दिल्ली के आश्रम फ्लाईओवर का जाम

कितनी उम्मीद से देखता हूं
सामने वाली लंबी सी कार में
बैक मिरर से चलाने वाले की आंखें
किसी दयावान की लगती हैं
कहता रहता हूं कि कब बढ़ायेंगे
बहुत देर हो गई,कार कब चलायेंगे
तभी अपने बैक मिरर में भी आंखें
किसी परेशान की दिखती हैं
पूछती है मुझसे वही सवाल
आप अपनी कार कब बढ़ायेंगे
बीस मिनट से वहीं थमी रही दुनिया
एफएम ने अनाउंस किया बदल गई दुनिया
ठहरे हुए,सरकते हुए,एक दूसरे से बचते हुए
सबने एक दूसरे को देखा और पूछा भी है
कार चलाने वालों की क्यों नहीं बदलती दुनिया
बस सबने बदल दिया अपना रेडियो चैनल है
रेडियो सिटी के जॉकी ने भी कर दिया एलान है
आश्रम चौक पर पांच किमी प्रति घंटे की रफ्तार है
हर दिन घर जाने का रास्ता लंबा होता जाता है
आश्रम आते ही सब कुछ थम सा जाता है
इस जाम का क्या करें, कैसे कहें इसका दर्द
बगल वाली कार की मोहतरमा ने देख कर मुझे
गुस्से से फेर लीं अपनी नज़र हैं
पीछे की कार में अंकल जी, छुपके छुपाके
कुरेद रहे हैं अपनी नाक को
सामने वाली कार में बैठा साफ्ट वेयर इंजीनियर
ईयर फोन ठूंस कर अपने कानों में
बतिया रहा है कलिग से, गरिया रहा है बॉस को
बीच बीच में पत्नी का टूं टूं करता एसएमएस भी
आता जाता रहता है
दिल्ली के आश्रम चौक का यह आंखों देखा हाल है
कहने को चौक है, लगता कारों की लंबी कतार है

नौकरी का दर्द

वो काम ही तो है जिससे उम्र तमाम हुई
वो काम ही तो है जिससे हम बदनाम हुए

जख़्मी कपड़ों का डॉक्टर


















नोट- उत्तर प्रदेश के ज़िला ग़ाज़ियाबाद के वैशाली स्थित मार्केट सेक्टर फोर से यह तस्वीर ली गई है। रविवार की दोपहर अविनाश से बातचीत करते हुए अचानक इस पर नज़र गई। डा हरि नाम का यह दर्ज़ी इस दौर में नए आइडिया के साथ हाज़िर है। वो एक डाक्टर है। तुरपई नहीं करता बल्कि जख्मों की सीलता है। जख़्म शब्द को डा हरि ने ख़ून से रंग दिया है। जो हमारे कपड़ों के इधर उधर से फट जाने की व्यथा कह रहा है।

चमनमोती- इसका क्या मतलब है?

बिहार में निरक्षरों( सरकारी शब्दालय से लिया गया शब्द)ने अपने लिये एक डिग्री बनाई है। बहुत से पाठक जानते होंगे। इसे
सर्वजन भाषा में एलएलपीपी कहते हैं। इसका विस्तार कुछ इस तरह से है- लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर। अक्सर पढ़े लिखे लोग कमअक्लों को एलएलपीपी कहते हैं। अरे भई वो तो एलएलपीपी ही है। उसके पीछे दिमाग मत खराब करो। इस शब्द की उत्पत्ति किस काल और संदर्भ में हुई नहीं मालूम। लेकिन लगता है कि इसका उदगम साक्षरता निरक्षता विवाद के मध्य से हुआ होगा। साक्षर के पास डिग्री और निरक्षर के पास नहीं। कोई बर्दाश्त करेगा। मुझे तो लगता है कि इसे साक्षरों ने निरक्षरों को नवाज़ा होगा। उनकी तुलना में अपनी हैसियत ऊंची करने के लिए। तो आप कितने एलएलपीपी को जानते हैं बताइयेगा।

चमनमोती- साठ के दशक में अंगूर इसी नाम से बिकता था। मेरे ससुर जी ने कहा कि जब वो कलकत्ता से दिल्ली आए तो फेरीवाला इसी नाम से अंगूर बेचा करता था। चमनमोती ले लो। आज कल वो इसी नाम से तिन्नी को अंगूर खाने के लिए प्रेरित करते हैं। तिन्नी को अंगूर पसंद नहीं है। इसलिए उसके नाना जी कहते हैं कि ये अंगूर नहीं है, चमनमोती है। इसे खा लो। तिन्नी भी जानती है। सिर्फ नाम का कोई मतलब नहीं होता। आकार देखकर जान जाती है कि अंगूर ही है। नाम बदल गया तो क्या हुआ।

