेकानंद से हमारी दूरी और बढ़ाई है। वो श्रद्दा के ह्रदय स्थल में तो बने रहे लेकिन उनकी प्रासंगिकता सिर्फ याद कर लेने भर में नहीं हैं। जब से एक राजनीतिक विचारधारा ने उनको अपना प्रतीक बना लिया,उनके गेरूआ का रूतबा सियासी समझा जाने लगा। आज भले ही यह दुनिया विवेकानंद के विचारों से बहुत आगे निकल गई है लेकिन उनके विचार इसी दुनिया में विचरन कर रहे हैं। लेकिन जब तक हम विवेकानंद को उनकी विशालकाय मूर्तियों से निकाल कर एक सामान्य स्तर पर नहीं लायेंगे उनके विचार हमेशा असंभव या अप्रासंगिक जान पड़ेंगे। युवा जीवन में उच्चतम आदर्श की परिकल्पना में उनकी मूर्ति या तस्वीर भले ही पहले नंबर पर हो लेकिन यह भी तो सच है कि कितने लोग हैं जो विवेकानंद के आदर्शों पर चल निकलते हैं। गांधी की तस्वीर थाने में टांग देने से थाने अहिंसक नहीं हो जाया करते।

विवेकानंद होना क्या है? उनकी जीवन यात्रा पर नज़र डालें तो आप पायेंगे कि निरन्तर अपने चरित्र को परखते रहना ही विवेकानंद होना है। उन्होंने सन्यास को अपनाया मगर संसार को नहीं त्यागा। एक सन्यासी तमाम लोकों में भटकता रहा मगर अपने ख्यालों में मां की चिन्ता से कभी मुक्त नहीं हो पाया। अपने पिता की मृत्यु के बाद विरासत में मिले संयुक्त परिवार के मुकदमों से उबरने की चिन्ता बराबर बनी रही। कभी समझौतों के ज़रिये तो कभी दूसरी कोशिशों के ज़रिये नरेंद्रनाथ इन झंझटों से भिड़ते रहे। बस अपनी मां के लिए। वो अपनी मां के लिए सन्यास से संसार में बार-बार लौटते रहे बल्कि संसार में ही रहकर सन्यास धर्म को पूरा किया। वो पलायनवादी सन्यासी नहीं थे। शंकर की लिखी और पेंगुइन से हिन्दी में प्रकाशित किताब विवेकानंद जीवन के अनजाने सच के पन्ने एक सामान्य संयासी की अद्भुत यात्रा से परिचय कराती है। ईश्वरचंद विद्यासागर ने नरेंद्रनाथ को एक स्कूल में हेडमास्टर बनाया। लेकिन विद्यासागर के दामाद ने नौवीं और दसवीं क्लास के छात्रों के साथ मिलकर साज़िश रची। छात्रों ने आवेदन किया कि नरेंद्रनाथ यानी विवेकानंद को पढ़ाने नहीं आता। विद्यासागर ने उस आवेदन को देखते ही विवेकानंद को स्कूल से निकाल दिया तब जब उन्हें नौकरी की सख्त ज़रूरत थी।

विवेकानंद का कष्ट एक आज भी एक आदमी का कष्ट है। अपनी मां भुवनेश्वरी देवी का यह पुत्र दुनिया और भारत भ्रमण के तमाम शहरों में भी याद करता रहा। मां को कष्ट न हो इसलिए पैसे भेजता रहा। पैसों को बचाता रहा। इस सवाल से जूझते हुए कि सन्यासी तो सांसारिक मोहमाया का त्याग कर चुका होता है तो क्या मां का मोह करना संसार करना नहीं है। इस क्रम में विवेकानंद के मददगार दुनियाभर में फैले रहे। राजस्थान के खेतड़ी के महाराज अजित सिंह ने भी काफी मदद की। उनकी पूरी जीवन यात्रा में राजस्थान की मिट्टी और खेतड़ी के महाराज का बड़ा योगदान रहा है। अगर ये लोग विवेकानंद के आसपास न होते तो कभी वे अपनी मां के दुखों से चिन्ता मुक्त नहीं हो पाते। हुए भी नहीं। तभी सिस्टर निवेदिता ने कहा है कि वे आज के ज़माने के विवेकशील संयासी थे। कामिनी कंचन अति सहज ही त्याग दिया लेकिन वे प्यार और कर्तव्य कर्म के विसर्जन के लिए हरगिज़ राज़ी नहीं हुए। शंकर की शोधपरक किताब बता रही है कि विवेकानंद का जीवन सिर्फ शिकागों में दिया गया अतुलनीय भाषण नहीं है बल्कि वो यात्रा है जिसे पढ़ते हुए हम अपनी जीवन यात्रा से गुज़रने लगते हैं।

