एक ख़ूबसूरत लड़की





















डेसी इंद्रयाणी। इंडोनेशिया की एक मुस्लिम लड़की। ख़ूबसूरत....शायद हां। जितनी मेरी नज़र से नहीं उससे कहीं ज़्यादा ख़ुद की नज़र में ख़ूबसूरत है डेसी इंद्रयाणी। क्वालालंपुर के क्लास रुम में अचानक नज़र पड़ गई। अपने कैमरे से डेसी खुद की तस्वीर उतार रही थी। मेरे ग्रुप में होने के कारण जब भी साथ बाहर गए अचानक लगा कि डेसी साथ नहीं है। मुड़ कर देखा तो अपनी तस्वीर खुद खींच रही है। कम और बहुत धीरे बोलने वाली डेसी से कहा भी कि आपकी तस्वीर मैं ले लेता हूं। उसने अपना कैमरा दिया भी। लेकिन उसके बाद भी वो खुद की तस्वीर उतारने में मशगूल हो गई।

ख़ूबसूरती बीमारी होती है। बचपन में एक लड़की की याद आ गई। हर वक्त बेसन पोते रहती थी। और अधिक गोरी होने की चाह में। पहली बार चेहरे पर खाने पीने का सामान बेसन, खीरा कद्दू मैंने उसी के चेहरे पर देखा था। वो भी बार बार अपने को देखती थी। डेसी की भी यही आदत। जब टोका कि डेसी ये क्या करती हो। हल्के से मुस्कुराया मगर फिर वही कोशिश। एक हाथ में कैमरा और स्माइल। क्लिक। डेसी नहीं मानी।




















बाद में डेसी के कैमरे की तस्वीरों को देखने लगा। सैंकड़ों तस्वीरें उसी की। उसी की खिंची हुई। अलग अलग पोज़ में। चेहरे में कुछ तो जादू था कि उसकी तस्वीर उससे भी खूबसूरत लगने लगती थी। वो कभी भी खुद को निहारते हुए नहीं थकती है। उसे अच्छा लगता है खुद को देखना। डेसी इंद्रयाणी इंडोनेशिया के सरकारी टीवी टीवीआरआई की एंकर हैं। फिल्मों, फैशन मैगज़ीन और मॉडल्स की तस्वीरों ने मिल कर डेसी की नज़र बदल गई है। हम सब खुद को निहारते हैं मगर बीमारी की हद तक नहीं।

पर शायद यह सब उसके लिए था। अपनी ख़ूबसूरती को लेकर अहंकार नहीं था। बस एक खुशफ़हमी थी। ख़ूबसूरत होने का अहसास किसी को भी और खूबसूरत बना सकता है।


मैंने कई लड़कियों को देखा है खूबसूरत लड़कियों को निहारते हुए। उनकी नज़रें भी ठीक वैसे ही ऊपर नीचे होती हैं जैसे हम पुरुषों की नज़र। मर्दों की नज़र तो विकसित ही कुछ इस तरह की गई है कि कोशिश करनी पड़ती है कि हम लड़कियों को ऐसे न देखें। इस एक पुरुषोचित आदत से मुक्ति पाने के लिए न जाने कितना संघर्ष करना पड़ा। जब सहज हुए तो लड़कियों के साथ दोस्ती स्वाभाविक लगने लगी। वो दोस्त बनने लगीं। देखे जा सकने वाली ऑबजेक्ट से निकल कर। सिमोन दा बोउआर की किताब पढ़ते वक्त रातों की नींद उड़ गई थी। खुद पर शर्म आने लगी थी। मर्दों की उठती गिरती नज़रों पर पहले से ज़्यादा नज़र पड़ जाती है। राखी सावंत का वो बेहूदा मगर असली गाना...देखता है तू क्या...कई बारों कानों के पास आता है तो मर्दों की उन आंखों की बेचैनी की तस्वीर उभरने लगती है। इस बात का डेसी की बात से कोई लेना देना नहीं। बस ढूंढ रहा था कि कहीं डेसी की नज़र भी तो इन्हीं नज़रों से नहीं बनी।

( मैंने डेसी को कहा था कि तुम्हारे बारे में अपने ब्लॉग पर लिखने वाला हूं। तस्वीर में जो लंबी है वही डेसी है)

सफ़दर अली ख़ान लौटना चाहते हैं

सेवा में,
सचिव,
कार्मिक विभाग
भारत सरकार,
(सितंबर १९४७)

मैं,सफ़दर अली ख़ान भारत की सेवा करना चाहता हूं। मैंने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया था क्योंकि मेरे दोस्तों और सह कर्मचारियों ने दबाव डाला था लेकिन अब मुझे अपने फ़ैसले पर अफ़सोस हो रहा है। मेरी बूढ़ी मां बहुत बीमार है। वह भी मुझे पाकिस्तान जाने नहीं देना चाहती। मैंने पाकिस्तान का पक्ष लेकर एक बड़ी भूल की है। मैं सच कह रहा हूं। मेरा अपना फ़ैसला नहीं था। दबाव में फ़ैसला किया था। मैं पहले भारतीय हूं और आखिर में भी भारतीय हूं। मैं भारत में रहना चाहता हूं।भारत में ही मरना चाहता हूं। इसलिए मुझे अनुमति दी जाए कि भारत में रहूं।