अहाता- इसका इस्तमाल अब तक आंगन के अर्थ में होता था। एक ऐसा इलाका जिस पर व्यक्ति विशेष का कब्जा होता था। उनके अहाते में कोई नहीं जा सकता था। किसी की हिम्मत नहीं थी कि उनके अहाते में चला जाए। एक तरह से ज़मींदारी रौब से जुड़ा था। राजाओं का दरबार हुआ करता था तो ज़मींदारों का अहाता। आज ही पानीपत में एक बोर्ड देखा। देसी शराब का अहाता। अब अहाता का इस्तमाल ठेके के बदले हो रहा है। यहीं पर एक और साइनबोर्ड दिखा। लिखा था पानीपत जूस बार। ठेका अहाता और जूस कार्नर बार हो गया है। वैसे जूस कार्नर के प्रयोग पर हिंदी तहलका में एक ज़बरदस्त लेख छपा था। अभी भी साइट पर है। पढ़ें तो दिव्य ज्ञान प्राप्त होता है।

पी देसी बोल विदेशी- यह भी एक देसी शराब के ठेके पर लिखा था। मजा आया। गुज़रता हुआ देखता जा रहा था।

नोट- अनामदास ने एलएलपीपी और चमनमोती का उदगम सही ढंग से बताया है। ककड़ियां लैला की के बारे में जानना हो तो
टिप्पणी में जाकर प्रियंकर को पढ़ सकते हैं।

बलिया में बूनी पड़ल बा का- आ गया भोजपुरी चैनल

ए भूपेद्र जी- तनी बताइ त बलिया में बूनी पड़ता का...
भूपेद्र जी- का कही शर्मिला जी,बिहाने से बूनी पड़ता। खेत के खेत गेंहूं दहा गईल बा।

अब इस संवाद को सुनने का मजा जल्द मिल जाएगा। भोजपुरी में एक चैनल लांच हो रहा है। उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर के पी के तिवारी यह काम करने जा रहे हैं।तिवारी जी ने न्यू दिल्ली टाइम्स नाम की फिल्म बनाई थी। इनके सेंचुरी कम्युनिकेशन्स ने
प्रज्ञा चैनल भी लांच किया है।यह धार्मिक चैनल है। अप्रैल माह में यह चैनल आ जाएगा।आज के दैनिक जागरण के अंक नई राहें में चैनल का विज्ञापन छपा है। विज्ञापन भोजपुरी में है।

चैनल का नाम महुआ है। इसमें न्यूज़ के अलावा गीत संगीत और सीरीयल भी होंगे। भोजपुरी में ब्लाग भी चल रहा है। मेरे लिए यह सुखद समाचार है। हर बोली का बाज़ार होना चाहिए और बाज़ार में हर बोली हो। भोजपुरी को कोई भगा ले। अब तो यह आ गई है। उन तमाम भाषाओं से मिल कर इतराने। ठुमका लगाने। उम्मीद है कामयाब चैनल होगा। शुभकामनायें।

कोशिश करता हूं कि पी के तिवारी का पता करें और उनका इंटरव्यू छापें ताकि भाई जी के विचार जानल जाओ। पता त चले कि न्यूज़ में शारदा सिन्हा के गीत सुनइहें या बलेसर के...आ रे रे....। चल भइया...डिश टीवी के बोल हो...तनि इहो चैनलवा दिखा

कौन क्या पढ़ रहा हैः पुस्तक मेले से लौट कर

पुस्तक मेले से लौट कर सोचा कि क्यों न हम ब्लागर इस बात की भी चर्चा करें कि कौन सी किताब खरीदी है और क्या पढ़ रहे हैं। तो शुरूआत कर रहा हूं कि कौन कौन सी किताबें मैंने खरीदी है।