शंकर की किताब में एक और रोचक प्रसंग है। खेतड़ी के महाराज ने जिस जहाज़ में फर्स्ट क्लास की टिकट खरीदी थी उसी जहाज़ में जमशेदजी टाटा भी सफर कर रहे थे। टाटा माचिस के आयात के सिलसिले में जापान जा रहे थे। विवेकानंद ने उन्हें अपने देश में उद्योग स्थापित करनी प्रेरणा दी और विज्ञान और तकनीक शिक्षा की ज़रूरत पर ज़ोर दिया था। बाद में जमशेदजी ने टाटा स्टील और इंडियन इस्टीट्यूट आफ साइंस की स्थापना की। यह रोचक प्रसंग बताता है कि सन्यासी विवेकानंद माया को समझने के लिए विश्व विचरन नहीं कर रहे थे। वो तमाम मुल्कों के खान पान पर भी गहरी नज़र रखते रहे। सेहत पर काफी ज़ोर दिया। एक सभा में जब उनसे किसी भक्त ने पूछा कि आपने ईश्वर को देखा है तो जवाब दिया कि मुझे जैसे मोटे इंसान को देखकर ऐसा लगता है क्या। इन प्रसंगों को जाने बिना हम विवेकानंद से प्यार नहीं कर सकते। वो हमारे देश की किसी राजनीतिक दल के प्रतीक नहीं हैं। वो हमारे देश के जन जन का जीवन हैं। जब तक हम उनके जीवन के पहलुओं के करीब नहीं जायेंगे उनके संघर्ष को समझना मुश्किल है।

आज जिसे देखिये भारत का गौरव गान करता हुआ उन्हीं पंक्तियों को दोहराता जा रहा है जो पहले कही जा चुकी हैं। मगर ज़रा एक पल को यह समझने की कोशिश कीजिए कि आज से एक सौ अठारह साल पहले कोई सन्यासी अपने भारत और वहां की परंपरा का पहली बार इतना बेजोड़ व्याख्यान दे रहा होगा तो उसे सुन कर और बाद में पढ़कर लोग किस कदर सिहर उठे होंगे। विवेकानंद ने कहा था कि अगर कोई यह सोचता है कि उसका ही धर्म सिर्फ बचा रहे और बाकी समाप्त हो जाए तो मुझे उस पर दुख होता है। पवित्रता या महानता किसी एक धर्म की देन नहीं है। सभी धर्मों और व्यवस्थाओं में महान चरित्रों ने जन्म लिया है। आप जल्दी ही सभी धर्मों के बैनर पर लिखा देखेंगे कि संघर्ष नहीं मदद, विनाश नहीं चाहिए, साथ चाहिए। दुनिया को विवेकानंद के इस भाषण से सीखना चाहिए था। उनके भाषणों के ठीक सौ साल बाद जब दुनिया में मज़हबी नफरत के बीज फलने लगे थे तो सोचा जाना चाहिए था कि एक सन्यासी बहुत पहले इसकी दवा बता गया है। शिकागों में दिया गया उनका भाषण हिन्दू धर्म का गौरवगान नहीं है। बल्कि उस भारत का गौरवगान है जहां तमाम धर्म एक हरे पौधे की तरह बागीचे को सुशोभित करते रहते हैं।विवेकानंद के विचार और जीनव से बिना गुज़रे हुए न तो उनके विचार को समझा जा सकता है और न ही उनके जीवन को। वो भारत के सन्यासी हैं। एक ऐसा सन्यासी जिसके जगत में भारत का स्वाभिमान है मगर दूसरों का आदर भी। विवेकानंद पूरब के वो सूरज हैं जो भारत में डूबता है तो उसी वक्त पश्चिम में निकल रहा होता है।
(published in rajasthan patrika)

कोई तुम्हें हांकता है गधे की तरह

प्रमोशन की आस में तुम्हारी हड्डियां जर्जर होने लगीं हैं
जमीर खंडहर, दिन ख़राब
दिल की धमनियों में मौसम नहीं दफ़्तर धड़कता है
कोई तुम्हें हांकता है गधे की तरह
बनाता है काबिल एक और गदहे की तरह
ताकि तय हो सके तुम्हारे दुखों की मंज़िल
जहां पहुंच कर तुम एक से विजयी दूसरे से ठगा महसूस करोगे
नौकरी में अफ़सर होकर भी नौकर ही रहोगे
उठो ख़ुद को खोजना शुरू करो
आलमारी में दुबकी किसी पुरानी कमीज़ की तरह बाहर निकल आओ
वीकेंड की शराब और फ़िर वही चेहरे
पुकारता है तुम्हे हर सोमवार
दफ़्तर काम करने की जगह है, होड़ की नहीं
वहॉं पड़े और तुम्हारी तरह जर्जर हो चुके तमाम प्राणियों पर तरस खाओ
जैसे तुम खा रहे हो ख़ुद पर
हम सब अपने भीतर के उस खंडहर में रहते हैं
जिसे दफ़्तर कहते हैं
इस दस्त से निकलने का रास्ता एक ही है
पीछे वाले के लिए छोड़ने का रास्ता
होड़ मत करो हड्डियां जर्जर हो जाएंगी और जमीर खंडहर ।
(यह गद्य शैली की कविता है ।)

