हर फ्रिज़ कुछ कहता है- तीन

आरफा ने टिप्पणी में लिखा है कि लोग फ्रिज़ पर हाथ रखकर तस्वीरें खींचाते थे । उसी से याद आया कि यह भी ध्यान रखा जाता था कि फोटो फ्रेम में फ्रिज़ रहे । फ्रिज़ पहचान के सवाल से जुड़ा था इसलिए इसके कवर में बहुत सारी प्रतिभाओं का इस्तमाल हुआ । महिलाएं क्रोशिये की मदद से टॉप कवर बनाने लगीं । बाद में प्लास्टिक के बेकार लगने वाले कवर आने लगे । फ्रिज़ के हैंडल को भी सज़ावटी कवर से ढंका जाने लगा । फ्रिज़ के आस पास खास किस्म का सौंदर्यशास्त्र तैयार हो गया । इसी के साथ आईस ट्रे में बर्फ जमाने के तरीके मनोरमा और मेरे सहेली जैसी पत्रिकाओं में छपने लगे । पड़ोस की कोई लड़की इसमें उस्ताद हो गई तो वह बेहतरीन संभावित बहुओं की सूचि में पहले नंबर पर मानी जाती थी । कि मोना क्या बढ़िया आईसक्रीम जमाती है । इसी के साथ बर्फ जमाने की भी ढेरों नाकाम कहानियां हैं । हम तो जमा ही नहीं पाए । अंत में आईसट्रे के खांचे में दूध चीनी का बर्फ जमता था । जो आईसक्रीम तो बिल्कुल नहीं होता था ।
फ्रिज़ के आने से अस्सी के दशक में कई लड़कियां जैम जेली भी घर में बनाने की कोशिश करने लगी । क्योंकि इन्हें अब कुछ दिन तक रखा जा सकता था ।

फ्रिज़ सामाजिक बुराइयों का भी हिस्सा बना । दहेज में फ्रिज़ की मांग अनिवार्य हो गई । देखिये मेरे बेटे को फ्रिज़ भी मिला है । पड़ोस की एक चाची ने कहा था । बहुत खुश थी । फिर वही चाची कई दिनों तक योजना बनाती रहीं कि जब लिये हैं तो देना भी होगा । वो अपनी दो बेटियों के दहेज के लिए फ्रिज़ खरीदने का साहस जुटा रही थीं । बहुत घरों में शादी से साल भर पहले ही फ्रिज़ खरीद लिया जाता था । दुकानदार से पूछिये फ्रिज़ की बिक्री शादी के दिनों में कितनी बढ़ जाती है । फ्रिज़ दहेज का ज़रूरी सामान बन गया है ।

नब्बे के दशक में हर ब्रांड की एक्सचेंज योजनाएं चलीं । इसका नतीजा यह हुआ कि कई घरों में सालों तक सजा कर रखे गए फ्रिज़ बाहर कर दिए गए । उसकी जगह पर बड़ा और नया फ्रिज़ आ गया । नई तकनीक ने पुरानी फ्रिज़ को अंबेसडर कार की तरह बेकार बना दिया । वर्ना एक्सचेंज स्कीम के आने से पहले तक फ्रिज़ रिपेयर होता था । लोग तीन चार साल पर रंग भी कराया जाता था । इस प्रक्रिया में फ्रिज़ के रंग पहले से ही बदलने लगे थे । फ्रिज़ की दुनिया में कई तरह के फ्रिज़ हैं । पहले सिर्फ छोटा और बड़ा फ्रिज़ होता था । अब डबल डोर, रिवर्स डोर न जाने कितने तरह के वर्गीकरण हो गए हैं ।

फिर भी सुराही की बात ही कुछ और है । मगर फ्रिज़ ने सुराही के नाम में घुसने की कम कोशिश नहीं की है । सुराही को मिनी फ्रिज़ कहा जाने लगा था ।

हर फ्रिज़ कुछ कहता है-दो


फ्रिज़ की कहानी कई टिप्पणीकारों के संस्मरण से आगे बढ़ती जा रही है । रतलामी जी जानना चाहते हैं कि हमारे फ्रिज़ में क्या रहता है ? इससे मेरे और आस पास के जीवन या खान पान मे आए बदलाव को समझा जा सकता है । वैसे इसमें खान पान के वो तत्व शामिल नहीं हैं जो हम बाहर खाते हैं । बहरहाल मेरे फ्रिज़ में कई बार ढेरों विदेशी चाकलेट्स होते हैं । जिससे पता चलता है कि मेरे दोस्त या रिश्तेदार अब विदेश आने जाने लगे हैं । दस साल पहले जिनकी सीमा दिल्ली के बाद खत्म हो जाती थी । या फिर दिल्ली में बिकने वाले विदेशी चाकलेट्स के खरीदार हो गए हैं । रोज़ या खाने के दिन खरीद कर लाई जाने वाली मछली अब पूरे हफ्ते के लिए खरीदी जाती है ।
फ्रिज़र में रखते हैं । मछली खरीदने के लिए वक्त कम होता है । हफ्ते भर की सब्ज़ियां फ्रिज़ में ढूंस दी जाती है । बीयर नहीं होती । क्योंकि इसकी आदत नहीं । बचे हुए खानों के लिए फ्रिज़ में हमेशा जगह निकाल ली जाती है । दो छोटे कटोरे को एक के ऊपर रखकर या मिठाई की खाली होती डिब्बी को फेंक कर । बची हुई एक दो मिठाई किसी छोटी कटोरी में रख दी जाती है । इससे जगह निकल जाती है । जैसे दिल्ली की डीटीसी बसों में कंडक्टर लोगों को भरता जाता है और कहता है बस अभी खाली है । फ्रिज़ भी उसी आधार पर भरा जाता है । अब सबके पास फ्रिज़ है इसलिए पड़ोस से कोई मांगने नहीं आता । कभी कभी कहीं बर्फ खत्म हो जाए तो घंटी बजती है । शराब की पार्टियों में बर्फ कम हो जाती है । फ्रिज़र में दूध के पैकेट के लिए भी जगह होती है । जो पत्थर बन कर कुछ दिन तक बहने की थकान मिटा लेता है । बाद में हम उसे शीतकाल से निकाल कर ग्रीष्म काल में पिघला देते हैं । फिर से जमाने के लिए । दही ।