१.मीडियानगर पार्ट ३, नेटवर्क संस्कृति, वाणी प्रकाशन
२.1857 के बाग़ी सिख- शम्सुल इस्लाम,वाणी प्रकाशन
३.1857 के हैरत अगेज़ दास्तान- शम्सुल इस्लाम, वाणी प्रकाशन
४.जातियों का राजनीतिकरण, बिहार में पिछड़ी जातियों के उभार की दास्तान - कमल नयन चौबे, वाणी
5.Noam Chomsky- Powers and prospects
6.Islam and healing, loss and recovery of an indo muslim medical tradition
by Seema Alavi, Permanent Black
7.The languages of political Islam in India c1200-1800 by Muzaffar Alam, Permanent Black
8. Man-eaters of Kumaon- Jim Corbett
9.Covering Islam- Edward W.Said
10.अंतरंगता का स्वप्न, भारतीय समाज में प्रेम और सेक्स, सुधीर कक्कड़
11.हिंदू स्त्री का जीवन, पं रमाबाई,अनुवाद- शंभू जोशी, संवाद प्रकाशन
12. रेहन पर रग्घू- काशीनाथ सिंह, राजकमल प्रकाशन( प्रियदर्शन ने भेंट की है यह किताब)
13. काशी का अस्सी- काशीनाथ सिंह, राजकमल प्रकाशन( प्रियदर्शन जी की एक और मेहरबानी)
14 तीन द्विज हिंदू स्त्रीलिंगों का चिंतन- डॉ धर्मवीर, वाणी प्रकाशन
१५. राजेंद्र माथुर संचयन, वाणी प्रकाशन

कुछ पुस्तकें पहले भी खरीदीं गईं हैं। लेकिन पाठकों को प्रभावित करने के लिए सूची लंबी कर दी गई है। कितना पढ़ पाते हैं यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। (वैसे आने वाला वक्त ही बतायेगा पंक्ति टीवी में खूब इस्तमाल होती है। पीटूसी के अंत में, पता नहीं पत्रकार पत्रकार रहेगा या नहीं लेकिन वो अपनी रिपोर्ट इस लाइन से खत्म करता है)

किसान किसकाः पवार या प्रेमचंद का

साहित्य और फिल्मों ने किसानों के बारे में कुछ छवियां तय कर दी हैं। बाकी छवि प्रेस ने बनाई है। बारिश का इंतज़ार करते हुए आसमान तकते किसान की तस्वीर। उसके चेहरे की झुर्रियों का वर्णन और क्लोज अप में खाली बर्तन। किसान के बारे में क्या सोचें यह सब तय कर हमें विरासत में दिया गया है जिसे हम ढो रहे हैं।

सहारनपुर के योगेश दहिया, कृषि स्नातक हैं और खेती ही करते हैं। गुस्सा गए कि हम किसान को आदर्श किस आधार पर मानते हैं। वो किस आधार पर लाचार है। उन्होंने कहा कि आप किसान की हालत बतायें मगर एक ही हालत पिछले साठ साल से क्यों बता रहे हैं। जिस खेती पर साठ फीसदी आबादी निर्भर है उसकी समस्याओं की विविधता है। मगर आप पत्रकारों की नजर में किसान की एक ही समस्या है। भूखमरी, गरीबी या आत्महत्या क्या किसान सापेक्ष ही हैं। क्या दसवीं कक्षा के विद्यार्थी आत्महत्या नहीं करते। क्या साफ्टवेयर कंपनी के इंजीनियर आत्महत्या नहीं करते। योगेश ने कहा प्रेमचंद या साहित्य की नज़र से मत देखिये।

हमारा किसान काम नहीं करता। यह गलत धारणा है कि वह हाड़ तोड़ मेहनत करता है। धूप में वही काम नहीं करता। धूप में ड्राइवर भी गाड़ी चलाता है। ठेले वाला सब्जी बेचता है। हमारा किसान वक्त बर्बाद करता है। वह कचहरी जाएगा, दूसरे के खेत में जाकर नुकसान करता है। वह कोई अलग से आदर्श मानवजाति नहीं है। फिर बात आगे बढ़ी। कहा कि किसान को बदलना होगा। वह परंपरा के नाम पर गलत तरीके से खेती कर रहा है। योगेश कहते हैं क्या कोई पत्रकार यह बात कह सकता है कि किसान अपनी खेती बेवकूफी से करता है। जबकि सच्चाई यही है।

बहस लंबी होती जा रही थी। मैंने कहा बुंदेलखंड में स्थिति अलग है। पानी नहीं है। साधन नहीं है। योगेश ने कहा कि वो बुंदेलखंड की स्थिति हो सकती है पूरे किसान की नहीं। जहां कि मिट्टी अच्छी है और बाज़ार के नज़दीक है वहां क्यों नहीं किसान फायदा उठाते। योगेश कहने लगे कम से कम वह पहल तो करे। नए तरीके से सोच समझ कर खेती तो करे। जिनके पास ज़मीन है वो तो नए तरीके से खेती करें। ऐसा कैसे हो सकता है कि पच्चीस बीघे वाला किसान भी परेशान है और दो बीघे वाला भी। इसका मतलब कहीं गड़बड़ है।

