अखिल भारतीय सोशल कांग्रेस कमेटी


क्या सोशल मीडिया नए विपक्ष के रूप में देखा जाने लगा है? राजनीतिक प्रबंधन में सोशल मीडिया क्यों महत्वपूर्ण होने लगा है? इस पर बन रहे जनमत से हमेशा कांग्रेस ही क्यों दबाव में आती दिख रही है? नीतीश,अखिलेश,नवीन पटनायक,करुणानिधि,ममता बनर्जी या राज ठाकरे की राजनीति के लिए क्यों महत्वपूर्ण नहीं है। सिर्फ कांग्रेस या बीजेपी के हिसाब से ही क्यों सोशल मीडिया के मैदान में घमासान के नतीजे का मूल्यांकन किया जाता है। क्यों कांग्रेस को ही जयपुर के चिंतन शिविर में सोशल मीडिया के प्रभाव और इस्तमाल जैसे मुद्दे पर चिंतन करना पड़ रहा है? देश में कंप्यूटर लाने का श्रेय लेने वाली कांग्रेस आज इंटरनेट पर पसरे सोशल मीडिया के तंत्र को लेकर कभी भयभीत तो कभी दंभी तो कभी अजनबी क्यों नज़र आती है? क्या सचमुच कांग्रेस सोशल मीडिया को एक नए लोकक्षेत्र के रूप में देखना चाहती है? लेकिन क्या सोशल मीडिया पर कोई जनभावना ही नहीं है जिसे कोई भी राजनीतिक दल नकार दे। कोई नकारे भी न तो अरबों लोगों में फैले फेसबुक और ट्विटर अकांउट का पीछा कोई राजनीतिक दल कैसे कर सकता है। पीछा का मतलब नियंत्रण से नहीं है। पीछा का मतलब वहां मौजूद जनभावनाओं को राजनीतिक रूप से समझने में हैं।

एक मिनट के लिए मान लीजिए कि सोशल मीडिया न होता तो बाकी जनता से संवाद करने का मौजूदा तरीका सही है? क्या कांग्रेस शहरी मतदाताओं की उन आकांक्षाओं को सही समय पर समझ पा रही है जिसकी नाकामी की ज़िम्मेदारी वो सोशल मीडियो को ना समझ पाने की अपनी चूक पर डाल रही है। अन्ना आंदोलन हो या दिल्ली गैंगरेप के बाद रायसीना हिल्स पर पहुंचे लोगों का हुजूम ये सब सिर्फ सोशल मीडिया की पैदाइश नहीं हैं। इसके अपने राजनीतिक आर्थिक कारण भी हैं। इससे पहले मुंबई हमले के बाद लाखों लोगों की रैली हुई थी तब सोशल मीडिया नहीं था। आज भी देश में कई राजनीतिक रैलियां और लड़ाइयां बिना सोशल मीडिया के हो रहे हैं। तमिलनाडु के परमाणु संयंत्र का मामला हो या फिर फिर पिछले अक्तूबर में ग्वालियर से दिल्ली आ रहे किसानों का सत्याग्रह मार्च हो। इन आंदोलनों में भी जनभावना है लेकिन उसे सोशल मीडिया व्यक्त कर रहा है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस के नेता संवाद करने के पुराने ढर्रे पर ही चल रहे हैं। इसीलिए मीडिया पर मंत्रियों का बना एक औपचारिक समूह ही सबसे उपयुक्त और भारीभरकम मान लिया गया है। अब पार्टी को समझना चाहिए कि औपचारिक प्रेस कांफ्रेंस से ही एजेंडा तय नहीं होता। इसमें शामिल मंत्रियों को अनौपचारिक रूप से भी जनता से सीधे संवाद करना चाहिए। यह वो जनता है जो अपनी ताकत से न्यूज चैनलों के न्यूजरूम को ध्वस्त कर चुकी है। आज संपादक अपनी खबर को ट्विटर और फेसबुक पर चल रहे जनउभार के हिसाब से मोड़ने लगे हैं। जब गैंगरेप मामले में जन आंदोलन उभार पर था तभी सचिन तेंदुलकर के संयास लेने की खबर आ गई। तब सोशल मीडिया पर हंगामा मच गया कि सरकार की तरफ से ये योजना होगी ताकि न्यूज़ चैनल गैंगरेप की स्टोरी को छोड़ सचिन की महानता के गुन गाने लगे। संपादकों को ट्विटर पर जाकर कहना पड़ा कि हम सचिन की स्टोरी की कीमत पर गैंगरेप की स्टोरी नहीं छोड़ेंगे। अब यह पत्रकारिता के लिए भी मसला है कि सोशल मीडिया की भीड़ इसी तरह ऐसे किसी मुद्दे पर दनदनाती हुई उसके न्यूजरूम में घुसकर मांग करने लगे जो खतरनाक हो तब वो कैसे खड़ी होगी। पूरी तरह से नकारेगी या कोई रास्ता निकाल कर उसे आवाज़ देगी। अभी इसका इम्तहान नहीं हुआ मगर होना बाकी है।

