सड़े हुए सिस्टम से सारी उम्मीद हार जाएं और अंत में उसी सिस्टम से कोई उम्मीद निकल आए तो अच्छा लगता है। जेल देखते हुए भी यही लगा। धीमी परंतु अच्छी फिल्म है। धीमी इसलिए कि निर्देशक चाहता होगा कि आप धीरज रखें और किरदारों की व्यथा को समझें। उतना ही धीरज रखें जितना ये लोग न्याय की आस में अन्याय से जूझते हुए अपनी बेबसी को धीरज का दिलासा देते हैं। मधुर भंडारकर ने जेल के भीतर के यथार्थ को अपनी कूव्वत के अनुसार खींचने की कोशिश की है। मधुर का नायक पराग आज कल का लड़का है। जिसके पास अभिव्यक्ति नहीं है। वो खुद को कामयाबी के पलो, डिस्कों रातें और प्रेमिका की बाहों में आते हुए ही अभिव्यक्त कर पाता है। पराग दीक्षित के पास बड़े बड़े संवाद नहीं हैं। संवाद मनोज वाजपेयी के पास हैं। वो भी प्रकारांतर से आते हुए। होठ नहीं हिलते हैं। मनोज अपने चेहरे और आंखों से संवाद बोलते हैं और प्रकारांतर से संवाद आता है। ये पराग पर मेरे भरोसे की जीत थी। इस एक लाइन ने फिल्म के अंत में गुदगुदा दिया। इससे पहले तक का यथार्थ डरा रहा था,बेचैन कर रहा था और बीच सिनेमा से जाने को कह रहा था। बाहर नहीं गया और देखता चला गया।
हिंदुस्तान की जेलों की हालत बेहद अमानवीय है। इस पहलू को सामने लाने का काम पत्रकारों का था लेकिन मधुर भंडारकर ने प्रभावशाली तरीके से पूरा कर दिया। फिल्म की आखिर में लिख भी दिया कि इतने लोग अभी भी ट्रायल का इंतज़ार कर रहे हैं और बेकसूर हैं। पत्रकारों ने इस मुद्दे को आंकड़ों से तो उठाया लेकिन अपनी कथा को प्रभावशाली बनाने के लिए मानवीय पक्ष भूल गए। पत्रकारों के इस अधूरे काम को मधुर ने पूरा कर दिया। शुरू में मनोज का अभिनय कम लगा लेकिन आखिर की तरफ पहुंचते पहुंचते लगा कि मनोज वाजपेयी का किरदार कितना अहम था। एक ऐसा किरदार जो जेल के भीतर उम्मीदों को जगाने की कोशिश कर रहा था। एक ऐसे समय के रूप में खड़ा मिलता था जो देख रहा है कि यहां ऐसा ही होता है लेकिन जान रहा है कि कभी-कभी ऐसा नहीं भी होता है। जेल के भीतर की गंदगी, भीड़, बरसात में मुंबई की सड़कों से उठकर जेल के भीतर आ जाना। हर तरह की कहानियां। सबीना का किसी पुलिस अफसर का हो जाना और अपने पति को छोड़ देना। उसका पति खुद को खतम कर लेता है। सस्ती शायरी के ज़रिये आम लोगों की व्यथा को वृहत्तर कथा में बदलने वाला एक शायर का किरदार। मधुर ने खूब इस्तमाल किया है सड़क छाप सस्ते शेरों का। ग़ालिब का किरदार। जेल के भीतर रिश्ते बनते हैं, उनका इस्तमाल होता है और दगा भी दिया जाता है।
सुना है फिल्म नहीं चल रही। अब चलने के यथार्थ से जूझते हुए हम पत्रकार भी अचल होते जा रहे हैं। जेल की कहानी का यथार्थ मल्टीप्लेक्स के यथार्थ से दूर है। ये और बात है कि किरदार मल्टीप्लेक्स वाला ही है। ये फिल्म एकल सिनेमा में खूब चलेगी। आम लोगों का अनुभव जेल के करीब है। तारीख पर तारीख जैसे नाटकीय संवादों के बिना संवेदनशील होने का प्रयास करती है ये फिल्म। वकील लूट लेता है। जेल के भीतर अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग न्याय व्यवस्था है। जेलर की भूमिका भी अच्छी निभाई गई है। सब सिस्टम में फंस