आईसीआईसीआई आई है

ब्याज कुछ सस्ता हुआ
कर्ज कुछ बढ़ता गया
ज़िंदगी में रंग लाई है
आईसीआईसीआई आई है

कर्ज़ का मकान है
किश्त पर रोटी है
ब्याज पर दुकान है
भूख से लेकर नींद तक
बैंक का सामान हैं

मूल में सूद मिलाकर
वसूली की योजना लाई है
ले जाने के लिए आई है
आईसीआईसीआई आई है

कर्ज़ का प्रसार है
ब्याज का प्रचार है
सस्ता सस्ता बोलकर
घर में कार आई है
आईसीआईसीआई आई है।

अब कहां वो शाम होती है

निठल्ला सूरज डूब गया है
चांदनी में रात होती है
बीच का वक्त खो गया है
अब कहां वो शाम होती है

कितने अरमान खिलते थे
शाम की पनाह में
सूरज डूबने से पहले
लाल रंग के आकाश में
चार यारों की बात होती है
अब कहां वो शाम होती है

दिन सुहाने नहीं रहे अब
नींद उड़ गई जाने कब
दोपहर की बात होती है
अब कहां वो शाम होती है

घर लौटने का वक्त बदल गया है
बीबी ने दरवाज़ा खुला छोड़ा है
दरवाज़ें पर दस्तक कहां होती है
अब कहां वो शाम होती है











भीड़ तुम बढ़े चलो

जो मर गया है
वहीं पड़ा रह गया
उसका बाप रास्ते में फंस गया
मुख्यमंत्री का भेजा हुआ मुआवज़ा
न्यूज़ चैनल पर चल गया
ख़बर सुन कर मां रो रही है
भीड़ आ रही है।

पुलिस ने जब लाश उठायी
भीड़ ने पत्थर उठायी
मातम न पोस्टमार्टम
पत्थर कंकड़ दे दनादन
सबकी खैर लेने
भीड़ आ रही है।

सायकिल सवार को कुचल कर
बाहुबली ट्रक भाग निकला है
पीछे आने वाले ट्रकों को
भीड़ ने घेर रखा है
जला दो मिटा दो
शहर में आग लगी है
भीड़ आ रही है।

भीड़ के खिलाफ कौन है
अंग्रेजी चैनल पर छिड़ी बहस है
चुप रहने का संस्कार
क्या भारत वर्ष का ही है
क्यों करते हैं हम ऐसा
भीड़ से अलग चुप जैसा
एंकर ने सवाल पूछा है
जवाब एक जैसा है

चुप रहने वालों की भी
एक भीड़ बनती रहती है
चुप रहने वालों की भी
भीड़ आ रही है।

कोई चुपचाप गा रहा है
पुरानी कविता का रीमिक्स
भीड़ तुम बढ़े चलो
सब तुम्हारे साथ है
पत्थर डंडा और गाली
चौराहों पर बरसात है
मां की आंखों के आंसू
गैस बन गए है
पर तुम रुको नहीं
पर तुम झुको नहीं
भीड़ तुम बढ़े चलो

समर्थन वापसी का परीक्षण

गठबंधन की राजनीति में सियासत के ये परमाणु परीक्षण कई बार हो चुके हैं। अक्सर ये परीक्षण अचानक होते हैं। कई बार पहले से भी पता होता है कि फलां मुल्क नुमा दल समर्थन वापसी का परीक्षण करने वाला है। उसने अपनी नई मिसाइल टेक्नॉलजी तैयार कर ली है। फार्मूला बन गया है। बस जिसकी सरकार होती है उसके कुछ नेता तुरंत इंटरनेशनल एटोमिक एनर्जी एजेंसी के एजेंट की तरह सक्रिय हो जाते हैं। पता करने लगते हैं कि बाकी दल क्या कर रहे हैं? बाकी दलों से समर्थन वापसी का परीक्षण करने वाले दल पर दबाव डलवाते हैं। जो दल वापसी पर आमादा है उसे अलग थलग करने की कोशिश करने लगते हैं।

भारत अमरीका परमाणु करार पर वामदलों का मामला कुछ ऐसा ही लगता है।उनकी नाराज़गी को सत्तारुढ़ दल के एजेंट(आईएईए) बेवजह बताने लगते हैं। मगर नाराज दल अपनी बात पर अड़ा रहता है। गठबंधन की घुटन से तंग आकर वह कुछ जायज़ मांगें उठाता है।कहता है कि उसके बूते सरकार है मगर उसकी मांगे कोई मानता नहीं। हिंदुस्तान की राजनीति में यही हो रहा है। पहले भी हो चुका है। संयुक्त मोर्चा सरकार के समय में हर वक्त समर्थन वापसी का परीक्षण होता रहता था।बाद में मान जाते थे। सरकार चल जाती थी।लेकिन एक दिन धमाका हो गया और संयुक्त मोर्चा की सरकार चली गई।

कांग्रेस के नेता भी इसी मौज में हैं।उन्हें लगता है कि प्रतिबंध यानी चुनावी राजनीति में खराब प्रदर्शन के भय से वामदल सरकार नहीं गिरायेंगे।और अगर ऐसा करेंगे तो कांग्रेस फायदे में रहेगी क्योंकि उसे प्रतिबंध यानी घेरने का मौका मिलेगा। वह कह सकेगी कि पार्टी विश्व शांति के लिए काम करेगी।वामदल इराक अफगानिस्तान की तरह खाक होकर किसी और दल का सहारा मांगते फिरेंगे।कांग्रेस का इरादा अमरीका जैसा लग रहा है।इसीलिए एसएमएस पोल के जरिये सौ लोग बता रहे हैं कि मनमोहन सिंह ठीक हैं। वामदल नहीं हैं। अमरीका के कुछ भी करने के लिए तैयार होने की तर्ज पर कांग्रेस भी खुद को तैयार बता रही है।

बहरहाल भारत की राजनीति में पोकरण तृतीय का माहौल बन रहा है। इसका देसी संस्करण सती होना भी है। सीपीआई के एबी बर्धन ने एनडीटीवी से कहा कि सरकार इस मुद्दे पर सती होना चाहती है तो हम क्या करें। यानी वामदल अपने अस्तित्व को बचाने के लिए समर्थन वापसी का परीक्षण कर सकते हैं। बर्धन साहब बिल्कुल भारत की तरह बोल रहे हैं। कि हम शांतिपूर्ण परीक्षण करेंगे। प्रतिबंध की बात अमरीका यानी भारत सरकार तय कर ले। वामदल यानी भारत और कांग्रेस यानी अमरीका दोनों खूब जानते हैं कि समर्थन वापसी का परमाणु परीक्षण कई बार हो चुका है। इसमें पहले प्रतिबंध लगते हैं। फिर बातचीत होती है फिर समझौता होता है। फिर परीक्षण हो जाता है। गठबंधन की राजनीति में समर्थन वापसी का परीक्षण नया नहीं है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार है