रामधन एंड मूलधन इन यूपी इलेक्शन पार्ट-२

रामधन मूलधनवा को खोजते हुए भागे जा रहे थे। ए मूलधनवा चलबे न रे। राहुल भइया पांच साल मांगत हवन। कहत रहलन कि बाईस साल सभन के देनी हमन के तब मिलकर सब धान बाईसे पसेरी कई दिहलन सन। सब धान पसेरी हमनी कई दिहनी हो भइया। न रे मूलधन सपा बसपा और भाजपा के कहत रहलन राहुल भइया। इब यूपी के पांचे साल मे चमकाए दिहन। भोट देबे रे। धत रामधन भइया। उपी कबहूं न चमकिहें। उपी के टूपी पहिरावत बाड़न सब। मूलधन तोहरे लइकवा त कहत रहे कि काका इंग्लिश मीडियम में न पढ़ल न से न मालूम तोहरा राहुल भइया का कहतरान। टाइम टू चेंज मने बूझले रे। बदलाव का वक्त। बयार बह रहिस है राहुल के पक्ष में। अरे भइया तू कांग्रेसी हो गइला का हो। कुछ मिलल बा का? मिली। बेनी बाबू कहतरहलन के सभन जात बिरादरी के कल्याण होई। अरे भइया कल्याण छोड़ पोंटी भइया वाला दारू सस्ती भइल की न। अखिलेश भइया त कहत रहलन के सझियां काल जे न पी सकेला उ सपा में आ जाए। पोंटी भइया के वसूली से तंग आ गए। दाल महंगी हो गई हम कुछौ न कहनी। चाय महंगी हो गए हम कुछौ न कहनी। दारूओ महंगी हो जाए तो समझो घोरे कलयुग आ गएल बा। अखिलेश भइया पोंटी भइया के दारू में डिस्काउंट दिलावे के कहतारन। अरे मूलधनवा, पोंटी भइया भिजनेसमैन नू हैं। भिजनेसमैन सब पार्टी का होता है। अरे हमनी इंग्लिश पढ़िले रहतीं तो बूझतीं इ कुल बतिया। पोंटी भइया सभन के यार हऊअन। पत्रकारों सभन के यार हउअन। देखल न अखिलेश भइया सीधे उनकर नाम न लेलन। कहलन के आ जा दारू पियाइब। बाप रे। त भइया चलन पोंटी भइया के इहां चलल जाओ। दारुओ मिली और मौजे रही। एकनी के भोटवा दे के का होई। पोंटी भइया जेकरा के कहियन भोटवा दे देवल जाइ। उपी के बदले द। हमनी के का करेके बा। बदलिहें उपी ते तबो हमरा कोदो मिली।

अरे भाग रे मनहूस मूलधनवा। खाली जुगड़वे में रहिबे रे। भोट लोकतंत्र का अधिकार है नू। भइया त रखन बक्सा में आपन अधिकार। भाला खानी निकाल के दौड़त जा राहुल बाबा के पीछे। बोलिह कि बक्सा से अधिकार निकाल के ले आइन बाड़ी। ले ल हमर भोट। लेकिन मूलधनवा हथिया देख लीहिस त रे। त ओकरा ला एगो चदरा ले जो। देखा दिहे। चदरा देखते ही हथिया भाग जाइ। न रे मूलधना। बहिन जी मूर्ति त बनौली नू। बोल औकरा पहिले लखनऊ लखनऊ नियत लागे रे? अब देख बाकी पर्टियां त कमइल सन आ एगो मूर्तियों ने भेटाइल। इ त कम से कम मूर्ति तो बनवा देहली। देखे खाती। भतीजवा के बियाह होई तो हनीमून खाथी हाथी पार्क भेज दिहे। देख भइया। हमनी हइं भोटर। इ कुली पार्टी पोलिटिक्स में पड़ेके ना। कहे द जे जौन कहता। तू भोट के ले के बेसी कूद जन। तन पर लुंगी आ गंजी लेकर भोटवा के भाला नियत जे भांज तारा नूं उ बुझाइ चुनउवां बाद। नाचते रह जइब। हम त कहतानी कि दू पैग मार नहरिया किनारे। तब चल जाइये कमलिया के नाच देखे। ते नाच देखबे रे मूलधनवा। साला इ लोकतंत्र के जगाइ रे। ए भइया तहार कुछौ न होई। लोकतंत्र त ना जागी बाकी तू जगले रह जइब। जा तू भाग राहुल अखिलेश आ बहिन जी के रैली में। हम जात हईं कमलिया के नाच देखे। हा..तनी पोंटी भइया भेटइहन तो कहिअ कि मूलधनवा दारू मांग रहले।

जागी लोकतंत्र, मुई भोटतंत्र, कइसन कटारी चलइले रे कमलिया तू....बतइबे रे कमलिया तू....काहे नाचत हउवे रे कमलिया तू...तू न शीला तू न मुन्नी तू न चमेली, तू तो बस हमरी कमली....भइले जवान,रहबे जवान। ते कबऊ न बुढइबे रे। तनी इ भोट में चुम्मा त दे दे रे। मूलधन चिल्लाने लगता है। रोने लगता है। गाने लगता है और नहर के किनारे गिर कर सो जाता है। नेपथ्य से आवाज़ आती है। उठो मूलधन, मैं हूं...मैं कमली। तुम्हारे सपनों की रानी। देखो तुम्हारे भोट ने कितनों को ताज पहनाया। बस मैं ही रह गई। मुझे अपने भोट से छू लो मूलधन। मुझे भी वो ताज दे दो। राज दे दो। प्यार दे दो। फिर पर्दा गिर जाता है।