अब फ्रिज़ को देखता हूं तो लगता है कि कितना बदल गया है । फ्रिज़ नहीं, मेरा जीवन । भागती ज़िंदगी के कारण अब छोटे फ्रिज़ की जगह बड़ा और उससे भी बड़ा फ्रिज़ खरीदा जाने लगा है । दुकानदार भी छोटे फ्रिज़ के लिए उत्साहित नहीं करता । कहता आपका दिन बदलेगा । दिल्ली में तीन घंटा बस या कार में चलेंगे तो घर आकर कैसे बनायेंगे । सब्ज़ी खरीदने का टाइम नहीं होता । इसलिए बड़ा फ्रिज़ लीजिए ताकि स्टोर कर सकें । फ्रिज़ स्टोर है । शाकाहारी घरों में बदलाव की कहानी इसमें दर्ज नहीं । मैं मांसाहारी हूं । सलामी, कबाब भी रखा जाता है । भारत में मधुमेह के मरीज़ बढ़ते जा रहे हैं । इसलिए फ्रिज़ का इस्तमाल इंसुलिन रखने में भी हो रहा है । कई दवायें भी फ्रिज़ में रखी जाती है । हमारी बदलती ज़िंदगी के कारण फ्रिज़ के भीतर धक्कामुक्की बढ़ गई है । जिसका सबसे ज़्यादा ख़मियाजा टमाटर और धनिये की पत्ती को उठाना पड़ता है । धनिये की पत्ती तो कहीं दबकर सूख भी जाती है । और टमाटर जितना घर लाते वक्त झोले में नहीं पिचकता उससे कहीं ज़्यादा फ्रिज़ में । सिर्फ लौकी या कद्दू फ्रिज़ के भीतर अपनी अस्मिता बचा पाते हैं । फ्रिज़ के लिए अब जेनेटिक तकनीक से मज़बूत टमाटर या धनिये की पत्ती की खोज हो रही होगी । पता नहीं ।

फ्रिज़ के दरवाज़े पर कई घरों में बच्चों की कविताएं, स्कूल की चिट्ठी, रूटीन, क्या करना है की सूची, दूध वाले का हिसाब, इन सब चीज़ों को मैगनेट से चिपका कर रखा जाता है । फ्रिज़ का डोर नोटिस बोर्ड का काम करता है । कई घरों में फ्रिज़ छोटे बच्चों के लिए ड्राइंग बोर्ड का काम करते हैं । कहीं कहीं रंगों के निशान बता देते हैं कि इस घर में कोई बच्चा या बच्ची बड़ी हो रही है । वो चित्रकार बनना चाहतें है । लेकिन फ्रिज़ को बचाने की खातिर मां बाप इन चित्रकारों को इतना हतोत्साहित कर देते हैं । जिससे कई प्रतिभायें वहीं खत्म हो जाती है ।

फ्रिज़ को लेकर बहुत तरह की हिदायतें होती हैं । यह घर में अनुशासन का केंद्र होता है । हालांकि अब भी लोग फ्रिज़ को रसोई घरों में रखते हैं मगर इसकी जगह बदली है । जगह की कमी के कारण फ्रिज़ ड्राइंग रूम में भी रखा होता है । खाने की मेज के सामने भी होता है । इसकी सफाई , इनके टॉप कवर का रंग सब मिलकर खास तरह के सौंदर्य अनुशासन का निर्माण करते हैं ।

फ्रिज़ की उपयोगिता लगातार बढ़ रही है इसलिए उसकी हैसियत का पता चल जाता है । फ्रिज़ की हैसियत तो है मगर फ्रिज़ से अब हैसियत नहीं बढ़ती । गांवों में अभी फ्रिज़ हैसियत के कारण खरीद कर रखी जा रही है । ताकि गांव में रहते हुए शहर से कम होने की भावना न आ जाए । बिजली नहीं होती फिर भी कई घरों में फ्रिज़ होता है । महानगरों के एक्सचेंज ऑफर में बदले गए फ्रिज़ गांवों में पहुंच रहे हैं । या फिर महानगर की झुग्गियों में रहने वालों के घर में । गांवों में फ्रिज़ को लेकर हैसियत का दबाव है । और बदलाव भी । वहां भी दूर बाज़ार जाकर सब्ज़ी खरीदने का काम मुश्किल होता जा रहा है । लोग नहीं हैं । बच्चें शहरों में होते हैं । बूढें मां बाप को मुश्किल होती है । बस बिजली आ जाए और देखिये गांवों में कैसे फ्रिज़ में हफ्ते भर की सब्ज़ी खरीदी जाने लगेगी । फ्रिज़ अनंत फ्रिज़ कथा अनंता ।

हमारे घर फ्रिज़ आया है

फ्रिज़ सफेद ही अच्छा लगता है । उन्नीस सौ चौरासी की एक दोपहर हमारे घर बैठी पड़ोस की चाची ने कहा था । फ्रिज़ आ रहा था इसलिए कई लोग पिताजी के साथ बैठकर उसके रंग पर चर्चा कर रहे थे । क्योंकि हममें से किसी को नहीं मालूम था कि फ्रिज़ सफेद ही अच्छा लगता है । पिताजी गांव से लौटे थे । गेहूं और गन्ने का पैसा मिला था । थोड़ा बहुत पैसा पड़ोस के चाचा जी से भी लिया गया था । फ्रिज़ आएगा । अब और इंतज़ार नहीं हो सकता । इसके पहले हमारा भी सिर्फ दूसरों के घरों में फ्रिज़ देखने का अनुभव था । मालूम नहीं था कि फ्रिज़ में रखे खाने का स्वाद कैसा होता है । पानी ठंडा होता है इसका रोमांच था लेकिन स्वाद नहीं । ठंडा मतलब सुराही का पानी होता था । जिसे हम हर गर्मियों में पटना के गंगा नदी के किनारे बिकने वाली सुराही के ढेरों में से चुन कर लाते थे । हमारे घर अब फ्रिज़ आने वाला था । सफेद, लाल और हल्का आसमानी । ब्रांड गोदरेज और केल्विनेटर । और भी होंगे मगर पता नहीं । खैर तय हुआ कि सफेद नहीं आसमानी आएगा ।

क्यों आ रहा था फ्रिज़ ? पड़ोस में किसी के पास नहीं था । लिहाज़ा दबाव भी नहीं था कि उनके यहां है और हमारे यहां नहीं । फ्रिज़ को लेकर हीनभावना नहीं थी । तभी अमरीका में रहने वाले हमारे दूर के रिश्तेदार के दूर के संबंधी आए । उनका हमारे घर आना हुआ । वो इस बात से हैरान थे कि हमारे यहां फ्रिज़ नहीं है । पिताजी को मालूम नहीं था कि इसके क्या उपयोग हैं ? रिश्तेदार तो चले गए मगर पिताजी के ज़हन में फ्रिज़ खरीदना एक लक्ष्य बन गया था । उनके पास चवालीस सौ रुपये जमा हो गए थे । खुशी इतनी थी मानो चांद पर ज़मीन बुक करने जा रहे हों । हम सब खुश थे । कहां रखेंगे इसकी कोई जगह नहीं थी । छोटे छोटे कमरे और छोटी रसोई । हम सब कई भाई बहन दरवाज़े पर खड़े थे । ठेले पर लाद कर आसमानी फ्रिज़ घर आ रहा था । जो छोटे थे बीच बीच में बाहर निकल कर अपडेट देते थे कि ठेला इतना करीब आ गया है । फलां के घर के पास है । हमारी कौतुहल में धीरे धीरे बाकी लोग भी आ गए । अब कोई दरवाज़े पर नहीं खड़ा था । सब गेट पर आ गए थे । उसके आते ही मेरी एक बहन ने पड़ोस की चाची को आवाज़ दी । चाची जल्दी आइये, फ्रिज़ आ गया है । वो भागती हुई आईं । वो भी बहुत खुश । जैसे उनके घर में भी फ्रिज़ आ रहा है । उधार के पैसे में उनका भी हिस्सा था ।