लेखक ख्यातिलब्ध विद्वान है। दैनिक भाष्कर में एक विशेषज्ञ का परिचय पढ़ा तो लगा कि विद्वान हो कर भी क्या करना अगर ख्यातिलब्ध न हुए।अखबारों में परिचय का आखिरी सिरा भी दिलचस्प होता है।लेख के अंत में यह देख कर महत्वकांक्षा रंग बदल लेती है कि पहले वरिष्ठ होना फिर विद्वान होना फिर ख्यातिलब्ध होना। आगे बढ़ने से पहले बता दूं कि इस तरह का परिचय ज़रूरी होता है लेकिन इस ज़रूरत का अध्ययन कीजिए तो मामला रोचक बन जाएगा।

मुझसे एक हमपेशा सज्जन ने फोन पर पूछा कि लेख के बाद आपका परिचय क्या दें। तो मैं हंसने लगा। फिर कहा कि ये लिखियेगा न कि लेखक कुछ हैं। उनका जवाब था वही पूछने के लिए फोन किया है। बस बात परिचय पर निकल पड़ी। लिखने वाला क्या है। उन्होंने अपने पुराने अखबार का किस्सा सुनाया। जहां परिचय में यह लिखा जाता है कि लेखक अखबार से जुड़े हैं। मैं अखबार का नाम नहीं दे रहा हूं। अगर बुरा लग गया तो मैं वहां नहीं जुड़ पाऊंगा। ख़ैर उन्होंने कहा इस परंपरा में एक समस्या थी। जब अखबार के मालिक लिखते थे तो मन करता था कि यह लिख दें कि लेखक से अखबार जुड़ा है।

इसी प्रसंग में ख्याल आया कि लेखकों के परिचय पर एक संक्षिप्त शोध हो जाए।
लेखक फलनवां चिलनवां हैं। मुझे दिलचस्प लगता है।

आइये गिनते हैं कि कितने तरह के परिचय होते हैं
१. लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
२. लेखक सुरक्षा सलाहकार हैं
३. लेखक ख्यातिलब्ध विद्वान हैं
४. लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं
६. लेखक राजनीति के जानकार हैं
७. लेखक कार्यकारी संपादक हैं
८. लेखक टीवी आलोचक हैं

आपको लगता है कि सूची में परिचय कम रह गए तो अपने अपने शहरों के अखबारों से परिचय ज़रूर भेज दीजिए। मज़ा आएगा कि इनका विश्लेषण कर। आखिर स्वतंत्र पत्रकार ख्यातिलब्ध विद्वान हुए बिना क्या हुए और विद्वान भी हो गए तो कार्यकारी तो नहीं हुए।

दिल्ली की लड़कियां- 8

तुम्हें क्या अच्छा लगता है? दिल्ली विश्वविद्यालय के रिज़ से गुज़रते हुए इस सवाल ने ऐसी शोर मचाई कि आवाज़ सासाराम के शेरशाह के मकबरे तक पहुंच गई। रशिका ने पूछा था राकेश से। मुझे क्या अच्छा लगता है, मतलब किस सेंस में। अटपटे जवाब पर रशिका ने कहा कुछ तो अच्छा लगता होगा जिससे तुम खुद को जोड़ते होगे।फिल्म, हीरो, गाना, खाना, कपड़े, शहर, दोस्त।इसका जवाब सोचते सोचते राकेश सासाराम के अपने घर की छत पर भटक गया।बीस साल की उम्र तक किसी ने नहीं पूछा कि अच्छा क्या लगता है?बहने रोटी सब्जी और हरी मिर्च थाली में रख कर छत की कोठरी में दे आती थी।नाश्ते में यही सबको मिलता था।किसी से पूछ कर कभी नाश्ता नहीं बना कि आज क्या खाना है।पिता जी जो कपड़ा लाए वही पहना गया।रिश्तेदारों की शादियों में जहां जहां गए वहीं घूमा गया।अलग से किसी ने पूछा ही नहीं कि क्या अच्छा लगता है।आईएएस बनना ही है ये तो पिताजी ने कहा था।रशिका ने उसके हाथों को झटक दिया। हंसने लगी।कहां ऐसे सोच रहे हो जैसे किसी इम्तहान में जवाब लिखने लगे।

राकेश को कहना पड़ा तुम दिल्ली की लड़कियों के पसंद बहुत हैं।राकेश बहुत याद करके बोला कि गया का तिलकुट और अनरसा अच्छा लगता है।रशिका को लगा कि किसी पाषाण युग का व्यंजन बता रहा है। हंसने लगी।राकेश रिज की गर्माहट को भांप नहीं पाया।वो परेशान हो गया।अपनी पसंद ढूंढने में। रशिका ने कहा तुम्हें पहले कौन सी लड़की अच्छी लगती थी।पहले तो किसी से मिला ही नहीं।सासाराम में मोहल्ले की लड़कियां होती थीं।जिनसे बातचीत होती थी मगर राखी के दिन सबसे ज़्यादा।हम सब मोहल्ले में इस दिन भाई बहन हो जाते थे।रही बात किसी के पसंद करने की तो लड़कियां सपने में आती थीं।किसी दोपहर पड़ोस की कोई लड़की आ भी गई तो चीनी मांगने।झलक भर मिलती थी।बस।तो क्या पसंद करते।इसलिए कमरे में माधुरी दीक्षित की तस्वीर होती थी।मोहल्ले की लड़की की नहीं।हां शादी में कभी कभी लहंगे में सजी धजी लड़कियों पर नज़र जाती थी।मगर बात करने का मौका नहीं मिला। दुल्हन के पीछे बैठी चंद लड़कियां।आधी से तो राखी बंधाई होती थी।बाकी दोस्त की बहनें होती थीं।सड़क पर कोई लड़की जाती हुई मिलती भी तो उनके रिक्शे के पीछे भाई सायकिल से आता दिखता था।प्रोफेसर साहब तो अपनी बेटी को खुद ही छोड़ने कालेज आते थे। और बात करने की कोशिश भी करो तो नेता गुंडे चले आते थे कि वो मेरी है।तुमने उससे कैसे बात की।रशिका हंसने लगी।राकेश ने कहा कि हम लड़कों की दुनिया में लड़कियों पर ऐसे ही सट्टे लगते हैं। रही बात तुम्हारे सवाल की तो किसे पसंद करता हूं कहना मुश्किल है। क्रश होगा...ये भी कह दो कि नहीं था। बिहार के लड़कों को क्रश नहीं होता। रशिका राकेश की क्लास लेने लगी। राकेश ने कहा बहुतों पर क्रश हुआ।कोई भी लड़की बहुत दिनों के लिए नहीं दिखती थी।जो भी जितनी देर के लिए दिखती क्रश हो जाता।रशिका ने कहा अल्लाह जाने बिहार में जवानी आती भी है या नहीं।क्यों?राकेश बोल उठा। हम क्या बिहार के जवान नहीं हैं।लेकिन यहां तो तुम मेरे साथ रिज में अकेले घूम रहे हो।दोस्तों ने देख लिया तो क्या जवाब दोगे।बस राकेश को सांप सूंघ गया।बोलने लगा तभी कह रहा था कि मेन रोड से चलते हैं।लगेगा कि कालेज से आ रहे हैं।चलो चलते हैं।रशिका बोली बैठो यहीं।कितना अच्छा है।किसी के आने से डरते हो तो लड़की से बात ही मत करो।नहीं यार वो बात नहीं है।राकेश अब तनाव में था।बेकार के रात भर..तुम तो जानती हो न कमरे में मेरा चचेरा भाई भी रहता है।मजाक में भी पता चल गया तो बात घर तक पहुंच जाएगी।चलो हिंदू कालेज के सामने बैठ कर बात करते हैं।कब तक?रशिका का यह सवाल राकेश को और परेशान कर गया।कब तक? हां राकेश, तुम मेरे साथ अकेले बात करने में डरते हो तो साथ क्या खाक निभाओगे।मुझे भी तो तुमसे बात करनी है। बात वो नहीं है।राकेश बोलने लगा।मैं जिनके साथ रहता हूं।उन्हें भी देखना होता है।कहने लगेंगे कि मैं पढ़ता लिखता नहीं। लड़की घूमाता रहता हूं। लड़की घूमाना। ये क्या होता है राकेश। अरे बिहारी लड़के ऐसे ही बोलते हैं।