सोशल मीडिया राजनीतिक रूप से एक ऐसा मैदान है जहां किरदारों और मुद्दों की विविधता है। यह वो लोग हैं जो सरकार से बेहतर प्रदर्शन, पारदर्शिता और संवाद की उम्मीद करते हैं। यह वो लोग हैं जो अब नहीं समझना चाहते हैं कि एक योजना को पूरी तरह से लागू होने में कितने साल लगेंगे। ये हाई स्कूल में नब्बे फीसदी लाकर अच्छा कालेज नहीं पाते हैं तो आप इन्हें नहीं समझा सकते कि सरकार पांच फीसदी के ग्रोथ रेट पर चलती हुई महान कहला सकती है। मध्यमवर्ग की एक बड़ी आबादी अपनी मेहनत का खाती है। उसकी कमाई में सैलरी का हिस्सा है रिश्वत का नहीं। ये टैक्स देती है। बदले में बेहतर काम मांगती है। जब सिस्टम काम करेगा तो जनता से अपने आप संवाद होता रहेगा। जब सिस्टम काम नहीं करेगा तो सारे मंत्रियों के ट्विटर पर अकाउंट खोलने से सोशल मीडिय नहीं साधा जा सकता। आखिर प्रधानमंत्री के ट्विटर पर आ जाने से सोशल मीडिया में मौजूद उनकी छवि में कोई बदलाव आया? नहीं।

कांग्रेस के लिए जो राजनीतिक रूप से समझने वाली बात है वो ये कि बेहतर काम का प्रदर्शन और फिर तरीके से संवाद। उसे इस संकोच से निकलना होगा कि सरकार सिर्फ औपचारिक ज़बान में ही बात करती है। वो दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं के ज़रिये समानांतर संवाद का मंच तैयार कर नतीजा नहीं पा सकती। उसे समझना होगा कि सोशल मीडिया पर प्रबंधन की ज़रूरत नहीं है। वहां भी उसके लिए राजनीति का पुराना मैदान ही है। कांग्रेस सोशल मीडिया पर संगठित रूप से हावी दक्षिणपंथियों के मुकाबले कमज़ोर है। जिसे आप हिन्दू इंटरनेट कह लें या अलग अलग समूह में बंटे किसी नाम से पुकार लें। यह वो तबका है जो उन कमज़ोर नब्ज़ों पर मीडिया की गर्दन भी दबोच लेता है जिस पर मीडिया और सरकार दोनों चुप्प रह कर निकल जाना चाहते हैं। हैदराबाद में अकबरूद्दीन ओवैसी का मामला देखिये। कांग्रेस ने अपनी तरफ से क्यों नहीं ओवैसी के बयान को खतरनाक बताते ही कार्रवाई की बात की। वो क्यों सोशल मीडिया से होते हुए मीडिया के माइक के आने का इंतज़ार करती रही। गिरफ्तारी के बाद सोशल मीडिया का यह सांप्रदायिक और दक्षिणपंथी गुट गायब हो गया। राजठाकरे और वरुण गांधी के सवालों पर चुप्पी मार गया। लेकिन इस सवाल को उठाने वाले कई तटस्थ लोग भी थे जो सही सवाल कर रहे थे कि कोई ऐसे कैसे बोल सकता है। क्या कांग्रेस उनकी भी चिंता कर रही थी।
कांग्रेस की वेबसाइट देखिये। कांग्रेस के नेताओं के कालम में गया तो सोनिया गांधी का ही चार साल पुराना भाषण पड़ा था। पार्टी की वेबसाइट नीरस और सरकारी नहीं हो सकती। वहां संवाद का क्या जरिया है। कांग्रेस के नेता टीवी की बहसों से गायब हैं। उसे समझना होगा कि टीवी की बहस भी सोशल मीडिया का ही विस्तार है। वहां जाने की कोई तैयारी नहीं है। बीजेपी के नेता तैयार होकर आते हैं तो इसमें सोशल मीडिया की क्या गलती है। कांग्रेस के बड़े मंत्री हिन्दी स्टुडियो से दूरी रखते हैं। यह भी पता होना चाहिए कि इस देश का मध्यमवर्ग अब दुभाषिया है। वो काम अंग्रेजी में करता है लेकिन संवाद हिन्दी में। वर्ना अंग्रेजी के चैनलों के दर्शकों की संख्या कुछ हज़ार में नहीं होती। इसके बाद भी कोई दल सोशल मीडिया को हौव्वा न बनाए। इसकी अपनी राजनीति भी कई मायनों में ताकतवर है तो संदिग्घ भी है।