पुराने बरगद से दरकते मुस्लिम नेता

क्या उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति मुस्लिम मतदाता के प्रति अब तक के बने बनाए सभी नज़रिये को बदलने जा रही है? क्या यह पहला चुनाव होगा जो बाबरी ध्वंस,गुजरात दंगे के साये से निकलकर मुसलमान नए सिरे से मतदान करेगा? क्या सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट मुस्लिम राजनीति के मैदान में नई प्रस्थान बिंदु के रूप में स्थापित हो चुकी है? क्या यह पहला चुनाव होगा जब मुसलमान बीएसपी की सरकार की इस दावेदारी को कम प्राथमिकता देगा कि पांच साल में दंगे नहीं हुए और अयोध्या विवाद के वक्त राज्य में शांति बनी रही? क्या मुस्लिम मतदाना इस चुनाव को अपनी नई आकांक्षाओं को ज़ाहिर करने के मौके के रूप में देख रहा है? क्या मुसलमान अब आरक्षण और हक के सवाल को ज़्यादा प्राथमिकता देने जा रहा है या भाजपा के ख़िलाफ किसी भी पार्टी के मज़बूत उम्मीदवार को वोट देने की रणनीतिक समझदारी को छोड़ किसी एक राष्ट्रीय पार्टी के पाले में जाकर अपनी भूमिका बदलना चाह रहा है? ऐसे बहुत से सवाल हैं जो इस बार उत्तर प्रदेश के चुनावों के संदर्भ में उठ रहे हैं।


ज़ाहिर है इन सब सवालों के जवाब के संदर्भ में मुस्लिम नेतृत्व को भी इस बहस के दायरे में लाना होगा। नब्बे के दशक से उत्तर प्रदेश और पूरे देश में मुस्लिम समाज की राजनीतिक आकांक्षाएं बदलने लगी हैं। लेकिन यह बदलाव काफी धीमा रहा है। इससे पहले सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आए बदलाव ने नई ज़मीन तैयार की है। इसी ज़मीन पर पहली बार आम मुसलमान ने सच्चर की रिपोर्ट से हां में हां मिलाते हुए माना कि सचमुच मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर है। सच्चर की रिपोर्ट ने मुस्लिम मध्यमवर्ग को अपनी बादशाही अतीत को झटक कर मौजूदा हकीकत के आंगन में आकर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। वो राजनीतिक असुरक्षा के साये से निकलकर अपने हकों और परवरिश में बदलाव का रास्ता खोजने लगा है। ये और बात है कि इस ज़मीन पर मुस्लिम नेतृत्व के पुराने बरगद ही लहलहाते नज़र आ रहे हैं। कोई नया नेता नज़र नहीं आ रहा है जो मुसलमानों की नई आकांक्षा कों राजनैतिक नेतृत्व दे सके।

इसका सबसे बड़ा कारण है कि पार्टियों ने अपने भीतर किसी भी मुस्लिम नेता को स्थायी रूप से पनपने नहीं दिया है। उत्तर प्रदेश के मैदान में उतारे गए और बुलाकर लाए गए जितने भी प्रमुख मुस्लिम नेता हैं उन सबका राजनीतिक बायोडेटा इस बात की तस्दीक करता है। जब यह सवाल समाजवादी पार्टी छोड़ कर सीधे कांग्रेस कार्यसमिति में बिठाये गए रशीद मसूद से पूछ रहा था तो उन्होंने सख्त एतराज़ किया। कहने लगे कि उन्होंने कोई पार्टी नहीं बदली। पार्टियां बदल गई इसलिए उन्होंने नया ठिकाना ढूंढ लिया। रशीद मसूद कई दलों में रह चुके हैं। अब वो कह रहे हैं कि कांग्रेस में आने के बाद वो मुस्लिम दलितों को आरक्षण दिलायेंगे और केंद्रीय नौकरियों में अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार प्रतिशत के कोटे को भी बढ़ायेंगे। वो यह अच्छी तरह जानते हैं कि दलित मुस्लिमों के आरक्षण के सवाल पर कांग्रेस ने ऐसा कुछ भी खुलकर नहीं कहा है। शायद वो अपने ठिकाने को उचित ठहराने के क्रम में दलील दे रहे थे। तब ऐसा लग रहा था कि आज भी मुस्लिम नेतृत्व उसी पुराने खांचे में फंसा हुआ है। वो पहले खुद की सोचता है बाद में कौम की। ये और बात है कि रशीद मसूद बार बार कहना चाहते हैं कि उन्होंने कभी मुस्लिम राजनीति नहीं की। वो हमेशा से सेकुलर राजनीति करते रहे हैं। मगर हम सब जानते हैं कि कांग्रेस में उनका आदर सत्कार किस वजह से हुआ और चुनाव के वक्त ही क्यों हुआ? रशीद मसूद को अगर खुद को मुसलमान नेता बनाए जाने से इतनी आपत्ति ही थी कि उन्होंने खुद के इस रूप में देखे जाने और बुलाये जाने पर मना कर देना चाहिए था। वो चुनाव के बाद भी कांग्रेस में जा सकते थे।


यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि ताकि मुस्लिम नेतृत्व में आ रहे तथाकथित बदलाव को आप समझ सकें। बाबरी ध्वंस के समय तक मुस्लिम रहनुमाई या वोटों की तथाकथित ठेकेदारी उन धार्मिक प्रमुखों के हाथ में रही जो तमाम दलों से अपने संबंधों या हैसियत हासिल करने के बदले हुंकार भरते थे कि किसे वोट देना है या नहीं देना। मगर मुस्लिम मतदाताओं ने चुपके से इन धार्मिक नेताओं को कहां गर्त में पहुंचा दिया आज पता ही नहीं चलता। मुस्लिम मतदाताओं ने सबसे पहले अपने मज़हबी नेताओं को सियासत के दायरे से निकालकर मज़हब के दायरे में समेट दिया। लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस समाजवादी पार्टी और बसपा ने नया मुस्लिम नेतृत्व खड़ा करने की कोशिश नहीं की। शायद यही वजह है कि चुनाव आते ही कई दलों के मुस्लिम नेताओं को बुलाया जाने लगा।

बीएसपी से राष्ट्रीय लोकदल में गए शाहीद सिद्दीकी समाजवादी पार्टी में आ गए हैं। शाहीद सिद्दीकी कांग्रेस सहित चार दलों में रह चुके हैं। समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य आज़म ख़ा सपा में कल्याण सिंह के आने पर चले गए थे अब वे फिर से आ गए हैं। आज़म ख़ां ने उत्तर प्रदेश में सक्रिय मुस्लिम पार्टियों में अपना वजूद नहीं खोजा। वो जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में चार राजनीतिक दल एक सिस्टम के रूप में स्थापित हो चुके हैं। इसलिए कल्याण सिंह के बाहर जाने पर वो सपा में आ गए। लेकिन नेताओं की इतनी कमी है कि जिस हाजी याकूब खां को मायावती ने निकाल दिया उसे राष्ट्रीय लोकदल ने शामिल कर लिया क्योंकि शाहिद सिद्दीकी के जाने के बाद अजीत सिंह को कोई मुस्लिम नेता चाहिए था। इसी कमी को पूरी करने के लिए उन्होंने बीएसपी से निकाले गए एक और विधायक शाहनवाज़ राणा को अपनी पार्टी में ले लिया। रामपुर के नवाब काज़िम अली मुस्लिम हितों के लिए लड़ते लड़ते कांग्रेस से सपा और वहां से बीएसपी और फिर कांग्रेस में आ चुके हैं। गौर से देखें तो ये चंद नेता मुस्लिम राजनीति के प्रतीक कम पेशेवर ज़्यादा लगने लगे हैं। जो वक्त और पद के हिसाब से पार्टियों को बदलते हुए मुस्लिम नेता बने रहते हैं। यह भी समझिए कि पार्टियों को भी ऐसे ही पेशेवर मुस्लिम नेतृत्व की ज़रूरत है ताकि इनके चले जाने पर इतना ही समझा जाए कि एक व्यक्ति गया मगर मुस्लिम मतदाताओं का विश्वास पार्टी के प्रति बना हुआ है। यह बात तब समझ में आई जब यही सवाल राष्ट्रीय लोकदल के राज्य सभा सांसद मौलाना मसूद मदनी से कर दिया। उनका सख्त जवाब था कि आप मुस्लिम नेतृत्व की साख ख़राब कर रहे हैं। ज़ाहिर है कि वो मुस्लिम नेतृत्व को एक ऐसे क्लास या वर्ग के रूप में प्रतिस्थापित कर रहे थे जो पार्टियों से अलग है और पेशेवर है।

इन पुराने बरगदों के साये में मुस्लिम राजनीति की नई कोंपले पनप रही हैं। ये वो हैं जो जो बिना कोई बड़ा नाम बने हुए तमाम दलों के टिकट से जीत रहे हैं। तभी पिछली विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या 56 हो गई थी जो 1991 में 17 थी। चूंकि पार्टियों की पुरानी आदत जाती नहीं इसलिए वो अभी इन नेताओं को फेस वैल्यू के तौर पर खिदमत कर रहे हैं लेकिन जरा सा पर्दा हटा कर देखिये तो नज़र आएगा कि मुस्लिम मतदाता का मानस कैसे बदल रहा है। कैसे उसके बीच नए और पुराने मतदाता के हिसाब से विभाजन हो रहा है। कैसे उसके बीच मांग उठ रही है कि सच्चर की रिपोर्ट के बाद की योजनाओं से कब लाभ मिलेगा। वो यह हिसाब करने लगा है और वो यह काम मुस्लिम नेतृत्व के दायरे से अलग जाकर भी कर रहा है। बैकवर्ड कोटे में साढ़े चार फीसदी कोटे की राजनीति उसी आकांक्षा का प्रतीक है न कि किसी मुस्लिम नेतृत्व का जो हर चुनाव में पार्टी बदल लेते हैं।
(published in dainik bhaskar)