बस बात टूट गई।रशिका नाराज़ हो गई।रिज़ से बाहर आकर बंदरों के बीच बादाम फेंक दिया।आटो पकड़ कर घर चली गई।राकेश अपने आस पास बनाए डर के मकानों में घिरा रहा।यूपीएससी का सपना, रशिका और घर बात पहुंचने का खौफ।प्रेम के ये बेहतरीन लम्हे भय की भेंट चढ़ गए।वो पैदल ही हड़सन लाइन की तरफ जाने लगा। अपने से बात करने लगा।क्या होता कोई देख ही लेता।दोस्त ही तो है मेरी।ऐसे तो किसी लड़की से बात नहीं कर सकते।फिर वो भी तो लड़कियों से बात करते हैं।रशिका को फोन कैसे करें। कहीं फोन उसे पापा मम्मी ने उठा लिया तो।दिल में ऐसा चोर बैठ गया कि राकेश इस अहसास को जी ही नहीं सका कि रशिका उसे अच्छी लगती है। दिल्ली की लड़की रशिका।उसकी किताबें, टिफिन बाक्स, स्वेटर का रंग।सब अच्छा लगता है।मजबूर ये हालात इधर भी हैं।उधर भी हैं।सिलसिला का यह मशहूर लाइन राकेश अक्सर अपने टू इन वन पर सुनता था। आज लग रहा था कि वो चौतरफा मजबूर हालातों से घिर गया है।माल रोड से बस में बैठ गोविंदपुरी के लिए चल पड़ा।रास्ते भर सोचता सोचता घर आ गया। दरवाज़ा खोलते ही दीपक ने पूछा कहां थे?कोई साथ में थी क्या?दीपक के चेहरे की कुटील मुस्कान में घर में घुसना मुश्किल कर दिया।राकेश को यकीन हो गया कि किसी न किसी ने रिज में रशिका के साथ घूमते हुए देख लिया है।इश्क में अक्सर वहम हो जाता है।हर सवाल छुपा कर रखे गए राज़ तक पहुंचता लगता है।राकेश के चेहरे की हवाई उड़ गई। चुपचाप कमरे में गया।हर नज़र से खुद की नज़र बचाते हुए।खुद से बोलने लगा कि लाइब्रेरी बहुत अच्छी है।देर तक पढ़ने से काफी काम हुआ।खूब पढ़े हैं।पता नहीं राकेश यह जवाब क्यों दे रहा था।दीपक अपने सवाल का जवाब भूल सोनिया के बारे में सोचने लगा।सोनिया तो तब भी आती थीं जब वो नहीं आती थी।बहुत देर तक सोचा कि बस पकड़ कर उसके घर ही चले जाए।मगर बताएंगे क्या कि कहां जा रहे हैं?इस सवाल के जवाब के इंतज़ार ने उसे देर तक बिस्तर पर लिटाये रखा। दिल्ली की लड़कियां ख्वाब में बिहार बनाती रहीं।

दिल्ली की लड़कियां- सात

कमरे में अंधेरा कर दिया गया। बल्ब पर ब्राउन पेपर का लिहाफ डाल दिया गया था। कमरे की रौशनी मद्धिम हो गई थी।टू इन वन में डिस्को बजने लगा।अंग्रेजी डिस्को। कैसेट आर्ची से खरीदा गया था।नब्बे के दशक में अस्सी के दशक का अमरीकी हिट गाना बजा दिया गया था।सुनने वाले पर गाने का धुन ऐसे सवार हुआ मानो अस्सी के दशक के अमरीका में बर्थ डे पार्टी मना रहे हों।नब्बे के दशक में दिल्ली आए बिहारी छात्रों के ठिकानों पर बर्थ डे पार्टी होने लगी थी।पेस्ट्री, पैटीज़, चिप्स, पेप्सी एक प्लेट में सजा दिया जाता।केक काटने के रस्म का इंतजार होता।कमरे का सारा सामान समेट कर डांस का भी इंतजाम हो गया था।लाजपतनगर जाने वाली डीटीसी की बस में सवार लड़के चल पड़े।धीरे धीरे सब आ रहे थे।सब आ रही थीं।

हाय...सोनिया का चिरपरिचित अभिभावदन।सुधाकर के जन्मदिन की पार्टी थी।आईपी कालेज से सुधाकर की दोस्त प्रिया भी आ गई थी।सुधाकर संतोष से अधिक मार्डन था। उसमें हिम्मत थी वाकमैन लगा कर घूमने की।लड़कियों से मिलता तो हाथ ज़रूर मिलाता।उनके कंधे पर हाथ रखता।वह इंतज़ार नहीं करता कि कोई लड़की उससे बात करने के लिए आगे आए।वो खुद चला जाता।संतोष को लगता था कि हम क्यों जाए। लड़की खुद आ कर बात करे। बस यही एक फर्क था।कमरे में भीड़ बढ़ती जा रही थी। लोग एक दूसरे के करीब आ रहे थे।जगह की कमी के कारण।कम होती दूरी ने बिहारी लड़कों को कई सदियों का फासला झटके में तय करा दिया।अस्सी के दशक का डिस्को गाना बजने लगा। डांस होने लगा।सोनिया, प्रिया, राशिका सब झूमने लगी।बिहारी लड़के किनारे खड़े होकर ताली बजाने लगे।प्रिया ने कह दिया अरे तुम लोग क्यों नहीं आते। आधे इस संकोच में जम गए कि अगर कमर नहीं हिली तो क्या होगा।बोले हमें डांस नहीं आती।रशिका ने कह दिया तो हमें कौन सी आती है।हम तो सिर्फ झूम रहे हैं। एक दो बिहार कुंवर हिम्मत कर आगे बढ़े।हाथ ऊपर उठाया पहले अमिताभ की नकल की। फिर घबराकर मिथुन की तरह।तुरंत बाद गोविंदा की तरह झटके खाने लगे।डांस का क्या शमा बंधा।जगह कम थी।इसलिए शरीर टकराने लगे।पता नहीं सोनिया प्रिया और रशिका को कैसा लगा।मगर उन्हें करीब को छूकर आए चार यारों को हफ्तों नींद नहीं आई। वो चूक गए थे।उनका बर्थ डे गुज़र चुका था।वो इस संकोच में ही पार्टी नहीं कर सके कि पता नहीं कोई लड़की आएगी या नहीं।सुधाकर बाज़ी मार चुका था।लाजपत नगर की वह शाम बिहारी लड़कों के कई कमरों में पार्टी का नया सवेरा ले आई।पार्टी की योजना बनने लगी।