(यह लेख आज के राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है)

विशाल का मंडोला: उदारीकरण का उड़नखटोला

कुछ फिल्में होती हैं जो साधारण सी लगने के बाद भी अपने चंद दृश्यों से असाधारण बन जाती हैं। मटरू की बिजली का मंडोला एक ऐसी फिल्म है जिसे हम उदारीकरण की आलोचना के साहसिक फ्रेम से बाहर निकल कर भी देख सकते हैं। तब जब एक फिल्मकार अपने कैमरे से उन दृश्यों को रच देता है जो हमारे अंतर्विरोधों को सहलाने लगते हैं। पंकज कपूर का किरदार जब शबाना आज़मी के साथ अपने सपने को बयां करने लगता है तब विशाल भारद्वाज का सिनेमा सचमुच कलात्मक अभिव्यक्ति की ऊंचाई को स्पर्श करने लगता है। मंडोला अपने ख्वाब का एक ऐसा संसार रचने लगता है जिसे सिनेमा के आम दर्शक की मनोवृत्ति से आप स्वीकार नहीं कर पाते। कई लोगों को उस प्रसंग पर सिनेमा हाल में भकुआए यानी भौंचक्क देखा। जब पंकज कपूर अपने सपने को बयां कर रहे होते हैं औऱ पर्दे पर दैत्याकार मशीने चलने लगती हैं, बड़ी बड़ी चिमनियों से धुआं फैलकर आसमान में छाने लगता है। विशालकाय क्रेन घूमने लगती हैं। खेती की ज़मीन बड़े बड़े गड्ढे में बदल जाती है जिसे विशालकाय इमारतों की बुनियाद से भरा जा रहा है। विशाल अपने बादलों को कथार्सिस के रूप से में रच देते हैं। वो सामान्य बादल नहीं हैं। शबाना को मंडोला के सपने में झूम जाना और फिर बादलों का बरसना। एक दर्शक के रूप में जैसे ही मंडोला के सपने में खो कर सहमने का मन करता है, बादल बरस जाते हैं और रोने कोई और लगता है। दरअसल किसान के पास सपने भी नहीं हैं। वही बादल जो बरस कर उसकी फसलों को लहलहा देते हैं,दूसरी बार बरस कर इस तरह से बर्बाद कर देते हैं कि उसका माओ के नेतृत्व से भरोसा ही उठ जाता है। तब लगता है कि मंडोला ठीक ही इस सपने की शुरूआत कुछ इस तरह से करता है कि जब भी मैं इन बदसूरत खेतों में बदमस्त फसलों को लहलहाते देखता हूं.....


फिल्म ऊब भी पैदा करती है। यूएफओ वाली ऊब। लेकिन बिना FARCE  और BIZZAR प्रसंगों के इस विषय को कैसे डील किया जा सकता था। विशाल शायद वही कर रहे हैं। भूमि अधिग्रहण की समस्या को मीडिया जिस तरह से देखता है एक फिल्मकार उसके विद्रूप को पेश करने के लिए और क्या कर सकता था। रिपोर्टर पल्प टेलीविजन का लिलपोर्टर लगता है। वो एक हवाई दुर्घटना को यूएफओ समझाने लगता है। मैं कई बार सोचता रहा कि विशाल भारद्वाज जैसा प्रतिभाशाली निर्देशक क्या सोच रहा होगा, इस कमज़ोर से लगने वाले दृश्य को रचने के लिए । शायद विशाल ऐसे प्रसंगों और विकास में मीडिया के अंधविश्वास को दिखाने के लिए मौजूद सभी फ्रेम से बाहर निकल जाना चाहते थे । बार बार लगा कि रात में हवाई जहाज़ उड़ाने का प्रसंग किसी घटिया लाफ्टर चैलेंज का लतीफा है जिसे देखते हाल से बाहर जाने की बेचैनी होने लगती है मगर जिस तरह से हम विकास को लेकर सोचने लगे हैं उसमें यूएफओ वाला भाव तो है ही। वर्ना दूसरा भाव है जो आलोचना तो करता है मगर विकल्प नहीं दे पाता।


