डियर फ़ादर

आदरणीय राहुल जी,

भोत गल्त बात है । इतनी गल्त बात है कि लंबी चिट्टी का मूड नहीं बन रहा । नागपुर से लौटते वक्त कल हवाई जहाज़ में टाइम्स आफ़ इंडिया में एक ख़बर पढ़ी । परेश रावल को तो जानते हैं न आप । बहुत अच्छी एक्टिंग करते हैं और सिनेमा में सरदार पटेल भी बने थे मगर अपनी बड़ी बड़ी कामेडी वाली आँखों को सीरीयस बनाकर कबाड़ा कर दिया था( निजी राय) ।

अगर परेश रावल मोदी समर्थक और प्रचारक हैं तो क्या प्राब्लम । पिछले चुनाव में परेश भाई की एक ही मेजर ड्यूटी थी । नमो चैनल में बैठकर मोदी की वकालत करना और विरोधियों को धाराशाही करना । आप जानते हैं कि मोदी जी अपने मंच पर एक्टर वैक्टर टाइप के लोगों को रखना पसंद नहीं करते । उनकी इस बात का मैं भी समर्थक हूँ । पूरे गुजरात चुनावों के प्रचार में सिर्फ एक ग़ैर राजनीतिक आदमी को मंच पर रखा था । इरफ़ान पठान को । उनके कंधे पर हाथ भी रखा था । कहाँ तो लोग सिर्फ टोपी में ही फँसे हैं । खैर । 

अब यही परेश रावल एक नाटक कर रहे हैं डियर फ़ादर । अहमदाबाद में । आपके समर्थकों को लग रहा है िक इसमें आपकी कहानी है । डियर फ़ादर राहुल गांधी की कहानी है । मैं नहीं जानता असल में क्या है । उससे मुझे मतलब भी नहीं । लेकिन जब एन एस यू आई के लोग जाकर नारेबाज़ी करें और नाटक रोकने का प्रयास करें तब तो सीरीयस आपत्ति है । (ख़बर के मुताबिक़) । आप तो वही कर रहे हो जो एबीवीपी और बजरंग दल के लोग करते हैं । तभी लोग कहते हैं कि आप दोनों एक हैं । 

आपको परेश रावल का सम्मान करना चाहिए । आपकी जगह मैं होता तो प्ले देखने चला जाता । लोकतातंत्रिक होने का महत्तम प्रमाण देना पड़ता है सर । आपने क्या नई राजनीतिक संस्कृति बनाई है जो पहले से अलग है । अगर एतराज़ ही करना था तो एन एस यू आई के कार्यकर्ता नाटक देखते और वहाँ मौजूद लोगों को पर्चे देते । थियेटर के बाहर एक पोस्टर लगाते । ये सब क्यों नहीं करते आप लोग । नहीं कर सकते । कांग्रेस बीजेपी के पास इतनी सत्ता है सिर्फ सरकार ही नहीं पार्टी के भीतर भी कि उसके दम पर ये लोग नाटक पेंटिंग रोकने फाड़ने चले आते हैं । 

और ये एन एस यू आई वाले कहाँ थे जब आपको मोदी के नेटी घुड़सवार पप्पू कह रहे थे । क्या आप नेट पर ऐसा कर सकते थे । क्या आपके पास एक भी एक्टर नहीं है जो मोदी पर नाटक लिखकर मंचन करे और आप मोदी को देखने का न्यौता देते । कितना मज़ा आता । दरअसल आप दोनों निहायत ही अलोकतांत्रिक होते जा रहे हैं । 

मेरी राय में जिस तरह से आपकी पार्टी के नेताओं ने आपको शहज़ादा कहा जाना स्वीकार किया है, पप्पू कहलाना स्वीकार किया है उसी तरह डियर फ़ादर को भी स्वीकार करना चाहिए । जब मोदी शहज़ादा कहते हैं तो आपकी पार्टी में सबका ख़ून सूख जाता है । आपके पास तो मोदी के लिए कोई चुनावी पुकार नाम ही नहीं है । जब रचनात्मकता और राजनीति की घोर कमी हो जाए तो उसकी भरपाई पोस्टर फाड़ कर नहीं की जाती है । मुक़ाबले का पोस्टर बनाना पड़ता है । 

और हाँ हो सके तो मोदी जी के पाँच सवालों में से एक का तो जवाब दे दीजियेगा । भ्रष्टाचार, आई एस आई में से किसी पर । मोदी फ़्रट फ़ुट पर खेलते हैं और आप हैं कि बैकफ़ुट की आदत हो गई है । 

आपका,
रवीश कुमार ' एंकर' 

( मैं ब्लाग पर एक पत्रकार के रूप में नहीं लिखता । ये भाषा भी किसी पत्रकार की नहीं हो सकती । चूँकि यह अनौपचारिक माध्यम है इसलिए मैं अपने मूड के हिसाब से लिखता हूँ । जिन मूर्खों को लगता है कि यहाँ मैं पत्रकारिता कर रहा हूँ वो न पढ़ें । ) 

छह महीने काम छह महीने आराम

आदरणीय मोदी जी,

माडल खोजने में आपका जवाब नहीं । खोजने से ही मिलता है । केंद्र सरकार जहाँ न खोजने का माडल है वहीं आप खोजने के । झाँसी में जो आपने कहा है उससे मेरी उम्मीदें बढ़ गई हैं । इसलिए आपके नाम एक चिट्टी तो बनती ही है । 

आपने कहा कि आपने कारखानेदारों को बुलाकर कहा कि आपकी फैक्ट्री में बिहार यूपी के मज़दूर काम करने आते हैं । एक कमरा लेकर बीस पचीस लोग रहते हैं । बाप रे । एक कमरे में पचीस लोग । वो भी उस गुजरात में जिसकी तारीफ़ अमरीका कर रहा है( राजनाथ ने झाँसी में कहा) । मैंने जब सूरत से यही रिपोर्ट बनाई तो आपके जाप समर्थकों ने गाली देकर धो दिया सर । चलिये आपने यह स्वीकार किया कि एक कमरे में पचीस मज़दूर रहते हैं । बाक़ी प्रदेशों में मज़दूरों की हालत सोचकर डर जाता हूँ । दिल्ली के कापसहेड़ा में भी यही हाल है सर । 

खैर तो आपने कारखानेदारों को बुलाकर कहा कि ये जो बिहार यूपी के मज़दूर काम करते हैं आठ घंटा और हफ़्ते में छह दिन । इनके आउटपुट का अध्ययन करो । ऐसा करो कि ये लोग आठ घंटे से ज़्यादा काम करें । बारह घंटे चौदह घंटे । ताकि ये लोग छह महीना काम करे । छह महीने में ही साल भर का काम कर दें और बाकी छह महीने छुट्टी दे दीजिये ताकि ये बिहार यूपी लौट कर वहाँ भी पसीना बहा सकें । आपने कहा कि अगर यह प्रयोग सफल हो गया तो । यक़ीन जानिये अगर ये प्रयोग सफल हो गया तो आप पूँजीवाद को समझने का कार्ल मार्क्स से भी बड़ा नज़रिया दे देंगे । सारे कम्युनिस्ट ताकते रह जायेंगे । 

क्या क्या सोचते हैं साहब । कौन सी कंपनी ये प्रयोग कर रही है बतायेंगे ज़रा । छह दिन बारह घंटे काम । पता कीजियेगा ये मज़दूर अभी भी इतना ही काम करते हैं । फिर भी ये कौन सा कारखानेदार होगा जो साल भर का काम छह महीने में करा कर अगले छह महीने के लिए बिहार यूपी भेज देगा । ये तो कांट्रेक्ट लेबर का ख़तरनाक रूप होगा । या तो कारख़ाने भी छह महीने बंद रहेंगे या बाकी छह महीने के लिए दूसरे मज़दूर रख लेंगे । इस दौरान उनकी क़ीमत यानी मज़दूरी में क्या उतार चढ़ाव होगा इसका अध्ययन करने के लिए बोले हैं कि नहीं । कोई कारख़ाना अपने मज़दूर से साल भर की उत्पादकता छह महीने में निकाल लेगा । साल भर का आर्डर भी ले आयेगा । इसके लिए आप लेबर क़ानून भी बदलेंगे । उम्मीद है आपने इस माडल का ड्राफ़्ट अंबानी अदानी और टाटा को भी भेजा होगा । वहाँ भी ये शुरू हो जाए न तो मज़ा आ जाये । हाँ यह क्लियर नहीं हुआ कि छुट्टी वाले छह महीने में पूरी सैलरी मिलेगी या आधी । कोई बात नहीं । अगली रैली में बता दीजियेगा ।

हम तो चाहेंगे कि आपका माडल सफल हो जाये । ताकि हम छह महीने लंबी छुट्टी का जीवन जी सके । ऐसा कमाल सिर्फ वही सोच सकता है जो हमारे मनमोहन सिंह की तरह अर्थशास्त्री नहीं है । क्या आइडिया है सर जी । अब समझ आया आप अपनी कामयाबी को माडल क्यों कहते हैं । ऐसा माडल शहज़ादे तो कभी सोच ही नहीं सकते । आप इस माडल का नाम छह महीने काम छह महीने आराम गारंटी योजना रख दीजिये । उनकी बोलती बंद हो जाएगी । झाँसी में आपने इसका एलान किया है इसलिए इसका नाम झाँसा माडल भी रख सकते हैं । 

बाक़ी तो आपने शहज़ादे को जो ठीक किया मज़ा आ गया । लेकिन आज मैं आपकी राजनीतिक प्रतिभा से ज़्यादा आर्थिक प्रतिभा का क़ायल हो गया । आर्थिक मामलों में कम समझ रखता हूँ इसलिए कम ही लोग मेरी इस तारीफ़ को समझ पायेंगे । 

आपका 

रवीश कुमार'एंकर' 


इतिहासकार जाँचेंगे मनमोहन का इतिहास

आदरणीय मनमोहन सिंह जी,

चीन से लौटते वक्त हवाई जहाज़ में आपको पत्रकारों से बात करते देख अच्छा लगा । आपकी प्रेस कांफ्रेंस जितनी ज़मीन पर नहीं हुई उससे कहीं ज़्यादा हवा में हुई है । क्या पता आप आसमान में ज़्यादा कंफर्टेबल फ़ील करते हों । नौ साल प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए कोई इतना निर्विकार कैसे हो सकता है कि वो अपनी भूमिका की कापी इतिहासकारों के पास जाँच के लिए छोड़ मगन हो जाए । आप सही कह रहे हैं । आपकी कापी चेक करना इतिहासकारों के ही बस की बात है । आम जनता नहीं कर सकती । इसलिए एक चिट्टी तो बनती है सर ।


यह जानकर खुशी हुई कि आपके पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है । जितना था वो सब तो पता चल ही गया है । इससे ज़्यादा हो भी क्या सकता है । जो भी था वो लोग जान गए हैं । अब क्या लोग फ़ाइलें पढ़ेंगे । पुष्पक विमान में उस पत्रकार ने क्या चंपी कोच्चन मारा था कि " सीबीआई कह रही है वो आपसे सवाल कर सकती है । क्या आपको नहीं लगता कि आपने सीबीआई को बहुत ज़्यादा स्वायत्तता दे रखी है और वो अपनी लक्ष्मण रेखा क्रास कर रही है । " व्हाअट अ कोच्चन सर जी । आप इस पत्रकार को एक बार और विदेश यात्रा पर ले जाना । जिसका जवाब आप यह कह कर टाल जाते हैं कि मामला कोर्ट में है और मैं कमेंट करना नहीं चाहूँगा । वो तो कहिये कि एक दूसरे पत्रकार ने पूछ लिया कि विपक्ष कह रहा है सीबीआई को पीएम से पूछताछ करनी चाहिए तब आप जाकर यह कहिते हैं कि सीबीआई क्या कोई भी जिसके पास सवाल है मुझसे पूछ सकता है । मेरे पास छिपाने के लिए कुछ नहीं । क्या यू टर्न मारा सर । लेकिन ये दूसरे वाले पत्रकार को अब मत ले जाइयेगा ।

और टीवी पर हेडलाइन चली कि आप सीबीआई जाँच के लिए तैयार हैं । पहले सवाल में तो आप सीबीआई के सवाल को डंक ही मार गए दूसरे में तैयार वाली बात भी न कही । फिर भी । खैर मीडिया । आप तो जानते ही है न । कैसे घुमाया गया कि आप बड़े बेचैन हैं सीबीआई के सामने पेश होने को । सर ये सिम्पल गेम नहीं है । पारख और बिड़ला को लेपेटे में लेने का । अब न आपकी हर बात पर कान खड़े होने लगे हैं । आपका बयान जितना बीजेपी को जवाब नहीं होता उससे कहीं ज़्यादा कांग्रेस के एक तबके को दिया गया लगता है ।

सर ये चल क्या रहा है । कांग्रेस और आपके बीच । कुछ तो है बास । आप राहुल के गुरु हैं या सचमुच राहुल आपको अब गुरु समझने लगे हैं । ये होत्ती है न बात । आपने कभी सत्ता से जाने का नाम नहीं लिया । आप भावुकता को आस पास उचकने तक नहीं देते । कभी नहीं कहा कि मेरी जगह किसी और को ले आओ । कांग्रेस के दबाव में अश्विनी कुमार को बड़ी मुश्किल से हटाया वर्ना आप तो बचा ही ले गए थे । छिपाने के लिए कुछ नहीं था तो देखने के लिए क्या था सर जो अश्विनी कुमार फ़ाइलें पलटने लगें । जायसवाल कर रहे हैं कि ज़्यादातर फ़ाइलें मिल गईं हैं जिसके कस्टोडियन आप नहीं हैं । पूर्व सीएजी विनोद राय भी कह चुके हैं कि हिंडाल्को वाली डील सही है । पी सी पारख भी कह रहे हैं कि बिड़ला वाली डील सही है । फिर वो मीडिया में तरह तरह की चिट्ठियाँ लीक कर रहे हैं । यही कि कोयला मंत्रालय में माफ़िया भर गए हैं । जबकि मैंने कई बार पूछा था उनसे सर । यही जवाब मिला कि ऐसी कोई बात नहीं कहीं थी । 

