मुंडा चमारा दां-पंजाबी गानों में दलितोदय

चमारों के मुंडे भी किसी से कम नहीं होते। उनके पास भी लैंड क्रूज़र और लाल सफारी है। उनकी बॉडी भी किसी जट गबरू जवान से कम नहीं। उनकी खूबसूरती,शोहरत बिल्कुल वैसी है जैसी बाकी गानों में तथाकथित यूनिवर्सल लगने वाले हीरो की। पंजाबी म्यूज़िक वीडियो में चमार युवकों और गायकों का उभार एक उत्सव की तरह लगता है। चमार लड़के भी जिप्सी में गर्लफ्रैंड के साथ घूम रहे हैं। गर्लफ्रैंड गा रही हैं कि चमारों के पास भी पैसे हैं। जिप्सी है लेकिन रौब नहीं है। रौब का इशारा इसलिए किया गया है ताकि पंजाबी गानों में जट युवकों के रौब के आगे खुद को विनम्र और शालीन पेश किया जा सके। लड़की आगे गाती है कि हमने मेहनत से कामयाबी और शोहरत हासिल की है। चमार के लड़के भी खुल कर खर्च करते हैं और उनके खर्चे की फुल्ल चर्चा है। पंजाबी म्यूज़िक वीडियो की दुनिया इन गानों से समृद्ध हो गई है। एस एस आज़ाद ने जब पहली बार अनखी पुत्त चमारा दां गाया तो गाना घर-घर में बजने लगा। चमारों की शादियों में इस गाने पर डांस होने लगे। एक चमार लड़के ने कहा कि हम कब तक जट गानों पर ही डांस करते रहेंगे। हमारा गाना होना चाहिए। हमने उनके गाने पर नाचा है,अब वो हमारे गाने पर नाच कर दिखाये। चमार गायकों ने कहा कि आखिर कब तक हमारे लड़के उन गानों में नाचेंगे जिनमें सिर्फ जट लड़कों की मर्दानगी का बखान होता है। हम तंग आ गए हैं गानों में जट लड़कों के महिमामंडन से।

इन गानों के गायक टकराव से बचने के लिए यह तो कहते हैं कि हमारे गाने किसी के मुकाबले में नहीं हैं लेकिन इन गानों में पहचान की बेचैनी एक किस्म का मुकाबला ही रचती है। इसीलिए अल्बम के नाम में भी सर्वण समाज से लोहा लेने को हौसला झलकता है। इनके नाम हैं-अनखी पुत्त चमारा दे,टौर चमारा दें,बेबे पुत्त चमारा दे,मुंडा चमारा दे। कुल मिलाकर मतलब इसी के आस पास ठहरता है कि चमार के लड़के भी किसी से कम नहीं। उनकी शान और आन भी किसी से कम नहीं। इन गानों में किसी का उल्लेख तो नहीं है मगर सुन कर साफ हो जाता है। वीडिया अभिव्यक्ति का ऐसा संसार जहां दलित नायक सुपरहीरों में बदल जाता है।

पिछले एक साल में पंजाबी म्यूजिक जगत में ऐसे पचासों गाने बने हैं जिनमें चमार और बाल्मीकि के लड़कों की जवानियां इतरा रही हैं। अपनी बलिष्ठ बाजुएं दिखा रही हैं और पैसे लुटा रही हैं। चमार के लड़के ऐश तो करते हैं लेकिन राह चलती लड़की को नहीं छेड़ते। एस एस आज़ाद के एक गाने में जट लड़कों की तरह मेले में जाकर मस्ती करने से मनाही है। आज़ाद अपने गाने में चमार नौजवान को रोकते हुए कहते हैं कि मेले में जवानी मत लुटा। संत रविदास और बाबा साहब अंबेडकर के वचनों को पूरा कर और समाज के लिए जी। ये सभी अल्बम इटली,स्पेन,आस्ट्रिया और इंग्लैंड में रिलीज हो रहे हैं। पहचान की बेचैनी को समझना हो तो यह भी जान लीजिए कि दलित समाज के लोग बड़ी संख्या में इनकी सीडी अपने परिचितों के पास खरीद कर भेज रहे हैं। एक गाने में बाल्मीकि लड़के गा रहे हैं कि अब वे कालेज जाने से नहीं डरते। क्लब जाने से नहीं डरते। उनकी मस्ती तो है मगर बलिष्ठ भुजाएं बताती हैं कि पंगा मत लेना। रूप पाल धीर का एक ऐसा ही गाना है। रुप पाल धीर भी दलित गायक हैं। उनके गाने में चुनौती भी है। हमारे लड़कों को बंदूक से मत डराओ। चमार के लड़कों से पंगा मत लेना,जवाब हम भी देंगे।

रूप पाल धीर कहने लगे कि आप हमें चमार कहिए। हम चाहते हैं कि लोग चमार कहें। एक और दलित गायक राज ददराल ने कहा कि हमारे लोगों को क्यों लगता है कि ये गाली है। एस एसटी एक्ट ने नाइंसाफी की। हमारी पहचान खतम कर दी। लोग ड़र से हमारी जाति का नाम नहीं लेते। ददराल की बात सही है कि कानून ने भी मदद नहीं की। चमार जाति के अपमानसूचक शब्द के इस्तमाल पर लगी रोक ने सम्मान पैदा करने में मदद नहीं की। हमारी जात को गाली बना दिया। इससे क्या जाति टूट गई? सोच बदल गई? लोग भीतर ही भीतर हमें चमार कहने लगे। हम चाहते हैं कि लोग खुल कर कहें। तब चमार का मतलब अपनी शान समझेंगे। इन गानों की खूब डिमांड है। खरीदने वाले खूब हैं जी। चमारों के पास भी कम पैसे नहीं हैं।

रूप पाल धीर ने बताया कि जब पिछले साल मई में संत रविदासिया संप्रदाय के संत रामानंद की हत्या कर दी तो पंजाब के नेता खामोश हो गए। किसी ने साथ नहीं दिया। हमारे लोग अपने आप सड़कों पर उतर आए। हमें भी अंदाज़ा नहीं था कि चमार कौम की इतनी ताकत है। हमने पंजाब को दस दिनों के लिए बंद कर दिया। उसी के बाद फैसला किया कि हम अपनी पहचान को लेकर उग्र हो जायेंगे। दावेदारी करेंगे। लोगों से कहेंगे कि तुम हमें चमार कहना चाहते हो न,कहो। हमें बुरा नहीं लगेगा। गाली आपके मन में हैं लेकिन हमारे मन में चमार होना एक शान है। अपनी बात कहने के लिए रूप पाल धीर बीच ट्रेन से उतर गए। सड़क के किनारे इंटरव्यू दिया। बोले कि मामला क्लियर कट हो गया। सिर्फ एक साल में पंजाबी गानों में चमार अभिव्यक्ति का उछाल आ गया। उनका अल्बम इटली में रिलीज हुआ था। अब हम सारे दलित गायक मिलकर एक इंटरनेशनल लेवल का चमार वीडियो बनायेंगे। चंद्रभान प्रसाद ने कहा कि ये बदलाव भी कुछ वैसा ही जैसे अमेरिका में नीग्रो कहने पर रोक लगा। लोगों ने ब्लैक कहना शुरू कर दिया। फिर अफ्रीकी अमेरीकी कहलाने लगे। लेकिन आज ब्लैक खुद को ब्लैक कहलाना पसंद करते हैं। वो अपनी पुरानी पहचान पर लौटने लगे हैं। ऐसा ही कुछ पंजाब में हो रहा है।