मुरादाबाद में तैनात गार्ड सफ़दर अली ख़ान भारत में रहना चाहते थे। उनकी इस चिट्ठी की सिफ़ारिश शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद ने की थी। मगर गृह मंत्रालय ने कलाम की इस चिट्ठी को अस्वीकार कर दिया। जवाब मिला कि पार्टिश काउंसिल का फ़ैसला है कि जब एक बार फ़ैसला कर लिया तो उस पर कायम रहना चाहिए। गृहमंत्री सरदार पटेल आज़ाद को लिखते हैं कि आपने जिसकी व्यक्ति की बात की है, मुझे नहीं लगता है कि उसे फैसला बदलने की अनुमति मिल पाएगी।

नवंबर १९४७। ठीक ऐसा ही मौसम रहा होगा। थोड़ी सर्दी अधिक होगी। सफ़दर अली ख़ान उन पांच हज़ार रेलवे कर्मचारियों में शामिल थे,जिन्होंने पाकिस्तान जाने का अपना फ़ैसला बदल दिया था। वो अब वहीं रहना चाहते थे जहां वो रहते आए थे। लेकिन सांप्रदायिक हो रही राजनीति ने इन पर पाकिस्तान के एजेंट होने का लेबल लगा दिया। लखनऊ रेलवे स्टेशन पर हिंदू कर्मचारियों ने हड़ताल की धमकी दे दी। कहा कि अगर इन्हें अब भारत में रहने दिया गया तो ठीक नहीं होगा। नतीजा रेलवे के अफसर भी इन कर्मचारियों पर दबाव डालने लगे कि वो पाकिस्तान जाने का अपना फ़ैसला न बदलें।

फॉल्टलाइन्स ऑफ नेशनहुड (रोली बुक्स)। इस किताब में विभाजन और राष्ट्रवाद पर शोध करने वाले इतिहासकार प्रोफेसर ज्ञानेंद्र पांडे सफ़दर अली ख़ान की इस कहानी के बहाने बता रहे हैं कि कैसे एक भ्रम की स्थिति बन गई थी। हर कोई एक दूसरे को हम और वो की ज़ुबान में पुकारने लगा था। यहां तक कि नेहरू भी कहते हैं कि सिर्फ उन्हीं हिंदू मुसलमान को यहां रहना चाहिए जो इसे अपना मुल्क समझते हैं। पांडे बता रहे हैं कि कैसे हिंदू और मुसलमान होने को राष्ट्रवाद की कैटगरी से जोड़ दिया जाने लगता है।


जब दिल्ली में पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी ने कहा कि हर पाकिस्तानी में थोड़ा हिंदुस्तानी रहता है तो मुझे सफ़दर अली की बहुत याद आई। सोचता रहा कि कितना बेमन से सफ़दर पाकिस्तान गए होंगे। कितना रोया होगा। कितना कोसा होगा खुद को। क्यों किया दोस्तों के दबाव में पाकिस्तान जाने का फ़ैसला। कितना दिल टूटा होगा उस भारत सरकार से जिसने सफ़दर को उसके पुराने मोहल्ले में रहने का मौका नहीं दिया। कहीं सफ़दर अली ख़ान और आसिफ़ अली ज़रदारी के बीच कोई रिश्ता तो नहीं है। वो एक दूसरे को जानते तो नहीं होंगे। उम्र का काफी फ़ासला रहा होगा। फिर भी क्या पता सफ़दर के मोहल्ले में ही आसिफ ने अपना बचपन बिताया हो और सफ़दर की बातें उसके दिलों में उतर गईं हों।

नवंबर की इस सर्दी में सफ़दर अली ख़ान, गार्ड मुरादाबाद, की बहुत याद आ रही है। मज़हब के चश्मे से राष्ट्रवाद को देखते देखते हमने शक की तमाम इमारतें खड़ी की हैँ। जहां एक साधु स्वाभाविक रुप से राष्ट्रभक्त होता है और एक मुसलमान देशद्रोही हो जाता है। सुदर्शन कहते हैं आतंकवाद का मज़हब नहीं होता, तो फिर आडवाणी क्यों विदिशा की रैली में कहते हैं कि साध्वी को फंसाया जा रहा है। पुलिस सबको फंसाती है। आडवाणी जानते हैं। कश्मीर टाइम्स के पत्रकार गिलानी को भी आतंकवादी बना दिया गया था। मेरे शो में जेल ले जाते हुए अपनी पुरानी तस्वीर देख कर गिलानी की आंखें भर आईं थीं। तब आडवाणी ने क्यों नहीं कहा था कि गिलानी को फंसाया जा रहा है। वो गृहमंत्री थे।