हकीकतनगर की लड़कियां, हडसन लाइन की लड़कियां जो नोट्स के बहाने संपर्क में आ चुकी थीं, बर्थ डे पार्टी की चीफ गेस्ट होने लगी।बसंत पंचमी के बाद सरस्वती विसर्जन में डांस करने वाले लड़के अब बर्थ डे पार्टी में डांस करने लगे।हर पार्टी के बाद चर्चा आम हो जाती कि किसका इशारा किस तरफ था।क्या वह चाहती है या नहीं।हाथ पकड़ने से लेकर कंधा छूने की बातें एनसीईआरटी की बोर किताबों से अधिक रोचक होने लगीं।ऐसी ही एक बर्थ डे पार्टी में प्रमोद जी ने सोनिया के कमर में हाथ डाल दी। प्रिया सिनेमा में कोई अंग्रेजी फिल्म देख कर आए थे।टैप डांस के बारे में पता चला था।सो आज़माने का जोखिम उठा लिया।बात आग की तरह फैल गई।सोनिया के लिए सामान्य था मगर तमाम गाली सुनने के बाद भी प्रमोद जी महीनों तक थिरकते रहे। वो आईएएस बनने से पहले अब एक बेहतर डांसर बनने का ख्वाब देखने लगे।

लालू प्रसाद यादव को पता ही नहीं चला कि बिहार के बाहर एक बड़ा सामाजिक बदलाव होने लगा है।माई फैक्टर मुस्लिम यादव फैक्टर नहीं रहा।बल्कि मैं वाला माई हो गया।मैं कैसा दिखता हूं, मैं क्या खाता हूं, मैं क्या पहनता हूं, मैं क्या सुनता हूं। बिहारी छात्रों ने इन सवालों के जवाब दिल्ली की लड़कियों के लिए ढूंढने शुरू कर दिए।

बीत गया पंद्रह अगस्त

पंद्रह अगस्त
पांच बजे
नित्य कर्म
छह बजे
स्नान ध्यान
सात बजे
झंडा गान
आठ बजे
भाषण आख्यान
नौ बजे
जलेबी जलपान
दस बजे
चाय की दुकान
ग्यारह बजे
अख़बार की चर्चा
बारह बजे
राष्ट्र गुणगान
एक बजे
ग़रीबी का ध्यान
दो बजे
दाल भात तरकारी
तीन बजे
नींद आई सरकारी
चार बजे
मेरा भारत महान
पांच बजे
समोसे की दुकान
छह बजे
सूरज अस्त
बीत गया
पंद्रह अगस्त

दिल्ली की लड़कियां- 6

सोनिया संकोची नहीं थी।बात करते करते उसका हाथ दोस्तों के कंधे तक चला जाता।हल्का सा स्पर्श।दीपक का कंधा ऐसे जम गया जैसे बिहार की जमी हुई सामाजिक तस्वीर।एक करंट कंधे से उतर कर पटना स्टेशन तक पहुंच गई। सोनिया का नज़दीक आकर हंसना। खुलकर बोलना।उसके कपड़े।जीन्स और टॉप। डियो की खुश्बू।पटना कालेज की गलियों में कहां ऐसी लड़की दिखती थी।दिल्ली में दिखती है लेकिन मिलती नहीं।शुक्र है सोनिया हमारी दोस्त है।चारों लड़के अब प्यार को दोस्ती के गहरे अल्फ़ाज़ों में समझ रहे थे।सोनिया को भी अच्छा लगता था एक साथ आठ आंखों का देखना।सोनिया का आस पास होना उन्हें बता रहा था कि अभी हालत इतनी नहीं बिगड़ी है।पटना सचिवालय पर ही तो साधु यादव का कब्ज़ा हुआ है।लेकिन दिल्ली में दिल के उड़ान के लिए कितना बड़ा आसमान है। बचना...बस आ रही है।कहते हुए सोनिया ने दीपक को खींच लिया। बस तो सेकेंड भर में गुज़र गई।दीपक कई घंटे तक बस की रफ्तार से बचता रहा।हर बार सोनिया उसे खींच लेती।पूरी रात गुज़र गई। पहली रात थी जब जागते हुए पिता के भेजे पैसे का अपराध बोध और राज्य के पतन का नागरिक बोध परेशान नहीं कर रहा था।पहली बार दीपक दिल्ली का हो गया था। उसे सिर्फ गोविंदपुरी कालकाजी की सड़क और उस पर गुज़रती एम-13 नंबर की बस दिखाई दे रही थी।नई दिल्ली स्टेशन जाने वाली बस।ठसाठस भरी बस। दीपक को भीड़ में सोनिया के साथ खड़े होने का मौका मिला था।कुछ देर के लिए दोनों के कंधे टकराये थे। तेजी से लगते ब्रेक के कारण करीब आए थे। तभी लेडीज सीट खाली हो गई और सोनिया बैठ गई। दीपक सीधे खड़ा बगल के भाई साहब के पसीने से आ रही गंध से परेशान होने लगा। कई दिन और कई रात सपने और हकीकत की तरह गुज़रते चले गए।

संतोष अपनी अंग्रेजी लिए घूमता रहा।दिल्ली की लड़कियां अंग्रेजी के लिए नहीं ठहरती थीं।संतोष ने अचानक कह दिया कि बाइक और पर्स में नोट हो तभी तो कोई बात करे।चाय के पैसे नहीं लेकिन घूमेंगे लड़की के साथ।राकेश ने कहा तो कौन कहता है घूमो।संतोष को गुस्सा आ गया। बोला साले मूंछ मेरे लिए मुंडवा दिए क्या। कनपटी के बगल से बाल कतर दिया है और बोलता है क्रू कट है। किसको इम्प्रैस करने के लिए रे।राकेश बोला अपने लिए किया हूं।तुम्हारी तरह पढ़ाई छोड़ कर लड़कियों के पीछे नहीं भागता।संतोष ने भी पलट कर बोल दिया अच्छा बच्चू हर शाम छत पर सूरज को अर्ध्य देने जाता है कि उसको ताड़ने जाता है रे।

ताड़ना।तुलसी का वो घटिया छंद ये सब ताड़न के अधिकारी से नहीं आया है। वहां ताड़न का मतलब मारना था।यहां ताड़ना का मतलब देर तक हसरत भरी निगाहों से देखना है।देश के मजनूओं ने अपनी दबी कामनाओं को स्वर देने के लिए शब्दकोष से बाहर के कई शब्द गढ़े हैं।ये सब शब्द साहित्यकार हैं।शब्द बनाते हैं।गोलाबाज़, माल, बम, पटाखा।शब्दकोष में मतलब कुछ और है लेकिन मजनूकोष में कुछ और।

विवाद से प्रमोद जी का दर्द और गहरा हो गया।बहस में कूदने की ललक से बोल ही दिया।राकेश दिल्ली आने की तीन महीने में मूंछ गायब।कसी हुई पतलून की जगह जनपथ से लेवाइस का डुप्लीकेट।टीशर्ट पर लिखा हुआ है कि कूल एंड केयरलेस।बाबूजी के सामने काहे नहीं पहन के घूमते हैं।राकेश बोला कि तो आप नहीं बदले का।मेंहदी लगाकर धूप में बाल सूखाते हैं शर्म नहीं आती। अगली बार सोनिया आएगी तो छत पर ले जाऊंगा बोलूंगा देखो प्रमोद के बाल सुरमई हुए जा रहे हैं।ओज़ोन परत को छेदती आ रही सूरज की किरणों और मेंहदी के मिलन से।दीपक बोलने लगा कि अरे बहस बंद कर।लड़की आती है तो अच्छा लगता है।आने दो।

