वन रूम सेट का रोमांस- दिल्ली मेरी जान (7)

अचानक कोई लड़का कमरे में आ जाता था। पहचान तो रे। अरे..मूंछें कहां गई। पीछे से दूसरा लड़का अंदर आता था। पूछो न किसके लिए गई है। बस दरवाज़े पर ही गुत्मथ-गुत्थी हो जाती थी। अपनी खूबसूरती की तलाश में प्रवासी छात्रों ने सबसे पहले मूंछों को सज़ा दी। मूंछ मुंडा। अब फैशन स्टेटमेंट हो रहा था। शुरू शुरू में मूंछ मुंडाने के लिए समय का ख्याल रखा जाता था। पहली बार मूंछ त्याग यह सोच कर किया जाता था कि एक दो महीना अब पूर्वांचल की ट्रेन में नहीं लदायेंगे। इस दौरान मूंछ विहीन खूबसूरत बिहारी जवान लोगों की नज़रों में एडजस्ट होने का अभ्यास करते थे।


धीरे-धीरे पटना बिना मूंछ के ही जाने लगे। मां बाप सदमे में आने लगे। "अरे भाई जिसका बाप मर जाता है वो मूंछ नहीं रखता है। अभी तो हम ज़िंदा है। ई तो साला ऊहां जाकर मौज कर रहा है। आईएएस न बनबे का रे। देख फलनवां का बेटा। छह महीने तक दाढ़ी नहीं बनाइस। कलेक्टर बन गया है। तीन ट्रक दहेज का सामान मिला है।" अब कहने की बारी लड़के की होती थी। लड़का बाप को कम, मां और बहन को ज़्यादा सफाई देता था। बेटे के मन की बात इन्हीं चैनलों से बाप तक पहुंचती थी। आज भी पहुंचती है। मां-बाप ने अपने लाडलों का मुंडन न जाने किन-किन देवी-देवताओं के दरवाज़े पर करवाया होगा,हिसाब नहीं। विंध्याचल,पटनदेवी के मंदिर से लेकर सोनपुर और देवघर तक उनका मुंडन भखाया गया होगा। बिना मूंछ के देख मां-बाप को काफी दुख पहुंचा होगा। बेटा यही कहता रहता था कि दिल्ली बिहार नहीं है। वहां पर सब ऐसे ही रहते हैं।


हवा लगना एक सामाजिक रासायनिक प्रतिक्रिया है। दिल्ली का हवा लग गया का रे। हम सब शुरूआती दिनों में दिल्ली की आबो-हवा को बहुत बेकदरी से देखते थे। हवा न लग जाए इसके लिए सामाजिक मान्यताएं और बाप का भय हिमालय का काम करता था। हुलिया बदलते ही पहला सवाल यही होता था। तुमको भी हवा लग गया। हवानिरोधी क्षमता वाले छात्र किसी पुरातन की तरह सनातन बन कर घूमा करते थे। नैतिक सिपाही। ये टर्म तब नहीं था। रेट्रोस्पेक्ट में लिख रहे हैं। जिस राज्य में दाढ़ी नहीं बनाना काबिल छात्र की पहली निशानी थी,उस राज्य के लड़के बड़ी संख्या में मूंछ विहीन होने लगे। घरों में चर्चा तो होने ही थी।


लेकिन वन रूम सेट ऐसे बदलावों को स्वीकृति दे देता था। न जाने ऐसे कितने बदलाव खप गए। हम सब बदल रहे थे। सिर्फ एक कमी सबको मारती थी। अंग्रेजी की कमी। हिंदी राष्ट्रवाद को लतियाते गरियाते ये नौजवान अंग्रेजी के अभाव में न जाने कितनी प्रेम कहानियों से ग़ायब कर दिए गए,इसका कोई आंकड़ा नहीं मिलेगा। ज़्यादतर लड़कों ने डिक्शनरी खरीदी। उच्चारण सीखा। किसी लड़की से पहली बार अंग्रेजी बोलने का नाकाम अभ्यास रात भर वन रूम सेट को गुलज़ार किये रहता था। वो लड़का जब भी आईपी हॉस्टल जाता था,दरवाजे को देखते ही अंग्रेजी बड़बड़ाने लगता था।


ख़बरदार जो इसे बड़बड़ाना कहा। इसे गोला गिराना कहते थे। गोला एक किस्म का प्रवासी छात्रों का खोजा हुआ फार्मूला। गोला ज्ञान का देशज रूप। कई छात्र गोला ज्ञानी हो गए। भले पढ़ाई में ज़ीरो साबित हुए लेकिन गोला गिराना एक कामयाब फार्मूला था। इसकी पहली शर्त थी कि लड़कियां मूर्ख होती हैं। यह मानने के बाद ही गोला गिराना शुरू होता था। लड़के घंटों बैठकर लड़कियों को गोला ज्ञान देते थे। काश कोई लड़की ऐसे गोला गिरावक खूबसूरत जवानों के साथ अपने अनुभवों को यहां लिख जातीं। मैं जानना चाहता हूं कि क्या वे लड़कियां वाकई मूर्ख थीं? या फिर किस रणनीति के तहत वे गोला एक्सपर्ट के ज्ञान को झेला करती थीं? मुझे वो लड़का आज तक याद है। अच्छी अंग्रेजी आती थी। लेकिन उसके पास कोई लड़की नहीं आती थी।


वन रूम सेट के अंधेरे बंद कमरों ने गोला गिराने की ताकत से प्रवासी छात्रों को लैस कर दिया। अंग्रेज़ी विहीन ये लड़के गोला के दम ही पर निकल पड़े गर्ल्स होस्टलों की तरफ। टेन्स और प्रिपोज़िशन के आतंक से मुक्त। ग्रामर के कारण उनके अरबों अधूरे वाक्यों को कोईं संजो देता तो किसी कालजयी रचना के लेवल का उपन्यास बन जाता। वन रूम सेट का रोमांस जारी है।

दोस्त कहां कोई तुम सा....

हरियाणा की रुचिका गिरहोत्रा मामले का राज़ आज सबको पता नहीं होता अगर अराधना उसकी दोस्त न होती। उन्नीस साल तक अराधना अपनी दोस्त रुचिका के इंसाफ के लिए लड़ती रही। इस दौरान उसने अपनी दोस्त को भी खो दिया। एस पी एस राठौर पुलिस की ताकत का इस्तमाल करता रहा लेकिन अराधना हार नहीं मानी। अमन के साथ शादी के बाद अराधना का मुल्क बदल गया। वो आस्ट्रेलिया और सिंगापुर रहने लगी। इसके बाद भी अराधना अपनी बचपन की दोस्त रुचिका के साथ हुई नाइंसाफी को नहीं भूली। उसके इंसाफ के लिए लड़ती रही।


चौदह-पंद्रह साल की उम्र की यह दोस्ती। हम सब इस उम्र में दोस्तों को ढूंढते हैं। घर से बाहर निकलने की बेकरारी होती है। किसी और से जुड़ कर दुनिया और खुद को समझने की तड़प। उम्र के इस पड़ाव पर लगता है कि अगर दोस्त पक्का है तो जीवन में बहुत कुछ अच्छा है। हम सब के जीवन में इस उम्र के आस-पास बहुत सारे दोस्त बनते हैं और बदलते हैं क्योंकि सब एक दूसरे में सच्चा दोस्त ढूंढते हैं।


रुचिका ने अराधना में जो दोस्त ढूंढा, उसे अराधना ने साबित कर दिया। अपने मां-बाप से इस मामले को अदालत तक ले जाने की दरख्वास्त की। अराधना के पति ने बताया कि वो अपनी कंपनी से बहाने बनाकर ऑस्ट्रेलिया से चंडीगढ़ आते थे, ताकि मुकदमें की सुनवाई के वक्त मौजूद रहे। अराधना के जज़्बे को अमन ने भी समझा। अमन ने कभी अराधना को अकेले नहीं आने दिया। राठौड़ कुछ भी कर सकता था। यह पूरा मामला आज पूरी दुनिया के सामने है क्योंकि इसमें एक सच्चे दोस्त और अच्छे जीवनसाथी की बहुत ही सक्रिय भूमिका रही है।


यही मौका है एक बार फिर से समझने के लिए कि आम हिंदुस्तानी घरों में लड़कों से संस्कार की उम्मीद कम सफलता की ही आशा ज़्यादा की जाती है। उसे नहीं सिखाया जाता कि लड़कियों को किस नज़र से देखना है। सारी तालीम लड़कियों को दी जाती है कि लड़कों की नज़र से कैसे बचें। अगर लड़के को बचपन से ही यह सीखाया जाए कि लड़कियों के साथ सामान्य बर्ताव कैसे करें तो बड़े होने पर या सत्ता हासिल होने पर राठौर जैसे हिंसक और वहशी तत्व उसके भीतर पनप नहीं सकेंगे।


अपने दोस्तों के बीच इस मुद्दे को लेकर खुल कर बात करनी चाहिए। कब तक हमारे शहरों में लड़के छेड़खानी करने के लाइसेंस लिये घूमते रहेंगे। सोच कर डर लगता है कि राठौर के इस अपराध में कितने पुलिस वालों ने साथ दिया। राठौर की वकील पत्नी ने भी साथ दिया। वो लोग कैसे आज अपनी बेटियों का सामना कर रहे होंगे जिन्होंने राठौड़ की मदद की और रुचिका के पिता सुभाष गिरहोत्रा और उसके भाई को तड़पाया।


रुचिका की कहानी सामाजिक रिश्तों के दरकने और दोस्ती के बचे रह जाने की कहानी है। दोस्तों की कीमत समझने की कोशिश कीजिए। ये रिश्ता सिर्फ हंसी मज़ाक का नहीं है बल्कि उस बुरे दौर का भी बंधन है जब सारे लोग आपके खिलाफ हो जाते हैं। इसीलिए किशोरों पर दोस्तों का प्रभाव बहुत ज़्यादा होता है। अराधना ने एक बार फिर से इस दोस्ती को गौरवान्वित किया है।

फेसबुक में सैंकड़ों अनजाने लोगों से कनेक्ट होने से तो अच्छा है कि एक अराधना मिल जाए। वो कोई राहुल भी हो सकता है। इस उम्र में हम भी अपने दोस्तों की चीज़ों को अपना समझते थे। किसी की कमीज़ पहन लेते थे तो किसी को अपना जूता दे देते थे। साझा करने का आनंद दोस्त की तलाश पूरी करता है। अब लगता है कि दोस्तों के बीच भावनात्मक संबंध कमज़ोर पड़ रहे हैं। दफ्तरों की गलाकाट प्रतियोगिता दोस्तों को प्रतियोगी बना रही है। पुराने दोस्त या तो कहीं छूट गए या फिर भूल गए।

दोस्ताना,याराना,दोस्ती, दिल चाहता है जैसी फिल्मों को देखकर लगता रहा कि काश ऐसी दोस्ती हमारे हिस्से भी होती। पुरानी फिल्मों में दोस्त का किरदार एकदम भावुक होता था। उससे उम्मीदें होती थीं। उसकी बेरुखी दिल तोड़ देती थी। संगम फिल्म का गाना दोस्त दोस्त न रहा और दोस्ताना का गाना-मेरे दोस्त किस्सा ये क्या हो गया सुना है कि तू बेवफा हो गया,याराना का गाना- तेरे जैसा यार कहां...कहां ऐसा याराना,ऐसे गाने पीढ़ियों तक दोस्ती की छवि गढ़ते रहे। आजकल की फिल्मों के दोस्त मौज मस्ती के होते हैं। प्रैक्टिकल होते हैं। इसीलिए दिल चाहता है दोस्ती के संबंधों को आज के संदर्भ में देखने वाली आखिरी फिल्म थी। वैसे तो बाद में न्यूयार्क और दोस्ताना भी आई। लेकिन अराधना का असली किस्सा अब दोस्ती के किस्सों का सबसे बड़ा किरदार बन गया है। अपने आप से पूछिये क्या आपके पास अराधना जैसी दोस्त है।

वन-रूम सेट का रोमांस- दिल्ली मेरी जान (6)

शहर बड़ा अजीब लगता था। आबादी को पचाने के लिए इसका पेट फैला जा रहा था। बेरसराय के सारे मकान ऊंचे होने लगे। गली-गली में वन रूम सेट के छोटे-छोटे पोस्टर लग गए। सफेद काग़ज़ पर काले काले मोटे अक्षर। कंप्यूटर के आने से पोस्टर लगाना आसान हो गया। मेस खुलने लगे। अंडा-पराठा और आचार-पराठा। मेस की मेज़ आचार और नमकदानी के साथ सिगरेटदानी से सजी होती थी। एक टीवी भी होता था। क्रिकेट मैच के दौरान पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक उफानों को राष्ट्रवादी मुलम्मों के साथ व्यक्त करने का मंच बनता जा रहा था। सईद अनवर के जमते ही सांसे पत्थर हो जाती थीं। वेंकटेश प्रसाद की उखड़ती गेंदों से जब विकेट चटकते थे तो जान में जान आ जाती थी। भोजन पूरा होता रहता था। प्रवासी छात्रों ने उधार की प्रक्रिया में हाथ जलाना शुरू कर दिया। एक सिगरेट को तीन लोग पीने लगे। सिगरेट छोड़ देने का साप्ताहिक प्रण लिया जाने लगा। तोड़ा जाने लगा।

जवाहर बुक डिपो के आस-पास मंडराने वाले महान भारत के भावी लोकसेवक। हर असली किताब का नकली प्रिंट। छापे पड़ते थे। दुकान फिर खुलती थी। हर किताब फार्मूला की तरह देखी जाती थी। चलता है या नहीं चलता है। राजीव भैया ने सूची जारी कर दी है। एकाध राजीव भैया टाइप लोग यूपीएससी की कामयाबी के चलते तमाम कमरों में किसी सचिन तेंदुलकर की तरह चर्चा में आ जाते थे। दूर दूर से वन रूम सेट के बाशिंदे निकल कर राजीव भैया के वन रूम सेट तक पहुंच जाते थे। यूपीएससी निकालना मज़ाक नहीं था। इसका हो गया रे...आयं रे, इ हो यूपीएससी कर गईस। बड़ा दहेज मिलेगा हो। मां-बाप का नाम रोशन कर दिहीस। हमारे बिहार के गांव-घरों में रौशनी इन्हीं सब कामयाबी की ख़बरों से होती है। दहेज के सामानों का भविष्य तय होता था। जवाहर बुक डिपो बिहार यूपी के गांव-घरों में शाहजहां रोड पर बने यूपीएससी के दफ्तर से ज़्यादा लोकप्रिय हो गया।

किशोर कुमार के गानों से किसी की कामयाबी से पैदा हुआ दर्द हल्का होता रहता था। शाहरूख़ ख़ान के निगेटिव रोल से दिल्ली की लड़कियों को तरसती निगाहों से देखने वाले गांव-घरों के राजकुमारों को सुकून पहुंच रहा था। कुछ लड़कों ने तैयारियों के सिलसिले में सांझा चूल्हा चालू कर लिया था। महान भारत के भावी सेवक खिचड़ी से लेकर मटन बनाने के विशेषज्ञ हो रहे थे। योजना पत्रिका के आंकड़ों को घोट रहे थे। रोज़गार समाचार और द हिंदू के संपादकीय। भारतीय दैनिक ज्ञान भंडार के मूल स्त्रोत। सफलता के कई ताबीज इनसे चुराई गई मंत्रों से बने थे। फ्रंटलाइन और इंडिया टुडे से निकली जानकारियां लोकसेवकों के ज्ञान चक्षु खोल रही थीं।

मनोज तिवारी का गाना इसी दौरान लांच हो गया था। गांव में किसी ने मज़ाक में पूछा था कि कब से दिल्ली में हैं। कब आइयेगा। अगले साल आईएएस हो जाएगा? संतोषजनक जवाब नहीं मिला तो बोले कि मनोज तिवारी का गाना सुनले बानी जी। ना...कौन हवे इ। नचनिया-बजनिया के चक्कर में हम ना घूमी। चाचा जी ने कहा सुन लीह। निमन गवले बा। जब गाना सुना तो काठ मार गया। महान भारत के लोकसेवक बन कर दिल्ली से लौट आने के इंतज़ार में बैठे मां-बाप के भावों को मनोज तिवारी ने पकड़ लिया था और गा दिया था। इस गाने के कारण कामयाबी का इंतज़ार कर रहे कई भावी लोकसेवक गांव आने से डरने लगे। सुना है कि जुबली हॉल में भी ये गाना बजने लगा। पता चल गया कि चाचाजी ने इस गाने के ज़रिये औकात दिखाने की कोशिश की है। गांव-घरों में नाकाम लड़कों की सामाजिक हैसियत इन्हीं सब तंजो से तय होती है। उनका लड़का बनाम हमारा लड़का चलता रहता है। रिश्तेदारों का डायलॉग होता था- गईल रहले बबुआ। रोपया उड़ावत रहले। समझा समझा कर थक गया कि मैं लोकसेवक नहीं बनूंगा। कंपटीशन नहीं दूंगा। फिर भी तमाम महान नाकाम लोकसेवकों में गिना गया। मेरे पड़ोस के चाचाजी ने ऐसे नाकाम विद्यार्थियों के लिए जुमला निकाला था- बुरबक विद्यार्थी का बस्ता भारी।

मनोज तिवारी का गाना है- अस्सीये में ले के एडमिशन..कंपटीशन देता। ये गाना वन-रूम सेट में रह रहे प्रवासी छात्रों की दास्तान का एक लोक दस्तावेज़ है। गाने का भाव कुछ ऐसा है कि सन अस्सी से ही यूपीएससी दे रहा है। नहीं हो रहा है। मूंछ मुंडा ली है। मनोज का गाना चल रहा है। दिल्ली,इलाहाबाद और काशी के हॉस्टलों और वन-रूम सेटों से यथार्थ निकल कर लोकधुन में मन रमाने लगता है।


चानी पर के बार... चांनी पर के बार झरल....
मोछ के निशान नईखे
ओभर भइल एज बाकीर
तनिको गुमान नईखे
चानस भिड़ौले बाटे
चानस लहौले बाटे
दे के पटीशन
कंपटीशन देता

इस गाने की समीक्षा बाद में करूंगा। लेकिन यह गाना वन रूम सेट के बुढ़ाये बाबाओं की सामाजिक मानसिक कथाओं को कहता है। कंपटीशन देना अपने आप में आरंभिक योग्यता की निशानी है। शादी के लिए अगुआ यानी लड़की वाले आते हैं और पिता की अकड़ का गज़ब का विश्लेषण है। मंडल के बाद उम्र की सीमा बढ़ा दी गई थी। चांस भी बढ़ गए थे। कंपटीशन देना एक काम हो गया था। कंपटीशन भविष्य निर्माण का आंदोलन। वन रूम सेट के खोह में इस आंदोलन की व्यक्तिगत,सामूहिक रणनीति बनाई जाती थी।