गए हैं। यह फिल्म बता रही है कि हमने जो आधुनिक सिस्टम बनाई है वो सड़ चुकी है। इस सिस्टम में अब बचा कुछ नहीं है। दारोगा से लेकर दादा तक सबकी चल रही है। लेकिन मधुर इसी सिस्टम में आस्था व्यक्त कर रहे हैं। अच्छा है। नाटकीय ख्वाब दिखाने से तो अच्छा है कि जो है उसी के साथ जीने का धीरज सीख लिया जाए। जेल चले या न चले लेकिन मधुर भंडारकर को अफसोस नहीं होना चाहिए। फिल्म और प्रभावशाली बन सकती थी। उसके यथार्थ और असहनीय हो सकते थे। जो भी हो सकता था वो कम होता उन लाखों लोगों की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए जो अपराध की सजा काटने के लिए अपराधी बन कर जीने को विवश है। जेल की जो नैतिक पहचान है वो यही कि यहां सजा का प्रायश्चित होता है। अपराधी इंसान बनता है। उस नैतिकता को बालीवुडीय अंदाज़ से अलग हट कर चोट पहुंचाने की कोशिश है। फिल्म का कैमरा वर्क काफी अच्छा है। लता का गाया भजन दाता सुन ले कहानी के संदर्भ में परेशान करता है। शांति कम बेचैन ज़्यादा करता है। अच्छा भजन है। फिल्म अच्छी है।
27 comments:
वैसे मैंने अभी तक फिल्म देखी नहीं है लेकिन मेरे ज्यादातर मित्रों को ये खास पसंद नहीं आई है। एक मित्र हैं जिन्होंने आप ही की तरह विचार व्यक्त किए हैं। बहरहाल मैं आपसे सहमत हूं कि फिल्म चले या न चले, मधुर भंडारकर को निराश नहीं होना चाहिए। वही एकमात्र शख्स हैं जो भारतीय फिल्मों को वास्तविकता के करीब बनाते हैं...
yah film ek khaas varg ke liye hi banayi gayi hain ise aam aadmi theek se samajh nahi paa raha hain shayad vaise kuchh bhi kahe yah film award to jitne laayak hai hi
jee..... haan....yeh film maine 18 saal pehle dekhi thi...BEHIND THE BARS....
achchci thi....
desi version ka nahi pata.......
फिलहाल, अभी जेल देखी नहीं है जब देख लेंगे तब बता देंगे।
मधुर भण्डारकर कैसी भी फ़िल्म बनायें… वह समाज और देश में फ़ैले सड़ांध मारते मवाद को दर्शाने वाली बेहतरीन फ़िल्म होती है… हो सकता है जेल फ़िल्म धीमी हो, फ़ैशन फ़िल्म भी ऐसी ही थी। मधुर अब हिट या फ़्लाप की दौड़ से आगे निकल चुके हैं… वे ऐसी ही सच्चाईपरक फ़िल्में बनाते रहें यही सदिच्छा है…
सुरेश जी से सहमत.
अभी तक देखी नहीं है पर इस सब्जेक्ट पर पहली बार किसी भारतीय ने फिल्म बनायीं है ...होलीवुड में इस सब्जेक्ट पर बहुत फिल्मे बनी है सार्थक भी .....अभी कल ही वर्ल्ड मूवी पर ऐसी ही एक फिल्म आ रही थी .मधुर ,अनुराग कश्यप .नीरज ,इम्तियाज़ जैसे लोगो को चलने न चलने जैसी फ़िक्र नहीं करनी चाहिये .उनका अपना एक दर्शक वर्ग है ...ओर आने वाले हिंदी सिनेमा में वे एक महत्वपूर्ण स्थान रखते है ....जब बवंडर जैसी सार्थक फिल्मे जो नारी विषयक सब्जेक्ट को अच्छी तरह से उठाती है खुद कोई भी फिल्म वाला उसे किसी पुरूस्कार श्रेणी में नहीं रखता तो आप यहाँ क्या उम्मीद करगे .लोग ब्लेक पर अमिताभ ओर रानी की वाह वाह करते है जो अंग्रेजी फिल्म से उठाई गयी कथा है ओर नसीर द्वारा अभिनीत "स्पर्श " भूल जाते है ....
आपके रिव्यु से लग रहा है कि ये भी मधुर कि बाकि फिल्मों की तरह खास होगी...