खैर अचानक ये तोता आपका नाम क्यों रट रहा है । कहीं वो पहला पत्रकार यह तो नहीं कहना चाहता था कि सीबीआई को आपने इतनी स्वायत्तता दे रखी है कि कांग्रेस के कुछ लोग सीबीआई चला रहे हैं । सर सच्ची बोलना । आपमें और दस जनपद में कुछ चल रहा है क्या है । आय मीन कुछ ठीक नहीं लग रहा । ख़ाली इतिहासकार ही जानेंगे या पत्रकारों का भी कुछ हक़ बनता है । वैसे यूपीए द्वितीय में दिलचस्प सत्ता संघर्ष चल रहा है । आप कितने कोल्ड थे भोजन गारंटी को लेकर, लोग यही कहते हैं कि आप भी नहीं चाहते थे और देखिये राहुल गांधी ऐसे भुना रहे हैं जैसे ये सब सोनिया जी की वजह से हुआ । आपके सिग्नेचर से नहीं । सर कुछ तो 'टस्सल' है । जो सरकार क्रोनि कैपिटलिज्म से घिरी रही उसे चलाने वाली पार्टी का उपाध्यक्ष बाग़ी बना घूम रहा है । प्रो पूअर हो गए हैं । आपको सीधे सीधे तो नहीं कह सकते इसलिए बीजेपी को कह रहे हैं वो सिर्फ उद्योगपतियों की बात करती हैं । 

आप निर्विकार हो । सुख में दुख में समभाव । कुर्सी पर भी सम भाव । मगर माया के इस खेल को खूब समझते हो । पूरी पार्टी परेशान है और आप प्रशांत । इसे कहते हैं राजनीतिक प्रधानमंत्री । आपने दिल से ही कहा होगा कि तीसरी बार भी जीतेंगे । चौदह के नतीजे चकित करने वाले होंगे । कौन चकित होगा । मोदी या राहुल । मने पूछ रहे हैं । सरकार भले आप चलाते हैं मगर पार्टी को आप नहीं जीताते न । अब आप नेता हो गए हो । ये बीजेपी बहुत बाद में कहेगी सर कि आप कमज़ोर नहीं बल्कि सयाने और मज़बूत प्रधानमंत्री रहे । सर एक और बात सच्ची सच्ची कहना । ऐसे ही एक हवाई जहाज़ में आपने तीसरी बार प्रधानमंत्री की बात कह किसे डराया था ? मोदी को या कांग्रेस में किसी को ।

तभी तो जब आसमान में पत्रकार ने पूछा कि इतने घोटाले हुए । टू जी, कामनवेल्थ । आपकी साख कमज़ोर हो चुकी है । निम्नतम स्तर पर हैं तो आप जवाब क्या देते हैं । कि आप जिन स्कैम की बात कर रहे हैं वो यूपीए वन में हुए थे यूपीए टू में नहीं हुए । यूपीए वन के बाद के जनरल इलेक्शन में कांग्रेस पार्टी चुनाव जीत गई थी । सही में सर । अब ये इतिहासकार ही बता सकता है कि यूपीए वन में प्रधानमंत्री कौन था । टू जी और कामनवेल्थ घोटाला यूपीए वन में हुआ या टू में । कहीं आप घोटाले को स्वीकार तो नहीं कर रहे । ( सर आपके हवाई प्रेस कांफ्रेंस का जो ट्रांसक्रिप्ट हमें मिला है उसी को पढ़कर लिखा है ) 

चलता हूँ । उम्र और पद के लिहाज़ करते हुए ख़त लिखते हुए मर्यादा का पालन किया है । इतना निर्विकार आदमी सत्ता का अंगीकार किये हुए हैं । कैसे ? 

आपका

रवीश कुमार ' एंकर' 

हाँ मैं अमीर हूँ

प्यारे भाइयों और बहनों और आपके कज़िन्स,

मैंने एक सपना देखा है । मैं जानता हूँ कि सपने देखने का क्या आनंद होता है । जब लाइफ़ में हो आराम तो आइडिया आता है । लक्स का यह विज्ञापन । बिल्कुल वैसा ही । तो मित्रों पता है मैं सपने क्यों देखता हूँ । ग़रीब आदमी सपने नहीं देखता उसे दिखाया जाता है इसलिए मैं सपने देखता हूँ । आज मैं अपने मुँह से अपनी बात बताता हूँ । सपना वही देखता है जो अमीर होता है । जिसके घर में एसी होता है । कमरे में प्ले स्टेशन होता है । जिनके पास खेलने के मैदान नहीं वो सपने नहीं देखते । 

किसी चीज़ की कोई कमी नहीं थी । साउथ दिल्ली के आनंद लोक में पैदा हुआ था । बचपन से ही बड़ी बड़ी कारें देखी हैं मैंने । मैं जानता हूँ अमीरी क्या चीज़ होती है । जब दोस्तों की मारुति अठ वंजा में घूमता था तब पता चलता था सिम्पल कार का दर्द । मुझे उनके लिए दुख होता था तब मैं उनके लिए सपने देखता था । मेरे पापा के पास छह बीएमडब्ल़्यू कारें थीं । जब मेरे पापा के पास हो सकती हैं तो ग़रीबों के पास क्यों नहीं । मित्रों एक अमीर ही एक ग़रीब का दर्द समझ सकता है । मैं हावर्ड गया । इंडिया की ग़रीबी पर चिंतन करने लगा । विवेकानंद को पढ़ा । मार्क्स को पढ़ा । तब से मैं आपकी भलाई के लिए सपने देख रहा हूँ । जब मैं कम्पनी चलाकर रोज़गार सृजन कर सकता हूँ तो प्रधानमंत्री बनकर कितना करूँगा ज़रा सोचिये । 

मित्रों, मेरा एक विज़न है । स्लम मुक्त भारत । सबको डीपीएस स्कूल मिले । सारे सरकारी अस्पतालों को बारात घर में बदल दे । सरकार प्राइवेट अस्पतालों का ख़र्चा उठाये । पता है मित्रों जब मैं बचपन में शापिंग के लिए सिंगापुर जाता था तो मुझे एक बात का दुख होता था । जब सिंगापुर चमक सकता है तो एक सौ पच्चीस करोड़ का इंडिया क्यों नहीं । मित्रों मैंने कभी किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं की । मुझे पता है कि अगर आपकी लाइफ़ से कमी दूर कर दूँ तो कितना आनंद आएगा । आप भी सपने देखने लगोगे ।  और ये सोच एक अमीर घर में पले बढ़े मेरे जैसे नेता में ही आ सकती है । जो ग़रीब रहा वो क्या जानेगा अमीरी का सुख । 

मित्रों विरोधी मेरा मज़ाक़ उड़ाते हैं । मैं सरकारी स्कूल में नहीं गया । भूख क्या होती है नहीं जानता । ये सही नहीं है । भूख मुझे भी लगती है । क्रेविंग समझते हैं न । डोम्नोज़ पित्ज़ा की क्रेविंग होती थी । पापा अलग अलग दुकानों में कार भेज देते थे । जहाँ से जल्दी मिले वहीं से ले आओ । उसी को देखकर डोम्नोज़ ने थर्टी मिनट में होम डिलिवरी शुरू की । अरबों का कारोबार हो गया । फ्रैंड्स, मैं समझता हूँ आपको साथ क्या गुज़रती होगी । मैं महानगर में पला बढ़ा । क्या भारत महानगर में नहीं है । क्या वोट के लिए विरोधी दल माँ भारती के ऐसे टुकड़े करेंगे । क्या भारत बिना महानगर हुए चीन का मुक़ाबला कर सकता है । क्या सिर्फ स्लम ही भारत है ।  

मैं उस पोलिटिक्स के ख़िलाफ़ हूँ जिसमें नेता अपनी ग़रीबी बताते हैं । भई पब्लिक को ये बताओ न कि आपकी ग़रीबी कैसे दूर हुई । कहाँ से पैसे आ रहे हैं महँगी रैलियों के । आइडियाज़ शेयर करने पड़ते हैं लोकतंत्र में । लोकतंत्र चलता है विज़न और आइडियाज़ से । हर नेता को ट्विटर पर युवाओं को बताना चाहिए कि उन्होंने अपनी ग़रीबी कैसे दूर की । यह सही है कि मेरे पास मनीष मल्होत्रा के एक से एक डिज़ाइनर कुर्ते हैं । यहाँ युवा बैठे हैं । आप में से कितने फ़ैशन करते हैं । सब करते हैं । ये जवाब है आज के युवा का । तो मित्रों एक अच्छे नेतृत्व के ज़रूरी है एक अच्छा कुर्ता । जब आप खुद अच्छा नहीं पहनोगे तो दूसरों को क्या पहनने के सपने दिखाओगे । 

फ्रैंड्स ये पहली बार होने जा रहा है । मैं देख रहा हूँ कि भारत में एक अंधड़ चल रही है । पहली बार अमीरी में पैदा हुए, मेट्रो में ऐश की ज़िंदगी जीने वाले एक नेता में लोग अपना भरोसा ज़ाहिर कर रहे हैं । अभी तक इंडिया में सारे लोग अपनी ग़रीबी बेचते रहे हैं । चुनाव आते ही सारे नेता खुद को दे दाता के नाम तुझको अल्ला रक्खे गाने लगते हैं । जनता ने ऐसे नेताओं को नकार दिया है । मैं पूछना चाहता हूँ मेरे ग़रीब नेताओं तुम्हारी ग़रीबी दूर हो गई बाक़ियों की कब होगी । ग़रीबी कौन दूर करता है । ग़रीब या अमीर ? पैसा हमारा और राज तुम्हारा नहीं चलेगा । मैं सभी ऐसे युवाओं से गिल्ट फ़्री पोलिटिक्स में आने की अपील करता हूँ । ये नेता हम जैसे खाते पीते घर वालों को पोलिटिक्स से दूर करना चाहते हैं । 

मित्रों क्या यह मेरा अपराध है कि मेरा बचपन ग़रीबी में नहीं बीता । क्या उद्योगपति का बच्चा होना अपराध है । मैं विरोधी दलों से पूछना चाहता हूँ कि क्या वे उद्योग नहीं खोलेंगे । क्या वो किसी को अमीर नहीं बनने देंगे । क्या अमीर को चुनाव नहीं लड़ने देंगे । हमसे चंदा पर हम नेता नहीं । ये नहीं चलेगा । मुझे कोई गिल्ट नहीं कि मैं खाता पीता घर का हूँ । क्या मेरी कोई राजनीतिक पहचान नहीं । ये जो नेता स्टोरी बेच रहे हैं बहुत हो गया । फाड़ के फेंक दीजिये ऐसी स्टोरी को । मैं भारत का भविष्य हूँ । मुझे और मेरी पार्टी को वोट दीजिये । मेरे दादा जी कहते थे जो कंपनी नहीं चला सकता वो देश क्या चलायेगा । कंपनियाँ ही पीछे से देश चलाती हैं । जिसको दूध बेचना है बेचे पपीता बेचना है बेचे । रिटेल चेन में काम करके महान बन गए और हम जो पोलिटिक्स की असली मैन्यूफ़ैक्चरिंग करते हैं वो राज न करें । रोयें अपने अतीत पर और ये गायें अपनी ग़रीबी पर । नहीं होने देंगे । गर्व से कहो हम अमीर हैं । 

आपका एक ग़ैर ग़रीब बट अमीर उम्मीदवार,
रवीश कुमार'एंकर' 


मुखिया से दूधिया तक

राजदूत मोटरसाइकिल तो याद है न । आज की पीढ़ी को क्या पता राजदूत के बारे में । काले रंग की मोटरसाइकिल । ग्रामीण समृद्धि की निशानी । शहरों में एम्बेसडर, फ़िएट और गाँवों में राजदूत । एक अंतर और । जिस वक्त शहर और सिनेमा में कमल हसन येज़्दी बाइक पर हिरोइन घुमाया करते थे, गाँवों में राजदूत अर्ध सामंती प्रतीक हुआ करती थी । ज़्यादातर मुखिया जी के पास राजदूत तो होती ही थी । शाम को कचहरी या तहसील से लौटते मुखिया जी की मोटरसाइकिल गाँव वाले दूर से ही भाँप लेते थे ।  हमारे मुखिया जी ने भी राजदूत को बेटे की तरह रखा । बेटी की तरह नहीं शायद । शान से बताते थे कि पंद्रह बरीस भइल । राजदूत की ख़ूबी यही थी । तिरछा स्टैंड पर बाइक टिका देना और किक मारते समय बैक जंप के कारण धोती वाले पाँव का छिटक जाना । आगे पीछे किसीम किसीम के गार्ड । राजदूत के अनगिनत किस्से होंगे भारत के गाँवों में ।  उन्हें जानने वाले उनकी मोटरसाइकिल की आवाज़ पहचानते थे और नंबर याद रखते थे । 

वक्त बदला । पंचायती राज ने पंचायतों को खूब पैसा और अधिकार दिया । उस नए अधिकार से मैच करने के लिए नई सवारी भी चाहिए थी । इससे पहले कि बोलेरो मुखियई की पहचान बनती गाँव गाँव में दहेज़ में मिले इंड सुज़ुकी और हीरो होंडा बाइक ने तूफ़ान मचा दिया । ये दोनों ही ब्रांड सिर्फ और सिर्फ दहेज़ के कारण ग्रामवासिनी हुए । भोजपुरी के कई गाँवों में दहेज़ में हीरो होंडा का ज़िक्र खूब आया है । इनकी चमक ऐसी थी कि जो ख़रीद न सका इन्हें छिनने के क्रम में नव अपराधी बनने लगा । बल्कि पूरे बिहार में बाइक छिनने वाले गैंग का उदय हुआ जिसमें नौजवान नव अपराधी शामिल थे । कई  रास्तों और पुलों की पहचान भी होने लगी कि वहाँ से गुज़रने पर बाइक छिन लेता है सब । 

" कबले बिकाइल होंडा गाड़ी,हमार पिया मिलले जुआड़ी" इस गाने में पत्नी शिकायत कर रही है कि उसका पति कितना नालायक जुआड़ी निकला होंडा गाड़ी तक दाँव पर लगा दिया । जो दहेज़ में मिला था वो तो कब का बिक गया । होंडा को बाइक नहीं गाड़ी कहा जाता था । आज वही होंडा गाड़ी उपभोक्ता और युवाओं की पहचान से निकलते हुए बहुउपयोगी हो गया है । ग्रामीण भारत के उद्यमीकरण में छोटी सी भूमिका निभा रहा है । बाइक अब मुखिया नहीं दूधिया चलाते हैं । मुखिया बोलेरो,स्कार्पियो में घूमते हैं । इसमें भी योगदान राजदूत का ही है । जब मुखिया लोगों ने अपनी राजदूत बेची तो ख़रीदने वाले गाँव के उद्यमी थे । पुरानी बाइक से अपने पहले के मालिकों की तरह मोहब्बत न कर सके । बोरे की चट्टी सीट पर डालकर दूध का कनस्तर डाल दिया । किसी ने भारत की दुग्ध क्रांति में मोटरसाइकिल की भूमिका का अध्ययन नहीं किया है । 