कंपटीशन देना एक सनातन प्रक्रिया के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था। पटना से दिल्ली ड्राफ्ट आने लगे थे। पासबुक। कई वन रूम सेट में यूपीएससी देने वाले बाबा और देवता के रूप में पुकारे जाने लगे। कोई प्रीलिम्स निकाल कर क्वार्टर अफसर बन जाता था तो कोई मेन तक पहुंच कर आधा अफसर बन जाता था। जुबली हॉल में कई ऐसे प्रौढ़ प्रतियोगियों को बाबा पुकारे जाते हुए सुना था। बाल मुंडा कर मेन्स देने का कर्मकांड किस प्रतिभाशाली ब्राह्मण की देन है,पता लगाया जाना चाहिए। अजीब सा चलन था। वन-रूम सेट ऐसे बाबाओं के किस्सों से आबाद होने लगे। यूपीएससी के अस्थाई सलाहकार। अच्छे खासे जवान लड़के यूपीएससी के कारण बुढ़ा गए। बाबा कहलाने लगे। वन-रूम सेट का रोमांस जारी है।

कब कटेगी चौरासी- कब पढ़ेंगे आप





जरनैल सिंह ने चिदंबरम पर जूता फेंक कर सही किया। जूता नही फेंकता तो चौरासी के दंगों की ऐसी भयानक दास्तान किताब की शक्ल में नहीं आ पाती। हर पन्ने में हत्या,बलात्कार और निर्ममता के ऐसे वाकयात हैं जिन्हें पढ़ते हुए आंखें बंद हो जाती हैं। दिल्ली इतना ख़ून पी सकती है,पचा सकती है,जब इस किताब को खतम किया तो अहसास हुआ। तभी जाना कि उन्नीस साल गुज़ार देने के बाद भी शहर से रिश्ता क्यों नहीं बना। वैसे भी जिस जगह पर अलग अलग शहरों से आ कर लोग रोज़मर्रा संघर्ष में जुटे रहते हैं वहां सामाजिक संबंध कमज़ोर ही होते हैं। हर किसी की एक दूसरे से होड़ होती है। घातक। कस्बों और कम अवसर वाले शहरों में रिश्ते मज़बूत होते हैं। भावनात्मक लगाव बना रहता है। किसी बड़े शहर के हो जाने के बाद भी। लेकिन कब कटेगी चौरासी पढ़ते पढ़ते यही लगा कि कांग्रेस समर्थित दंगे का समर्थन लोग भी कर रहे थे। भीड़ सिर्फ कांग्रेसी नहीं थी। इस भीड़ में आम शहरी भी शामिल थे। जो चुप रह गए,वो भी शामिल थे। उनकी यादों में चौरासी कैसे पच गया होगा,अब यह जानने के लिए बेचैन हो गया हूं। जिन लोगों ने अपनी आंखों के सामने पड़ोसी की किसी सरबजीत कौर की अस्मत लूटते हुए और उसकी चीख सुनते हुए अपनी रातें चुप चाप काट ली होंगी,जरनैल तुम इन पड़ोसियों से भी बात करो। उन पर भी किताब लिखो। इस किताब में पड़ोसी के बर्ताव,भय और छोटी मोटी कोशिशों की भी चर्चा है। उस पड़ोसी की भी है जिसने बचाने की कोशिश की और जान दे दी। लेकिन अलग से किताब नहीं है।


‘त्रिलोकपुरी, ब्ल़ॉक-३२। सुबह आंखों के सामने अपने पति और परिवार के १० आदमियों को दंगाइयों के हाथों कटते-मरते देखा था और अब रात को यही कमीने हमारी इज़्ज़त लूटने आ गए थे।‘यह कहते हुए भागी कौर के अंदर मानो ज्वालामुखी धधकने लगता है। ‘दरिंदों ने सभी औरतों को नंगा कर दिया था। हम मजबूर,असहाय औरतों के साथ कितने लोगों ने बलात्कार किया,मुझे याद नहीं। मैं बेहोश हो चुकी थी। इन कमीनों ने किसी औरत तो रात भर कपड़ा तक पहनने नहीं दिया।‘


‘इतनी बेबस औऱ लाचार हो चुकी थीं कि चीख़ मारने की हिम्मत जवाब दे गई थी। जिस औरत ने हाथ-पैर जोड़ कर छोड़ देने की गुहार की तो उससे कहा आदमी तो रहे नहीं, अब किससे शर्म करती हो।‘


जरनैल ने व्यक्तिगत किस्सों से चौरासी का ऐसा मंज़र रचा है जिसके संदर्भ में मनमोहन सिंह की माफी बेहद नाटकीय लगती है। नेताओं को सज़ा नहीं मिली। वो भीड़ कहां भाग कर गई? वो पुलिस वाले कहां गए और वो प्रेस कहां गई। सब बच गए। प्रेस भी तो इस हत्या में शामिल थी। नहीं? मैं नहीं जानता लेकिन जरनैल के वृतांतों से पता चलता है कि चौरासी के दंगों में प्रेस भी शामिल थी।


जरनैल लिख रहे हैं। इतने बड़े ज़ुल्म के बाद भी आसपास मरघट जैसी शांति बनी रही, मानो कुछ हुआ ही नहीं। मीडिया मौन है और टीवी पर सिर्फ इंदिरा गांधी के मरने के शोक संदेश आ रहे हैं। तीन हज़ार निर्दोष सिख राजधानी में क़त्ल हो गए और कोई ख़बर तक नहीं। क्या लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ सत्ता का गुलाम हो गया था, या इसने भी मान लिया था कि सिखों के साथ सही हो रहा है? यह तो इंडियन एक्सप्रेस के राहुल बेदी संयोग से ३२ ब्लॉक त्रिलोकपुरी तक पहुंचे तो इस बारे में ख़बर आई।


ये है महान भारत की महान पत्रकारिता। हर बात में अपनी पीठ थपथपाने वाली पत्रकारिता। मनमोहन सिंह की तरह इसे भी माफी मांग कर नाटक करना चाहिए। कम से कम खाली स्पेस ही छोड़ देते। यह बताने के लिए कि पुलिस दंगा पीड़ित इलाकों में जाने नहीं दे रही इसलिए हम यह स्पेस छोड़ रहे हैं। इमरजेंसी के ऐसे प्रयासों को प्रेस आज तक गाती है। ८४ की चुप्पी पर रोती भी नहीं।


शुक्रिया पुण्य प्रसून वाजपेयी का। उन्हीं की समीक्षा के बाद जरनैल सिंह की किताब पढ़ने की बेकरारी पैदा हुई। सिख दंगों को देखते,भोगते हुए एक प्रतिभाशाली क्रिकेटर अच्छा हुआ पत्रकार बन गया। वर्ना ये बातें दफन ही रह जातीं। जिस लाजपत नगर में जरनैल सिंह रहते हैं, उसके एम ब्लॉक में अपना भी रहना हुआ है। दोस्तों के घर जाकर रहता था। कई साल तक। कभी अहसास ही नहीं हुआ कि यहां ज़ख्मों का ऐसा जख़ीरा पड़ा हुआ है। ये जगह चौरासी की सिसकियों को दबा कर नई ज़िंदगी रच रही है। हम सब प्रवासी छात्र लाजपतनगर के इन भुक्तभोगियों को कभी मकान मालिक से ज़्यादा समझ ही नहीं सके। दरअसल यही समस्या होती है। महानगरों की आबादी अपने आस पडोस को संबंधों के इन्हीं नज़रिये से देखती है। कई साल बाद जब तिलकविहार गया तो लगा कि सरकार ने दंगा पीड़ितों पर रसायन का लेप लगाकर इन्हें हमेशा के लिए बचा लिया है। तिलकविहार के कमरे,उनमें रहने वाले लोग इस तरह से लगे जैसे कोई हज़ार साल पहले मार दिये गए हों लेकिन मदद राशि की लेप से ज़िंदा लगते हों। ममी की तरह। त्रिलोकपुरी से रोज़ गुज़रता हूं। तिलकविहार की रहने वाली एक महिला ने कहा था कि वहां हमारा सब कुछ था। यहां कुछ नहीं है। हर दिन खुद से वादा करता हूं कि त्रिलोकपुरी जा कर देखना है। अब लगता है कि चिल्ला गांव जाना चाहिए। जहां से आई भीड़ ने त्रिलोकपुरी के महिलाओं के साथ बलात्कार किया था। महसूस करना चाहता हूं कि यहां से आए वहशी कैसे अपने भीतर पूरे वाकये को ज़ब्त किये बैठे हैं। बिना पछतावे के। कैसे किसी एक ने भी अपने गुनाह नहीं कबूले। अगर पछतावे को लेकर कांग्रेस और मनमोहन सिंह इतने ही ईमानदार हैं तो त्रिलोकपुरी जाएं, तिलकविहार जायें और दंगा पीड़ितों से आंख मिलाकर माफी मांगे। संसद की कालीन ताकते हुए माफी का कोई मतलब नहीं होता।

ख़ैर। मैं इस किताब का प्रचारक बन गया हूं। इस शर्म के साथ मैंने उन पत्रकारों की बहस क्यों सुनी जिनसे आवाज़ आई कि जरनैल को अकाली दल से पैसा मिला है। जरनैल का पोलिटिक्स में कैरियर बन गया। शर्म आ रही है अपने आप पर। जरनैल ने जो किया सही किया। जो भी किया मर्यादा में किया। जरनैल के ही शब्दों में अभूतपूर्व अन्याय के ख़िलाफ अभूतपूर्व विरोध था। आप सबसे एक गुज़ारिश है। पेंग्विन प्रकाश से छपी निन्यानबे रुपये की इस किताब को ज़रूर पढ़ियेगा। त्रिलोकपुरी और तिलकविहार ज़रूर जाइयेगा और हां एक बात और,पढ़ने के बाद अपने अपने पूर्वाग्रहों से संवाद कीजिएगा।

पोपुलर प्रेस का आगमन

यूरोप की १८४८ की क्रांति पर एक किताब पढ़ रहा था। Jonathan Sperber की। इस किताब के एक हिस्से में पत्रकारिता पर भी चर्चा है। कैसे १८४८ की क्रांति के दौरान यूरोप के कई शहरों में अख़बारों की संख्या बढ़ती जाती है। उनका प्रसार बढ़ता है। प्रशिया के राइन प्रांत के तीन ज़िलों से निकलने वाले अख़बारों की संख्या सत्तर हो गई थी। इनमें से ३४ की स्थापना १८४८ की क्रांति के दौरान हुई। आस्ट्रिया साम्राज्य से उन्यासी अख़बार निकल रहे थे। सिर्फ उन्नीस को इजाज़त थी कि वे राजनीतिक मामलों की चर्चा कर सकते थे। सेंसर के तहत। ये सारे अख़बार जर्मन में थे।


अख़बारों की संख्या और प्रसार में वृद्धि के साथ पोपुलर प्रेस को लेकर बहस शुरू हो गई। क्या लिखा जाए जो आम आदमी को समझ आए इस सवाल को लेकर जूझ रहे थे। स्पर्बर कहते हैं कि इस दौरान पत्रकारिता के भीतर कई तरह की स्टाइल का जन्म और विकास हुआ। पहली बार पोपुलर प्रेस की दिशा में प्रयास हुए। १८४८ के पहले के अख़बारों की ख़बरें और लेख ज्ञानपूर्ण हुआ करती थीं। अकादमिक शैली में। कम ही लोग समझ पाते थे और अनुसरण कर पाते थे। क्योंकि कम ही लोग बारहवीं तक पास थे। शिक्षा का प्रसार नहीं हुआ था। लेकिन अल्प साक्षर जनता राजनीति में काफी सक्रिय थी। क्रांति की घटनाओं ने आबादी के बड़े हिस्से को राजनीतिक रूप से सक्रिय कर दिया था। पत्रकारिता के सामने एक समस्या आई। संवाद की समस्या। साहित्यिक शैली के लेखों के पाठकों और ख़बरों के प्रति बेचैन आम जनता के बीच संवाद की भाषा क्या हो। ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक कैसे पहुंचे।


क्रांति के दौरान कई अख़बार पढ़े लिखे तबके के लिए छप रहे थे लेकिन कुछ अख़बारों ने लोकरूप धारण करने का रास्ता चुन लिया। एक अख़बार का नाम था- New Cologne News for Townfolk, Country People and Soldier। इसका संपादन एक महिला कर रही थी। यह अख़बार मार्क्स के संपादित अख़बार Neue Rheinische Zeitung से अलग था। दोनों के टोन अलग थे। मार्क्स की लिखावट क्लिष्ट थी। जिसे आम आदमी के लिए समझना मुश्किल हो रहा था। वहीं कुछ अख़बार ऐसे निकलने लगे जो सिर्फ किसानों को अपना पाठक मान कर चल रहे थे। हंगरी,फ्रांस और जर्मनी से निकलने वाले कई अखबारों के नाम The Village Sheet,The Village News थे। गांवों से शहर मज़दूरी करने आने वाले लोगों के बीच ये अख़बार बांटे जा रहे थे।


इस तरह से आम लोगों के बीच राजनीति की ख़बरें पहुंचने लगीं। इससे पहले उन तक संतों की कथाएं,पंचांग और कैलेंडर ही पहुंच रहे थे। एक पन्ने का अख़बार होता था। शब्द कम होते थे और चित्र ज़्यादा। ताकि लोग समझ सकें। राजनीतिक नारे,ख़बरें आदि छप रही थीं। तंज करने वाले कार्टून का भी आगमन हो चुका था। इससे पहले जो खबरें होती थीं वो अपराध और विचित्र किंतु सत्य कैटगरी की हुआ करती थीं।


स्पर्बर कहते हैं कि उस दौरान अख़बार व्यक्तिगत पठन के लिए नहीं थे। सामूहिक पाठ होता था। कॉफीशॉप चर्च और सियासी क्लबों में। ऊंची आवाज़ में पढ़े जाते थे। अपनी कॉपी होने का बोध और चलन शुरू नहीं हुआ था। एक आदमी पढ़ता था और कई लोग झुंड बनाकर सुनते थे। साथ-साथ प्रश्नोत्तरी भी चलते रहती थी। लोग बीच में टोक कर किसी हिस्से को समझाने के लिए कहते थे। पढ़ने वाला समझाता था कि मतलब क्या है।

दिल्ली के आसमान में चांद

गोल ही अच्छा लगता है चांद
भोला सा
जैसे निकल आया हो मेरे गांव से
दिल्ली के आसमान में
बिना बताये
बाबूजी और मुखिया जी को
आवारा लग रहा था
दिल्ली के आसमान में
कैसे खा गया था रेड लाईट से चकमा
रूक रूक के निकलना पड़ा था चांद को
लौटने से पहले अपने गांव
घंटों फंसे रहना पड़ा था जाम में
मुंह चिढ़ा कर निकल गई थी मेट्रो
जिसने देखा भी उसने भी नहीं पहचाना
मेरे भोले चांद को
अनजाना,अकेला और अजीब लग रहा था
दिल्ली के आसमान में
जहां मोहब्बत की कसमें तरंगों में बदल कर
धड़कती रहीं चकोरों के फोन में
और ख़त्म हो चुका था चांद का इंतज़ार
दिल्ली के आसमान में
जहां तकियों के नीचे छुपाकर चेहरा
रची जाने लगी थीं इश्क की कल्पनाएं
आवारा लग रहा था चांद
दिल्ली के आसमान में

लाइब्रेरी

वो किताबें आज भी वहीं रखी होंगी
एक के ऊपर एक
किसी कोने में दबीं होंगी
जिनके पन्नों को पलट दिया था तुमने
शब्दों में गड़े इतिहास को ज़िंदा करने के लिए
उन पर पड़ती उंगलियां तुम्हारी
और उनसे टकराती उंगलियां मेरी
धड़कने लगा था इतिहास सारा
हम दोनों के उस एकांत में
मुग़लिया सल्तनत का विस्तार होने लगा था
और मेरे इतिहास बोध का
वो तुम्हारी बिंदी, जहां दिल था मेरी सल्तनत का
पीली तारों से बुनी तुम्हारी काली चादर
महफ़ूज़ कर रही थी मेरी क़ायनात को
छू जाता था जब तुम्हारे कंधे से मेरा कंधा
हलचल मच जाती थी पूरी सल्तनत में
सामंतवाद था या नहीं भारत में
राष्ट्रवाद की समझ कैसे पैदा होती है
उसके दो नागरिकों में
लाइब्रेरी के कोने में बैठे
किताबों के पन्नों से
गरम होतीं सांसों से पिघलता था
मजबूरियों का लोहा
मिलने की कसमें कितनी आज़ाद लगती थीं
जब तुम पलट देती थी फिर कोई नया पन्ना
मुर्दा किरदारों ने भी समझा तब
इतिहास दो ज़िंदा लोगों का होता है।

पा अमिताभ बच्चन की फ़िल्म नहीं है

न औरो की है। असाधारण बीमारी को साधारण बनाकर यह फिल्म कुछ और हो जाती है। फ़िल्म के छोटे-छोटे किस्से अपनी मूल कहानी से छिटक कर अलग दुनिया रचते हैं। जो ज़्यादा गंभीर और असाधारण है। बहुत ज़्यादा इमोशनल लोड नहीं डालती है यह फ़िल्म। बल्कि गहन भावुक क्षणों में सामान्य होने की सीख देती है। साफ़-सुथरी फ़िल्म है पा। लेकिन सिर्फ पा की नहीं है।


किसी ने नोटिस क्यों नहीं किया। यह फ़िल्म राजनेता के छवि को बेहतर तरीके से गढ़ती है और राजनेता के ज़रिये मीडिया को आईना दिखलवाती है। अच्छा सा नेता। कांग्रेस के युवा ब्रिगेड की तरह खादी का कुर्ता-पायजामा पहनने वाला नेता,जो राजनीति में शतरंजी चाल की परवाह किये बिना काम करना चाहता है। इससे पहले की किस फ़िल्म ने राजनेताओं में इतना भरोसा पैदा करने की कोशिश की है,याद नहीं है। हो सकता है मुझसे छूट गई हो। एक ऐसा नेता जो सरकारी मीडिया पर भरोसा करता है। दूरदर्शन पर। उसका इस्तमाल करता है। दूरदर्शन के पहुंच का इस्तमाल करता है और हम प्राइवेट न्यूज़ चैनल के पत्रकारों के मुंह पर गोबर फेंक देता है। तभी किसी पत्रकार ने फ़िल्म के इस पहलु की चर्चा नहीं की,या फिर मुझी से वैसी समीक्षा छूट गई होगी।

अब वाकई डर लगता है। हमारी साख क्या इतनी खतम हो गई है कि कोई नेता हमारे घर अपने लोगों को भिजवा देगा और हमारे घरों पर धावा बोल दिया जाएगा। शैम्पेन के नशे में धुत पत्रकारों की लाइव तस्वीर दूरदर्शन से लाखों घरों में पहुंचेगी और फिर पत्रकारिता की तमाम बहसों के बीच हम भस्म कर दिये जायेंगे। मैं कांप रहा था। अब तक आदत पड़ जानी चाहिए थी। लेकिन मेरी आंखों के सामने दिवाली पर गिफ्ट लेने वाले और दलाली करने वाले पत्रकारों की शक्लें साबूत खड़ीं हो गईं। बहुत दिनों से इस तरह की छवियां कई फिल्मों में देख रहा था। किसी घटना के संदर्भ में मीडिया के आगमन को हास्यास्पद बनाने की कोशिश की जाने लगी है। हिंदुस्तान टाइम्स के विज्ञापन में 'कैसा लग रहा है' टाइप सवाल पूछती एक पत्रकार के सिर पर अखबार का बंडल फेंक दिया जाता है। पा में बाल्की जी ने तो ग़रीबों का हमला करवा दिया है पत्रकारों पर। एक टीवी चैनल के मालिक के घर में भी लोग धावा बोल देते हैं। दूरदर्शन और प्राइवेट न्यूज चैनलों के रिपोर्टर में बहस होती है। उसका लाइव प्रसारण होता है। दूरदर्शन के स्टुडियो से। जिसकी कमज़ोर साख के बदले प्राइवेट मीडिया का जन्म हुआ,आज प्राइवेट चैनलों की साख की ये हालत हो गई कि दूरदर्शन की साख बेहतर बताई जाने लगी है। जाने कितने पत्रकारों का पसीना पानी हो रहा है। मै भी कभी-कभार कहता रहता था कि एक दिन पब्लिक हमें मारेगी। लेकिन अंदाज़ा नहीं था कि हम इस तरह कहानियों के क्रूर पात्र हो जायेंगे। कुपात्र हो जायेंगे।