यह दूसरा भाव है जब भैंसे माओ माओ बोलने लगती हैं। यहां विशाल भारद्वाज सिर्फ उदारीकरण के आलोचक की भूमिका से निकल कर इसकी आलोचना की कापीराइट रखने वाले कम्युनिस्ट आंदोलनों की नाकामी को भी रच देते हैं। उनके पास जो समझ है उसके फ्रेम में माओ किसी दूत से कम नहीं है। वो एक रहस्यमयी दूत है जो आकाशवाणी से उतरता है और अपने फरमानों के साथ पेड़ पर लहरा रहा होता है। माओ अपनी बात किसी और से बुलवा रहा है। मधुमक्खी वाले प्रसंग को दोबारा से देखिये। मटरू लाल रूमाल में चेहरा छुपाए हैं और नसीबन बोल रही है। मटरू जो भी बोलता है नसीबन दोहराने लगती है। क्या हमारे कम्युनिस्ट नसीबन हैं? क्या उनकी उपलब्धि और गंभीरता नसीबन की हैरानी वाले भाव से कुछ ज्यादा नहीं कि चल इस टोली में शामिल होते हैं और देखते हैं कि अब क्या होगा। लेकिन एक बारिश और गेंहूं की बर्बादी से माओ का भूत उतर जाता है। जेएनयू में बीड़ी पीने का संस्मरण और कम्युनिस्ट होने का ख्याल शक्ति भोग के दफ्तर के भीतर एक्टिविज्म के तमाम अनुभवों पर सवाल करता है। विशाल के पास कोई जवाब नहीं है इसलिए वो हर सवाल को हास्य प्रसंग में बदल देते हैं। हंसो और देखो की ये हमारी समस्या है और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं।


तभी वो मंडोला के भीतर ही कम्युनिस्ट ढूंढने की संभावना को तलाशने लगते हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि कभी उद्योगपति ही कम्युनिस्ट जैसा हो जाए। वो किस स्थिति में ऐसा हो सकता है और होगा भी तो कैसा लगेगा, इस पहलु के बारे में विशाल ने ज़रूर सोचा होगा तभी गुलाबो की कल्पना साकार होती है। नशे में ही कोई उद्योगपति कम्युनिस्ट ख्याल का हो सकता है, होश आते ही वो सपना देखने लगता है। माल का सपना, बड़ी इमारतों और फैक्ट्रियों का सपना। भैंस का गुलाबी होना उस ख्वाब के गुलाबी होने जैसा है जो कभी हकीकत में होगा नहीं। सेज़ स्पेशल इकोनोमिक ज़ोन की कथा और उत्तर कथा को विशाल हर तरह के फ्रेम से बाहर निकाल कर एक हवेली की बालकनी में पटक देना चाहते हैं। मंडोला की बिजली और अफ्रीका से लाए गए गुलाम। कई बार लगेगा कि इनका क्या रोल है। पर विकास के नाम पर जिस तरह अनाप शनाप आइडिया लाये जा रहे हैं जिनका हमारी हकीकत से कोई लेना देना नहीं है,उसे पेश करने के लिए एक अच्छी तरीका था। दर्शकों को पसंद आया कि नहीं यह अलग मसला है।

हर किरदार अपनी स्थिति में फंसा हुआ है। शराब ही है जो हर किरदार को फंसी हुई स्थिति से निकालती है। हमारे गांव और किसान भी फंसे हुए हैं जो कभी निकल नहीं पाते हैं। अपनी ज़मीन हार ही जाते हैं। तब शायद शेक्सपीयर बचाव में आते हैं। मार्क्स नहीं। शायद वो मेरठ का स्वीमिंग पुल है। अगर है तो उसे मैंने भी शूट किया है । फिर भी उस स्वीमिंग पुल के भीतर मटरू और बिजली के बीच जो कुछ भी होता है, वो आर्तनाद है। अंतर्मन की चित्कार। हमारा प्रेम भी आर्थिक नीतियों के बीच घट रहा है और फंसा हुआ है। इसीलिए फिल्म ऊब पैदा करती होगी। क्योंकि कहानी सीधे सपाट फ्रेम वर्क की नहीं है। हीरो है जो हीरो की तरह नहीं है। तभी तो मंडोला बार बार कहता है मैं जैसा दिखता हूं वैसे हूं नहीं। इसमें कोई हीरो नहीं, कोई खलनायक नहीं है।
हां जब रात को किसान गोबर बम बनाकर हमला करते हैं तब वो सीन जीत के भाव से भर देती है। विशाल अंत अंत तक उनकी एकता पर ही भरोसा करते हैं। वो एक होकर अपनी जमीन हार जाते हैं और वो एक होकर अपनी ज़मीन जीत भी लेते हैं। गोबर बम से हमले का दृश्य वो क्रिटिक है जिसे मुख्य धारा की मीडिया भी पेश नहीं कर पाई। दरअसल मुख्यधारा की मीडिया ने कभी उदारीकरण पर इस तरह से सवाल ही नहीं किया है। सिनेमा कर रहा है जिसे आप शंघाई में भी देख सकते हैं और जिसे आप कई अन्य फिल्मों में भी देख सकते हैं।