फ्रिज़ आ गया । रखें कहा । खूब मंत्रणा । नतीजा कि बाहर बरामदे में ही जगह बचती है । सलाह कि धूप से रंग हल्का हो जाएगा । फिर उसके लिए चीक वाले को बुलाया गया कि भाई जल्दी से बारामदे को ढंक दो । फ्रिज़ को धूप न लगे । फ्रिज़ ऑन हुआ तो कम से कम पंद्रह लोगों ने दरवाज़ा खोल कर देखा कि अच्छा ऑन हो गया है । ठंडा लगता है क्या । फ्रिज़र में हाथ डालने से हाथ जम जाएगा ? कश्मीर में इतनी ही ठंड होती होगी क्या जितनी फ्रिज़र में ? तभी कनेक्शन वाले ने बोला इसमें कुछ रखेंगे तब तो पता चलेगा । क्या रखें ? उसने कहा खाना सब्ज़ी ये सब रखिये । पर ये सब तो ख़त्म हो चुका है । सब्ज़ी तो रोज़ आती है और रोज़ बनती है । आलू बचा है उसे रख सकते हैं क्या ? बोला आलू नहीं । जो खराब हो सकता है उसे रखिये । उसने समझाया कि अब सुबह शाम हरी सब्ज़ी लाने की ज़रूरत नहीं । एक बार खरीद कर रख दीजिए । बस पिताजी विद्रोह कर गए । यह नहीं होगा । बासी सब्ज़ी कैसे खायेंगे । फ्रिज़ को लेकर सांस्कृतिक टकराव शुरू हो गया । लेकिन मेरे घर में ऐसा कुछ नहीं मिला जिसे तत्काल फ्रिज़ रख सकें । खाना पंद्रह लोगों के परिवार में कहां बचता है । फ्रिज़ में एक जग में पानी भर कर रखा गया । कनेक्शनवाले ने कहा पानी रखने का बोतल आता है ले आइयेगा । इस ट्रे में बर्फ जमाइयेगा । बोतल आ गया । मगर उसके अलावा अन्य चीज़ों के रखने की समस्या का समाधान नहीं हुआ । कोई सामान ही नहीं होता था । बहुत दिनों तक फ्रिज़ का ठंडा पानी पीते रहे । पड़ोसियों के घर मेहमान आने पर ठंडा पानी जाता रहा ।

एक दिन एक ऐसे रिश्तेदार का आना हुआ जिनके पास कई साल से फ्रिज़ था । उन्होंने फ्रिज़ खोल दिया । उसमें सिर्फ बोतल भरा था । बर्तन कटोरे में पानी था । वो हंसने लगे । बोले आप लोगों को फ्रिज़ में क्या रखा जाता है यहीं नहीं मालूम । उन्हें हम पर हंसने की आदत थी । सो बुरा लगा । फ्रिज़ का नहीं होना एक सामाजिक आर्थिक अंतर था मगर फ्रिज़ में किसी चीज़ का नहीं होना अलग सामाजिक आर्थिक अंतर । फ्रिज के खालीपन ने हमारी हैसियत एक बार फिर तय कर दी । या गिरा दी । हम सब आहत थे । ताजा खाना खाने वाले हम सब फ्रिज़ की गोद भऱने के लिए कुछ बचाने लगे । ताकि उसमें रखा जा सके । साहूकार से पूछ कर कुछ ऐसी चीज़े मेरे घर में पहली बार आईं जो नहीं आती थी । सॉस, जैम और जेली । यह खाने के लिए कम रखने के लिए ज़्यादा आते थे । धीरे धीरे इन्हें खाने भी लगे । हमारे घर में सुबह शाम सब्ज़ी कम खरीदी जाने लगी । ताकि फ्रिज़ भरा रहे । और हमारा सामाजिक सम्मान बचा रहे । खाली रहने पर अच्छा नहीं लगता है । यह अहसास होने लगा था । इसीलिए फ्रिज़ के दरवाज़े का एंगल ऐसा रखा गया कि खुलते वक्त कोई झांक कर देख न ले कि इसमें क्या रखा है । फ्रिज़ हमारी आबरू का हिस्सा बन गया । और भी घरों में मैंने देखा है फ्रिज़ के दरवाज़े के खुलने की दिशा को लेकर काफी मंत्रणा होती है । सब ध्यान रखते हैं कि मेहमान यह न देख लें कि फ्रिज़ में क्या रखा है ? मैं रंग की बात कर रहा था लेकिन कह गया कहानी । उपभोक्ता चीज़ों के सामाजिक जीवन से जुड़ने की कहानी । आज कल बाज़ार में फ्रिज़ कई रंगों में आता है । हरा, धानी, नीला, गुलाबी । सफेद कम । वो तो दवा की दुकान में या अस्पताल में रखे जाने वाले फ्रिज़ होता है ।

इस लेख के साथ टिप्पणी भी पढ़े । उनमें जो संस्मरण हैं उससे यह लेख और समृद्ध होता है । बल्कि टिप्पणी पढने के बाद लगेगा कि इस बारे में कितना कुछ याद किया जा सकता है । कहा जा सकता है ।

कटी हुई कलाई और फटी हुई पत्रकारिता

इस लेख को पढ़ने से पहले मोहल्ला पर जाकर उमाशंकर सिंह का लेख पढ़ना चाहिए । तेवर आक्रामक हैं मगर तर्क के सबसे सही किनारे को छूते हैं । दर्शक क्या देखना चाहता है ? क्या उसकी इसी मर्ज़ी से ख़बरों का पैमाना तय होता रहेगा ? दर्शक को अगर मालूम ही है कि उसे क्या देखना है तो हम दिखा क्यों रहे हैं ? अभी तक तो पत्रकारिता यह मान कर चलती थी कि दर्शक पाठक को मालूम नहीं है । उसे हम जानकारी देकर जागरूक बना रहे हैं । पत्रकारिता का यही मूलमंत्र हैं । जिसकी जानकारी नहीं है , उसके बारे में बताना । दर्शक रिश्वत देकर खबर चलवाना चाहे तो चलवायेंगे । फिर कहेंगे कि दर्शकों ने पैसे दिये हैं और वही देखता है तो हम दिखा रहे हैं । क्या बाज़ार ने यह कहा है कि लंपटता दिखाओ । यह कैसी प्रतिस्पर्धा है कि उत्पाद खराब हो रहे हैं । बाज़ार की ही मिसाल देकर बता दीजिए कि ऐसा हुआ है जैसा टीवी में हो रहा है । प्रतिस्पर्धा से कंपनी बेहतर होती है । उसका उत्पाद बेहतर होता है । कीमतें नियंत्रित होती है । नए नए उत्पाद आते हैं । टीवी में क्यों नहीं हो रहा । हालत यह हो गई है कि जाह्नवी कलाई काटे बिना पट्टी बांध कर चली आती तब भी लोग दिखा देते । लोग देखना चाहते हैं के नाम पर । मेरे प्यारे दर्शकों, सुबह सुबह उठकर आपको यह कैसे ख्याल आ गया कि किसी जाह्नवी नाम की लड़की को आप देखना चाहते हैं जिससे अभिषेक प्यार करता था । सपना आया था या टीवी वालों ने दिखाया था ।