रंग



विजय ही विजय नहीं हैं ।

आदरणीय विजय गोयल जी,

वाजपेयी जी के समय आपके निवास पर दिल्ली के किस बड़े पत्रकार ने पुरानी दिल्ली के व्यंजनों की मौज न उड़ाई होगी । आप पीएमओ में राज्य मंत्री थे । तब आपकी छवि कैसी थी । आपके यहाँ चाट खाने वाले पत्रकारों के ज़हन में कुछ तो नौस्तेल्जिया बची होगी । कोई आपका बखान नहीं कर रहा । एक बार मैं भी सीनियर के साथ लग लिया था । आनंद आ गया था । 

तब लोग कहते थे कि आप वाजपेयी जी के ख़ास है । उनके स्वाद का रखवाला । मैं नहीं मानता कि भारत के प्रधानमंत्री को आपकी कैटरिंग की ज़रूरत पड़ी होगी । लेकिन आपके यहाँ खाने वाले पत्रकार यही कहते थे । वाजपेयी जी जैसे महान प्रधानमंत्री ऐसा क्यों करेंगे जिनके स्वर्ण युग के दम पर बीजेपी इस बार मैदान में है । खाने वाला ही गरियाता है सर । आपकी छवि ज़रूर अच्छी होगी तभी आपको मंत्री बनाया होगा । 

जाने दीजिये । वैसे आपकी छवि पीएमओ में रहते ख़राब हुई क्या या उससे पहले ख़राब हुई या उसके बाद । इसका जवाब इसलिए ज़रूरी है कि मैं हमेशा कमज़ोर के साथ रहा हूँ । आप इस वक्त कमज़ोर लग रहे हैं । अगर विजय गोयल पीएम के दफ़्तर में मंत्री हो सकते हैं तो सीएम के उम्मीदवार क्यों नहीं । अगर विजय गोयल की छवि ख़राब है तो  वे दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष कैसे हो सकते हैं । क्या पार्टी को आपके पीएमओ टाइम के बारे में अब पता चला है । अगर हाँ तो क्या पता चला है । दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष बनने से पहले बीजेपी ने आपको केंद्रीय महासचिव बनाया हुआ था । उधर तो आपने कुछ नहीं ' बनाया' न । मने कह रहे हैं । आपकी पार्टी में किसी गोयल के साथ ऐसा हो जाए यह सिर्फ अति राष्ट्रवादी विचारधारा के कारण ही सकता है ।

अजीब है बीजेपी । आप संसदीय बोर्ड को यह चिट्ठी दिखाकर बोल्ड कर दीजिये । चुनाव की कमान देते वक्त तो पार्टी सोचती । भरी रैली में मोदी जी बोल गए कि दिल्ली में विजय ही विजय है । कितने विजय के अरमान जगा गए । हाय ।  और मोदी जी क्यों फ़ैसला लेने आए हैं । क्या वे पार्टी अध्यक्ष हैं ? क्या वे संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष हैं ? क्या आपकी पार्टी में जो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होता है वही मुख्यमंत्री के लिए उम्मीदवार तय करता है । क्या दिल्ली के टिकट भी वही बाँटेंगे । 

आप संसदीय बोर्ड को कहिये कि अगर पार्टी ने आपको हटाया तो कांग्रेसी सवाल करेंगे कि वाजपेयी के मंत्रिमंडल में एक भ्रष्ट भाजपाई था जिसके बारे में अब पता चला है । विजय जी आप सैड मत फ़ील करो । आप पार्टी में ही रहकर सब्र करो । लोगों को कह देना संघर्ष कर रहा हूँ । हर्षवर्धन जी अच्छे हैं । कोई शक नहीं । मगर पार्टी ने उन्हें पहले क्यों नहीं देखा । क्या बीजेपी में किसी को नहीं दिखा कि आपका मुक़ाबला शीला और अरविंद से है । और जिन सर्वे की लोकप्रियता से मोदी जी पीएम इन वेटिंग हो गए, फिर आपके टाइम में वे सर्वे हट बे की तरह क्यों हो गए हैं ।  आप भी तो सर्वे में शीला जी के बराबर हो  । 

नाइंसाफ़ी हर्षवर्धन जी के साथ भी हो रही है । चुनाव के लिए उन्हें कितना कम वक्त मिलेगा । आपकी छवि तो ख़राब होगी अब । पार्टी आपको हटाकर उन आलोचनाओं को मान्यता दे देगी कि आप जी वही सब हो । करप्ट वरप्ट । आपने तीस प्रतिशत सस्ती बिजली देने का वादा किया था मगर आपकी पार्टी ने तो आपको फ़्री का करंट लगा दिया । एक ऐसे समय में जब साफ़ सुथरी छवि वाले येदुरप्पा जैसे नेता एनडीए या पार्टी में आ रहे हों आप जैसे दाग़दार छवि वालों का रहना ठीक नहीं है ।

बस एक दो दिनों के बाद दिल्ली के उन तमाम पोस्टरों पर आपका चेहरा तो नज़र आएगा मगर आप नहीं होंगे । लोग कहेंगे कि अरे पोस्टर तो नहीं फटा है फिर भी हीरो ग़ायब है । मुझे लगता है कि बीजेपी उन पोस्टरों को भी बदल देगी । कहीं ये सारे होर्डिंग आपने अपने पैसे से तो नहीं लगवा रखे हैं । अरे बाप । मर गए । जाने दीजिये । हर्षवर्धन से एक सबक़ तो सीख सकते हैं । बहुत मैनेजमेंट न भी आए तो भी अगर बंदा ईमानदार है (आपकी पार्टी के अनुसार) तो उसका टाइम आता है । वैसे एक आइडिया है । आप अपनी पार्टी के लोकपाल गुरुमूर्ति जी को क्यों नहीं बुलाते जिन्होंने गडकरी को क्लिन चिट दी थी । अरे हाँ मोदी से ये तो पूछ ही लेना विजय जी कि गडकरी जी को क्यों इंचार्ज बनाया फिर । आपका कोई साथ न दे तो मैं हूँ । 

जाने दीजिये । अब आडवाणी के समर्थन में बयान मत दीजियेगा । पार्टी में रहिये और मिलकर काम कीजियेगा । दिल्ली में जब मोदी जी प्रधानमंत्री बनेंगे तब पीएमओ में आ जाइयेगा । छोड़ दीजिये ये हठ । विजय मल्होत्रा का हाल देख कर भी आप नहीं चेते । दिल्ली बीजेपी में केंद्रीय राजनीति से जो भी प्रदेश में गया है उसे पनडुब्बा खींच लेता है । हर्षवर्धन जी को ढेरों शुभकामनायें । आपको भी । 

आपका 
रवीश कुमार 'एंकर' 



शाहिद

"वो लोग तुम्हें अतीत में जीने के लिए मजबूर करेंगे लेकिन तुमको आने वाले कल के लिए जीना होगा ।" शाहिद की ज़िंदगी से दूर जा चुकी मरियम ने ये बात शाहिद से नहीं हम सबसे कही । जिसे उस ख़ाली से महँगे हौल में शाहिद ने सुना न अपनी गर्लफ़्रेंड के कंधे से चिपके नौजवानों ने । तभी बगल की सीट पर वो लड़का जो ख़ुद को मेरा फ़ैन बताता रहा आख़िरी शाट के अगले पल मेरे साथ फोटू खींचाने के लिए इसरार करने लगा । मुझे झटकना ही पड़ा । इतनी सीरीयस फ़िल्म देखकर निकल रहे हो दस मिनट तो सोच लो । उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ा । न मुझे । 

सात साल में सत्रह बेगुनाह लोगों को बाइज़्ज़त रिहा कराने वाला एक वक़ील मार दिया जाता है और उसकी कथा एक बेहतरीन फ़िल्म के बाद भी हमारे ज़हन में नहीं उतरती । मैं यह नहीं कहता कि आप शाहिद देखने ज़रूर जायें बल्कि हो सके तो न देखें क्योंकि यह फ़िल्म आपके अंदर झाँकने लगती है । आप शाहिद को नहीं देखते वो आपको देखने लगता है । यह फ़िल्म तकलीफ़ कम देती है हमारी सोच की चोरियाँ बहुत पकड़ती है । 

आतंकवाद इस्लाम या हिन्दू की कोख से पैदा नहीं होता । इसे पैदा करती है राजनीति । जो हम सबको रोज़ उस बीते कल में धकेलती हैं जहाँ हम चौरासी बनाम दो हज़ार दो का खेल खेलते है । मज़हब के हिसाब से अपनी अपनी हिंसा के खेमे बाँट लेते हैं । शाहिद हमारी उसी सोच से पैदा होता है और उसी से मार दिया जाता है । मारने वाले का चेहरा नहीं दिखता पर वो होता तो इंसान ही है । शाहिद की हर दलील आज भी हमारी राजनीतिक खेमों की अदालत में गूँजती हैं । इसलिए कि हम अपने भीतर के शाहिद को चुपचाप मारते रहते हैं । बड़ी चालाकी से हर हत्या के बाद किसी दूसरे हत्यारे का नाम ले लेते हैं । 

अगर आपके भीतर ज़रा भी सांप्रदायिकता है आप शाहिद देखने से बचियेगा क्योंकि आपको इन तमाम अतीतों को बचा कर रखना है जिसमें अभी कई शाहिद धकेले जाने वाले हैं । आप अगर अतीत को नहीं बचाकर रखेंगे तो राजनीति खुले में नंगा नहाएँगीं कैसे । आप राजनीति के किसी काम के नहीं रहेंगे । राजनीति में महान नेता पैदा कैसे होंगे । वे कैसे आपके भीतर जुनून पैदा करेंगे । अगर आप सांप्रदायिक नहीं हैं तो शाहिद ज़रूर देखियेगा । बहुत ज़रूरी है अपनी हार को देखना । शाहिद उन तमाम सेकुलर सोच वालों की हार की कहानी है जिन्होंने शाहिदी जुनून से सांप्रदायिकता और सिस्टम से नहीं लड़ा । जिनमें एक मैं भी हूँ । 

क्रेडिट लाइन - 
फ़िल्म में अपनी दोस्त शालिनी वत्स को देखकर फिर अच्छा लगा । वक़ील बनी है और अच्छा अभिनय किया है । राजकुमार को काई पो तो में देखा था । बहुत अच्छा कलाकार है । प्रभलीन संधू को पहले कहाँ देखा याद नहीं पर सिनेमा हाल से निकलते एक सरदार जी नाम पढ़ कर उत्साहित हो गए । अपनी गर्लफ्रैंड को बताने लगे कि देख प्रभलीन कौर है । बस पीछे मुड़ कर थोड़ा सुधार कर दिया । कौर नहीं संधू है । निर्देशक हंसल मेहता और निर्माता अनुराग कश्यप के बारे में क्या कहा जाए । ये हैं तो बहुत कुछ हो जा रहा है । 


हसरतें वाया तस्वीरें



नौकर की क़मीज़

Forced labour . विनोद कुमार शुक्ल की नौकर की क़मीज़ पहने यह नौजवान काम पर चला जा रहा था । टी शर्ट पर लिखने वाले ने शायद हैपनिंग युवाओं के फ़ैशन लिए लिखा होगा मगर पहनने वाले नौजवान ने उसे यथार्थ की तरह पहन लिया है । सड़क पर चलते चलते कितना कुछ दिख जाता है । चलते रहिए ।


दिल्ली के पोस्टर



लप्रेक

उस रोज़ नीलपदम टू और डिज़ाइनर आर्क के बीच से सूरज कैसे निकल रहा था न । हाँ लगा कि लिफ़्ट से नीचे आ गया है । याद है न हिंडन हाइट के पीछे छिपता चाँद और हमारा रात भर मंज़िलों का गिनना । सब याद है जानेमन । अपार्टमेंट की पहाड़ियों पर एक शहर हमने ही बसाया है । चाँद सूरज को तो आना ही था । इन्हें कोई नहीं देखता अब सो ये खुद ही झाँक रहे हैं । यार तुम दो मिनट के लिए रोमांटिक नहीं हो सकते ।धूप में निकला न करो रूप की रानी । गोरा रंग... व्हाअट इझ दिस डियर । माय न्यू कालर ट्यून जानेमन  । उफ्फ , डाँट बी सो रिग्रेसिव । यू गैंजेटिक बार्बेरियन बिहारी । शट अप । आय यम कास्मो । लिव आन टूएल्थ फ़्लोर , इन द सकाई । और मैं तुम्हारे इश्क़ में शिप्रा सिटी हो गई हूँ । लव इन टाइम आफ़ हाई राइज़ ( लप्रेक) 

भारत एक बुरी नज़र प्रधान देश है


बुरी नज़र वाले सारे मेरे साली साले । भाई लगता है हत्थे से क़बड़ गया है । बमकाहा( ग़ुस्से वाला) आदमी लगता है । 

टीवी का कंकड़ पत्थर एंकर

जब किसी रिपोर्टर को मौक़े से रिपोर्ट करते देखता हूँ घर बैठे बैठे उसकी जगह पहुँच जाता हूँ । बुदबुदाने लगता हूँ और कैमरा यहाँ से वहाँ घुमाने लगता हूँ । पाईलीन तूफ़ान के ज़ोर से झुकते पेड़ों के बीच अपने सर के बालों के उड़ते रहने और धक्का खाते हुए माइक को थामे रहने की चुनौती का सुख एंकर नहीं भोग सकता । ऐसा लगता है कि इस बात को उस तरह से बोलता और उस बात को इस तरह । इससे पूछता उससे पूछता । कैमरा थोड़ा पैन कर ज़्यादा से ज़्यादा आब्जेक्ट को पकड़ता तो ज़ूम इन कर किसी क्लोज़ अप को । खुद को रिपोर्टर की तरह देखना और सोचना ही अच्छा लगता है । कुछ होने का अहसास होता है । 