अपनी पहचान को शान में बदल देने का जुनून जाति व्यवस्था के ढांचे को चरमराता तो नहीं लेकिन पलट कर हिसाब बराबर कर देता है। जब इन गानों को यू-ट्यूब में देखने लगा तो लाज़िमी था कि जाति-व्यवस्था के पुराने सवालों से ही देखने लगूं। उदारीकरण के बाद भी हम यूनिवर्सल शहरी समाज नहीं बना पाए। एसी और कार की मार्केटिंग के बीच पहचान के वही मोहल्ले और मज़हब खड़े किये जाते रहे। मोहल्लों की दीवारें नहीं टूटीं। आज भी दलितों की आबादी मुसलमानों की तरह एक शहर की एक बस्ती में रहती हैं। सर्वण समाज की आर्थिक ताकत का दबदबा टूटे बिना इन मोहल्लों की दीवारें नहीं टूटेंगी। यह दावे के साथ नहीं कह सकता क्योंकि चमारों के पास पैसा आने पर भी पंजाब में ऐसा नहीं हुआ। पंजाब से बाहर विदेशों में गए दलित युवकों की शोहरत की कामयाबी के किस्से नहीं सुनाए गए। पंजाबे के गुरुद्वारों ने दलितों के लिए अलग लंगर बना कर उन्हें धकेलने की प्रक्रिया शुरू कर दी जिसका नतीजा यह हुआ कि वियना,इटली और स्पेन में संत रविदास को मानने वाले लोगों ने अपने गुरुघर बनाने शुरू कर दिये। पंजाब में दलितों के डेरे का विस्तार होने लगा है। विदेशों से आए पैसे इनके डेरों को आलीशान बना रहे हैं। चमार भक्त चाहते हैं कि उनके बाबा संत भी मर्सिडिज़ पर चले। इसके लिए खुलकर दान देते हैं। दलित संतों की विदेश यात्राएं बढ़ गईं हैं। आर्थिक शान की इस लड़ाई में कोई आमने सामने नहीं है लेकिन एक दूसरे से अनजान भी नहीं।

पंजाब में देश के सबसे अधिक दलित हैं। बत्तीस फीसदी। यहां से दलित पहले फीटर और लेबर बनकर अरब के देशों में गए क्योंकि यूरोप जाना महंगा था। वहां सस्ते मजदूर बन कर थोड़ी बहुत कमाई अर्जित की। जिसका सारा हिस्सा खाली पेट और सदियों से खाली घड़ा भरने में ही चला गया। तभी दुनिया भर की पत्रिकाओं में यूरोप और अमेरिका के पंजाबी एनआरआई की कामयाबी के किस्से छापे जाने लगे। पंजाबी कारों और शादियों का जश्न छा गया। दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे जैसी फिल्म भी आई। जट सिक्खों की कामयाबी ने ऐसे हीरो पैदा कर दिये तो दशकों तक आभास दिलाते रहे कि ये यूनिवर्सल हैं। पंजाबी के नहीं हैं। लेकिन अब यह छवि टूट रही है। पंजाब के दलित पिछले पंद्रह सालों में यूरोप के देशों में जाने लगे। वहां भी पंजाब के सवर्ण समाज इन्हें नहीं स्वीकार किया। वहां के गुरुद्वारों में दलितों के संत रविदास या बाल्मीकि की कथा नहीं थी। नतीजा अलग गुरुघर बनने लगे। पहचान की भूख पहले विदेशों में पैदा हुई। एक ज़िद और जुनून उनकी आर्थिक ताकत की बदौलत परवान चढ़ गया। पंजाब के दोआबा में दलितों ने भी अपने घर आलीशान बनाने शुरू कर दिये। दलित गायक ददराल ने कहा कि देखिये ज़मींदार और चमार के घर में फर्क नहीं है। एक फर्क है। हमारे घरों में संत रविदास की तस्वीर है।

आप इन सभी गानों को यू-ट्यूब पर देख सकते हैं। सारे गाने मिल जायेंगे। चमारों के लड़के ने इन गानों पर अपनी तस्वीरें डाल कर जो मोटांज बनाई है,उसका अलग से अध्य्यन होना चाहिए। हिन्दी के कुछ मूर्ख विद्वान पत्रकार यू-ट्यूब को गरियाते रहते हैं। उन्हें इतनी सी बात समझ में नहीं आती कि यू-ट्यूब एक सामाजिक दस्तावेज है। व्यक्तिगत सामाजिक अभिव्यक्ति का दस्तावेज। जिनमें चमार ब्वायज़ लैंड क्रूजर कार के साथ तस्वीर खींचाकर डाल रहे हैं। इन तमाम गानों और तस्वीरों के सहारे समाज की ऐसी तस्वीर है जो मस्त कर देती है। गर्व भी होता है।

इस कथा को समाजशास्त्री कई तरह मॉडल में ढाल कर पढ़ सकता है। लेकिन किसी को इस हद तक धकेला जाता रहेगा इसकी पीड़ा तो वही समझ सकता है जो अलग से नकारात्मक रूप से पहचाना जाता है। तभी तो चमारों ने भी अपने टी शर्ट बना लिये हैं। स्टिकर लगा लिये हैं बाइक पर। अनखी पुत्त चमारा दे का। ये पहचान उस पहचान का जवाब है जिनमें एक जट बरनाले का मर्डर करने के बाद थाने पहुंच जाता है। जिनमें एक जट लड़का चोरी की बंदूक की तरह अपनी महबूबा का छुपा कर रखना चाहता है। पंजाब के समाज का आपसी सहमति का ढोंग सामने आ गया है। दलितों को मज़हबी,रविदासिया नाम से पहचाना गया। जैसे उन पर रहम कर रहे हों।

पंजाबी गानों में दावेदारी को लेकर आ रहे हैं बदलाव को लेकर रवीश की रिपोर्ट तो बन गई लेकिन एक अफसोस भी पैदा कर गया है। सारे गायक चाहते थे कि उन्हें चमार पुकारा जाए। कई लोग एससी एसटी एक्ट का हवाला देते रहे। मुझे शो में डिस्क्लेमर लगाना पड़ा। अपना इरादा बताना पड़ा। लेकिन इन दबावों में आकर मुझसे भी एक सामाजिक अपराध हुआ। इनको चमार नहीं कहने का अपराध। सदियों तक इन्हें हिकारत के भाव से चमार पुकारा जाता रहा,आज भी पुकारा जाता है। लेकिन आज जब ये चाहते हैं कि इन्हें चमार कहा जाए तो मैं दलित कहने लगा। कई लोगों को फोन कर पूछने लगा कि चमार कहूं कि नहीं कहूं। किसी ने कहा कहने में हर्ज नहीं लेकिन मास मीडिया की अपनी मजबूरियां होती हैं। मुझे लगा कि ये स्टोरी एयर पर जानी चाहिए। कुछ सीमाएं अच्छी भी होती हैं। लेकिन हां,अगली बार कोई चमार मिलेगा तो मैं भी शान से कहूंगा अच्छा आप चमार हैं। पुकारिये उनको उस नाम से जिस नाम से वो पुकारे जाना चाहते हैं।