उमाशंकर सिंह के लेख के कई पहलु हैं । हालांकि मैं उम्मीद नहीं करता कि हिंदी में कोई ऐसा संपादक है भी जो उमा के लेख को गंभीरता से लेगा । बल्कि चौराहे पर कहता घूमता फिरेगा कि देख लेंगे । नौकरी नहीं देंगे । इसलिए इस बहस में उन्हें शामिल न किया जाए तो अच्छा । उनके पास ताकत है और उमा जैसों को धमकाने की चाहत । उमाशंकर को भी परवाह नहीं । होती तो यह बात नहीं लिखते । अच्छी बात है कि इस गिरावट ने पत्रकारों को भी बोलने का मौका दिया है । उम्मीद यहीं से हैं कि हर चैनल में ऐसे कई मूक पत्रकार पाठक हैं जो उमाशंकर की लेख में तमाम कमियां ढूंढ कर भी कहेंगे कि सही लिखा है । मुझे लगता है कि संपादकों को इनकी आहट सुन लेनी चाहिए ।

इंडियन एक्सप्रैस भी बाज़ार में है । हिंदू भी बाजार में है । प्रभात खबर भी बाजार में हैं । हिंदुस्तान भी बाजार में है । आज यानी सोमवार तेईस अप्रैल के हिंदुस्तान में १८५७ के बारे में विस्तार से छपा है । टीवी का संपादक एक लाइन लिख कर दिखा दे । उसी हिंदी मानस का एक अखबार गंभीर विषय पर कई अंग्रेजी अखबारों से पहले से लिख रहा है । हिंदुस्तान में १८५७ की कई किश्तें छप चुकी हैं । मुझे लगता है टीवी चैनल में संपादक की ज़रुरत नहीं है । अस्सी फीसदी फैसले दूसरे चैनल देख कर किये जाते हैं । बाकी अख़बार पढ़ कर । वह नए किस्म का कापी एडिटर है जो कॉपी कर रहा है । न्यूज़ रूम में लगे दसियों टीवी पर संपादकों की नजर रहती है । अगर इन टीवी सेट को बंद कर दिये जाएं तो संपादक जी यह भी भूल जाए कि आज सोमवार है ।

लेकिन यह ज़िम्मेदारी अकेले संपादक की नहीं है । टीवी में गिरावट क्यों आ रही, उसमें कमो-बेश सबका हाथ है । इंडियन एक्सप्रैस में शेखर गुप्ता ने द वाशिंगटन पोस्ट के २४ साल तक संपादक रहे बेंजामिन ब्रेडली का इंटरव्यू छापा है । इतनी उमर हिंदुस्तान में न किसी चैनल की है न कोई संपादक इतने साल तक संपादक रहेगा । ब्रेडली ने कहा है कि अमरीका में अखबारों के पाठक कम हो रहे हैं । ब्लाग के पाठक बढ़ रहे हैं । शेखर गुप्ता ने पूछा कि अखबार कैसे बचेंगे । चौबीस साल तक संपादक रहे इस शख्स ने सिर्फ एक बात कही- अच्छी स्टोरी से । और अच्छी स्टोरी लाने की ज़िम्मेदारी रिपोर्टर की है । अगर रिपोर्टर इसमें चूकेगा तो संपादक डेस्क की मदद से इसी तरह की बकवास चीज़ों से अपना काम चलायेगा । यह पतन भी इसलिए आया कि रिपोर्टिंग में गिरावट आई । रिपोर्टर के पास बताने के लिए कुछ नहीं रहा । और है भी बेहतर ढंग से नहीं बता पाया । इस खाली जगह को भरने के लिए कहानियों को खबरों की जगह दी गई । बाद में यह फार्मूला बना और अब पखाना । जिससे सिर्फ गंध आती है । ख़बर नहीं हो तो चौबीस घंटे क्या दिखायेंगे । फिर यहां संपादक को भी ज़िम्मेदार बना सकते हैं । उसका काम था रिपोर्टर को प्रेरित करना । स्टोरी पर काम करवाना । मेहनत कराना । उसने नहीं किया । कई बार अच्छी स्टोरी के साथ ऐसा बर्ताव होता है कि रिपोर्टर वैसी खबर न करने की कसम खा लेता है । कम से कम संपादक स्टोरी गिराने के कारणों को लेकर रिपोर्टर से बेहतर ढंग से संवाद कर सकता है । मगर वो इतना सामंती हो जाता है कि रिपोर्टर को समझाना अपनी हैसियत के खिलाफ समझता है । संपादक की ज़िम्मेदारी खराब रिपोर्टर और एंकर भरने में भी है । निराश होने की ज़रूरत नहीं । संपादकों को भी इसका पता चल रहा होगा । उन्हें भी अहसास होता होगा कि लोग क्या बात कर रहे हैं । हवाई जहाज में जब बैठते होंगे तो डर तो लगता ही होगा कि कहीं लोगों की घूरती आंखें उमाशंकर सिंह के उठाये सवाल तो नहीं पूछ रही हैं । लोग अब शिल्पा, जाह्नवी की खबरों का विरोध कर रहे हैं तो उम्मीद रखनी चाहिए । हालात बदलेंगे । इसका इंतज़ार संपादकों को भी होगा । वर्ना साहब के कमरे के बाहर नेमप्लेट ही लगा रहेगा , कोई दिल से मानेगा ही नहीं कि साहब संपादक हैं । फिर क्या फायदा संपादक होने का ।

हिंदी पत्रकारिता का गुट काल

मैं इतिहास के गुप्त काल की बात नहीं कर रहा हूं । हां इसी तर्ज पर पत्रकारिता के एक काल की बात कर रहा हूं जिसकी खाल मोटी होती जा रही है । आप जितना इसके खिलाफ बोलिये, उतना ही आपको यह खाल ढंक लेती है । पहले साफ करना ज़रूरी है कि हिंदी पत्रकारिता का गुट काल क्या है ?