यह फिल्म भी राजनीतिक है। वर्ना शबाना आज़मी यह न कहती कि मेरे सपनों का लोकपाल। क्या दृश्य और संवाद अनायास आया? दिल्ली में तुम्हारी गर्लफ्रैंड है, बिजली के इस सवाल पर मटरू का जवाब अनायास आ गया कि शीला दीक्षित है, मैंने शेक्सपीयर को पढ़ा ही नहीं तो मालूम नहीं कि उनकी कथाओं का क्या योगदान है और कैसे उन कथाओं का फिल्म में रूपांतरण किया गया है पर जब मंडोला नेता जनता जनता नेता,नेता जनता, जनता जनता, नेता नेता का खेल खेलने लगते हैं तो दहाड़ मार कर रोने का मन करता है। शबाना का वो संवाद याद आ जाता है कि देश की प्रगति की बात करो। अपनी बात मत करो। जबकि देश की प्रगति शबाना और मंडोला के क्रूर सपनों के बीच कहीं फंसी हुई है। जिससे कभी नेता खेलता है तो कभी नेता के साथ जनता खेलती है। इसीलिए मटरू की बिजली का मंडोला साधारण होते हुए भी असाधारण फिल्म है। मुझे लगी जिन्हें बकवास लगी वो अभी नेता जनता जनता नेता खेल रहे हैं, उनके इरादे का सम्मान किया जाना चाहिए और एक फिल्मकार को यह छूट देनी चाहिए कि वो हर आलोचना को पहले से तय विचारधारा के पैमानों से नहीं दर्शाएगा, बल्कि उसे नई ज़मीन खोजने की तड़प में ड्राई डे के दिन लिमोज़िने से दारू के ठेके को धक्का मारना ही होगा। तभी वो शराब और बैंड बाजे के साथ उन फ्रेम या सांचे से मुक्त होने का जश्न मना सकेगा जिसमें हम सब कैद हैं। जिन लोगों ने मटरू की बिजली का मंडोला नहीं देखा या नहीं झेला उनका शुक्रिया। विशाल भारद्वाज की यह सबसे अच्छी फिल्म है।

पल्प फिक्शन से पल्प टेलीविज़न तक

न्यूज़ चैनल अपने आस पास के माध्यमों के दबाव में काम करने वाले माध्यम के रूप में नज़र आने लगे हैं। इनका अपना कोई चरित्र नहीं रहा है। गैंग रेप मामले में ही न्यूज़ चैनलों में अभियान का भाव तब आया जब अठारह दिसंबर की सुबह अखबारों में इस खबर को प्रमुखता से छापा गया। उसके पहले हिन्दी चैनलों में यह खबर प्रमुखता से थी मगर अभियान के शक्ल में नहीं। यह ज़रूर है कि एक चैनल ने सत्रह की रात अपनी सारी महिला पत्रकारों को रात वाली सड़क पर भेज दिया कि वे सुरक्षित महसूस करती हैं या नहीं लेकिन इस बार टीवी को आंदोलित करने में प्रिंट की भूमिका को भी देखा जाना चाहिए। उसके बाद या उसके साथ साथ सोशल मीडिया आ गया और फिर सोशल मीडिया से सारी बातें घूम कर टीवी में पहुंचने लगीं। एक सर्किल बन गया बल्कि आज कल ऐसे मुद्दों पर इस तरह का सर्किल जल्दी बन जाता है। कुछ अखबार हैं जो बचे हुए हैं पर ज्यादातर अखबार भी सोशल से लेकर वोकल मीडिया की भूमिका में आने लगे हैं। टीवी के कई संपादक सोशल मीडिया के दबाव को स्वीकार करते हुए मिल जायेंगे। जैसे ही सचिन तेंदुलकर ने रिटायरमेंट की घोषणा की वैसे ही एक बड़े संपादक ने ट्विट किया कि गैंगरेप की खबरें पहले चलेंगी और सचिन की बाद में। इसी क्रम में इसी सोशल मीडिया पर मौजूद दक्षिणपंथी टीवी की आलोचना करने लगे कि ओवैसी की खबर सिकुलर मीडिया जानबूझ कर नहीं दिखा रहा है। चौबीस दिसंबर का भाषण अभी तक नहीं दिखाया जबकि सबको मालूम है कि उस दिन टीवी दिल्ली गैंगरेप के मामले में डूबा हुआ था लेकिन दक्षिणपंथी सोशल मीडिया के दबाव में कई चैनल जल्दी आ गए और गैंगरेप की ख़बरें छोड़ ओवैसी के पीछे पड़ गए। वैसे यह खबर भी कम महत्वपूर्ण नहीं थी, चर्चा करनी ही चाहिए थी लेकिन तब सिर्फ यही खबर क्यों। सचिन तेंदुलकर वाली खबर क्यों नहीं। वो किस मामले में कम महत्वपूर्ण था। अलग अलग सामाजिक समूहों के दबाव में टेलीविज़न दायें बायें होने लगा है। इसी बहाने कुछ मुद्दे पर सरकार को भी चेतना पड़ा। ज़ाहिर है टेलीविजन का इकलौता प्रभुत्व और प्रभाव खत्म हो गया है। ख़ैर।