युवा नेता अभिषेक बच्चन। एक अच्छा सा नेता। इसके ज़रिये घटिया स्तर से नीचे चल रही मीडिया पर लात-जूते बरसवाती है ये फ़िल्म। बाहर की असली मीडिया में इस पर सन्नाटा। फ़िल्म की कहानी से घोर सहमति क्या बता रही है। हम अपने भीतर बहस कर चुप हो जाते हैं। गले को कस कर नाक से हवा छोड़ते हुए कांय कांय आवाज़ निकालते हैं। हम सब राजनीतिक से लेकर इलाकाई और अन्य तरह के स्वार्थों पर केंद्रित खेमों में बंटे हैं। आलोचना अपने खेमे को बचाकर सामने वाले की की जाती है। इसलिए पत्रकारों की आलोचना भी सवालों के घेरे में है। हम किसी न किसी के हाथ में खेल रहे हैं। उसे सही ठहराने के लिए दलीलों की भरमार हैं। मीडिया का म नहीं जानने वाले आलोचक अख़बारों के कॉलम से उगाहने लगे हैं। इन्हीं सब के बीच कोई बाल्की जैसा काबिल निर्देशक आराम से अपनी फिल्म के पर्दे में दो छवि बनाता है। अच्छे नेता की और दूसरी,लतखोर मीडिया की। फिल्म अभिषेक के बहाने राहुल गांधी को प्रतिष्ठित करती है। उन राजनेताओं को कोई पूछने वाला नहीं जो ईमानदार भी रहे और गंवई भी। मर गए लेकिन किसी ने फिल्म तक नहीं बनाई।


अब डरना चाहिए। इतनी बेबस मीडिया न तो पत्रकारों के लिए ठीक है न समाज के लिए। पत्रकारों के बिकने की खबर आउटलुक जैसी पत्रिका की कवर बनती है। प्रभाष जोशी अखबारों का नाम अपने कॉलम में लिख विदा हो गए। सन्नाटा। चुप्पी। अपने भीतर आंदोलन कैसे हो? चलो इग्नोर कर दो। इसमें कोई बुराई नहीं। बुराई तो इसमें है कि चुप्पी का फ़ायदा उठाकर फिर से वही करने लग जाते हैं। सुधरते नहीं हैं। टीवी की आलोचना अपने माध्यम के लोगों के साथ करना मुश्किल है। सब स्वार्थों से एक दूसरे पर साधने लगते हैं। बोलने का अधिकार सबको होना चाहिए। कैसे रोका जाए। लेकिन जो फिल्म जिसकी नहीं है,उसकी तो मत कहो। एक पुलिस अधीक्षक हाल ही में फोन कर रोने लगे कि स्ट्रिंगर लोग दारोगा की बदली के लिए दबाव डालते हैं। उनसे महीने की दलाली लेते हैं। इनसे कैसे निबटें। बहुत सुनने के बाद उनसे यही कहा कि अगर आप के पास सबूत है और यकीन है तो पकड़ कर टांग तोड़ दीजिए। क्या यही छवि है हमारी पब्लिक में। फिर हम किस पब्लिक के नाम पर दुनिया के खात्मे वाले कार्यक्रमों को संवारेंगे। एक दिन वो भी फेल कर जायेगा।


पा,अमिताभ बच्चन की फ़िल्म नहीं है। एक अच्छे राजनेता की है। जो काम करते करते थका जा रहा है। जिसका कुर्ता सचिन पायलट से मिलता है। जो राहुल गांधी की तरह अंबेडकर बस्ती में जाकर हरिजनों को गंदगी से निजात दिलाने के लिए योजनाएं बनवाता है। सैंकड़ों लोगों के बीच आकर अपनी निजी ज़िंदगी की बात स्वीकार कर लेता है। 'हां उस रात मैंने कंडोम का इस्तमाल नहीं किया।' 'मैंने भी वही किया जो मेरी उम्र का लड़का कर जाता है।''लेकिन अच्छा हुआ कि उस रात कंडोम नहीं था।''वर्ना औरो जैसा बेटा कहां मिलता।'अमोल अर्ते की साफगोई ने सियासी साज़िशों को उलट दिया। वह एक ज़िम्मेदार नेता है। अपनी सुरक्षा को लेकर ज़िम्मेदार है। लोगों को सड़क पर पॉटी करते हुए नाराज़ होता है। कहता है सरकार ने शौचालय बनवा रखे हैं। अब यहां बाल्की को मीडिया की मदद लेनी चाहिए थी। जो दिखाता कि सरकारी शौचालयों की क्या हालत है। हम भी यही कर देते हैं कभी-कभी। इकतरफा हो जाते हैं।


लेकिन बाल्की ने फिल्म मीडिया की छवि बनाने के लिए नहीं बनाई है। बल्कि छवियों को गढ़ने वाली मीडिया को गर्त में फेंक देने के लिए बनाई है। दूरदर्शन की महिमा है। फिल्मकार की आलोचना सही है। लेकिन इकतरफा है। मीडिया की तरफ से वकालत करने का कोई फायदा नहीं है। हमारे इतिहास और वर्तमान में बहुत कुछ अच्छा है। बहुत कुछ अच्छा भी हो रहा है। लेकिन जो बुरा है वो ज़्यादा हो गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि न्यूज़ चैनलों को प्रोजेरिया हो गया है। इतने कम समय में इतनी तेज़ी से बढ़ गए कि हांफने लगे हैं। दम तोड़ते से लगते हैं। उन्हीं की इस बीमारी की कहानी है पा। कोई शोध करेगा कि इक्कीसवीं सदी की हिन्दी फिल्मों में मीडिया के फटीचर काल का चित्रण।

नोट- पा एक मां और उसकी अनब्याही बेटी की भी कहानी है जो मां बनना चाहती है। दोनों के रिश्तों में आज के समय के हालात की चुनौतियों को परिपक्वता से गढ़ने की कोशिश है। ये वो मां है जो अपनी अनब्याही बेटी के मां बनने पर उसे कलमुंही और कुलबोरनी नहीं कहती है। पूर्वजों को याद कर माथा नहीं पिटती कि इसने आपका सत्यानाश कर दिया है। बल्कि मां अपनी बेटी से सवाल करती है कि ये बच्चा चाहिए या नहीं। उसके बाद पूरी ज़िंदगी अपनी बेटी का साथ देती है। पा दो मांओं की भी कहानी है।

बोलना तो है लेकिन कैसे- पुस्तक समीक्षा

बोलना तो है। यह एक किताब का नाम है। बोलने के तौर-तरीकों को लेकर हिंदी में एक अच्छी किताब आई है। अपने मित्र दुर्गानाथ स्वर्णकार के हवाले से यह पुस्तक हाथ लग गई। न्यूज़ चैनलों के विस्तार ने बोले जाने को महत्वपूर्ण बनाया है। विविधता कायम की है लेकिन अभी बोले जाने को लेकर गंभीरता कम दिखती है। कैसे बोला जाए और कहां पर बलाघात का प्रयोग हो, इसकी विधिवत जानकारी कम लोगों को है। नतीजा खुशी और ग़म की ख़बरों का उतार-चढ़ाव एक सा लगता है। बहुत सारी विसंगतियां हैं। जिन्हें हम बोले जाने की विविधता के नाम पर स्वीकार या नज़रअंदाज़ करते रहते हैं। यह समस्या तब और बड़ी हो जाती है जब समझना मुश्किल हो जाता है कि कौन सा शब्द बोला गया और किस मतलब से बोला गया। पत्रकारिता की पढ़ाई में वॉयस ओवर की ट्रेनिंग निश्चित रूप से घटिया होती होगी तभी वहां से निकलने वाले छात्रों को इसका कुछ अता-पता नहीं होता। और जो पेशे में हैं उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि इसमें सुधार हो सकता है। हिंदी पत्रकारिता में पेशेवर प्रतिबद्धता का अभाव और पर्सनल जुगाड़ ही इस तरह की छूट देता है कि आप कैसे भी अपना काम चला लें। हमने कम लोगों को देखा है,जो वॉयस ओवर को लेकर चिंतित हों और उसे दूर करने का प्रयास किया हो।


बोलना तो है। पुस्तक का अच्छा नाम है। बोलना तो है लेकिन कैसे। यह किताब दावा करती है कि यह झूठ है कि बोलने का गुण नैसर्गिक है। अभ्यास और प्रशिक्षण के ज़रिये बोलने की क्षमता का विकास होता है। किसी में कम होता है तो किसी में ज़्यादा होता है लेकिन होता है। पचास हज़ार लोगों को बोलने की ट्रेनिंग देने वाले इंदौर के प्रोफेसर शीतला मिश्रा ने यह किताब लिखी है। जिसका संपादन किया है इंदौर के ही रवींद्र शाह ने। इंदौर में बोलने को लेकर वाग्मिता नाम की एक संस्था कई सालों से लोगों के बीच काम कर रही है। गृहणी से लेकर छात्रों तक को बोलने की कला का अभ्यास कराया जाता है।

शीतला मिश्रा लिखते हैं कि प्रभावशाली तरीके से बोलना चाहिए। बोलना एक महत्वपूर्ण क्रिया है। इसका असर लिखे हुए शब्दों से ज़्यादा होता है। किताब तकनीकी तौर पर लिखी गई है इसलिए बहुत धीरज चाहिए पढ़ने और समझने के लिए कि एक एक बात का मतलब है और वो कहां पर लागू होगा। कई तरह के फार्मूले इस शक्ल में लिखे गए हैं।

बचें वचन से
जो औसत बात करते हैं
जो ख़ूब-ख़ूब बोले जाते हैं
सोचना रोक देने वाले
जो किसी को न छूते हैं,न छेड़ते हैं
कितनी ही बार बोले जाएं
अनाकर्षक
चल-चल कर घिस-पिट गए,
मुड़े-तुड़े, चिपचिपे, मटमैले
करंसी नोटों जैसे।

आपको याद ही होगा टीवी पत्रकारों और एंकरों का सवाल- कैसा महसूस हो रहा है और पीटूसी के आखिर में कही जाने वाली सनातन पंक्त- अब देखना है कि आने वाले समय में सरकार....। एक ऐसे समय में जब विभत्स रस में वॉसर-ओवर किये जाने लगे हैं लोगों का ध्यान खींचने के लिए,यह किताब उपयोगी हो सकती है। जानने-समझने के लिए कि ध्यान खींचने के और भी बेहतर और रोचक तरीके हो सकते हैं। सायं-सायं और भायं-भायं ही अंतिम तरीका नहीं है। कई लोगों की अच्छी स्टोरी बोले जाने की कमी के कारण प्रभाव नहीं छोड़ पाती। कई एंकर सवाल( इसमें मैं भी शामिल हो सकता हूं) पूछते हैं तो जवाब लगता है। सवाल नहीं। कई एंकरों ने आज तक ज़िंदगी को जिदगी बोलने की ज़िद पाल रखी है। वो अपनी प्रतिष्ठा को पेशेवर विकास से ज़्यादा महत्व देते हैं। हिंदी फिल्मों से ज़्यादा बड़ा जनसंचार नहीं है। वहां भी किशोर कुमार ज़िंदगी गा कर गए हैं। जिंदगी कभी नहीं गाया। नुक्तों की लड़ाई में उच्चारण की बलि दे दी गई। बोलना प्रभावहीन हो गया। बिना इस समस्या का समाधान किये,एक रास्ता निकाल लिया गया। बुला लाओ,हुंकारे भरने वाली आवाज़ों को। चीख-चीख के बुलायेंगी दर्शकों को।

बोलने की गति पर भी विस्तार से लिखा गया है। मकसद यही है कि सुनने वाला बोलने वाले से ध्यान न हटा सके। अकेले भाषण से लेकर कई लोगों के बीच बोलने की प्रक्रिया के बारे में काफी जानकारी दी गई है। कई बार लगेगा कि इसमें खास क्या है। यह तो हम जानते हैं लेकिन पूरी किताब पढ़ने पर लगेगा कि हम टुकड़ों में तो कई बातें जानते थे लेकिन इनका इस्तमाल तब पता चलेगा जब समग्र का पता चलेगा। यह किताब पढ़ी जानी चाहिए। टीवी के पत्रकारों को खासकर से। राधाकृष्ण ने छापी है और कीमत १७५ रुपये है। बोलने की शैली पर और भी किताबें आनी चाहिए। टीवी की पढ़ाई में यह एक पेशेवर कोर्स की तरह होना चाहिए। अच्छे-अच्छे पत्रकारों को इस कमी के कारण नुकसान उठाना पड़ता है। कोई बताने वाला नहीं है कि इस कमी को अभ्यास से दूर किया जा सकता है। यह किताब वाणी को महत्वपूर्ण मानती है। संयोग से मैंने भी अपने ब्लॉग पर लिखा है कि मैं बोलने को लिखने से ज़्यादा महत्वपूर्ण मानता हूं। कुछ साल पहले बातूनी इंडिया नाम की एक स्पेशल रिपोर्ट बनाई थी। देखने के लिए कि हमारा बोलना कैसे बदल गया। एक सेल कंपनी का विज्ञापन भी आता है...हिंदुस्तान बोल रहा है। लेकिन तरीके से बोले से असर ज़्यादा होगा। यही मकसद है इस पुस्तक है। मैं अब प्रोफेसर शीतला मिश्र के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानना चाहता हूं जो इतने बड़े काम में लगे हैं और पुस्तक में अपने बारे में कम से कम शब्दों में बताया। शायद उनका काम बोलता होगा। बहुत अच्छा प्रयास है। उम्मीद है बोलने पर और पुस्तकें आएंगी।

पुस्तक के आखिर तक नहीं पहुंच पाया हूं। आधा से ज़्यादा पार कर चुका हूं। उम्मीद करता हूं कि इस या अगली पुस्तक में बोलने की व्यक्तिगत कमज़ोरियों पर भी सामग्री होगी। मसलन कई लोग साफ शब्दों का उच्चारण नहीं कर पाते, वो किस तरह का अभ्यास करें,कई श स की बीमारी से ग्रस्त हैं,उसे कैसे दूर करे और कई वाक्यों के समूह को कैसे पढ़ा जाए जिससे वायस ओवर बेहतर हो सके। नाक से निकलने वाली आवाज़ को कैसे भारी करें और सामंती किस्म की भारी आवाज़ को कैसे कर्णप्रिय किया जाए,अगर ये ध्यान में रखकर लिखा जाए तो पुस्तक टीवी पत्रकारों के सिरहाने हो सकती है।


दूसरा, किताब के कवर पर हिटलर का उदाहरण देखकर चौंक गया। बोलने की प्रभुता में हिटलर का यकीन था। उसी यकीन पर चलकर हमारे यहां कुछ लोग अयोध्या पहुंच गए। बेहद प्रभावशाली तरीके से बोलने की कला में पारंगत किन्तु सांप्रदायिक सत्य गढ़ने के खतरनाक खेल में शामिल। ऐसे उदाहरणों से बचना चाहिए। हमें यह भी सावधान करना चाहिए कि बोलने की उस कला में यकीन नहीं करना है जो बार बार बोलकर किसी झूठ को सत्य बना दे। इसे समझे होते तो आज बाबरी मस्जिद गिराने वाले नेता सत्रह साल बाद अपना बचाव करते हुए झूठे और कमज़ोर न लगते। उनका तेज चला गया है। क्योंकि वो अपने बोलने की प्रतिभा का इस्तमाल गलत मकसद के लिए कर रहे थे। शीतला मिश्र का मकसद ये तो नहीं होगा लेकिन हिटलर के मिसाल को ठिकाने लगा सकते थे। इस शख्स से कुछ भी सीखने लायक नहीं है।

दैनिक सच कहूं







दोनों ही तस्वीरें नोएडा के सेक्टर-१२ की हैं। कैविनेट मंत्री वाली तस्वीर डेयरी की दुकान से ली गई है और दैनिक सच कहूं एक अखबार के कार्यालय से।

वन-रूम सेट का रोमांस- दिल्ली मेरी (5)

गिरने जा रहे हैं। आज वो हमारे यहां गिरा हुआ है। चार दिन से यहीं गिरा हुआ है। बहुत दिनों तक माथापच्ची करता रहा कि किस कद्दावर सिंह से पूछूं कि भाई गिरना क्या होता है। जब कोई किसी के यहां जाता है तो वो गिरना कैसे हो जाता है। कल मेरे यहां गिरा था सब। कुछ भटकती आत्माओं की टोली दोस्तों के वन-रूम सेटों की खोज में बेचैन रहती थी। उन्हें अपने कमरे में कम मन लगता था। वो हमेशा किसी न किसी के यहां प़ड़े रहते थे। शायद ज़मीन पर बिस्तर होने के कारण गिरना का चलन शुरू हुआ होगा। किसी आदिम प्रवासी ने पहली बार कहा होगा कि तुम्हारे बिस्तर पर आकर सीधे गिर गए। तभी से गिरना चलन में आया होगा।

गिरने-पड़ने के बाद हर उस नुक्कड़ की पहचान कर ली गई थी,जहां से कोई लड़की गुज़रती थी। कई लड़के लाइब्रेरी में भी इस टेकनीक का इस्तमाल करते थे। सीट इस तरह से ली जाती थी कि सामने या बगल में किसी लड़की के बैठने या बैठे होने की संभावना अधिक हो। बहुत सारे फोटोकॉपी के दम पर ही रोमियो बने रहे। किसी सीनियर का नोट्स फोटोकापी लिया और अपने वन-रूम सेट के किसी गुप्त स्थान में दफन कर दिया। छन-छन कर जानकारियां लीक की जाती थीं ताकि लड़कियों में नोट्स पाने की बेचैनी बने रहे। हालात को देख लड़कियों ने भी नोट्स लेने की टेकनीक निकाल ली थी। कई लड़के सीनियर के नोट्स को अपनी लिखावट में ढाल कर फोटोकॉपी बौद्धिकता के सहारे इम्प्रेसित करने की कोशिश करते थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के नोट्स की कई पंक्तियां समान होती थी। वो ज़माने से चली आ रही थीं।