रामधन एंड मूलधन इन यूपी इलेक्शन

रामधन पगडंडी पर दौड़े चले आ रहे थे। मूलधन ने रोक लिया तो टोके जाने पर गरमा गये। काहें रे काहें टोक दिया हमको बीच रास्ते में। मूलधन भी गरम हो गया। अबहूं अपशकुन का भय सतावत है भइया। राजनीति तो हम गरीबों के लिए साजनीति है। सही से साज देती है। सीधा कर देती है। अरे काहें ऐसे बोलता है मूलधनवा। तुमको ब्याज नहीं मिला क्या अबकी चुनाव में। पौवा पर टैक्स बढ़ गया है। आधे बोतल दिया है। तीन रोज़ का खुराक। तो मस्त रह ओतने में। नहीं भइया। सुनत रहीं कि बाबू टिकटार्थी हमरे इंसाफ खातिर लखनऊ गएल रहलन। साले इंसाफ के गंजी अंडरवियर बनाके पहिरबे का रे। ज़मीन का मुकदमा है उ तो सगरो चुनाव में रहेगा। चुनाव बिला जाएगा मगर मुकदमा बिलाया है कभी। मूलधन गरम हो गया। एमबीसी हैं रामधन। हम एमबीसी हैं। हमरे जात के हैं सैम पित्रोदा। विश्वकर्मा की संतान। रामधन और गरम हो गया। बोला विश्वकर्मा की संतान है तो लोहा का समान काहे नहीं बनाइस। प्लास्टिक आ कचकाड़ा के कंप्यूटर बना दिया। आज तकला विश्वकर्मा दिवस को राष्ट्रीय अवकाश में बदलने का बात किया ऊ।

ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का....लाउडस्पीकर से आती आवाज़। मगर एक और आवाज़ तेजी से बढ़ती चली आ रही थी। यूपी बदनाम हुई, डार्लिंग तेरे लिए, अमिया से आम हुई डार्लिंग तेरे लिए, ओ वोटर रे ओ वोटर रे, तूं कहां छुप गया चीटर रे...नैनो कार पर अवधेश बाबू का प्रचार चल रहा था। कार छोटी है मगर सरकार हमारी होगी। मोस्ट बैकवर्ड की अब फ्रंटफुट पर खेलने की बारी होगी। अति पिछड़ा जागेगा और अति अगड़ा दौड़ा चला आवेगा। राहुल बाबा भी हमीं को खोज रहे हैं। हम सब अब तक चुनाव में लुकाइल बिलाइल थे,अब ताकत हैं। बीजेपी भी खोज रही है। नीतीश जी को नहीं लाना चाहती,कुर्मी नेता को तो कुशवाहा को ले आई। लोकल नेता चाहिए भोट खातिर। हमको भोट दीजिए। नेता हम नया ज़रूर हैं और अभी तक अपनी पार्टी के ही हुज़ूर हैं।

मूलधन चकरा गया। लगा खेत से गाजर उखाड़ने। आज शाम को उसे कुम्हार के यहां से घड़ा भी लाना था। सोचा तालाब से सिंघाड़ा लेते चले। तभी साइकिल से अखिलेश भैय्या की पार्टी वाले आ गए। कम्युनिस्ट क्रांति से उधार लेकर लाल लाल टोपी पहने उम्मीद की साइकिल चलाते हुए। रथ पर रथ। यात्रा पर यात्रा। ये छोटे सरकार हैं, यूपी के दावेदार हैं। नारे लग रहे थे। रथ प्राइवेट जिम की तरह है जिसकी छत पर सिंबल साइकिल खड़़ी है। मूलधन कहने लगा कि हम अति पिछड़ा हैं भैय्या। अखिलेश बोलने लगे तो काहें घबराता है। हम बनायेंगे न पिछड़ा में अगड़ा। दिल दिया है जान भी देंगे ए पिछड़ा तेरे लिए...कर्मा के गाने पर अखिलेश के रथ से आवाज़ आती है।

तभी कमल छाप हाथों में कीचड़ लिये चले आ रहे हैं। देखो यही है वो कीचड़ जिसमें कमल खिलता है और यही है वो फटीचर जिससे कीचड़ बनता है। बस तनाव फैल गया। पिछड़ों को इंसाफ दिलाने निकले कुशवाहा को कैसे कह दिया कि कीचड़ हैं। कटियार बोले कीचड़ नहीं इ तो विभिषण है। रावण को हराने का आभूषण हैं। ऊं स्वाहा स्वाहा कुशवाहा। आदतन भाजपा वाले बिना हवन के काम शुरू नहीं करते। उमा जी चुप। एमबीसी नेता की तलाश में,लुट गई बीजेपी बाज़ार में। ये नारा लगने लगा। कांग्रेसी मजा लेने लगे।

