मोदी बनाम अरविंद

राजनीति में मुख्य रूप से दो प्रकार के गणित होते हैं । एक वास्तविक गणित (real mathematics )और दूसरा अवधारणात्मक गणित ( perceptional mathematics) । राजनीतिक जानकार इन दोनों ही आधार पर किसी पार्टी या नेता की लोकप्रियता का मूल्याँकन करते रहते हैं । ज़रूरी नहीं कि जो अवधारणा हो वैसा ही नतीजा हो और जैसा नतीजा हुआ है उसके आधार पर नई अवधारणा के लिए कोई गुज़ाइश न हो । कई प्रकार के अपवाद हैं । 

अरविंद केजरीवाल के उदय से और आम आदमी पार्टी के लोक सभा चुनाव में उतरने के एलान से अवधारणात्मक गणित में एफ नया फ़ैक्टर आ गया है । दिल्ली से संचालित मीडिया स्पेस में मोदी के बराबर अरविंद को जगह मिलने लगी है । बीजेपी हो सकता है कि अपना ध्यान क्षेत्रीय मीडिया स्पेस पर लगाये लेकिन अरविंद वहाँ भी पहुँच सकते हैं । इसलिए दोनों के लिए इस वक्त नया मीडिया स्पेस तलाशने से कोई फायदा नहीं है । स्पेस के लिहाज़ से अवधारणात्मक गणित बनाने का मंच राष्ट्रीय मीडिया ही है । अख़बारों के ज़िला संस्करण अवधारणा बनाने के सशक्त उपकरण नहीं हैं । वे भी राष्ट्रीय मीडिया के विस्तार हैं । उनकी भूमिका से इंकार नहीं कर रहा लेकिन ज़िला संस्करण भी भाषणों से राष्ट्रीय तत्वों का ही चयन करता है । 

विषयांतर करने की बुरी आदत है क्योंकि जिस वक्त जो बात दिमाग़ में आती है मैं उसी वक्त उसी जगह लिखता हूँ । क्रमश: लिखने का प्रयास नहीं करता । तो क्या आम आदमी पार्टी मोदी को चुनौती देगी । इसका सरल जवाब है । चुनौती तो देगी मगर दे नहीं  पायेगी । कारण यह है कि अवधारणात्मक गणित में मोदी काफी आगे निकल चुके हैं । आप दिल्ली की तरह हर जगह कांग्रेस का ही विकल्प बनेगी । वह यूपी में सिर्फ मोदी से नहीं लड़ पायेगी । उसे अखिलेश यादव और मायावती से भी लड़ना होगा । दिल्ली में एक ही टारगेट था । आप को मिलने वाला हर वोट मोदी की जीत को पक्का करेगा ।दिल्ली के नतीजे यही बताते हैं । दिल्ली में बीजेपी भले नहीं जीत पाई मगर वो हारने से इसलिए बच गई क्योंकि मोदी ने बचा लिया । वर्ना आम आदमी पार्टी के सामने कांग्रेस की तरह बीजेपी भी पंद्रह बीस सीटों वाली बन कर रह जाती । दिल्ली के उदाहरण से बीजेपी को बौखलाना नहीं चाहिए । आप भले ही मोदी को निशाना बनाएगी क्योंकि पहले के लेख में भी कह चुका हूँ कि अवधारणात्मक ज़मीन पर मोदी ही नंबर वन हैं । वहाँ आप दूसरे या तीसरे नंबर के मनमोहन सिंह या कांग्रेस को टारगेट कर उसे लाभ नहीं मिलेगा । लेकिन क्या बीजेपी को भी आप को नम्बर वन टारगेट समझना चाहिए ? क्या बीजेपी आप को नज़रअंदाज़ करने का जोखिम उठा सकेगी ? जीत के प्रति आश्वस्त होने के बावजूद ।

यह सही है कि आप की कामयाबी ने राजनीतिक चर्चा को बदल दिया है । यह भी सही है कि आप की टीम तीन सौ ज़िलों में मौजूद है । लेकिन वे तीन सौ ज़िले दिल्ली नहीं हैं । उनमें से कई ज़िले ज़रूर हो सकते हैं । कई शहर हो सकते हैं । दिल्ली में ही आप के लिए देश भर से वोलिंटियर काम करने आ गए थे । क्या आप यही रणनीति हर जगह पर दोहरा पाएगी ? इंडियन एक्सप्रेस में योगेंद्र यादव का इंटरव्यू दिलचस्प है । आख़िरी में योगेंद्र ने कहा है कि काश हम चुनाव आयोग सो कह पाते कि लोक सभा चुनाव एक साल को लिए टाल दीजिये । 

हाँ यह ज़रूर है कि आप ने अवधारणात्मक ज़मीन पर की जाने वाली गणित में मोदी का खेल बिगाड़ दिया है । मोदी पर अरविंद का हमला ज़्यादा आक्रामक और विश्वसनीय सा लगेगा । कांग्रेस आज दिल्ली में एंटी करप्शन यात्रा कर रही है । किसी चैनल पर यह फ़्लैश देखा है । यह महज़ नौटंकी है । आप की तरह रंग बदल कर कांग्रेस बीजेपी आप नहीं हो सकती । इससे लाभ आप को ही मिलेगा ।  लेकिन कांग्रेस से ज़्यादा फायदा बीजेपी को मिल सकता है । कांग्रेस जितना भ्रष्टाचार के विरोध को लेकर मुखर होगी आप की डुप्लीकेट लगेगी । इससे उसका वोटर आप में बँटेगा और कई शहरी क्षेत्रों में बीजेपी की तरफ़ जायेगा ।  तो जैसा मैं कह रहा था कि अवधारणात्मक गणित में अरविंद को नंबर तो मिलेंगे क्योंकि जानकार दिल्ली की तरह छह सीटें देने की ग़लती दोबारा नहीं करेंगे । आप को इस बार ज़्यादा सीटें देंगे । जिसके कारण अरविंद मोदी की दावेदारी को अपने सवालों से अवधारणात्मक चुनौती देने लगेंगे । कुमार विश्वास का यह बयान तुकबंदी नहीं है कि अगर मोदी वैचारिक रूप से वंशवाद के इतने ही ख़िलाफ़ हैं तो राहुल गांधी के ख़िलाफ़ क्यों नहीं लड़ते । यह चुनौती कांग्रेस या लेफ़्ट की तरफ़ से नहीं आ सकता । मोदी भले ही चुप हो जाएँ मगर पब्लिक को तर्क के लिए ही सही एक नया मसाला तो मिल ही गया । 

इसीलिए नरेंद्र मोदी के लिए आसान नहीं होगा कि वे आप को नज़रअंदाज़ करें । आप के खाते में गए लोग कांग्रेस और बीजेपी स़े निकले हुए हैं । मोदी ने शुरू से ही पहली बार मतदाता बने युवाओं को ज़्यादा टारगेट किया है और उनमें अपनी पकड़ ज़रूर बनाई है । मोदी ने उन्हें इसलिए टारगेट किया कि ये नए लोग हैं । इनकी निष्ठाएँ नईं हैं । यो बीजेपी की कमज़ोरियों से कम वास्ता रखते हैं । इसलिए नेतृत्व की मज़बूत दावेदारी को फिर से उभारा गया जिसे दो दो बार आडवाणी जी सामने लाकर कमज़ोर मनमोहन से हार गए । मोदी ने इस पिटे हुए फ़ार्मूले को युवाओं के बीच ले जाकर लोकप्रिय बना दिया । अब अरविंद के आने से पहली बार मतदाता बने युवाओं के बीच मोदी और अरविंद में ज़बरदस्त प्रतिस्पर्धा होने जा रही है । पार्टियों की निगाह में  यह पहली बार मतदाता ज़्यादातर शहरी और पब्लिक स्कूल वाला है । इनके बीच से एक वोटर का भी मोदी से अरविंद की ओर जाना नुक़सान तो होगा ही । फिर भी यह बात अवधारणात्मक स्तर पर ही ज़्यादा प्रबल लगती है । वास्तविक गणित के धरातल पर कमज़ोर । 

अगर टीवी और सोशल मीडिया को यह श्रेय दिया जा रहा है कि आप इनकी पैदाइश है तो यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी काल्पनिक मीडिया के असर के कारण बीजेपी में मोदी की दावेदारी प्रखर हुई थी । मोदी की टीम ने भी इसे काफी प्रचारित किया था कि टीवी वालों को टीआरपी आती है इसलिए मोदी को दिखाते हैं क्योंकि मोदी सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं । इस तरह की बातें बीजेपी के कई नेताओं ने डिबेट शो में कहीं हैं । वे यह भूल गए कि टीवी को  सनसनी, स्पीड न्यूज़ और क्रिकेट से भी टीआरपी मिलती है । अरविंद के कारण भी मिल रही होगी ! इसलिए अब इस चरण पर आकर आप मीडिया के  प्रभाव( विवादास्पद) को ख़ारिज नहीं कर सकते । 

ज़ाहिर है मोदी आगे हैं । उनके पास संगठन है । आप के पास वोलिंटियर की ताक़त तो है मगर हर जगह समान सघनता नहीं है । लेकिन जिस तरह से कई जगहों पर लोग आप की तरफ़ देख रहे हैं ,बीजेपी आगे होते हुए भी इस नए फ़ैक्टर को अनदेखा नहीं कर सकती हैं । शहरीकरण के प्रसार को मोदी की कामयाबी से जोड़ा जा रहा था । इसमें एक और दावेदार आ गया है जो नया और आकर्षक है । दिल्ली की सात सीटों के अलावा आस पास की कुछ सीटों पर आप की मौजूदगी दस बीस तो हो ही जाती है । आगरा, कानपुर, नोएडा, ग़ाज़ियाबाद, पुणे, फ़रीदाबाद, गुड़गाँव, भिवानी, बंगलुरू जैसी सीटें ।  क्या बीजेपी ऐसी पंद्रह सीटों को अनदेखा करने का जोखिम उठा सकती है ?  हाँ अगर गडकरी अरविंद पर हमला करते हैं तो ज़रूर फ़ायदा आप को होगा । देखते हैं नरेंद्र मोदी कब तक आप या अरविंद को नज़रअंदाज़ करते हैं । मोदी के लिए मिशन 272 के लिए एक एक सीट ज़रूरी है । पहले तो उन्हें वाजपेयी के 186 सीटों का रिकार्ड तोड़ना है फिर मनमोहन सिंह से बड़ा नेता (२००९ के अनुसार) बनने के लिए 206 से ज़्यादा सीटें लानी हैं । इसलिए वास्तविक गणित का वक्त आने से पहले अवधारणात्मक गणित की कापी पर काट पीट और बढ़ जाएगी । 

मोदी की रैली में राजनाथ की शैली

क्या बीजेपी अब भी नरेंद्र मोदी को लेकर कंफ्यूज़ है ? मुंबई, वाराणसी और राँची । जहाँ भी मोदी की पहली बड़ी रैली होती है उस मंच पर राजनाथ सिंह क्यों होते हैं । अध्यक्ष के नाते तो हो सकते हैं और होना भी चाहिए लेकिन राजनाथ इस प्रक्रिया में मोदी को मिलने वाले पब्लिक स्पेस को कम कर रहे हैं । राजनाथ के भाषण से भले ही बीजेपी के लिए वोट न बनता हो मगर इसमें कोई शक नहीं कि वे अच्छा लच्छेदार और बैरीटोन आवाज़ में भाषण देते हैं । मोदी की कई रैलियों में देख रहा हूँ कि पहले राजनाथ का भाषण होता है और बाद में मोदी का । शिष्टाचार प्रक्रिया के तौर पर ऐसा होना भी चाहिए लेकिन अटल जी के शब्दों में यह अच्छी बात नहीं है ।

जितना मैंने देखा और समझा है मैं मोदी की टीम की रैली और छवि प्रबंधन शैली का क़ायल रहा हूँ । मोदी ने रैलियों में आई या लाई गई भीड़ का इस्तमाल सिर्फ अपनी लोकप्रियता जताने के लिए नहीं किया बल्कि राजनीति में बड़ी रैलियों को पुनर्जीवित किया है । आम तौर पर पिछले कुछ वर्षों में किसी एक राज्य में तमाम छोटी छोटी रैलियाँ हुआ करती थीं और मतदान क़रीब आने पर राजधानी में एक बड़ी रैली हो जाती थी । नेताओं कार्यकर्ताओं ने यह विश्वास खो दिया था कि लोग नहीं आयेंगे तो फ्लाप शो कहा जाने लगेगा । इससे उम्मीदवारों का भी काम प्रचार कार्य रूक जाता था । इसीलिए संकुचित आकार का मैदान ढूँढा जाता था । नरेंद्र मोदी ने खेल पलट दिया है । वे एक ही राज्य में कई बड़ी रैलियाँ करना चाहते हैं । बड़ा मैदान चुनते हैं । विधानसभा चुनावों को छोड़ दें तो मोदी की हर रैली बड़े पैमाने पर हो रही है । सिर्फ आकार नहीं बल्कि इस बात का ख्याल रखा जाता है कि नाम से भी मोदी की रैली बड़ी और आकर्षक लगे । गर्जना,महागर्जना, सिंहगर्जना, ललकार, चिंघाड़, फुंफकार विजय संकल्प । आम तौर पर शेर और साँप की तमाम ध्वनियों से उनकी रैली के नाम लिये जाते हैं । जब ये नाम समाप्त हो जायेंगे तब देखते हैं कि मोदी की क्रिएटिव टीम किस जानवर की ध्वनि से रैलियों के नाम गढ़ती है !! 

इतना ही नहीं मोदी की टीम ने मंच को भी नेता के अलावा आकर्षक बनाया है । आम आदमी पार्टी की कामयाबी के बाद भव्य आकर्षक लिखने में पैसे का भी बोध हो जाता है । खैर । मंच के पीछे 'वाचआउट' तकनीक का महँगा पर्दा होता है जिस पर आप प्रोजेक्टर से तस्वीर डालकर सिनेमा के पर्दे की तरह भव्यता पैदा कर सकते हैं । वीडियो स्क्रीन भी लगा होता है । कार्डबोर्ड से लाल किला और संसद की प्रतिकृति बनाई जाती है । कुछ दिन में प्रधानमंत्री निवास और साउथ ब्लाक( जहाँ पीएम का दफ़्तर होता है) भी बनने लगेगा । मोदी की टीम ने यह आइडिया कोलकाता के दुर्गा पूजा पंडालों से लिया है । जहाँ हर पूजा समिति महीनों सोचती है कि इस बार का पंडाल किस पर होगा । अमरीका के व्हाइट हाउस की तरह या ब्रिटेन के राजकिले की तरह । मैंने तो कोलकाता में कर्नाटक के विधानसौदा की नक़ल में पंडाल देखा है । दुर्गा पूजा पंडालों पर ताप्ति गुहा ठाकुर्ता ने अच्छी किताब लिखी है । कोलकाता में पंडालों में भीड़ का यह एक मुख्य कारण होता है । मोदी की टीम ने इसे राजनीतिक रैलियों में आज़माया है ।

अब इतना सबकुछ करने के बाद वहाँ सिर्फ और सिर्फ मोदी की छवि न हो तो क्या फ़ायदा । बीजेपी की अपनी मर्ज़ी कि वो क्या करें । पार्टी को पता है कि राजनाथ अकेले रैली करेंगे तो यही अनुशासित कार्यकर्ता दो हज़ार लोग भी नहीं जुटा पायेंगे । इसलिए पार्टी ने या राजनाथ ने खुद को मोदी के साथ अटैच कर लिया है । मगर मेरी नज़र में इससे मोदी को नुक़सान हो रहा है और सुनने वाले के दिमाग़ में कंफ्यूजन । किसी भी बड़ी रैली में बड़ा नेता एक ही होता है । उसके पहले के वक़्ता मजमा लगाने वाले होते हैं । इस लिहाज़ से राजनाथ सिंह को मोदी की रैली से दूरी बनाकर रखनी चाहिए । मुझे नहीं पता कि आडवाणी जी भी यही करते थे । जहाँ जहाँ अटल जी की रैली होती थी वहाँ वहाँ होते थे और अटल जी से पहले भाषण देते थे । याद तो नहीं आ रहा है । राजनाथ जी क्या नया अटल आडवाणी बन रहे हैं । मोदी युग में राजनाथ मोदी युग्म ! 