गुट काल से मतलब कुछ पत्रकारों का एक गुट में होना । जिसका एक गुट चैनल प्रमुख या अखबार प्रमुख से सीधा संपर्क रखता हो । कई गुट ऐसे होते हैं जिसके सभी सदस्यों का सर्व प्रमुखों से सीधा संबंध होता है । एक गुट होता है जो समूह में नहीं होता लेकिन गुट के पेरिफेरी यानी किनारे पर रहता है । इस तरह के व्यक्ति समय समय पर मुद्दों के हिसाब से कई गुटों से जुड़ते रहते हैं । ये लोग सबसे कम विश्वासपात्र होंते हैं । कुछ गुट ऐसे होते हैं जो सर्व प्रमुख के विरोधी के रुप में पहचाने जाते हैं । और भी कई तरह के गुट होते हैं । मैं चाहता हूं कि इसे पढ़ने वाले पत्रकार नाम बदल कर ऐसे गुटों की सूचना कमेंट्स में दें । नाम देने की ज़रूरत नहीं है । मेरा मानना है कि उस नाम का क्या फायदा जिसके आने से सच सामने नहीं आ पाता ।

तो हिंदी पत्रकारिता में गुट तो हमेशा से रहे हैं । लेकिन गुट काल क्यों कहा जा रहा है । पिछले कई सालों में हिंदी पत्रकारिता में एक चैनल से दूसरे चैनल या एक अखबार से दूसरे अखबार की यात्रा गुटों में तय की जा रही है । गुट के मुखिया के साथ कई लोग अपना बोरिया बिस्तर लेकर नए सराय में टिक जाते हैं । फिर वहां अपने गुट का विस्तार करते हैं । और विरोधी गुट को पनपने का मौका भी देते हैं । इससे लोकतंत्र की जगह गुटतंत्र का विकास होता है । फिर इन दोनों तरह के गुटों से निकल कर कभी कभी नया गुट बनता है जो अपना गुट लेकर दूसरे चैनल या अखबार की तरफ चल देता है । इनके लिए गुट और उत्साह को लेकर मैंने गुटोत्साह बनाया है । गुटोत्साह के कारण एक गुट के लोग साबित करने के लिए खूब काम करते हैं । ताकि दूसरे गुट के लोगों को काम करने का मौका न मिलें । इसी का फायदा उठा कर कुछ लोग आराम करते हैं । उनके लिए मैंने गुटाराम शब्द गढ़े हैं ।

गुट काल में गुट मेंबर के कई काम हैं । मसलन एक गुट अपने गुट के रिपोर्टर , सब एडिटर की तारीफ करता रहता है । वह इस बात पर विशेष तौर से ज़ोर देता है सहगुटकर्मी खबरों के मामले में फूफा है । असली समझ उसी की है । फलां गुटपोर्टर (अपने गुट का रिपोर्टर) बेजोड़ है । ख़बरों को भांप लेता है । गुटएडिटर उसकी तारीफ सार्वजनिक मेल मंच पर करता है । सहगुटकर्मी विरोघीगुटकर्मियों की धज्जी उड़ाते हैं । कहते हैं इनकी औकात क्या है । दो रुपये की नौकरी न मिले । हमारी जेब में तो हर दिन नौकरी होती है । इस तरह से सहगुटकर्मी चैनल अखबार में अपनी धाक जमाता है । गुटबाज़ दूसरों पर नज़र रखता है । उसकी सूचना गुट प्रमुख को देता है और गुटप्रमुख सर्वप्रमुख को । पत्रकारिता के ये सर्वप्रमुख अब अकेले चैनल नहीं बदलते । जानते हैं अकेले गए तो वहां पहले से मौजूद गुट तेल कर देगा । लिहाज़ा गुट में निकलों और कहीं गुट में पहुंचों । एक तरह से पत्रकारिता का यह जनतादलीकरण है । यानी अपना अपना गुट लेकर जनता दल (अ), (ल), (ब) (ल) बनाते रहते हैं । जनता दल की तरह ये गुट नए नए गुटों से समझौते करते रहते हैं । इन गुटों में कई गुटलंपट होते हैं । जो सर्वप्रमुख की तारीफ कर उनके करीब हो जाते हैं । जब तक नहीं होते दबी ज़ुबान में विरोधीगुटकर्मियों से शिकायत करते रहते हैं । करीबी होते ही सर्वप्रमुख की तारीफ करते हुए फायदा उठा लेते हैं । ऐसे गुटलंपटों को बड़ा भरोसा होता है । यहां नहीं तो वहां काम मिल जाएगा । प्रोफेशनल की जगह गुटनेशनल का इस्तमाल होता है । गुटपोर्टर जल्दी गुटेंकर बन कर खबर पढ़ने लगता है । विरोधीगुटकर्मी ज्योतिषों से ग्रह दशा का पता लगाते रहते हैं । कब वक्त बदलेगा जैसी आहें लेते रहते हैं । निर्गुट बेकार होते हैं । वो एक दो होते हैं । जो अक्सर गुटों की तरफ से छोड़े गए होते हैं । यह विरोधी गुट के खेमें में जाकर पता लगाता है । निर्गुट छवि की आड़ में अपने सहगुटकर्मियों की एक दो बातें भी लीक करता है । ताकि विश्वसनीयता बनी रहे । धीरे धीरे वह मौका देख किसी एक गुट में खूंटी गाड़ देता है । ऐसे लोगों के लिए मैं एक कॉफी होम बनाना चाहता हूं जिसका नाम होगा गुटपी होम । जहां गुटखोर मजे उड़ायेंगे ।

पत्रकार दोस्तों, आप हिंदी पत्रकारिता के गुटकाल पर कुछ कहना चाहें तो कहें । मगर गुटनेशनल भावना का ध्यान रखते हुए । इसमें सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष का छिछालेदर किया जाता है । उसके बारे में प्राइवेट जानकारियां गढ़ी जाती है । दलाल, आशिकबाज़ कहा जाता है । सत्य का भी गुट होता है । हिंदी पत्रकारिता के इस गुटकाल का मौटो है ।

एंग्री गणेशन का फरमान- रानी, विवेक,सलमान

विवेक राय और सलमान खा कहां हैं ?
इनकों भी ऐश की शादी में बुलाओ
समझ में नहीं आता क्या
दो आदमी से खाने के प्लेट कम हो जाएंगे
अमित अमर और अनिल तुम्हारे पास दो प्लेट के पैसे नहीं हैं ?
इतनी बड़ी गाड़ी में नाचने आते हो ?
इनके लिए घर से ही खाना लेकर आ जाते
आखिर इन लोगों ने ऐश से प्यार नहीं किया ?
इन्होंने भी तो ऐश का ख़्याल रखा
उसके साथ ख़्वाब देखे
अभिषेक से पहले ऐश को किसने संभाला
और रानी को क्यों नहीं बुलाया
किसी ने उसके सपने में झांका है क्या
जहां अभिषेक आता जाता है ?
ये क्या हो रहा है ?
रानी का तो सारा ब्लैक था
किसने उसे गुस्से से व्हाईट किया
मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है
एंग्री गणेशण के गुस्से से बचो तुम लोग
सबको बुलाओ...पैसे की चिंता मत करो
पैसा मुलायम देगा ।

(दिल्ली के रेडिये एफएम पर एंग्री गणेशन एक कार्यक्रम आता है । उसमें एंग्री गणेशण गुस्से के ज़रिये व्यंग्य करता है । उसी से प्रेरित होकर आज अभि ऐश की शादी के मौके पर यह मौलिक संवाद लिखा गया है ।)

भारतीय मर्द के गाल पर विदेशी स्त्री का चुंबन- विरोध करेंगे ?