मै अपने विचार रखूं तो फिल्म देखकर दुख हुआ. दुख इस बात पर हुआ कि जेल में जिस तरह से केस कि निर्णय और तरीखों का दौर चलता है उसे देखकर लगता है कि जैसे हमारे यहां कानून मतलब बेगुनाहों को सज़ा, और जेल मतलब अच्छे लोगों का जमावाड़ा, लेकिन क्या करें आज के परिपेक्ष्य में सही है कि बेगुनाह आदमी ही जेल की हवा खाने जाता है और जब तक वो बेगुनाह साबित होता है तब तो उससे ज्यादा दिनों कि जेल वो काट चुका होता है। बिलकुल सही दिखाया है मधुर ने, मुझे तो वो सीन सबसे सही लगा कि जज ने कलैंडर और आदमी की शक्ल देखकर अगली डेट दी थी बिना सुनवाई किये
kisi ndtv numa channel ki khabar jaisi hai film,...so film ka chalna ya na chalna,flop ya hit hona be-mayni hai,...film vahi jo sach dikhaye,(beshak glamorous style mein),aur sach hit ya flop nahi hota......
सुबोध! क्या बात कही है आपने :)
aap Raj thakery ke bare ke kya sochete hai.Please aapne vichar vyaqt kare.............
aap Raj thakery ke bare ke kya sochete hai.Please aapne vichar vyaqt kare.............
aap raj thakery ke bare me kya sochete hai.........
अभी देखी नहीं है. लेकिन सच्चाई को प्रदर्शित करने वाली फिल्म मासिज के लिए नहीं, क्लासिज के लिए होती है.
आज के ज़माने को सच्चाई दिखाना भी अति आवश्यक है.
जेल एक बेहतरीन फिल्म है....रवीशजी ..यकीनन..
Film bahut hi achchhi nahin to bahut buri bhi nahin aur jaisa aap kah rahe hain ki thodi aur behtar ho sakti thi.. to mere khyaal se aajtak aisi koi film nahin bani jise dekhkar ye baat na dohrai ja sake.. kam se kam main apne nazariye se dekhta hoon to andar ka kalaakar isme kamiyan nikal kar behtar banane ka dawa karta hai... Neel Nitin Mukesh ne jaroor kai jagah overacting ki.. kai scene me to jis tarah ke expression nahin aane chahiye the wo aaye..
Manoj Ji to vaise hi manjhe hue kalakar hain unki tareef koi nai baat nahin.. haan mere khyaal se jo side hero suicide kar leta hai wo Neel se kahin behtar actor hai...
Jai Hind...
जेल की कहानी का यथार्थ मल्टीप्लेक्स के यथार्थ से दूर है। ये और बात है कि किरदार मल्टीप्लेक्स वाला ही है। ये फिल्म एकल सिनेमा में खूब चलेगी। आम लोगों का अनुभव जेल के करीब है।
यही बात सच है। मल्टीप्लेक्स के गलबहियां करने वाले दर्शक को अजब प्रेम...समझ आती है जेल नहीं। किसी से तहसील तक नहीं जाया जाता कि स्थायी निवास प्रमाण पत्र बनवा लाएं। एआरटीओ दफ्तर नहीं जा सकते कि डीएल रीन्यू करा लें। बारहवें दर्ज़े में पढ़ रहे बच्चे जानते तक नहीं, कि कचहरी और जजी क्या होते हैं। अंग्रेजी में भी पूछकर देखी उन्हें नहीं पता। ज्यादातर को ये भी नहीं पता शिक्षक दिवस क्यों मनाया जाता है। क्या समझेंगे जेल का यथार्थ
फिल्मो के सफल या असफल होने का हमारे यहाँ कोई मापदण्ड नही है ।
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वैसे तो मुझे पता है कि ९९.५% मैं यह पिक्चर नहीं देखूंगा इसलिए - इस विषय पर कि कोई पिक्चर फ्लॉप होगी या नहीं - टिप्पणी कि आवश्यकता मेरी ओर से नहीं है, क्यूंकि यह शायद 'ज्योतिषी' (बेल्मुंड?) ही कुछ कह सकें यदि रवीश जी, या कोई और, उनसे पूछें तो - और हो सकता है मधुर भण्डारकर की जन्म-तिथि आदि उन्हें चाहिए होगी ...जहां तक 'सच' जानना है तो प्राचीन ज्ञानी कह गए की दूध में कितनी क्रीम है जानना हो तो उसकी एक बूँद ही काफी है, उसे दर्शाने के लिए पूरा दूध लैब में नहीं लाना होगा :) और इसी प्रकार के 'सत्य' की शायद डॉक्टर दराल भी पुष्टि करें...और शायद मीडिया भी करे कि नित्य प्रति समाचार पत्र/ टीवी भी आज केवल 'काली करतूतों' को ही 'ब्रेकिंग न्यूज़' में दिखाते दिखाते नहीं थकते...और यह भी सबको मालूम होगा कि आज तक कोई भी प्रशासनिक सिस्टम फूल-प्रूफ नहीं पाया गया है !