पता नहीं क्यों काफी देर से पाईलीन की रिपोर्टिंग देख रहा हूँ । मैं तो टीवी कम देखता था न । देखना ही छोड़ दिया था । फिर क्यों ? मैं क्यों करवटें बदल रहा हूँ । क्यों ? ऐसा बिल्कुल नहीं है कि पाईलीन तूफ़ान के कवरेज़ के कारण यह सब हो रहा है । मगर हो तो रहा है न । जैसे रात में बत्ती चले जाने पर अंधेरा डबल लगता है वैसे ही रिपोर्टिंग के छूट जाने पर लगता है । शायद एक कारण यह भी है कि टीवी कम देखता हूँ । किसी एंकर को देखकर लगता नहीं कि वहाँ होता । किसी रिपोर्टर को देखकर ज़रूर लगता है । 

एंकर के पास चार पाँच जोेड़े टाई जैकेट से ज़्यादा कुछ नहीं होता । इसी में वो घुसकर मुँह बिचकाता रहता है और हाथ मलता रहता है, आँखें मटकाता रहता है और नट्टी घड़घड़ाता ( बैरी टोन) रहता है । वो ज़रूर शहर की दुकानों में पहचाना जाता है मगर यह पहचान चौराहे पर लगे साइन बोर्ड से ज़्यादा की नहीं होती । उसकी स्मृतियाँ धीरे धीरे संकुचित होती चली जाती है । किस्से पुराने पड़ने लगते हैं । ख़त्म होने लगते हैं । एंकर नए कपड़े में भी बासी लगता है । कई लोग इस पहचान के साथ बेहद ख़ुश होते हैं । ठीक मेरे गाँव के उस लड़के की तरह जिसकी लंबे समय तक शादी नहीं हो पाती थी और जब होती थी तो दूल्हा भूरे रंग या क्रीम सूट में ऐसे इतरा कर चलता था कि गाँव भर के लोग देख लें कि उसकी भी बारात निकल रही है । मुझे न्यूज़ रूम में एंकर ऐसे ही दिखते हैं । इनको देखकर ही लगता है कि नाच पार्टी आ गई । अस्नो क्रीम पावडर पोत पात के । टाई और सूट के कंबीनेशन से लगता है कि कोई मूसा बैंड का मास्टर है तो कोई पंजाब बैंड का तो कोई राजा बैंड का । 

ख़ाली होने की पीड़ा पहचान की उठती निगाहों से नहीं दूर हो पाती । मुझे काफी वक्त लग रहा है यह स्वीकार करने में मैं भी नाच पार्टी का हिस्सा हो चुका हूँ । सुखी जीवन जीने के लिए ज़रूरी है कि इस सत्य को स्वीकार कर लिया जाए कि अब मेरे पास वो किस्से नहीं रहे, दृश्य नहीं बचे । शब्द कलाकारी होने लगे हैं । आप एक ऐसे  खाँचे में आ जाते हैं जहाँ हर एंकर एक दूसरे की फोटोकापी लगने लगता है । दरअसल रिपोर्टर होने की याद से गुज़रना इसी संकट से गुज़रना है । हुआ ही कहाँ था । हो रहा था कि होना रूक गया । आप रातों रात एंकर बन सकते हैं मगर सालों साल बाद रिपोर्टर बनते हैं । मैं हर दर्शक से गुज़ारिश करता हूँ कि किसी एंकर को देखें तो बिना पहचाने बगल से निकल लीजिये और किसी रिपोर्टर को देखिये तो कंधे पर हाथ रखना मत भूलिये । ऐसा कर आप टीवी पत्रकारिता में ज़रूरी बन चुके एक बेवजह हिस्से को हतोत्साहित करेंगे और ग़ैर ज़रूरी होते जा रहे एक बेहद ज़रूरी हिस्से को प्रोत्साहित । 

कोई नहीं । मन दुखी होता है तो सुखी भी हो लेता है । मुझे पता है एंकर के बिना टीवी का काम नहीं चलता । किसी न किसी को बनना ही पड़ता है । हर समय आप ही नहीं चुनेंगे । कोई आपके लिए भी चुनेगा । इसलिए सुबुकने से अच्छा है नियति का सम्मान करना सीख लीजिये । आप में जिस किसी को जितना भी रिपोर्टिंग करने का मौक़ा मिले जमकर कर लीजिये । वहीं यादें हैं आपकी । जितना हो सके सहेजते रहिए । बाकी ये पुट एडिटर वो पुट एडिटर बेक़ार है जी । चुटपुटिया पटाका जानते हैं न । खाली पट पुट करता है । बजता रिपोर्टर का ही है । ग़लत बोले क्या जी । मिलते हैं सोमवार को प्राइम टाइम में । 

सचिन

आदरणीय सचिन,

जब एक से एक घोटालेबाज़ पार्टियों के नेताओं को ख़त लिखते वक्त उनके नाम के आगे आदरणीय लिखा है तो आपको आदरणीय कहने में संकोच कैसा । आप उन सबसे ज़्यादा हक़दार हैं । 

मैं आपके खेल के किस तरफ़ हूँ ठीक से नहीं जानता । पर पता नहीं क्यों आज बेहद अफ़सोस हो रहा है कि मैंने आपको किसी स्टेडियम में अपनी आँखों से खेलते नहीं देखा । देखना चाहिए था । आप जब छोटे थे शायद हमारी उम्र के आस पास तब हमने आपकी और कांबली की शतकीय साझेदारी वाली कामयाबी को कापी के किसी पन्ने पर ध्यान से लिखा था कि शायद कहीं ये किसी इम्तिहान में काम आ जाए । पर किसी इम्तिहान में बैठा नहीं और आप मेरे काम आते आते रह गए । पर आपकी तस्वीर को बंगाल के पुरुलिया ज़िले की एक बियाबान पहाड़ी पर बनी एक झोपड़ी में देखा तब समझा कि आप क्या हैं । उस झोंपड़ी के भीतर कुछ भी नहीं था, बाहर से ग़रीबी रेखा भी नहीं गुज़र रही थी मगर भीतर आपकी तस्वीर । सचिन सर्वत्र विराजयेत । ग़लत संस्कृत हो तब भी यह देखने में बिल्कुल ठीक लगता है । वजह आप हैं । 

आपके खेल को टीवी पर ज़रूर देखा है । नाख़ून चबाते हुए और धड़कनों को गिनते हुए कि आपका ही बल्ला मुझे एक परास्त भारत की किसी हीन ग्रंथी से बाहर निकाल सकता है । जैसे तिरासी के साल कपिल की टीम ने और बयासी के साल पी टी ऊषा में निकाला था । जब पी टी ऊषा एशियाड में जीती थीं तब उनके असर में हम चार बजे सुबह पटना के गांधी मैदान में दौड़ने जाने लगे । उस अंधेरे में खुद को पी टी ऊषा समझ कर भागने का प्रयास किया मगर लगा कि मुँह से झाग निकल आएगा । गांधी मैदान के बीच में स्थित गांधी जी की मूर्ति के नीचे जाकर बैठ गए । कहने का मतलब है आप लोगों की कामयाबी लोगों पर असर करती है । जब आपकी तरह बल्ला आज़माने का वक्त आया तब तक ज़िंदगी के वे लम्हे नज़दीक़ आने लगे थे जिसमें खुद के लिए कोई रास्ता चुनना था । आपकी तरह बनने के लिए किसी अंधेरे में नहीं जागा ।

लेकिन आपको टीवी पर देखते हुए बहुत अच्छा लगता था ।  आप खेलते थे और हम क्रिकेट को समझते थे । हर शाट को जानने लगे । गेंदबाज़ की घबराहट को और बल्लेबाज़ के आत्मविश्वास को । हम क्रिकेट को स्कोर बोर्ड से बाहर भी समझने लगे । उससे पहले लगता था कि पड़ोस वाले चाचा जी को ही क्रिकेट आती है । मेरे पिताजी नया नया क्रिकेट सीख रहे थे । गावस्कर के हर चौके पर पड़ोस वाले चाचाजी से पूछते िक अब इंडिया जीत जाएगा । चाचा जी डाँट देते और कहते कि चुप रहिए । नहीं बुझाता है तो काहे टोक देते हैं । क्रिकेट सिर्फ चौका छक्का का खेल नहीं है । पिताजी चुप हो जाते लेकिन जब इंडिया हार जाता तब चाचाजी पर खुंदक निकालने लगते । अरे इ सब जीतता नहीं है आप फालतूए टाइम बर्बाद करते हैं । क्रिकेट पर चाचाजी की कापीराइट होती थी । दोनों अब इस दुनिया में नहीं हैं पर हिन्दुस्तान ने ऐसे ही क्रिकेट को टटोल टटोल कर देखना समझना सीखा है । आपके आने के बाद सब तेज़ी से बदल गया । प्रभाष जोशी तो आपके बारे में लिख कर रूला ही देते थे । मालूम नहीं हिन्दी के इस पत्रकार को आप जानते हैं या नहीं । फिर भी सचिन आपको जानना क्रिकेट को जानना हो गया । 

जब मैच फ़िक्सिंग का दौर आया तो मैं क्रिकेट से दूर हो गया । इंडिया टुडे का वो संस्करण याद है जिसमें आपके शरीर के हर अंग को तीर के सहारे बताया गया कि यहाँ से ये पावर निकलता है वहाँ से वो पावर । फिर आपकी कामयाबी को कचकड़े के डिब्बे में मीडिया पैक करने लगा । मैंने कम देखा आपको । आज लग रहा है मुझे आपको जी भर के देख लेना चाहिए था । पर आपके लिए हमेशा सम्मान बना रहा । 

आज आपने संयास की घोषणा की है । चैनलों पर आपके रिकार्ड ऐसे चल रहे हैं जैसे इलेक्ट्रानिक टाइपराइटर के पीछे से काग़ज़ की रिम निकलती जा रही हो । आपने क्रिकेट को बहुत अच्छी यादें दी हैं और हम जैसे कम देखने वालों को न देखने का अफ़सोस । आपने अपने नाम को न सिर्फ कमाया बल्कि उसे अपने आचरण से बनाए भी रखा ।  दरअसल आप कभी बड़े हुए ही नहीं । दर्शकों ने आपको बच्चे की तरह ही देखा है । आप क्रिकेट में कृष्ण के बाल रूप हैं । जिसकी अनेक लीला़यें हैं । 

आपके खेल को समझना हिन्दी चैनलों के बस की बात नहीं हैं । शुक्र है आपने इनके लिए बहुत आँकड़े बना रखे हैं । आज की रिकार्डिंग मँगा लीजियेगा । कभी ज़िंदगी में आराम से देखियेगा । आपकी विदाई को कितने ख़राब तरीके से विश्लेषित किया गया है । हिन्दी सिनेमा के गानों पर आपके शाट्स चढ़ाकर उन्हें रोड साइड बैंड बारात में बदल दिया है । मैं क्रिकेट का ज्ञानी नहीं हूँ ,खुद भी क्रिकेट पर ख़राब शो करता हूँ मगर क्या करूँ करना ही पड़ता है । लेकिन जो लोग दिन रात क्रिकेट करते हैं उनके पास आपके लिए कोई अच्छा विश्लेषण नहीं है । यही ख़ालीपन सही समय होता है चुपचाप चले जाने का । आपके क्रिकेट के मैदान से जाने की ख़बर सुनकर मैं भावुक हूँ । आप हम सबकी शान रहे हैं । आपको ऐसे कैसे जाने देंगे एक ख़त तो लिखेंगे न । खुद ही पढ़ने के लिए । 

आपका 
रवीश कुमार 'एंकर' 

भरतपुर गया था

जिस दिन धरती से चिड़िया ख़त्म हो जाएगी उसी दिन आदमी भी समाप्त हो जाएगा । गाइड अमरपाल की यह बात भरतपुर के वीरान जंगलों में ऐसे गूँजी जैसे आदमियों में सबसे पहले मैं ही ख़त्म होने वाला था । क्यों ? साहब ये जो चिड़िया है न तमाम तरह को कीड़ों को चुग लेती हैं । ये न होंगी तो ये कीड़े हमारी साँसों से फेफड़े तक में पहुँच कर हमें समाप्त कर देंगे । पूरे दिन अलग अलग प्रकार की चिड़िया कीड़ों को खोज खोज कर खाती रहती हैं । मेरी बेटी ने सवाल किया कि सबसे ख़तरनाक कौन है । जवाब दिया आदमी सबसे ख़तरनाक है । जानवर नहीं । 


भरतपुर के केवलादेव पक्षी विहार की दुनिया बेहद ख़ूबसूरत है । साढ़े तीन सौ से अधिक पक्षियों के इस संसार का नाम भगवान शिव पर क्यों हैं बात समझ में नहीं आई । क्या इसका नाम किसी एक पक्षी पर नहीं हो सकता था । गाइड ने बताया कि नब्बे फ़ीसदी हिन्दुस्तानी पक्षी माँसाहारी होते हैं । विदेशी शाकाहारी । जितने भी नर पक्षी होते हैं वो मादा की तुलना में ज़्यादा ख़ूबसूरत मिलेंगे । सलीम अली के प्रिय पक्षी ग्रे हार्नबिल की कहानी भी काफी दिलचस्प लगी । सुनते सुनते लगा कि हर पति को हार्नबिल की तरह होना चाहिए । जब मादा हार्नबिल अंडे का सेवन करती है तो नर हार्नबिल कोटर को जाल से ढंक देता है । इसके लिए वो काफी मेहनत करता है । एक छोटा सा छेद भर छोड़ देता है जिसके ज़रिये बाहर से दाना लाकर अंदर डालता है । नर और मादा इस दौरान दूर हो जाते हैं । दोनों वियोग में रोते हैं । हार्नबिल देखकर अच्छा लगा । 

गाइड ने एक और बात कही । आदमी स्वार्थी होता है । हम बच्चों को इस तरह सीखाते हैं कि वो बुढ़ापे का सहारा बने । चिड़िया अपने बच्चों को दो ही महीने में सबकुछ सीखा कर विदा कर देती है । वो अपने बच्चों को इस तरह सीखाती है कि वे खुद ज़िंदगी को जीने लगें । इन सब बातों को सुनता हुआ कभी किंगफ़िशर तो कभी जंगल कोतवाल तो कभी भारद्वाज को देखता जा रहा था । भारद्वाज पक्षी का आधा शरीर कौए का और आधा कोयल सा होता है । सेवन सिस्टर को चिल्लाते देखा जो अपनी आवाज़ से साँप तक को भगा देती हैं । पहली बार जीवन में बुलबुल चिड़िया को देखा । ये तस्वीर किंगफ़िशर की है ।