(अगर आप चाहें तो इस शो को आज यानी शनिवार सुबह साढ़े दस बजे,रात साढ़े दस बजे,रविवार सुबह ग्यारह बजे और रात ग्यारह बजे देख सकते हैं। एनडीटीवी इंडिया पर)

लतियाये गरियाये जाने की लाचार सदी

इक्कीसवीं सदी। लतियाये,गरियाये जाने की एक लाचार सदी। कितनी उम्मीदों के साथ आई थी। आ रही थी तो कितना हंगामा मच रहा था। सारी सदियां ईर्ष्या से तुम्हें निहार रही थीं। आईं तो वो भी थीं लेकिन कोई चर्चा तक नहीं। सदियों को लगा कि कोई सौतन सदी आने वाली है। तुम जब आ रही थी तो मीडिया में कैंपेन चल रहे थे। आने वाली हो,आते ही छाने वाली हो टाइप के गीत लिखे जा रहे थे। अब ऐसा क्या हो गया है कि तुम बात बात में गरियाई जाती हो।

मुझे बिल्कुल नहीं लगा था जिस सदी का इतना इंतज़ार किया जा रहा है उसकी ऐसी भद पिटने वाली है। अच्छी तरह याद है बड़ी उम्मीदों से इक्कीसवीं सदी आई थी। दफ्तर से लौटते वक्त उस रात मुनिरका के पास एनडीटीवी की पुरानी सहयोगी पल्लवी अय्यर ने ऑफिस की कार रुकवा दी थी। बारह बजते ही उसने इइयये(yeah)जैसा इंग्लिश चित्कार किया और सबने वाऊ बोलकर क्लैप किया। पहले तो वाई टू के की चिन्ता हुई फिर मैंने भी वाऊ बोल कर ताली बजाई। कंप्यूटर रहित मैं मध्यमवर्गीय ग़रीब जल्दी ही जश्न में डूब गया। वाई टू के की आशंका को भूल गया। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का फर्ज़ीवाड़ा था वाई टू के का प्रपंच। कुछ नहीं उड़ा। न सेना के अड्डे से राकेट अपने आप उड़े न एयरपोर्ट पर हवाईजहाज़ दुर्घटनाग्रस्त हुआ। लगा कि चलो अच्छा हुआ। न्यू मिलेनियम में बाखुदा इंटर कर गए हैं। कई पीढ़ियों बाद मेरे परिवार में किसी को यह सौभाग्य हासिल हुआ। मुझे इसलिए क्योंकि मेरे परिवार में दो चार लोगों को ही मालूम था कि सदी चेंज हो रही है। पुरानी वाली चली जाएगी और नई वाली बिल्कुल टाटा इंडिका के नए माडल की तरह लांच हो जाएगी। न्यू ईयर मनाते मनाते बोर हो चुके लोगों के हाथ न्यू मिलेनियम की रात लग गई थी। जश्न मन रहा था।

इतनी खुशफहमी के बाद जब देखता हूं कि हर बात में इक्कीसवीं सदी गरियाई जाती है तो दुख होता है। दिल्ली में कोई मंदीप किसी सुनीता को मार देता है तो बदनाम इक्कीसवीं सदी होती है। जैसे इक्कीसवीं सदी गारंटी देकर आई थी कि देखो मेरे आते ही सारी सामाजिक बुराइयां छूमंतर हो जाएंगी। तुम सब टेंशन एंड अटेंशन फ्री जगत में ऐश करोगे। कुछ भी हो जाता है तो अखबार से लेकर टीवी तक सर पीटने लगते हैं कि जो हुआ सो हुआ लेकिन इक्कीसवीं सदी में कैसे हुआ। हम हैरानी से आंखें फाड़ देते हैं,जो दिख रहा है उसे भी ऐसे देखने लगते हैं जैसे माइनस प्वाइंट का चश्मा पहन लिया हो। अरे बाप रे इक्कीसवीं सदी में ऐसा हो गया। संसद में मारपीट हो गई, हेडलाइन बन गया कि इक्कीसवीं सदी में हम जा कहां रहे हैं। क्या इक्कीसवीं सदी के भारत में खाप पंचायतें होनी चाहिए। क्यों न हो। आप उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में झक मार रहे थे। जब उन दो सदियों में इनको बर्दाश्त किया तो एक और सदी। ये कहिए न कि खाप को खतम करने का ट्राइ कब किया। किया कुछ नहीं और गरिया दिया इक्कीसवीं सदी को। बेचारी को सब ढोल की तरह पीटते रहते हैं।

इक्कीसवीं सदी का गुनाह क्या है। क्या इसने कहा था कि रिन की सफेदी की तरह चमत्कार कर दूंगी। क्या आपने वादा किया था कि इक्कीसवीं सदी में मैं जाति को तोड़ूंगा। आपने क्या किया है जिससे इक्कीसवीं सदी का नाम रौशन हो। गलती आपकी और बदनाम बेचारी इक्कीसवीं सदी। अच्छा होता वाई टू के हो जाता और हमारी घड़ी से लेकर कंप्यूटर तक फेल हो जाते। ऐसा नहीं करके इक्कीसवीं सदी ने अपनी लाज तो बचा ली लेकिन लोगों को खुला छोड़ दिया कि आओ,मैं आ गई हूं,सरेआम मेरी इज्जत का फलूदा बनाते रहो। क्या यह इक्कीसवीं सदी का भारत है टाइप के सुपर लगाते रहो। अरे भाई जब इक्कीसवीं सदी पलट कर पूछ देगी कि बीसवीं और उन्नीसवीं सदी के भारत ने कौन सा तीर मार लिया था,तब क्या जवाब दोगे। जात-पात,खाप-वाप,प्यार-वार तो पहले की कई सदियों में मौजूद थी। क्या हम कहते हैं कि साली..सत्रहवीं सदी...उसी बदमाश की गलती थी ये जाति। जब पिछले को नहीं गरियाते तो अगले को क्यों लतियाते हो। आज देखो हमारी बेचारी इक्कीसवीं सदी को ताने झेलने पड़ रहे हैं।

मेरी प्यारी,इक्कीसवीं सदी,तुम्हें हर दिन समस्याओं के बाथरूम में धुलता देख दुख होता है। तुम्हारी फिंचाई देखी नहीं जाती। सारे संपादक,रिपोर्टर,नेता सब तुम्हारे पीछे पड़े हैं। अभी तो सिर्फ दस साल गुजरे हैं। न जाने बाकी के नब्बे सालों में लोग तुम्हारी क्या गत बना देंगे। तुम्हारी हाल मनमोहन सिंह जैसी है। कोई सोनिया गांधी को नहीं गरियाता। सब मनमोहन को फटकारते हैं। मेरी प्यारी सदी,मेरी प्यारी सखी,तुम्हारी इस हालत पर मैं एक असहाय रिपोर्टर की तरह अपनी स्क्रिप्ट से लाइन काट दिये जाने के दर्द जैसा रोता हूं। कुछ कर नहीं पाता। वॉयस ओवर में तुम्हें गरियाता हूं। कहीं ऐसा न हो कि सदियों के इतिहास में तुम्हारा नाम गरियाये और लतियाये जाते रहने के कारण दर्ज हो जाए।