बहरहाल आप प्रोफेसर ज्ञानेंद्र पांडे की इस किताब को ज़रूर पढ़ियेगा। दस्तावेज़ों के साथ पांडे बताते हैं कि कैसे पाकिस्तान का मतलब कोई मुल्क नहीं था। सभी तरफ एक भ्रम की स्थिति थी। अलग पाकिस्तान को अलग मुल्क समझा गया। पंजाब और बंगाल में लीग के कई समर्थकों और नेताओं में इस बात को लेकर आपत्ति थी कि पूरे महाद्वीप के हिंदुओं और मुसलमानों को अलग कर दिया जाएगा। बंगाल मुस्लिम लीग के सचिव अबुल हाशिम कहते हैं कि आज़ाद भारत में यहां रह रहे सभी मुल्कों को रहने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए। अप्रैल १९४७ में जिन्ना ने माउंटबेटन से गुज़ारिश की थी कि बंगाल और पंजाब की एकता से खिलवाड़ मत कीजिए। इनका चरित्र,संस्कृति सब साझा है। बंगाल मुस्लिम लीग के नेता हुसैन सुहरावर्दी ने वायसराय ने कहा था कि वो नवंबर १९४७ तक विभाजन के फैसले को रोक दें। फ़ज़्लुल हक़ ने १९४० में लाहौर में पाकिस्तान घोषणा पढ़ा था। फ़ज़्लुल हक़ ने भी कहा था कि देश को बांटने से तो अच्छा है कि अंग्रेज़ थोड़ा और रुक जाएं।

नवंबर में ही आसिफ अली ज़रदारी ने क्यों कहा कि हर पाकिस्तानी में थोड़ा हिंदुस्तानी और हर हिंदुस्तानी में थोड़ा पाकिस्तानी रहता है। क्यों मुस्लिम लीग के नेता नवंबर तक ठहरने की बात कर रहे थे। क्यों रेलवे के पांच हज़ार लोग नवंबर में ही पाकिस्तान जाने के फ़ैसले को बदलना चाहते थे। क्यों हिंदू कर्मचारी इनके रुकने के फ़ैसले का विरोध करने लगे। आडवाणी, सुदर्शन और प्रज्ञा का राष्ट्रवाद धर्म की इन गलियों से क्यों गुज़रता है? गेरुआ राष्ट्रवाद गेरुआ आतंकवाद का विरोध क्यों कर रहा है? एक बेकसूर साध्वी का बचाव हो रहा है या फिर किसी सफ़दर अली ख़ान को धमकाया जा रहा है।

सफ़दर अली ख़ान। अपनी कब्र में न जाने किस मुल्क में होने का ख़्वाब देखते होंगे। ऐसे बहुत से सफ़दर थे जो डर से, दबाव में इधर से उधर हो गए। सफ़दर अली ख़ान को कोई लौटा लाता। मुरादाबाद के उस घर में...जहां वो अपनी बूढ़ी मां की तीमारदारी कर लेता और दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ियों को हरी झंडी दिखा देता। कोई है हिंदुस्तान में जो उठ कर कह दे कि मेरे भीतर भी थोड़ा पाकिस्तानी रहता है। सुना है सिंध से आए हैं आडवाणी जी।

मां क्यों नहीं देख पाती बेटी का घर

बहुत सारी मांओं ने अपनी बेटी का घर नहीं देखा होगा। अपनी लाडली का ससुराल कैसा है बहुत मांओं ने नहीं देखा है। बेटी का नहीं खाते हैं, इस बेहूदा सामाजिक वर्जना के अलावा कई अन्य कारण भी रहे होंगे जिनके कारण मांओं ने अपनी ब्याहता बेटियों का घर नहीं देखा होगा।

बिमला देवी से मिलते ही अपने गांव की तमाम मांओं का चेहरा सामने घूम गया। गांव में अपने घर की छत पर खड़ी होकर मैंने कई मांओं को दूर से आती बेटी की बैलगाड़ी, टांगा और अब कार या बस को निहारते देखा है। तब समझ नहीं पाता था कि ये आज क्यों रास्ता देख रही हैं। बिमला देवी से मिलने के बाद पता चला कि मांएं अपने बेटियों का हर दिन रास्ता देखती हैं।

मलेशिया एयरलाइंस की सीट नंबर १४ के बगल में बिमला देवी। १९३४ की पैदाइश। दस्तखत करना जानती थीं। मिलते ही कहा मदद कर देना बेटा। हां कहने के बाद किताब पढ़ने लगा। बिमला देवी खुद से बोलने लगीं। पहली बार बेटी का घर देखा है।
मेरी बेटी बहुत अमीर है। सोलह साल हो गए शादी के। लगता था कि किस घर में ब्याही है। ठीक है या नहीं। अब सकून हो गया है। सब ठीक है। सारी मौज है। सिर्फ बच्चा नहीं हुआ है। शादी के अगले ही दिन मेरी बेटी मलेशिया चली गई। वही आती जाती रही। शादी के बाद बेटी और उसका सूटकेस ही दिखाई दिया। घर नहीं देखा था। अब देख लिया है।