चैम्पियन गाइड सबको रास्ता बता रहा था। घटिया होने के बाद भी चैम्पियन साक्षर विद्यार्थियों की संख्या ज़्यादा थी। दिल्ली विश्वविद्यालय के हर कॉलेज के कोने में फोटोस्टेट वाला मौजूद होता था। आज भी है। अब तो ईमेल से नोट्स चलने लगे हैं। तब छपाई होती थी। नोट्स देने को लेकर कई तरह की साज़िशों का जन्म हुआ। एक लड़का रोज़ कहीं से नोट्स लेकर आता था। लड़कियां टूट पड़ती थीं। मेरा ही जूनियर था। एम ए के क्लास में। उसने मुझे जीवन का ज्ञान दिया। बोला पानी में मछलियां तैर रही हैं। नोट्स दाना है। डाल दीजिए,फंस जाएंगी। कई लड़के इस तरह के दाने लेकर घूमते रहते थे। नोट्स कल्चर। मिलते ही झट से फोटोकॉपी। नोट्स को लेकर वन-रूम सेट कमरों में कई रिश्ते पुनर्परिभाषित हुए। कुछ टूट गए तो कुछ बने।

नोट्स को लेकर छात्रों का व्यवहार बदल जाता था। किसी के कमरे में अचानक पहुंचा और देखा कि मित्र किसी का फोटोकापी पढ़ रहा है तो पहली प्रतिक्रिया में वो नोट्स को मोड़ देता था। मेरी नज़रों से बचाने के लिए। बिस्तर पर पड़े नोट्स को बातों बातों में पहले पलटता था फिर गोल गोल कर हाथ में ले लेता था। ताकि बिस्तर पर बिखरा जान मैं उठा न लूं। प्रतियोगी होने के लिए अविश्वासी होना अनिवार्य शर्त है। कमरे में नोट्स का होना और अचानक आने की आंशका हमेशा वन-रुम सेट को कमज़ोर बनाती थी। लगता था कि किसी चोर ने बिना ताला तोड़े दरवाजा खोल दिया हो। कई दोस्तों को बक्से में नोट्स दबा कर रखते देखा। मौलिक लिखने की कोशिश में कलम की दाब से बने उंगलियों पर निशान आज भी मौजूद हैं। हिंदी में लिखता रहा। फिर भी दूसरे लोगों के नोट्स भी पढ़े हैं। मुझे आसानी से दे देते थे। क्योंकि अंग्रेजी में लिखने वाले यह मानकर चलते थे कि हिंदीवाला प्रतिस्पर्धी नहीं है। जब अंग्रेज़ी पढ़ना और समझना सीख गया तो ऐसे लोगों से नोट्स लेने में झिझक होने लगी जो मुझे प्रतिस्पर्धी नहीं समझते थे। नोट्स ने लिखने का अभ्यास डाल दिया। आज तक जारी है। फोटोकापी मशीन की दुकान तक पहुंचने के रास्ते में लड़के-लड़कियां किसी प्रतिस्पर्धी के द्वारा देख लिये जाने की आशंका से घिरे रहते थे। लिखावट से लेखक पहचान लिये जाने की आदत भी विकसित होने लगी। यह ज़रूरी था। अचानक छुपा लिये जाने की कोशिशों में लिखावट की एक झलक मौलिक नोट्स लेखक का अहसास करा देती थी। कहां तो उबलनी चाहिए थी इन जवानियों को, लेकिन वो ठंडी हो रही थीं,शाहरूख की मचलती अदाओं की राख पर। प्रवासी छात्रों ने रोमांस का व्यापक अनुभव तो किया लेकिन वो अपने मां बाप और समाज के आज्ञाकारी हो गए। उनकी बेवफाई को झेलती कई लड़कियों की आहें आज भी दिल्ली विश्वविद्यालय की दीवारों से टकराती हैं।

आईएएस बनने की कल्पना में इन वन-रूम सेटों में किसी रात दहेज के सामानों की सूची भी बनती थी। कितना मिलेगा और क्या क्या मिलेगा। फलाने सीनीयर जी को पचास लाख मिला है। शादी में इतने लोग आए थे। दहेज में सिनेमा हाल मिल गया है। प्रवासी छात्र आजादी की हवा तो ले रहे थे लेकिन उनके हर सपने परिवर्तनगामी विरोधी थे। पास से गुज़रती किसी लड़की की देह को नज़र भर देख थोड़ी देर जलते रहने की ऊर्जा उनकी जातिगत मानसिकता में प्रवेश करते ही कमज़ोर पड़ जाती थी। कई वन रूम सेट की बालकनियों और बाथरूम की खिड़कियों से उन झरोखों का रास्ता ढूंढ लिया गया था जिनसे वो किसी नहाती औरत और बेडरूम में कपड़े बदलती किसी स्त्री की देहकल्पना का साक्षात दर्शन कर सके। प्रवासी छात्र अपने इस आंतरिक अतीत को कहीं दफन कर गए हैं। मां-बाप की मर्ज़ी से शादी कर खुद को अच्छा सा लड़का कहलाने के लिए उसी भीड़ में चले गए हैं जिससे निकलने के लिए दिल्ली आए थे। पर दिल्ली की लड़कियों ने इन भूखी आंखों को जो खुराक दी,उसके लिए प्रवासी छात्रों को शुक्रिया अदा करना चाहिए। वन-रूम सेट ऐसे किस्सों से भरे होते थे।

लेकिन वन-रूम सेट ने उन्हें जो आजादी दी,उसकी कोई मिसाल नहीं। सेल से खरीदे गए जीन्स के जैकेट को पहनना और बार-बार आईने में देखना। कमरे से निकलने से पहले ये सुनिश्चित कर लेना ताकि किसी के देखे जाने पर कोई अफसोस न रहे। सुंदर होने और दिखने की पहली पुष्टि आईने के सामने होती थी। एक दूसरे की कमीज़ और स्वेटर पहनना आम बात थी। अच्छा दिखने का जुनून सवार हो रहा था। कई लड़कों ने कमला नगर और सरोजिनी नगर का रुख़ करना शुरू कर दिया था। डेढ़ सौ रुपये की कमीज़ और इतने की ही जीन्स। एक जीन्स कंपनी आई थी। लड़कों ने सेल की जानकारी रखनी शुरू कर दी। इन दुकानों में भटकने के बाद सब अपने अपने वन-रूम सेट में लौट आते थे। दराज़ में पड़ी प्लास्टिक के जार में रखे नमकीन और ठेकुआ खाने के लिए।

वन-रूम सेट का रोमांस- दिल्ली मेरी जान (4)

घर बदलना शुरू हो गया था। आठ सौ रुपये और पंद्रह सौ रुपये के वन रूम सेट के बीच अपनी आर्थिक औकात का साप्ताहिक मूल्यांकन होता रहता था। फोल्डिंग कॉट के आगमन से हम ज़मीन से उठकर थोड़ा ऊपर हुए। नीचे सोना बंद हो गया। गरम पानी से नहाने की आदत पड़ चुकी थी। इससे पहले सर्दी में भी ठंडे पानी से नहाता था। दिल्ली की सर्दी और इसके ख़ौफ़ ने इमरसन रॉड की आदत डाल दी। इमरसन रॉड बाथरूम के एक कोने में लटकता रहता था। ठंडे ठंडे पानी से नहाना चाहिए। ये गाने में ही अच्छा लगता था।


किचन के सामान जुड़ने लगे। खिचड़ी बनने लगी। दिल्ली में दही खिचड़ी खूब खाई। खाना बनाने नहीं आया तो बर्तन धोने वालों में शुमार हो गया। अपने लिए रामू का किरदार चुन लिया। बर्तन धोकर दोस्तों के बीच अपराध बोध कम हो जाता था और भोजन पर दावेदारी बन जाती थी। दोस्तों ने बर्थ-डे मनाना शुरू कर दिया था। पटना में इस तरह से उनमुक्त बर्थ-डे मनते नहीं देखा था। मां-पिता से दूर होने और स्थानीय सामाजिक बंधनों से आज़ाद होने के कारण बर्थ-डे एक स्पेस बन रहा था। जिसके सहारे प्रवासी छात्र दिल्ली से अपनी सामाजिकता कायम कर रहे थे। इन्हीं मौकों के बहाने वन-रूम सेट में लड़कियां आने लगीं। मैंने बहुत पहले दिल्ली की लड़कियां सीरीज़ में ज़िक्र भी किया है।


बर्थ-डे साल का वो एक दिन। इस दिन के लिए लड़की आगमन विरोधी मकान मालिक को समझौता करना पड़ता था। इन्हीं सब तात्कालिक आयोजनों के बहाने दिल्ली के मकान मालिक उदार होने लगे। मकान-मालिक और किरायेदार का रिश्ता सास-बहू का होता है। हर समय शक। हर समय नया विश्वास। लेकिन इस नियम का ऐसा दबाव था कि जब कोई साथ आने की कोशिश करती थी तो तमाम बंदिशों के कांटे चुभते थे। ठीक वैसे ही जैसे कोई लड़की गली पार करती हुई हर दिन इस तरह की आशंकाओं से गुज़रती होगी। अच्छी बात ये रही कि लड़कों को भी देख लिये जाने के भय का अंदाज़ा हुआ।


ख़ैर,ज़्यादा मुश्किल लड़कियों को हुआ होगा। उन्हें हर दिन मकान मालिक को विश्वास का इम्तहान देना होता होगा। न जाने उनके कितने दोस्त इस दिल्ली में भाई बनकर उनकी बरसाती में गए होंगे। मिलने की हर जगह शक से देखी जाती है। ये हमारी सामाजिक नैतिकता की देन है। वन-रूम सेट ने प्रवासी लड़कियों को भी नई ज़िंदगी दी। कपड़े से लेकर खाने तक की आदत बदली। शराब और सिगरेट उनकी ज़िंदगी में भी आए। स्थानीय पहरेदारी से दूर होने के बाद भी मकान-मालिक और उनका परिवार सामाजिक बंदिशों के विकल्प के रूम में काम कर रहा था। फिर भी लड़कियों का जीवन बदला। उन्होंने लेट नाइट सिनेमा देखने का आनंद लेने शुरू कर दिया। उत्तरी दिल्ली का बत्रा सिनेमा बिहार यूपी से आई लड़कियों के रात्रि जीवन का पहला पड़ाव था। ग्रुप में लड़कियों का आना एक नया अनुभव था। बिहार की खराब कानून व्यवस्था ने इन मामूली सार्वजनिक अनुभवों को बंद कर रखा था।


डीटीसी की बसों ने वन-रुम सेट से निकल कर आने वाली लड़़कियों को सार्वजिनक स्पेस में घुसने का साहस और अनुभव दिया। सार्वजनिक स्पेस में की जाने वाली दादागीरी में भी लड़कियों ने हिस्सेदारी की। मुझे पहली बार एक लड़की ने ही कहा था तुम टिकट क्यों लेते हो। स्टाफ क्यों नहीं बोलते। दिल्ली की बसों में छात्र टिकट नहीं लेते हैं। प्राइवेट बसों में स्टाफ चलाते हैं। उस लड़की ने मेरी तरफ से कहा था कि ये स्टाफ है। इस नकारात्मक बदलाव पर मैं सकारात्मक हो गया। उत्तरांचल की एक संभ्रात सी लड़की से स्टाफ बोलना सीख गया। लेकिन अकेले बोलने में मुश्किल होती थी इसलिए धीरे धीरे कम कर दिया और बाद में बंद कर दिया। इन्हीं यात्राओं के ज़रिये जाना कि बसों में लड़कियों के साथ क्या क्या होता है। पहले तो लड़कियां बात नहीं करती थी लेकिन अब इस बारे में खुलकर बातें करती हैं। लड़कों की बातचीत से जाना कि कैसे एक लड़का चढ़ता तो साथ था लेकिन अचानक आगे चला जाता था। डीटीसी की बसों में लड़कियों,महिलाओं का समूह अक्सर आगे की तरफ जमा होता था। आगे नहीं लिखना चाहता था।


वैसे लड़कियों के लिए वन-रूम सेट आज़ादी बन कर आए। उनकी दीवारों पर जार्ज माइकल से लेकर शाहरूख ख़ान बेधड़क टांग दिये गए। इन लड़कों के दीवारों पर चौबीसों घंटे टंगे रहने पर किसी मकान मालिक को आपत्ति नहीं थी। सिर्फ कोई साक्षात न आ जाए। कल्पनाओं और चाहतों के ज़रिये कोई भी कमरे में आ जा सकता था। लेकिन ये खुशनसीबी दुनिया के चंद मशहूर शख्सियतों को ही हासिल थी। उन लड़कों को हासिल नहीं थी जो किसी लड़की के आने की अभिलाषा में अपने कमरे को सजाते रहते थे। आर्ची कार्ड के ज़रिये न जाने कितने रिश्ते बनाने की कोशिश हुई। लेकिन प्रवासी छात्रों ने इसे अपने संवाद का ज़रिया बना लिया। बर्थ-डे कार्ड को ध्यान से इसलिए पढ़ा जाता था ताकि कुछ इशारा तो मिले कि देने वाला या देने वाली के मन में क्या है। आर्ची गैलरी से खरीदा गया “इश्क का इत्यादि सामान”( एक्सेसरीज) मुझे बड़ा आकर्षित करता था। अपना जन्मदिन तो नहीं मना लेकिन जिन दोस्तों का मनता था उनको मिलने वाले तोहफे में मेरी नज़र इन इत्यादि सामानों को ढूंढती रहती थी। कप। फ्रेम। फ्रेम पर लिखा दोस्ती का खूबसूरत अफसाना। कुछ दिल नुमा टाइप की आकृति। कुछ कमरों में आर्ची से लाए गए पोस्टर। पोस्टरों पर लिखीं सूक्तियां। इन सूक्तियों वाले पोस्टरों के ज़रिये भी लड़के-लड़़कियां ख़ुद को डिफाइन यानी परिभाषित करने की कोशिश कर रहे थे। और हां...मौका निकाल कर किसी बहाने से किसी को छू लेने के बाद की तड़प और बाद में उस पर रात भर चर्चा। इस पर लिख दूंगा तो मार दिया जाऊंगा।


ये तो बताना भूल ही गया कि रात तक जागना,देर सुबह तक सोना और रजाई में घुस कर पढ़ना। दीवारों पर यूपीएससी की तैयारी का रूटीन चस्पां हो चुका था। दीवारों पर यूपीएसपी की तैयारी के रूटीन चस्पां होने लगे। रजाई में घुस कर देर तक पढ़ना और सिगरेट की डिब्बी में राख का जमा होना। हर कमरे की यही कहानी थी। नहीं पीने वाले मेरी तरह घोर नैतिकतावादी। लगता था जो सिगरेट पीता है वो अपने मां-बार से छल करता है। अब हंसी आती है। जो नहीं पीता वो भी छल करता है। ये बात बाद में समझ में आई। वन-रूम सेट का एकांत इन्हीं सब बातों से भरता था। मंडल, बाबरी मस्जिद को लेकर बहस और सचिन के कमाल की बातों से रातें कट जाया करती थीं। इन बहसों से प्रवासी छात्र-छात्रायें अपनी राजनीतिक सोच गढ़ रहे थे। उस वक्त रात के वक्त टीवी पर बहस नहीं होती थी। हम सब आपस में बहस करते थे। अब शायद हमारे टाइप के लोग टीवी के बहसकारों की बातों पर एसएमएस भेजते होंगे। जारी है...

वन रूम सेट का रोमांस-दिल्ली मेरी (3)

वन रूम सेट में रहने वालों की एक मानसिकता होती है। वो कभी अपने कमरे से संतुष्ट नहीं रहते। हमेशा एक बेहतर वन-रूम सेट की तलाश में रहते हैं। गोविंदपुरी,बेरसराय और मुनिरका की गलियों में आप देखेंगे, लोग ठेले पर सामान लादे एक गली से दूसरी गली में जा रहे होते हैं। इनमें से कोई न कोई तो ऐसा होगा ही जो अच्छे कमरे की तलाश में बदली कर रहा होगा। सीमित सामान के साथ जीने की कला वन-रूम सेट में ही रहते हुए आती है। प्लास्टिक की बाल्टी। पानी का सबसे बड़ा जलाशय और किताबें रखने के लिए बेंत की रैक। ये प्रवासी छात्रों का ज़रूरी सामान बनता जा रहा था। बीसवीं सदी का आखिरी दशक। उन्नीस सौ नब्बे। डियोड्रेंट अभी छात्रों की ज़िंदगी में नहीं आया था। पटना के मौर्यालोक से खरीद कर लाई गई सेंट की शीशी से बात आगे नहीं बढ़ी थी। एनसीआरटी की किताबें दोस्तों की रैक पर किसी सपने की तरह सोती नज़र आती थी। किताबों को अंडरलाइन करके पढ़ना। इन सबके बीच तकीये के नीचे छुपा कर रखी गई मेरी रैपिडेक्स इंग्लिश स्पिकिंग कोर्स की किताब। आज तक कोर्स पूरा नहीं हुआ। कमबख्त बैरी इंग्लिश आई ही नहीं अपनी लाइफ में। हर तरह से लुभाया, बुलाया मगर जालिम आज तक तड़पाती है। दोस्तों की इंग्लिश उधार लेकर अपना काम चला लेता हूं। वो मेरे लिए लिख देती हैं। खैर। रैपिडेक्स पर अपने ब्लॉग पर पहले भी लिख चुका हूं।


वन रूम सेट एक स्पेस बन रहा था। जिसके भीतर हम खुद को ढूंढ रहे थे। बंद कमरे में अपने आप को देखने के अलावा कुछ था ही नहीं। कल्पनाएं ऐसे हमला करती थीं कि छोटे से कमरे में दम घुटने लगता था। ज़मीन पर पड़ा गद्दा और उस पर चेकदार चादर। सिंगल बेडशीट भी वन रूम सेट की तरह जीवन का हिस्सा बन गया। वाटर फिल्टर जीवन में आ गया। ख़राब पानी ने जब पीलीया का मरीज़ बनाकर पटक दिया तो वॉटर फिल्टर लाना पड़ा। नदी के किनारे बड़ा हुआ था। गंडक और गंगा के किनारे। पानी छान कर नहीं पीया। बीच धार से गंगा का पानी कटोरे में भर कर पीया है। गोविंदपुरी में स्टील का वॉटर फिल्टर। पानी छनता था। हम मुफ्त पानी से साफ और महंगे पानी पीने की आदत के शिकार हो रहे थे। सुबह जब कमरे को साफ कर देता था तो लगता था कि जीवन में कुछ अपना होना ज़रूरी है और वो अपना अपने हिसाब का होना ज़रूरी है। फिर भी अपने साथी को रूम मेट बुलाना अजीब लगता था। कौन है तुम्हारा रूम मेट? एक लड़की ने जब यह सवाल पूछा तो हैरान हो गया। उसका नाम तो अनुराग है। अरे..वही...तुम्हारे साथ रहता है तो रूम मेट ही हुआ न। जब वी मेट तो बहुत बाद में आई। हम तो अपनी लाइफ में रूम मेट पहले बन गए थे। कमरे के दोनों छोर पर दीवार से सटा कर लगाए गए बिस्तर। बीच का रास्ता किसी राजपथ सा लगता था। कृपया जूते बाहर उतारें का नोटिस बोर्ड। यह भी नया था।