डिस्क्लेमर होती ख़बरें- न्यूज़ दनादन-दर्शक टनाटन

डिसक्लेमर की तरह ख़बरें पढ़ी जाने लगी हैं। बीमा विज्ञापन के बाद तेजी से बड़बड़ाने की आवाज़ आती है कि इश्योरेंस इज द सब्जेक्ट टू..टाइप से। जो सुनाई तो देता है समझ नहीं आता। तमाम न्यूज़ चैनलों पर न्यूज़ अब पांचवें गियर में पढ़ा जाने लगा है। बैकग्राउंड म्यूज़िक से ही अहसास हो जाता है कि या तो आप वीडियो पार्लर में कार चला रहे हैं या नोएडा दि्ल्ली एक्सप्रेसवे पर कार भगा रहे हैं। एक्सलेटर जैसी कानफोड़ू आवाज अहसास दिलाती है कि एक खबर खत्म हो कर दूसरी आ गई है। फटाफट,सुपरफास्ट,तेज,स्पीड टाइप के नामों के कवर के नीचे न्यूज उसेन बोल्ट की तरह दौड़ लगा रहा है।

ज़रूर दलील होगी कि लोगों के पास वक्त कम है। उन्हें दफ्तर से लेकर पखाना जाना होता है। इस बीच टीवी भी देखना होता है तो क्यों न दरवाज़े तक पहुंचते पहुंचते पूरी बुलेटिन खत्म कर दी जाए। जल्दी ही ऐसा पत्रकार नौकरी पा जाएगा जो पांच सेकेंड में पांच ख़बरें पढ़ देगा। मीडिया में स्पीड एडिटर का पद बन सकता है। ये सभी न्यूज़ शो लोकप्रिय हैं। टीआरपी के बीस हज़ार बक्सा परिवार में सराहे जा रहे हैं। वर्ना टीआरपी से निकले आइडिया उत्पादक ऐसे शो को पांच मिनट में गाड़ कर देते। लेकिन न्यूज दनादन के इस काल में खबरें चटपटी के साथ झटपटी होती जा रही हैं।

मालूम नहीं किस डाक्टर ने बताया कि दर्शक पांच मिनट में एक खबर को नहीं समझ सकता। उसके पास वक्त कम है इसलिए पांच मिनट में पचास ख़बरें परोस दो। वो भकोस लेगा। जब पांच मिनट में एक खबर के लिए टाइम नहीं तो किसने किसके कान में जाकर नापा है कि पांच मिनट में पचास खबरें सुनना चाहता है। क्या हम यह मानने लगे हैं कि खबरें इतनी ज़रूरी हो गई हैं कि आदमी डिस्क्लेमर की तरह पढ़े जाने वाले न्यूज को सुनने के लिए तैयार है। ये ख़बरों को मार कर उलटा लटकाने का नया तरीका है। दलील यही होगी कि आजकल लोग बदल रहे हैं। वो ऊर्जावान ख़बरों को पसंद करते होंगे। कुछ दलील ऐसी भी होती है कि ख़बरें बदल गई हैं। मालूम नहीं खबरें बदली हैं या खबरों को लिखने वाले बदले हैं। शायद वो लोग सही भी हैं। न्यूज में लोगों की दिलचस्पी कम होती जा रही है। लेकिन टॉप के चैनलों के किसी भी कार्यक्रम को देखकर नहीं लगता कि न्यूज चैनलों को देखने वाले दर्शकों की संख्या गिर गई हो। थोड़ा बहुत अंतर आता रहता है। लेकिन अगर न्यूज इतना ही ज़रूरी है तो वो क्रेक मेल सेवा की तरह आकर समाज और दर्शक का क्या भला करता है। सुपर फास्ट या क्रेक सेवा या बिना ब्रेक की ख़बरें।

ये एक नया ट्रेंड आ गया है। फार्मूला वन की रफ्तार पकड़े ख़बरें ब्रूम ब्रूम कर रही हैं। ऐसी रफ्तारवान ख़बरों से कैसा मानस बन रहा है भगवान जाने। इन सबका विरोध करने वाले हमारे जैसे लोग पुरातनपंथी ज़रूर कहलाने लगेंगे। लेकनि आप देख रहे हैं कि ख़बरों को प्रस्तुत करने का फार्मेट ही बदल रहा है। ख़बरें तो फिर भी वही हैं। अगर सब कुछ बदल गया है कि तो कोई यह भी साबित करें कि ख़बरें भी बदल गईं हैं। अगर वक्त की इतनी ही कमी हो गई है तो क्या यह माना जाए कि अब न्यूज देखने वाले लोग ही नहीं रहे। अगर न्यूज देखने वाले लोग हैं तो न्यूज शो की टीआरपी अच्छी क्यों नहीं है। टीआरपी एक घपले की तरह परिभाषा के सभी मानकों को बदल रहा है। आज तक कोई ऐसा नहीं मिला जिसके घर कभी टीआरपी मीटर लगा हो। क्या ऐसा हो सकता है कि आपके घर में टीआरपी वाले तीन रिमोट दे जाएं। क्या यह मुमकिन है कि स्त्री,पुरुष और बच्चा अलग अलग समय में एक टीवी को तीन रिमोट से चलाएगा ताकि उसका कोड दर्ज होते ही यह पता चल जाए कि दस बजे बच्चे ने देखा और एक बच्चे महिलाओं ने। फिर यह धारणा बन जाती है कि दोपरह में महिला दर्शकों की संख्या ज़्यादा होती है तो बेलन भी बन गया फैशन टाइप के शो दिखाइये। आम तौर पर हम और आप यही करेंगे कि थोड़े दिनों बाद एक ही रिमोट का इस्तमाल करने लगेंगे।

न्यूज़ को लेकर इतने फार्मूले गढ़े जा रहे हैं या बदले जा रहे हैं कि ठिकाना नहीं। हम सब फार्मेट के चैंपियन कहलाने लगे हैं। कोई खबरों को खोजने और गढ़ने का खिलाड़ी नहीं बन पा रहा है। अगर सुपरफास्ट खबरें ही हकीकत हैं तो आधे घंटे के बुलेटिन के खात्मे का वक्त आ गया है। अब यह हो सकता है कि एक आधे घंटे में पांच बुलेटिन लांच कर दिये जाएं। खबरों को पढ़ने की जगह कोई डिस्क्लेमर ही पढ़ जाए। किसे पता चलेगा कि न्यूज था या डिस्क्लेमर।