सुनते ही मैं सन्न रह गया। १६ साल तक इस मां ने बेटी के घर की क्या कल्पना की होगी? क्या सोचती होगी कि मेरी बेटी का घर कैसा है? फिर ख्याल आया कि बिमला देवी अकेली नहीं हैं। मेरी मां ने भी अपनी बेटियों का घर नहीं देखा। बड़ी दीदी की शादी के बाद वो कभी गाज़िपुर नहीं जा सकीं। पता नहीं किसी ने बुलाया या नहीं। बेटियों का वही घर देखा जहां उनके पति काम करते हैं। पुश्तैनी घर नहीं देख पाई। मेरी चाचियों ने तो इतना भी नहीं देखा।

इसे हम बाप या पुरुष कम समझेंगे। मांओं का बड़ा गहरा रिश्ता होता है बेटियों से। हर मां के भीतर एक बेटी होती है। जो अपना घर छोड़ कर आई होती है। शादी होते ही उसका घर मायका कहलाने लगता है। पता नहीं अपने पुरानी घर की यादों के बीच कैसे कोई लड़की, कोई मां और कोई बेटी नए और अनजाने घर को सजाने में लग जाती है। अपना बनाने में लग जाती है।

इन सब सवालों के जवाब ढूंढने का वक्त किसके पास है। सामाजिक संरचना में विकल्पों के लिए जगह कम होते हैं। बिमला देवी एयर होस्टेस को देख कर कहने लगी..बिचारी इसकी मां कितनी फिकर करती होगी। बिल्कुल बारात में जैसे स्वागत करते हैं, हंस हंस के खिलाते हैं, वैसे ये हम सब की खातिरदारी कर रही है।बिमला देवी को लगा कि यह मेरी ही बेटी है। रोकते रोकते उस खूबसूरत एयर होस्टेस को कह दिया कि बेटी तुम भी आराम कर लो। कुछ खा लो। केवल हमारा ही ख्याल कर रही हो। एयर होस्टेस की उस मुस्कान में अचानक अपनापन दिखा। वर्ना मुस्कुराना तो उनका काम ही है।

सर्दी के साथ क्यों आती है

हिमालय से उतर कर आती हवाओं में
पुरानी बातों का जैसे कोई बिस्तर बिछा हो
किसी बर्फ सी जमी परतों के भीतर
जैसे पुरानी यादें धीरे धीरे पिघल रही हों
बढ़ने लगता है अकेलापन सर्दी के आते ही
जैसे गरम होने लगता है कोई चादरों में लिपट कर

कभी बाबूजी का मफलर लपेटना
कभी उनकी खनकती आवाज़ का डर
शाम को घर लौटने से पहले आमलेट खाना
घर के बंद होते दरवाज़ें,खिड़कियां
बाहर से आने वाली हवाओं को रोक कर
अंदर बची हवाओं से टकराती नई हवायें
बहुत तेजी से उठती हैं भीतर कोई हूक
पुरानी बातें याद आने लगती है
बहुत बाद में पता चलता है
सर्दी आ गई है,यादों को लेकर

सिटी ऑफ सीमेंट

क्वालालंपुर से लौटा हूं।सीमेंट और स्टील की जोड़ी ने हवाई अड्डे को किसी शापिंग मॉल का चमकदार बाथरूम जैसा बना दिया है। हर चीज़ चमकती हुई। स्टील के खंभे और लकड़ी जैसी किसी चीज़ की छत। एयरपोर्ट से लेकर शहर की हर सार्वजनिक इमारतों से लगभग सीढ़ियों को ग़ायब कर दिया गया है। एस्कलेटर। भारत के माल में भी एस्कलेटर पुराना हो चुका है। मगर हम भूल गए हैं कि इस एस्कलेटर ने पेट पर बल महसूस करते हुए ऊपर चढ़ने का अनुभव खत्म कर दिया है। बल्कि समतल सतह पर भी एस्कलेटर की पट्टियां दौड़ती हैं। जो अनावश्यक विस्तार लिये एयरपोर्ट में एक काउंटर से दूसरे काउंटर के बीच की दूरी को तय करने में मदद करती हैं।

एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही स्टील पीछे छूटता है और सीमेंट दिखने लगता है। हर सड़क एक दूसरे के ऊपर से गुज़र रही है। दो सड़कों के बीच से रेल गुज़र रही है। रेल के ऊपर से कार और कार के ऊपर से मोनो रेल। हर कोई गुज़र रहा है। सीमेंट की मौजूदगी से आंखें पथरीली होने लगती हैं। बस और रेल को रंग कर बच्चों के खिलौने जैसा बना दिया गया है। हर कुछ रंगीन। क्वालालंपुर के पास पुराना कुछ नहीं बचा है। सब सीमेंट का बना है। पहली नज़र में लगा कि यहां के कमीशनखोर भारत के घूसखोरों से ईमानदार हैं। मगर अख़बारों से पता चल गया कि भ्रष्टाचार मलेशिया के लिए नया नहीं है।

शहर ने सैलानियों को बुलाने के लिए हर पुरानी इमारत को तोड़ दिया है। इन्हीं सब के बीच एक इमारत पर नज़र गई। १९०४ की बनी हुई एक इमारत। लिखा था विवेकानंद आश्रम। हवाई यात्राओं के पहले के दौर में कौन गया होगा विवेकानंद का नाम लेकर। सोचता रहा। अचानक ध्यान गया कि यह इमारत कैसे बची रह गई। किसने बचा लिया इसे। इसे भी तो तोड़ कर सौ मंज़िल की इमारत बन सकती थी।

दस दस मंज़िल की इमारत में मॉल है। मॉल को मेट्रो और मोनो रेल के स्टेशन से जोड़ दिया है। मोनो रेल से उतर कर सीधे माल में। बाज़ार का नामो निशान मिटा दिया गया है। हाट के अवशेष गायब हैं। क्वालालंपुर उन सैलानियों का शहर है जो सीमेंट का कमाल देखना चाहते हैं। देखना चाहते हैं कि कोई शहर बिना ऐतिहासिक इमारतों के भी लोगों को बुला सकता है। शहर बच्चों का खिलौना घर है और आदमी सीमेंट कृतियों को देखने के लिए बौराया हुआ लगता है।

लेकिन आंखों का किसी ने नहीं सोचा। कितने दिन तक ईंट पत्थर की ये इमारतें आकर्षित कर सकती हैं। वैसे भी जब से दिल्ली में मॉल, फ्लाई ओवर और मेट्रो देखा है विदेश जाने का आकर्षण खत्म हो गया है। पहले सुन कर उत्सुकता होती थी कि कोई विदेश गया है। वहां की कई चीज़ें यहां नहीं होती थीं। अब तो यहां वहां में कोई फर्क नहीं है। इसलिए विदेश यात्रा का कस्बाई रोमांच अब खत्म हो चुका है। सीमेंट और स्टील से बने इस शहर में आपका स्वागत है। इससे पहले कि आप यहां की नगर योजनाओं के कायल हो जाएं, बता दूं कि तमाम स्तरों और प्रकारों के फ्लाई ओवर और मोनो रेल के बाद भी सड़क पर कारें सरकती हैं। क्वालालंपुर सीमेंटनुमा नगर योजनाओं की नाकामी का शहर है। फिर भी अगर आप बिल्डर हैं तो यह आपकी पसंद का शहर हो सकता है। आते जाते रहियेगा। मुझे मत कहियेगा दुबारा जाने के लिए।

ब्लॉगर को फुटबॉलर कहें

सारे पत्रकार ब्लॉगर हैं तो क्या सारे ब्लॉगर पत्रकार होने ही चाहिए? ब्लॉगर को क्या कहें? क्यों कहें क्या? ब्लॉगर कहें। पत्रकार को पत्रकार रहने दें। बहस की मूल प्रति मैंने नहीं पढ़ी है। लेकिन मूल भावना समझ रहा हूं। नेमप्लेट के बिना काम नहीं चलता हमारा। हम वो लोग हैं जब टाइप करते हैं। दसों पोरों से टपा टप छाप देते हैं। लिखते होंगे वो जिनकी जेब में अभी भी सरकंडे के गर्भ से पैदा हुई कलम है। अब तो कलम का इस्तमाल चेक बुक साइन करने में हो रहा है। ख्वामखाह लोगों ने कलम ने लेकर चलना छोड़ दिया है। सामने वाली की जेब में बेकार पड़े कलम को एक मिनट के लिए मांग कर हमेशा के लिए गायब कर देते हैं।

बस मेरी राय। अंतिम नहीं है मगर अंतरिम है। लफंगा को अगर लोफर कहें तो अच्छा नहीं लगेगा। लोफर लफंगा कहें तो चलेगा। ब्लॉगर के साथ भी बोगी जोड़ दीजिए। अगर जोड़नी ही है तो। हमने ब्लॉगर को लफंगा नहीं कहा है। इस पर कोई टिप्पणी न करें। बस एक मिसाल दी है। हिंदी के महाविशाल शब्दकोष में पहले से पैदा हो चुके शब्दों को खोज लाने का आइडिया दिया है। नया शब्द नहीं बना सकते क्या? हम पैदा होते हैं। आप पैदा हो सकते हैं। ये शब्द क्या चीज़ हैं जो हमारे पैदा होने के बाद पैदा नहीं होंगे।