भारत की संस्कृति ख़तरे में है । जाने कब से है । दुनिया की हर संस्कृति को दूसरी संस्कृति से ख़तरा लगता है । फिर धीरे धीरे संस्कृतियां एक दूसरे से प्रभाव और आदान प्रदान के नाम पर कुछ चुरा लेती हैं । कई बार तो बिना बतायें । फिर हल्ला मचाती है हम ओरिजनल और वो ड़ुप्लीकेट । कई संस्कृतियां एक दूसरे में सीधे प्रवेश कर जाती हैं । संवाद भी होता है । मगर संस्कृतियां एक दूसरे का भय फैला कर कइयों के हित साधने का माध्यम भी बनती रहती हैं ।

वर्ना ऐसा क्यों होता है कि रिचर्ड गेर ने शिल्पा के कपाल प्रदेश पर चुंबन लिया तो खतरा पैदा हो गया । एक ओर गेर तो एक ओर पांच हज़ार साल की संस्कृति की बेटी । बेटी वाले कमज़ोर होते हैं । दहेज लोभी सामाजिक संस्कृति में यह संस्कार होता है । बड़ा सवाल है कि चुंबन के ख़तरे पर सिर्फ उत्तर भारत में ही बवाल क्यों मचता है ? पूर्वोत्तर भारत के नौजवान क्यों नहीं पुतला फूंकते ? क्यों नहीं दक्षिण भारत के नौजवान गेर के मुंह पर या स्टार न्यूज़ के दफ्तर पर इडली सांभर फेंक देते हैं ? या फिर ऐसा होता भी है तो हमें पता नहीं चलता ? क्या केरल के किसी चौक पर शिल्पा रिचर्ड चुंबन के खिलाफ पुतले फूंके जाते हैं ? या हम भारतीय संस्कृति की रक्षा करते वक्त सिर्फ उत्तर भारत की दादागीरी का ढोल पीट रहे होते हैं । कुछ हद तक महाराष्ट्र, गुजरात और मध्यप्रदेश की दादागीरी । संस्कृति के इस रक्षा अभियान में मेघालय के युवाओं को क्यों नहीं शामिल किया जाता ? वो तो कह देंगे कि इसमें कौन सी बड़ी बात है ?

एक सवाल और है । जिस पर मैं एसएमएस पोल कराना चाहता था । हो न सका । सवाल है कि अगर किसी मंच पर मुझे या किसी हिंदुस्तानी युवक के खुरदरे गाल पर हालीवुड की अभिनेत्री एलिज़ाबेथ टेलर चुंबन लेती तब भी क्या भारतीय संस्कृति ख़तरे में पड़ जाती ? तब भी क्या इसे बार बार दिखाया जाता ? तब भी क्या मेरे पुतले फूंके जाते कि संस्कारवान देश का नौजवान अपने गाल पर किसी विदेशी विवाहित, अविवाहित महिला को चुंबन की इजाज़त देता है । मेरी पत्नी को एतराज़ न हो तो आप कौन है बवाल करने वाले । और होगा भी तो पत्नी से जूते घर में खाऊंगा आप कौन है मंच पर जूता फेंकने वाले ? आप राय भेजेंगे । एसएमएस या कमेंट्स के ज़रिये । हां रिज़र्व बैंक के गवर्नर की तरह मैं भी आपको भारतीय संस्कृति के कहीं भी भज जाने की गारंटी देता हूं । इसका कुछ नहीं होगा । आप चुंबन लेना चाहते हैं या देना चाहते हैं..कैरी ऑन । भारतीय संस्कृति में जब सारे अधिकार बेटों के नाम हैं तो ख़तरा भी बेटों के चुंबन से होना चाहिए । गर्भ में बेटियों को मार देने वाले इस संस्कारवान महान देश में बेटियों के चुंबन कर लिए जाने पर बवाल मचता है तो दांत किटकिटाने लगते हैं । सोचता हूं दुनिया में ढोंगी कहीं बहुमत में है तो यही देश हो सकता है । बेरोज़गारों को एक बिजनेस आइडिया देना चाहता हूं । कोई दुकान नहीं चल रही हो तो संस्कृति की रक्षा की दुकान खोल लें । चल जाएगी ।

अमिताभ पेड़ तो अमर छाया

यह कहानी है अमिताभ के भवदीय, शुभाकांक्षी, आर एस वी पी अमर सिंह की । जवाब नहीं । अमर अमिताभ की दोस्ती पर मनमोहन देसाई से फिल्म नहीं बन सकती । क्योंकि उनकी कहानी में किसी न किसी मोड़ पर दोस्त एक दूसरे से अलग होते हैं । ग़लतफहमियां पैदा होती हैं। वो दुश्मन बनते हैं और फिल्म के आखिरी दस मिनट में वापस दोस्त । लेकिन अमित अमर की दोस्ती में कोई एक दूसरे से जुदा नहीं हो पाता है । चिपके रहते हैं । इसलिए मनमोहन सिंह से अमिताभ पेड़ तो अमर छाया नाम की कहानी पर फिल्म नहीं बनेगी । नए निर्देशक चाहिए । ऐसा निर्देशक जिसका दोस्त उसे कभी छोड़ता ही न हो । हर समय साये की तरह रहता हो । ऐसे दोस्तों की तलाश में दिलजलों अमर अंकल से सीखो । आगे से किसी को दोस्त बनाना तो एक मिनट के लिए भी मत छोड़ना । सॉरी यहां दोस्ती के साथ एक रिश्तेदारी भी है । अमिताभ अमर अंकल के बड़े भाई हैं । कम से कम एक टूट भी जाए तो दूसरा डोर तो रहेगा । फिर छोटा भाई अपने बड़े भाई को गिफ्ट देता है । बड़ा भाई ले लेता है । आखिर क्यों न लें । सगा छोटा भाई है । क्या उसने आज तक कोई गिफ्ट दिया जो टीवी चैनलों में लाइव दिखाया गया हो । अमर अंकल ने दिया है ।

दोस्ती के इस सिंड्रम को किसी मनोचिकित्सक से समझ कर कोई चैनल आधा घंटा कर सकता है । चैनलों की भाषा में आधा घंटा जीवन के सार तत्व को पेश करने वाला समय बोध है । इसमें अमर अमिताभ की दोस्ती का विश्लेषण होना चाहिए । सुपरस्टार के बेटे की शादी और कार्ड पर भवदीय में छपे छोटे भाई अमर सिंह । अमिताभ ने भी क्या सम्मान दिया है । बड़े भाइयों को सीखना चाहिए ।