संतोष का गुस्सा कम नहीं हुआ था।बोल उठा कि दीपक जी घर में बता दीजिए कि दिल्ली में गर्लफ्रैंड मिल गई है।क्यों बता दें? शादी करने जा रहे हैं का? अरे फ्रेंड है बस।दीपक के इस जवाब पर संतोष फिर तुनका।बोला अरे घर वाला बाकी दोस्त को जानता है न जी।इसके बारे में भी बता दीजिए।काहे लिए जब होली में बाबूजी आए तो सोनिया को बोल रहे थे कि थोड़े दिन बाद आना। सेंटी हैं का जी। दीपक चुप। गुस्से में बाहर चला गया। चारों में से कोई मानने को तैयार नहीं कि उन्हें कोई लड़की अच्छी लगती है। सोनिया अच्छी लगती है।वो मन की बातों को बोलना नहीं चाहते। लड़ कर दूसरे के मन को खोलना चाहते थे। बहस बंद हो चुकी थी। मन के दरवाज़े से सोनिया आ चुकी थी। कभी कभी सोनिया जैसी और भी लड़कियां होती थीं।

ये वो लड़कियां थीं जिनके बारे में प्रमोद जी अक्सर बोला करते थे।पालिका बाज़ार में तो बूढ़ी औरतें भी जवान लगती है।उनके कपड़े, हेयर स्टाइल।उफ। दिल्ली में हमारे अलावा कोई बूढ़ा नहीं हुआ का रे।एनसीईआरटी को कब तक सीने से लगाए रखेंगे।दो अटेंप्ट हो गया है।दो के बाद तो गुप्त काल भी साथ छोड़ देगा। लगता है बिना काल ही काल में समा जाएंगे।

दीपक बस स्टैंड से घर आ रहा था। सोनिया नहीं थी। मगर सोनिया साथ साथ आ रही थी। दीपक मन ही मन सोनिया से बात कर रहा था। बहुत देर बाद लगा कि सामने वाली सोनिया नहीं है। कोई और है। कालकाजी की तरफ से आने वाली हर बस की लेडीज सीट पर सोनिया बैठी नजर आने लगी। सोनिया वाकई बस से उतरी। लेकिन कोई और था साथ में....दीपक को काठ मार गया। रात और दिन के वक्त अलग अलग पहर में देखे गए सारे सपने ढह गए। उसे अचानक यूपीएससी के सपने आने लगे।मन ही मन बोलने लगा..दिल्ली की लड़कियों का भरोसा नहीं। वो कब आती हैं और कब जाती हैं..पता नहीं लगता। वो जल्दी से घर पहुंचता है। थोड़ी देर बाद घंटी बजती है। राकेश ने दरवाज़ा खोला और चिल्ला उठा अरे सोनिया तुम। अकेले आ गई। क्या बात है भई। हमारे बिहार में लड़की किसी के घर चली जाए और वो भी अकेले हो नहीं सकता। बेगूसराय में तो गोली ही चल जाए। सासाराम में काट देगा। सीवान में तो शहाबुद्दीन उठवा लेगा। सोनिया हैरान थी। इतनी जघन्य प्रतिक्रिया क्यों। वो अपने दोस्त के घर ही तो आई है। सोनिया को पता नहीं था कि उसका आना सिर्फ उसका आना नहीं है। उसके साथ बहुत सारी नई चीज़े आती थीं जो पुरानी हो चुकी चीज़ों को धक्का मारती थीं। लेकिन असली बात सिर्फ सामाजिक संदर्भों के हवाले से ही निकल पाती थी। सोनिया समझ नहीं पाती थी। कभी नहीं कि क्यों लड़के सासाराम और सीवान का ज़िक्र करने लगते हैं? वो कहने लगती तुम लोग पास्ट से निकलो।बिहार जाओ ही नहीं।यहीं रहो।प्रमोद जी को लगा कि काश सोनिया का साथ मिल जाता तो दिल्ली हमेशा के लिए ठहर जाते।तभी सोनिया का हाथ प्रमोद के कंधे पर टिक गया।धरती अपनी धुरी पर रूक गई। प्रमोद अपने सपनों में घूमने लगा। उसका कंधा कई साल के लिए फ्रीज़ हो गया। सोनिया का हाथ हटने के बाद भी।दीपक सोनिया से बात करने लगा। शक करने लगा।सोचने लगा बस उतरते वक्त सोनिया के साथ कौन था?..

ये सब अपने अपने हिसाब से सोनिया की ज़िंदगी तय करना चाहते थे।बिहार के जर्जर हालात से निकलने का रास्ता खोज रहे थे।दिल्ली की लड़की के करीब जाना चाहते थे।तभी दिल्ली आते वक्त मां, पड़ोस की चाची की बात याद आ जाती कि पंजाबी लड़की से बच कर रहना।फंसा लेती है।गुप्ता जी का लड़का इश्क में बर्बाद हो गया। लव मैरिज कर लिया।आईएएस भी नहीं बना।इस पूरे लेक्चर का उद्देश्य था एक किस्म का पुरुषार्थ बनाना जिसे आईएएस बनने के रास्ते में किसी पंजाबी या दिल्ली की लड़की से बचाना था।एनसीईआरटी की पुरानी किताबों को पढ़ना था जिसका सिलेबस पंद्रह साल से नहीं बदला था। लड़के एक बदले हुए वक्त की बांहों में जाने के लिए छटपटा रहे थे।दिल्ली की लड़कियां उन्हें बुला रही थीं।मगर अपना पता नहीं देती।कहां आना है।इसलिए सबके मन में एक मकान बनता चला गया।जहां कोई न कोई लड़की आती रहती। जाती रहती।नाम और चेहरे बदल जाते।वेलेंटाइन डे के दिन क्यों शेव किया गया कोई नहीं जानते।वेलेंटाइन डे पर कालेज क्यों समय से पहले पहुंचा गया, कोई बोलना नहीं चाहता।पूरे दिन किसी का इंतज़ार करना...कोई नहीं मान रहा था। चार यार आर्चीज़ की दुकान से पता नहीं क्यों बिना कार्ड खरीदे लौट आए थे? सिविल सर्विस, खानदान का नाम, पिता जी का ख़ौफ....दिल्ली की लड़कियों ने इतना तो कर ही दिया कि चार यार अपनी सामाजिक स्थितियों, राज्य के राजनीतिक हालात के आलोचक बनते चले गए। कुछ था जो उन्हें उनके परिवेश का विरोधी बनाता चला गया। वो बहुत कुछ नया चाहने लगे। सोनिया कब घर चली गई। किसी को होश भी नहीं रहा।
क्रमश....