राजनाथ सिंह अपना और मोदी दोनों का नुक़सान कर रहे हैं । वे अपने दमदार भाषण से मोदी के आने से पहले जो असर पैदा करते हैं उससे श्रोता को निकल कर मोदीमय होने में वक्त लगता है । क्योंकि राजनाथ की आवाज़ असर पैदा करती है । जब वो घर लौटता होगा तो कंफ्यूज़ हो जाता होगा कि फ़लाँ बात राजनाथ ने कहीं थी या मोदी ने । मोदी की रैलियों के उबाऊ होने की ख़बरों में एक कारण यह भी हो सकता है । हैसियत के लिहाज़ से मीडिया राजनाथ के भाषण को भी लाइव दिखाता है । इस अनुपात के कारण मोदी का कोटा थोड़ा कम हो जाता है । टीवी में पहली बाइट मोदी की चलती है और दूसरी बाइट राजनाथ सिंह की । लोकपाल वाला राजनाथ बोलते हैं तो मोदी राहुल पर कुछ और बोलने के लिए मजबूर होते हैं ।अख़बार में रैली के बाद राजनाथ के भी बयान मोदी के साथ उसी कापी में छपते हैं । ऐसा लगता है रैली नहीं प्रेस कांफ्रेंस हुई थी । इसका मुख्य कारण है कि अध्यक्ष और उम्मीदवार दोनों का भाषण भावार्थ में एक होता है । सिर्फ पंक्तियाँ अलग होती हैं । एक पत्रकार कितना अलग करेगा । वो सोचेगा राष्ट्रीय अध्यक्ष के बयान को कैसे छोड़ सकते हैं । मोदी का काट कर राजनाथ का भी एक लगा दो । मोदी समर्थक मुझे कितनी गालियाँ देते हैं । कम से कम इस लेख के लिए तो शुक्रिया अदा कर ही सकते हैं !


पिछले एक साल से जब भी मोदी के प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनने की बात होती थी मैं अक्सर कहता था कि विरोध की सारी ख़बरें कमज़ोर हैं । आज तक पार्टी के भीतर नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ कोई भी बड़ा विरोध कामयाब नहीं हुआ है । हाँ उस तथाकथित विरोध की उम्र मीडिया में थोड़ी लंबी रही जिससे यह संदेश जाने में कामयाबी मिली की मोदी लड़ाके हैं । विरोध का सामना करते हैं । क्या मोदी के मंच पर अनिवार्य रूप से राजनाथ का होना उसी अंदरखाने की राजनीति का नया विस्तार है ? 

लगता है मोदी भी राजनाथ सिंह को अपनी रैली में एडजस्ट करने के लिए मजबूर हैं । कोई राष्ट्रीय अध्यक्ष को कैसे कहे कि आप मत आइये । ठीक मुझसे पहले मत बोलिये । एक बड़े नेता का भाषण सुनकर पब्लिक थक जाती होगी । मैं अंत में थकी हुई पब्लिक में जोश तो भर देता हूँ मगर अकेला रहता को और भर देता । चूँकि मोदी की रैली सुनी जाती है इस लिहाज़ से भी राजनाथ आकर उत्सुकता कम कर रहे हैं । तभी मैंने कहा कि क्या राजनाथ सिंह मोदी की रैली को कंफ्यूज़ कर रहे हैं ! या बीजेपी मोदी को लेकर कंफ्यूज़ है ! 

क़िस्सा ए शपथ ग्रहण

साहब मैं इंकम टैक्स में एल डी सी हूँ । शपथ ग्रहण समारोह में लोगों से हाथ छुड़ा कर तेज़ी से निकल रहा था तभी किसी ने मज़बूती से हाथ खींच लिया । मेरे पास अरविंद केजरीवाल के बहुत किस्से हैं । एक सुना दीजिये । टाइम नहीं है । ग्यारह बजने में कुछ ही मिनट रह गए थे । मुझे लाइव कवरेज के लिए जाना था । अलग अलग लोगों से कई किस्से सुनाई दिये , क्रमश: लिख रहा हूँ । 

एल डी सी ने अरविंद की कहानी यूँ सुनाई । एक रोज़ घोर बारिश में मैं सुबह सुबह दफ़्तर पहुँचा । पानी भर गया था । मैं पी डब्ल्यू डी को फ़ोन कर बाहर आया तो देखा कि एक आदमी पतलून मोड़कर झाड़ू चला रहा है । नालियों को साफ़ कर रहा है । मुझे लगा कि दफ़्तर का चपरासी होगा । मैंने कहा कि कंप्लेन कर दिया है । तो उसने जवाब दिया कि पी डब्ल्यू डी वाले तो तीन घंटे में आयेंगे । ज़रा गटर का ढक्कन उठाने में मदद कीजिये । मैंने मदद कर दी । थोड़ी देर में पानी साफ़ हो गया । सबके आने का टाइम हो गया था । कमरे में फ़ाइल लेकर गया तो देखा कि यह तो वही है जो गटर साफ़ कर रहा है । ये तो मेरा कमिश्नर है । 

कहते कहते अरविंद से उम्र में काफी बड़े लग रहे जनाब ने कहा कि अरविंद ने हम सबको प्रेरित किया । हड़काया नहीं । समझाया कि रिश्वत मत लो । वे हम लोगों को काफी समझाते थे । तब से मैंने रिश्वत लेनी बंद कर दी । मैं हमेशा नान असेसमेंट की पोस्टिंग लेता हूँ । असेसमेंट की पोस्टिंग के लिए न तो रिश्वत देता हूँ और न लेता हूँ । 

दिल्ली पुलिस के एक सिपाही ने बैरिकेड के दूसरी तरफ़ से मुझे पकड़ लिया । कहा कि आप हमारा मसला क्यों नहीं उठाते । हमें आठ घंटे की शिफ़्ट दे दो । बच्चों के लिए क्रैश होना चाहिए । एक दिन की छुट्टी तो हो हफ्ते । हम रिश्वत नहीं लेंगे । अभी हम चौबीस घंटे काम करते हैं । कोई छुट्टी नहीं । कौन चाहता कि रिश्वत लें । जिसे बताता हूँ कि कांस्टेबल हूँ वो मुझे चोर समझता है । भाई साहब ईमानदारी की रोटी खाने का दिल करता है । आज यहाँ ड्यूटी लगी है तबीयत मस्त है । 

भागते हुए एक लड़के की आवाज़ सुनाई दी । छोटा सा लड़का होगा । मेरी बहन को जलाकर मार दिया है । कोई केस नहीं हो रहा है । 

मंच के क़रीब पहुँचने ही वाला था कि मैं डेमोक्रेसी पढ़ाती हूँ । यह सही में जनता के लिए जनता के द्वारा वाला लोकतंत्र है । मैं आज अकेले आई हूँ । देखिये इस भीड़ में अकेली बैठी हूँ । 

भाई साहब आज सतयुग आ गया है । तभी किसी ने आवाज़ दी कि आज लगता है कि कृष्ण का जन्म हो रहा है । एक ने कहा जय श्री राम । राम राज अरविंद लायेंगे । 

आप भी चुनाव लड़ जाओ । पत्रकारिता में कुछ नहीं रखा है । लोगों की सेवा करो । नहीं जी । राजनीति मैं नहीं करूँगा । अरे आप मत करना । हम आपको जीता देंगे । :) 

ये लीजिये अमरूद खाइये । आम आदमी का अमरूद । 

मैंने एक आपाई से सवाल कर दिया िक लोग आपके आचरण को देख रहे हैं । जवाब मिला कि हमें अहसास है । क्या है न जी । अभी तक हमें भ्रष्ट नेता मिले हैं तो हम भी वैसे हो गए हैं । अब ईमानदार नेता मिला है तो हम भी हो जायेंगे । 

स्टेशन की वीआईपी पार्किंग में वहाँ के कर्मचारियों के साथ बैठा था । शपथ ग्रहण से लौट कर थक गया था । गणेश ने कहा कि एक बात है गुरु जी । अरविंद की रैली में वो लोग आते हैं जिनकी तनख्वाह पंद्रह से बीस हज़ार है । मोदी की रैली में वो लोग आते हैं जिनकी तनख़्वाह पचास हज़ार से अधिक है । 

ये कहानियाँ खुद को याद दिलाने के लिए लिखीं हैं । 

आप का प्रधानमंत्री कौन ?

राजनीति क़यासों का खेल है । आम आदमी पार्टी ने जब से तीन सौ से भी अधिक सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ने का मन बनाया है तब से ही यह सवाल घूम रहा है कि आम आदमी पार्टी की तरफ़ से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार कौन होगा ? इसका जवाब ढूँढते ढूँढते मैं अरविंद केजरीवाल पर पहुँच जाता हूँ । तब मैं सोचने लगता हूँ कि अरविंद केजरीवाल क्या गुजरात के मुख्यमंत्री की तरह प्रधानमंत्री का उम्मीदवार जल्दी हो जायेंगे या मार्च अप्रैल में होंगे । दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी अभी भी ख़ाली लगती है । यह सिर्फ एक क़यास है । 

इसलिए कि बीजेपी ने मोदी के रूप में अपना उम्मीदवार सबसे पहले उतार दिया था । मोदी को भाव न देने के चक्कर में कांग्रेस ने कहना शुरू कर दिया था कि हम पार्टी के रूप में चुनाव लड़ते हैं । तब कांग्रेसी डरते थे कि राहुल गांधी का नाम लेंगे तो मोदी से सीधा मुक़ाबला होगा और इससे बचना चाहिए । मगर चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जो गत हुई उससे पार्टी ने अपनी लाइन बदल दी । नतीजों के दिन ही सोनिया गांधी ने कह दिया कि कांग्रेस के प्रधानमंत्री का उम्मीदवार देंगे । इसीलिए सत्रह जनवरी को कांग्रेस जयपुर की तरह बैठक करने वाली है । जिस तरह से राहुल सक्रिय हुए हैं उससे तय लगता है कि राहुल गांधी उम्मीदवार होंगे । 

तो दो उम्मीदवार तय हैं । राहुल नहीं भी हों तब भी कांग्रेस किसी का नाम तो तय ही करेगी । आज जब नरेंद्र मोदी  का ब्लाग आया तो तुरंत सूचना फ़्लैश होने लगी कि राहुल गांधी प्रेस कांफ्रेंस करेंगे । मोदी और उनके समर्थकों ने राहुल पर चुप रहने या मीडिया से बात न करने का आरोप लगाया था । तब अंग्रेज़ी के कई बड़े पत्रकारों ने भी अख़बारों में लिखा था कि राहुल सोनिया मीडिया से बात क्यों करते हैं । मोदी जब से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार हुए हैं मीडिया के किसी हिस्से से बात नहीं की है । चंद विदेशी एजेंसियों को ज़रूर इंटरव्यू दिया है मगर बहस के लिए सबको ललकारने वाले मोदी ने कभी इंटरव्यू नहीं दिया या प्रेस कांफ्रेंस नहीं किया । िबहार धमाके के बाद ज़रूर मीडिया के कैमरे के सामने आए मगर सवाल जवाब का मौक़ा नहीं दिया । सद्भावना यात्रा के दौरान मोदी ने ज़रूर बस में इंटरव्यू दिया था । राहुल गांधी प्रेस कांफ्रेंस करने लगे हैं । राहुल के आलोचकों की जीत हुई है । उधर अदालत ने गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका को साबित करने के लिए कोई सबूत न मिलने की एस आई टी रिपोर्ट पर मुहर लगा कर मोदी को बड़ा राजनीतिक बल प्रदान किया है । इससे मोदी को अपने नाम के कारण गठबंधन बनाने में हो रही दिक़्क़तें भी दूर हो जायेंगी । वैसे इस फ़ैसले से पहले ही चंद्राबाबू नायडू, जगमोहन रेड्डी चौटाला येदियुरप्पा ( अलग से) मिलने लगे थे । जयललिता तो है हीं । मगर अन्ना द्रमुक ने भी प्रस्ताव पास किया है कि अगला प्रधानमंत्री तमिलनाड से हो । मगर यह महज़ एक औपचारिकता लगती है । जयललिता अपनी कुर्सी छोड़ कर अस्थिर सरकार का नेतृत्व नहीं करेंगी  ।

राहुल लगातार खुद को बदल रहे हैं । मोदी बहुत आगे निकल चुके हैं । फिर भी मधु कौड़ा और लालू से समझौता लोकपाल के बहाने राहुल भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कैसे खड़े होते दिख सकते हैं । फिर भी वे आदर्श घोटाले के बारे में महाराष्ट्र सीएम के सामने कह रहे हैं कि मेरी राय है कि रिपोर्ट को रिजेक्ट करने के फ़ैसले पर विचार किया जाए । मेरी राय ?   जो भी हो प्रेस कांफ्रेंस से लग रहा है कि ये वो राहुल नहीं हैं । पहले से ज़्यादा स्पष्ट और मुखर हैं । ख़ुद को ऐसे राजनीतिक अंतर्विरोधों के हवाले करने लगे हैं जिसके कारण मीडिया से भागा करते थे ।  जिस तरह से वे मीडिया के सवालों का सामना कर रहे हैं जल्दी ही उन्हें मँजा हुआ नेता बनाने लगेगा । तो राहुल तैयार हो गए हैं । मोदी तैयार है ही । मैंने खुद कई लेखों में राहुल को कच्चा कहा है । यह वे खुद साबित कर देते हैं जब उस दिन प्रेस कांफ्रेंस कर गुजरात दंगों पर कुछ नहीं बोलते हैं जब मोदी कैमरे पर आये बिना ब्लाग पर विस्तार से लिखते हैं कि कैसे उन्होंने आरोपों की पीड़ा झेली है तब जब वे खुद आहत हैं । रविशंकर प्रसाद ने भ्रष्टाचार पर राहुल के बयान को दोहरापन बताया है । 

अब इस स्थिति में संभव नहीं लगता कि आम आदमी पार्टी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के बिना उतरेगी । राहुल और मोदी पर कौन हमला करेगा और किस हैसियत से । दिल्ली चुनाव में अरविंद ने शीला दीक्षित को प्रथम निशाने पर रखा था । बीजेपी पर भी हमला होता था मगर सीधा हमला कांग्रेस पर होता था । मोदी आम आदमी पार्टी पर निशाना साधते थे मगर नाम लेकर नहीं । अरविंद का तो नाम भी नहीं लिया है । मगर क्या लोकसभा में आप इसी रणनीति पर चल पायेगी । तकनीकी रूप से मनमोहन सिंह की सरकार प्रथम निशाने पर होगी लेकिन राजनीतिक रूप से इस लड़ाई में नरेंद्र मोदी पहले नंबर पर आ चुके हैं । क्या आप नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला करेगी । आप के तेवर से लगता है कि कांग्रेस से समर्थन लेकर अपराधबोध से ग्रसित है । इसलिए पहला एलान राहुल गांधी के ख़िलाफ़ कुमार विश्वास को उतारने का किया । गुजरात में आम आदमी पार्टी के सक्रिय होने की ख़बरें तो आ रही हैं लेकिन क्या लोकसभा चुनाव में अरविंद शीला के ख़िलाफ़ लड़ने का मास्टर स्ट्रोक दोहरा पायेंगे । क्या वे नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ेंगे । गांधीनगर या बनारस से । मोदी पर उनका सीधा हमला मुस्लिम मतदाताओं के बीच स्पष्ट दावेदार बनायेगा । दिल्ली में जिसकी कमीं के कारण आम आदमी पार्टी को मुसलमानों के वोट तो बहुत मिलें मगर एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं जीत सका । वर्ना कांग्रेस की आठ सीट में से पाँच आप के पास होती । देखते हैं अरविंद केजरीवाल गुजरात दंगों पर मोदी के ब्लाग को लेकर चुप रह जाते हैं या बोलते हैं ।  क्या मोदी अरविंद का नाम लेकर हमला करेंगे ? जैसा वो राहुल को शहज़ादे बताकर करते हैं । मोदी चुप हैं मगर जेटली ने फ़ेसबुक के स्टेटस के ज़रिये आम आदमी पार्टी पर खूब हमला किया है । दिल्ली बीजेपी ने तो चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी और अरविंद को विरोधी नम्बर वन घोषित कर दिया है । टकराव की पृष्ठभूमि तैयार है मगर आमना सामना नहीं हो रहा है ।

आम आदमी पार्टी ने लोकसभा की रणनीतियों पर विचार करने के लिए दो सदस्यों की कमेटी बनाई है । देखते हैं क्या नतीजा निकलता है । लेकिन देश भर में फैले आप के वोलिंटियर में जुनून पैदा करने के लिए भी ज़रूरी होगा कि अरविंद केजरीवाल को आप प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर पेश करे । तो तीन तीन दावेदार होंगे इस बार प्रधानमंत्री के । राहुल और मोदी दोनों के पास अण्णा ढाल है । अरविंद और मोदी का आमना सामना दिलचस्प होगा अगर हुआ तो । यह भी देखेंगे कि नाम लेकर पहला वार कौन करता है । मोदी या अरविंद । रही बात ये कि दिल्ली का मुख्यमंत्री कौन होगा तो जैसा कि मैंने शुरू में कहा राजनीति क़यासों का खेल है । 