ये पनकौआ है । स्नेक बर्ड । पानी में डुबकी लगाकर मछली पकड़ता है । तब ऐसे लगता है जैसे साँप चल रहा हो । अमरपाल ने बताया कि सारे पक्षियों के पंख वाटर प्रूफ़ हैं सिर्फ इसी का पंख गीला हो जाता है । यह उड़ नहीं पाता इसलिए मछली खाने के बाद डाल पर बैठ घंटों पंख सुखाता है । ज़रा देखिये किस शेखी से पंख सुखा रहा है ये । 


अचानक कोबरा पर भी नज़र पड़ी । डर तो गया लेकिन जब संभला तो देर तक देखता रहा । दोनों तरफ़ देख समझ कर कोबरा सड़क पार करने लगा । ज़हरीला होते हुए भी ख़ूबसूरत । बगल में मानिटर लिज़ार्ड । देख कर ही कंपकंपी छूट गई । 



नीचे जो तस्वीर देख रहे हैं बबूल के पेड़ों की है । चिड़िया बबूल के पेड़ों पर बच्चा देने और पालने के लिए घोंसले बनाती है । बीट में एसिड होने के कारण पत्ते तक जल जाते हैं । दक्षिण भारत से प्रिंटेड स्टार्क यहाँ कई महीनों के लिए आती है । अंडा देने और बच्चों को बड़ा करने । बच्चे जब उड़ने लायक हो जाते हैं तो गूँगे हो जाते हैं । बहुत ख़ूबसूरत चिड़िया है । आय फ़ोन की जितनी औकात है उतनी क्वालिटी की तस्वीर है । जब भी भरतपुर जायें बढ़िया कैमरा लेकर जायें । पेड़ों पर चिड़ियों की भरमार देखकर लगा जैसे कोई अपार्टमेंट हो और हर फ़्लैट से कोई चिड़िया झाँक रही हो । 


भरतपुर शहर देखकर लगता है कि कैसे अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर अपनी ख़ास मौजूदगी दर्ज कराने वाले इस शहर को सरकारों ने कूड़े की तरह रखा हुआ है । भरतपुर की वर्तमान स्थिति कई सरकारों और कई ज़िलाधिकारियों की कारस्तानी की निरंतरता की गवाह है । खैर ये सब चलता रहेगा । बेटी के लिए कुछ ख़रीदना था तो बाज़ार गया । दुकान ढूँढने में ही काफी वक्त लग गया । दुकानदार ने बड़ी इज़्ज़त से चाय पिलाई । वहाँ से लौटते वक्त एक दूसरे दुकानदार मेहरा साहब ने अपना कार्ड पकड़ा दिया । होटल पहुँच कर जब फ़ोन किया तो अपने कई दोस्तों के साथ मिलने आ गए । भरतपुर का कलाकंद ले आए । बंसल स्वीट्स । बहुत बढ़िया । उनके साथ आए लड़कों में एक ने कहा कि आपकी छुटंकी भी आई है । हम उसके लिए कुछ लाये हैं । मैंने कहा आपको कैसे पता छुटंकी के बारे में । उन्होंने कहा कि मैं आपको ट्वीटर पर फौलो करता हूँ । मैं थोड़ा सेंटी हो गया । कोई कुछ देता है तो मन भारी हो जाता है । सोचता रह जाता हूँ कि क्यों लिया । मगर उस वक्त गला भर आया ।

हिन्दी की पत्रकारिता ने भले ही अपने पाठकों को तीसरे दर्जे की पत्रकारिता दी है मगर उसकी तुलना में पाठकों ने अपने पत्रकारों को बहुत प्यार दिया है । आपको यक़ीन न हो तो भरतपुर संस्करण के अख़बारों को देखियेगा । ठोंगा बनाने लायक तो है हीं । पत्रकार तो होंगे ही अच्छे मगर जिस स्तर के अख़बार ज़िला संस्करणों के नाम पर निकल रहे हैं वो किसी काम के नहीं । एक ही काम है यूरिया ट्रैक्टर डीलरों, स्कूलों और घटिया चमकदार अस्पतालों से विज्ञापन लेना । खैर राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता ने विश्लेषण के अलावा ख़बरों में कौन सा तीर मार लिया है । लक बाइ चांस की मलाई खा रहे हैं हम टीवी एंकर । 


सही में अरविंद ईमानदार हैं ?

अरविंद केजरीवाल सचमुच में ईमानदार है भाई साहब ? जित्ता बोलता है उत्ता है ? जब भी लोग टीवी के कारण मुझे पहचानकर मिलते हैं ये सवाल करते हैं । अब सोचने लगा हूँ कि वे इस तरह से आशंकित होकर क्यों पूछते हैं । इस भाव से क्यों पूछ रहे हैं कि कहीं झूठ सच बोलकर तो अरविंद खुद को ईमानदार नहीं बता रहे । इतना सवाल क्या ये लोग बेईमान नेताओं से करते हैं , उन दो दलों से करते हैं जिन पर न जाने भ्रष्टाचार के कितने आरोप लग चुके हैं और रोज़ लगते हैं । कई बार ऐसा लगता है कि इस देश में सबसे बड़ा भ्रष्टाचार खुद को ईमानदार बताना है । ईमानदार को यू हीं पागल नहीं कहा जाता हमारे देश में । दरअसल राजनीति में लोगों को ऐसा नेता चाहिए जो देश का तो नहीं हो मगर अपने लोगों को लिए सबका हो । रही बात ईमानदार की तो वो किसी का नहीं होता भाई । क्या ये मानसिकता है इस सवाल के पीछे ?

एक आईएएस अफ़सर का फ़ोन आया । अरविंद के साथ मेरा हमलोग चल रहा था । उन्हें ग़ुस्सा इस बात को लेकर था कि इस आदमी को चोर बेईमान बताने में मैंने विशेष परिश्रम क्यों नहीं किया । पहला सवाल क्या ये गारंटी लो सकते हैं कि इनके सारे उम्मीदवार ईमानदार रहेंगे । मैंने कहा क्या ये सवाल आप कांग्रेस बीजेपी से कर रहे हैं ? कोई जवाब हीं । फिर कहने लगे पता है कौशांबी में कितने फ़्लैट हैं । मैंने कहा एक हैं । जैसा देखा था आज तक वैसे ही है । आप के पास सबूत है तो दीजिये कल खुद अरविंद को घेर कर पूछूँगा । जनाब चुप हो गए । फिर मैंने कहा दोनों नौकरी करते हैं । दो घर ख़रीद लिया होगा तो कौन सी बड़ी बात है । मैं भी ख़रीदने की सोच रहा हूँ । यह कहाँ लिखा है कि दूसरा घर चोरी का होता है । तो तड़ से अफ़सर साहब बोले लेकिन आपने क्यों नहीं पूछा कि पत्नी क्यों इंकम टैक्स में नौकरी करती है ।  मुझसे रहा नहीं गया । पूछ दिया कि उनकी पत्नी क्या करे इसका फ़ैसला आप करेंगे, अरविंद करेंगे या उनकी पत्नी । मैं अरविंद को चोर मानने के लिए तैयार हूँ बस आप अपना बता दीजिये । आप सौ प्रतिशत ईमानदार हैं न । फ़ोन कट गया । सही में कट गया । दोबारा नहीं आया । 

अब समझ आ रहा है । दरअसल भ्रष्टाचार एक सिस्टम है । इस सिस्टम का पीड़ित भी लाभार्थी है । जो रिश्वत देता है वो उससे कमाता भी है । हाँ इस सिस्टम के बाहर के गेट पर खड़ा आम आदमी ही मर रहा है बस । भीतर लेन देन करने वालों को कोई दिक्क्त नहीं है । यही लोग चाहते हैं कि बस कहीं से कोई एक बार अरविंद केजरीवाल को चोर साबित कर दे । ताकि करप्शन को लेकर उन्हें नैतिक संकट का सामना न करना पड़े । भ्रष्टाचार सीमित परंतु बड़ी संख्या में लोगों के रोज़गार का ज़रिया भी है । इसी सिस्टम से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े लोग सवाल करते हैं कि भाई साहब सचमुच अरविंद ईमानदार है । ये लोग चाहते हैं कि हे भगवान अरविंद को फ़ेल करा देना । उनकी बस यही चिंता है कि खुद की ईमानदारी और दूसरे भ्रष्ट को पकड़वाने का दावा करने वाला न जीते । ये और बात है कि हार जीत का निर्णय जनता तमाम बातों को देखकर करेगी मगर इसमें ईमानदारी पर सवाल करने वाला एक तबक़ा अलग से हैं । 

नरेंद्र सत्यवादी मोदी, राहुल सत्यवादी गांधी

"सत्य बोलने का कोई समय नहीं होता । सत्य बोलने का जो समय चुनता है वो सत्य नहीं झूठ बोलता है ।" अध्यादेश फाड़ने के बाद से राहुल गांधी राजनीति की व्यावहारिकता को छोड़ कहीं आदर्शवादी तो होने नहीं जा रहे । कहीं वे बीच चुनाव में सत्य के साथ प्रयोग न करने लग जाएँ । राहुल गांधी को अब जोश आ गया लगता है । अच्छा है । पर सत्य बोलने का जो समय ही न चुनें वो भी क्या सत्य ही होता है । राहुल गांधी पर तो कई मौक़ों पर कुछ न बोलने का ही इल्ज़ाम है । राबर्ट वाड्रा प्रकरण पर चुप्पी किस सत्य के लिए थी । दुर्गा के लिए चिट्ठी और खेमका के लिए चुप्पी । समय के हिसाब से थी या सत्य के हिसाब से । इतने दिनों की चुप्पी अगर सत्य की खोज के लिए थी तो और सत्यों की उम्मीद करें ? दरअसल राहुल और नरेंद्र मोदी दोनों अपना वक्त चुन कर बोलने और चुप रह जाने में माहिर हैं । मुझे नहीं मालूम कि इन दोनों का मौन क्या है । सत्य या झूठ । 

इसीलिए राहुल का यह आदर्शवाद आत्मघाती लगता है । राजनीति में वक्त का चयन करना भी राजनीति है । राजनीति सत्य से नहीं होती । अब देखिये लालू यादव को सज़ा हुई तो नरेंद्र मोदी चुप्पी मार गए । जेडीयू के के सी त्यागी आरोप लगाते फिर रहे हैं कि जब मोदी भ्रष्टाचार से लड़ रहे हैं तो लालू पर चुप क्यों हो गए । कोई ट्वीट क्यों नहीं किया । बीजेपी ने ज़रूर प्रतिक्रिया दी मगर त्यागी का कहना था कि प्रधानमंत्री के उम्मीदवार चुप क्यों हैं । ये और बात है कि त्यागी जी के पार्टी के दो नेताओं को भी सज़ा हुई है । सब कह रहे हैं कि पटना की सभा में मोदी इस तरह से लालू के जेल जाने पर बोलेंगे ताकि यादव उनकी तरफ़ आ जायें राहुल से बदला लेने के लिए । देखना होगा कि अपने सज़ायाफ्ता मंत्री पर चुप रह जाने वाले मोदी मुलायम मायावती के बरी हो जाने के बहाने सीबीआई के मुद्दे को कैसे रखते हैं । मोदी का मुद्दा है कि यूपीए सीबीआई के डर से चल रही है । यूपीए ने मायावती मुलायम को सीबीआई के डर से आज़ाद कर दिया है ।  कहीं वे अपने और अमित शाह के डर के कारण इसे मुद्दा तो नहीं बना रहें । अगर नहीं तो क्या ये उम्मीद कर सकते हैं कि वे प्रधानमंत्री बनने पर सीबीआई की स्वायत्तता के लिए अपना प्लान भी बतायेंगे । उनके नमो फ़ार पीएम टाइप समर्थकों ने भी ट्वीट नहीं िकया कि हे नमो बता तो दो आप सीबीआई का क्या करोगे । लोकपाल लाओगे ? लोकपाल के तहत सीबीआई को पूरी तरह दे दोगे ? बेहतर होगा कि दोनों ही अपनी अपनी योजनाएँ जनता के सामने रखें और इस पर लोग विचार कर फ़ैसला दें । हम नहीं वो वाला गेम बहुत हो चुका ।

दरअसल राहुल और मोदी के समर्थकों को सिर्फ दूसरे नेता पर होने वाले सवालों से मतलब है । अपने नेता पर होने वाले सवालों से नहीं । मोदी ने आनलाइन की दुनिया को संगठित तरीके से अपने रंग दिया है  जहां मोदी पर किये जाने हर सवाल को कांग्रेस की दलाली बताने के लिए ' पेड नेटी घुड़सवार' सवाल करने वाले पर हमला कर देते हैं । इनके लिए तो सिर्फ मोदी सत्य हैं और बाक़ी झूठ । इनके लिए पत्रकारिता की तटस्थता का यही मतलब है कि कोई मोदी पर सवाल न करे ।  ऐसे लोगों के प्रति आनलाइन चुप्पी भी कम ख़तरनाक नहीं है । शर्मनाक भी है । 

इस पूरी प्रक्रिया पर अंग्रेज़ी की ओपन पत्रिका में हरतोष सिंह बल का एक अच्छा लेख है । हो सके तो पढ़ियेगा । कैसे दोनों ही नेता प्रेस कांफ्रेंस और पत्रकारों को नज़रअंदाज़ करते हैं । दोनों ने सार्वजनिक तौर से प्रेस से बात करना बंद कर दिया है । मगर व्यक्तिगत रूप से दोनों प्रेस से बात करते हैं । जिसकी पुष्टि कई बड़े पत्रकारों ने की है । मेरे ही शो में एन के सिंह ने कहा था कि मोदी रविवार को बात करते हैं । उनसे भी बात करते है । अंग्रेज़ी चैनल के एक बड़े सम्पादक ने भी ऐसा कुछ कहा था । राहुल गांधी भी बड़े पत्रकारों से अकेले में मिलते हैं । अहमदाबाद में ही पत्रकारों से आफ़ रिकार्ड मुलाक़ात की । कैमरे और फ़ोन बाहर रख लिये गए । अब अगर ये किसी नागरिक के लिए गंभीर सवाल नहीं है तो इसका मतलब है कि आप अंध भक्तों से बात कर रहे हैं । ओपन पत्रिका के लेख का लिंक दे रहा हूँ । वैसे मेरी अभी तक दोनों से कोई बात नहीं हुई है । व्यक्तिगत रूप से बात करने में कोई बुराई नहीं है मगर ये दोनों प्रेस कांफ्रेंस में आते क्यों नहीं हैं । व्यक्तिगत बातचीत रिपोर्ट भी नहीं होती है । 