मुसलसल ग़ज़ल

वह कहते हैं हुकूमत चल रही है
मैं कहता हूँ हिमाक़त चल रही है

उजाले जी हुज़ूरी कर रहे हैं
अंधेरों की सियासत चल रही है

सब अपने आप चलता जा रहा है
कहाँ कोई क़यादत चल रही है

अगर इन्साफ है तो किसकी ख़ातिर
अदालत पर अदालत चल रही है

वह कल दुश्मन के होंगे साथ लेकिन
अभी मेरी हिमायत चल रही है

हमारे पास ग़म की क्या कमी है
ज़रा ख़ुशियों की किल्लत चल रही है

मेरे हाथों के तौते उड़ रहे हैं
कहीं कुछ तो शरारत चल रही है

यह दरिया दूर हम से बह रहा है
यही बरसों से हालत चल रही है

गुलों के साथ कांटे बंट रहे हैं
मोहब्बत मैं भी नफरत चल रही है

मैं खुद अपनी नज़र से गिर गया हूँ
मगर दुनिया में इज़्ज़त चल रही है

कभी तेरे बदन को छू लिया था
अभी तक वह हरारत चल रही है

मैं उसके हुस्न मैं डूबा हुआ हूँ
या यूँ कहिये इबादत चल रही है

कोई भूका कहीं पर मर रहा है
कहीं जी भर के दावत चल रही है

मेरे पीछे हैं शौले बेबसी के
मेरे आगे क़यामत चल रही है

मेरा दिल गीत उनके गा रहा है
अमानत मैं खयानत चल रही है

ख़ुशी का कोई भी लम्हा नहीं है
अभी तो ग़म की साअत चल रही है


सभी जाहिल हैं रब का शुक्र है यह
बड़ी अच्छी इमामत चल रही है

कहाँ चलता है कोई खोटा सिक्का
बुज़ुर्गों की शराफत चल रही है

अरे दुनिया तेरी ओक़ात क्या है
मैरी ख़ुद से अदावत चल रही है

मैं अब बाज़ार में आया हूँ बिकने
बता क्या मेरी क़ीमत चल रही है

सभी तावीज़ गंडे कर रहे हैं
किसी तरह से क़िस्मत चल रही है

तेरा बन्दा बहुत काफ़िर हुआ है
मैरी रब से शिकायत चल रही है

सभी झूठे इकठ्ठा हो रहे हैं
बहुत दिन से सदाक़त चल रही है


में इतना इल्म लेकर क्या करूँगा
ज़माने में जहालत चल रही है

वही ग़ालिब की तरह पी रहा हूँ
अभी आँखों में हरकत चल रही है


जो वह कहता हैं वह हम मानते हैं
तेरी क्या मेरे भारत चल रही है

में उसको चूमता पकड़ा गया था
इसी ख़ातिर हजामत चल रही है
तहसीन मुनव्वर

नीतीश-नरेंद्र के झगड़े में हलवाई की मेहनत बेकार गई

10 मई २००९ को इसी कस्बा पर नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के हवा में उठे हाथ पर एक लेख लिखा था। पंजाब में एनडीए की रैली थी। बिहार में मतदान खत्म हो चुका था। उससे पहले नीतीश यही कहते रहे कि नीतीश के साथ मंच साझा करने की ज़रूरत नहीं है। बरखा दत्त बार बार पूछ रही थी कि कभी नहीं करेंगे तो नीतीश का यही जवाब था कि ज़रूरत नहीं है। उसके तुरंत बाद नीतीश और नरेंद्र को यह फोटू टीवी और अखबारों में दिखा था।

ठीक एक साल बाद वही फोटू फिर से दोनों के बीच की नौटंकियों का कारण बन गया है। इस खेल में दोनों ने एक दूसरे को घेरने की कोशिश की। पहली चाल में सूरत का सांसद बिहार के अखबारों में विज्ञापन देता है और इस तरह से कैप्शन लगाता है जैसे नीतीश नरेंद्र का स्वागत कर रहे हों। अब इतनी सी बात पर नीतीश को भड़कना चाहिए था या नहीं ये तो वो बतायेंगे। लेकिन ये फोटू तो सच है। दोनों बिहार में न सही लेकिन बिहार के बाहर मंच साझा तो करते ही है। क्या नीतीश यह कहना चाहते हैं कि बीजेपी सेक्युलर पार्टी है और उसमें एक ही कम्युनल है नरेंद्र दामोदर मोदी। बीजेपी के साथ पांच साल सरकार चलाई है नीतीश ने। एनडीए सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे हैं। लोकसभा में एक बार वाजपेयी सरकार गिरने वाली थी। नीतीश ने भाषण दिया था कि प्रधानमंत्री तो बिहारी ही बनेगा,अटल बिहारी बनेंगे। खूब ताली बजी थी। नरेंद्र मोदी जिस नीति पर चलते हैं वो तो संघ और भाजपा की बुनियाद है। आपको बुनियाद और इमारत से प्रॉब्लम नहीं है सिर्फ एक कमरे की बालकनी से इतनी चिढ़ हो गई है।

नीतीश का गुस्सा समझ में आता है। बीजेपी के साथ रहकर सेक्युलर बनने की चाहत रंग नहीं ला रही है। चुनाव आने हैं। नीतीश को एक शाबाशी मेरी तरफ से भी। बीजेपी की ये हालत कर दी है कि वो भी सत्ता की लालच में अलग होने का फैसला नहीं कर पाती है। बीजेपी वाकई में सत्तालोलुप एक कमज़ोर पार्टी है। जिस पार्टी के नेता के बारे में गठबंध का नेता तय करे कि वो राज्य में आयेगा या नहीं इससे ज्यादा इस पार्टी की दुर्गति नहीं हो सकती। वो नरेंद्र मोदी को लेकर उग्र भी नहीं है और नरेंद्र मोदी के कारण पूरी कार्यकारिणी के अपमान पर शांत भी है। हो सकता है कि बीजेपी के भीतर नरेंद्र मोदी को सड़ा देने की यह रणनीति चल रही हो। नरेंद्र मोदी की भी हालत देखिये बेचारे चूं तक नहीं कर पाये। आखिर विज्ञापन देकर नीतीश को भड़काने की चाल किसकी होगी। गुजरात का सांसद क्या बिना सीएम से पूछे विज्ञापन दे सकता है। अब अगर आपने विज्ञापन देकर नीतीश को भड़का ही दिया है तो फैसला कर लीजिए न। आमना सामना करने के लिए तैयार भी रहते। एक ही घुड़की में मांद में क्यों घुस गए।

लेकिन जो हुआ वो अच्छा नहीं था। बीजेपी के नौ नो मुख्यमंत्री पटना में हैं। नीतीश ने गुस्से में आकर डिनर तक रद्द कर दिया। ये कौन सी मेहमाननवाज़ी का नमूना पेश किया उन्होंने। अगर पोस्टर नहीं छपता तो क्या नीतीश डिनर के लिए आ रहे नरेंद्र को गेट पर रोक देते। जब डिनर का आयोजन हुआ होगा तो उस सूची में नरेंद्र मोदी भी होंगे। उन्हें भी जानकारी दी गई होगी कि आप सादर निमंत्रित हैं। डिनर रद्द कर नीतीश ने भी वही किया जो सूरत के सासंद ने विज्ञापन में बिहार को मदद देने की बात कर की है। इस लानत-मलानत के गेम में दोनों का स्कोर बराबर है। बस गुजरात और बिहार के रिश्तों को दांव पर लगाकर यह खेल नहीं खेला जाना चाहिए था। उस हलवाई पर भी रहम करते जो बेचारा मेहनत से खाना बना रहा होगा। उसका चूल्हा तो बीच में ही बुझा दिया गया। नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री हैं,दरबान नहीं। क्या वो नरेंद्र मोदी की पार्टी को अपने राज्य में बैन करेंगे। झूठमूठ के बौखला जाते हैं। कामयाबी से विनम्र होना चाहिए। इतनी दिक्कत है तो रास्ते से हटाइये बीजेपी को।

अब रहा सवाल सिद्धांत का। अगर नरेंद्र मोदी से प्राब्लम है तो नीतीश को आज फैसला करना चाहिए। क्या वो अकेले चुनाव में जा रहे हैं? बीजेपी को फैसला करना चाहिए कि इतनी बेइज्जती के बाद क्या सुशील मोदी नीतीश के सामने फाइल लेकर हाज़िर होंगे। वोटर को सोचना चाहिए कि इसमे बिहार के विकास को लेकर चाल नहीं है बल्कि वोट की नौटंकी है। नरेंद्र मोदी का विरोध होना चाहिए। लेकिन राजनीतिक रूप से। डिनर टेबल पर बिठाकर थाली पर लात मार देने के तरीके से नहीं। इस नेता की दुर्गति राजनीतिक रूप से चुनावी मैदान में होनी चाहिए न कि संस्कारों को ताक पर रखकर।