दिल्ली की लड़कियां- 5

दरवाज़े के दोनों तरफ हल्की घबराहट थी।खुलते ही सोनिया ने अंदर झांका।शक भरी निगाहों ने एक बार भरोसा करना चाहा कि सब ठीक है या नहीं।जहां चार लड़के एक साथ रहते हों वहां आकर ठीक किया या नहीं।रास्ते भर की उलझन उसके चेहरे पर दिख गई।चारों लड़कों ने भी हसरत भरी निगाहों से देखा। लड़की आई है।दोस्त है तो क्या हुआ लड़की भी तो है।सोचते सोचते दीपक ने कहा अरे भई हम ही चार है।जिनके साथ आप दिन के चार घंटे कालेज में गुज़ारती हैं। घर में इतने अजनबी हो सकते हैं? अरे नहीं..कहते हुए सोनिया थोड़ा सा अंदर आ चुकी थी।दरवाज़ा पूरा खुला छोड़ दिया गया समाज को अपनी तरफ से सफाई देने के लिए।

सर्दी के दिनों की गर्माहट बिन धूप के इस कमरे में सोनिया के साथ आ चुकी थी। सबके हाव भाव पहले से बेहतर हो चुके थे या पहले जैसे नहीं रहे। बोलने का तरीका भी बदला। मगर बोलने में वक्त लग गया।

सब चुप क्यों हैं? पहले सोनिया ने बोला। हकीकत को कल्पना की तरह देखने में मगन प्रमोद जी घबरा गए।बोल उठे कहां चुप हैं।लेकिन राकेश जानता था सोनिया ने ठीक कहा। दरअसल सब मन ही मन बातें कर रहे थे। इसलिए किसी को चुप्पी का अहसास भी नहीं हुआ।राकेश चाय ले आया।थैंक यू। बिहारी राकेश ने थैंक यू का कोई प्रत्यूत्तर नहीं दिया।दीपक ने कहा कि देख लो हम इन्हीं काल कोठरी में सपने देखते हैं।हवा नहीं आ सकती।धूप कहीं कहीं से आती है।बारिश का पता नहीं चलता। कमरे का अहसास बाहर खुलने वाले दरवाज़े से ही होता है।सोनिया ने कहा तुम लोग तो पागल हो जाओगे।डेढ़ कमरे में चार। इंपौसिबिल। त्याग है- राकेश ने कहा। हिंदुस्तान की नौकरशाही ऐसे ही नौजवान सपनों के त्याग से बनती है। बनने तक का त्याग।अफसर बनने के बाद उसकी काहिलपने का कौन नहीं कायल। समझना मुश्किल हो जाता है कि इतनी मेहनत से आईएएस बनने वाले अफसर क्यों दहेज से लेकर रिश्वत तक के चक्करों में फंस जाते हैं।देश की गति धीमी करने में उनका खासा योगदान रहा है। सोनिया ने कहा भाई तुम्हारी बातों का मतलब समझ में नहीं आया।तुम कवि टाइप क्यों हों।शुक्र है तुमने कम्युनिस्ट टाइप नहीं कहा। जवाब देते हुए राकेश चुप हो गया।

प्रमोद जी ने कहा व्यवस्था को लेकर फ्रस्टेटेड है। दीपक ने कहा नोट्स देख लेते हैं।गनीमत है कि कालेज के इम्तहान में इस व्यवस्था के पतन पर कोई सवाल नहीं होगा।गुप्ता काल के पतन पर सवाल होता है।सोनिया हंसने लगी।तुम लोग झगड़ते हुए भी दोस्त हो या दोस्त होते हुए भी दुश्मन।शायद सच कह दिया उसने। नोट्स के पन्नों में दीपक और सोनिया मशगूल क्या हुए बाकी बचे दूसरे कमरे में इशारेबाज़ी करने लगे।इम्प्रैस कर रहा होगा। गोला दे रहा होगा। हमसे कोई लड़की क्यों नहीं बात करती। प्रमोद जी इस सवाल को अभी तक समझ नहीं सके। बस दिलासा देकर पसर गए कि एक बार आईएएस बन जाने दो देखते हैं कौन लड़की बात नहीं करती।

दीपक और सोनिया के हंसने की आवाज़। अंदर तक सब हंसते हैं जैसे सोनिया के साथ दीपक नहीं अलग अलग वे भी हंस रहे हैं। राकेश ने नज़रे बचा कर खुद को आईने में देख लिया था। तेजी से हाथ फेर कर बालों को ऊपर की तरफ बाउंस करा दिया। प्रमोद जी बार बार अपनी टी शर्ट को देख रहे थे। लग रहा था कि जंच ही नहीं रहा। सोनिया सबको हल्के हल्के संवार रही थी। लड़कों को स्पेशल होने का अहसास होने लगा था। सब अंग्रेजी के शब्द ढूंढ रहे थे। दिल्ली की लड़की हिंदी में इम्प्रैस नहीं होती। इसलिए जार्ज माइकल के गाने पर चर्चा होने लगी।मडोना पर भी। संतोष साउथ एक्स के आर्चीज़ की दुकान से मडोना के गाने की किताब ले आया था। वो लूज़ टाक नहीं करता। सिर्फ सीरीयस टॉक करता था। खैर गाने की किताब को पहले पढ़ता फिर गाने को सुन कर समझता। फिर सुनता। बुश का टू इन वन था उसके पास। उसने जब बोलना शुरू किया तो सोनिया हल्का हल्का हंसी थी। तीनों को लगा था कि कहीं बाज़ी तो नही मार गया। उसे तीन चार गाने का अभ्यास हो गया था। मगर माइकल जैक्सन को बिना सुने समझे लफंगा घोषित कर दिया गया है।उसकी किताब आर्चीज़ में आउट आफ सेल हो चुकी थी। इसलिए जैक्सन को नकार दिया।संतोष को पढ़ने में कम बनने में ज़्यादा मन लगता था। दिल्ली टाइप बनने में। वो लड़कियों को देखकर सामान्य दिखने की कोशिश करता। मगर लोगों को लग जाता था कि शहर में हालात सामान्य नहीं हैं।

राहत की बात यह थी कि आज किसी की ज़बान से गाली नहीं छलक रही थी। बेगूसराय और सहरसा के स्वाभाविक संबोधन गुम हो गए। सोनिया के लिए। चार लड़कों के कमरे में एक लड़की उन्हें बदल रही थी। वो भी बदलना चाहते थे। देखना चाहते थे अपने लिए किसी की नज़रों में कौतूहल। मगर अपनी नज़रों को खुद से चुरा रहे थे। बिहार की ख़राब आर्थिक राजनीतिक व्यवस्था ने प्रेम से पहले के इन खूबसूरत लम्हों से भी वंचित कर दिया था।

ये खाओ। ये क्या है सोनिया ने पूछा। ठेकुआ। सोनिया हंस देती है।ठेकुआ। ठे....।अरे खाओ भई।ये बिहारी स्पेशल है।स्नैक्स समझो।ठेकुआ नश्वर नहीं होता।बहुत दिनों तक चलता है।सारे बिहारी मगध एक्सप्रेस से उतरते हैं तो सफेद चमचमाते बोरे में चावल के साथ पोलिथिन बैग में ठेकुआ भी लाते हैं।
सोनिया ठेकुआ शब्द और शक्ल से हैरान थी।ये तो काफी सख्त है।तो हम भी तो सख्त हैं।प्रमोद जी बोल उठे।न जाने कितने लड़कों ने दिल्ली की लड़कियों को ठेकुआ पुराण बताकर इम्प्रैस करने की कोशिश की होगी।वही जानते होंगे। सोनिया ने खाना शुरू कर दिया।प्रमोद जी ने बताना शुरू कर दिया।ऐसे बता रहे थे कि जैसे सोनिया के सामने ठेकुआ बनने लगा हो।इस बातचीत से दीपक थोड़ी देर के लिए आउट हो चुका था।सब को मौका मिलना चाहिए न। राकेश ने दीपक को कहा।दीपक ने कहा साला चिपक ही जाता है।हसरतें दीवार लांघती हैं। दीवार बनाती हैं। दीवार में दरार पैदा करती हैं। दिल्ली की लड़की ने सबके मन में हसरतें पैदा कर दी।
क्रमश...........