आप की सरकार से सरकार आपकी

तेज़ तो आइडिया वाले निकले । दिल्ली में सरकार बनानी है और पार्टी जनता से पूछ रही है । व्हाअट अन आइडिया सर जी । सलमान की फ़िल्म जय हो का संवाद है आम आदमी वो सोता हुआ शक है टाइप । तो बात गले से उतरी या सर के ऊपर से निकल गई । मीमांसा करते रहिए । जिस पार्टी का उदय ही अंत की भविष्यवाणियों से हुआ है उसे अपनी शुरूआत करने का मौक़ा मिल गया । नीली कार में जाते हुए अरविंद की तस्वीर शिव के गले की तरह लग रही थी । सब अरविंद को अपने हिसाब से देखना चाहते हैं । अंत होते हुए भी और सफल होते हुए भी । अरविंद ने क्या चुना है ज़रा ठहर कर देखते हैं । ओ डार्लिंग तू धुआँधार है दिल मेरा दिल्ली तू सरकार है । ये गाना भी अभी अभी दिखा उसी टीवी पर । 



दिल्ली में राजनीतिक परिवर्तन तो नहीं हुआ क्योंकि आप के पास स्पष्ट बहुमत नहीं है मगर आप के प्रभाव से राजनीतिक परिवर्तन ज़रूर हुआ । चंदों की पारदर्शिता की बात हुई । बीजेपी को अपना उम्मीदवार बदलना पड़ा और तोड़ फोड़ से तौबा करना पड़ा । अब बीजेपी नैतिक होने का दावा कर रही है । भूल गई कि तीस प्रतिशत बिजली बिल कम करने का दावा उसने भी किया था । अगर अरविंद पचास की जगह तीस कर दें तो । अगर पचास प्रतिशत कम करने का दावा ग़लत था तो तीस प्रतिशत वाला क्या था । जिस तरह से कांग्रेस और बीजेपी आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र की पढ़ाई कर रही हैं वो एक शुभ संकेत हैं । अरविंद को भी कांग्रेस बीजेपी को सही साबित होने से रोकना पड़ेगा । अगर इसी दबाव में सरकार कुछ कर पाती है तो चीज़ें बदलेंगी । अरविंद के फ़ेल होने का ख़्वाब कांग्रेस बीजेपी के लिए सुनहरा है । बस साकार होने की देर है । और अगर अरविंद ने ग़लत साबित कर दिया तो ? इस संभावना पर कोई नहीं बोल रहा है । ज़्यादातर आश्वस्त हैं कि अरविंद फ़ेल होने जा रहे हैं । नौकरशाही जो कांग्रेस बीजेपी की संस्कृति की अभ्यस्त है वो पानी पिला देगी । आप को अब लड़ाई वहाँ लड़नी होगी । फ़ाइलों की कलाबाज़ी पर कांग्रेस बीजेपी को यूँ ही इतना भरोसा नहीं है । सब चाहते हैं कि अरविंद पहली गेंद में ही सौ बना दें । कांग्रेस बीजेपी की नाकामियों पर इन्हें इतना भरोसा है कि वे अदल बदल कर दोनों को आज़माने में कोई गुरेज़ नहीं महसूस करते । आलोचक अरविंद को दूसरा मौक़ा नहीं देना चाहते ।  चाहते हैं कि पहले दिन ही सारे वादे लागू कर दें । सरकार पाँच साल की होती है । मूल्याँकन पाँच साल में होगा कि छह महीने में । क्या छह महीने का पैमाना सभी सरकारों के लिए लागू होने जा रहा है । आलोचक कांग्रेस बीजेपी को पच्चीस मौक़े देना चाहते हैं । अरविंद की ओबिच़्ुअरी तैयार है बस उनके ही दस्तखत का इंतज़ार है । 


कांग्रेस से साथ लेना हर क़दम पर अरविंद को तकलीफ़ देगा । पहले से गरिया कर हमले कर समर्थन लेने की रणनीति पहले कभी नहीं देखी गई थी । यूपीए के मामले में सपा और बसपा का ऐसा उदाहरण दिखता है । दोनों मनमोहन सिंह को गरियाते हैं और मनमोहन उनका साथ लिये रहते हैं । अरविंद समर्थन नहीं ले रहे थे तो कांग्रेस बीजेपी ने भगोड़ा कहना शुरू कर दिया । जब ले लिया तो मौक़ा परस्त । चुनाव होता तब भी सब भगोड़ा कहने वाले थे । अरविंद पर ज़िम्मेदारी से भागने के लतीफ़े किसने फैलाये सब जानते हैं । जैसे विपक्ष में बैठने और सरकार बनाने के फ़ैसले में अरविंद को ही फंसना था । जैसे राजनीति में कांग्रेस बीजेपी की दलील ही अंतिम होती है । अरविंद ने हर समय चुनौती स्वीकार की है । ये चुनौती नहीं है । ज़हर का प्याला है । आलोचनायें तो हज़ार होती हैं । आपको अपनी बुनियाद पर टिके रहते हुए फ़ैसला लेना पड़ता है । कांग्रेस के सहारे सरकार बनाने का फ़ैसला बीजेपी के लिए मिसाइल है और कांग्रेस के लिए मौक़ा । अरविंद के लिए क्या है ? अगर आप ने कर के दिखा दिया तो ? राजनीति हाँ या ना में नहीं होती । कई सवालों जवाबों की परतों पर होती है । पहला दिन है इसलिए शुभकामनायें । 

मत बनना उम्मीदवार भाई

आदरणीय राहुल जी,

सुना है कांग्रेस के ही लोग आपको फिक्स करना चाहते हैं । प्रधानमंत्री पद के लिए आपके नाम का एलान मोदी स्टाइल में करवाना चाहते हैं । पर इसे लेकर संदेह किसको था । किसी को नहीं । मैं यह ख़त इसलिए लिख रहा हूँ कि आप अपने दरबारियों की सुनने से पहले अपनी सुनिये । उनके झाँसे में मत आइये । ये आपका टाइम नहीं है । राजनीति में जब टाइम ख़िलाफ़ हो तो बस पैदल चला जाता है । लड़ा जाता है । किसी पद के लिए नहीं बल्कि अपने उसूलों के प्रति आस्था ज़ाहिर करने के लिए । आपकी पार्टी पहले प्रधानमंत्री के नाम पर चुप हो जाती थी अब अचानक मुखर हो गई है । मुझे लग रहा है कि सब आपको कांग्रेस की हार का ज़िम्मेदार बनाना चाहते हैं । वैसे ये जोखिम हर नेता को उठाना चाहिए लेकिन जब यह लगे कि हार का कारण नेता स्वयं हो सकता है तो दो क़दम पीछे हटने में कोई बुराई नहीं है ।

ऐसा नहीं है कि लोग आपको आपके भाषणों के कारण पसंद नहीं करते हैं । जिन्हें पसंद करते हैं उनके भाषण में भी कुछ ख़ास नहीं है । कोई कार्यक्रम नहीं है । निंदा ही निंदा है । लेकिन उनका टाइम सही चल रहा है । पाँच साल में मनमोहन सिंह और उनकी टीम ने आपको कहीं का नहीं छोड़ा है । आप मनमोहन सिंह की सरकार का बचाव नहीं कर पायेंगे । महँगाई और भ्रष्टाचार तो लोग भी महसूस करते हैं । आप मनमोहन सिंह सरकार के प्रति नाराज़गी को कम आंक रहे हैं । आपकी पार्टी सौ से नीचे जा रही है और नरेंद्र मोदी अकेले बहुमत के क़रीब बढ़ रहे हैं । बढ़ चुके हैं । 

आप इस ढलान को किसी मास्टर स्ट्रोक से रोक सकते हैं इस बात का कोई प्रमाण नहीं दिया है । हाल के विधानसभा चुनाव के नतीजे आपकी रणनीतिक तैयारियों की भी हार है । मोदी की जीत सिर्फ लहर नहीं है । मोदी के नेतृत्व में या सत्ता पाने की होड़ में ही सही बीजेपी बेहतर तैयारियों के साथ लड़ रही है । बल्कि एक साल से लड़ रही है । आपकी पार्टी जयपुर से लौटकर सो ही गई । यक़ीन न हो तो आप इंटरनल आडिट करा लें । दिल्ली कांग्रेस की हालत का पता कर लें । आप उपाध्यक्ष के तौर पर भी पूरी पकड़ नहीं बना पाये हैं । आपके कई युवा सांसद युवाओं तक की आवाज़ नहीं हैं । उनकी कोई सार्वजनिक राजनीतिक सक्रियता नहीं है ।  वे युवा होकर पुराने की तरह बर्ताव करते हैं । एक ही काम है । राहुल राहुल करो । एक भी चुनाव में कांग्रेस की रणनीति की चर्चा नहीं हुई । पता कर लीजिये । मोदी या बीजेपी ने एक पैटर्न बना लिया है । वो कांग्रेस की मौजूदा सीटों को टारगेट कर अपनी हारने वाली सीटों की भरपाई करते हैं । यक़ीन न हो तो आप गुजरात से लेकर छत्तीसगढ़ तक में उन सीटों के आँकड़ें निकलवा लें कि जो कांग्रेस से निकल कर बीजेपी में गईं । यही रणनीति बीजेपी लोकसभा में अपनाएगी । अपनी सीटें बचायेगी और आपकी दो सौ छह सीटों पर हमला कर देगी । उसकी संख्या दो सौ से आसानी से पार हो जाएगी । 

आपका भी टाइम आएगा जब आप पचपन साठ के हो जायेंगे । यही जनता जो आपसे दूर जा रही है कहेगी कि बंदे ने राजनीति में श्रम किया है । एक चांस दे दो । जैसा कि वो इस वक्त मोदी को बारे में कहती है । यही मोदी अगर पिछले चुनाव में दावेदारी करते तो कोई गंभीरता से नहीं लेता । आपकी पार्टी इसी इंतज़ार में रह गई कि मोदी का घोड़ा पहले निकला है और पहले चलकर थक जाएगा । आपका घोड़ा देर से निकल कर ज़्यादा तेज़ दौड़ेगा तो क्या नहीं थक जाएगा । मोदी को कार्यकर्ताओं ने बनाया है । कैसे बनाया वो अब इतिहास है और उसका कोई मतलब नहीं रह गया । कांग्रेस का कार्यकर्ता आपके साथ नहीं है । कार्यकर्ता है भी तो पब्लिक नहीं है । मनमोहन सिंह आपकी हार के गारंटी प्रमाण पत्र हैं । यह मैं पहले भी लिख चुका हूँ । 

बीजेपी आपकी हर रणनीति को धो डालती है । आप पहले दलितों के घर खाना खाने गए । नरेंद्र मोदी ने सही तरीके से उसका इस्तमाल आपका मज़ाक़ उड़ाने में किया । अब उसी बीजेपी के शिवराज सिंह चौहान दलित के घर खाते हुए फोटू खींचा रहे हैं क्योंकि तीन राज्यों की ज़्यादातर आरक्षित सीटें बीजेपी के पास गईं हैं । आपने शुरूआत की कालेजों में जाने की । बाद में मोदी भी जाने लगे । आपने अण्णा आंदेलन के समय युवाओं से नाता तोड़ लिया । संवाद की न सामने आए । ये वही टाइम था जब साठ पैंसठ के मोदी ने बयालीस साल के युवा नेता को ठेलते हुए उनसे रिश्ता जोड़ लिया । और दिल्ली के कालेजों की लड़कियाँ जो आपको देखकर आई लव यू बोला करती थीं वो वेअर आर यू कहकर आप पर खीझ उतारने लगी । आपने कालेजों में जाना बंद कर दिया । इसीलिए कहता हूँ ये आपका टाइम नहीं है । युवाओं पर अरविंद या मोदी का असर है । आपका नहीं है सर । 

तो क्या कहा मैंने । प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनना है । हारने के लिए मीरा कुमार या चिदंबरम को आगे कर दीजिये । मीरा कुमार से भले जीत न मिलेगी मगर हार थोड़ी सम्मानजनक लगेगी । लेकिन दलितों के बीच भी बीजेपी ने पैठ बना लिया है । तो वहाँ भी आसान नहीं है । जबतक मनमोहन सिंह हैं आपकी हार तय है । कोई चमत्कार ही इसे टाल सकती है । आपकी पार्टी भी हारने के लिए तैयार लगती है । कई नेताओं से मिलता हूँ तो वो जल्दी में लगते हैं । दिल्ली छोड़ने की । थक गए हैं राज करते करते बेचारे । हारना चाहते हैं । उनकी देहभाषा बताती है । आपके बेहद ख़राब भाषण की देहभाषा भी वैसी ही है । इसलिए चुनाव में किसी और के नेतृत्व में जाइये । उसे पूरी आज़ादी दीजिये । कम से कम लड़ते हुए नज़र तो आइये । कांग्रेस में मोदी को जो कमज़ोर समझते हैं दरअसल वो चाहते हैं कि आप इसी मुग़ालते में कमज़ोर बने रहे । अब यही आपको प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाकर अपनी कमज़ोरी छिपाना चाहते हैं । अब मैं आपको कांग्रेस की पोलिटिक्स सिखाऊंगा ! बाक़ी तो जो है सो हइये है । 

महिंद्रा का युवराज

अचानक नज़र इस छुटकु ट्रैक्टर पर पड़ी तो पचीस साल पहले की घटना याद आ गई । पटना में किसी ने मित्शुबिशी ट्रैक्टर की डीलरशिप ली थी । सवा लाख का सफ़ेद रंग का छोटा सा ट्रैक्टर । बेहद ख़ूबसूरत । लगा कि ये तो कमरे में आ जाएगा और हम भी जापानी तकनीक से खेती में क्रांति कर देंगे । बात आई गई होगी । किसी ने ख़रीदा नहीं तो दुकान बंद हो गई । मित्शुबिशी का वो ट्रैक्टर बड़े ट्रैक्टर का लघु रूप नहीं था जैसा कि महिंद्रा का युवराज 215 है । हमारे पास इसका बड़ा भाई स्वराज हुआ करता था । 



आज इंदिरापुरम में इस ट्रैक्टर को देखा तो रहा नहीं गया । पहले तस्वीर ली और बाद में पता किया तो ड्राईवर ने बताया कि ग़ाज़ियाबाद विकास प्राधिकरण ने कचरा उठाने के लिए ऐसे आठ ट्रैक्टर लिये हैं । ये ढाई लाख का है और काफी फ़ुर्तीला है । 

गूगल किया तो पता चला कि यह छोटा ट्रैक्टर तीन साल पहले लाँच हो चुका है । राजकोट की फैक्ट्री में बनता है । गूगल में क़ीमत क़रीब दो लाख ही है । पच्चीस किमी प्रति घंटे की रफ़्तार से चलता है । बड़े ट्रैक्टर मालवाहक ज़्यादा हो गए हैं । जोत का आकार घटता जा रहा है । शायद ऐसे ट्रैक्टर की ज़रूरत है जिसे किसान खुद चला सके । जिसे खेती करने वाली महिलायें चला सकें । ड्राईवर रखने की ज़रूरत नहीं होगी । लिहाज़ा किसान का ख़र्चा बचेगा । इससे कोई भी खेत जोत सकता है । गूगल से पता चला कि युवराज 215 गुजरात और महाराष्ट्र में काफी लोकप्रिय बताया 

गूगल में भी बहुत जानकारी नहीं है । दुख की बात है कि न्यूज़ चैनलों पर हर हफ़्ते मोटरसाइकिल से लेकर नाना प्रकार के कारों की समीक्षा होती है । लेकिन ऐसे शो में किसानों और क़स्बों की ज़रूरत वाली गाड़ियों की कभी चर्चा नहीं होती । खेती को तकनीकी की ज़रूरत है । हम इस पर बात नहीं करेंगे तो इसे लेकर अनुभव और ज्ञान का संचय कैसे करेंगे । 