तथाअस्तु। वक्त कम है। उंगलियों में दर्द बढ़ रहा है। हम सब भारतीय हैं। हम सब ब्लॉगर हैं। हममें से कुछ पत्रकार हैं। पत्रकार कहानी लिख दे रहा है। कविता से लेकर संस्मरण तक के तमाम प्रकारों में सृजन कर दे रहा है लेकिन कहलाता तो वही है न। पत्रकार। तो काहें ब्लॉगरों के बीच कुछ कहाने के लिए टांग अड़ा रहा है।

इसके बाद ब्लॉगरों का लिंग भेद शुरू हो जाएगा। महिला ब्लॉगर को क्या कहें। लेडीज़ ब्लॉगर। लेडीज़ कूपे बनानी है। ब्लॉगरी कहें। री ब्लॉगरी तुम काहे ब्ला ब्ला टिपयाती हो। इस नाम का कोई महिलाकरण या पुरुष सशक्तिकरण नहीं होना चाहिए। हम सब ब्लॉगर हैं। जेंडर डिवाइड को नहीं मानते हैं। नाम के लिए। इसलिए दोस्तों इस बहस में आग डालो। फूस डालो। मिट्टी को पकाओ। तपाओ। नाम मत रखो। शब्दकोष यूं ही भारी हुआ जा रहा है।

अखबार तो ब्लाग का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। उनका तो शुक्रिया अदा करना चाहिए। कोई कंपटीशन है ही नहीं। अख़बार रोज़गार सृजन करता है ब्लॉग गल्प सृजन। दोनों का योगदान अलग अलग है। इसलिए थूकने के पीकदान अलग होने चाहिएं। नाम एक से नहीं होने चाहिएं। आओ ब्लॉगरों,युवा,वृद्ध,महिला.युवती,पुरुष सब मिलकर यही प्रण करें...मरें चाहें जीयें...एक एक्स्ट्रा नाम से पुकारे जायें...ब्लॉगर ही कहलायें। आमीन।

एक हिंदू का आत्ममंथन

आत्ममंथन सिर्फ मुसलमानों का एकाधिकार नहीं है। हिंदू का भी है। फर्क सिर्फ इतना है कि मुसलमानों को आत्ममंथन से थोड़े दिनों के लिए आराम मिल गया होगा। इन दिनों हिंदू भाई लोग बिज़ी हो गए हैं आत्ममंथन में। रमेश उपाध्याय और ले कर्नल पुरोहित जैसे नामुराद देशभक्तों ने अपने ऊपर पुलिसिया आरोपों का चादर ओढ़ मुझे परेशान कर दिया है। कई दिन से आत्ममंथन किये जा रहा हूं। कम्पलीट हिंदू आत्ममंथन। एक दो मुस्लिम भाइयों को भी पुकारा। आइये न आप भी मेरे ही साथ आत्ममंथन कर लीजिए। मना कर दिया। गरम हो गए और बोले कि क्या आप हिंदू ने मेरे साथ आत्ममंथन किया था। अपना अपना आत्ममंथन होगा अब से।

साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर पर लगे आरोपों को हिंदू आतंकवाद नहीं कहा जाना चाहिए। इस दलील से मैं एकदम सहमत हूं। सभी हिंदू आतंकवादी नहीं होते। इससे आहत हो सकते हैं। लेकिन मालेगांव धमाके में पकड़े जा रहे सभी लोग हिंदू ही क्यों हैं? ज़रूर सारे हिंदू आतंकवादी होंगे। जब मैं यह लिख रहा था तो एक मुसलमान रोने लगा। कहने लगा भाई गृहमंत्रालय से आंकड़े तो ले आइये। पचासों धमाके में मरने वाले दो ढाई हज़ार लोगों के साथ हम पंद्रह करोड़ मुसलमान भी मारे जा चुके हैं। आतंकवादी बता कर। क्योंकि सारे आतंकवादी मुसलमान ही होते हैं। अच्छा है आप आत्ममंथन कर रहे हैं।

अभिनव भारत। हिंदू जागरण मंच। इंडियन मुजाहिदीन। मुझसे एक मौलाना ने कहा था कि हो सकता है कि कोई और धमाका कर रहा हो। मुस्लिम आतंकवादी मस्जिद पर क्यों करेगा जब इस्लाम के नाम पर धमाका करेगा। कहीं कोई हिंदू तो नहीं। तब मेरे एक हिंदू मित्र ने कहा कि हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता। सनातनी हो सकता है। हम सहिष्णु लोग है। इस्लाम तलवार से फैला है और हिंदू धर्म संस्कार से। हमने अपने संस्कारों के दम पर ही दलितों को नालियों के किनारे रहने पर मजबूर कर दिया। इस्लाम भी तो इन्हीं नालियों के किनारे फैला। दलितों की हिम्मत जो हमारे रास्ते से गुजर जाएं। डरपोक दलित तलवार से डर गए। कुछ इस्लाम की तरफ चले गए। और हम कुछ नहीं कर पाए। सहिष्णु हैं। अब कुछ करना चाहते हैं इसलिए सांप्रदायिक हो रहे हैं। अभिनव भारत बना रहे हैं। साध्वियों को काम पर लगा रहे हैं।