इस चुनाव में झूठ सत्य है या सत्य झूठ तय करना मुश्किल है । पेड मीडिया और दलाल के नाम पर सवाल पूछने वालों को धमकाया जा रहा है । पेड मीडिया एक दुर्भाग्यपूर्ण हक़ीक़त है मगर इसकी आड़ में एक नेता की तरफ़ उठने वाले सवालों का गला घोंटा जा रहा है । सवाल छोड़ कर, करने वाले की साख दाग़दार की जा रही है । इसके बाद भी लोगों को सिर्फ अपने पसंदीदा नेता की जीत से मतलब है तो फिर कुछ कहा नहीं जा सकता । किसी की जीत के कारण सवाल कैसे स्थगित हो सकते हैं । क्या अब सवालों के यही जवाब होंगे कि जनता किसी को कितनी बार से चुन रही है ? तो फिर यह सबके साथ लागू होगा या किसी एक के साथ । 

छह अक्तूबर को जनसत्ता में एक रिपोर्ट छपी है । पहले पन्ने पर सबसे नीचे । रिपोर्ट सह सम्पादकीय टिप्पणी है । विवेक सक्सेना लिखते हैं कि हरियाणा में परमवीर चक्र विजेता को सरकार इकत्तीस लाख रुपये देती है जबकि नरेंद्र मोदी की सरकार साढ़े बाइस हज़ार ही । इसी तरह खेल और सैनिक सम्मानों को लेकर हरियाणा और गुजरात की तुलना की गई है । मगर मोदी तो उसी रेवाड़ी में कह आए कि आज सैनिकों का सम्मान नहीं हो रहा । इसका भी लिंक दे रहा हूँ । मैंने अपनी तरफ़ से सूचनाओं का सत्यापन नहीं किया है मगर विवेक सक्सेना बहुत पुराने पत्रकार हैं इतनी कच्ची रिपोर्ट भी नहीं लिखेंगे । 

अब कोई सवाल करें तब तो । यहाँ तो खेमे बाँट दिये गए हैं । सिर्फ हो हो और हुले ले ले हो रहा है । सत्य का विज्ञापन नेता ही कर रहे हैं । जनता के हाथ तो कुछ लग नहीं रहा है । आज ही गूगल का आनलाइन जनता के साथ हुए एक सर्वे की रिपोर्ट आई है कि बयालिस प्रतिशत लोगों ने अपनी राय नहीं बनाई है िक किस पार्टी को वोट देना है । यह सर्वे दिलचस्प है । दो तिहाई पंजीकृत मतदाता अपना मत आनलाइन जगत में प्रकट नहीं करते हैं । इसका मतलब है कि नरेंद्र मोदी के पक्ष में जो आनलाइनीय हवा बाँधी गई है वो सही नहीं है । प्रायोजित तरीके से मोदी के हक़ में आनलाइनीय मुखरता व्यक्त की जा रही है । गूगल का सर्वे कहता है कि शहरी मतदाता का सैंतीस प्रतिशत आनलाइन है । पैंतालीस फ़ीसदी मतदाता फ़ैसला करने से पहले और जानकारी जमा करना चाहते हैं । मतदाताओं ने जिनदलों को सबसे ज़्यादा सर्च किया है उनमें पहले नंबर पर बीजेपी दूसरे पर कांग्रेस तीसरे पर आप चौथे पर बीएसपी और पाँचवे पर शिवसेना है । 

लोग सत्य खोज रहे हैं । वे खोज ही लेंगे । बस नेता यह न समझें कि उनके बोले हुए को ही जनता सत्य समझती है । इस झूठ को वो जीना बंद कर दे । जनता बोलने और चुप रहने के समय को पहचान लेती है । यही सत्य है । 

आँखों देखा हाल- कांग्रेस बदहाल

मुझे नहीं मालूम कि लोकसभा चुनाव में कौन जीत रहा है पर यह साफ़ लग रहा है कि कांग्रेस बुरी तरह हार रही है । हार ही नहीं रही है बुरी तरह हार रही है । अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो राजनीति में ज़रूर कोई चमत्कार घटित हो रहा है । शहरी क्षेत्रों में भिन्न भिन्न प्रकार के वर्गों से जुड़े लोगों से होने वाली बात चीत के आधार पर कह रहा हूँ । इनमें से कई लोग सीधे बीजेपी के हैं मगर ज़्यादातर कांग्रेस को वोट देने वाले हैं । इनमें से कई बाक़ी दलों को भी वोट करने वाले हैं । जब भी सोचता हूँ कि बीजेपी का वोट बैंक क्या है तो लगता है कि बीजेपी का हल्ला ही छाया हुआ है मगर जीत नहीं मिलेगी । दूसरी तरफ़ लोगों की ऐसी उलझन नहीं है । वे कांग्रेस को लेकर दो राय में नहीं हैं । दरअसल कांग्रेस और बीजेपी के पास ठोस रूप से स्थायी वोट बैंक नहीं है । दोनों को वोट देने वालों में एक बड़ा तबक़ा ऐसा भी है जो आराम से एक दूसरे के पाले में अदल बदल कर लेती है । इस बार यह तबक़ा कांग्रेस को छोड़ रहा है । बल्कि छोड़ चुका है । 

कांग्रेस के नेता जाने किस आधार पर सुनिश्चित हैं कि यूपीए तृतीय की सरकार आ रही है । मैं कोई आकाशवाणी तो नहीं कर रहा मगर फ़ेसबुक ट्वीटर और टीवी की दुनिया से बाहर रहने वाले लोगों से बातचीत में यही पाया है । पिछले कुछ महीनों में एक भी बंदा ऐसा नहीं मिला जो यह कहता हो कि कांग्रेस को ही वोट देंगे । एक भी नहीं । हाँ सपा बसपा का वोटर ज़रूर यह कहता है कि हमारा वोट बहन जी या तो नेता जी को ही ।ऐसा भी नहीं कि  बीजेपी नरेंद्र मोदी की वजह से नहीं जीत रही है क्योंकि बहुत कम लोग मिले जिन्होंने यह कहा हो कि नरेंद्र मोदी को चाहते हैं इसलिए बीजेपी को वोट दे रहे हैं । प्रचार और संगठन की पकड़ के कारण कहा तो यही जाएगा कि जीत नरेंद्र मोदी के कारण मिली है क्योंकि हार का ठीकरा भी उन्हीं के सर फूटेगा । उसी तरह से लोग राहुल गांधी के बारे में भी बात नहीं करते । वे कांग्रेस से नाराज़ हैं और कांग्रेस को वोट नहीं देंगे । लोग एक व्यापक शब्द है जिसके कई प्रकार होते हैं । राहुल गांधी की ये छवि और वो दाँव इस हवा का रुख़ बदल नहीं पा रही है । 

लोगों के मन में राय पक्की हो चुकी है । अब यह राय आसानी से बदलने वाली नहीं है । जो चुनाव लोगों के मन में हो चुका है उसके होने में देरी कैसी । हर किसी के आस पास अपनी एक दुनिया होती है । मैं अपने आस पास की दुनिया का हाल बता रहा हूँ । ज़मीन पर न तो ऐसी कोई रणनीति नज़र आती है और न ही समीकरण जो मोदी या बीजेपी की जीत को रोक दे या कांग्रेस की हार को रोक दे । जिस तरह से बिहार विधानसभा में बीजेपी की जीत का स्ट्राइक रेट नब्बे फ़ीसदी से ऊपर था उसी तरह का स्ट्राइक रेट बीजेपी उत्तर मध्य भारत में भी दे सकती है । अगर इसके बाद भी बीजेपी नहीं जीतती है तो यह भी एक चमत्कार ही होगा । रेस्ट इज़ मीयर स्पेकुलेसन माय डियर । 

बिकता फ़ुटबॉल है मगर खेलते क्रिकेट हैं

एक शहर में खेल की दुकान पर पहुँचा । भाई साहब इतना फ़ुटबॉल ? आपके शहर में फ़ुटबॉल क्रिकेट से लोकप्रिय है क्या ? अरे क्या बात करते हैं रवीश जी ( ये लगता है जी जायेगा नहीं मेरे नाम के पीछे से) । लोग बैट ही ख़रीदते हैं । फ़ुटबॉल तो गभमेंट में सप्लाई के लिए हैं । सरकार में कौन फ़ुटबॉल खेलता है ? अरे सर सरकार में कोई खेलता नहीं मगर सब फ़ुटबॉल ही ख़रीदते हैं । नीतियाँ हैं न । पैंतालीस साल पुरानी दुकान है । फ़ुटबॉल बेचा ही है किसी को खेलते नहीं देखा । सब क्रिकेट खेलते हैं । 

तीन नेशनल पार्टी होवै तो मजो आओगो

राजस्थान के एक ज़िले में एक पान वाले से बात हो रही थी । आपके सामने पेश कर रहा हूँ । 

सवाल- टीवी अख़बार देख कर तय करते हैं वोट किसे देना है ?

जवाब- नहीं जी । टाइम है न पैसा । पान की दुकान पर जो तरह तरह के बुद्धिजीवी आते हैं और बात करते हैं उससे अंदाज़ा लेते हैं कि देश कैसे चल रहा है । 

सवाल- वोट किस आधार पर देते हैं 

जवाब- देखो जी पचास प्रतिशत तो स्वार्थ जाति और धर्म के आधार पर वोट देते हैं । पचास देश हित का सोच कर देते हैं । 

सवाल- हिन्दू मुस्लिम दंगों के बारे में सोचा है 

जवाब- हाँ जी सोचा है । ये सब ऊपर से तय होता है । कुछ बातें जायज़ भी हैं । मुसलमान बच्चे पैदा करते हैं और अपने बच्चों को पढ़ाते भी नहीं है ं 

सवाल- आपके माँ बाप ने आपको पढ़ाया? 

जवाब- ना जी, साधन नहीं था ।

सवाल- पर मुसलमानों की आबादी के बढ़ने की दर हिन्दुओं से कम है । जनगणना की रिपोर्ट है । 

जवाब- ये नहीं मालूम मगर कुछ बात तो जायज़ हैं ।

सवाल- अच्छा भाषण और पैसे से लहर पैदा कर दे उस नेता को वोट देंगे

जवाब- ना जी । लहर का ज़माना गया । पैसे ख़र्च कर वोट नहीं मिलता । आदमी से फ़र्क पड़ता है । अब पुलिस तो सब जगह ख़राब है । लेकिन एक एसपी टाइट आ जाता है तो फ़र्क पड़ता है कि नहीं । 
सारे क्रीमिनल ज़िला छोड़ कर भाग जाते हैं ।

सवाल- कांग्रेस बीजेपी में से इस बार किसको 

जवाब- इस बार तो बीजेपी को । वैसे एक बात कहूँ जी । तीन नेशनल पार्टी की ज़रूरत है । कांग्रेस अच्छा बुरा करती है तो बीजेपी की मौज हो जाती है । नाराज़ लोग उसकी तरफ़ आयेंगे । फिर बीजेपी से नाराज़ लोग पाँच साल बाद कांग्रेस को देते हैं । तीसरी नेशनल पार्टी होती और वो भी मज़बूत तो दोनों की साँसें फूली रहती । हम दोनों को हराकर एक तीसरी पार्टी को चुन देते । तब मजो आओगो । अभी ये गए तो वो आ गए । दोनों एक जैसे ही हैं । 

पेड विज़ुअल का आ गया ज़माना


कांग्रेस और बीजेपी की रैलियों के घनघोर कवरेज़  के बीच आपने ध्यान दिया ही होगा कि एक साल पहले तक न्यूज़ चैनलों पर छाये रहने वाले अरविंद केजरीवाल और आम आदमी की पार्टी कम नज़र आ रही है । अरविंद केजरीवाल अब रोज़ाना प्रेस कांफ्रेंस करते कम दिखते हैं और उनमें न्यूज़ चैनलों की वैसी दिलचस्पी भी नहीं रही जो लोकपाल आंदोलन के दौरान हुआ करती थी । क्या राजनीति में वही पार्टी दावेदार है जो टीवी में ज़्यादा दिखती है और क्या जनता बिल्कुल ही यह नहीं पूछती समझती होगी कि टीवी में दिखने और रामलीला की तरह होने वाली भव्य रैलियों का अर्थशास्त्र क्या है ? यह किसका पैसा है जिसके दम पर बड़ी पार्टियाँ दरिद्र नारायण के भाग्य पलटने का दावा करती हैं । जनता ज़रूर समझती होगी कि करोड़ों ख़र्च कर राजनीति में सादगी और ईमानदारी लाने का  दावा फूहड़ है । 

2014 का चुनावा प्रचार माध्यमों के इस्तमाल का सबसे खर्चीला चुनाव होने जा रहा है । अरबों रुपये धूल की तरह झोंक दिये जायेंगे जिनका काग़ज़ पर कोई हिसाब नहीं मिलने वाला । सोशल मीडिया पर प्रायोजित तरीके से नारे फैलाये जा रहे हैं जिसके लिए महँगे दामों पर जनसंपर्क एजेंसियों को काम में लगाया गया है । इसके पीछे कितना ख़र्च हुआ पता नहीं चलेगा और सामने देखकर अंदाज़ा भी नहीं होगा कि यह किसी ख़र्चीले चुनावी रणनीति का हिस्सा है । आप ट्वीटर और फ़ेसबुक के स्टेटस को देखकर अंदाज़ा नहीं लगा सकेंगे कि यह आम जनता की सही प्रतिक्रिया है या किसी पार्टी की आनलाइन टीम के अनगिनत और अनाम कार्यकर्ताओं का कमाल है । मुझे नहीं मालूम कि चुनाव आयोग ब्रांडबैंड के इस्तमाल पर ख़र्च होने वाले करोड़ों रुपये का हिसाब कैसे लगायेगा और माँगेगा । क्योंकि पार्टियां कह देंगी कि फ़ेसबुक पर फलां विज्ञापन का पेज किसी चाहने वाले की रचनात्मकता की उपज है । जबकि आनलाइन कैंपन के लिए पेशेवर और क़ाबिल लोगों की टीम बनाई गई है जिस पर करोड़ो ख़र्च हो रहे हैं । 