अमर सिंह कभी थकते भी नहीं । शिंकारा के बोतल की तरह तरोताज़ा ही नज़र आते हैं । दिन में मिर्जापुर, दोपहर में तिरुपति और शाम को मुंबई । चुनाव में झूठे वादे, भगवान से सच्ची प्रार्थना और दोस्त का साथ । कहते हैं अमर सिंह उद्योगपति भी हैं । राम जाने उनके उद्योग को कौन संभाल रहा है । अभिषेक ऐश की शादी के तमाम फोटोग्राफरों, कैमरामैनों तुम एक तस्वीर ऐसी खींच कर दिखा दो जिसमें अमर अमिताभ साथ न हों । दोनों दुल्हा दुल्हन की तरह साथ साथ नज़र आते हैं । भगवान इनकी दोस्ती पर ज़माने की नज़र न लगने देना । मुलायम सिंह को यह न लगने देना कि यूपी में डूबती नैया को छोड़ उनका दोस्त मुंबई में इन दिनों क्यों रहता है ? कहीं वो हर शाम वियोग में डूब जाएं और सोचने लगें कि अमर तो पहले मेरे दोस्त थे । मैं भी तो उम्र में उनके बड़े भाई के समान हूं । लेकिन अमर मेरे साथ तो इतना नहीं रहता । हर फ्रेम में । हर वक्त । ऐसा बिल्कुल मत होने देना भगवान । क्योंकि सुबह होते ही अमर अंकल मुलायम अंकल के पास आ जाते हैं न । प्रचार के लिए । मगर सोचिये तो..इससे तो पार्टी का प्रचार हो रहा है न । अमिताभ के साथ शादी के फोटो से उनका प्रचार हो रहा है या पार्टी का । एक और दोस्त है...जो अक्सर दोनों के फ्रेम में बिन बुलाये मेहमान की तरह नज़र आता है । अनिल भैया का । एक फिल्म बन ही जाए । अमर अनिल और अमिताभ । इतने ए में बेचारे एम वाले मुलायम....नहीं भगवान...इनकी दोस्ती पर किसी की नज़र न लगें । नहीं ।

राहुल बाबा का बाइस्कोप



यूपी के चुनावी मेले में एक बाइस्कोप घूम रहा है । राहुल बाबा का बाइस्कोप । इसमें तीन खाने हैं । एक खाने से गांधी परिवार का कैलेंडर घूमता हुआ दिखता है तो दूसरे से यूपी का बीस साल पहले वाला स्वर्ण युग और तीसरे से मौजूदा नरक युग । टाटा सफारी से यह बाइस्कोप निकलता है और कुछ भी बोल देता है । पहले लगा कि नौजवान नेता नई बात करेगा । लड़ने आया है । कुछ सीखने और कुछ करने आया है । पर क्या है न ये लगने की बीमारी, होने की हकीकत से बड़ी दूर होती है । इसीलिए हम भी एकाध रोड शो में बाइस्कोप देखने चले गए ।

दूधिया सफेद एक लड़का खादी के कुर्ते में । इस देश में खादी का कुर्ता लोकप्रिय न होता अगर मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू ने गांधी जी के कहने पर पेरिस से धुल कर आए पतलूनों को जलाया न होता । शुक्र है बाबा के बाइस्कोप में अभी यह नहीं बोला गया है । माइक से राहुल बाबा बोले जा रहे हैं । लगता है कि दोस्तों के साथ पिकनिक पर निकले हैं । उनको जता रहे हैं कि तुम किसी मामूली के साथ नहीं निकले हो । यह देश देख रहे हो न हमारा है । दोस्त भी कहते हैं- वाव राहुल इट्स ऑल योर फैमिल..अमेज़िंग यार । अरे नौजवान क्यों बेवकूफी की हरकतें करते हो । पाकिस्तान का बंटवारा आपके परिवार की देन है तो बीजेपी कह देगी कि उससे पहले भी हिंदुस्तान पाकिस्तान का बंटवारा आपके परिवार की देन है । जिसके एक सदस्य देश के आज़ाद होने से पहले ही खुद को प्रधानमंत्री समझने लगे थे । जैसा कि आप भी खुद को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखने लगे हैं । भला हो मनमोहन का जिन्होंने आपको यूपी का भविष्य बता दिया है । लालू पहले बोले थे कि आपको मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बना देना चाहिए । मगर कांग्रेसी भड़क गए । और आप चुप रह गए । बताया भी नहीं कि आप नहीं तो कौन यूपी का नया भविष्य होगा । हिम्मत है क्या भई कह देने की । भावी प्रधानमंत्री को यूपी का भावी मुख्यमंत्री । ये हो क्या रहा है कांग्रेस में । कहीं बाबा को यूपी में सेट करने की सियासत तो नहीं चल रही । राहुल बाबा भी तो साफ नहीं करते ।

फिलहाल बाइस्कोप बने घूम रहे हैं । लोग भी देखने आ रहे हैं । और भीड़ देख कर बाइस्कोप को भरम हो गया है कि वह सिनेमास्कोप हो गया है । पर राहुल जी छोटा पर्दा इतनी आसानी से बड़ा नहीं होता । आप यूपी मे बाइस्कोप मत बनिये । नई बात छेड़िये । अगर छेड़ सकते हैं तो । देश में पहली बार नहीं हो रहा है कि किसी नेता ने अपनी टीम बनाई हो । प्रमोद महाजन, उससे पहले आपके पिता जी...इन सबकी अपनी टीम हुआ करती थी । पार्टी से अलग । इसका नतीजा ज़ीरो रहा । आपके पिता जी बदनाम हो गए और प्रमोद महाजन की टीम के बाद भी बीजेपी हार गई । हर नेता के पास विश्वस्त लोगों की टीम होती है । पर वो जानकारी के लिए होती है सियासत के लिए नहीं । अब आप देखिये कैसे यह बयान आपके बाइस्कोप को धुंधला कर देता है । अरे भई...हमारा नौजवान ऐसी बेवकूफी करेगा तो कैसे नौजवान उसके पीछे आएगा । दुनिया में किसी भी आंदोलन का इतिहास देखिये..नौजवान सेक्स अपील पर नहीं कूदता । उसे कार्यक्रम देना होता है । मौजूदा व्यवस्था से एक प्रस्थान बिंदु तय करनी होती है । आपने कोई नया कार्यक्रम दिया है । आपका भाषण कुल मिलाकर बेकार है । वो शानदार और जानदार हो सकता है । राहुल बाबा आपके पास मौका था कि नौजवान होने के नाम पर सियासी अतीत से छुटकारा पाने का । मगर आपने उसे अपने बाइस्कोप में लाद कर ठीक नहीं किया । आप तो अतीत में जाकर बुढ़ाते हुए लग रहे हैं ।

इसीलिए भीड़ में आए कई लोगों ने कहा हम तो राहुल बाबा को देखने आए हैं । वोट नहीं देंगे । वोट क्यों देंगे आप बताओ । बहुत सारे नौजवान नेता सांसद बन गए हैं तो क्या इनके आने से राजनीति बदल गई है । भई राजनीति तभी बदलेगी न जब जनता की हकीकत बदलेगी । जब तक आप जनता की हकीकत नहीं बदलोगे आप चिल्लाते रहो यह सियासत नहीं बदलने वाली । भले ही आप बोर हो जाए और पागल की तरह चीखने लगो कि इट्स टाइम टू चेंज । वक्त आ गया है । गांव के लोग और खड्डे के कस्बे में रहने वाले लोग कहते हैं यह वक्त कब आया भई ? राहुल बाबा सियासत की इस हकीकत का सामना करो । इससे भागो मत । रही बात नाना, दादी, पापा और मम्मी के योगदानों की तो उस पर आपका कापीराइट नहीं है । लोगों ने वोट दिया था । आप भी वोट मांगिये । यह मत कहिये कि मेरे नातेदारों ने ये किया वो किया..अब मैं यहां से जाने वाला नहीं..तुम्हें वोट देना ही होगा । आपसे यूपी की जनता ने कहा है क्या कि आप आइये...हम बदलने के लिए बेचैन बैठे हैं ?