और हां,हिंदी अखबार पढ़ने की आदत छूट गई। आर्यावर्त,प्रदीप,इंडियन नेशन,हिंदुस्तान,पाटलिपुत्र टाइम्स,नवभारत टाइम्स और जनसत्ता पढ़ने के संस्कारों से दूर चला गया। ये कैसे हुआ पता नहीं लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया हर दिन दरवाजे के बाहर पड़ा मिलता था। हॉकर पेपर का रोल बनाकर काली रबड़ चढ़ा कर फेंक देता था। सुबह सुबह इस तरह पेपर की बेकदरी बर्दाश्त नहीं होती थी। आदत नहीं थी अखबार को पढ़ने से पहले कूड़े की शक्ल में देखना। जब अपना घर हुआ तो सबसे पहले हॉकर को यही कहा अखबार दरवाज़े पर चाहिए। मोड़़-माड़ के नहीं देना। अब अख़बार अख़बार की तरह मिलता है।


गोविंदपुरी के मकान में शर्मा जी ने कहा कि आप एच के दुआ का आर्टिकल पढ़ते हैं। नहीं। क्या पढ़ते हैं,शर्मा जी के इस सवाल पर ईमानदारी से कह दिया कि अंग्रेजी नहीं आती। शर्माजी का एक और सवाल। फिर क्या आती है। हिंदी आती है मुझे। शर्मा जी झुंझला गए। हिंदी आती है। हिंदी इज़ अ डेड लैंग्वेज। सुन कर ऐसे लगा किसी ने बेंत की छड़ी कस दी हो। शर्मा जी ने एच के दुआ के लेखों की कतरनों की फाइल दे मारी। कहां पढ़ो। अंग्रेज़ी सीखो। कुछ नहीं कर पाओगे। मेरे तकिये के किनारे एच के दुआ और गिरीलाल जैन के लेखों की कतरनें सोने लगीं। वो सोती ही रह गईं। मैं अपने ख्यालों की भाषा में ही खोया रहा। जहां शब्द चित्र बनकर चलते दिखाई देते थे।


हाफ पैंट। पतले दुबले शरीर की डंडी सी लंबी टांगों पर जब चढ़ी तो लगा कि लंगोट के ऊपर लंगोट क्यों पहनी गई है। शर्मा जी ने ठीक ही कहा होगा कि पूरे कपड़े पहनो जी और बाहर रात में सोना बंद कर दो। दिल्ली साली। पहले बदलती है और फिर बदल कर पूछती है कि इतना क्यों बदल गए। बहुत गुस्सा आया। मैंने कहा शर्मा जी, गर्मी के दिन हैं। अंदर लगता है कि जल जायेंगे। आपकी तकलीफ? कहा मेरे घर में बहू है। आप हाफ पैंट यानी शॉट्स न पहने और अंदर सोने की कोशिश कीजिए। मकान मालिक का फरमान था। जिस शहर में शाहजहां जैसे बादशाह आकर दुनिया से गए हों,उसी शहर में एक बादशाह तुगलक भी हुआ और उसी शहर में मोहम्मद शाह रंगीला भी। उसी शहर में शर्मा जी खुद को बादशाह क्यों न समझें। मकान बनाना किसी मुल्क को बनाने से कम नहीं। जवाहरलाल नेहरू और दिल्ली के किसी मकान मालिक के बीच बहस करा दीजिए। आप तय ही नहीं कर पायेंगे कि मुल्क बनाना मुश्किल काम था या मकान।


दिल्ली के वन-रूम सेट नए कानूनों की संसद में बदल गए। दस बजे से पहले घर आना है,पानी के लिए मोटर बार बार नहीं चलाना है, गेस्ट कम आयेंगे। लड़कियां तो सिर्फ बहू बन कर ही आ सकती थीं। एक मकान मालिक के सवालों से तंग आ गया था। बोल दिया कि मेरी शादी हो गई है। बीबी बिहार में रहती है। गांव में। वो नहीं आएगी। यहां की लड़की कैसे ला सकते हैं। शादीशुदा होना एक सोशल परमिट है। ड्राइविंग लाइसेंस। बनवा लीजिए और ट्रैफिक के नियम तोड़ते रहिए। खैर उस घर में बात पटी नहीं। जिस घर में बात पटी उस घर के मालिक से मेरा सवाल काम कर गया। इस बार मैंनें पूछ दिया। आप जब मेरी उमर के थे तब क्या करते थे। वो चुप हो गए। मेरा जवाब ये था- हम भी वही करते हैं जो आप करते थे। भरोसा करना है तो कीजिए। वर्ना मकान बनाकर अपनी नैतिकता हमारे ऊपर मत थोपिये। बस घर मिल गया। साला फिल्म का डायलॉग लगता है। लेकिन सच्ची मुच्ची का डायलॉग।


ऐसी बात नहीं है कि लड़कियां नहीं आती थीं। उन्हें भी जानना था कि साथ पढ़ने वाले ये लड़के आए कहां से हैं। रहते कहां हैं। जब भी कोई लड़की कमरे में आती तो उसकी गर्दन कमरे में पूरे ब्रम्हांड की तलाश करती। उसके पांव दहलीज़ पर ऐसे ठिठकते थे जैसे कोई हमारी नीयत का इम्तहान ले रहा हो। उनके जाते ही मकान मालिक आता था। कौन थी। जी..... लड़की। लड़की कैसे आ गई। अब कोई आना चाहे तो कैसे मना कर दें। मकान मालिक के जाने के बाद हम सब आशंकाओं की दहलीज़ पर खड़े मिलते थे। गहरे अविश्वास से शुरू होने वाले रिश्ते वक्त की आंधियों के साथ उड़ते चले गए। वन-रूम सेट की दहलीज़ को जो पार नहीं कर सका वो जान ही नहीं सका इन अंधेरे कमरों में आने वाले कल के लिए कैसे कैसे ख्वाब सजाते हैं। वो देख ही नहीं पाए बिस्तर के नीचे दबीं रूम मेटों की चिट्ठियां। जिनमें उनके मां बाप लिखते थे। सिर्फ पढ़ना है। आईएएस बनना है। मुश्किल से पढ़ा रहे हैं। दो सौ रूपये अलग से भेज रहा हूं। जूस के लिए। इस तरह के खत आते थे। मेरे बाबूजी ने तो कभी खत ही नहीं लिखा। डाकिया, कमबख्त कभी मेरे लिए भी आता। कुछ करने के भयंकर दबाव से कभी-कभी वन-रूम सेट हिटलर का गैस चेंबर लगता था। खै़र जिन्होंने हमारे वन रूम सेट की दहलीज़ पार की, उनकी दुनिया बड़ी हो गई। दिल्ली टकरा रही थी। टिन के डिब्बे की तरह हिल रही थी। आंटा समाने लगा। हम सब एक दूसरे को अपने अनुभवों से भरने लगे। लड़कियों के लिए लड़के बदलने लगे। ये आप दिल्ली की लड़कियां सीरीज़ में पढ़ सकते हैं। पहली बार एक शब्द ज़िंदगी में आया। इम्प्रेस करना।


इस पर अभी नहीं। लेकिन गलियों में सुबह सुबह ठेले पर लदे ब्रेड और अंडे। दरवाज़े पर दूध का पाकेट। किस शहर में मैं भी आ गया था। जहां कोई किसी को फूफा,मामा, चाचा नहीं बोलता था। धोबी से लेकर दूधवाला, पेपर वाला और मकान मालिक। सबके सब अंकल जी। रिश्तेदारियों के इस मुल्क में सबको अंकल जी पुकारना अजीब लगता था। सारी महिलायें आंटी जी। दिल्ली विश्वविद्यालय की तरफ मेरी बस पहुंच रही थी। मैं उतरने वाला था। उम्र और सूरत देखे बिना उस महिला को आंटी जी कह दिया। आंटी जी थोड़ी सी जगह दीजिएगा। गुस्सा गई। क्यों बे...मैं तेरी आंटी लगती हूं। अब ये तो नहीं कह सकता कि दिलरुबा भी नहीं लगती हैं। खैर। चुप हो गया। जब आंटी गाली ही लगती है तो साली दिल्ली सबको अंकल-आंटी बुलाती क्यों हैं। वैसे मुझे भी अच्छा नहीं लगता। अंकल जी बुलाया जाना। बुलाते तो हैं। दिल्ली के अंकल-आंटी पर फिर भी कभी। वन रूम सेट का रोमांस और दिल्ली मेरी जान जारी है।

वन-रूम सेट का रोमांस- दिल्ली मेरी जान(2)

गोविंदपुरी के शर्मा जी का वन-रूम सेट। तीसरी मंज़िल पर। टेबल फैन की औकात नहीं थी कि वो दिल्ली की गर्मी से राहत दिला दे। चटाई लेकर छत पर सो जाता था। बगल की छत पर सो रहे मज़दूरों के रेडियो से छन कर आते हिंदी गाने। किसी रात जाग रहा था। आसमान में ताकने के लिए कुछ नहीं था। इक शहशांह ने बनवा के हसीं ताजमहल, सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है। पहली बार तभी सुना था यह गाना। सोचता रहा कि कितनी मुश्किल हुई होगी रफी चचा को गाने में। जैसे किसी गद्य को उठाकर गा दिया हो। गाना खतम हुआ और मैं गोविंदपुरी के ताजमहलों को देखने लगा।


गज भर ज़मीन पर बने मकान। ऊंचे उठते चले आए थे। कुछ बन रहे थे और कुछ बन चुके थे। बाहर से आ रहे प्रवासी छात्रों और मजदूरों के लिए। मज़दूरों की डिल्ली और छात्रों की दिल्ली के लिए। गोविन्दपुरी प्रवासियों के लिए किसी सेज़ की तरह एकीकृत शहर के रूप में उभर रहा था। तब किसी गली का नाम नहीं होता था। नंबर होता था। इतनी गलियां थीं कि नाम रखने के लिए महान लोगों की सूची कम पड़ जाती। लाखों मकानों का अपना कोई चरित्र नहीं था। किसी भीड़ की तरह बने लगते थे मकान। हर मकान का नंबर होता था। मकान का नंबर बटा गली नंबर। इसी से बनता था पता। लाल किले से खरीदा गया बीस रुपये का रेडियो। वॉक मैन का भतीजा लगता था। कान में तार घुसा कर हिला हिला कर सुनना पड़ता था। हल्की सी आवाज़ भी गोविंदपुरी के भदेस मकानों को ताजमहल के रंग में रंग देती थी। किशोर के गीत हों या फिर कुमार शानू का गाना। तू मेरी ज़िंदगी है...तू ही मेरी पहली चाहत...तू ही आखिरी है। कोई रोको न दीवाने को...मन मचल रहा...कुछ गाने को।


जब बीस रुपये वाले रेडियो(ट्रांजिस्टर) से काम न चला तो पहली बार बाबूजी से अपने लिए कुछ मांगने की हिम्मत जुटा ली। बाबूजी से आंखें मिला कर कुछ मांगने की ये मेरी ज़िंदगी की पहली घटना थी। रेडियो चाहिए। उन्होंने पूछा कि किस लिए। तुम यहां गाना सुनने आए हो। पढ़ो। मुझे भी हिम्मत नहीं हुई कि कह दें कि गाना सुनना है। कह दिया कि बीबीसी सुनना है। आज पलट कर देखता हूं तो लगता है कि मीडिया की साख कितनी प्रभावशाली होती है। तभी ऑटो तेजी से लेडी श्रीराम कालेज के बगल से गुज़रा। बाबूजी के साथ रेडियो खरीदने को लेकर बहस चल रही थी। बीच में बात से बचने के लिए उनको दिखाया कि ये एलएसआर है। लड़कियों का सबसे अच्छा कालेज। बाबूजी ने कहा....तो। मैं चुप हो गया। सत्रह साल बाद वो उसी एलएसआर के सामने खड़े थे। अपनी बहू को छोड़ने गए थे। मेरी पत्नी वहीं पढ़ाती हैं। वो बताती हैं कि तब एलएसआर की तरफ देखकर रोने लगे थे। हमारे मां बाप ऐसे ही हैं। भावुक ज़्यादा। रोया नहीं तो संवाद ही पूरा नहीं हुआ। खैर सत्रह साल पहले की उस दुपहरी आटो भागा जा रहा था। बीच बीच में बाबूजी ड्राइवर से घर का पता पूछ रहे थे। कहां के हो। कौन ज़िला है, नाम क्या है। फलाने का मकान देखा है रे। तुम्हारे गांव में गए हैं। शादी में गए थे। प्रवासियों की बातचीत। खुश हो जाते थे कि बेटे का परिचय किसी अपने इलाके वाले से करा दिया है। लेकिन रेडियो की बात पर कोई वादा नहीं किया। काश समझ पाते कि जवान बेटा इस शहर में आकर अकेला हो गया होगा। क्या पता रेडियो से उसका मन बहल जाए। अगले दिन बाबूजी चुपचाप पहाड़गंज गए और रेडियो ले आए। इतने सख्त और बेरहम पिता से मुझे उम्मीद नहीं थी। वो ऐसे ही थे। बाहर से सख्त और अंदर से मुलायम। खेतिहर समाज के पिता ऐसे ही हुआ करते हैं। बाहर से एकदम पत्थर। उनसे घुलने मिलने की जगह बनानी पड़ती थी। लेकिन जब भी वो कोना खुलता था तो लगता था कि अभी उनसे लिपट जाएं। हमने अपने बाबूजी को ऐसे ही चाहा। दूर से।

ये और बात है कि उस रेडियो ने कभी बीसीसी नहीं पकड़ा। हिंदी गानों ने मुझे भरना शुरू कर दिया। जब कोई बात बिगड़ जाए,जब कोई मुश्किल पड़ जाए। ये गाना मुझे बेहद रोमाचिंत कर देता था। समझ में नहीं आता था कि कौन देगा मेरा साथ मुश्किल वक्त में। लेकिन किसी के होने का कोमल अहसास पनपता रहा। दिल्ली की बसों में सवार होने से पहले तय करने लगा कि गाना बजता है या नहीं। बिना स्टीरियो वाली बस में कभी नहीं चढ़ा। गाना अच्छा बजाया तो दो चार स्टॉप आगे तक चला गया। कभी ऐसा नहीं हुआ कि अपनी पसंद का गाना खतम होने से पहले बस से उतर गया। मुझे नींद न आए...मुझे चैन न आए...कोई जाए ज़रा ढूंढ के लाए..न जाने कहां दिल खो गया। दिल का गाना बज रहा था। कालकाजी मोड़ से बस निकलकर नेहरू प्लेस चौराहे पर आ गई थी। रफ्तार के साथ हवा तेज़ होने लगी। खिड़की वाली सीट पर बैठे दिल्ली को गुज़रते देखने का रोमांस चालू था। मैं धीरे धीरे इस शहर का अपना होने लगा था। उदित नारायण की आवाज़। माधुरी का डांस। हालत क्या है कैसे तुझे बताऊं मैं..करवट बदल बदल कर रात बिताऊं मैं...। पूछो ज़रा पूछो ज़रा क्या हाल है...हाल मेरा बेहाल है....। कोई समझ न पाए..क्या रोग सताए...कोई जाए ज़रा ढूंढ के लाए। फिरोज़शाह रोड की तरफ जाने वाली बस। एम-१३। खचाखच भरी हुई। मंडी हाउस के पास उतार देती थी। पैदल आईसीएचआर की लाइब्रेरी पहुंच जाते थे। ऐ सनम हम तो तुझ से प्यार करते हैं....तेरी उम्मीद..तेरा इंतज़ार करते हैं। लौटते वक्त इस टाइप का गाना सुनकर इक्कीसवीं सदी के आने से पहले की जवानियां सपनों में खो जाया करती थीं।


हिंदी फिल्मों के गानों से ही इस शहर से एक रिश्ता बना। मेरे वन रूम सेट का पूरी दिल्ली से एक संबंध कायम हुआ। कमरे में बजने वाला गाना जब बाहर बजता सुनाई देता था तो भरोसा हो जाता था कि कुछ तो है मेरी दुनिया में,जो सब तरफ है। बगल से कोई ऑटो गुज़र जाता था लेकिन उसका गाना ठहर जाता था। ऑटो के ओझल होने के बाद तक वो गाना भीतर ही भीतर बजता रहता था। पूरा होता रहता था। बस ड्राइवरों से दोस्ती होने लगी। मुझे देखकर वॉल्यूम बढ़ा देते थे। मूलचंद से डिफेंस कालोनी तक की खुली हवा और उसमें घुलती अलका याज्ञनिक की आवाज़। पैसे सीमित थे इसलिए फिल्में छूट रही थीं। बहुत ही कम हो गई। लिहाज़ा गानों पर निर्भरता बढ़ती गई। रेडियो से सुबह प्रसारित होने वाले कुछ अंग्रेज़ी गाने भी ज़िंदगी में उतरने लगे।

इन गानों के अलावा और क्या था। पटना से चलते वक्त सारे रिश्ते टूट गए थे। उनका खींचाव तो था लेकिन धीरे-धीरे अहसास गहराने लगा कि अब मुझे उन सब पुराने रिश्तों के बिना जीना पड़ेगा, जिनके सहारे यहां तक बड़ा हुआ। इसीलिए बहुत गौर से देखता था गोविंदपुरी को। उसकी गलियों को। आज भी जब यहां से गुज़रता हूं तो गोविंदपुरी अंदर तक रूला देता है। बुला लेता है। कहने के लिए कि जब कुछ नहीं होगा तुम्हारे पास तो फिर से आ जाना मेरी गलियों में। याद दिला देता है कि जब सब छूट गए थे तो तुम यहीं तो आए थे। मेरे अकेलेपन का पनाहगार-गोविंदपुरी। इन उजाड़ मकानों में मेरे जैसे हज़ारों अपनी ज़मीन से बिछुड़ कर रह रहे थे। टीवी नहीं था। दुकानों के कोने में रखे टीवी पर सचिन को खेलते देखता था। भीड़ बढ़ती थी तो दुकानदार तंग आकर बंद कर देता था। हम अगली दुकान की तलाश में बढ़ जाते थे। जीत के किसी निर्णायक मोड़ पर तमाम मकानों से आती आवाज़ मुझे गलियों में भगाने लगती थी। अगली दुकान की तरफ। सचिन के शॉट को देखने के लिए। टीम इंडिया के प्रदर्शन से भीतर धौंकनी बढ़ती थी और जीत से गुदगुदी होती थी। घर को भूलने का ज़रिया बनता जा रहा था क्रिकेट। मैं चलता था गोविंदपुरी में और दिखता था पटना।

अपने अकेलेपन को गोविंदपुरी के मकानों की भीड़ से बांटने लगा। खूब चलता था इसकी गलियों में। एक गलि से निकल कर दूसरी गलि में। देखता रहता था दिल्ली को। ढाबे से आने वाली टमाटर प्यूरी की गंध। हर सब्ज़ी को एक ही तरी में बनते देखना अजीब लगता था। पैन में आलू फ्राई की और फिर तरी में डाल कर रसदार बना दिया। चिकन और मटन के साथ भी यही होता था। हर चीज़ में अजनबीयत। जो भी बिहार और पूर्वी यूपी का मिलता था लगता था कि ये अपनी रिश्तेदारी में है। भोजपुरी बोलने वाला मिलता था तो लगता था कि भाई ही होगा। इसी चक्कर में एक ढाबे वाले से दोस्ती हो गई थी। प्रवासी था। गोरखपुर का। दाल में एक पीस मटन डाल देता था। वो जानता था कि मुझे मटन पसंद है लेकिन हर दिन खरीद कर खाना बस की बात नहीं। धीरे-धीरे लघु वित्त मंत्री बनने लगा था। मेरी पसंद के ठिकाने बनने लगे। कहां चाय पीनी है और कहां खाना खाना है। घर से निकल कर पैदल चल कर ढाबे तक पहुंचना अब भोजन करने का नया रूटीन था। रसोई के बाहर पालथी मार कर खाने की आदत समाप्त हो गई।