अगर लोकपाल पास हो गया तो

किस रूप में पास होगा इस पर विद्वान बहस करते रहेंगे लेकिन जिस तरह से कई दलों ने मिलकर लोकपाल आंदोलन को कमज़ोर किया उसका नज़ारा फिर देखने को मिलेगा क्या । ये वही दल हैं जो जंतर मंतर पर आकर सहमति जता गए थे, भाषण तक दे गए । बाद में राजनीतिक दलों की राजनीति घूमती चली गई और आंदोलन के साथी यहाँ वहाँ बिखरने लगे । संघ और बीजेपी ने दावा कर दिया कि हमारे लोग भी गए थे । रामलीला और जंतर मंतर की भीड़ में हिस्सेदारी की दावेदारी करने लगे । चुनाव ने बता दिया कि अगर भीड़ बीजेपी या संघ कार्यकर्ताओं की थी तो नतीजा ऐसा क्यों हुआ । फिर भी लोकपाल पास होगा तो बीजेपी श्रेय लेगी कि हमारे लोग भी आंदोलन का हिस्सा थे जिसे अरविंद ने अपना बना लिया । उस दौरान दिग्विजय सिंह बोलने लगे कि संघ के इशारे पर आंदोलन चल रहा है । रामदेव और उनकी टीम अलग हो गई और वे कांग्रेस का समूल नाश करने के अभियान पर गए और मोदी को हरिद्वार बुलाया । उन्हें आशीर्वाद दिया और उनसे लिया । उधर संसद के भीतर भी लोकपाल को साथ यही हुआ । किसी और को मोहरा बनवाकर बिल फड़वा दिया गया । अचानक वी के सिंह अण्णा के साथ आए और आंदोलन का स्वरूप कुछ और होने लगा । वी के सिंह रेवाड़ी में अण्णा के साथ हो गए तो अण्णा को बुरा नहीं लगा । जबकि वो राजनीतिक मंच था । जनरल सिंह अण्णा के साथ रालेगण के मंच पर हैं । अण्णा सबके हिसाब से बदलने लगे तो अरविंद को रास्ता बदलना पड़ा । अरविंद पर भी आरोप लगा अण्णा को बदल देने का । अण्णा ने कहा कि जनलोकपाल पास करो । जोकपाल नहीं । अरविंद ने कहा अण्णा का लोकपाल पास करो । अण्णा ने कहा कि तुम एक दल हो इसलिए मेरा नाम मत लो । 

लोकपाल को लेकर संसद और सरकार के भीतर भी कम खेल नहीं हुआ । कांग्रेस का कुछ बीजेपी का कुछ लोकपाल । जनलोकपाल तो कभी था ही नहीं । 
अब सवाल यह है कि अण्णा क्या जनलोकपाल के लिए अनशन पर हैं या सलेक्ट कमेटी के लोकपाल के लिए । आज अण्णा का भाषण था कि जो सलेक्ट कमेटी ने पास किया है उसे पास करो । किरण बेदी ने प्राइम टाइम में कहा कि हम केंद्र के लोकपाल के लिए संघर्ष कर रहे हैं । राज्यों में लोकायुक्त के लिए राज्य के लोग संघर्ष करेंगे । यह लाइन नई है क्या ? राज्य में कौन संघर्ष करेगा । किरण जी ने कहा कि अभी हम चाहते हैं कि सौ में अस्सी प्रतिशत पास हुआ है वो ठीक है । बाक़ी का बीस बाद में ले लेंगे । अगर आप बीस प्रतिशत छोड़ सकती हैं तो सरकार को भी दो चार प्रतिशत की रियायत देंगी की नहीं । जेटली ने भी कहा है कि सरकार सलेक्ट कमेटी ले आए और बिना बहस के पास करा ले । सोमवार की जगह शुक्रिवार को ले आए । यह समान पोज़िशन देखकर कांग्रेस को शक हुआ कि किरण बेदी और बीजेपी का मत एक सा कैसे हो गया । किरण नहीं अण्णा और बीजेपी का । वैसे आज के भाषण में अण्णा ने कांग्रेस बीजेपी दोनों की आलोचना भी की है । 

सोमवार से पहले शुक्रवार को लोकपाल पास करने की क्या रणनीति हो सकती है ? दिल्ली में सरकार बनने से पहले अरविंद से एक बड़ा मुद्दा छीन लो ताकि उन्हें कांग्रेस बीजेपी से समर्थन लेने पर मजबूर किया जा सके । अण्णा को सलेक्ट कमेटी वाले लोकपाल के लिए राज़ी कर लो । ताकि अरविंद अण्णा के नाम पर उस लोकपाल को स्वीकार करने के लिए मजबूर हो जायें जिसे वे जोकपाल कहते हैं । फिर बीजेपी या कांग्रेस कहेंगे कि हम भी तो भ्रष्टाचार के लिए लड़ते हैं हमसे बिना शर्तें समर्थन ले लीजिये ताकि वे इसे बाद में 'राजनीति में सबको समझौता करना पड़ता है' के नाम पर भुना लें और अरविंद को किनारे लगा दें । अगर अरविंद ने यह कहा कि यह लोकपाल मंज़ूर नहीं है जिसे अण्णा ने मंज़ूर किया है तो बीजेपी कहेगी (कांग्रेस भी) कि अब इन्हें अण्णा का लोकपाल भी मंज़ूर नहीं । सरकार नहीं बनाते, क़ानून नहीं बनाते तो ये चाहते क्या है । हम पर भरोसा नहीं और अण्णा पर भी नहीं । एक तरह से भ्रम की ऐसी स्थिति पैदा कर दी जाएगी जिससे अरविंद को घेरा जा सके । बीजेपी अपना हश्र कांग्रेस वाला नहीं करवाना चाहेगी । कोई भी दल नहीं चाहता है कि राजनीति में आदर्शों की कोई बात करें और सफल हो । सब मिलकर अरविंद को नकारा साबित कर देंगे । बीजेपी ने अरविंद से लड़ना शुरू कर दिया है । गेम अब शुरू हुआ है । मज़ेदार मुक़ाबला होने जा रहा है । यह मोदी का दाँव है या कांग्रेस का । अरविंद से यह पूछा जायेगा कि आप जिस लोकपाल के लिए राजनीति में आए वो हमने बना दिया । अब राजनीति में आपका प्रयोजन समाप्त होता है । आपको क्या लगता अरविंद के पास कोई जवाब नहीं होगा । देखते हैं । आख़िर कांग्रेस बीजेपी ने अपने चुनावी खर्चे के बारे में नहीं ही बताया , क्या कर लिया पब्लिक ने या आम आदमी पार्टी ने । इन दो दलों से पंगा लेना आसान नहीं है ।

कांग्रेसगण कृपया ध्यान दें !

बदलाव सरकार में ज़रूरी है मगर राहुल पार्टी को बदलने में वक्त लगाना चाहते है तो उनकी मर्ज़ी । मनमोहन सिंह को बचाकर कांग्रेस इधर उधर का सामान ठीक करेगी तो कुछ हाथ नहीं लगेगा । कांग्रेस को समझना होगा कि लोग सरकार की वजह से पार्टी से नाराज़ है । इससे पहले कि जनता इस सरकार को किसी और स्तर पर ख़ारिज करें कांग्रेस को खुद कर देना चाहिए तभी जनता उसके बदलाव की मंशा पर थोड़ा यक़ीन करेगी । मतलब साफ़ है सरकार के नेतृत्व को लेकर फ़ैसला करना होगा । सोनिया गांधी का कहना कि जल्दी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार का नाम सामने लायेंगे राजनीतिक मक़सद को बहुत साफ़ नहीं करता । एक प्रधानमंत्री के रहते जब वे दूसरे के नाम का एलान करेंगी तो मनमोहन सिंह अपने आप कांग्रेस की नज़र में रिजेक्ट हो जायेंगे । जो नया उम्मीदवार होगा उसके लिए भी मनमोहन सिंह का बचाव मुश्किल हो जायेगा । 

इसलिए ऐसा उम्मीदवार होना चाहिए जो मनमोहन सिंह की परंपरा का विस्तार न हो । निलेकणी और चिदंबरम के सामने मोदी यह चुनौती पेश करेंगे । मुझे लगता है कि कोई ऐसा नेता आएगा जो मनमोहन की परंपरा से अलग लगेगा । मगर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी लोगों की नज़र में कांग्रेस को बेहतर नहीं कर सकेगा । मोदी बहुत आगे निकल चुके हैं । राहुल प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होंगे । यह मेरी साधारण समझ कहती है । एक बात और । जब जनमत ख़िलाफ़ हों तो रणनीतिक चतुराइयां टाइम पास बन जाती हैं । मीरा कुमार के अलावा कांग्रेस के पास कोई दूसरा नाम नहीं है । 

किसी भी राजनीतिक दल को समझना चाहिए कि पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं की फ़ौज से बड़ी पूँजी कुछ और नहीं होती । इससे पहले कि कांग्रेस अगले साल के नतीजों के बाद अपनी ग़लती के लिए माफ़ी माँगे और जनादेश के स्वीकार करने की विनम्रता का प्रदर्शन करने की नौबत आए इन सत्तर अस्सी मंत्रियों से छुटकारा पा लेना चाहिए । भले ही उनमें कई अच्छे हैं । मनमोहन सिंह जितने दिन रहेंगे कांग्रेस की सीटें उतनी तेज़ी से घटती चली जायेंगी । उनके रहते पार्टी का कोई नया उम्मीदवार विश्वास हासिल नहीं कर पायेगा । जनता की नज़र में किसी मंत्री की पहचान उनके काम से नहीं है । महँगाई और भ्रष्टाचार के अलावा मनमोहन सिंह सरकार का सबसे बड़ा संकट यह है । 

कांग्रेस पार्टी ने लोकपाल आंदोलन को तिकड़मों से ध्वस्त करने की जो ग़लती की है वो अब उसके बनाए लोकपाल के पास होने से भी नहीं सुधरने वाली । कांग्रेस समय के साथ चल रही होती तो वह मज़बूत लोकपाल पास कर देती । ग़ुस्सा भी निकलता और ग़ुस्से का सामना करने के लिए उसके पास बोलने के लिए भी कुछ रहता । अब वो मौक़ा चला गया । यह नहीं हो सकता कि नरेंद्र मोदी चुन चुन कर मनमोहन सिंह सरकार की नाकामियों को गिनायें और कांग्रेस उसे छोड़ कर अधिकारों को गिनवाये । पार्टी के नेताओं का सरकार में विश्वास नहीं रहा, वही अपनी सरकार की उपलब्धियों की बात नहीं करते हैं । सरकार के मंत्री भी सरकार की बात नहीं  करते । आँकड़े वाकड़े होंगे दस बीस विकास के मगर चार सौ बीस वाले मामले ने जनता का विश्वास हिला दिया है । 

चार राज्यों में हार का ज़िक्र कर दोहराना नहीं चाहता । पार्टी को पहले से पता तो होगा ही कि जनमत ख़िलाफ़ है मगर उसे ध्रुवीकरण की राजनीति पर इतना यक़ीन हो गया था कि कोई भी नेता पुराने नतीजों को निकाल कर इसी बात से ख़ुश हो जाता था कि मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे । क्या इस प्रमेय का उत्तर एक ही है कि मोदी नहीं बनेंगे तो राहुल बन जायेंगे । हद है । क्या कांग्रेस के लिए यही बड़ी जीत होगी कि मोदी न बनें । खुद सरकार न बना सकी तो वो हार मोदी की हार से छोटी होगी या बड़ी । क्या हर चुनाव पिछले चुनाव की पुनरावृत्ति है ? कांग्रेस के नेता को यह सोचना होगा कि नाम जपने से राहुल प्रधानमंत्री नहीं हो जायेंगे । पार्टी बदलने से जनता ख़ुश नहीं हो जायेगी । दिक्क्त सरकार में है । उसे बदलना होगा । इस बार काग़ज़ फाड़ कर नहीं बल्कि इस्तीफ़े का काग़ज़ लिखाकर कीजियेगा भाई जी ! 

राहुल गांधी ने कहा कि वे पार्टी में तीव्र गति से बदलाव करेंगे और लोगों को एक गर्व करने लायक पार्टी देंगे । पर ये ज़रूरत कौन महसूस कर रहा है । राहुल, कांग्रेस या पब्लिक । जो काम आप दस साल में नहीं कर पाये क्या आप चार महीने में कर लेंगे ।राहुल ने इतने दिनों में कुछ तो बदलाव किया होगा उससे क्यों नहीं कुछ हुआ । कहीं ऐसा तो नहीं कि पार्टी में बदलाव राहुल का प्रोपेगैंडा भर है । हर समय किसी भी पार्टी में बदलाव पार्टी की ज़रूरत होती है । राहुल को पट्टी वहाँ लगाना है जहाँ से मवाद बह रहा है । इसका साहस नहीं है तो बाक़ी सब बातें हैं । इससे पहले कि जिस सरकार की वजह से उनकी पार्टी ख़ारिज हो जाए उनकी पार्टी ही सरकार को ख़ारिज कर जनता की तरफ़ हो जाए ताकि जो मणिशंकर कह रहे हैं कि विपक्ष में रहकर पार्टी को बदलना होगा वो लोगों की नज़र में विश्वसनीय हो । 

क्या राहुल गांधी अपने अधिकांश मंत्रियों का टिकट काटने का साहस कर पायेंगे । शायद नहीं । मनमोहन सिंह सरकार के कई मंत्री हारने वाले हैं । जब प्रचंड लहर में शिवराज सिंह अपने दस बदनाम या नकारे मंत्रियों को हार से नहीं बचा सके तो राहुल गांधी कैसे बचा लेंगे । क्या ये मंत्री टिकट छोड़ चुनाव प्रबंध में जुट सकेंगे । नहीं । ये पार्टी के लिए त्याग नहीं करेंगे इसलिए राहुल को इनका त्याग कर देना चाहिए । कांग्रेस को मोदी से पहले अपनी सरकार और पार्टी से लड़ना होगा । घमासान करना होगा । बीजेपी में यह घमासान हो चुका है । वक्त से पहले बीजेपी बीजेपी से और बीजेपी संघ से लड़ चुकी है । यह जंग पार्टी के भीतर और बाहर मीडिया में भी लड़ी गई । मोदी का उदय उसी घमासान मंथन का नतीजा है । इसीलिए बीजेपी का टाइम ठीक चल रहा है और कांग्रेस समय से छह महीने की देरी से चल रही है । टिंग टाँग । कांग्रेसगण कृपया ध्यान दें !

अब क्या होगा

दिल्ली के नतीजे आ गए हैं । कोई नहीं जीता है यहाँ ।  मगर कोई साहस नहीं कर पा रहा है कि राजनीति की व्यावहारिकताओं के नाम पर विचारधारा को पीछे कर न्यूनतम ज़रूरतों का कोई प्लान बने और सरकार चलाये । जोड़ तोड़ की बात तो दूर । तीनों दलों के नेता अपने विधायकों के प्रति आश्वस्त हैं कि कोई न तोड़ेगा और न हम किसी का तोड़ेंगे । यह अरविंद केजरीवाल की राजनीति की सबसे बड़ी कामयाबी है । वर्ना तोड़ने की सात्विकता का इतिहास पता करने के लिए गूगल सर्च कर सकते हैं । 

कल इनकी राजनीति बीएसपी एस पी या बीजेपी या कांग्रेस की तरह समझौतावादी या सत्तावादी हो ही जाएगी इस अनिवार्य सत्य और तथ्य के सहारे राजनीति का मूल्याँकन नहीं हो सकता । जो खुद को व्यावहारिक कहते हैं वे भी आदर्श की बात करते ही हैं । लेकिन आप को लेकर आशंकायें सही होते हुए भी दुर्भावनाओं से ग्रस्त लगती हैं । कई बार तो ऐसा लगता है कि जल्दी इनके बीच से कोई चोर निकल आए ताकि राहत की साँस ली जा सके । ये आम आदमी पार्टी को देखना होगा । आप ने ज़रूरत से ज़्यादा ऊँची दीवार खड़ी कर दी है । मुझे उस विधायक की बात याद आ रही है कि इतनी ईमानदारी चलती नहीं । अरविंद अपनी ऊँची ईमानदारी से बाक़ियों की बेइज़्ज़ती कर रहे हैं । उनकी आशंका ग़लत साबित हुई । 

लेकिन दिल्ली ने आम आदमी पार्टी के ज़रिये जो दिखाया है कि वो सबको देना होगा । यही कि लाख दो लाख ख़र्च कर सादगी से लोगों के बीच जाएं तो दिल्ली की पढ़ी लिखी और वर्ग विलास के अहं में लिप्त रहने वाली जनता किसी को भी अपना प्रतिनिधि चुन सकती हैं । अमीर होते हुए भी वो किसी ग़रीब, बिना फिटिंग के पतलून पहनने वालों को वोट दे सकती है । सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय वाले राज्य में बिना आय वाले भी जीते हैं तो ग़रीबों और सबकी राजनीति करने वालों की जगह ख़त्म नहीं हुई है । दिल्ली के तमाम कुलीन इलाक़ों में  आप को वोट पड़े हैं तब जब आप ने कांग्रेस बीजेपी की तरह अवैध कालोनियों को नियमित करने और विकसित करने का वादा किया । तमाम वर्गों के लोग आप के साथ आए । इस प्रक्रिया को गहराई से देखा जाना चाहिए तब भी जब यह अस्थायी भी हो ।

आम आदमी पार्टी की विदेश नीति क्या है और अन्य सामाजिक मुद्दों पर क्या राय है जिन पर वोटों का ध्रुवीकरण होता है इस पर जवाब देना होगा । दिल्ली की तीस प्रतिशत जनता ने बिना ये सवाल पूछे वोट दे दिया तो उम्मीद करनी चाहिए कि बाकी देश में ऐसा नहीं होगा । फ़िलहाल दिल्ली में आप के टिकट से जीतने वाली मुज़फ़्फ़रपुर की कोई लड़की अपने ज़िले में चमत्कार की कथा में बदल चुकी है । वहाँ लोग हैरान हैं कि इतने कम पैसे में बिना गोली बंदूक और भोज भात कराए उनकी बेटी विधायक बन गई है । बहुत अच्छा है कि आप से सख़्त सवाल हो रहे हैं । आख़िर अतीत की नई पार्टियोें से लोगों का दिल टूटा है तो लोग उन अनुभवों से क्यों न सवाल करेंगे । करना भी चाहिए । 