गैंगरेप मामले मे रिपोर्टिंग कैसी हुई इस पर आने से पहले कुछ बात कहना चाहता हूं। जैसे पल्प फिक्शन होता है वैसे ही पल्प टेलीविजन होता है। भारत में ये पल्प टेलीविज़न का दौर है। पहले आप यह बात हिन्दी न्यूज़ चैनलों के बारे में यह बात कह सकते थे लेकिन अब इंग्लिश चैनल भी यही हो गए हैं। भाषा,प्रस्तुति और प्रोग्राम के मामले में हिन्दी इंगलिस चैनलों का अंतर पहले से कहीं ज्यादा कम हो गया है। हिन्दी और इंग्लिश चैनलों पर ज़्यादतर बहसिया फार्मेट के ही कार्यक्रम चल रहे हैं। पल्प को हिन्दी में लुग्दी कहते हैं । बहुत लोग मुझसे पूछते हैं कि आप चैनल को लैनल क्यों कहते हैं तो मैं लुग्दी से लैनल बनाकर लैनल बोलता हूं। इसका मतलब यह नहीं कि जो पल्प है वो खराब ही है या उसकी लोकप्रियता कम है। बस उसके पेश करने की शैली का मूल्यांकन या विश्लेषण मीडिया के पारंपरिक मानकों से नहीं किया जा सकता । चैनलों की भाषा,संगीत और तस्वीर पर बालीवुड की भाषा और बहुत हद तक हिन्दी डिपार्टमेंट की दी हुई ललित निबंधीय हिन्दी का बहुत प्रभाव है मगर लुग्दी टच होने के कारण मैं चैनलों की हिन्दी को लिन्दी बोलता हूं। तो लिन्दी लैनल और इंग्लिश वाले इन्दी लैनल। क्योंकि अब इंग्लिश बोलने का टोन भी हिन्दी जैसा हो गया है। इसका मतलब यह नहीं कि टीवी पर अच्छी पत्रकारिता नहीं होती है, वो भी होती है और वो कभी कभी पल्प टेलिविजन के दायरे में भी होती है। गैंग रेप मामले में भी बहुत कुछ अच्छा भी हो गया। अंदाज़ी टक्कर में। शैलियों पर बालीवुड और हिन्दी डिपार्टमेंट की हिन्दी के अलावा एक और प्रभाव है टीवी पर । वो है मेरठ माइंडसेट का। हर कहानी को रहस्य और रोमांच में लपेट कर मनोहरकथा की तरह पेश करना। जैसे जाग गया देश, मां कसम बदलेगा हिन्दुस्तान, चीख नहीं जाएगी बेकार, मैं लड़की हूं। इस तरह के शीर्षक और वायस ओवर आपको सुनाई देंगे। सिर्फ गैंग रेप ही नहीं ऐसे किसी भी मामले में जिसे लेकर सोशल मीडिया से भरम फैलता है कि पब्लिक यही सोचती है तो उसकी सोच में बड़े पैमाने पर गाजे बाजे के साथ घुस चला जाए। लैनलों में जो संगीत का इस्तमाल होता है उसका अलग से अध्ययन किया जाना चाहिए। इसका ज्ञान मुझे कम है। सरसरी तौर पर लगता है कि रेप और डार्क सीन या रेघाने वाली आ आ की ध्वनियों का असर दिखता है। अब यह अलग सवाल है कि इसे व्यक्त करने का दूसरा बेहतर फार्मेट क्या हो सकता था, तो जो नहीं है और जो नहीं हुआ उस पर क्यों बात करें, जो हो रहा है उसकी कमेंटरी तो कर ही सकते हैं।