तभी फुर्सतगंज की रैली में राहुल बाबा आ गए। मुझे बहुत गुस्सा आता है। आपको नहीं आता? रैली में लोग चिल्लाने लगे कि आता है आता है हमें भी गुस्सा आता है। पर क्या करें किसी और पे नहीं, तुम पे भी जो आता है। राहुल बाबा बोलने लगे, क्रेंद्र सरकार ने ये दिया, वो दिया मगर आपने वोट नहीं दिया। इस बार देना। यूपी की ताकत लौटेगी। विधानसभा चुनाव ही प्रधानमंत्री बनवा देगा केंद्र में। आपका विकास नहीं है। बाइस साल में नहीं हुआ। हम नया मेथड लाए हैं। पांच साल में यूपी विकासशील भारत का विकसित राज्य बन जाएगा। कहते कहते राहुल बाबा चलने लगते हैं। चलते चलते कहने लगते हैं। एमबीसी और मुस्लिम खोजने लगते हैं। कुछ तो आ जाओ। कुछ तो टूटो। कुछ तो जुटो। तभी प्रचार गाड़ी गाने लगती है। तू छुपी है कहां, मैं तड़पता यहां...तेरे बिन सूना सूना है यूपी का जहां। तू छुपी है कहां। ये कौन एमबीसी भड़का, ये कौन मुस्लिम छटका, महफिल में ऐसी भगदड़ मची तो दिल है मेरा धड़का। नवरंग के गाने पर नौजवानों के गीत।

दे दे भोट दे भोट दे भोट दे रे..देदे भोट दे...मूलधन कपार पीट लिहिस। मुझे इंसाफ चाहिए। तो रामधन बोला फ्री में आता है क्या इंसाफ। दे अपना भोट इनको। पर सबने हमें ठगा है रामधन भैय्या। अरे मूलधन,मुकदमा लड़ने वक्त वकील की फीस का ध्यान नहीं रखते। भोट इनकी फीस है तुम्हारे इंसाफ की। दे दो।

सैम तुम बैकवर्ड हो

आपने सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा के बारे में तो सुना ही होगा। तीस सालों से जो भारतीय सत्ता के शिखर तबके में सैम पित्रोदा नाम से जाने जाते हैं। उत्तर प्रदेश के रमाबाई नगर की एक रैली में जब राहुल गांधी ने सैम पित्रोदा के नाम का असली विस्तार बताया तो वहां मौजूद भीड़ में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। राहुल उस भीड़ को बता रहे थे कि भारत में दूरसंचार क्रांति के लेखक सैम पित्रोदा हैं और सैम विश्वकर्मा जाति के हैं यानि अति पिछड़े वर्ग से आते हैं। मैं बचपन से सैम पित्रोदा के बारे में एक रहस्य की तरह पढ़ रहा हूं। जैसा कि हर स्कूली छात्र का मासूम मन होता है मैं भी सैम को एक ऐसे शख्स के रूप में जानता रहा मानो वो भारत की समस्याओं के कोई टेक्नो दैवी रूप रहे हों। अब मैं सैम को इस नज़र से नहीं देखा मगर हैरानी हो रही है कि मैंने अब तक सैम को सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा यानी विश्वकर्मा जाति के प्रतीक के रूप में क्यों नहीं देखा था। राहुल गांधी ने क्या इस चुनाव से पहले कभी सैम को देखा होगा? क्या उनके पिता राजीव गांधी ने सैम से दोस्ती किसी जातिगत राजनीतिक समीकरणों को ध्यान में रखकर की थी? अगर ऐसा था तो राजीव कभी सैम को चुनावी सभाओं में नहीं ले गए। एकाध अपवाद हों तो माफी चाहूंगा मगर जो सैम टैक्नो क्रांति के गैर जातीय और गैर क्षेत्रीय प्रतीक रहे हों वो उत्तर प्रदेश के चुनावी मैदान में विश्वकर्मा जाति के निकल आए तो इस सामान्य समझ कर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

यह खोज मौलिक रूप से राहुल गांधी की ही रही होगी। उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ों की मदद से मायावती ने पिछली बार अपनी ज़बरदस्त जीत का जाल बुना था। राहुल इसमें सेंध लगाना चाहते हैं। इसलिए वो मंच पर मौजूद अति पिछड़े नेताओं की तरफ इशारा कर रैली में आए लोगों को बता रहे थे कि आप भी आगे बढ़ेंगे। वो मुलायम सिंह के गढ़ में भी घूमते रहे। जिनका पिछड़ी जातियों पर कब्जा रहा है। राहुल के ही इशारे पर कुर्मी जाति में पकड़ रखने वाले पूर्व समाजवादी नेता और कांग्रेस सांसद बेनी प्रसाद वर्ना को कबीना मंत्री भी बनाया गया। अब सवाल यह उठता है कि क्या एक नितांत गैर जातिवादी माहौल में पला बढ़ा यह युवा राजनेता राजनीति की व्यावहारिकता को समझने लगा है? राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के भीतर बदलाव के लिए निकले थे। युवा कांग्रेस में लोकतंत्र की बहाली के लिए एक किस्म की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा कायम कर रहे हैं जिसका मूल इस बात में बताया जाता रहा कि जो ज़मीन के स्तर पर लोकप्रिय होगा वही चुनकर युवा कांग्रेस में नेता बनेगा। तो क्या यह राजनीतिक जानकारों की कमी थी जो यही देखते रहे कि राहुल गांधी प्रतिभा को मौका दे रहे हैं, पृष्ठभूमि को नहीं। क्यों यह माना जाने लगा कि यह युवा राजनेता बीसवीं सदी की जकड़नों में फंसी राजनीतिक समीकरणों से निकलने का कोई रास्ता ढूंढ रहा है? अगर ऐसा ही था तो क्या राहुल गांधी का विश्वास कमज़ोर पड़ रहा है? क्या वो मायावती और मुलायम सिंह यादव के जातिगत समीकरणों का काट उन्हीं के फार्मूले से देने लगे हैं?