फिर भी ये सारे मकान मेरे अकेलेपन को नहीं बाट सकें। दोस्तों की मटरगस्तियां उनकी थीं। उनमें शामिल होकर भी बाहरी हो जाता था। दोस्त बनने लगे। इनके सहारे अगले दस साल का सफर कटने वाला था। एक दूसरे की आदतों से एडजस्ट करना। कई ऐसे थे जिनसे मुलाकात गोविंदपुरी में ही हुई। पहली बार फ्लैट में रहने का सपना इन्हीं मुलाकातों में जवान हुआ। चार लोगों ने अपना बजट मिला दिया। फ्लैट लिया गया। लेकिन भीतर पहुंचते ही हम वैसे ही रहने लगे जैसे वन-रूम सेट में रहते थे। एक कमरे में दो लोग। किचन साझा और बाथरूम अपना। इस बार बड़ा लेकिन वन-रूम सेट ऐसे सेट हो गया कि हम आज तक इसी पैटर्न पर रहते आए हैं। मज़ाक करता हूं अपने दोस्तों से। लाइफ वन रूम सेटहा हो गई है।

वन-रूम सेट में बसती दिल्ली

दिल्ली आते ही घर और कमरे का मतलब बदल गया। गृहस्वामी को मकान-मालिक कहते सुना तो अजीब लगा। पटना में घरों को हम शर्मा अंकल,तिवारी जी का मकान,यादव जी का घर,रामबालक बाबू का मकान,केशव बाबू,उदय बाबू का मकान,पांडे जी का मकान। पूरा मोहल्ला मकानों को इन्हीं जातिसूचक और व्यक्तिगत सूचक नामों से जानता था। इन नामो से आप यह भी महसूस कर सकते हैं कि मैं जिन जगहों पर रहा और जिन मकानों में गया,उनमें दलित नाम वाले मकान नहीं थे। पता चलता है कि हमारी ज़िंदगी के सामाजिक अनुभवों में इस चीज़ की कितनी कमी रही है। मैंने बाद में इस कमी को पूरी कर ली लेकिन मध्यमवर्गीय विकास के मोहल्लों में दलितों के मकान आज भी नहीं मिलेंगे। खैर मकसद लिखने का कुछ और है।

दिल्ली आ गया था। गोविंदपुरी। प्रोप्रटी डीलर घरों को कमरों में बांट कर पेश कर रहा था। एक वन रुम है, कहिये तो टू-रूम सेट या बरसाती चलेगा? भकुआ जाता था। घर का हर कोना किराये के लिए काट दिया गया था। मैं किसी महल से निकल कर दिल्ली नहीं आया था। जहां रहता था वहां कमरा होता भी था और नहीं भी होता था। लेकिन एक कमरा अपने आप में पूरा घर हो जाएगा,ये कभी नहीं सोचा था। अपनी औकात भांपते ही प्रोपर्टी डीलर समझ गया और बोला कि जितने पैसे आप दे सकते हो,उसमें वन रूम सेट या बहुत से बहुत बरसाती मिलेगी। बरसाती रहने की उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके तहत मकान बनने के बाद बचे खुचे सीमेंट गारे से छत पर एक कमरा बन जाता है। जिसकी छत एस्बेस्टस शीट की होती थी और होती है। वन-रूम सेट के अलग-अलग पैमाने थे। किसी में आलमारी तो किसी में नहीं। किसी में टेबल फ्री तो किसी में नहीं। अगले दस साल तक न जाने कितने वन-रुम सेट बदले। मज़ाक में कहता था कि अपनी ज़िंदगी वन-रूम सेटहा हो गई है। सात सौ लेकर पंद्रह सौ रुपये तक के वन-रूम सेट। उन्नीस सौ नब्बे की बात बता रहा हूं।

हम प्रवासी छात्रों के लाए सामानों से जो वन रूम भरता था उसका भी खाका खींचना ज़रूरी है। कमरे के एक हिस्से में किरासन तेल वाला स्टोव,ऑमलेट बनाने के लिए पैन,पिन,चाय के लिए बर्तन,दो कप और दो थालियां। एक कोने में चटाई,रजाई और बिस्तर। तीन चार किताबें। रैपिडेक्स इंग्लिश तो होती ही थी। इन्हीं तीन-चार किताबों से प्रवासी छात्रों और प्रवासी मज़दूरों के वन रूम सेट कमरों के बीच फर्क बनता था। कमरे के एक छोर से दूसरे छोर को छूती एक रस्सी। जिस पर लटके रहते थे हमारे कपड़े। और हां..एक बीस रुपये का रेडियो भी था। सबसे पहले खाने का तरीका बदल गया। घर पर मां थाली में परोस देती थी। अब पोलिथिन में दाल और ठोंगे में तंदूरी लिये चले आ रहे थे। दाल-फ्राई खाना नया अनुभव था। मालूम नहीं था कि काली दाल और पीली दाल इस टाइप के नामों से दाल पुकारी जाएगी। पुकार के कम दुत्कार के नाम ज़्यादा लगते थे। दिल्ली आने से पहले राजमा से तो भेंट ही नहीं हुई थी। गोविंदपुरी के ढाबों में राजमा चावल खाना शुरू कर दिया। दालभात सब्जी और चटनी खाने की आदत समाप्त। दाल फ्राई और रोटी नया कंबिनेशन बन गया। तवे और तंदूर की रोटी का फर्क बना। नाश्ते से दही-चूड़ा गायब। ब्रेड-ऑमलेट घुस गया। कभी-कभी तो ब्रेड-ऑमलेट भी मुख्य भोजन बन जाता था। और हां...पानी रखने के लिए बोतल। बाद में पेप्सी और कोक के पांच लिटर वाले बोतल छात्रों और मज़दूरों के घरों में पानी जमा करने के सबसे लोकप्रिय साधन हो गए। और हां...प्रवासी छात्रों के कमरे में छुपा कर या सामने रखा गया टिकाऊ नाश्ता। नमकीन और ठेकुआ। फ्रिज आधारित दुनिया के बनने से पहले के टिकाऊ नाश्तों का उत्तम प्रबंध दिल्ली के वन-रूम सेट कमरों में हुआ करता था।


पहनावा भी बदला। पायजामा समाप्त। उसकी जगह जनपथ से पच्चीस-पच्चीस में खरीदे गए हाफ पैंट,जिसे क्लासी लैंग्वेज में शाट्स कहा जाता है,पहनने लगा। कुर्ते की जगह पच्चीस रुपये वाली होजियरी की टी-शर्ट। कैट बिहारी बनने की ये मामूली शर्तें बनती जा रही थीं। कैट इसलिए कहलाए गए कि हम बदल रहे थे। अजीब अजीब किस्म के कपड़े पहनने लगे। जीन्स का हमला हुआ। धोने से छुटकारा और फटेगा नहीं के नाम पर बदन के नीचले हिस्से से चिपक गया। मोहनसिंह जी पैलेस एक नया पता ज़िंदगी में शामिल हो गया। दिल्ली की ठंड के आंतक ने सर्दी के कपडे भी बदलवा दिये। तिब्बती मार्केट से जैकेट खरीदा गया। शायद गामा जैकट कहलाता था। हर जैकेट इस दावे से खरीदा जाता था कि ये दिल्ली की सर्दी का अचूक काट है। अब जैकेट फैशन के लिहाज़ से खरीदता हूं। गामा जैकेट पर अलग से लिखा जाना चाहिए। कैसे पर्यावरण के बदलने के साथ गामा जैकेट गायब हो गया। सिपाही से लेकर स्टुडेंट और ऑटोवाले सब गामा जैकेट पहनते थे। मोटा और भारी-भरकम जैकेट। लबादा लाद लिये हों,ऐसा लगता था। गामा जैकेट पांच सौ रुपये का। रईस या दुलारे प्रवासी छात्रों अपने मां-बाप की कृपा से गामा जैकेट पहनते थे। पटना से फोन आता था कि अंटार्कटिका की सर्दी की कल्पना के सहारे सवाल निकलते थे। अब लोग दिल्ली की ठंड के बारे में इस तरह के सवाल नहीं करते। अब कहते हैं कि दिल्ली में ठंड है या नहीं।
जिस ठंढ के बारे में दावा किया जाता था,उसके बारे में सवाल किया जा रहा है। कोपनहेगन जाने की कोई ज़रूरत नहीं है।


लेकिन बात मैंने घरों के कमरों में वितरित कर दिये जाने से शुरू की थी। वन रुम सेट भी भांति भांति प्रकार के। कमरा टेढ़ा तो बाथरूम कहीं और। किचन दोनों के बीच की एक संकरी सी गली में। रोशनी के लिए बल्ब का सहारा। कहीं आप वन-रूम सेट वाले मकान मालिक के बारे में तो नहीं जानना चाहते। इन मालिकों का वर्णन कभी और। वैसे हर मकान-मालिक यही पूछता था कि कॉलेज में पढ़ते हो,लड़की तो नहीं आएगी। शादी हो गई है? नौटंकी करता था। तब तक हम भी किसी लड़की को नहीं जानते थे। इसलिए ये सवाल ही समझ में नहीं आता था कि कहां से और कैसे लड़की आ जाएगी। बस जवाब का टोन ऐसा होता था जैसे महाभारत के भीष्म जी बोल रहे हों। प्रतिज्ञा टाइप शैली में। कोई लड़की नहीं आएगी। वन-रूम सेट के मालिक लड़कियों के विरोधी होते थे। लेकिन जब लड़कियों को कमरा देते थे तो ज़रूर पूछते थे कि लड़के तो नहीं आएंगे न। दिल्ली के ये मकान मालिक अपने कमरे को ऐसी एकांत जगह में नहीं ढलने देना चाहते थे जहां लड़का-लड़की मिल सकें। बहुत बाद में समझ में आया कि दिल्ली के ऑटो में लड़का-लड़की इस तरह से क्यों चिपके रहते हैं, जैसे ऑटो वाले ने फालतू में सीट चौड़ी कर दी हो। बाइक पर सवार पीछे बैठी लड़की को जब लड़के को जकड़े देखता था तो समझ नहीं आता था। पटना शहर में लड़कियों को स्कूटर या बाइक पर बैठे देखा था। इतनी दूरी तो होती ही थी जैसे लगता था कि अंकल जी बस की ड्राइवर की सीट पर बैठे हों और लड़की कंडक्टर की सीट के बगल में। तब पटना में बाइक स्कूट पर गर्लफ्रैंड नहीं बैठती थी। बाप-बेटी,भाई-बहन का कांबिनेशन होता था। इसीलिए दूरी का आभास होता था। दिल्ली में दूरी मिट चुकी थी। बाइट और ऑटो पर सवार लड़के-लड़कियों ने इसे वन रूम सेट में बदल दिया था। दुपट्टों से मुंह को ढंकने की कला। ज़रूर काले धुएं से खूबसूरती को बचाने का प्रयत्न होगा और कपड़ों के अंधेरे में अपने किसी के साथ होने के अहसास का एकांत।


मुझे पूरी दिल्ली वन-रूम सेट के ढांचे में ढली हुई लगती थी। एडजस्ट करती हुई दिल्ली। गोविंदपुरी,पुष्पविहार,कठवाड़िया सराय,मुनिरका,बेर सराय आदि आदि। ये सारी जगहें वन-रूम सेट से बसे शहर की तरह लगती हैं। मुनिरका में जिस कमरे में मैं रहता था वो एक ड्राइंग रूम था। उसमें दीवार नहीं थी। चारों तरफ से खुलने वाले लकड़ी के दरवाज़े थे। जब वन-रूम सेट की मांग बढ़ी होगी तो हंसराज जी ने इसे हम जैसे किरायदारों के लिए समर्पित कर दिया। दरवाजा खुलते ही पूरे सामान के साथ मेरा एक कमरे का मकान सड़क पर आ जाता था। सीढ़ी से उतर कर बाथरूम का रास्ता। टॉयलेटशीट के ऊपर लकड़ी रख कर नहाने का इंतज़ाम। वन-रूम सेट का सामाजिक अध्ययन होना चाहिए। ये एक किस्म की मानसिकता भी है। रहने वाले के प्रति सोच भी है। बेर सराय के एक कमरे को देख कर बाबूजी ने मज़ाक में कह दिया था। भूगोल की परिभाषा के अनुसार यह कमरा नहीं है। गुफा है। जिसमें जाने का एक ही रास्ता है। निकले का भी वही है। खिड़की नहीं थी। वन-रूम सेट में खिड़कियां कभी-कभार मिलती हैं। नब्बे के दशक में दिल्ली में भयंकर मात्रा में वन-रूम सेट का निर्माण हुआ है। आज भी जारी है। साठ फीसदी मकान वन-रुम सेट के हिसाब से बने होंगे।

एक खतरनाक किस्म की दम घोंटू प्राइवेसी। दरवाजे को खूबसूरत बनाने के लिए रविना टंडन या माधुरी दीक्षित टाइप की हीरोईनों की तस्वीरें। अमिताभ से लेकर सचिन भी होते थे। दरवाजों पर टंगे पतलून। बेल्ट और कमीज़ और भीतर की हैंडिल पर लटकता ताला। और हां..ताला बंद कर जाने की आदत। दरवाज़े पर छो़ड़े जाने लगे नोट्स। कहां गए हैं और कब आयेंगे। ताकि आकस्मिक आगंतुक को सूचना मिल जाए। मोबाइल ने इस आदत को समाप्त कर दिया। खैर दिल्ली के कमरों पर लिखना जारी रहेगा। ताला अभी बंद नहीं हुआ है।पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त।

आम आदमी देख रहा है




वैशाली से इंदिरापुरम जाने के रास्ते पर पंचर की इस दुकान पर डिश टीवी देखकर लगा कि डिजिटल टेक्नॉलजी दाल भात हो रही है। डिश टीवी एक महंगा उपकरण है मगर यह उनकी ज़िंदगी का भी हिस्सा बन रहा है जिनके स्थायी घर न हीं हैं। खानाबदोशों के सामान में टेलीविजन भी शामिल हो गया है। सबको विकल्प चाहिए। गांवों में लोग डिश टीवी लगा रहे हैं। कितना इंतज़ार करते। कितनी पीढ़िया बिना रियालिटी शो देखे खतम हो गईं। पता ही नहीं चला कि कोई राखी कोई राजू धमाल कर रहे हैं। न्यूज़ चैनल क्या दिखा रहा है गांवों के बारे में। यह गांव के लोगों को पता ही नहीं चला। डिश टीवी से पता चलेगा। बैटरी ट्रैक्टर में चार्ज कर रईस लोग अब शाम को एक घंटा टीवी देख लेते हैं।

गार्डिनिया या गरदनिया से बायें जाकर हैमिल्टन से मुड़ें?

सब्ज़ीबाग़,जक्कनपुर,मीठापुर,लोदीपुर,लोहानीपुर,चिरैयाटांड,गोरियामठ,मंदिरी। इन्हीं नामों से जाना हमने मोहल्लों को,अपने शहर पटना में। भिखनापहाड़ी से लेकर दूजरा और बांसघाट। अपने जीवन के आस पास की चीज़ों और भाव से निकले ये नाम। किसी शहर को अपना समझने के लिए एक रास्ता बताते थे। मोहल्ले खतम हो रहे हैं। अपार्टमेंट ही नया मोहल्ला है। लेकिन इनके नाम फिलहाल डरावने लगते हैं लेकिन पचास साल बाद कोई इन नामों को लेकर इसी देश में सेंटी हुआ करेगा।

लेकिन आज जब किसी को बताता हूं कि सनब्रीज़ अपार्टमेंट में रहता हूं तो हवा वाली ब्रीज़ और पुल वाले ब्रिज में फर्क नहीं कर पाता। इतना महीन और अनजाना फर्क सुनने वाले के कान में दर्ज नहीं होता है। आएं..आएं करता रहता है। मगर अब इस तरह के अंग्रेज़ी दां और यूरोपीय नामों के साथ जीना पड़ेगा। हमारी पिताजी सनब्रीज़ बोल ही नहीं पाए। नाम की वजह से ही यह हुआ। मैं आसानी से अब बोल लेता हूं। बस दांत और जीभ के बीच कोई कंकड़ फंसा सा लगता है। पड़ोस में एक अपार्टमेंट का नाम गार्डेनिया है। सुनने में यह गरदनिया भी लग सकता है। गनीमत है कि एकाध अपार्टमेंट का नाम हिंदी टाइप भी हैं। आम्रपाली और आशियाना। एल्डेको क्या नाम हुआ। ज़रा बताइये।

इन नामों से भयंकर दिशा भ्रम हो रहा है। लोग उसी अपार्टमेंट के नीचे पहुंच कर कहीं और मुड़ जाते हैं। बोले और सुने जाने की असमर्थता के कारण इन अपार्टमेंट में मेहमान देरी से और चक्कर लगा कर पहुंचते हैं। जो जैसा सुनता है उसी के हिसाब से अंदाज़ लगा कर पता बता देता है।

शनिवार को अखबारों में हसीन सपनों को लेकर मकानों के विज्ञापन छपते हैं। विज्ञापन में ऐसी हरियाली दिखती है कि लगता है कि कोपनहेगन में बेकार ही भाई लोग पर्यावरण को लेकर विचार हगने जा रहे हैं। हैमिल्टन हाइट्स। ये एक नाम है किसी अपार्टमेंट का। सोचा कि हैमिल्टन कोई समाजसेवी होंगे। डिक्शनरी में सर्च मार दिया। अनाप शनाप जानकारी आई। न्यूज़ीलैंड और ग्लासगो में इस नाम के शहर और मोहल्ले हुए हैं। बकिये इस नाम के कुछ लोग हुए हैं जो तमाम तरह के काम करते हुए तमाम हुए हैं। अब बताइये कि हैमिल्टन साहब का न अता न पता लेकिन उनके नाम पर फरीदाबाद के सेक्टर-३७ में हैमिल्टन हाइट्स बन रहे हैं। क्या लोदीपुर हाइट्स कैट नाम नहीं लगता है। कैट के चक्कर में हम सब रैट हो गए हैं। चूहा।

एक तो हर अपार्टमेंट का लक्ज़री होना क्यों ज़रूरी है,समझ नहीं आया। फिर तो होटल का ही कमरा ईएमआई पर ले लीजिए। रहिये उसी में जाकर। अपनी रईसी ठेलते रहिए। नोएडा में लक्ज़री फार्मलैंड बन रहा है। टू बीएचके वाला। सोनिपत में ट्यूलिप गार्डन बना है। किसने देखा है श्रीनगर जाकर ट्यूलिप। गेंदा फूल है का। गेंदा गार्डन ही रख देते। मतलब तो निकलता कि भाई जो गेंदा नेता के गर्दन से लेकर ड्राइवर की स्टियरिंग पर चढ़ाया जाता है उसी के नाम पर यह मोहल्ला आबाद होने जा रहा है। एक विज्ञापन के अनुसार नेशनल हाइवे-२४ पर क्रासिंग रिपब्लिक बनने जा रहा है। भारत एक गणतंत्र हैं लेकिन अपार्टमेंट भी गणतंत्र हो जाएगा तब तो अंबेडकर नाम के महान लोग प्रोपर्टी डीलींग करने लगेंगे। नेहरू क्या करेंगे। डॉ राजेंद्र प्रसाद किसी हाउसिंग सोसायटी के पहले प्रेसिडेंट बनके अमर हो जायेंगे। उस में क्रासिंग रिपब्लिक नाम से मन नहीं भरा है। भाई लोगों ने एक टैग लाइन जोड़ दिया है कि यह इंडिया का पहला ग्लोबल सिटी होगा। भाई साहब इतना शौक है ग्लोबल सिटी में रहना का तो इंग्लैंड जाइये न। और ग्लोबल सिटी होता क्या है। प्रोपर्टी डीलर बना देगा ग्लोबल सिटी। एक रोड तो हम ठीक से बना नहीं पाते।