अब आते हैं उस सवाल पर कि दिल्ली में क्या होगा । मेरी राय में अब होगा दिलचस्प मुक़ाबला । फिर चुनाव हुए तो आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच सीधा मुक़ाबला होगा । पहले चुनाव में दोनों के निशाने पर शीला थीं मगर अगले चुनाव में मोदी और केजरीवाल आमने सामने होंगे । बीच में होगा वो वोटर जो कथित रूप से आप को भी चाहता है और मोदी को भी । दोनों के बीच अब खुलकर आरोप प्रत्यारोप होंगे । हाई वोल्तेज युद्ध होगा । तब पता चलेगा कि दिल्ली का मध्यम वर्ग, कुलीन और आम जन किसे चाहते हैं । मोदी को, जो उस राजनीतिक दल से आते हैं जिसकी राजनीति के ख़िलाफ़ आप संघर्ष करती है या केजरीवाल को, जो जीत कर मोदी का चांस बिगाड़ सकते हैं । बीजेपी के नेता अभी से परेशान हैं कि मीडिया स्पेस में मोदी को टक्कर देने वाला कोई आ गया है । इसलिए वे बोलने लगे हैं कि जीत बीजेपी की शानदार हुई है मगर चर्चा अरविंद की हो रही है । अगर एक साल का टीवी फ़ुटेज निकाल कर अध्ययन किया जाए तो पता चलेगा कि मीडिया में किसे स्पेस मिला । अरविंद केजरीवाल के कारण बीजेपी की मीडिया रणनीति बदलने वाली है । ये मेरा गेस है । 


लेकिन मुझे लगता है कि यह भी मिथक बन चला है कि आप के समर्थक मोदी को भी चाहते हैं । ऐसे समर्थक ज़रूर होंगे मगर यह आप का बुनियादी आधार नहीं हो सकता है । आप का मतदाता अगर सिर्फ कांग्रेस विरोधी है तो बीजेपी को दे देता । उसने बीजेपी को नहीं दिया । आप को बड़ी संख्या में दलितों के वोट मिले हैं । मुस्लिम सीटों के आँकड़े देखिये । हर जगह आप के उम्मीदवार को पंद्रह हज़ार और उन्नीस हज़ार तक मत मिले हैं । जबकि आप के एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं जीता है । आप के मतदाताओं ने दो साल तक अरविंद को देखा है परखा है । अरविंद पर हुए हमले को देखा है । रोहिणी और अंबेडकरनगर में जहाँ मोदी की कामयाब सभा हुई वहाँ बीजेपी नहीं जीती । लेकिन जब अरविंद नरेंद्र मोदी का नाम लेकर सामने से हमले करेंगे तो बीजेपी भी आक्रामक होगी । बीजेपी अपने संगठन की ताक़त और सोशल मीडिया की सेना से जो जंग छेड़ेगी दिलचस्प होगा । क्या मोदी केजरीवाल का नाम लेकर हमले करेंगे । खुद से नहीं कभी मोदी जी से पूछियेगा । मोदी जी प्रेस से ज़्यादा बात भी करते हैं, राहुल से भी ज़्यादा तो शायद पूछने का मौक़ा भी मिल जाये ! वर्ना एक ही शहरी आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले मोदी और केजरीवाल के बीच की टक्कर का इंतज़ार कौन नहीं करना चाहेगा । अगर शहरी आकांक्षाएँ इस हद तक समानार्थी हैं तब । राजनीति और प्यार में मोहब्बत एक से ही की जा सकती है । अगर वोटर के दिल में मोदी और अरविंद हैं तो इस दोहरे इश्क़ का भी अंजाम देख लिया जाए । एक और इम्तहान हो जाने दिया जाए ! 

हार की जीत

हार जायें या हवा हो जायें या जीत जायें । इन तीनों स्थितियों को छोड़ दें तो अरविंद केजरीवाल ने राजनीति को बदलने का साहसिक प्रयास तो किया ही । हममें से कई राजनीतिक व्यवस्था को लेकर मलाल करते रहते हैं लेकिन अरविंद ने कुछ कर के देखने का प्रयास किया । कुछ हज़ार लोगों को प्रेरित कर दिया कि राजनीति को बदलने की पहली शर्त होती है इरादे की ईमानदारी । अरविंद ने जमकर चुनाव लड़ा । उनका साथ देने के लिए कई लोग विदेश से आए और जो नहीं आ पाये वो इस बदलाव पर नज़रें गड़ाए रहें । आज सुबह जब मैं फ़ेसबुक पर स्टेटस लिख रहा था तब अमरीका से किन्हीं कृति का इनबाक्स में मैसेज आया । पहली बार बात हो रही थी । कृति ने कहा कि वे जाग रही हैं । इम्तहान की तरह दिल धड़क रहा है । ऐसे कई लोगों के संपर्क में मैं भी आया ।

अरविंद ने बड़ी संख्या में युवाओं को राजनीति से उन पैमानों पर उम्मीद करने का सपना दिखाया जो शायद पुराने स्थापित दलों में संभव नहीं है । ये राजनीतिक तत्व कांग्रेस बीजेपी में भी जाकर अच्छा ही करेंगे । कांग्रेस और बीजेपी को भी आगे जाकर समृद्ध करेंगे । कौन नहीं चाहता कि ये दल भी बेहतर हों । मैं कई लोगों को जानता हूँ जो अच्छे हैं और इन दो दलों में रहते हुए भी अच्छी राजनीति करते हैं । ज़रूरी है कि आप राजनीति में जायें । राजनीति में उच्चतम नैतिकता कभी नहीं हो सकती है मगर अच्छे नेता ज़रूर हो सकते हैं । 

एक्ज़िट पोल में आम आदमी पार्टी को सीटें मिल रहीं हैं । लेकिन आम आदमी पार्टी चुनाव के बाद ख़त्म भी हो गई तब भी समाज का यह नया राजनीतिक संस्करण राजनीति को जीवंत बनाए रखेगा । क्या कांग्रेस बीजेपी चुनाव हार कर समाप्त हो जाती है ? नहीं । वो बदल कर सुधर कर वापस आ जाती है । अरविंद से पहले भी कई लोगों ने ऐसा प्रयास किया । जेपी भी हार गए थे । बाद में कुछ आई आई टी के छात्र तो कुछ सेवानिवृत्त के बाद जवान हुए दीवानों ने भी किया है । हममें से कइयों को इसी दिल्ली में वोट देने के लिए घर से निकलने के बारे में सोचना पड़ता है लेकिन अरविंद की टोली ने सोचने से आगे जाकर किया है ।  वैसे दिल्ली इस बार निकली है । जमकर वोट दिया है सबने । 

राजनीति में उतर कर आप राजनीतिक हो ही जाते हैं । अरविंद बार बार दावा करते हैं कि वे नहीं है । शायद तभी मतदान से पहले कह देते हैं कि किसी को भी वोट दीजिये मगर वोट दीजिये । तब भी मानता हूँ कि अरविंद नेता हो गए हैं । आज के दिन बीजेपी और कांग्रेस के विज्ञापन दो बड़े अंग्रेज़ी दैनिक में आए हैं आम आदमी पार्टी का कोई विज्ञापन नहीं आया है । अरविंद के कई क़दमों की आलोचना भी हुई, शक भी हुए और सवाल भी उठे । उनके नेतृत्व की शैली पर सवाल उठे । यही तो राजनीति का इम्तहान है । आपको मुफ़्त में सहानुभूति नहीं मिलती है । कांग्रेस बीजेपी से अलग जाकर एक नया प्रयास करना तब जब लग रहा था या ऐसा कहा जा रहा था कि अरविंद लोकपाल के बहाने बीजेपी के इशारे पर हैं तो कभी दस जनपथ के इशारे पर मनमोहन सिंह को निशाना बना रहे हैं । मगर अरविंद ने अलग रास्ता चुना । जहाँ हार उनके ख़त्म होने का एलान करेगी या मज़ाक़ का पात्र बना देगी मगर अरविंद की जीत हार की जीत होगी । वो जितना जीतेंगे उनकी जीत दुगनी मानी जायेगी । उन्होंने प्रयास तो किया । कई लोग बार बार पूछते रहे कि बंदा ईमानदार तो है । यही लोग लोक सभा में भी इसी सख़्ती से सवाल करेंगे इस पर शक करने की कोई वजह नहीं है । अरविंद ने उन मतदाताओं को भी एक छोटा सा मैदान दिया जो कांग्रेस बीजेपी के बीच करवट बदल बदल कर थक गए थे ।

इसलिए मेरी नज़र में अरविंद का मूल्याँकन सीटों की संख्या से नहीं होना चाहिए । तब भी नहीं जब अरविंद की पार्टी धूल में मिल जाएगी और तब भी नहीं जब अरविंद की पार्टी आँधी बन जाएगी । इस बंदे ने दो दलों से लोहा लिया और राजनीति में कुछ नए सवाल उठा दिये जो कई सालों से उठने बंद हो गए थे । राजनीति में एक साल कम वक्त होता है मगर जब कोई नेता बन जाए तो उसे दूर से परखना चाहिए । अरविंद को हरा कर न कांग्रेस जीतेगी न बीजेपी । तब आप भी दबी ज़ुबान में कहेंगे कि राजनीति में सिर्फ ईमानदार होना काफी नहीं है । यही आपकी हार होगी । जनता के लिए ईमानदारी के कई पैमाने होते हैं । इस दिल्ली में जमकर शराब बंट गई मगर सुपर पावर इंडिया की चाहत रखने वाले मिडिल क्लास ने उफ्फ तक नहीं की । न नमो फ़ैन्स ने और न राहुल फ़ैन्स ने । क्या यह संकेत काफी नहीं है कि अरविंद की जीत का इंतज़ार कौन कर रहा है । हार का इंतज़ार करने वाले कौन लोग हैं ? वो जो जश्न मनाना चाहते हैं कि राजनीति तो ऐसे ही रहेगी । औकात है तो ट्राई कर लो । कम से कम अरविंद ने ट्राई तो किया । शाबाश अरविंद । यह शाबाशी परमानेंट नहीं है । अभी तक किए गए प्रयासों के लिए है । अच्छा किया आज मतदान के बाद अरविंद विपासना के लिए चले गए । मन के साथ रहेंगे तो मन का साथ देंगे । 

ग्राफ़िति इन बर्लिन










मोदी के भाषणों का संकलन

" इसी तरह वे न केवल रामराज्य बल्कि कन्फ़्यूशियस के सुनियोजित विश्व के भी नज़दीक़ आते हैं और कांग्रेसी मसनद से गांधी को उतारकर जनमानस पर से आते हैं । जहाँ गांधी सिर्फ कांग्रेसी नहीं हैं ।" प्रूफ़ की मामूली त्रुटियों को नज़रअंदाज़ कर दें तो पत्रकार प्रदीप पंडित ने काफी निष्ठा से नरेंद्र मोदी के भाषणों का संकलन करते हुए अपने सम्पादकीय में ये सब लिखा है । प्रदीप लिखते हैं कि ऐसे बहुतेरे हैं जिन्हें नमो नागवार गुज़र रहे हैं लेकिन ये वे लोग हैं , जो देश की जनता की परवाह के रंग बिरंगे नमो रंगों को देखकर शलथ हो गए हैं । नरेंद्र भाई की इंडिया फ़र्स्ट की अवधारणा सर्वथा मौलिक होने पर भी सरदार वल्लभ भाई पटेल से उनके कामकाज से मिलती है । सरदार पटेल पर बाद में गांधी ने लिखा था कि "पटेल को मुस्लिम विरोधी बताना सत्य को झुठलाना है । यह एक बहुत बड़ी विडंबना है । " यह बात मोदी के बारे में भी कही जानी शेष है । 

ऊपर के कथन प्रदीप पंडित के हैं । डायमंड बुक्स ने नरेंद्र मोदी के भाषणों का संकलन छापा है । यह पुस्तक वैचारिक घनत्व के प्रतीक पुरुष राजनाथ सिंह को समर्पित है । ढाई सौ रुपये की इस किताब में नरेंद्र मोदी के तीस भाषणों का संकलन किया गया है । दावा तो शब्दश का है लेकिन कई जगहों पर मामूली त्रुटियाँ भी नज़र आईं । इसमें पटना के गांधी मैदान में दिया गया वो भाषण भी जिसके नीतीश ने परख़च्चे उड़ा दिये थे । जिसका जवाब मोदी की तरफ़ से आना बाक़ी है । उम्मीद है फ़रवरी मार्च की उनकी प्रस्तावित बिहार रैलियों में इसकी झलक मिलेगी । मगर एक साथ नरेंद्र मोदी के भाषणों को पेश करना निश्चित रुप से अच्छा आइडिया है । उम्मीद है कांग्रेसी इसे पढ़कर उन्हें कुछ जवाब दे सकेंगे ! जो मोदी के भाषणों को कई बार पूरा सुने या सुनें बिना ही अपनी बात कहकर निकल जाते हैं । मोदी के भाषणों से लगता है कि वे राहुल के भाषणों को सुनते हैं और अगली रैली में बिन्दुवार जवाब देते हैं । राहुल मोदी को लेकर ऐसे बात करते हैं जैसे कभी उनके टीवी सेट पर मोदी का भाषण ही नहीं आया होगा । उस लिहाज़ से मनमोहन सिंह ने ज्यादा सीधा वार किया है । सोनिया भी कर रही हैं लेकिन उनके हमले को सुनकर यही लगता है कि वे भी मोदी को ठीक से नहीं सुनतीं । नीतीश कुमार ने ज़रूर उनके पटना वाले भाषण को तीन चार बार पढ़ा होगा ! ऐसा लगा । 

पुणे के फ़र्गुसन कालेज में मोदी के भाषण का अंश इस प्रकार है- " वीर सावरकर जी प्रशिक्षा काल में जिस जगह पर रहकर स्वातंत्र्य देवी की उपासना करते थे उस कक्ष में जाने का मुझे सौभाग्य मिला । भारत माँ की उत्कृष्ट सेना करने की तीव्रतम इच्छा के वाइब्रेशन्स उस कक्ष में अनुभव किये ।" इसी तरह से उनके तमाम भाषणों को एक साथ देखने से आप उनकी ख़ूबियाँ,अंतर्विरोध, तथ्य का कथ्य और कथ्य का तथ्य देखेंगे । जो आलोचक हैं उन्हें पढ़ना चाहिए और जो प्रशंसक हैं उन्हें भी । एक नेता को समझने का यह एक अच्छा प्रयास है । हाल ही में कोबरा स्टिंग के संदर्भ में अरुण जेटली का बयान पढ़ा था कि मोदी का विरोध व्यावसायिक रूप से भी लाभदायक हो गया है । इस किताब को देखकर लगता है कि मोदी का समर्थन या भाषणों का संकलन भी घाटे का सौदा नहीं है ! कुछ ही दिन पहले न्यूज़ एजेंसी ए एन आई ने एक रिपोर्ट की थी कि आगरा की रैली में मोदी जिस कुर्सी पर बैठे थे उसे ख़रीदने की होड़ लग गई है । भाड़े पर फ़र्नीचर देने वाला भी कुर्सी की क़ीमत समझ गया है । इसलिए बेचने से मना कर दिया । इंदौर में किसी ने उस कुर्सी के लिए दो लाख रुपये की पेशकश कर दी जिस पर मोदी बैठे थे । समझे !