लैनलों ने जो अभिव्यक्ति के लिए जो फार्मेट गढ़े थे उसका त्याग कर दिया है। स्टोरी टेलिंग की जगह स्टेटस अपटेडिंग हो गई है। लैनल सोशल मीडिया का एक्सटेंशन हो गया है । इसकी समस्या यह है कि अखबार की तुलना में स्पीड की दावेदारी सोशल मीडिया ने खत्म कर दी है। ऐसे मौकों पर न्यूज रूम ध्वस्त हो जाते हैं। न्यूज रूम का पूरा ढांचा ध्वस्त हो जाता है। अमिताभ बच्चन कबीर बेदी, किरण बेदी और राहुल बोस जैसों के ट्विट से शुरू होता है और लैनलों पर घटना को लेकर पूरा माहौल बन जाता है। टीवी अपनी खोजी और गढ़ी हुई खबरों की अनुकृति कम करता है। कुल मिलाकर चैनलों का ट्विटराइजेशन यानी ट्वीटरीकरण हो गया है। स्क्रीन पर चौबीस घंटे बक्से बने होते हैं उसमें लोग बोल रहे होते हैं। ट्विटर या फेसबुक की तरह। आयें बायें सायं। गैंगरेप की घटना के बाद टीवी भी सोशल मीडिया का एक्सटेंशन बन गया। आप कह सकते हैं कि रायसीना हिल्स का विस्तार बन गया। जिस तरह सोशल मीडिया में बाते होती हैं उसी तरह से टीवी में होने लगी। एक टीवी पर एक लड़की को बास्टर्ड बोलते सुना। खुद मेरे शो में कुछ लोग अनाप शनाप शब्दों का इस्तमाल कर गए। स्मृति ईरानी और संजय निरुपम का प्रसंग को ट्वीटरीकरण के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए। यह टीवी की नहीं, सोशल मीडिया की अभिव्यक्ति है। ट्वीटर और फेसबुक अकाउंट से ओपिनियन और सवाल लिये जाने लगे। खाताधारियों को बुलाया जाने लगा। आप ध्यान से देखिये, लैनल सोशल मीडिया की अभिव्यक्ति के माध्यम बन गए हैं। कम से कम ऐसे मौकों पर तो बन ही जाते हैं। स्क्रीन पर बगल में तस्वीर चल रही है लेकिन सब अपने अपने दिमाग के हिसाब से बोलते जा रहे हैं। कोई परंपरा की बात कर रहा है, भारतीय मूल्यों की बात कर रहा है तो कोई पाश्चात्य मूल्यों को दोष दे रहा है। अनियंत्रित गुस्सा, गाली सब प्रसारित हो रहा है। इससे क्या हुआ कि मेन स्ट्रीम मीडिया का जो अंग था टीवी उसका मार्जिनलाइजेशन होने लगा। वैसे तो सारे मीडिया अब सोशल मीडिया पर है इसलिए सोशल मीडिया ही मेनस्ट्रीम मीडिया है। एंकर लिंक से लेकर पीटूसी तक सब सोशल मीडिया के रिफ्लेशक्शन लगते हैं। इसमें आप हिन्दी और इंगलिस चैनलों में अंतर नहीं कर सकते हैं। जनमत के नाम पर हर तरह के मत हैं। बस हंगामे की शक्ल होनी चाहिए। इस काम में कई ऐसे मुद्दे ज़रूर आए जिनसे सरकार की शिथिलता टूटी है। यह भी देखना चाहिए। टीवी के सोशल मीडिया में बदलने से,उसके रायसीना में बदलने से बहुत फर्क आ रहा है। यह एक तरह का एक्टिविज्म है जर्नलिज्म नहीं है। उसमें भी खास तरह का एक्टिविज़्म है। इंटरनेट की धड़कन से टेलीविज़न चल रहा है न कि संपादक पत्रकार की हरकतों से।