तो गप्प बंद करता हूं। आत्ममंथन कर रहा हूं। उपाध्याय और पुरोहित को नहीं जानता। साध्वी से नहीं मिला। तो क्या हुआ। तीनों हिंदू तो हैं। आरोप साबित नहीं हुआ तो क्या हुआ। आरोप तो हैं। जब आरोपों के दम पर पंद्रह करोड़ मुसलमान आत्ममंथन करने पर मजबूर किये जा सकते हैं तो सनातन और सहिष्णु हिंदुओं को खुद से करना चाहिए। आत्ममंथन के लिए सबसे ज़रूरी है अपना घर बेचकर जामिया नगर में मकान खरीदना चाहिए। मुसलमानों से घुलमिल कर रहना चाहिए। आखिर सारे हिंदू जामिया नगर से अलग क्यों रहते हैं। क्यों ग्रेटर कैलाश और फ्रैंड्स कालोनी में रहते हैं। एक जगह क्यों रहते हैं। एक जगह रहने से घेटोआइजेशन होता है। एक तरह की मानसिकता बनती है। आतंकवादी मानसिकता को बढ़ावा मिलता है। मैं कुछ नहीं कर रहा। बस पुरानी दलीलों और विश्वेषणों को साध्वी और पुरोहित के करतूत के बहाने वृहत हिंदू समाज पर अप्लाई यानी लागू कर रहा हूं। एक शब्द मे आत्मंथन कर रहा हूं।

माफ कीजिएगा। देर हो गई। आत्ममंथन की तरह अमृतमंथन के इतिहास से डर रहा था। अमृत मिला नहीं कि देवता और असुर आपस में भिड़ गए। तिकड़म करने लगे। जब से यह कहानी जानता हूं किसी भी तरह के मंथन से डर लगता है। कहीं कुछ मिल न जाए और लोग भिड़ न जाएं। लेकिन कोई बात नहीं। तिकड़म भी की जाएगी। पहले आत्मंथन तो कर

अश्वेत एक फटीचर शब्द है

राधा क्यों गोरी मैं क्यूं काला की जगह राधा क्यों श्वेत मैं क्यूं अश्वेत...क्या ऐसा सुनना पसंद करेंगे इस गाने को। अंग्रेज़ी में ब्लैक ही कहा जा रहा है हिंदी के मास्टरों ने अश्वेत बना दिया है। पता नहीं किस कूड़ेदान से इस शब्द को उठाकर अखबारों के पन्नों पर फेंक दिया गया है। राजनीतिक चेतना हमेशा ग़लत शब्दों के कारण फूहड़ हो जाती है।

जो काला है वो काला है। जो गोरा है वो गोरा है। अश्वेत कह कर आप किसी काले को ही संबोधित करना चाहते हैं। ठीक है कि काले की संवेदनशीलता का ख्याल रखा जाता है पर क्या वो नहीं जानता कि अश्वेत सिर्फ एक बहाना है। असल में आशय काला ही है। बराक ओबामा को हिंदी मीडिया के स्टाइल शीट प्रोफेसर क्या लिखें। अश्वेत या श्वेत। ओबामा की हर खबर में यह फटीचर शब्द आता है। अश्वेत। काला शब्द में खराबी नहीं। सिर्फ उसके पीछे की अवधारणा में है। जो लड़ाई लड़ी जा रही है वो काला शब्द के खिलाफ नहीं है बल्कि अवधारणा से होगी। वो अवधारणा जिसे समाज तय करता है।

तभी तो बोली मुसकाती मैया सुन मेरे प्यारे। गा गा कर यशोदा नंद के सवालों का जवाब नहीं देती। मगर यशोदा यह नहीं कहती कि काला होना खराब है। बेटे कान्हा तुम काले नहीं अश्वेत हो। राधा भी गोरी नहीं कान्हा, वो तो श्वेत है। ऑटोग्राफ का हिंदी में क्या शब्द हो। यह धारणा तो हिंदी की नहीं है न। मुझे नहीं लगता कि हनुमान ने राम और सीता का ऑटोग्राफ मांगा होगा या अकबर ने तानसेन। वर्ना इसका भी हिंदी शब्द होता ही। नहीं है तो ऑटोग्राफ कहने में क्या हर्ज़।

मुझे नहीं पता ओबामा क्या करेंगे। लेकिन उनकी जीत से जो असर होगा उसमें मेरी दिलचस्पी है। एक काला राष्ट्रपति बनेगा। हमारे यहां भी कई काले और गोरे राष्ट्रपति बन चुके हैं। लेकिन नस्ल का भेद यहां नहीं। रंग का है। शादियों में लड़का पूछता है कि दुल्हन गोरी है न। शादी के विज्ञापनों में लिखा होता है कन्या गौर वर्ण की है। ये एक और अति है। गौर वर्ण। मोरा गोरा रंग लई ले...मोहे श्याम रंग दई दे....रंगों का एक्सचेंज ऑफर है इस गाने में। मोरा श्वेत रंग लई ले नहीं है।

ओ जाने वाले हो सके तो...