प्राचीन हिन्दू इसे काल का प्रभाव कह गए क्यूंकि, उनके अनुसार, समय सतयुग से कलियुग क़ी तरफ नदी के पानी क़ी तरह नीचे क़ी ओर निरंतर बहता रहता है, और पानी क़ी ही तरह समुद्र से फिर से उठ, बादल बन - (पार्वती, शैलपुत्री, के पिता) हिमालय द्वारा रोक देने के कारण - फिर से बरस दुबारा समुद्र क़ी ओर बह निकलता है, जिससे मानव जीवन तो चलता ही है, साथ-साथ किसी निराकार शक्ति क़ी उपस्तिथि का आभास भी हुवा प्राचीन हिन्दुओं को/ और हो सकता है आज के मानव को भी :) जो 'जय माता दी' ऐसे ही नहीं कहे उठे !
रामगढ़। शहर के चर्चित होटल में हुए पटना की युवती के साथ गैंग रेप के मुख्य आरोपी होटल ब्यू एंड विजन के संचालक गोरंग राय के पुत्र गोविंदा राय व उसका खास मित्र अशोक ठाकुर ने शुक्रवार की देर शाम मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी की अदालत में आत्मसमर्पण कर दिया है। रामगढ़ पुलिस के भारी दबाव के बाद दोनों दुष्कर्मियों ने नाटकीय ढंग से देर शाम दंडाधिकारी की अदालत में आत्मसमर्पण कर दिया। पुलिस को भी सूचना पहले से मिल गई थी कि दोनों कुकर्मी आज आत्मसमर्पण करने वाले हैं। जिसके बाद से पुलिस वहां सुबह से ही सादे लिबास में तैनात थी। लेकिन देर शाम को दोनों आरोपियों ने पुलिस को चकमा देकर न्यायालय में आत्मसमर्पण कर दिया। इधर रामगढ़ एसपी अनूप टी मैथ्यू ने पूछे जाने पर बताया कि दोनों आरोपियों की गिरफ्तारी के लिए पुलिस ने दबाव बना रखा था। जिसके बाद ही दोनों ने न्यायालय में आत्मसमर्पण कर दिया। पुलिस दोनों को जल्द रिमांड पर लेगी। इधर रामगढ़ पुलिस ने शहर के एक युवक गौरी अग्रवाल को भी पूछताछ के लिए हिरासत में ले लिया है। उल्लेखनीय है कि शहर के सुभाष चौक स्थित होटल व्यू एंड विजन में पटना की छात्रा खुशबू के साथ होटल संचालक के पुत्र, उसके दोस्तों व कर्मचारी ने गैंग रेप किया था। दुष्कर्मियों को घिनौनी करतूत को अंजाम देने के बाद छात्रा के पिता तुल्य चाचा से चालीस हजार रुपए भी छीन लिए थे। वहीं जबरन एक्सिस बैंक के एटीएम से तीन हजार रुपए निकलवाया था। हालांकि घटना के बाद जहां पुलिस ने होटल कर्मचारी की निशानदेही पर कई लोगों को गिरफ्तार किया था। होटल में हुई इस घिनौनी करतूत से शहर के लोग भी स्तब्ध है।
jai ho bhumiharo ki or phir bhi laloo ko gali dete hai.
मधुर भंडारकर को शुभकामनाएं.. आपके रिव्यू के बाद फिल्म ज़रू देखूंगा... लेकिन बड़े परदे पर इस फिल्म को अजब प्यार की गजब कहनी से कड़ी ॉक्कर मिल रही है...
2012 ke baare me aapki ky rai hai??
Movie is good but Madhur is expected to make it better............
He is failed to touch the level of 'Page 3' and 'Chandni Bar'
मधुर की 'जेल'तकनीकी रूप से अच्छी है, पर कुल मिलाकर औसत ही है...मधुर से इससे कहीं ज़्यादा उम्मीदें थी....मधुर की कहानी तीन मिनट के न्यूज पैकेज में सिमट सकती है....
अच्छी रचना। बधाई।
Bahut dukh hai mujhe is baat ka ki yeh film flop ho gai hai...Ham apna kharcha bhi nahi nikaal paye....
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