(आखिर की ये पंक्तिया १० मई के लेख की हैं।)नीतीश जी आप बिहार का विकास करते रहिए। कानून व्यवस्था और सड़क तो चाहिए भाई। लालू के बस की बात नहीं है। बस ड्रामा मत कीजिए। आप नरेंद्र मोदी से ज़रूर मिलिये। क्योंकि वो बड़े कद वाले संघी नेता हैं। आज आडवाणी जी की डफली बजा रहे हैं कल मोदी के लिए तो बजानी ही पड़ेगी। अब ड्रामेबाज़ी की इस सूरत में आप पीएम तक का ख्वाब छोड़ ही दीजिए। लुधियाना में मोदी भाई से हाथ मिलाकर आप उनके नंबर टू तो बन ही गए। ये क्या कम है। बस मलाल यही है कि बिहार में वोटिंग के पहले आप ये कर के दिखा देते? कम से कम मेरा भी तो भ्रम टूट जाता कि आप मामूली नेता हैं।

उधार के रंगों से सपने हसीन नहीं होते

गंडक
मेरे होने की साक्षी
सिर्फ तुम्हीं हो
तुम्हारी ही लहरों से बच कर आया था
जब उसने दुपट्टे से खींच लिया था
एक मन्नत भी मांगी तुमसे
सर पे भंवर पड़े हैं इसके
ये फिर डूबेगा लहरों में
बचा लेना इसको सपनों से
तब भी रंग लिया था अपने सपनों को
किनारे पर खड़े होकर
पांव धोती सुहागिनों के आलते से
तब तुम्हीं ने कहा था
मिट्टी का बना है इसका मन
कभी धूल की तरह उड़ता है
कभी बारिश की तरह रोता है
कहीं किसी किनारे जमा होकर
फिर मिट्टी बन जाता है

गंडक
तुम्हारी बेचैन होती लहरें
आज भी जगा देती हैं बीच रात
याद दिलाने के लिए
सुहागिनों के पांव के आलते का रंग
मेरा अपना तो नहीं था
आसमान को रंगने का सपना
मेरा अपना तो नहीं था
उधार के रंगों से सपनें हसीन नहीं होते

गंडक
जानता हूं..
तुम्हारे ही किनारे लाया जाऊंगा
खाक में मिलने से पहले
तब तक तुम बहती रहना
जब तक मेरा हर कण
मिट्टी न बन जाए
और मिट्टी का मेरा मन
तुम्हारी लहरों में न बह जाए
क्या करना है लेकर
टूटे सपनों का मन
मन से मुक्ति दे देना तुम
बहने देना हवा बनकर
लहरों के ऊपर
डाल दूंगा लाल रंग
चुराकर पांव धोती सुहागिनों के आलते से
मेरे टूटे सपनों के बूटे से
तुम्हारी सफेद साड़ी फिर से छींटदार हो जाएगी
किसी सुहागिन के काम आ जाएगी
तीज त्योहार पर पहनकर
तुमको पूजने के लिए

(गंडक मेरे गांव को छूकर बहती है,इसकी हवा आज भी रातों को सर्द कर देती है)

नाइंसाफी की रात और खुशगवार मौसम

दसवीं मंज़िल की खिड़कियों से हवा बालकनी में उड़ी आ रही है। दिल्ली की आज की सुबह खुशनुमा है। शाम से ही हवा बदलने लगी थी। भोपाल से आने वाली हवा के असर को कम करने के लिए। हम ऐसे ही वक्त में रूमानी हो जाया करते हैं। दिल को बहलाने लगते हैं। लाखों लोगों की चीख और जज का वो मामूली फ़ैसला नाइंसाफ़ी के स्लोगनों के हवाले हो गया है। बालकनी से नीचे दिख रही सड़क रात ही बारिश में धुल चुकी है। नाइंसाफ़ी के इस घोर दौर में सब निकल रहे हैं,अपने अपने सिस्टम में आठ घंटे के लिए समाने। वो लड़का कैसा होगा जो इसी तरह चौरासी की किसी सुबह बीएचयू से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद भोपाल के लिए निकल गया होगा। इंसाफ़ की लड़ाई लड़ने। टीवी पर सारंगी को बोलते देखा तो तमाम शब्द किसी गरम हवा में हल्के होकर उड़ने लगे थे। आज की ठंडी हवा इन तमाम शब्दों को लौटा लाई है। काइट्स फिल्म के गाने की तरह ‘तुम भी वही,हम भी हैं वही, क्या हुआ ग़लत,क्या सही’। काश इन छह लाख घरों में भी यू ट्यूब होता और ये गाना बज रहा होता।

भोपाल के गैस पीड़ितों,अभी सदियों का इंतज़ार पूरा नहीं हुआ है। इंतज़ार कभी इंसाफ़ का नहीं होता। बेबसी का होता है। राजनीति फिल्म देख आइये। ‘ऐ मेरी सुबह..हंसती हंसाती,बोली आके,तेरे लिए संदेशा है,जागी आंखों को कोई सपना मिलेगा,कोई खुशी आने का भी अंदेशा है..हां है..हा हा..गुलाबी सी सुबह..हा हा..शराबी सी हवा..भीगी सी भागी सी मेरे बाजुओ में समा...’ सब संवेदनशील ही है तो पीड़ितों का सब्र क्या है। उनमें सिस्टम का कपार न फो़ड़ने की जो संवेदनशीलता है उसका क्या है। नेताओं के भाषण मज़ाक लगते हैं। अच्छा है राजनीति के मैदान में विचारधाराएं पिट चुकी हैं। उन्हें अब फिल्मों में भी जगह नहीं मिलती। टीवी पर कल रात के बासी टिकर चल रहे हैं। कब मिलेगा इंसाफ़, ये कैसा इंसाफ़, एक जीवन एक रुपया। एंकर गली के कुत्ते की तरह भौंक रहे हैं...एंडरसन चुपचाप निकला जा रहा है। अभी तक अख़बार नहीं आया है। हवा आ गई है। ठंडी हो गई है। फेसबुक पर संदेश है कि भोपाल फैसले पर लिखियेगा। हवाओं की बेइमानियों पर लिखें या इंसाफ़ की बेमानियों पर। हर शब्द एंडरसन के जूतों के नीचे मचल जाता है। हर तल्खी एंडरसन की मुस्कुराहट में धुल जाती है। ‘मोरा पिया मोसे बोलत नहीं...द्वार जिया के खोलत नाहीं’.. गानों का ही सहारा बच जाता है मेरे लिए। पत्रकारिता स्लोगन की दुकान नहीं होती तो हम जैसे को कोई काम नहीं मिलता। भारत की बेरोज़गारी की लिस्ट में गिन लिये जाते और किसी योजना के रहमोकरम के भरोसे छोड़ दिये जाते। ‘कोई जतन अब...कोई जतन अब काम न आए..उसे कछु सोहत नहीं..मोरा पिया मोसे बोलत नाहीं’....। भोपाल की हवा गरम लग रही हो तो दिल्ली आ जाइये। यहां की हवा सुहानी हो गई है।

इस राजनीति को कैसे देखें और क्यों देखें?