लिखने वाला कितना समझदार था। जानेवाले को यह नहीं कहा कि आ ही जाना। इतना कहा कि हो सके तो लौट के आना। अब तो हो सकने पर भी लौट कर नहीं आएंगे कुंबले। कुंबले ने सन्यास का एलान कर दिया।

कोटला और कुंबले का अब हिंदी टीवी पर अनुप्रास नहीं बन पाएगा। अब किसी और को ढूंढना होगा जंबो कहने के लिए। अठारह साल इंतज़ार करना होगा किसी को कुंबले बनने के लिए। कुंबले ने याद दिला दिया कि उन्हें देखते देखते अठारह साल निकल गए। हम कभी बोर नहीं हुए।

हिंदी पट्टी के टीवी चैनलों ने बवाल नहीं मचाया होता तो शायद ख्याल नहीं आता कि गांगुली और कुंबले को रिटायर होना है।
टीवी चैनल के क्रिकेट रिपोर्टर बोर हो गए। जो चिचियाते रहे कि कब जाएंगे कुबले? कब जाएंगे दादा? और ये सहवाग क्यों है टीम में?

क्रिकेट में ऐसे खूंखार सवालों के दौर में मेरी इस खेल से दिलचस्पी चली गई। जिस तरह से हम सब हिंदी भाषा के विशेषज्ञ हो जाते हैं उसी तरह से हर खेलने वाला क्रिकेट का विशेषज्ञ हो जाता है। अमेरिका लिखें या अमरीका वाली बहस के तर्ज पर हमने खिलाड़ियों की स्टाइल शीट बनानी शुरू कर दी। दिवाली के बाद जैसे सूप लेकर घरों से दरिद्र भगाते हैं वैसे ही अपने महान खिलाड़ियों को भगाने लगे। घर के बुजुर्ग को हम बहुत जल्दी दोस्तों के बीच बुढ़वा या बुढ़ऊ कहने लगते हैं।


कुंबले, गांगुली, सचिन और द्रविड़ का दौर जा रहा है। सब उस पहाड़ पर पड़े हुए खिलाड़ी की तरह बताये जा रहे हैं जहां चढ़ने के बाद उतरने का मन नहीं करता। थकान की वजह से या क्रिकेट रिपोर्टरों के अनुसार पैसे कमाने की आदत की वजह से। मुझे बहुत दुख हुआ। जाने वाले की विदाई के लिए आंसू होते हैं। सो इस्तमाल हुए। दराज़ से कुंबले का वो स्कोर कार्ड भी निकाला जिसपर हर विकेट के आगे कुंबले का नाम था। खेल पत्रकार गुलु एज़िक्येल ने मुझे फोटो स्टेट कापी थी। यह बचा रहा मेरे साथ।

कुंबले चले गए। अब वो ज़माना नहीं रहा कि इमरान ने सन्यास लिया फिर टीम में आ गए। उस खेल में जहां जवानी में रिटायर होना पड़ता है। खेलने वाला जानता है वो जाने के लिए आया है। जीने के लिए नहीं आया है। अनिल कुंबले को बहुत बहुत बधाई उन तमाम यादों के लिए जब मेरी तेज होती धड़कनों को वो अपने विकेट से थाम लेते थे। भारत को जीत दिला देते थे। उन तमाम बदहवाश पलों के लिए जब दांतों के बीच मेरे नाखुन पीसते रहते थे...और कुंबले बिना किसी तनाव के उंगलियों को बाहर निकाल देते थे। हार जीत के तनाव को उल्लास में बदलते रहने वाले कुंबले की उंगलियां चूम लेने का मन करता है।

मैंने क्रिकेट के मैच को अपने तमाम वहमों के साथ ही देखा है। खेल भावना से कभी नहीं देख पाया। लगता था कि कुर्सी से उठ गया तो कोई आउट हो जाएगा। लगता था कि मैच नहीं देखूंगा तो कुंबले को विकेट मिल जाएगा। बेवजह धर्म नहीं बना क्रिकेट। धर्म का एक बड़ा काम है वहमों को मान्यता दिलाना। क्रिकेट के खेल ने भी तमाम वहमों को मान्यता दी है। मेरे भीतर के तमाम वहमों के लिए कुंबले का शुक्रिया। उन वहमों के लिए जिनके कारण कुंबले ने जीत दिलाई और चेहरे पर मुस्कान बिखेर दी।