इन बातों को लिए मैं बारामती आ गया। सहारनपुर के किसानों की हालत के उलट कृषि मंत्री शरद पवार का बारामती। योगेश का किसान यहां मिल गया। शीतल कंप्यूटर पर कई बाज़ारों में अंगूर की कीमत देख रहे थे। कहा कि अब हर बार पुणे में नहीं बेचता। सौ रुपये का लाभ उठाने के लिए कलकत्ता बेच देता हूं। शीतल कहने लगे हमें लागत कम करना होगा। इसके लिए गोबर से बने वर्मी कंपोस्ट का इस्तमाल करना होगा। ड्रीप इरिगेशन से पानी की लागत और मात्रा में बचत करनी होगी। तभी फायदा अधिक होगा। शरद पवार ने अपने यहां के किसानों में इसी सोच का निर्माण कर दिया है। इसीलिए बारामती एक शानदार कस्बा लगता है। सफाई है। हरियाली है और किसान एक्ज़िक्यूटिव लगता है। बारामती की अनाज मंडी का दफ्तर देखने लायक है। सोच वही कि किसान आए तो उसे लगे कि यह एक पेशेवर काम है सेवा नहीं है।

बारामती, जहां तीस साल पहले सिर्फ ज्वार की खेती होती थी, आज अंगूर, गन्ना, जरवेरा, गेहूं, धान, फूल और केला आदि की खेती करने लगे है। खेती से बाकी बचे ज़मीन पर वहां ईमू पक्षी का पालन होने लगा है। किसान सिर्फ अनाज नहीं उगाता वह दूध से लेकर तमाम तरह के कारोबार करता है। तमाम तरह के कोपरेटिव में वह संगठित है। शरद पवार ने यही सुनिश्चित किया है कि इनमें कोई घोटाला नहीं है। सभी किसानों का जीवन स्तर बेहतर और उम्मीदों भरा लगता है।

इसलिए कि किसान बदल गए हैं। बारामती में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का एक केंद्र है। किसान इस केंद्र का भरपूर इस्तमाल करता है लेकिन कोई सेवा मुफ्त में नहीं है। वह मिट्टी की जांच करता है, पानी की जांच करता है फिर शुल्क देकर एक सर्टिफिकेट लेता है। उसकी सोच किसान जैसी रहमत मिलते रहे वाली नहीं रही। राजनीतिक संरक्षण में भी किसान भ्रष्ट नहीं हुआ है। वह परजीवी नहीं हुआ है। यहां किसानों के लिए कोई भी सेवा फ्री नहीं है। उन्हें स्वावलंबी और चतुर बना दिया गया है। बाज़ार से खेलना जान गया है। बारामती कमाल का लगता है। पूरे इलाके में गुणगान करने वाला शरद पवार का एक भी पोस्टर नज़र नहीं आया। न ही दीवारों पर पुता हुआ उनकी पार्टी का चुनाव चिन्ह।

महाराष्ट्र के किसानों ने प्रगतिशीलता दिखाई है। नया प्रयोग किया है और साझा भी। वहां दैनिक सकाल का एक कृषि अखबार रोज़ निकलता है। अग्रो वन। महाराष्ट्र के एक लाख से अधिक किसान रोज़ इस दो रुपये के कृषि अखबार को खरीदकर पढ़ते हैं। दो साल से यह अखबार बिक रहा है। किसी किसान ने इसकी एक भी प्रति नहीं बेची है। बल्कि अखबार के सहारे वो अपनी खेती बदल रहे हैं।

किसान की समस्या अपनी जगह है। मगर इसकी बात तो करनी पड़ेगी। किसान को प्रेमचंद के बनाए पिंजड़े से निकालना होगा। उड़ना सीखाना होगा। आप कहेंगे कि बारामती की तरह भारत क्यों नहीं। जवाब भी है। भारत बारामती की तरह क्यों नहीं।
इसे मैंने मेरा गांव मेरा बजट में समेटने की कोशिश की है। जो शुक्रवार रात साढ़े दस बजे एनडीटीवी इंडिया पर आएगा। शनिवार को दोपहर साढ़े बारह बजे।