इसीलिए आप देखेंगे कि तेज़ गति से कांग्रेस  बीजेपी के समर्थकों ने प्रायोजित तरीके से सोशल मीडिया के स्पेस को क़ब्ज़े में ले लिया है । जबकि अरविंद केजरीवाल ने स्वाभाविक तरीके से इसके ज़रिये लोगों को घरों से बाहर निकाला था । अरविंद की टीम ने पहले अपने अभियान को सोशल मीडिया पर बनाया फिर उसे ज़मीन पर लाकर दिखाया कि उनके साथ इतने लोग हैं । मेरी समझ में नरेंद्र मोदी इस काम को ठीक उल्टा करते हैं । वे अपने संगठन और साधन के ज़रिये लोगों को जमा करते हैं , रैली के मंच को भव्यता और नाटकीयता प्रदान करने के लिए नक़ली लाल क़िला बनाने से लेकर वीडियो स्क्रीन लगाते है और मंच से हर भाषण में सोशल मीडिया का धन्यवाद कर इशारा करते हैं । वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि उनकी रैली की चर्चा उनके जाने के साथ समाप्त न हो जाए । रैली शुरू होने से पहले भी समर्थक के भेष में कार्यकर्ता, उनके वास्तविक समर्थक, पार्टी के छोटे बड़े नेता सोशल मीडिया पर चर्चाओं का समा ं बाँध देते हैं । इस मामले में नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया है और अरविंद केजरीवाल ने अपनी राजनीति का रास्ता बदल कर सोशल मीडिया  से छोटी छोटी सभाओं की तरफ़ मोड़ दिया है । 

कांग्रेस पीछे लग रही है मगर वो भी है नहीं । वो पीछे इसलिए लग रही है क्योंकि उसके नेता राहुल गांधी को इस बार भट्टा परसौल की पदयात्रा और यूपी चुनावों की तरह कवरेज़ नहीं मिल रही है । शायद वे दिन गए जब कैमरे राहुल का चप्पे चप्पे पर पीछा करते थे ।  मोदी की रैली का कवरेज उनके आने से कई घंटे पहले शुरू हो जाता है और पूरा भाषण लाइव प्रसारित होता है । एक कारण यह भी हो सकता है राहुल गांधी ने अपनी चुनावी सभाओं को रणनीतिक और औपचारिक रूप नहीं दिया है । इस वक्त निष्कर्ष से पहले थोड़ा और इंतज़ार करना चाहिए कि इस बार मोदी का कवरेज ज़्यादा होता है या राहुल का या मीडिया दोनों में संतुल बनाता है । यह भी देखना होगा कि मीडिया सिर्फ मोदी और राहुल के बीत संतुलन बनाता है या अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, प्रकाश सिंह बादल, उद्धव ठाकरे को लेकर भी संतुलन बनाता है । लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि ये नेता बेचारे हैं । क्षेत्रीय दलों के पास भी मीडिया को अपने प्रभाव में लेने के कुछ कम साधन और हथकंडे नहीं होते । 

एक और बदलाव आप देखने जा रहे हैं । हालाँकि यह पहले भी होता था मगर इस बार बड़े पैमाने पर होने जा रहा है । रैलियों का कैसे प्रसारण होगा यह किसी चैनल के संपादक या रिपोर्टर तय नहीं करेंगे । रैली के आयोजक करेंगे । याद कीजिये कि दिल्ली में नरेंद्र मोदी की रैली की तस्वीरें सभी चैनलों पर एक सी थीं । एक ही तरह के कैमरा एंगल से ली गई तस्वीर सभी चैनल पर एक साथ दिखाई देती थी । रैली में रिपोर्टर भी गए थे मगर उनका मंच मुख्य मंच से इतनी दूर था कि कैमरे भी देखने में सक्षम नहीं थे । आयोजक क्रेन वाले कैमरे के सहारे भीड़ को ऊपरी एंगल से शूट कर रहे थे । क्रेन वाले कैमरे के ज़रिये बीस लोगों की भीड़ को सौ लोगों की तरह दिखने का असर पैदा किया जा सकता है । दिल्ली की रैली में खूब भीड़ आई थी मगर क्रेन से लगे आसमानी कैमरों ने आपके टीवी सेट पर उसका असर तीन गुना कर दिया था । 

यह दर्शकों के साथ किया गया एक विज़ुअल छल है । आपने जो भी तस्वीर देखी रैली के आयोजक की नज़र से देखी । इसलिए यह पेड न्यूज़ की तरह पेड विज़ुअल है । जिसके लिए पैसे का आदान प्रदान तो नहीं हुआ मगर आयोजकों ने अपने खर्चे पर सभी न्यूज़ चैनलों को वीडियो फ़ुटेज उपलब्ध कराई और आपने रैली को सिर्फ बीजेपी या कांग्रेस की नज़र से ही देखा । मुझे नहीं मालूम की चुनाव आयोग ने इस खर्चे को जोड़ने का कोई हिसाब निकाला है या नहीं । क्रेन वाले कैमरे लगाने और उनका फ़ीड सभी न्यूज़ चैनलों में पहुँचाने के खर्चे का हिसाब भी चुनावी खर्चे में शामिल होना चाहिए । 

इसलिए कहा कि इस बार का चुनाव प्रचार माध्यमों के इस्तमाल के लिहाज से बिल्कुल अलग होगा । दृश्यों को लेकर कलात्मक छल प्रपंच किये जायेंगे ताकि जनता को लहर नज़र आये । रैलियों में नारे लगाने के तरीके बदल जायेंगे । अब मंच से बड़े नेता  के आने के पहले स्थानीय नेता राहुल राहुल या मोदी मोदी नहीं चिल्लायेंगे बल्कि कार्यकर्ताओं या किराये की टोली भीड़ में समा जाएगी और वहाँ मोदी मोदी या राहुल राहुल करने लगेगी जिससे आस पास के लोग भई जाप करने लगेंगे और लहर जैसा असर पैदा किया जा सकेगा । इन सबके खर्चे होते हैं जिसका पता चुनाव आएगा कैसे लगायेगा । 

बात शुरू हुई थी टीवी पर अरविंद केजरीवाल की सभाओं की गुमनामी से । अरविंद एक साल से । लगातार सभायें कर रहे हैं । जिसमें बड़ी संख्या में लोग भी आते हैं मगर कैमरे नहीं होते । अरविंद इसे लेकर शिकायत भी नहीं करते । जिस उत्साह से वे पहले रामलीला मैदान के मंच से हर दूसरी लाइन में मीडिया का आह्वान और धन्यवाद ज्ञापन किया करते थे अब उन्होंने टीवी और ट्वीटर का रास्ता देखना बंद तो नहीं किया मगर कम कर दिया है । वे जानते हैं कि लोगों के पास जाकर ही कांग्रेस बीजेपी का मुक़ाबला कर सकते हैं । सियासत को बदलने वाले लोग नुक्कड़ों और गलियों में मिलते हैं, ड्राइंग रूम में नहीं । उन्हें यह भी अहसास होगा कि जनता उन्हें दूसरा मौक़ा नहीं देगी । पहले प्रयास में इम्तिहान पास करना है तो पूरी किताब पढ़नी होगी । कुंजी से काम नहीं चलेगा । किताब के हर पन्ने को पलटना होगा और हर घर में जाना होगा ।आम आदमी पार्टी यही कर रही है । राजनीति में टीवी और ट्विटर कुंजी हैं । किताब नहीं ।
( आज के राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित) 

मेरठ मानसिकता और आसाराम

आज शाम एक साथ कई चैनलों को पलटा तो ज़्यादातर जगहों पर आसाराम को लेकर कार्यक्रम चल रहे थे और कुछ जगहों पर आने की सूचना फ़्लैश हो रही थी । लगता है दीपक चौरसिया ने रेटिंग के मामले में स्थापित चैनलों को डरा दिया है । रेटिंग का खेल कितना आसान है । इसका सिम्पल फ़ार्मूला यह है कि जो भी दूसरा चैनल दिखा रहा है उसकी नक़ल करो । कोशिश करो कि उसी वक्त दिखाओ । जैसे रिन साबुन की नक़ल पर बाज़ार में नीले रंग के साबुन कई तरह के समानार्थी नाम से लौंच हो गया था । लोग रिम को रिन समझ कर ख़रीद लेते हैं । मेरे साथ भी हादसा हो चुका है । तब तक साबुन तो बिक ही चुका था । एनडीटीवी इंडिया, इंडिया टीवी, लाइव इंडिया, इंडिया न्यूज़ । क्या बात है भाई । राजस्थान में कोई फ़र्स्ट इंडिया नाम का न्यूज़ चैनल लाँच हुआ है । इंडिया ही इंडिया । कौन रिन है कौन रिम ये कौन तय करेगा । वैसे हिन्दी नाम वाला एक ही चैनल है आज तक । सहारा समय भी गिन सकते हैं । 

 रेटिंग का गणित यह है कि अगर आपके घर में मीटर है और आप किसी चैनल पर एक मिनट से ज़्यादा रूकते हैं तो रेटिंग मिल जाती है । फिर आप फ़ेसबुक पर चाहें जितना गरिया लें चैनलों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता । जब से आसाराम को लेकर इंडिया न्यूज़ की रेटिंग आई है तब से सब दीपक सुनामी से बचने के नाम पर बाकी चैनल फिर से आसाराम आसाराम जप रहे हैं । मैं यहाँ पत्रकारिता और गुणवत्ता की बात नहीं कर रहा । हिन्दी न्यूज़ चैनल आईपीएल के पैटर्न पर चलते हैं । जहाँ टेस्ट मैच के नियमों को लेकर भावुक होने का मतलब नहीं । सभी चैनलों की टीम आईपीएल की तर्ज़ पर ही गठित है । दीपक इस खेल के पोलार्ड ( क्रिकेट कम देखता हूँ , मक़सद धुआँधार बल्लेबाज़ी करने वाले से है ) साबित हुए हैं । दे दनादन । नीम हकीम ख़तरा ए आसाराम, आसाराम की आशिक़ी, आसाराम का अश्लील दवाखाना, आसाराम का मैटरनिटी हास्पिटल । ये तीन विज्ञापन है जो इस वक्त इंडिया न्यूज़ पर दिखाये गए । जो साढ़े नौ बजे से शुरू होकर एक के बाद एक आयेंगे । देखना है दीपक कितना टिकते हैं और सर्वदा नंबर वन आज तक की देहरी पार कर पाते हैं कि नहीं । 

फिर क्या था मैंने आज रात नौ बजे रिमोट लेकर चैनलों को पलटना शुरू कर दिया । हर जगह आसाराम ही आसाराम । इंडिया टीवी भी अधर्म गुरु जन्म से जेल तक कार्यक्रम दिखा रहा है । एबीपी न्यूज़ पर भी आसाराम पर एक न्यूज़ आ रहा है । नारायण साईं पर रेप का आरोप लगा है । आज तक पर भी एक शो आ रहा है जिसका नाम है आसाराम की डर्टी पिक्चर । न्यूज़ 24 चैनल पर कार्यक्रम आ रहा है जिसका स्लग है पापा के महापाप में बेटा भी पा्टनर । शो का नाम है नारायण नारायण । आई बीएन सेवन पर भी आसाराम के बेटे की ख़बर है । लेकिन वहाँ बाकी ख़बरें भी हैं । ज़ी न्यूज़ और लाइव इंडिया पर बाकी ख़बरें भी हैं । न्यूज़ नेशन पर राजनीतिक चर्चा चल रही है और न्यूज़ एक्सप्रेस पर यूपी की लैपटॉप वाली ख़बर है । ये मैं नौ बजे के प्राइम टाइम का आँखों देखा हाल बता रहा हूँ । नीचे के चैनल रेटिंग को लेकर कम परेशान हैं शायद ! 

मतलब साफ़ है दीपक ने चोटी के तीन चैनलों को डरा दिया है । टीआरपी की दुनिया दिलचस्प होती है । यहाँ नियम नहीं चलते । इनके अपने नियम होते हैं । कभी रेटिंग के नियमों के तहत इन चैनलोंं का मूल्याँकन किया जाना चाहिए । शीर्षासन करके भी देखिये नज़रिया अलग हो जाता है । ( यह पंक्ति फ़ेसबुक पर एक स्टेटस से प्रेरित है )  इस भयानक कंपटीशन में आज तक कैसे नंबर वन बना रह जाता है । यह कमाल है । इन सब चैनलों को चलाने वाले सम्पादक अधिकारी कभी न कभी एक दूसरे के साथ, एक दूसरे के आमने सामने, एक दूसरे के मातहत काम कर चुके हैं । यह भी एक दिलचस्प अध्याय है जिस पर इन्हीं में से कोई लिखे तो पढ़ने को रोचक चीज़ें मिलेंगी । रेटिंग के तनाव को झेलना आसान नहीं होता होगा । हर दिन एक फ़ार्मूला खोजना चुनौती भरा काम है । रोज़ ही इन्हें अपने साथी, पूर्व सहयोगी, पूर्व सम्पादक से लड़ना होता है । मैं इस तरह के अनुभव और दबाव से दूर रहा हूँ इसलिए बाहर से नैतिक टिप्पणी नहीं करूँगा । 

फिर न्यूज़ 24 को आसाराम का लाभ क्यों नहीं मिला । वहाँ भी कम बहस नहीं हुई है । ऐसा ही नज़ारा दर्शक निर्मल बाबा के वक्त देख चुके हैं । लगता है कि हमें कोई न कोई ग़ुबार निकालने के लिए चाहिए । जिसका प्रतीक कभी निर्मल बाबा तो कभी आसाराम बन जाते हैं । ग़ुबार निकलने के बाद न चैनल को निर्मल बाबा से दिक्क्त होती है न दर्शक को । कुछ लोग फ़ेसबुक पर इसे उजागर भी करते रहते हैं मगर इन पर कोई असर नहीं होता । अन्ना हज़ारों के वक्त भी यही हुआ था । लाइव इंडिया ने अन्ना को बिठाकर एक घंटे का कार्यक्रम किया । उसे कई बार दिखाया गया । जब रेटिंग आई तो लाइव इंडिया उछला हुआ था । बस सारे चैनल अन्ना को स्टुडियो बुलाने लगे । रेटिंग ही रेटिंग । एबीवीपी ने प्रधानमंत्री शुरू किया तो आजतक ने वंदे मातरम बना दिया । एक ने स्पीड न्यूज़ शुरू किया तो सबने चालू कर दिया । ज़ी ने कौटिल्य को पहले दिखाया (शायद) तो दीपक ने उसे लपक लिया और केबीसी में बदल दिया । उसी तरह डिबेट ही डिबेट शुरू हुआ । पहली बार अंग्रेज़ी का आइडिया हिन्दी में आया । ये अर्णब गोस्वामी का हिन्दी चैनलों की दुनिया में योगदान है । 