बिजली नहीं ये बैटरी क्रांति है

बरेली से तीस किमी दूर एक गाँव से एक दर्शक मित्र का फ़ोन आया था । पहली बार बात कर काफी उत्साहित हो गए तो मुझे लगा कि नार्मल करने के लिए उनकी बात को किसी और दिशा में मोड़ दूँ । गाँव में मोबाइल की दुकान है उनकी । बताने लगे कि बारह वोल्ट की बैटरी से हम टीवी चला कर प्राइम टाइम देखते हैं क्योंकि गाँव में बिजली नहीं आती । जब मैंने पूछा कि ये कैसे करते हैं तो अतुल जी बताने लगे कि हमने डिश टीवी के सेट टाप बाक्स में पचास रुपये में अलग से एक प्लेट जुड़वा ली है । इसको हम बारह वोल्ट की बैटरी से जोड़ देते हैं तो यह बैटरी के डीसी को एसी में बदल कर सेट टाप बाक्स को आन कर देता है । एक बारह वोल्ट की बैटरी से ब्लैक एंड व्हाइट टीवी चल जाता है । सिर्फ टाटा स्काई के सेट टाप बाक्स में यह नहीं हो पाता है । यह प्रसंग अपनी तारीफ़ के लिए नहीं लिख रहा हूँ । जानने के लिए कि लोग गाँव में टीवी कैसे देख रहे हैं । अतुल जी ने बताया कि छह सौ रुपये में आल्टो कार की बैटरी के आधे आकार की बैटरी लोकल बन जाती है । इसमें कानपुर के बने प्लेट डलवा लीजिये जो अच्छे माने जाते हैं । अब आगे आगे पढ़िये ।

लोकल बैटरी का बिज़नेस खूब चल रहा है । बारह वोल्ट की बैटरी तो गाँवों में लाइफ़ लाइन है । ज़्यादातर लोगों के पास ये बैटरी है । रोज़ सुबह गाँव के लोग पाँच पाँच रुपये देकर जनरेटर से चार्ज करा लेते हैं । फिर उसके ज़रिये रात को एक बल्ब, मोबाइल फ़ोन और लैप टाप चला रहे हैं । इन सब चीज़ों की ज्यादा समझ नहीं है इसलिए जो बातचीत हुई उसे जल्दी जल्दी लिख रहा हूँ । वो बता रहे थे कि एक चाइनीज़ कनवर्टर चार्जर आ रहा है जो  बैटरी के डायरेक्ट करेंट एसी में बदल कर मोबाइल चार्ज कर देता है । 

फिर फ़ोन का क्या करते हैं अतुल जी । उस पर फ़िल्म देखते हैं रवीश जी । गाँव के ज़्यादातर लोगों के पास दो से तीन हज़ार वाले चाइनीज़ फ़ोन हैं । सबके पास दो जीबी के चिप हैं । चार या आठ जीबी के चाप चाइनीज़ फ़ोन में सक्सेस नहीं है जी । दो जीबी के चिप में बीस फ़िल्में आ जाती हैं । एक फ़िल्म डेढ़ सौ एमबी में आ जाती है । अतुल जी पढ़ें लिखे नहीं है । ( अन्यथा न लें यह एक सूचना भर है ) लेकिन उनकी बातों को ध्यान से सुनिये । कहने लगे कि तीस रुपये में बीस फ़िल्म डाउनलोड करा लाते हैं सब । बुलेट राजा शुक्रवार को रिलीज़ हुई और शनिवार को इंटरनेट पर इसका हाई डेफिनेशन वीडियो आ गया । अब कोई गाँव का दुकानदार बरेली जाकर वीडियो कनवर्टर के ज़रिये अपने चिप पर डाउन लोड करा लाया । पचास रुपये में । उस चिप से उसमें हज़ारों मोबाइल में दो दो रुपये में डाउन लोड कर दिया । पचास रुपये लगाकर उसने हज़ार दो हज़ार कमा लिये । बारह वोल्ट की बैटरी से मोबाइल चार्ज किया और रात भर में बुलेट राजा फिल्म देख डाली । डीवीडी प्लेयर तो बेकार है जी । बिजली होती नहीं है न । सब मोबाइल चार्ज कर फ़िल्म देख रहे हैं ।

अच्छा ये बताइये इंटरनेट का इस्तमाल करते हैं सब । मेरे इस सवाल पर अतुल जी उछल पड़े । कहने लगे कि हर लड़के के मोबाइल में इंटरनेट कनेक्शन है । अठारह रुपये से लेकर दो सौ तक में अनलिमिटेड प्लान आता है । सबने न जी रट लिया है । जैसे इम्तहान में रट कर पास होते हैं न । अंग्रेज़ी तो आती नहीं । अब गूगल में राम लीला ग़लत भी लिखेंगे तो सही कर देता । उनको पता है जैसे मेरे को भी मालूम है कि सर्च में लिखने से आ जाता है । लड़के उसमें ज़्यादातर पोर्न देख रहे हैं । गंदी फ़िल्में देखते हैं । थ्री जी यहाँ नहीं है । टू जी कनेक्शन सस्ता भी है । डाउनलोड करके धीरे धीरे देख ही लेते हैं । फ़िल्म और ट्रिपल एक्स फ़िल्में देख रहे हैं । मोबाइल में अलग से भी डाउनलोड करा कर रखते हैं । चाइनीज़ मोबाइल का स्क्रीन भी बड़ा होता है । 

अतुल जी एक और बात बताने लगे कि अखिलेश ने जो लैंप टाप बाँटे हैं उससे कोई इंटरनेट नहीं चला रहा । सब फिल्म और पोर्न देख रहे हैं । इंटरनेट तो फ़ोन में है । लैपटॉप बिक तो रहा ही है लेकिन एक और धंधा चल पड़ा है । उनसे विंडो करप्ट हो जाता है । विंडो को ठीक करने के लिए दुकानदार तीन तीन सौ कमा रहे हैं । मामूली प्राब्लम भी आती है तो दुकानदार कह देता है कि विंडो करप्ट हो गया है । 

अतुल जी बातों बातों में नई जानकारियों के दरवाज़े खोलते रहे । ग्रामीण भारत ने बिजली का इंतज़ार छोड़ बारह वोल्ट की बैटरी को अपना लिया है । लालटेन ग़ायब है । इस बैटरी से आँगन में चाइनीज़ डिजीटल लाइट भी जल रही है । लोग न्यूज़ कम देख रहे हैं क्योंकि टाटा स्काई के सेट टाप बाक्स को डीसी में बदल कर टीवी चलाने का आइडिया कम लोगों में हैं  । मगर मोबाइल फ़ोन अब बात करने का माध्यम कम रह गया है । यह टीवी का विकल्प हो चुका है । गाँव का गाँव मोबाइल में वीडियो देख रहा है ।  अतुल जी बात कर ख़ुश हो गए । कहा कि आज इस खुशी में बढ़ती रोटी खाऊँगा यानी एक रोटी ज्यादा । शुक्रिया अतुल जी मुझे नई जानकारी देने के लिए । एक रोटी ज्यादा मैं भी खाऊँगा । 


चाय, फ़ेसबुक और सैमसंग

आज पांडव नगर में दिलीप कुमार से मिला । दिलीप यहाँ पिछले सोलह साल से चाय बेच रहे हैं । इनके पास सैमसंग गैलक्सी मोबाइल फ़ोन है । दिलीप अनपढ़ हैं । कभी स्कूल नहीं गए । बिहार के भागलपुर से दिल्ली काम करने आए तो पहले साल कूरियर कम्पनी में काम किया था । वहीं उन्होंने पहली बार ए बी सी डी लिखना पढ़ा सीखा और अंग्रेज़ी में लिखे पतों को पढ़ने लगे ।


दिलीप ने जब मेरी तस्वीर लेकर फ़ेसबुक पर डाला तो हैरान रह गया । उनके दोस्तों ने कहा कि ये वीडियो यू ट्यूब पर अपलोड कर देगा । हम अपने बदलते हिन्दुस्तान को देख नहीं पा रहे हैं । दिलीप को आम आदमी से उम्मीदें हैं । 


जब मैंने दिलीप से कहा कि किया ने जानते हैं कि नरेंद्र मोदी चाय वाले हैं । दिलीप ने कहा कि दो तीन दिन पहले सुना कि चाय बेचते थे । मुझे अच्छा लगता है कि कोई संघर्ष कर आगे बढ़ता है । मोदी चाय वाले हैं तो क्या आप एक चाय वाले को वोट नहीं देंगे । देखो जी वोट देंगे या नहीं देंगे ये तो बाद की बात है । सिर्फ चाय बेचने से कोई चाय वालों का नेता नहीं हो जाता । जब जनरल इलेक्शन होगा तो सोचेंगे । विचार करेंगे ।


लेकिन क्या आप हर तबके में स्मार्ट फ़ोन और फ़ेसबुक की घुसपैठ को समझ पा रहे हैं । फ़ेसबुक पर होने को बाद भी यह सूचना दिलीप के पास अभी पहुँची है कि मोदी चाय बेचते थे । जबकि महीनों से यह ख़बर चल रही है । दिलीप के फ़ेसबुक पेज पर अश्लील तस्वीरें भी आ गईं हैं । उन्हें नहीं पता था कि कैसे टैग को ब्लाक किया जाता है । दिल्ली की यह कहानी कुछ रोचक नहीं लगी ! 

हवा महल

मोदी और साहू जी

जाति से जोड़ कर देखता हूँ चाय से नहीं । और आपकी जाति के नहीं होते तो ? तब देखते । जयपुर के ज़ौहरी बाज़ार( चौड़ा रास्ता ) मेंं साहू चाय वाले से नरेंद्र मोदी के चाय वाले प्रसंग के बारे में पूछ रहा था । साहू जी ने कहा कि समाज के काम के लिए फ़ोन किया था उनके पीए को मगर नहीं आए । कौन सा काम ? सामूहिक विवाह समारोह के लिए । साहू जी कम बोलने वाले व्यक्ति मालूम पड़े । मोदी के चाय बेचने की अतीत और अपने वर्तमान के बीच कनेक्ट कर पाने के अकादमिक सवाल से चुप हो गए ।


यह बातचीत हो ही रही थी कि एक सज्जन और आए । चार बार कहा कि सुन लीजिये मैं अनपढ़ हूँ । अटल जी बग़ीची में भांग घोंटा करते थे प्रधानमंत्री बन गए । भैरों सिंह शेखावत तीन सौ रुपये रिश्वत लेने के आरोप में जेल गए लेकिन क्या हुआ । सीएम बन गए कि नहीं । गिरधारी लाल भार्गव यहीं मेरे साथ भांग पीया करते थे, पता है जयपुर से कितनी बार सासंद बने । ललाट पर हाथ फेरते हुए कहा कि इसका क्या करोगे जो लिखा है । मैंने कहा सही कह रहे हैं लेकिन जो बात कहीं क्या वो भी सही है ? इतने पे सज्जन उखड़ गए । मुझसे कहा, अरे चाय की दुकान पर क्या कर रहे हो, लाइब्रेरी जाकर राजनीति की दो चार किताबें पढ़ लो । बंदे ने ऐसी डाँट पिलाई कि क्या रहें । बाप रे सर मुँड़ाते ओले पड़े । ये मोदी के चक्कर में पिट जाऊँगा एक दिन । उनके चेलों ने गाली देकर पहले ही तंग किया हुआ है । 

मेरा ग़रीब तेरा ग़रीब

राहुल की रैलियाँ मोदी की तुलना में कम होती होंगी मगर उनके भाषणों की संख्या तो और भी कम है । मोदी पाँच जगहों पर पाँच बातें बोलते हैं लेकिन राहुल पाँच जगहों पर एक ही बात । बात सिर्फ मोदी के भाषणों के विवादास्पद तत्वों की नहीं है बात है भाषणों को सुनने की उत्सुकता की । इस लिहाज़ से राहुल गांधी का भाषण नीरस सा लगने लगा है । पता है क्या बोलेंगे । मोदी को बारे में लगता है कि देखें अब क्या बोल रहे हैं । दोहराने का ख़तरा तो मोदी में भी है लेकिन मोदी ने अपने कपड़ों से भी दूसरी रैली के लिए नया कर लेते हैं । उनके भाषणों के साथ मंच पर मोदी के पहने कपड़ों की तस्वीर एक जगह रखेंगे तो पायेंगे कि एक ही आदमी के कितने रुप हैं । 

राजनीति में नेता आमतौर पर एक ही प्रकार के कपड़े पहनते हैं । राहुल,अखिलेश,लालू,रमन सिंह, नीतीश । शिवराज रंगीन कुर्ता पहनते हैं मगर कुर्ते की वेरायटी उनकी पहचान का हिस्सा नहीं है । रैली का चलन कमज़ोर होता जा रहा है । रैली में लोग कैसे आते है हम यह भी जानते हैं लेकिन इसके बाद भी मोदी ने अपनी रैलियों में रोचकता पैदा करने का प्रयास किया है । आप इसमें साज सज्जा की भव्यता, नाटकीयता, शाह ख़र्चीला और ऊब भी जोड़ सकते हैं । लेकिन इन सबसे अलग भाषण की विविधता यहाँ चर्चा के केंद्र में है । मोदी और राहुल दो दुनिया से बातें कर रहे हैं । राहुल के भाषणों की दुनिया में ग़रीब ही ग़रीब है । मोदी के भाषण का की दुनिया ग़रीब वे ख़ुद हैं । राहुल कहते हैं बीजेपी अमीरों की पार्टी है । उनकी चिन्ता करती है । मोदी उनके इस दावे को खुद चाय वाला बता कर चुनौती देते हैं । तीन बार मुख्यमंत्री रहने वाला शख़्स आख़िर क्यों पहली बार( शायद) खुद को चाय वाला बता रहा है । ये मोदी की काट है । मीडिया या लोगों को राहुल के भाषणों में भले कम दिलचस्पी हो मगर मोदी की है । चाय वाला अमीरों की पार्टी का नेता है तो एक खाते पीते परिवार वाला खुद को ग़रीबों का नेता बता रहा है । सच में तो दोनों में से कोई ग़रीब नहीं है । ख़ैर । 

राहुल जिस ग़रीब को ढूँढ रहे हैं वो अब गाँवों में नहीं रहता । मैं एक प्रक्रिया के तहत बात रख रहा हूँ । राहुल गांधी का ग़रीब अब वो ग़रीब नहीं है जो इंदिरा के समय था । मैं सिब्बल टाइप भी बात नहीं कर रहा कि ग़रीब दो सब्ज़ी खाते हैं । हालाँकि खानपान में सकारात्मक बदलाव आया है पर ये सिब्बल की विश्वसनीयता की कमी है कि सही बात भी पलट जाती है । मैं कहना चाहता हूँ कि शहरीकरण का विस्तार और प्रसार हुआ है । आप इस बात को ऐसे मत देखिये कि कितने शहर बने हैं । यह भी एक दिलचस्प है कि शहरों या शहरी क्षेत्रों की संख्या कोई चार हज़ार से बढ़कर आठ हज़ार हो गई है । मैं यह कहना चाहता हूँ कि शहरी क्षेत्र का विस्तार गाँव गाँव तक में हुआ है । गाँव में रहने वाला भी अब ग्रामीण नहीं है । गाँवों की भी बड़ी आबादी खानपान से लेकर परिवार के सदस्यों की तमाम शहरों में आवाजाही के कारण शहरी हो गई है । आप इन्हें ' ग्रामीण अर्ध शहरी' कह सकते हैं । अभी तक क़स्बों या गाँवों के शहर में बदलने को अर्ध शहरी क्षेत्र या 'रूर्बन' कहा जाता रहा है मगर आबादी की बदलती जगहों और आदतों से भी शहरीकरण फैला है । जो मज़दूर पुणे या दिल्ली में काम करता है और गाँव जाता है वो पुणे में शहरी है और उसका परिवार गाँव में अर्ध शहरी । हर गाँव में कम से कम दस शहर रहता है । दस शहरों में उस गाँव के लोग रहते हैं । हिन्दुस्तान यहाँ बदला है । ग़रीब ग़ायब नहीं हुए हैं लेकिन ग़रीबी कम तो हुई ही है । मोदी इस आबादी को टारगेट कर रहे हैं । हमारे यहाँ का अमीर भी अपने घर को ग़रीबख़ाना कहता है । सबकी पहचान में ग़रीबी आती है । अतीत से या वर्तमान को कम कर बताने के लिए । यह वही अर्ध शहरी आबादी है जिसमें जात पात कमज़ोर हुआ है । मोदी इनके नेता हैं । 

इसीलिए कहा कि राहुल का ग़रीब मोदी के ग़रीब  से अलग है । मोदी ने उस ग़रीब को चाय वाला बता कर पहचान दी है । चाय की दुकान वाला हर जात का होता है । वही चौक चौराहा है । राहुल अमूर्त ग़रीब को संबोधित कर रहे हैं । मोदी मूर्त को । यह चुनाव अमीर हो चुके मध्यमवर्गीय हिन्दुस्तान का है । सत्तर के दशक के ग़रीब हिन्दुस्तान का नहीं । ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी मानसिकता का प्रसार राहुल को नहीं दिखता जिसका श्रेय वे आसानी से ले सकते थे मगर जैसा कि मैंने पहले लेख ( गाँव से लौटकर) में लिखा है उनके पास इसकी दावेदारी का नज़रिया और विश्वसनीयता नहीं है । इसलिए राहुल के भाषण संदर्भ से बाहर लगते हैं । यह चुनाव उस शहरी हिन्दुस्तान का है जो गाँव से लेकर महानगरों में कई रुपों में रहता है । जिसका एक वतन सोशल मीडिया भी है । मोदी ने इस तबके को रटा रटा कर अपनी ओर खींचने का प्रयास किया है कि देश गया गुज़रा है । कुछ करना है । हर खाते पीते को ग़रीब कहलाना भी ठीक लगता है !  राहुल उस तबके में खुद को तलाश रहे हैं जो ग़रीब तो है मगर ग़रीब की पहचान का केंचुल अपने जीवन स्तर में धीरे धीरे आ रहे बदलाव के कारण उतार रहा है । राजनीति हवा में नहीं बदलती है । हमारे नेता भी कम समाजशास्त्री नहीँ होते । इसलिए राहुल जी भाषण पर मेहनत कीजिये । कुछ होगा तब तो दुनिया बात करेगी । हाँ इतिहास गड़बड़ मत कर दीजियेगा लेकिन आप तो वर्तमान ही नहीं समझ रहे ।