लक्जरी विलास( विलासिता वाला नहीं,विला वाला)बन रहे हैं। एक का नाम है ओमैक्स गार्डन वुड्स। केएलजे ग्रीन्स। एंजेल मरक्यूरी, हाइटेक रेसिडेंसी, रिज रेसीडेंसी। भिवाड़ी में एक अपार्टमेंट का नाम है हिल व्यू गार्डन। बताइये वहां कौन सा हिल है और कौन सा गार्डन है जिसका व्यू है। हम लोग पढ़ लिखकर चिरकुट ही हुए। स्टेटस के चक्कर में अब अपार्टमेंट में रहने वाला प्रेसिडेंट जल्दी ही अपना यूनिफार्म और प्रोटोकोल बनवा लेगा।

अंग्रेजी से चिढ़ नहीं हैं। इन बेमतलब के नामों से चिढ़ है। यूरोपीय नामों को चेपने के चक्कर में भाई लोगों ने अपने नामों के संस्कार को खतम कर दिया है। गार्डन और गार्डिनिया रखने के बाद भी इनके यहां वही बिजली और पानी की मारामारी रहती है। ठगी के शिकार लोग भी मिलते हैं। अब बताइये याद करना कितना मुश्किल हो रहा है। सही उच्चारण न कर पाने की हताशा कितनों का आत्मविश्वास तोड़ देती होगी। कितने अपने आत्मविश्वास को जताने के लिए पूरे उच्चारण का तेल कर देते होंगे। अब यही बाकी है कि इंडिया और भारत को भी बदल दो। पुराने नाम रखकर करना क्या है। इंडियात या भारिंडिया रख दो। हां,लक्ज़री ज़रूर लगा दें। लग्ज़री इंडिया। हम तो अपार्टमेंट की ही तरह अपने मुल्क का विज्ञापन करने लगे हैं।

आलीशा

प्यार पॉसिबल है। दूर से चाहने वाले आशिकों की कहानी लगती है। एक खूबसूरत सी लड़की आलीशा। हिमरतन तेल बालों में चपेत कर और ढीली पतलून पहिन कर वो कुछ टेढ़ा मेढ़ा चश्मू। इस गाने को देखता हूं तो लगता है कि कोई आशिक है जो किसी को दूर से चाहता है। दूर से चाहने वाले आशिकों को कभी सराहा-समझा नहीं गया। जबकि ये वो आशिक हैं जो ट्रैफिक जाम क्रिएट नहीं करते। किसी साये की तरह अपने महबूब के पीछे चलते हैं और अपने भीतर सपनों का ढेर लगा कर उसी के नीचे दबे रहते हैं। यकीन दिलाते रहते हैं कि एक दिन जब सब कुछ उनके पास होगा तो आलीशा भी होगी। वो न जाने कितनी चिट्ठियां लिख चुके होते हैं। टेम्पू के पीछे लिखे शेर को उतार कर डायरी में लिख चुके होते हैं। खुद को हर फिल्मिया हीरों के आभासी खांचे में ढाल चुके होते हैं। बस कह नहीं पाते। रह जाते हैं।


वी चैनल पर आलीशा का गाना देख कर यही लगा। चांद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर। वो बेचारा दूर से देखे, करे न कोई शोर। बेखबर चांद न जाने किसके आसमान में निकल आता है, लेकिन चकोर को ताकने से कौन रोक सका। यही वो बेकरारी है जो किसी आशिक को लफंगा बनाने से रोकती होगी। प्यार पॉसिबल है। बालीवुड के शायरों, संगीतकारों और कहानीकारों ने जो बड़ा काम किया है, वो यही किया है। प्रेम को सार्वजनिक मान्यता दिलाई है। इसके बाद भी पंचायतें बैठ जाती हैं। प्रेमियों का कत्ल कर दिया जाता है। प्रेमी की बहन की शादी नहीं होती और प्रेमिका के घर का बहिष्कार हो जाता है। हिंदुस्तान में प्रेम इम्पॉसिबिल है। लेकिन कोशिश करें तो पॉसिबल है। जब भी यह धीरज टूटता है तभी कोई हिंदी फिल्म आकर आशिका का मन बढ़ा जाती है। वर्ना डरपोक आशिक आज भी अपनी किताबों के पन्नों के बीच गुलाब की पखुंड़ियां रखते होंगे, लड़की का गिरा रूमाल उठाकर रोज़ धोते होंगे। प्रेमी अपने नितांत एकांत क्षणों में ही सबसे अधिक सृजनशील होता है। वो अपनी क्लपनाओं में इश्क को ऐसे सजाता है, जैसे किसी राष्ट्रपति के आने से पहले मंच को फूलों से लाद दिया गया हो। जैसे बारात के आने से पहले दरवाज़े के बाहर धूल पर पानी डाल दिया गया हो। इश्क में सबसे अधिक फायदा ज़बान को होता है। आशिकों के बोलने के अंदाज़ बदल जाते हैं। रंग बदलने से पहले उनकी भाषा काल्पनिक होने लगती है। संवाद की शक्ल में बातें किसी चाही जानी वाली लड़की को प्रभावित करने के लिए की जाती हैं। लड़का बेहद सभ्य हो जाता है।

लेकिन जो दूर से चाहते हैं, उनका क्या। जो दूर से चाही जाती है वो तो बेखबर है ही। हमारे देश के दूर से चाहने वाले आशिकों का सामाजिक मानसिक अध्ययन नहीं हुआ है। मन-संसार के भीतर कल्पनाओं में कौन सी नूर उतर आती होगी, ये न तो धड़कनें बताती हैं न लब। वो चुपचाप अपने आप,चाहता है किसी को। पीछा करता है। एक बार देख कर ही आहें भर लेता है। फिर काम पर लौट आता है। इक्का दुक्का ऐसे भी हैं जो नहीं लौट पाते। पीछा करने लगते हैं। हर जगह। अपनी कल्पनाओं को रक्तरंजित कर देते हैं। न कह पाने की कमज़ोरी और स्वीकार न किये जाने का भय। प्रेम पूर्व ऐसी स्थितियां हैं,जो प्यार को इम्पॉसिबल बनाती हैं। कह दीजिए। दिल को साज़िशों और हताशाओं का अड्डा मत बनाइये। मन ही मन क्या घुटना,मन ही क्या जलना। अस्वीकार किये जाने को स्वीकार करना सीखें। कोई ना कह दें और आप ड्राम भर कर रोने लगे,नहीं चलेगा। इश्क एक बार नहीं होता है। ये उसके बाद भी होता है जब किसी से हो जाता है। सौ में एक बार तो होगा। लगे रहो मुन्ना भाई।

एक सुबह की आत्मकथा

जितना कहता हूं,उतना ही अधूरा रह जाता है। जितना मिलता हूं,उतना ही अकेला हो जाता हूं। ऐसा क्यों होता है कि दिल्ली में रहना अक्सर याद दिलाता है कि अब चलना है वापस। जहां से आया था। दिल्ली एक्सप्रेस से। पर वो ट्रेन तो अब बंद हो चुकी है। क्या मेरी वापसी के लिए पुराने रास्ते इंतज़ार कर रहे होंगे? उन रास्तों को किसी और ने चौड़ा कर दिया होगा। जिनके लिए लौटने का मन करता है,वो अब दुनिया में नहीं हैं। जिनके साथ खेला,वो न जाने कहां हैं। सबके सब भटक गए हैं। तो क्या किसी से मिलने की बेकरारी है या फिर इस शहर में मन के उजड़ जाने के बाद अपना ही खरीदा घर किराये का मकान लगता है। ऐसा क्यों होता है कि किसी सुबह मन खराब हो जाता हैं। सामान बांधने का दिल करता है। बीबी बच्ची के कालेज और स्कूल जाने के बाद लगता है कि किसी वीराने में घिर गया हूं। क्या कोई लौट सकेगा कभी अपनी मां के गर्भ में और वहां से शून्य आकाश में। उन्नीस साल हो गए दिल्ली में। जो मिला वही छूटता चला गया। दरअसल सहेजने आया ही नहीं था,जो सहेज सकूं। हर दिन गंवाने का अहसास गहराता है। लौट कर आता हूं तो ख्याल आता है। क्यों और कब तक इस शहर में बेदिल हो घूमता रहूंगा। इस शहर में जबड़ों को मुसकुराने की कसरत क्यों करनी पड़ती है? सारी बातें पीठ के पीछे ही क्यों होती है? सोचता हूं किसके लिए मेरी बूढ़ी मां गांव में घर की चारदीवारी बना रही है। अपने बेटों के लिए घर को महफूज़ कर रही है। मैं कल की शाम एक फाइव स्टार होटल में था। बस फिर से दिल टूट गया। इतनी चमकदार रौशनी,महफिल और मेरी मां अकेली। वो कहती है कि गांव से अच्छा कुछ नहीं। तुम्हारी दिल्ली में दिल नहीं लगता। किसी को भोजपुरी आती नहीं है। यहां तुम्हारी ज़मीन है। बाप दादाओं की है। क्या मां ही पुरखों की सारी कसमें पूरी करती रहेगी? और हम? क्या हम उन पुरखों के नहीं हैं। नौकरी का चक्र ऐसा क्यों हैं कि सारे रिश्ते उसमें फंस कर टूटते ही जाते हैं। पेशेवर होना अब एक अपराधी होना लगता है। छु्ट्टी लेकर गांव जाने का मतलब नहीं। यहां वहां के बीच आना-जाना हल नहीं है। दिल्ली कब तक मुझे बसा कर उजाड़ती रहेगी। यहां बादशाह टिका न आवाम। सब टिके रहने के भ्रम में जी रहे हैं। मेरी तरह कहीं से आए प्रवासी मज़दूर मकान खरीद कर सोचते हैं कि वो दिल्ली में बस रहे हैं।

गांधी पूजा और लक्ष्मी







दिल्ली के साउथ एक्सटेंशन मार्केट की एक गली में चला गया। सेल्स मैन अपनी बाइक लगा कर चाय पी रहे थे। चाय की दुकान पर ये तस्वीर नज़र आई। गांधी जी लक्ष्मी पूजा के पार्ट बन चुके हैं। आम आदमी लोकप्रिय चीज़ों को लेकर जितना प्रयोग करता है कि उतना फिल्म निर्देशक भी नहीं कर पाते।

मंदिर या मैनेजमेंट स्कूल





नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर १३ के एक बुक स्टॉल पर यह किताब दिखी। भगवान राम कंपनी चलाने के काम आ सकते हैं सोचा नहीं था। मंदिर बनाते बनाते भाई लोग अब मैनेजमेंट का स्कूल खोल देंगे। मैनेजमेंट गुरु बना दिये हैं रामजी को। राम राम। राम का काम है राजधर्म का पालन करना। सभी का कल्याण करना। कंपनी के हित के नाम पर कुछ लोगों की दुकान चलाना नहीं। बख्श दो प्रभु राम को। आराधना सिर्फ आध्यात्म के लिए करो। सकल उत्पाद के लिए नहीं।

उदास मनों में झांकता फेसबुक

भारत में छह करोड़ लोग इंटरनेट के आभासी जगत की नागरिकता ले चुके हैं। आभासी और असली जगत के अंतर और अंतर्विरोध को जीने लगे हैं। आपसी रिश्तों के समीकरण बदल चुके हैं। रिश्तेदारी का मतलब नेटवर्किंग हो गया है। एक क्लिक से कोई आपका दोस्त हो जाता है और कोई दोस्ती के लायक नहीं समझा जाता। ऑरकुट से लेकर फेसबुक तक। लाखों लोग रोज़ कुछ न कुछ लिख रहे हैं। सबको तलाश है एक काल्पनिक रिश्ते की। यही तलाश हमारे भीतर रिश्तों की कमी को बड़ा करती है। हम सर्च करते हैं। खोजते हैं कि कोई अपने जैसा, अपनी तरह के गीत संगीत सुनने वाला, किताब पढ़ने वाला है जो दोस्त बन सकता है। कोई स्कूल के नाम पर मिल जाता है तो कोई बैच के नाम पर। हर दिन फेसबुक पर आग्रह मिलता है कि या तो मुझे दोस्त के रूप में स्वीकार कर लीजिए या फिर इग्नोर या नज़रअंदाज़ कर दीजिए। नज़रअंदाज़ बटन पर क्लिक करते समय एक बार मन कांपता है। इसने ऐसा क्या किया है जिसे अस्वीकार कर रहा हूं। कहीं बुरा तो नहीं मानेगा। मानेगा तो क्या कर लेगा। किस- किस का आग्रह कंफर्म यानी स्वीकार करूं। ऐसी मानसिक अवस्था से गुज़रते हुए फेसबुक पर नेट- नागरिक अपनी रिश्तेदारी को आगे बढ़ाते रहते हैं।


फेसबुक में लोग क्यों आते हैं। मूल कारण क्या होता है इसका ठोस जवाब नहीं है। लेकिन लगता है कि लोग एक दूसरे की मन की बातों को जानने के लिए आते हैं। स्टेटस अपडेट में आप चंद वाक्य लिख सकते हैं। मन की बात। कोई रात को नहीं सोया तो लिख दिया कि करवटें बदलते रहें सारी रात हम। मन की बात पर कमेंट भी आते हैं। कोई लिखेगा क्यों क्या हुआ? दफ्तर की वजह से या गर्लफ्रैंड की वजह से। तो क्या हम मन की बात अपनों से,उनके सामने नहीं कह सकते? तभी तो हम आभासी जगत के रिश्तेदारों के बीच उगलते हैं। कोई वीकेंड मनाने का उत्साह ज़ाहिर करता है। काल्पनिक वीकेंड। मस्ती, बीयर और किताबें। ऐसा होता नहीं। वीकेंड कपड़े धोने से शुरू होता है और कब फालतू चीज़े करता हुआ खतम हो जाता है, पता नहीं चलता है। लेकिन वीकेंड को लेकर अंग्रेजी साहित्य और सिनेमा से आया रोमांस अब आम भारतीय जीवन का सपना है। आम से मतलब नेट-नागरिकों से है।

स्टेटस कॉलम में लिखे जानी वाली मन की बातों का समाजशास्त्रीय अध्ययन होना चाहिए। कोई ग़ालिब की शायरी ले आता है तो कोई आर डी बर्मन के गीतों का ज़िक्र कर जाता है।कोई लड़की लिख जाती है कि उसे तलाश है एक अच्छे लड़के की। कोई अपने परिवार का फोटा साझा करता है। स्टेटस अपडेट में आप लिखेंगे तो आपस जुड़े सभी दोस्त पढ़ सकते हैं। जान जाते हैं कि आपके मन के भीतर क्या चल रहा है। लेकिन क्या वो असली होता है। हर बार मौलिक नहीं होता है। कई बार मन की बात लिखने के लिए लोग ज़बरन कुछ लिखते हैं। कोई सहानुभूति बटोरना चाहता है तो कोई बेटी के पास होने की खुशी बांटना चाहता है। लड़कियां जब स्टेटस में लिखती हैं तो उनकी बातों की प्रतिक्रिया में तस्वीरों की खूबसूरती की चर्चा होती है।कई लड़कियां अब परेशान होने लगी हैं। वो अब ज़्यादा और अनजान दोस्त बनाने के खतरे के कारण दूर हो रही हैं। लड़कियों के फेसबुक दोस्तों की संख्या सीमित होती है। लड़के उदार होते हैं। वही जो हम अपने आम जीवन में होते हैं, फेसबुक में दिखता है।


आम जीवन में भी तो हम आभासी ही होते हैं। मन की बात बच-बचाकर कहते हैं। लेकिन ऐसा क्या है कि हम सामने जो कह सकते हैं,उसी बात को फेसबुक में जाकर कहते है। क्या यह गैर-इरादतन रिश्तेदारी है? एक दिन दफ्तर के बाहर कुछ लोग मिले। कहा कि हम लोग दोस्त हैं। मैं हैरान हो गया। पूछा कि दोस्त तो उन्होंने कहा कि जी हम लोग फेसबुक पर दोस्त हैं। बहुत अच्छा लगा। हम कहीं पर दोस्त हैं। हम किसी के दोस्त नहीं हैं। हम सब बदल रहे हैं। अब एकांत का मतलब खतम हो गया है। फेसबुक ऑन कीजिए तो एक चैट वाला पॉप अप हो जाता है। कोई लिख देता है- जगे हैं? बस बात शुरू हो जाती है। मौन रहते हुए,बिना आवाज़ निकाले,बातें होने लगती हैं।

NDTV का नया वेबपेज

social.ndtv.com क्लिक कीजिए। आपको कई चेहरे और नाम मिलेंगे जिनके साथ आप उनके कार्यक्रमों के बारे में बात कर सकते हैं। बस आपको करना है-social.ndtv.com/ravishkumar । अगर मेरा नाम जोड़ कर क्लिक करेंगे तो मेरा पेज खुल जायेगा। इसी तरह आप कई लोगों के नाम के साथ पेज ओपन कर सकते हैं। ये फेसबुक की तरह है। लेकिन अगर मैं यहां अपडेट करूंगा तो एक साथ फेसबुक और ट्वीटर पर भी अपडेट हो जाएगा। अलग से फेसबुक पर अपडेट करने की ज़रूरत नहीं है। इस पेज पर ब्लॉग करने की भी सुविधा है जिसमें पांच हज़ार कैरेक्टर आ जाते हैं। सोशल पेज पर अपडेट के लिए १४० कैरेक्टर की सुविधा है। यहां आप किसी भी क्रायक्रम के बारे में जाकर अपनी राय दे सकते हैं। जब से फेसबुक का खाता बंद हो गया है,मैंने अपनी नेटवर्किंग की दुकान वहीं खोल ली है। मन का रेडियो वहीं बजाता हूं। नेट-नागरिक बिना नेटवर्किंग के नहीं रह सकते। लिखित वार्तालाप आधुनिक क्रिया है। कंप्यूटर आया तो लोगों ने कहा कि लिखना खतम हो जाएगा। उल्टा हो रहा है। बोलना खतम होने जैसा लगता है। मन की बात कहने के लिए लोग लिख रहे हैं। बोल नहीं रहे हैं। जब तक फेसबुक का खाता वापस नहीं होता,सोशल पेज पर ही मिलूंगा।

हिंदी-अंग्रेजी के अख़बारों का किसान अलग क्यों होता है

अमर उजाला ने क्यों लिखा कि किसानों ने झुका दी सरकार और हिंदुस्तान टाइम्स का हेडर क्यों ऐसा था- BITTER HARVEST,THEY PROTESTED,DRANK,VANDALISED AND PEED.हिंदुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ इंडिया ने किसानों के आंदोलन को ऐसे देखा और लिखा जैसे हुणों का हमला हो गया हो। दिल्ली लुट गई है। चार तस्वीरें निकाल कर लगा दी गईं। शराब पीते हुए। सरिया निकालते हुए और पथ-निर्देशिका गिराते हुए।


हिंदी और अंग्रेजी के अखबारों ने किसानों के आंदोलन को अलग अलग चश्में से देखा। क्या अमर उजाला लिख सकता था कि किसानों ने दिल्ली बर्बाद कर दी। ट्रैफिक जाम लगा दिया। क्यों इस अखबार ने लघु-हेडर लगाए कि गन्ना मूल्य नीति के विरोध में किसानों का ज़ोरदार प्रदर्शन। क्या अगर अमर उजाला हिंदुस्तान टाइम्स की तरह लिखता तो उसके पाठक स्वीकार करते। भले ही पश्चिम उत्तर प्रदेश के शहरों से निकलता हो लेकिन आज भी इन शहरों के लोग गांवों से जुड़े हैं। थोड़े किसान हैं या किसी किसान को जानते होंगे। हिंदुस्तान टाइम्स का पाठक बिल्कुल अलग। तो क्या पाठकों की संवेदनशीलता और वर्ग चरित्र के अनुसार एक ही घटना को दो चश्मे से देखेंगे। वैसे मैं हैरान क्यों हूं?