अकबरुद्दीन का बेवकूफीनामा

आंध्र प्रदेश में एक विधायक हुए हैं। अकबरुद्दीन ओवैसी। इन्होंने तसलीमा नसरीन का सर कलम करने का एलान किया है। मुझे लगता है कि जनाब बड़े ही बेवकूफ किस्म के इंसान और मुसलमान हैं। कहते हैं देश के मुसलमानों को इन पर गर्व है। बेड़ा गर्क़ कर दिया इस विधायक ने। लगता है जनता का काम नहीं किया है। इसलिए तसलीमा के बहाने कुछ एंटी इंकंबैंसी को ठीक कर रहा है। ओवैसी को ऐसा कहने के आरोप में जेल में बंद कर देना चाहिए। कम से कम बीस साल के लिए। या फिर ये जब बोले तो माइक हटा देना चाहिए। जैसा कि अब तोगड़िया के साथ होता है। बरखा दत्त ने हिंदुस्तान टाइम्स के कालम में लिखा है दोनों एक ही हैं। आप इस लेख को ओवैसी के प्रति निंदा वचन के रूप में न पढ़े। हमने उनकी अक़्ल और सलाहियत के गुम हो जाने की एक रिपोर्ट लिखाई है। आप बस गुमशुटा रिपोर्ट की तरह ही पढ़ें। इनकी अक्ल मिल जाए तो ब्लाग पर बता दीजिएगा। मैं हैदराबाद जाकर दे आऊंगा। आइये ६० साल होने पर भारत के इन बचेखुचे बेवकूफों का आह्वान करें। आप इसी तरह बने रहें ताकि हम हंसते रहे। सर कलम करेंगे। चार दिन हवालात में गुज़रेंगे बस ठीक हो जाएगा।

Just for women radio- 104.8

104.8 एफएम फ्रीक्वेंसी सिर्फ औरतों का रेडियो है। शहरों में रहने वाली औरतों की दुनिया का अकेला सार्वजनिक मंच।दिल्ली में हों तो जस्ट फार वीमेन रेडियों ज़रूर सुनें। हर वक्त औरतें बात करतीं रहती हैं। नए अंदाज़ और आत्मविश्वास से। ये वो औरतें हैं जो रेडियों के ज़रिये दूसरी औरतों से बात करना चाहती हैं। पंजाबी बाग की किरण कौर ने रेडियो जौकी से कहा कि वो टीवी सीरीयल से बोर हो गई हैं। अब टीवी बंद ही रहता है। इसलिए उन्हें ये म्याऊ रेडियो पसंद आता है। रेडियो का सिग्नेचर स्लोगन म्याऊ है। मैंने औरतों को म्याऊ कहते नहीं सुना। न ही उन्हें कभी बिल्ली समझा। मगर रेडियो औरतों को म्याऊ म्याऊ कहना चाहता है तो उसकी आज़ादी।


आज भी सरकारी चैनलों में केवल महिलाओं के लिए कार्यक्रम हुआ करते हैं। प्राइवेट चैनलों के ज़माने में औरतों को ही ध्यान में रखकर सीरीयल बनाए गए। करोड़ों रुपये सिर्फ औरतों के मनोरंजन पर खर्च होता हैं।वो हमारे घरों की सबसे थकी हुईं और बोर प्राणी हैं।मर्दो ने उन्हें थका और पका दिया है। यही काम सीरीयल भी कर रहे हैं।मनोरंजन उन्हें पूरी तरह आज़ादी का रास्ता नहीं देता।आप घर का काम खत्म होने के बाद बाहर न जाए इसलिए दोपहर में सीरीयल है।शाम की थकावट के बाद भी सीरीयल है। ये सारे औरत प्रधान सीरीयल हमारी औरतों को अफीम परोस रहे हैं। बेगार खटने वाली औरतों को मनोरंजन का अफीम। उन्हें बताते हैं कि घर का माहौल नहीं बदलता।तो क्यों न घर की सड़ी गली परस्थितियों को ही मनोरंजन में बदल दिया जाए। बेगार खटने के बाद भी औरतों को स्वतंत्र स्थान नहीं मिलता। साज़िश होती है। वो अपने अस्तित्व के लिए साज़िश करती है। वो कहीं से लाई गई पराई है। एक नए जगह में सुरक्षा तलाशने का संकट की कीमत वह बेगार खट कर चुकाती है। सीरीयल इसी स्थिति को बैकग्राउंड साउंड से मनोरंजन में बदल देते हैं। औरतें इन सीरीयलों को देखती हुई खुद को समझा लेती हैं कि हर घर की यही कहानी है। कहीं भी अच्छी दुनिया नहीं है। जो है अच्छा है। सास ने ताने दिए तो क्या हुआ बंटी की बीमारी के वक्त रात भर तो वह भी जाग रही थीं। हिंदुस्तान की तमाम दुल्हनें नए घर में अविश्वास और असुरक्षा में जी रही हैं। म्याऊ रेडियो उन्हें बुला रहा है अपनी बात बोलने के लिए। लेकिन औरतें अपने शोषण पर खुल कर नहीं बोलती। बल्कि प्यार और परिवार की चाशनी लगा कर बताती हैं कि उन्हें लोगों का ख्याल रखना अच्छा लगता है।


औरतें घर में खाली वक्त के बारे में चर्चा करती हैं। एक महिला बोल रही है कि वो और मंगेतर दोनों आफिस जाते हैं। मिलने का वक्त नहीं मिलता। मुश्किल से शाम के लिए दो घंटे का वक्त निकाल पाती हूं। होस्ट कहती हैं छुट्टी लो और दिन भर साथ रहो। महिला कहती है काश ऐसा होता मगर नौकरी ज़रूरी है।


हमारे देश में पिछले कुछ साल से औरतों का अनुभव संसार बदला है।वो पुरुषों की तरह जीवन के हर क्षेत्र में हैं।औरतों का भी दो संसार हो गया है।एक संसार पुराना है जहां औरतें सुबह से शाम तक परिवार का काम संभालती हैं तो दूसरा वह है जहां औरत अपने काम पर जाती है। अपने भविष्य के लिए। औरतें आपस में इन अनुभवों को साझा करना चाहेंगी। सो कर रही हैं। म्याऊ रेडियो पर।