दरअसल राहुल गांधी कई स्तरों पर बदल रहे हैं। वो समझ रहे हैं कि दिल्ली की जनता या ट्वीटर जमात को सबसे पहले भारतीय वाले नारे से खुश किया जा सकता है मगर वोट नहीं बटोरा जा सकता है। वोट बटोरने के लिए ज़रूरी है कि सैम पित्रोदा अब अति पिछड़े के रूप में आगे आएं। ये सैम पित्रोदा की नाकामी है कि उन्होंने जिस कांग्रेस पार्टी के नेताओं से नज़दीकी का लाभ लिया और कई काम अच्छे भी किये मगर खुद को विश्वकर्मा जाति के रूप में पेश नहीं किया जिससे वे कांग्रेस के काम आ सके। अच्छा राहुल गांधी बदल रहे हैं। सात साल से उत्तर प्रदेश की लगातार यात्राओं ने उनकी सोच बदल दिया है। वो लड़ रहे हैं और ज़रूरत पड़ने पर भिड़ रहे हैं। अपने गुस्से को ज़ाहिर करते हुए एंग्री यंग मैन की छवि देने की कोशिश करते हैं मगर गांव कस्बों के वोटरों के लिए जातिगत नायकों को ढूंढ रहे हैं।

सिर्फ जाति के आधार पर ही नहीं। राहुल गांधी बदायूं की आलिया कादरिया मदरसा पहुंच गए। नमाज़ी टोपी पहनकर छात्रों से गले मिलने लगे। लखनऊ में थे तो इस्लामी शिक्षा के केंद्र नदवातुल विश्वविद्लाय चले गए। यह सब वो केंद्र रहे हैं जो कई कारणों से बाबरी मस्जिद के खिलाफ चले राजनीतिक आंदोलन के दौरान चर्चा में रहे थे। हर जगह जाने के बहाने अलग हैं। कहीं शिक्षा के अधिकार के तहत मदरसों का मामला हो तो कहीं मुसलमानों को आरक्षण देने का मसला। राहुल यूपी के चुनावी मैदान में उसके सारे पुराने हथियारों से ही लड़ रहे हैं। उनके अभियान के बाद कांग्रेस के नेता खुल कर पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने के मसले पर बोल रहे हैं। वो फिर से उस पुराने कांग्रेस की जमीन खोज रहे हैं जिसने कांग्रेस को लंबे समय तक सत्ता दी। क्या यह मुमकिन है? देखना होगा कि एक साल कई कार्ड खेलते हुए राहुल गांधी कांग्रेस को यूपी की सत्ता में ला पाते हैं या नहीं? उनका एक्का तो यूपी के विकास का मुद्दा है मगर बाकी पत्तियों को वो उनकी चाल के मुताबिक ही फेंक रहे हैं।

राहुल गांधी क्या बेसब्र होते जा रहे हैं? उन्होंने खुद को उत्तर प्रदेश के चुनाव से इतना जोड़ लिया है कि अगर नतीजे नहीं आए तो उनकी व्यक्तिगत नाकामी समझी जाएगी । यह एक बड़ा जोखिम है जिसकी ज़रूरत नहीं थी। राष्ट्रीय मुद्दों से उनकी अनुपस्थिति उनका पीछा कर रही है और करेगी। लेकिन क्या राहुल गांधी खुद को विकास और जातिगत राजनीति के मिश्रण के मुताबिक ढालने लगे हैं। जो लोग राहुल गांधी से राजनीतिक कारणों से मिलते रहे हैं वो हमेशा ये बात कहते हैं कि इलाके के तमाम समीकरणों की वे पूरी जानकारी रखते हैं मगर वो इन समीकरणों से आजाद एक ऐसा स्थानीय लीडर ढूंढ रहे हैं जो उनकी फौज को नया चेहरा दे सके। राहुल अगर यूपी का मैदान जीत भी गए तो क्या वो राहुल गांधी होंगे जिसकी छवि उन्होंने खुद बनाई या वो राहुल गांधी होंगे जिसे आप एक नए मुलायम या नई मायावती का संस्करण के रूप में देख सकेंगे। ऐसे निष्कर्ष के लिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए मगर अगर ऐसा हो जाए तो हैरान भी नहीं होना चाहिए। राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में सोई हुई कांग्रेस को लड़ना तो सीखा रहे हैं मगर हथियार वही पुराने हैं जिसके वापस मिलने के इंतज़ार में कांग्रेस यूपी में हारती रही है। पिछले लोकसभा के नतीजों से उत्साहित राहुल गांधी के पास वक्त कम है और उत्तर प्रदेश की चुनौती बड़ी। याद रखियेगा उन छवियों को जिन्हें राहुल ने लोगों के घर पहुंच कर खुद बनाई। एक ऐसे नेता की छवि जिसके लिए जनता जाति या धर्म से ऊपर है। जिसके लिए कभी सैम पित्रोदा विश्वकर्मा जाति के नहीं हुआ करते थे।
(यह लेख राजस्थान पत्रिका में छप चुका है)