तो हम दिल्ली गैंगरेप मामले में सिर्फ रिपोर्ट नहीं कर रहे थे। हम बहाव में बह रहे थे। चैनल जल्दी ही अपनी बनाई हुई कैटगरी से आज़ाद हो गए। तभी ल्यूटियन ज़ोन के कई बड़े पत्रकार इस बात से हैरान थे कि ये रायसीना तक कैसे जा सकते हैं, कैसे प्रधानमंत्री राष्ट्रपति से मिलने की बात कर सकते हैं, हमें तो इंटरव्यू मिलता नहीं, इन्हें प्रक्रिया प्रोटोकोल नहीं मालूम है। पीएम सिर्फ विदेश यात्रा से लौटते वक्त अपने प्लेन में मीडिया से बात करते हैं। वो या तो ऐसी बातें कह रहे थे या फिर इन बातों की पृष्ठभूमि में भीड़ की आलोचना करने लगे। उन्हें लगा कि ल्युटियन ज़ोन तो प्रोटेक्टेड जोन है यहां कैसे लोग आ सकते हैं वो भी बिना नेता के, वो भी बिना गरीब हुए, किसान हुए। अभिजित मुखर्जी ने तो बाद में डेंटेट पेंटेड की बात कही लेकिन इस भीड़ को कमोबेश इन्हीं शब्दों में पहले से भी खारिज किया जा रहा था। हो सकता है कि ये आलोचनाएं सही हो मगर ल्युटियन कंफर्ट ज़ोन में सिस्टम का पार्ट बन चुके या सिस्टम की आदतों को आत्मसात यानी इंटरनलाइज कर चुके कई बड़े पत्रकारों ने संदेह की नज़र से देखा। यह भी एक कारण तो था ही।
अब इस बहस में अखबार की रिपोर्टिंग को भी लाना चाहिए लेकिन वो मेरा विषय नहीं है। उनकी भाषा और प्रस्तुति पर भी बात होनी चाहिए जो हम नहीं करते हैं। लैनलों की रिपोर्टिंग नीयत में सही थी । वो आजकल चालाक नेता की तरह जनभावना भांप लेते हैं और बयान देने की तर्ज पर अभियान चलाने लगते हैं।  वो तो इसी भाव में रिपोर्ट कर रहे थे कि जैसे आंदोलन के साथ हैं। इस जनाक्रोश के साथ हैं लेकिन जो रिपोर्टिंग हो रही थी और जिस शैली में हो रही थी वो अपने आप में समस्याग्रस्त (प्रोब्लेमेटिक) है। आप उस टीवी से अचानक नारीवादी होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं, जो चार महीने पहले करवां चौथ के मौके पर अपने डिबेट के एक बक्से में चांद को लाइव काट कर रखे हुए था। महिला एंकर तक करवां चौथिया लिबास या भाव में डूबी हुईं थीं। बता रही थीं कि करवां चौथ कैसे करें । टीवी तो भारतीय पंरपरा में नारी के गुण कर्तव्य और अवधारणाओं को इन त्योहारों के कवरेज से गढ़ता चलता है। कभी तो उसने सवाल नहीं किया कि देवी रूप का क्या मतलब है। तो वो रायसीना या जंतर मंतर से अपनी रिपोर्टिंग में देवी के रूप की कैसे आलोचना कर सकता है। बल्कि एंकर से लेकर रिपोर्टर तक की बातों में इस तरह की पंक्तियां आ रही थीं। जिस देश में देवी को पूजा जाता है उस देश में कैसे हो गया। ये भाव था। वही मानव संसाधन जो साल भर घोर पारंपरिक या कई मामलों में स्त्री विरोधी छवियों को गढ़ता है उसी को आप चार दिनों में नारीवादी मूल्यों के प्रति सचेत कैसे बना देंगे। यह ज्यादती होगी।

तो टीवी के पास कोई अपनी भाषा तो नहीं थी। उसके पास अपनी कोई छवि नहीं है। इतनी आलोचना होने के बाद सभी लैनलों पर एक शर्मसार बैठी हुई, सिसकती हुई नारी के ही ग्राफिक्स चल रहे हैं। सिलुएट के अंधेरे में गुम नारी की तस्वीर है। जैसे ही तीन मंत्रियों ने तीन बेटी होने की बात की एक चैनल पर स्टोरी ने क्लास वार के रूप में टर्न ले लिया। आपकी तीन बेटिया हर वक्त सलामी के पहरे में रहती होंगी, क्या वो ऐसे सुनसान बस स्टैंड पर जाती होंगी, बिना जाने कि उनकी क्या स्थिति है,लेकिन रिपोर्टर उनकी विशिष्टता को चुनौती देने लगा। थोड़ी देर के लिए वर्ग युद्ध छिड़ गया। बाद में यह बात भी आई कि बेटी का पिता होने से संवेदनशीलता विशिष्ठ हो जाए यह ज़रूरी नहीं है। दूसरी तरफ मैं लड़की हूं टाइप मेरठ फ्रेम की आत्मकथाएं चलने लगी। फर्स्ट पर्सन अकाउंट में। टीवी भी सोशल मीडिया की तरह फैला हुआ था। हालांकि इसी बीच वो एडवोकेसी भी कर रहा था लेकिन उसकी भाषा स्लोगन और छंदों में इतनी फंसी हुई लगी कि ऊब और आक्रोश के अलावा समझ की गुजाइश कम नज़र आ रही थी। हिंसा को ही एक्शन मान कर दिखाया गया। शर्म की ढलती शाम के ढांचे टूट रहे हैं, सहमी हुई सांसे बोल रही हैं, दुबके परिंदों की पांखें बोल रही हैं, अब कौन कहे कि दुबके परिंदे का मतलब क्या है। क्या अभी तक आप उन लड़कियों को दुबके परिंदे बोल रहे थे। आप ही जब ऐसा समझ रहे थे तो सरकार और सिस्टम और समाज की क्या बात करें। हालांकि टीवी इस मामले में अपनी भूमिका को सकारात्मक तरीके से देखेगा और कई मामलों में हुआ भी,उसके चाहते हुए और न चाहते हुए दोनों। लेकिन वही बात है जैसे कई लड़के जो खुद को अच्छा समझते हैं या जिन्हें लड़कियां भी अच्छा समझते हैं वो पूरी तरह से अच्छे नहीं होते कम से कम नारीवादी संदर्भ में। सबकुछ नाटकीय क्यों लगने लगता है ये समझ नहीं आता। कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे ही लगता है। यह लेख तमाम लैनलों को ध्यान में रखकर लिखा गया है।