बड़की माई

बड़की माई । जबसे हमारे गाँव में ब्याह कर आईं है तब से ही शायद वे सबकी बड़की माई हैं । होश संभालने के साथ ही सबको बड़की माई ही पुकारते सुना है । किसी ने उन्हें कभी बड़की तो कभी बड़किया ही पुकारा । वो हमेशा वैसी ही दिखीं । बड़ी और बूढ़ी । थोड़ी झुकी हुईं । हम सबकी बड़की माई धवल निर्मल केश वाली छोटी गोल मोल प्यारी सी । चुपचाप सामानों को सहेज कर रखती हुईं, सबके खाने की योजना बनाने वाली । बड़ा परिवार होता है तो उसके संबंधों में सैंकड़ों पेंच होते हैं और जब संसाधन सीमित होते हैं तो झगड़े भी कम नहीं होते मगर इन सबके बीच बड़की माई सबके लिए सरल और अथाह ही बनी रहीं । आशीर्वाद के अलावा उन्हें किसी और ज़ुबान में बोलते नहीं सुना । किसी से उरेब यानी ख़राब तरीके से बोलते नहीं सुना । गाँव का हर बच्चा और बूढ़ा सब उनकी एक आवाज़ पर चले आते हैं । गाँव के घर से वो भी दूर रहने लगी हैं लेकिन उस पुराने से घर की पहचान भी वही हैं । पूरा जीवन लगा दिया उस घर की रखवाली में । गर्मी की छुट्टियों में बड़की माई को खुद भी पीले रंग से दरवाज़े को रंगते देखा है । कुछ ख़ास नहीं था पर जो था उसी को ज़ेवर की तरह संभालते देखा है । छीका पर छिपा कर दही का नदियाँ टाँगते तो तरह तरह के अचार, खटाई और कसार बनाते देखा है ।

मुझे अंधेरे मुँह उठने की आदत उन्हीं से लग गई होगी । नदी से नहा कर लौटते, अड़हूल का फूल तोड़ते और  पूजा करते ही देखा है । भारी पुजेरिन । यहाँ जल चढ़ाया वहाँ दो फूल रख दिये । कोई मिल गया तो मिश्री के दो दाने प्रसाद के पकड़ा दीं । जाने कितने नाती पोते और बेटियों के लिए मन्नत माँगी होगी । दिन भूखी रही होंगी । बड़की माई का जीवन बहुत ही बड़े परिवार को पाल कर बड़ा करने में गुज़रा है । हर किसी की याद में वे किसी न किसी रूप में हैं । मेरे बाबूजी से लेकर जाने कितने देवरों ने उनकी गोद में खेला होगा । सबका जन्म उनके आने के बाद ही हुआ । घर की कितनी औरतों ने उनके पाँव छुए होंगे लेकिन बड़की माई को कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा । मेरी माँ की जीजी हैं बड़की माई । 

हमारे बाबूजी को शायद बहुत प्यार करती हैं । हर दूसरी लाइन में अपने दुलारे देवर को याद करती रहती हैं । वो कितना छोटा था मुझसे पहले दुनिया से चला गया । देवर था तो यहाँ ले गया वो दिखा दिया । देवर ने ही ये ख़रीद दिया वो खिला दिया । देवर था तो मेरा शान था । काश कि उनकी बातों को भोजपुरी में ही लिख पाता लेकिन कई लोग समझ नहीं पायेंगे । बाबूजी को भी किसी ग़ुस्से के क्षण में अपनी भौजी को बोलते नहीं सुना । कभी बोला होगा तो मुझे जानकारी नहीं । लेकिन बड़की माई अपने देवर को जिस निश्छलता से याद करती हैं उसे देखने का सुख विरले हैं । छठ के दौरान जितनी बार टकराया बस देवर की बात । " आज हमार देवर रहते त उ कोरा( गोद) में उठा के गाड़ी में बइठा देते । " जीप से किसी तरह उतार कर घर के भीतर ले जाते वक्त कुछ ऐसा ही बड़बड़ा रही थीं । तुमलोग आते रहो यहाँ । उनकी आत्मा यही हैं । 

भले रहो, खूब ढंग से जीयो । भगवान ठीक से रखें तुम लोगों को । यही दुआ हमें देती हैं , यही दुआ सबको देती हैं । अपने अनगिनत नाती पोतों को भी । तमाम बेटियों और दामादों को भी । बड़किया को कभी किसी से माँगते चाहते नहीं देखा है । कभी किसी से माँगा नहीं । न खाने की इच्छा जताई न पहनने के लिए कुछ माँगा । उनकी बेटियाँ बहुत सक्षम हैं और नाती पोते बहुत लायक । ज़रूर ही वो लोग बड़की माई को कलकत्ता मुंबई अमरीका ले गए होंगे । मैंने पूछा नहीं पर मेरे बाबूजी का नाम खूब जपती रहीं कि वो उनको हरिद्वार ले गए थे । जिसने भी दिया है बड़की माई को, जितना दिया नहीं उससे कहीं ज़्यादा उन्होंने सबको आशीष दिया है । याद रखा है । कुछ भी दे दीजिये बड़की माई उतना ही आशीर्वाद देंगी जितना सबको देती आईं हैं । जीते रहो, ख़ुश रहो । नाती पोता हो । बेटा हो । पर अब बेटियों को भी आशीर्वाद देने लगी हैं । मुझे कहा भगवान करे तुम्हारी बेटियाँ कलक्टर बने । बेटा बेटी कुछ नहीं होता है । वर्ना तो बेटे के अलावा, खैर । बार बार कहती रहीं देखना बेटियाँ कमाल करेंगी । वक्त अपने आप बदल देता है । 

बाबूजी के सबसे बड़े भाई हमारे बड़का बाबूजी । दोनों भाइयों के मछली ख़रीदने और खाने के क़िस्से मशहूर हैं । तमाम झगड़ों के बीच बाबूजी ने जब भी मछली ख़रीदा अपने भइया के लिए भी ख़रीदा । बन गई तो उसमें से भी मछली भैया को भिजवा देते थे । कुछ तो था दोनों के बीच जो आज भी बड़का बाबूजी की बातों से झलक जाता है । इस बार छठ में गाँव आए तो सबसे पहले अपने दिवंगत भाई की तस्वीर साफ़ कराई । नाती से कहा पहले साफ़ करो तब खायेंगे । बेहद कमज़ोर और बच्चे से हो गए हैं बड़का बाबूजी । सबको पहचान भी नहीं पाते लेकिन वाॅकर से चल चल कर बाबूजी की तस्वीर के पास जाकर देखते हैं । माले को इस तरह से हटवाया कि उनका चेहरा दिखता रहे । वो बोल नहीं पाते हैं मगर पता नहीं अपने छोटे भाई को कैसे मिस करते होंगे । उनके पास हम जैसों की तरह बोलने की शैली नहीं है मगर जब मेरे ही सामने किसी से तस्वीर से माले को किनारे करने को कहा तो इस प्यार को देखकर कलेजा फट गया । क्या है दोनों के बीच । क्या था ? था तो ज़िंदा रहते क्यों नहीं दिखा या हम समझ ही नहीं पाए । 

वही हाल बड़की माई का । कोई उनके सामने देवर की शिकायत करके देख ले । बाबूजी भी हम सबसे दूर अपने भैया भौजी को मिस करते ही होंगे । बड़का बाबूजी की आवाज़ में मेरे बाबूजी की आवाज़ ज़िंदा है । सुनकर सिहर जाता हूँ । ख़ून इसे कहते हैं ।बस  यही अपना होता है क्या ?  उनकी बहू ने बताया कि जब प्राइम टाइम आता है तो टीवी खोल देती हैं । अम्मा जी देख लीं राउर भतीजा आवतारे । बता रहीं थीं कि पूरे शो के दौरान बड़का बाबूजी मेरे बाबूजी को याद कर देखते रोते रहते हैं । बड़की माई मुझे देखकर रोती रहती है और वही आशीर्वाद देती रहती हैं । गाँव में मिलीं तो कहने लगी कि शिकायत है । मैं ठिठक गया । बोली कि जब तुम टीवी में दिखते हो तो हम तुमसे इतना बात करते हैं । खूब बात करते हैं और तुम खाली उन्हीं लोगों से बात करते रहते हो । थोड़ा हमसे नहीं बात कर सकते । उफ्फ । जान निकल गई मेरी । मैंने बड़की माई को टेक्नालजी नहीं समझाईं । बस कहा कि हाँ बात करना चाहिए । ग़लती हो गई । 

ज़िंदगी में वक्त कम पड़ जाता है । हम सब जब परिवार और घर छोड़ कर अपने जीवन की तलाश में दिल्ली मुंबई आ गए । न जाने कितनों ने अपनी किसी बड़की माई के साथ रहने का वक्त गँवा दिया । माँ बाप के साथ रहने जीने का वक्त गँवा दिया । बड़की माई थोड़ी और बड़ी हो गईं हैं । बूढ़ी हो गईं हैं । पता नहीं क्या क्या बोलती रहती हैं । देवर पहले क्यों गया । भगवान हमको क्यों नहीं ले गए । बड़की माई तुम सचमुच सबकी बड़की हो । हमने तुमको हमेशा बूढ़ी माई के रूप में देखा मगर तुम हमारी यादों में बिल्कुल जवान हो । 

ध्यानचंद के लिए कोई नहीं !

मुझे लगा था कि नेता मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न दिये जाने की मांग ज़ोर शोर से करेंगे । यहाँ तो सब अपने अपने नेताओं को देने की मांग में लग गए । अजीब हालत है राजनीति की । जिसे मिला है कम से कम उसकी तो खुशी मना लेते । जैसे बच्चे करते हैं न । पप्पू को दिया तो बब्लू को भी दो । जब लोग सचिन और ध्यानचंद को देने की मांग कर रहे थे उसके लिए नियम बदलने की चर्चा हो रही थी तभी क्यों नहीं कहा कि सचिन ध्यानचंद को छोड़ो पहले अटल बिहारी वाजपेयी को दो, कर्पूरी ठाकुर को दो लोहिया को दो । हद है । मुझे लगा था कि ये ध्यानचंद के लिए कम से कम नक़ली आँसू तो बहायेंगे । मगर ये तो दो मिनट में भूल कर अपने नेताओं का जाप करने लगे । लगता है कहने कोसिए बेचैन हैं मगर कह नहीं पा रहे हैं कि सचिन को क्यों दिया । हमें क्यों नहीं । कोई विवेचना के लिए तैयार भी है कि वाजपेयी को क्यों मिलना चाहिए । कर्पूरी ठाकुर को क्यों मिलना चाहिए । कांशीराम को क्यों नहीं मिलना चाहिए ? कम से कम लोगों को पता तो चले कि इन्होंने ऐसा क्या किया था । और तो और एक और नया धंधा शुरू हो गया है कि पहले किसको दिया का । पटेल को बाद में दिया सचिन को जल्दी दिया । हर भारत रत्न के साथ यही कहानी है । लोकपाल को दे दीजिये वही तय करेगा किसे मिलना चाहिए । पहले लोकपाल बना तो दीजिये । 

राजनीति का सम्मान किया जाए

आदरणीय सी एन आर राव जी,

पहले तो बधाई आपको । इसलिए नहीं कि भारत रत्न मिला है बल्कि इसलिए कि इसके बहाने आपके बारे में जानने का मौक़ा मिला है । लगा कि कोई इतना भी काम कर सकता है । आप जैसों को ही भारत रत्न मिले तो इस पुरस्कार की महिमा बढ़ेगी । 

मगर सर । नेता मूर्ख होते हैं इस तरह के बयान मत दीजिये । राजनीति में नेताओं को चोर समझने वाले मूर्खों की कमी नहीं । इस देश में राजनीति ने जितना सामाजिक परिवर्तन किया है उतना विज्ञान ने नहीं । इस तरह के जनरल बयान वैज्ञानिकों के बारे में भी दिये जा सकते हैं । उचित ही आपने स्पष्टीकरण दे दिया । लेकिन राजनीति और सरकारी अस्पताल से दूर मत जाइये । जायेंगे तभी उसकी हक़ीक़त जानेंगे । बहुत लोग चोर हैं और मूर्ख भी मगर किसी अच्छे नेता और डाक्टर से आपकी मुलाक़ात हो ही जाएगी । आपने फ़ंड की कमी का रोना तो रो लिया सर लेकिन महज़ विचार के पीछे अपने घर से पैसे लगाकर राजनीति में दिन रात खपा देने वाला कार्यकर्ता तो किसी के पास रो भी नहीं सकता । वह भी राजनीति के किसी विचार से समाज कोसबदलने में खुद को समाप्त कर लेता है । कुछ लोग चोर बन जाते है को कुछ दलाल । इसीलिए राजनीति में हमेशा वही आगे रहेगा जिसके पास पैसा है । ज़मींदार है स्कूल है बिज़नेस है । ऐसे लोगों को बाहर करने और कार्यकर्ताओं और नेताओं को ऐसा न बनने देने पर विचार किया जाना चाहिए । न कि राजनेताओं को लतियाना गरियाना । विज्ञान जगत की भी समीक्षा कीजिये । समाज को एक अच्छे राजनेता और वैज्ञानिक दोनों की ज़रूरत है । उम्मीद हा आप राजनीति में लगे लोगों का हौसला बढ़ाने और सम्मान बनाए रखने में मदद करेंगे । बहुत दिक्क्त है तो भारत रत्न लौटा दीजिये लेकिन इससे क्या हासिल होगा । कुछ भी नहीं । 

आपका विज्ञान से घबराने वाला पत्रकार
रवीश कुमार

बकरी घास खाती है


खान पान की आदत तो सबकी बदली है । खान पान ही नहीं खाने की शैली भी । घास क़ीमती हो गई है शायद । किसान ने बताया कि घास को गठरी में बाँध देने से चारे की बर्बादी कम होती है । एक पक्ष यह भी होगा कि अब बच्चे स्कूल जा रहे हैं । बकरी चराने या घास लाने के लिए कोई नहीं होगा । ऐसा नहीं है कि बकरियाँ चरती नहीं हैं । आख़िर की तस्वीर अन्य जगह की है । यहाँ बकरियाँ गाय की तरह टोकरी में खा रही हैं ।



बाल शाखा, नागपुर





भोजपुरी में सपा का छठ बधाई वाला पोस्टर


अपने गाँव से लौटकर

भाई साहब, रोज़ सौ दो सौ लोग मेरे साइबर कैफ़े में फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल खुलवाने आते हैं । फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल ? कौन लोग ? स्मार्ट फ़ोन वाले ? नहीं । साधारण साधारण लोग जिनके पास दो से पाँच हज़ार तक के फ़ोन होते हैं । फ़ेसबुक का एक प्रोफ़ाइल खोलने का दस रुपया लेते हैं । 


जल्दी में हुई इस बातचीत को लेकर देर तक सोचता रहा । साइबर कैफ़े वाले ने बताया कि वो ज़िले में कांग्रेस का कार्यकर्ता है । जबकि उसी की पार्टी सोशल मीडिया के इस्तमाल में पिछड़ गई । नरेद्र मोदी ने अपने प्रचार के रूप में सोशल मीडिया के इस प्रसार का सबसे पहले इस्तमाल कर लिया । तो राजनीति के अलावा अर्थशास्त्र भी दिमाग़ में घूम रहा था  । मोबाइल फ़ोन पर फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल खोलकर कोई दिन में दो हज़ार रुपये से लेकर महीने में पचास हज़ार तक कमा सकता है ! लगता है हिन्दुस्तान ने बिज़नेस करने के संस्कार सीख लिये हैं । लोग तरह तरह के प्रयास कर रहे है । काश कि मेरे पास वक्त होता कि मैं उसके कैफे पर जाकर खुद देख आता लेकिन मोतिहारी स्टेशन पर सप्तक्रांति के आने का समय नज़दीक़ आता जा रहा था । उसने जल्दी में एक और बात बताई कि वो ज़िले के कई प्रमुख लोगों का प्रोफ़ाइल मेंटेन करता है । जानकर रोमांचित हुआ कि गूगल फ़ेसबुक और ट्विटर कमाई का ज़रिया बन रहे हैं । वैसे मुझे ट्विटर पर फोलो करने वाले कुछ लोग गाँव के भी मिले । जो गाँव में रहते हैं और कुछ शहर में । गांव के एक सुनसान से रास्ते पर बोलेरे से एक नौजवान उतरा था।उतरते ही हाथ मिलाया और ई मेल आईडी मांगा। मुझे लगा कि बंदा दिल्ली में रहता है । उसने बताया कि गाँव में ही रहता है मगर रात में फ़ेसबुक करता है । गाँव में भी कुछ युवा लोग मिले जो अपने मोबाइल से इंटरनेट का इस्तमाल जानते हैं । इन युवाओं का गाँव और शहरों के बीच आना जाना लगा रहता है । दिल्ली में रहने वाले कुछ युवाओं ने मिलकर मायअरेराज डाँट काम नाम की साइट बना ली है । ये लड़के कुष्ठ रोगियों के कल्याण के लिए काम करना चाहते हैं । 