एक तरह से हर हिन्दी चैनल दूसरे की नक़ल कर चुका है । यानी सब एक दूसरे के अहसानमंद हैं । कोई कोलंबस कोलंबस नहीं चिल्लाता । सब कोलंबस का नक़्शा मार कर अपनी कोलोनी काटने निकल पड़ते हैं । प्लाट ही प्लाट । रेटिंग की दुनिया का एक औसत नियम नज़र आता है । कुछ भी अलग मत करो । जो एक कर रहा है उसी को अलग अलग तरीके से करो । स्लग की  भाषा सबकी एक जैसी, नरेटी दाब कर नाक से बोलने वाला वायस ओवर, जैसे वीओ करने वाले को वायस ओवर ख़त्म कर तुरंत फ़ारिग़ होने भागना हो । सब चैनल पर नकबज्जा वीओ सुनाई देगा । जैसे पटना में कभी क़ब्ज़ दूर करने की  दवा बेचने वाला पपीन पपीन बोलता था । सारी रचनात्मकता शो के नाम को लेकर निकाली जाती है । नीम हकीम ख़तरा ए आसाराम । वाह ।  

हिन्दी चैनलों को पत्रकारिता के टेस्ट मैच के नियमों से हम कब तक देखते रहेंगे । कोई तो होगा जो इन्हें देख रहा होगा या फिर मीटर वालों की दुनिया के बाहर कोई नहीं देखता होगा । इसे मानने का आधार क्या है । दर्शक तो होंगे ही इनके पास । यहाँ निरर्थकता में ही सार्थकता है । इनके खाते में अच्छे काम भी है जिनका इस्तमाल आलोचना के वक्त किया जाता है । कुछ शानदार काम भी हैं । सब नैतिक रूप से यह तो कह ही सकते हैं कि उन्होंने एक ठग साधु के कारनामे दुनिया के सामने उजागर कर दिये । स्ट्रींगर रिपोर्टर मिलकर आसाराम का खेत खलिहान तक खोद लाये हैं । सत्यता और तरीके पर टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ ।  मैं कौन  होता हूँ करने वाला । आसाराम पर बने तमाम कार्यक्रमों की भाषा और कंटेंट का गहन विश्लेषण होना चाहिए । पता नहीं क्यों गुप्त रोग दूर करने वाली तड़प भी दिखाई दी । 

कभी यह भी तो सोचिये आसाराम अंग्रेज़ी चैनलों में क्यों नहीं हैं । क्या पत्रकारिता वर्ग के हिसाब से नहीं होती । दूसरा मेरठ से छपने वाली पत्रिकाओं ने हिन्दी साहित्य और पाठकों की दुनिया में जो भूचाल पैदा किया उसने लोकप्रियता के लिए तड़प रहे हिन्दी के चैनलों को भी लपेट लिया । मेरठ ज़िंदाबाद । कभी मेरठ से कोई चैनल लाँच हो जाए तब देखेंगे सत्यकथाओं की जननी मेरठ के क़लमकार उनकी नक़ल मार रहे चैनलों को कैसी चुनौती देते हैं । मैं मेरठ को ब्रांड नहीं कर रहा । मुझे वो शहर बेहद पसंद है । तब तक रेटिंग की दुनिया का मज़ा लीजिये । 

आज जमाने बाद न्यूज़ चैनलों को देर तक देखा । अच्छा लगा यह देखकर कि कुछ भी नहीं बदला है । 

कोई है !

+355 66 917 0460 दो दिनों से मुझे इस नंबर से फोन आ रहे हैं । बाहर के मुल्कों से फ़ोन कम ही आते हैं मगर आते ही आशंका क्यों होती है । ये कोड अल्बानिया नामक मुल्क का है । गूगल ने बताया । मिस्ड काल आता है और उठाने से पहले कट जाता है । एक बार काल बैंक भी किया मगर कोई जवाब नहीं मिला । +35 कोड डाला तो गूगल ने बताया कि यह कोड छोटे यूरोपीय देशों के लिए इस्तमाल होता है इसके आगे का नंबर देश का होता है । 

कौन होगा जो मुझसे बात करना चाहता होगा । अल्बानिया में मेरा कौन हो सकता है । आशंकित भी होता हूँ और रोमांचित भी । कोई बात करना चाहता होगा और नंबर मिलाकर काट देता होगा । पर कौन होगा । गिनती के चार पाँच मित्र ही बाहर हैं । बहरहाल एक बेकार दोपहर को बेकार विषय पर लिख रहा हूँ । कोई है ! अल्बानिया में कोई है ! हिन्दी में पढ़ सकता है क्या ! अजीब है न । हो सकता है कि फोन आ जाए और कोई परिचित ही निकल आए । तब ऊपर की सारी बातें बेकार । 

कुछ बेतरतीब तस्वीरें







रेल की भी ज़रूरत है

सिर्फ शौचालय ही नहीं रेल की भी ज़रूरत है । यह तस्वीर पिछले साल छठ के मौक़े पर बिहार जानो वाली रेल गाड़ी में खिंची थी । सोचिये यह यात्री शौचालय में यात्रा करने को मजबूर है । बाक़ी यात्रियों के बारे में भी सोचिये जो इस ट्रेन में यात्रा कर रहे थे । उन्हें तो शौचालय जाने का मौक़ा भी नहीं मिला होगा । 

नई दिल्ली के प्लेटफार्म पर और भी चीज़ें देखने को मिली । ग़रीब मज़दूरों ने बोरे में सामान ले जाने का विकल्प निकाल लिया है । बताया कि बोरा चूहा और चोर काट लेता था । ये ड्राम बैठने के भी काम आता है । 

खुले से कमोड तक, शौचनीय है यह मसला

देखो गधा मूत रहा है । यहाँ पेशाब करना मना है । तुम्हारा बाप पेशाब कर रहा है । पेशाब करने पर जुर्माना । हिन्दुस्तान के किसी भी शहर के दर ओ दीवार को देखिये शौचालय की कमी से जूझते ऐसे नारे मिल जायेंगे । हम खुले में शौच करते हैं । जहाँ भी खुला देखते हैं शौच करते हैं । बर्फ़ी फ़िल्म का नायक जब पेशाब कर रहा होता है तब सामने के खेत में काम कर रहे मज़दूर अचानक खड़े हो जाते हैं और बर्फ़ी हड़बड़ा कर चेन बंद करता है । जाली एल एल बी में जब अरशद वारसी परेशान होकर दिल्ली की एक फुटपाथ पर पेशाब करने वाला होता है तो पीछे से एक आवाज़ आती है साहब यहाँ हमारा पूरा परिवार सोता है आप पेशाब आगे जाकर कर लो । ऐसे कई प्रसंग आपको हिन्दी सिनेमा में भी दिख जायेंगे ।

खुले में शौच करना शहरों के विस्तार के साथ साथ एक समस्या के रूप में देखा जाने लगा है । इससे होने वाली बीमारियों और मौत को लेकर जागरूकता फैलाई जा रही है । आज भी आधा हिन्दुस्तान खुले में शौच करता है । हमारी भी यात्रा खुले में शौच करने से बंद बाथरूम की रही है । बचपन में खेलते खेलते जब छत पर पहुँच जाते थे तो छत पर इंगलिस लैंट्रीन का सामान पड़ा देख हैरानी होती थी । बाद में यही इंगलिस इंडियन स्टाइल के नाम से मशहूर हुआ ।मेरे  गाँव में भी किसी सरकारी योजना के तहत इंगलिस लैट्रीन अवतरित हुआ था । लोगों ने बहुत दिनों तक शौचालय ही नहीं बनवाया । कई प्रसंग याद हैं । गाँव के लोगों के । गाँव के लोग जब पटना आते तो शौचालय जाने की बजाय गंगा किनारे तरफ़ चले जाते थे । फ़्लश चलाने  के लिए भयानक ट्रेनिंग होती थी । बाल्टी लेकर ज़ोर से पानी मारने का प्रसंग याद है । मैंने ऐसा शौचालय भी इस्तमाल किया है जिसे सर पर मैला ढोने वाले साफ़ किया करते थे । तब इसे लेकर किसी भी प्रकार की संवेदनशीलता नहीं थी । कई साल बाद बिंदेश्वर पाठक ने मैला ढोने वाली महिलाओं पर एक किताब छापी अलवर की राजकुमारियाँ । इसके लिए एक महिला से बात कर उस पर लिखने का मौक़ा मिला । खुद अपराधी जैसा महसूस कर रहा था उनकी बात सुनकर । 

फिर एक दौर आया कमोड से टकराने का । एक गेस्ट हाउस में मेरे दो रिश्तेदार अंदर जाकर लौट आए । बाहर आकर पिताजी से कहा भाई जी पाल्ला ( ठंड) मार दिया, उतरा ही नहीं । दोनों ही बारी बारी से असफल होकर बाहर आ गए थे । कहा कि कमोड पर बैठते ही अइसा ठंडा लगा कि सिकुड़ गया । पिताजी ने सबको अंदर ले जाकर समझाया था कि कैसे इस्तमाल करना है । मैं  खुद एक रिश्तेदारी में गया था । कमोड पर बैठने की कला मालूम नहीं थी । जूता पहने उस पर ऐसे बैठ गए जैसे खेत में बैठते थे । कमोड की सीट टूट गई । बड़ी शर्म आई । चोट लगी सो अलग । 

भारतीय रेल इस बात का गवाह है कि हम शौच करने के मामले में एक असफल राष्ट्र हैं । फ्लश दबायें इसका भी निर्देश लिखा होता है । तब भी कई लोग फ़्लश भूल जाते हैं । निर्देश न हो तो आधे लोग शौच के बाद फ़्लश दबाना भूल जायें । मग को चेन से बाँध कर रखना पड़ता है कि कही कोई वहाँ से निकाल कर चाय न पीने लगे । यही नहीं रेल में शौचालय की दो राष्ट्रीयता होती है । एक इंडियन और एक इंगलिस । इसी बीच एक बड़ा बदलाव आया है । कमोड का मध्य वर्गीय जीवन में खूब विस्तार हुआ है । अब अपार्टमेंट में इंडियन शैली का शौचालय नहीं होता है । कमोड ही कमोड  । टीसू पेपर पर नहीं लिखना चाहता । हाल ही में एक मित्र ने बताया कि कमोड की सीट को गिरा कर रखा जाता है , उठा कर नहीं । 

तो जनाब एक राष्ट्र के रूप में हमें शौचालय का इस्तमाल करने की व्यापक ट्रेनिंग दी गई जो अभी तक जारी है । हम खुले में स्वाभाविक हैं बंद कमरे में थोड़ा कम । हाँ पुरुषों के खुले में शौच की मानसिकता को मर्दवादी बनावट के तहत भी देखना चाहिए । देर तक रोकने की ट्रेनिंग का सम्बंध इस बात से भी है कि समाज लिंग के मसले को कैसे नियंत्रित करता है । मर्द इस दुनिया को अपने लिंग के अधीन समझता है इसलिए जहाँ तहाँ चालू हो जाता है । दिल्ली जैसे बड़े शहर मे अब कामगार औरतों को मर्दों की तरह फ़ारिग़ होते देखने लगा हूँ । महिलाओं के लिए शौचालय ही नहीं है । घर और कहीं पहुँचने की दूरी से रोकने की सामाजिक और सांस्कृतिक नियंत्रण की ट्रेनिंग कब तक टिकेगी । गाँवों में बरसात के वक्त अंधेरे में शौच के लिए जाती औरतों को सर्प दंश से लेकर बलात्कार और गुज़रती गाड़ियों के हेडलाइट का सितम झेलना पड़ता है । आज भी । 

इस बीच मूत्र विसर्जन की बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए छोटी छोटी टाइलों की खोज की गई जिस पर देवी देवताओं की तस्वीर होती है ताकि लोग जहाँ तहाँ पेशाब करना छोड़ दें । तब किसी की धार्मिक भावना आहत नहीं होती । तब वीएचपी और बीजेपी को नहीं दिखता । आपको इसी दिल्ली के कई अपार्टमेंट के बाहर की दीवार पर ऐसी टाइलें मिल जायेंगी । कई दफ़्तरों में सीढ़ियों के कोने में देवी देवता वाली टाइल मिलेगी जो थूकने से लेकर मूतने तक को रोकने के लिए लगाईं गईं हैं । कई अपार्टमेंट में स्टडी से जुड़े शौचालय को देवालय में बदल दिया जाता है । किसी को दिक्कत नहीं होती । 

शौचालय को लेकर हम साम्प्रदायिक जातिवादी और अंध राष्ट्रवादी भी हैं । अंबेडकर ने सही कहा कि यह सिस्टम अछूतों से हिंदुओं की गंदगी और मल उठवाता है । कई लोग शौचालय को पाकिस्तान कहते हैं । फ्रांस और ब्रिटेन के बीच जब साहित्यिक सर्वोच्चता को लेकर दावेदारी होती थी तो फ़्रेंच ने कमोड की सीट की जगह शेक्सपीयर की किताब बना दी थी यानी वे शेक्सपीयर को पखाना करने लायक समझते हैं । पहले अंग्रेज़ी अख़बारों का सप्लिमेंट शौचालय में पढ़ा जाता था आजकल आईपैड भी जाता है । लोग वहाँ से भी ट्वीट करते हैं । दिल्ली में बिंदेश्वर पाठक ने शौचालय म्यूज़ियम बनाया है कभी वहाँ जाकर देखियेगा । 

जैसे जैसे शहरीकरण का विस्तार होगा शौच की समस्या उग्रतर होती जाएगी । हो रही है । अब इसे शर्म के रूप में देखा जा रहा है । पहले जब बंद कमरे में शौच नहीं था तब यह शर्मनाक नहीं था । शौचालय और देवालय के विवाद में पहले बीजेपी ने मूर्खता की और अब मोदी के बयान के बाद की चुप्पी उसी मूर्खता का विस्तार भर है । बेवजह दोनों पक्ष बयान की कापी निकाल कर पढ़ रहे हैं । कांग्रेस हो या बीजेपी सबकी सरकारों का रिकार्ड ख़राब है इस मामले में । एक अच्छी शुरूआत हो रही थी मगर व्यक्तिवादी राजनीति के चरित्र ने उसका गला घोंट दिया । यह मुद्दा ज़रूरी है । इसमें जयराम या मोदी ने धार्मिक भावना को आहत नहीं किया है । हाँ दोनों तरफ़ के मूर्ख आहत हो गए हैं । इनके लिए आहतालय बनवा दिये जायें ।