राजनीति एक छोटी फिल्म है। छोटी इसलिए क्योंकि अच्छी फिल्म होने के बाद भी दिलचस्प और बेजोड़ की सीमा से आगे नहीं जा पाती। कोई धारणा नहीं तोड़ती न बनाती है। अभिनय और संवाद और बेहतरीन निर्देशन ने इस फिल्म को कामयाब बनाया है। कहानी राजनीति के बारे में नई समझ पैदा नहीं करती। नए यथार्थ को सामने नहीं लाती। लेकिन इतनी मुश्किल कहानी और किरदारों को सजा कर ही प्रकाश झा ने बाज़ी मारी है और एक अच्छी फिल्म दी है। मैं बस इसे एक अच्छी फिल्म मानता हूं। यादगार नहीं। जो कि हो सकती थी।

मनोज बाजपेयी और रणबीर कपूर के अभिनय में एक किस्म का रेस दिखता है। पुराना और नया टकराते हैं। अपने-अपने छोर पर दोनों का अभिनय ग़ज़ब का है। मनोज की संवाद अदायगी काफी बेहतरीन है। अभिनय से अपने किरदार में जान डाल दी है। गुस्सा और लाचारी और महत्वकांझा का मिक्स है। रणबीर के अभिनय का भाव अच्छा है। एक अच्छा मगर शातिर लड़का।

महाभारत का दर्शन एक खानदान के भीतरघातों की कहानियों में ऐसे फंसता है कि सबकी जान चली जाती है। कोई अर्जुन नहीं,कोई दुर्योधन नहीं और कोई युधिष्ठिर नहीं है। सब बिसात पर मोहरों को मारने वाले हत्यारे हैं। किसी की नैतिकता महान नहीं है। सब पतित हैं। इस पारिवारिक युद्ध का कथानक बेहद निजी प्रसंगों में कैद होकर रह जाता है। सब कुछ सिर्फ चाल है।

इतनी रोचक फिल्म महान होते होते रह गई,बस इसलिए क्योंकि तमाम हिंसा के बीच विचारधारा को ओट बनाने की कोशिश नहीं की गई है। कम से कम विचारधाराओं की नीलामी ही कसौटी पर रखते। वही चालबाज़ियां हैं जिन्हें हम जानते हैं और जिनके कई रुपों को अभिनय के ज़रिये दोबारा देखते हैं। लेकिन हिन्दुस्तान की राजनीति विचारधारा की कमीज़ पहन कर घूमा करती है। उस ढोंग का पर्दाफाश नहीं दिखता जो खोखली और असली विचारधारा के बीच की जंग में पारिवारिक चालबाज़ियां छुप कर की जाती हैं। फिल्म में पूरी राजनीति प्रोपर्टी का झगड़ा बन कर रह जाती है। किसी का किरदार राजनेता का यादगार चरित्र नहीं बनाता। सब के सब मामूली मोहरे। हत्या और झगड़ा।

सूरज का किरदार ही है जो महाभारत से मिलता जुलता है। लेकिन नाम भर का। आज की दलित राजनीति के बाद भी यह दलित किरदार नाजायज़ निकला,मुझे काफी हैरानी हुई। बहुत उम्मीद थी कि सूरज बीच में आकर पारिवारिक खेल को बिगाड़ देगा लेकिन वो तो हिस्सा बन जाता है। आखिर तक पहुंचते पहुंचते दलित राजपूत का ख़ून निकल आता है। कुंती का नाजायज़ गर्भ दलित के घर में जाकर एक ऐसा लाचार कर्ण बनता है जो बाद में अपने राजपूती ख़ून को बचाने के लिए दोस्त दुर्योधन को ही दांव पर लगा देता है। ये वो वादागर कर्ण नहीं है जो सब कुछ त्याग देता है। फिल्म के आखिरी सीन में अजय देवगन समर प्रताप सिंह के रोल में रणबीर कपूर पर गोली नहीं चलाता। वीरेंद्र प्रताप सिंह मारा जाता है। कर्ण की दुविधा वीरेंद्र प्रताप सिंह के लिए जानलेवा बन जाती है। अगर सूरज समर पर गोली चला देता तो कहानी पलट जाती। लेकिन निर्देशक ने उसकी भी मौत तय कर रखी थी। समर प्रताप के ही हाथ। जिसे सूरज अपना खून समझ कर छोड़ देता है उसे समर प्रताप एक नाजायज़ ख़ून समझ कर मार देता है। बाद में फ्लाइट पकड़ कर अमेरिका चला जाता है पीएचडी जमा करने।


कैटरीना कैफ सोनिया गांधी की तरह लगती होगी लेकिन इसका किरदार सोनिया जैसा नहीं है। सारे किरदारों के कपड़े लाजवाब हैं। मनोज का कास्ट्यूम सबसे अच्छा है। चश्मा भी बेजोड़ है। लगता है प्रकाश झा बेतिया स्टेशन से खरीद कर लाये थे। कैरेक्टर को दुष्ट लुक देने के लिए चश्मा गज़ब रोल अदा करता है। अर्जुन रामपाल का अभिनय भी अच्छा है। धोती कुर्ता में नाना पाटेकर भी जंचते हैं। आरोप-प्रत्यारोपों की हकीकत सामने लाने के लिए महिला यूथ विंग की नेता का अच्छा इस्तमाल है। दलित बस्ती में मर्सेडिज़ की सवारी शानदार है। सबाल्टर्न का मामूली प्रतिरोध। नसीरूद्दीन शाह का किरदार कुछ खास नहीं है। कम्युनिस्ट नेता एक रात की ग़लती का प्रायश्चित लेकर कहीं खो जाता है। ये किरदार वैसा ही है जैसा जेएनयू जाएंगे तो सड़क छाप लड़के कहा करते हैं कि लड़की पटानी हो तो लेफ्ट में भर्ती हो जाया कीजिए। नसीर होते तो विचारधाराएं टकरातीं। विचारधाराओं की बिसात पर शह-मात के खेल होते तो कहानी यादगार बनती। लेकिन भाई ही लड़ते रह गए।

प्रकाश झा का कमाल यही है कि जो भी कहानी सामने थी उसके साथ पूरा न्याय किया है। भाइयों के बीच के झगड़े को बड़ा कैनवस दिया है। उसकी बारीकियों को खूबी से सामने लाया है। भीड़ की अच्छी शूटिंग की है। सहायक निर्देशकों ने भी खूब मेहनत की है। पहले हिस्से में फिल्म अच्छी लगती है लेकिन जब चाल चलने की संभावना खत्म हो जाती है और कहानी नतीजे की तरफ बढ़ती है तब निर्देशक सारे किरदारों को खत्म करने का ठेका ले लेता है। काश अगर इन्हीं दावेदारों में से कोई विजेता बन कर उभरता तो आखिर में ताली बजाने का मौका मिलता। एक सहानुभूति पैदा होती है। सिनेमा हाल से कुछ लेकर निकलते। फिर भी फिल्म देखते वक्त नहीं लगा कि टाइम खराब कर रहे हैं। यह फिल्म इसलिए भी अच्छी है क्योंकि सबने अच्छा काम किया है। कमजोरी कहानी की कल्पना में रह गई है। वर्ना दूसरा हिस्सा फालतू की मारामारी में बर्बाद नहीं होता। आप देख कर आइयेगा। मैं स्टारबाज़ी नहीं करता। इस फिल्म को देखना ही चाहिए।