 

 

मैं किसी स्वर्ण युग की तस्वीर नहीं खींच रहा बल्कि अपने गाँव में देख रहा था कि वहाँ क्या क्या हो रहा है । इसमें बिहार में आए राजनीतिक बदलाव की भूमिका देखी जा सकती है बल्कि एक सीमा तक ही । यह बदलाव किसी सरकार की प्रत्यक्ष भूमिका से संभव नहीं हुआ है । लोग नीतीश को श्रेय तो देते हैं मगर इस आर्थिक बदलाव में किसी एक सरकार की भूमिका नहीं है । मेरे गाँव में बिजली के खम्भे हैं मगर आज तक बिजली नहीं आई । स्कूल और पंचायत भवन की इमारत साधारण ही है । प्राथमिक अस्पताल की बात न करूँ तो वही ठीक रहेगा । मैं अपने ही गाँव को मेगास्थनीज़ या फाहियान की तरह देखता हुआ दर्ज करना चाहता था । महँगाई  की सर्वदलीय हकीकत से हटकर ।   


गाँव में बहुत कुछ बदला है । बाहर मज़दूरी करने वाले और अच्छी नौकरी करने वालों के भेजे गए सीमित पैसे से गाँव की अपनी अर्थव्यवस्था में तरलता आई है । इस तरलता से उपभोग का स्वरूप बदला है और तरह तरह के धंधों का विस्तार हुआ है । छठ के मौक़े पर अतिरिक्त क्रयशक्ति का प्रदर्शन हो सकता है लेकिन इसके बावजूद गाँव में दो दो सलून देखकर हैरान हो गया । नाई से सामाजिक पारंपरिक रिश्ता समाप्त हो चुका है । वो घर आकर बाल नहीं बनाता बल्कि आपको सलून में जाना होगा । छठ के दिन तो नज़ारा देखने लायक था,अतिरिक्त कुर्सियाँ लगी थीं और लोग अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे । सलून में नंबर लगा रहे थे । सलून में इतनी भीड़ तो दिल्ली में नहीं दिखती है । वो भी सिर्फ दाढ़ी बनाने को लिए ।


मैं इस लेख को सूची बनाने की तरह लिख रहा हूँ । आप इसे संपूर्ण तस्वीर मानने की जगह इस तरह से देखिये कि क्या क्या हो रहा है । गाँव के भीतर मुर्ग़ा और मीट की दुकान हैरान करने वाली थी । दिल्ली की तरह का स्टैंड बन गया है और बकरा टाँग दिया गया है । पहले ऐसा नहीं था । साइकिल पर मीट या मछली बेचने वाला फेरी लगाता था या लोग नदी से मछली मार कर लौट रहे मछुआरे से ख़रीद रहे थे । छठ के सुबह वाले दिन मछली खाने की होड़ लग जाती है । लोग घाट से लौटते ही मछली ख़रीदने लौटते हैं । मेरे घर के लोग भी गाड़ी लेकर गए और दो घंटे बाद लौटे तो ख़ाली हाथ । मछली नहीं मिली । मेरे लिए यह सूचना किसी सदमे से कम नहीं थी । क्या भीड़ थी या इतनी जल्दी बिक गई पूछने पर  जवाब मिला कि थोड़ी सी मछली थी वो भी जल्दी ख़त्म हो गई । एक सज्जन में बताया कि पहले मल्लाह जाति के लोग छठ समाप्ति की सुबह मछली मार कर रखते थे कि अधिक दाम में मछली बिकेगी । लेकिन अब मल्लाहों के पास पैसा आ गया है इसलिए वे भी छठ करने लगे हैं । छठ के आयोजन में काफी पैसा लगता है । तो सज्जन बता रहे थे कि मल्लाह भी दो तीन दिन के बाद ही मछली मारेंगे । इस बदलाव को छठ की बढ़ती लोकप्रियता के संदर्भ में भी देखा जा सकता है ।


विषयांतर हो रहा है लेकिन वक्त आ गया है कि छठ का आर्थिक सामाजिक अध्ययन किया जाए । लोगों के कपड़े, दौरे में प्रसाद और सामग्रियों की गुणवत्ता और मात्रा तक का अध्ययन । शारदा सिन्हा के गीतों की जगह घटिया गाने बज रहे थे । छठ की सामूहिकता भी गुटबाज़ी को कारण टूटती नज़र आई । कई घाट बन गए हैं । एक विशालकाय घाट पर साथ गए सज्जन ने बताया कि ये एरिया हरिजनों का है । मैं चौंक गया । छठ में ? उसने तड़ से एक बच्चे का नाम पूछ लिया जो अपने घर की व्रती माँ या भाभी के लिए घाट की सफ़ाई कर रहा था । लड़के ने अपना नाम बताया इक़बाल पासवान । इक़बाल और पासवान ? इस पर भी चौंक सकते हैं । सज्जन अपने इस लैब टेस्ट से काफी ख़ुश नज़र आए और कहा कि ज़रूर लिखियेगा । 



ख़ैर, मेरे गाँव की सीमा पर कुछ दुकानें जगमग हो गईं हैं । कई सालों तक हमने वहाँ सिर्फ चाय और पकौड़ी की एक दुकान देखी है । लोगों के पास पैसे भी नहीं होते थे दुकान पर पैसे ख़र्च करने को । आज वहाँ दो दो मिठाई की दुकानें हैं ।  दुकान में कई तरह के ताज़ा आइटम बन रहे हैं जो लगे हाथ बिक गए । चीनी मिठाई खाने वाले कम रह गए हैं । अब मेहमान के आने पर चाय के साथ दो तीन आइटम मिठाई भी पेश किया जा रहा है । तीन चार साल पहले तक आपको छह सात किमी दूर चलकर जाना पड़ता था मिठाई के लिए । यहाँ एक ठेला वाला भी आता है जो किसी शहर में लगने वाले अंडे के ठेले की तरह है । यह ठेलावाला दिन में ही मटन फ्राई ( तास मटन) तलने लगता है । लोग पव्वा को साथ चखना चखते हुए चट कर जाते हैं । शराब की लत के शिकार कई नौजवान दिख जाते हैं । 


इसी जगह पर दो चमकदार जनरल स्टोर्स भी दिखा, इसके अलावा दो तीन औसत किस्म के भी जनरल स्टोर भी । गाँव में बाज़ार का ये आलम । एक स्टोर में देखा कि मैगी,फ़ेयर एंड लवली, तरह तरह के बिस्कुट,तेल, शैम्पू, कापी किताब अनेक चीज़ें । गाँव के सीमान्त पर बिजली होने पर दुकान में फ्रिज भी था । जिसमें कोक, पेप्सी स्प्राइट की बोतलें नज़र आईं । दुकानदार ने बताया कि लोग खूब पी रहे हैं । दुकान में दो या तीन फोटोकोपियर मशीनें भी दिखीं । जैसी हम घरों में रखते हैं । दुकानदार ने बताया कि लोग फ़ेयर एंड लवली चाव से लगा रहे हैं । माँ ने किसी बुज़ुर्ग महिला का क़िस्सा बताया कि तीन चार ट्यूब लगा है गोरा होने के लिए । नहीं हुईं गोरी । मैगी बच्चे खूब खा रहे हैं । लोगों को दतवन करते नहीं देखा । बबूल बिक रहा है क्योंकि यह बोलने में आसान है । महिलाएँ मिट्टी या साबुन की जगह शैम्पू के पाउच खूब लगा रही हैं ।



बच्चे चिप्स खा रहे हैं और जन्मदिन मन रहे हैं । ब्रिटानिया का केक जो कभी स्पेशल आइटम हुआ करता था अब जनरल हो चुका है । अरेराज में गिफ़्ट सेंटर भी खुल गया है । अरेराज हमारे इलाक़े का तहसील है और सौ दो सौ से ज़्यादा दुकानें हैं यहाँ । यह बाज़ार भी पूरी तरह से अतीत को छोड़ चुका है । 


हमने गाँवों के भीतर बाज़ार की इस सरकार के बारे में राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के नतीजों के संदर्भ पढ़ा तो था मगर यह नहीं सोचा था कि तस्वीर इतनी बदल जाएगी । ये और बात है िक आप गाँव के लोगों से पूछेंगे तो वे यही कहेंगे कि कुछ नहीं बदला है । पैसा नहीं हैं । अगर कुछ नहीं बदला तो साढ़े छह हज़ार की आबादी वाले पंचायत में बीस बोलेरो, स्कार्पियो कहाँ से आ गईं हैं । ठेकेदारी के पैसे से ? ये गाड़ियाँ हर पाँच मिनट में आती जाती दिख जाती हैं । एक पूर्व मुखिया ने अंदाज़ के आधार पर कहा कि बीस बोलेरो और एक हज़ार बाइक तो होगा ही । पहले एक आदमी के पास बाइक होती थी । 


बाहर का पैसा गाँव को नचा रहा है । ट्रैक्टर पर राईस मशीन लेकर व्यापारी आता है और दरवाज़े पर ही धान कूट कर चला जाता है । अब धान कूटवाने के लिए बहुत श्रम की ज़रूरत नहीं है । कोई सरकार चाहे तो हर पंचायत को राइस मशीन देकर वोट लूट सकती है क्योंकि गाँव में अब मज़दूर बचे नहीं । लोगों के कपड़े बदल गए हैं । जीन्स गाँव गाँव में घुस गया है । अरेराज मेन मार्केट पड़ता है । वहाँ मैंने देखा कि कम से कम दस पंद्रह जीन्स सेंटर और कार्नर खुल गए हैं । कारोलबाग का माल खूब खप रहा है । गाँव के लोग भी जीन्स में अड़स अड़स कर चलने लगे हैं । अब अरेराज के कपड़ों की दुकानों का नाम वस्त्रालय नहीं रहा । 




अब आइये गाँव में । रौशन नाम के दर्ज़ी को मैं सालों से देख रहा हूँ । इस बार रौशन के घर के बाहर बड़ा सा सोलर पैनल देखा तो पूछने लगा । रौशन ने बारह हज़ार का सोलर पैनल लगाया है जिससे वो पाँच छह बल्ब जलाता है । उसने मांग के अनुकूल उत्पादकता बढ़ा ली है । साथ में उसकी पत्नी ने बिस्कुट और पान की दुकान खोल ली है । कई अन्य जगहों पर भी दुकानदारी के धंधे में औरतों को बेझिझक काम करते देखा और लड़कियों के स्कूल कोचिंग जाते हुए । लेकिन रौशन का अपने धंधे में निवेश कुछ नई कहानी तो कहता ही है जो आपको सच्चर की रिपोर्ट में नहीं मिलेगा । इस शांति काल ने मुस्लिम समाज को भी नए किस्म का आत्मविश्वास दिया है ।




मास्टर ह्रदय कुमार गाँव में कोचिंग चलाते हैं । ढाई सौ बच्चों पढ़ रहे हैं । प्रतिस्पर्धा के लिए अतिरिक्त पढ़ाई की चाह गाँव में पनप गई है । इसका नतीजा दस साल बाद दिखेगा । ह्रदय कुमार ने बताया सब जाति के बच्चे पढ़ रहे हैं । लोग पैसे ख़र्च कर रहे हैं । उनके साथ घूमते हुए महसूस हुआ कि हर बच्चा प्रणाम सर कहने की परंपरा आज भी ढो रहा है । आख़िर उसके ज्ञान का अंतिम ज़रिया मास्टर साहब ही तो हैं । मास्टर ने बताया कि वे नियमित प्राइम टाइम देखते हैं । सोलर पावर से या जनरेटर जला कर अब ठीक से याद नहीं है । ख़ैर । 


कोई समय जड़ नहीं हो सकता । कुछ न कुछ बदलता ही है । लोगों ने बिजली का इंतज़ार छोड़ दिया है । हालाँकि जहाँ बिजली है वहाँ लोगों ने बताया कि छह से दस घंटे की बिजली मिल जाती है । बिजली को कारण भी कई तरह के बदलाव आ रहे हैं जो मीडिया में दर्ज नहीं किये जा रहे हैं । फिर भी एल ई डी लाइट ने मिट्टी तेल वाले लालटेन को प्राय समाप्त कर दिया है । एवरेडी का एल ई डी वाला लालटेन नुमा टार्च लोकप्रिय है । सोलर से चलने वाले कई तरह के डिजी लाइट गाँवों में दिखेंगे । गाँव के लोगों ने अपने आप सौर ऊर्जा की ताक़त समझ ली है । शहरों से ज़्यादा गाँव के लोग सोलर ब्रांड के बारे में जानते हैं । टाटा का अच्छा है भारत का नहीं । एक ने कहा । 



मास्टर ह्रदय कुमार ने एक और मुस्लिम लड़के से मिलाया जो सोलर पैनल से मोबाइल फ़ोन की बैटरी चार्ज कर कमाता है । दुकान में वो अन्य चीज़ें भी रखता है और नाटक वग़ैरह में कामेडी भी करता है । 

गांव या पंचायत के अब सत्तर फ़ीसदी घर पक्के हो गए हैं । इस सत्तर फ़ीसदी पक्के मकानों में आधे से ज़्यादा अभी अभी बने लगते हैं । जिनकी दीवारों पर सीमेंट नहीं लगा है । रंग रोगन नहीं हुआ है । ऐसे घर पिछड़ी और दलित जातियों के ज़्यादा हैं ।


एक सज्जन ने बताया कि अब लोग पंजाब नहीं गुजरात कमाने जाता है । वहाँ राज मिस्त्री को सात सौ रुपये दिन के मिलते हैं । इसी तरह से गाँवों में पैसे आ रहे हैं । जो पैसे आते हैं वे खर्चे के होते हैं । गुजरात से कमाकर आने वाला मालामाल मज़दूर नरेंद्र मोदी के ब्रांड एंबेसडर हैं । मोदी ने इन्हें तारीफ़ करने के तर्क और शैली दोनों थमा दिये है । गाँव से लेकर मोतिहारी और ट्रेन में जिससे भी मिला सबने नरेंद्र मोदी की बात की । खूब बात की । इसमें कई जाति और तबके के लोग थे । बल्कि कुछ चिन्हित कांग्रेसी परिवारों में भी गया तो वहाँ भी लोगों ने नरेंद्र मोदी के बारे में ही पूछा । ट्रेन में जब इन बातों की सूची बना रहा था लिखने के लिए तो ध्यान आया कि किसी ने भी राहुल गांधी के बारे में एक लाइन नहीं पूछा । एक आदमी ने नहीं पूछा कि सोनिया क्या करेंगी या राहुल क्या कर रहे हैं । गाँव गाँव में मोदी के पोस्टर हैं । नीतीश कुमार के भी नहीं । अगर आप झंडा बैनर को एक पैमाना माने तो लगता ही नहीं कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं । नीतीश को मोदी से सीखना होगा कि कैसे प्रचार किया जाता है । भले इतिहास सीखने की ज़रूरत न पड़े । राहुल गांधी के भी पोस्टर नहीं दिखे । दूर दूर घूमा । कई लोगों से मिला तब भी ।  


बिहार बदल रहा है । इसमें मनोवैज्ञानिक और ढाँचागत योगदान राज्य सरकार का ही है लेकिन बिहार को दस साल और शांति के मिल गए तो यह राज्य अपना रास्ता खुद बना लेगा । ज़मीन पर जो राजनीति बदल रही है उसे देख कर कैसे न लिखें । नरेंद्र मोदी शहर तक सीमित नहीं हैं । वे पसर चुके हैं । कांग्रेस में वो नज़रिया नहीं है कि महँगाई के इस दौर में गाँवों की इन तस्वीरों को कैसे पेश करे । 

मोदी ने खाली स्लेट पर अपना नाम सबसे ऊपर और सबसे पहले लिख दिया है । 


नोट- इस लेख में तस्वीरें नहीं लगी हैं । वक्त मिलते ही लगाऊँगा । दूसरा इसमें बदलाव भी कर सकता हूँ । तीसरा कि ये पूरे बिहार की तस्वीर नहीं है । तीन चार दिनों में जो देखा सुना उतना ही लिखा है ।