नहीं मैं हैरान नहीं हूं। डरा हुआ है। शुक्रवार की सुबह जब अंग्रेजी अखबार देखा तो लगा कि दिल्ली में इतना बड़ा हमला हुआ और पता ही नहीं चला। सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस ने किसानों के आंदोलन को विकृति नहीं बताया। दिल्ली में आए दिन टायर पंचर होने से जाम लगते रहते हैं। यह भी सही है कि जाम के कारण कई लोगों को भयानक परेशानी होती है। तो बहस यही कर लेते कि आंदोलन होने चाहिए या नहीं। इस पर भी कर लेते कि अगर सरकार पहले ही सुन लेती तो दिल्ली एक दिन के लिए परेशान न होती। महीनों से पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसानों के आंदोलन चल रहे हैं। अजीब बात ये है कि इसी हिंदुस्तान टाइम्स में गन्ना किसानों की लागत और समस्या पर काफी विस्तार से एक अच्छी रिपोर्ट छपी थी। काफी मेहनत से लिखी गई थी वो रिपोर्ट। लेकिन जब किसान दिल्ली आए तो ट्रैफिक और सिविक सेंस इतना हावी हो गया कि वो हमारे लिए किसी और ग्रह से आए एलियन बन गए।
जिस शहर के बारे में चिदंबरम तक कह चुके हैं कि गाड़ी चलाने की तमीज़ नहीं। सड़क पर पिशाब करते चलते हैं। जगह जगह गदहा से लेकर कुत्ते का बाप मूत रहा है टाइप के बोर्ड लगें हों उस शहर को अपनी सफाई पर इतना नाज़। वाह। ठीक किया कि किसान गन्ना भी साथ ले आए। वर्ना किसी को पता ही नहीं चलता कि सुगरकेन होना क्या है।

इसमें कोई शक नहीं कि महानगरों का अब गांव-कस्बों से रिश्ता टूट गया है। गांव से जो आ रहे हैं वो अब खांटी ग्रामीण नहीं है। एक साल में पांच शहर जाते हैं मज़दूरी करने। दो महीने गांव रहते हैं और दस महीने भटकते रहते हैं। उनके ग्रामीण संस्कार खतम हो चुके हैं। गांवों में भी पारंपरिक ज्ञान भंडार खतम होने का एक कारण यह भी है। लेकिन शहर यह भी भूल गया कि इनकी कुछ समस्या होगी। फेसबुक पर कम्युनिटी बनाकर आंदोलन का शौक पाल रही दिल्ली को अब जंतर मंतर पर किसी और का जाना भी गवारा नहीं हो रहा है।

ये रिश्ता किसानों की तरफ से भी टूटा है। उनके लिए दिल्ली अब एलियन हो गई है। इसीलिए कुछ किसानों ने तोड़फोड़ की। जंतर मंतर में पिशाब किया। जो नहीं करना चाहिए था। लेकिन वो दिल्ली पर उससे अनजानेपन की खीझ निकाल रहे थे। एक तरह का गुस्सा कि उनके सस्ते माल की कमाई पर शहर का ये नखरा। अंग्रेजी के अखबारों के लिए किसान अब किरदार नहीं रहे। वो खलनायक हैं जो बात बात में मांग कर शहर के लोगों को महंगाई के मुंह में झोंक देते हैं। फिर अमर उजाला ने ऐसा क्यों नहीं लिखा।

२० नवंबर के दिन दिल्ली में आए किसानों और प्रेस में हुई रिपोर्टिंग को लेकर अध्ययन होना चाहिए। न्यूज चैनलों की बात नहीं कर रहा हूं। उनकी बात करना बेकार है। मीडिया की वफादारी मुद्दे को लेकर नहीं है, अपने पाठक के वर्ग चरित्र को लेकर है। इसीलिए अमर उजाला लिखता है कि किसानों ने झुका दी सरकार। अंग्रेजी के अखबार लिखते हैं कि वे आए, हमला किया और मूत कर चले गए। न्यूज़ रूम का वर्ग चरित्र भी तो बदला है। जिस वर्ग के प्रति निष्ठा पत्रकारों को दिखानी पड़ रही है(मजबूरी में)उसी वर्ग के वे शिकार भी हो रहे हैं। आम आदमी की रिपोर्टिंग पर चार पांच बड़े अवार्ड बंद कर दिये जाएं तो सिंगल खबर न छपेगी न कोई टीवी का रिपोर्टर एक बाइट भी लेने जाएगा।

जानलेवा सड़कें- बेदिल शहर

सड़क दुर्घटनाओं को लेकर हम कब गंभीर होंगे। हर दिन सवा तीन सौ लोगों की मौत हो जाती है। एक मौत होती है तो बीस घायल होते हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ रोड एंड ट्रैफिक एजुकेशन के इस आंकड़े पर कई बार रिपोर्टिंग हो चुकी है। मैंने भी कई बार की है। लेकिन इन आंकड़ों की प्रसारण बारंबरता बढ़ाने के बाद भी फर्क नहीं पड़ता। आज सुबह फिर खबई आई कि नोएडा में नौवीं क्लास के बच्चे को बस ने कुचल दिया। भारत के अराजक समाज को कहां कहां से संवेदनशील किया जाए। शहर अभी भी हमारी मानसिकता में एक बिगड़ा हुआ जगह है। शुरू के पचास साठ साल तक भारत में गांवों को लेकर जो धमाल पैदा किया गया उससे शहरों के प्रति नकारात्मक सोच पैदा हुई। हमारे गांव में लोग ऐसे बात करते थे जैसे हर शुद्ध चीज़ यहीं पैदा होती थी। होती थी लेकिन यह एक छद्म गर्व भाव था। शहर से आने वाले लड़के लड़कियों का मज़ाक उड़ाया जाता था। शहर हमारी सोच में बैरी संस्कृति की तरह रहा है। इसलिए हमारी कोई नागरिक मानसिकता नहीं बन पाई। हम शहर से बगावत करते रहते हैं। शहर से नफरत करते हैं।

लेकिन शहर फैल रहे हैं। शहरी आबादी बढ़ रही है। शहर अब वाकई अराजक होते जा रहे हैं। सुविधाओं के लिहाज़ से और यहां बसने वाले लोगों की सोच में शहरों के प्रति धंसी अराजक मानसिकता से। दोनों मिलकर शहर को दुर्घटना स्थल बना रहे हैं। एक गंदी जगह लगती है। बीस साल लोग सड़क दुर्घटनाओं से अपंग हो चुके हैं। सवा लाख लोग हर साल मारे जाते हैं। पंद्रह लाख लोगों के खिलाफ चालान कटता है। ज़ाहिर है हम सड़क के साथ उदंडता का बर्ताव करते हैं।

हर सुबह पढ़े लिखे मां बाप सोसायटियों के गेट पर बच्चों के साथ खड़े रहते हैं। बेतरतीब। एक साथ कई स्कूल की बस आ जाती है। उनके बीच से निकलते-भागते रहते हैं। सड़क पर गाड़ियां रफ्तार से दौड़ रही होती हैं। सरकारी स्कूल के बच्चों का तो और बुरा हाल है। सरकारी स्कूलों के गेट के बाहर भगदड़ मची रहती है। बेनियंत्रित ट्रैफिक के हम सब शिकार हैं। ट्रैफिक को बेलगाम बनाने में हमारा ही योगदान है। मगर सोचिये कि हम सब जान लेने की हद तक चले जाते हैं। पी के कार चलाने से लेकर एफएम सुनते हुए बेहोश होकर कार चलाने तक। शहरी संस्कार गढ़ने की ज़रूरत है। शहर को अपनाने की ज़रूरत है। कस्बे का रोमांस अच्छा है लेकिन यहां दिल लग जाए तो क्या बुरा है। वर्ना कब तक कविताओं और शायरी में शहरों को बेदिल बताते रहेंगे। रहते या रहना चाहते तो यहीं हैं न।

क्या जेल फ्लाप हो सकती है?

सड़े हुए सिस्टम से सारी उम्मीद हार जाएं और अंत में उसी सिस्टम से कोई उम्मीद निकल आए तो अच्छा लगता है। जेल देखते हुए भी यही लगा। धीमी परंतु अच्छी फिल्म है। धीमी इसलिए कि निर्देशक चाहता होगा कि आप धीरज रखें और किरदारों की व्यथा को समझें। उतना ही धीरज रखें जितना ये लोग न्याय की आस में अन्याय से जूझते हुए अपनी बेबसी को धीरज का दिलासा देते हैं। मधुर भंडारकर ने जेल के भीतर के यथार्थ को अपनी कूव्वत के अनुसार खींचने की कोशिश की है। मधुर का नायक पराग आज कल का लड़का है। जिसके पास अभिव्यक्ति नहीं है। वो खुद को कामयाबी के पलो, डिस्कों रातें और प्रेमिका की बाहों में आते हुए ही अभिव्यक्त कर पाता है। पराग दीक्षित के पास बड़े बड़े संवाद नहीं हैं। संवाद मनोज वाजपेयी के पास हैं। वो भी प्रकारांतर से आते हुए। होठ नहीं हिलते हैं। मनोज अपने चेहरे और आंखों से संवाद बोलते हैं और प्रकारांतर से संवाद आता है। ये पराग पर मेरे भरोसे की जीत थी। इस एक लाइन ने फिल्म के अंत में गुदगुदा दिया। इससे पहले तक का यथार्थ डरा रहा था,बेचैन कर रहा था और बीच सिनेमा से जाने को कह रहा था। बाहर नहीं गया और देखता चला गया।


हिंदुस्तान की जेलों की हालत बेहद अमानवीय है। इस पहलू को सामने लाने का काम पत्रकारों का था लेकिन मधुर भंडारकर ने प्रभावशाली तरीके से पूरा कर दिया। फिल्म की आखिर में लिख भी दिया कि इतने लोग अभी भी ट्रायल का इंतज़ार कर रहे हैं और बेकसूर हैं। पत्रकारों ने इस मुद्दे को आंकड़ों से तो उठाया लेकिन अपनी कथा को प्रभावशाली बनाने के लिए मानवीय पक्ष भूल गए। पत्रकारों के इस अधूरे काम को मधुर ने पूरा कर दिया। शुरू में मनोज का अभिनय कम लगा लेकिन आखिर की तरफ पहुंचते पहुंचते लगा कि मनोज वाजपेयी का किरदार कितना अहम था। एक ऐसा किरदार जो जेल के भीतर उम्मीदों को जगाने की कोशिश कर रहा था। एक ऐसे समय के रूप में खड़ा मिलता था जो देख रहा है कि यहां ऐसा ही होता है लेकिन जान रहा है कि कभी-कभी ऐसा नहीं भी होता है। जेल के भीतर की गंदगी, भीड़, बरसात में मुंबई की सड़कों से उठकर जेल के भीतर आ जाना। हर तरह की कहानियां। सबीना का किसी पुलिस अफसर का हो जाना और अपने पति को छोड़ देना। उसका पति खुद को खतम कर लेता है। सस्ती शायरी के ज़रिये आम लोगों की व्यथा को वृहत्तर कथा में बदलने वाला एक शायर का किरदार। मधुर ने खूब इस्तमाल किया है सड़क छाप सस्ते शेरों का। ग़ालिब का किरदार। जेल के भीतर रिश्ते बनते हैं, उनका इस्तमाल होता है और दगा भी दिया जाता है।

सुना है फिल्म नहीं चल रही। अब चलने के यथार्थ से जूझते हुए हम पत्रकार भी अचल होते जा रहे हैं। जेल की कहानी का यथार्थ मल्टीप्लेक्स के यथार्थ से दूर है। ये और बात है कि किरदार मल्टीप्लेक्स वाला ही है। ये फिल्म एकल सिनेमा में खूब चलेगी। आम लोगों का अनुभव जेल के करीब है। तारीख पर तारीख जैसे नाटकीय संवादों के बिना संवेदनशील होने का प्रयास करती है ये फिल्म। वकील लूट लेता है। जेल के भीतर अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग न्याय व्यवस्था है। जेलर की भूमिका भी अच्छी निभाई गई है। सब सिस्टम में फंस गए हैं। यह फिल्म बता रही है कि हमने जो आधुनिक सिस्टम बनाई है वो सड़ चुकी है। इस सिस्टम में अब बचा कुछ नहीं है। दारोगा से लेकर दादा तक सबकी चल रही है। लेकिन मधुर इसी सिस्टम में आस्था व्यक्त कर रहे हैं। अच्छा है। नाटकीय ख्वाब दिखाने से तो अच्छा है कि जो है उसी के साथ जीने का धीरज सीख लिया जाए। जेल चले या न चले लेकिन मधुर भंडारकर को अफसोस नहीं होना चाहिए। फिल्म और प्रभावशाली बन सकती थी। उसके यथार्थ और असहनीय हो सकते थे। जो भी हो सकता था वो कम होता उन लाखों लोगों की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए जो अपराध की सजा काटने के लिए अपराधी बन कर जीने को विवश है। जेल की जो नैतिक पहचान है वो यही कि यहां सजा का प्रायश्चित होता है। अपराधी इंसान बनता है। उस नैतिकता को बालीवुडीय अंदाज़ से अलग हट कर चोट पहुंचाने की कोशिश है। फिल्म का कैमरा वर्क काफी अच्छा है। लता का गाया भजन दाता सुन ले कहानी के संदर्भ में परेशान करता है। शांति कम बेचैन ज़्यादा करता है। अच्छा भजन है। फिल्म अच्छी है।

सुधीश पचौरी न रवीश कुमार

बहुत दिनों से जो बात कहना चाह रहा था उसे किसी युवा पत्रकार ने कह दिया। साफ-साफ कह दिया कि हम किससे प्रेरणा लें। हिंदी में कोई नहीं है। न रवीश कुमार से प्रेरणा ले सकते हैं न सुधीश पचौरी से। मेरी तो अभी सीखने की उम्र भी खतम नहीं हुई है और जो काम किया है वो निहायत ही शुरूआती है तो प्रेरणा क्या दूंगा। खैर ये सफाई नहीं हैं। सहमति है। यही बात जब मैंने एनडीटीवी के मीडिया स्कूल में कही थी तो लगा था कि कुछ ज़्यादा बोल गया। अब कह सकता हूं कि कई लोग ऐसा ही सोचते हैं। एनडीटीवी के मीडिया स्कूल में नए छात्रों से मैं कहने लगा कि हिदी टीवी पत्रकारिता में ऐसा कोई भी नहीं है,जिसकी तरह आप बनें। हम सब औसत लोग हैं। औसत काम करते हुए बीच-बीच में लक बाइ चांस थ्योरी से कभी-कभार अच्छा भी कर जाते हैं। लेकिन हम सब टीवी के लिहाज़ से मुकम्मल पेशेवर नहीं हैं। मैं छात्रों से गुज़ारिश कर रहा था कि मेरी बात याद रखियेगा। किसी से न तो प्रभावित होने की ज़रूरत है न प्रेरित। आप अपना रास्ता खुद तय करें और तराशें। लौट कर आया तो लगा कि कहीं ये संदेश न चला गया हो कि बंदा निराश हताश टाइप का है। लेकिन जब एक लड़के ने खम ठोक कर यह बात कह दी तो लगा कि वाह। मूल बात तो यही है।

दूरदर्शन के कार्यक्रम 'चर्चा में' की रिकार्डिंग चल रही थी। प्रभाष जोशी को याद किया जा रहा था। आईएमसी और अन्य पत्रकारिता संस्थान के छात्र थे। काफी जोश और ज़िम्मेदारी से बोले। उनकी बातों से हमारे पेशे में आए खालीपन को महसूस किया जा सकता था। वो अच्छा पत्रकार बनने के लिए बेचैन नज़र आए लेकिन वो सब वैसा ही क्यों बनना चाहते हैं जो पहले हो चुका है। वो किसी की तरफ देखते ही क्यों हैं। अगर यह नई पीढ़ी अपने जोश को बचा ले गई और मेहनत से काम को तराशती रही तो अच्छा कर जाएगी। दफ्तरी आशा-निराशा के चक्कर में फंस गई,छुट्टी लेने के लिए दादी-नानी को बीमार करती रही,वो नहीं करता तो मैं क्यों करूं टाइप की अकड़ पालती रही तो वही होगा जो हमारी पीढ़ी का हुआ। और ऐसा भी नहीं है कि हमारी पीढ़ी में लोगों ने साहसिक काम नहीं किये। बेहतर टीवी रिपोर्ट नहीं बनाई। बनाई। लेकिन जो हो रहा है उससे सबके किये कराये पर पानी फिर चुका है। बहरहाल नवोदित पत्रकारों की चिंताओं से लगा कि आज भी हिंदी का पत्रकार इसीलिए पत्रकार बनना चाहता है कि वो समाज में बदलाव चाहता है। गरीबों की आवाज़ उठाना चाहता है। कितनी बड़ी बात है। फिर ऐसा क्या हो जाता है कि नौकरी पाने के बाद कोई इस जुनून को साधता हुआ नज़र नहीं आता। यही प्रार्थना है कि इनका जुनून बचा रहे। यह कार्यक्रम शनिवार को आएगा। विद्रोही बुलंद पत्रकार को साधुवाद।

निर्देशों का शहर




दिल्ली के सरायकाले खां से जब आप आश्रम की तरफ जा रहे होते हैं तो डीएनडी आने से पहले बाईं तरफ़ ये होर्डिंग मिलेगी। बहुत दिनों से दिख रही थी। इसे देखकर मैं परेशान हो रहा था। इस तरह के निर्देश कैसे हो सकते हैं। पता चला कि वहां कोई मंदिर है जो कुछ बीमारियों को दूर करने का दावा करता है। लगता है कि यह बोर्ड अधूरा है। फिर भी अगर यह न मालूम हो कि यहां कोई औघड़ बाबा बैठे हैं तो अजीब लगता है। नींद में पेशाब करना। मत करना।