जाति को हम सिर्फ एक चश्मे से देख रहे हैं।

ब्रिटिश हुकूमत से दो सौ साल पहले राजस्थान के मारवाड़ में जनगणना हुई थी। इस जनगणना में जाति के हिसाब से घरों की गिनती हुई थी। 1658 से 1664 के बीच मारवाड़ राजशाही के महाराजा जसवंत सिंह राठौर के गृहमंत्री मुहता नैणसी कराया था। इतिहासकार नॉर्बेट पेबॉडी ने अपने इस अध्ययन से साबित करने की कोशिश की है कि जनगणना औपनिवेशिक दिमाग की उपज नहीं थी। इससे पहले कि हम यह कहें कि औपनिवेशिक हथियार के रूप में जनगणना का इस्तमाल हुआ तो हमें मारवाड़ के देसी प्रयास को भी ध्यान में रखना होगा। सब कुछ बाहर से थोपा नहीं जा रहा था। हमारे देश में जनगणना चल रही है। केंद्रीय कैबिनेट को फैसला करना है कि जाति की गणना हो या नहीं। यह बहस पुरानी है कि जाति की गिनती से समाज बंट गया। उससे पहले हम जाति के आधार पर नहीं बंटे थे। इतिहासकारों ने यह भी साबित किया है कि ब्रिटिश हुकूमत की जनगणना से कई जातिगत सामाजिक ढांचे खड़े हो गए। कई नई जातियां बन गईं। नई जातियों ने जनेऊ पहनने का एलान किया तो कई जातियों ने अपने टाइटल बदल लिए। जातियों के बीच पहचान की दीवारें मजबूत हो गईं। इतिहासकार रश्मि पन्त ने लिखा है कि जाति की पहचान का ठोस रूप बन गया।

नैन्सी ने जाति के हिसाब से जोधपुर और आस-पास के ज़िलों में घरों की गिनती कराई थी। इस तरह की व्यवस्था दूसरे इलाकों में थी जिसे तब खानाशुमारी के नाम से जाना जाता था। नैन्सी के टाइम में खास जाति के घरों को गिना गया था। यह भी हो सकता है कि कई जातियों के पास घर ही न हो। कई राजस्थानी रजवाड़ों के पास गांवों में जाति के हिसाब से घरों की गिनती होती थी। इस तरह की गिनती राजस्व वसूली की सुविधा के लिए शुरू हुई थी। मारवाड़ में अलग अलग जाति के लोगों पर अलग अलग कर थे। इसीलिए नैन्सी की गिनती में आबादी की कुल संख्या का पता नहीं चलता है क्योंकि व्यक्ति की गिनती नहीं हुई थी।

इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि कई ब्रिटिश प्रशासकों को जाति की संख्या के की उपयोगिता और प्रमाणिकता पर शक था। फिर भी यह कार्यक्रम चलता रहा। जिसे १९३१ के बाद से बंद कर दिया गया। तब तक भारत की राजनीति में अंबेडकर एक हस्ती के रूप में उभरने लगे थे। जाति पर बहस तेज हो चुकी थी। जाति सुधार से लेकर जाति तोड़ों जैसे आंदोलन चलने लगे थे। हाल ही में पेंग्विन से आई विक्रम सेठ की मां लीला सेठ की आत्मकथा में लिखा है कि तीस के दशक में उत्तर प्रदेश के रहने वाले उनके नाना ने जातिसूचक मेहरा शब्द हटा दिया था। अगर जाति जनगणना से सिर्फ जातिगत पहचान मजबूत ही हुई तो फिर टूटने की बात कहां से निकली। कहीं ऐसा तो नहीं हम सिर्फ एक चश्मे से देख रहे हैं।

यह सही है कि जातिगत जनगणना के बाद जातिगत संगठन बने। जाति के हिसाब से समाज में ऊंच-नीच था। जाति को चुनौती देने के लिए संख्या सबसे कारगर हथियार बन गई। जातिगत ढांचे को कमज़ोर करने में संख्या की राजनीति के योगदान को हमेशा नज़रअंदाज़ किया जाता है। संख्या की राजनीति न होती तो मायावती ब्राह्मणों के सामाजिक राजनीतिक संबंध कायम न करतीं। उन्हें बहुमत नहीं मिलता। जबकि बीएसपी की शुरूआत ही इस नारे से हुई थी कि जिसकी जितनी संख्या भारी,उसकी उतनी हिस्सेदारी।

ललित नारायण मिथिला यूनिवर्सिटी के राजनीतिशास्त्री जितेंद्र नारायण ने अपने शोध में लिखा है कि 1934 में बिहार कांग्रेस वर्किंग कमेटी में कायस्थों का प्रतिशत 53 था। 1935 की वर्किंग कमेटी में राजपूतों और भूमिहारों ने मिलकर चुनौती दी और कायस्थों का वर्चस्व घटकर 28 प्रतिशत रह गया। संख्या के आधार पर सत्ता संघर्ष का नतीजा ही था कि 1967 में बिहार में पहली बार 71 बैकवर्ड विधायक जीत कर आए। कायस्थ ने पिछड़ों से हाथ मिलाकर भूमिहार और राजपूतों के गठजोड़ को मात दी। कायस्थ मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद ने पिछड़ों के नेता रामलखन सिंह यादव को मंत्री बना दिया। जातिगत प्रतिस्पर्धा का ही नतीजा था कि रामलखन सिंह यादव पिछड़ों के नेता के रूप में उभर गए।

संख्या की लड़ाई में सब जातियों ने सुविधा के हिसाब से कभी हाथ मिलाया तो कभी तोड़ा। इसका नतीजा यह निकला कि राजनीति में कोई भी जाति किसी के लिए अछूत नहीं रही। जातिगत अहंकार टूट गया। यह भी सही है कि जातिगत चेतना का प्रसार हुआ। स्वाभाविक था जब जाति की सीढी का इस्तमाल सत्ता की प्राप्ति के लिए होगा तो कायस्थ महासभा और ब्राह्मण महासभा का गठन हुआ। जातिगत पत्रिकाएं निकलीं। हर जाति सामाजिक दायरे में अपनी श्रेष्ठता का दावा करने लगीं। नए-नए टाइटल निकाले गए और ब्राह्मणों से बाहर की जातियां जनेऊ करने लगीं।

आजादी के बाद से जाति जनगणना नहीं हुई तो क्या सत्ता संघर्ष या समाज से जाति गायब हो गई। अमेरिका में रहने वाले प्रवासियों का संगठन जाति के आधार पर है। यहां तक कि ब्लॉग जगत में भी जातिगत ब्लॉग हैं। जाति का टूटना एक अलग प्रक्रिया है जो चल रहा है। अंबेडकर ने कहा था कि जाति को तोड़ों। हम किस जनगणना का इंतजार कर रहे हैं। जिन लोगों ने अंतर्जातीय विवाहों के ज़रिये जाति तोड़ी है उनकी भी गिनती होनी चाहिए और जाति की जनगणना में वो भी गिने जाएं जो जाति को बचाने में लगे हैं। दोनों के बीच संख्या का सामाजिक संघर्ष का वक्त आ गया है। इसलिए जाति की गणना होनी चाहिए। इससे जाति मजबूत नहीं होगी। नया संघर्ष होगा। होने दीजिए।