इसी गुरुवार को होस्ट ने सभी औरतों को फोन कर यह बताने के लिए कहा कि वो शादी के विज्ञापन को कैसे देखती हैं। सब मिल कर विज्ञापन की शर्तों का मज़ाक उड़ा रहे थी। एक महिला ने कहा कि होमली और स्मार्ट लड़की चाहिए। घर का काम काज भी करे और आधुनिक भी हो जाए। दोनों साथ नहीं हो सकता। इसलिए मज़ाक उड़ रहा था। हो सकता है ऐसा करने की छूट उन्हें घर में न हो। लेकिन रेडियो के ज़रिये वो बात कर रही थी कि ये मर्द खुद को समझते क्या हैं। दुल्हन की नई नई शर्तो पर सभी भावी और पूर्व दुल्हनें चर्चा कर रही थीं।

एक दिन इस पर चर्चा हो रही थीं कि अच्छी सास कैसी हो या अच्छा पति कैसा हो। अगर कोई पति या सास सुन ले तो उसकी घिग्घी बंध जाए। एक दिन ऐसा भी होगा जब उनके घर से जाने के बाद औरतें रेडियो स्टुडियों के फोननंबर पर डायल कर दिल्ली भर की औरतों से बात करने लगेंगी। अनुभव साझा होगा।

लेकिन यहां पर डिप्लोमसी है। खुल कर आलोचना नहीं होती। एक महिला ने कहा कि वो नौकरी नहीं करना चाहिए। आदर्श दुल्हन बनना चाहती है। घर का सारा काम वही करे। हर तरफ से उसके नाम के पुकारे जाने की आवाज़ आती रहे..पूजा....पूजा...पूजा।तो होस्ट हंसती है। वाऊ...म्याऊ बोलती हैं। औरतों की बातचीत घर परिवार और प्यार से आगे नहीं जाती। बच्चे को संभालें कि दफ्तर को। या फिर प्यार को संभाले या परिवार को। इन्हीं सब उधेड़बुनों पर चर्चा है। लेकिन सुनना दिलचस्प है।उनके गप्प संसार में जाकर। पुरुष भी तो दकियानुसी और खराब स्तर की बातचीत करते हैं। उनकी बातचीत में कोई रोचक तत्व नहीं होता। तो बातचीत के कंटेट पर उलाहना किस लिए। इस रेडियो को सुनिये। पता चलेगा कि हमारा समाज माध्यमों की तलाश कर रहा है। टीवी, रेडियो, ब्लाग। बेचैनी इसलिए भी है कि बातचीत नई नहीं होती। इसलिए वो बातचीत की जगह माध्यम से ही बोर हो जाता है। म्याऊ रेडियो की कामयाबी या आगमन इसी दायरे में है।

दिल्ली की लड़कियां- 4

वो आने वाली थी। गोविंदपुर के कमरे में। आने का इंतज़ार रोमांच पैदा कर रहा था।खुल कर बातें करने का मौका मिलेगा। उसका आना गंगा पट्टी के इन चार राजकुमारों को उत्साह से भर रहा था। पहली बार इन्हें अपना कमरा किसी कबाड़खाने जैसा लग रहा था। बैठने की कुर्सी नहीं। बाथरूम का दरवाज़ा टूटा हुआ। कमरे के दरवाज़े के पीछे स्टेफी ग्राफ और अरांता सांचेज की तस्वीर। उड़ती हुई स्कर्ट और ताकत से खिंच कर मारे जा रहे शार्ट्स। उसके आने की ख़बर ने नज़र बदल दी। राजकुमारों को लगा कि ये अश्लील हैं। स्टेफी की तस्वीर के ऊपर सरस्वती की तस्वीर डाल दी गई और सांचेज के ऊपर पतलून टांग दी गई। ये सब क्रिकेट के शौकिन थे मगर सचिन की तस्वीर नहीं थी। सांचेज और ग्राफ की थी। दीपक के सहरसा वाले घर में पिताजी ने गांधी की तस्वीर बैठकखाने में लगा रखी थी। वहां उसने एक चाय की दुकान पर स्टेफी ग्राफ की तस्वीर देखी थी। कचहरी के वकील उसे निहारते अपने मुवक्किल की जेब में देखने लगते। कभी सोचा नहीं कि ये कौन है और क्या खेल रही है। खैर कमरे का हाल ठीक हो रहा था। बिहारी छात्रों के कमरे का दरवाज़ा उनके सामाजिक यथार्थ से कितना दूर था। उनकी पतलून के पीछे सांचेज झांक रही थी। बिहार में लालू पिछड़ावाद चला रहे थे। तो भूमिहार ब्राह्मण छटपटा रहे थे। दिल्ली आए ज़्यादातर लड़के सवर्ण और पिछड़ी जाति के थे। दिल्ली इनके भीतर के बिहार को बदल रही थी। कमरे में लड़की आ रही थी।

बिखरी हुई चादर झाड़ कर बिछा दी गई। तकीये के बगल में मौर्य सम्राज्य के पतन वाला चैप्टर खोल दिया गया। लगे कि पढ़ ही रहे थे कि तुम आ गई।
शक होने लगा कि कहीं मकान मालिक अन्यथा न ले ले। नीचे राशन की दुकान वाले गुप्ता जी पता नहीं क्या सोचें। यही कि अब इनके कमरे में लड़कियां आने लगी हैं। हमारे समाज में यह एक मुहावरा जैसा है जिसका एक खास मतलब होता है। लेकिन यहां तो लड़की सिर्फ उन चारों से मिलने आ रही थी जो उसे इम्प्रैस करने के चक्कर में गोलाबाज़ होना चाहते थे। कैट होना चाह रहे थे। हिंदुस्तान के कई लड़के लड़कियों के कारण कैट हुए हैं। कैट होना पता नहीं क्या होता है। जीन्स, लोटो का जूता और जनपथ का टी शर्ट जिसपर लिखा हो...आई डोंट केयर। कमीज़ से मन नहीं बदलता। भाई लोगों को टेंशन हो रहा था कि लोग क्या कहेंगे।

सोनिया नाम था उसका।उसने बस यही कहा था कि वो आ सकती है।देखना चाहती है कि उसके बिहारी दोस्त कहां और कैसे रहते हैं।बस इतनी सी बात थी। लेकिन उसके आने की ख़बर ने बिहारी लड़कों के कमरे का यथार्थ बदल दिया। रसोई में चाय के लिए दूध और समोसा आ चुका था।कुछ खास नोट्स छुपा कर रख दिए गए थे। छुपाने की आदत तो हमारी संस्कृति में है।सब नहीं बताया जाता।दीपक ने अपने बालों को बिखेर दिया।प्रमोद जी की कमीज़ चकचक लग रही थी।बाकी दो बिहारी। दोनों ही अच्छे कपड़ों में।लेकिन इंतज़ार नहीं कर रहे थे।दरअसल वो नहीं चाहते थे कि ऐसा लगे। कोई जान पाए कि उनके मन में सोनिया पहले ही आ चुकी है।दरअसल अलग अलग मौकों पर सोनिया सबके मन संसार में आ चुकी थी। बस कोई बोलना नहीं चाहता था। प्रमोद जी अक्सर कहा करते थे..का रे..सेंटी हो गया है। बिहारी लड़कों का यही संस्कार बड़ा मर्दाना लगता है। लड़की को चाहेगा मन ही मन लेकिन कहेगा नहीं। बस इस डर से कि कोई यह न कह दे का रे..सेंटी हो गया। ख़ैर सोनिया ने काल बेल बजा दिया था।.....
क्रमश.....