चलो भई बाइस्कोप का टाइम ओवर हो गया । कब शुरू होता है और कब खत्म ...पता ही नहीं चलता । यही बीमारी है बाइस्कोप की ।

ऐश की शादी में मीडिया बाराती


किसने कहा कि अमिताभ ने अपने इकलौते बेटे की पहली शादी में कम लोगों को बुलाया है ? ग़लत । अमिताभ ने भले ही हज़ारों कार्ड नहीं छपवायें होंगे मगर कई लोग हैं जो समझते हैं कि नहीं बुलाया तो क्या हुआ इतना पुराना संबंध है , उसी की खातिर चलना चाहिए । आखिर मीडिया का अमित जी से कोई आज का संबंध तो है नहीं । कितने इंटरव्यू , उनके संवादों का जाप, उनकी हर अदा पर दिलो जान की बौछार । ऐसा प्रगाढ़ संबंध और अगर न बुलायें तो क्या इसी दम पर सब भुला दिया जाए । नहीं । बिल्कुल नहीं । इसीलिए उनकी शादी में मीडिया वाले जा रहे हैं । वो पता लगा रहे हैं कि ऐश की साड़ी कहां बन रही है, फूल वाला कौन है ? हलवाई, दर्ज़ी, इत्रवाला कहां से आ रहा है ? सब की खोज हो रही है । क्या पता कोई रिपोर्टर हलवाई की टीम में शामिल होकर अमित जी के घर में गाजर कद्दूकस करने लगे और अपने मोबाइल से शादी की तैयारी का एमएमएस भेज दे । तब हो गया न खेल ।

इसलिए मेरी एक योजना है । हर चैनल कई रिपोर्टरों की टीम तैयार करें । किसी को हलवाई का प्रशिक्षण तो किसी को बैंड बाजे का दें तो किसी को शामियाना सजाने का । बस हर तरफ रिपोर्टर ही रिपोर्टर । फिर देखें कैसे अमिताभ जी इस शादी को गुप्त रख पाते हैं । वैसे भी इस देश में सदियों से भूखमरी, आंधी , पानी की समस्या है । दो चार हफ्ते ब्रेक लेकर ऐश अभिषेक की शादी की खबर देख ही लेंगे तो क्या हो जाएगा । दुखी न हों । योजना बनाएं । शादी में चलने की तैयारी कीजिए । उनके यहां एक ड्राइवर है जिसका भाई बलिया से आया है । उसकी जगह कोई रिपोर्टर नौकरी पर आ जाए और अभिषेक की गाड़ी चलाने लगे । सीधा लाइव फोनो दे दे । देखता हूं कौन सा चैनल नहीं दिखाता है । ये काम कोई फ्री लांस रिपोर्टर भी कर सकता है । बाद में वो अपना फुटेज सबको बेच देगा ।

रही बात मीडिया और लम्पटीकरण के थ्योरी की तो छोड़ो यार । कोई सुन रहा है क्या । बहस ही करते रहेंगे और पता चलेगा कि अभिषेक का जूता भी खरीद कर आ गया । उसका शाट्स मिस कर गए । हमारे पटना में न्यू मार्केट में ज़्यादातर होनेवाली दुल्हनें खरीदारी के लिए जाया करती हैं । लहंगा । बिंदी । लिपस्टिक के लिए । मेकअप बाक्स । आलता । नए कपड़े । चप्पल । साथ में खरीदारी के लिए पड़ोस की लड़कियां, रिश्ते की बहनें और भाभियां । इतने लोग इसलिए भी जाते हैं क्योंकि पहली बार मां बाप भी लड़कियों को खूब पैसा देते हैं । जाओ बेटी खरीद लेना । यह दस साल पहले की बात है । अब भी होता ही होगा । कहना यह चाहता हूं कि ऐश के पास तो इन सब सामानों की कोई कमी नहीं होगी । मगर खरीदारी तो हो ही रही होगी । हमें दुल्हन के सामानों के होल सेल वालों से पता करना चाहिए कि तुम्हारा माल किस खुदरा व्यापारी से ऐश के घर में जा रहा है । वहां पर कैमरा लगाया जा सकता है ।

अरे भाई मैं भी खरीदारी में अटक गया । बाराती की बात करने वाला था । अमित जी ने जितने बाराती को नहीं बुलायें हैं उतने हमारे पेशे के लोग जाएंगे । उससे अधिक । हर मोड़ पर एक रिपोर्टर लाइव करेगा । अमर सिंह से भी इंटरव्यू किया जा सकता है कि वो इस शादी के लिए कहां से कपड़े सिलवा रहे हैं । तोहफा क्या देंगे । पिछली बार जो कार दी थी उसी से काम चला लेंगे या नया कुछ देंगे । इस दिन अमर अंकल उपवास पर रहेंगे ताकि शाम को जमकर खा सकें । या फिर खाने के पहले अपनी कार की डिक्की से वो सब निकाल कर दोस्तों के साथ पी लेंगे । फिर नाचने के बाद खायेंगे । अमिताभ जी ने इलाहाबाद से किसी को बुलाया है या नहीं ? इसकी भी खोज होनी चाहिए । वहां से अगर किसी को नहीं बुलाया है तो खबर बन सकती है कि अमिताभ भूल गए अपनी जड़ों को । जिस इलाहाबाद ने उन्हें पिता से लेकर ख्याति तक दी उसे भूल गए । अगर बुलाया है तो जिनको बुलाया है उनका इंटरव्यू चालू । उनके साथ एक रिपोर्टर ट्रेन में सवार हो जाएगा । पुराने रिश्तेदार तो कुछ तोहफे टोकरी, दौरा में लेकर जाएंगे । नारियल, सिंदूरदान, पितर पूजा की सामग्री, आदि आदि । इनका विस्तार से एक वॉक अबाउट हो सकता है । ऐसे तमाम आइडियाज़ है । सबके लिए हैं ।

तो हो गए न हम अभिषेक ऐश की शादी के बाराती । अरे हां आखिरी सलाह । कहीं पुलिस वाला किसी प्रेस की गाड़ी को प्रतीक्षा बंगले से दो किमी पहले न रोक दे आप अपनी गाड़ी पर प्रेस का लेबल हटा दें । उसकी जगह पीले रंग के कागज पर अभिषेक वेड्स ऐश लिख दें । क्या मजाल जो कोई रोक दे । बाराती पर कोई हाथ लगा सकता है क्या ? चलो भई शुरू करो । छोड़ों हिंदुस्तान की समस्याओं को । इनके रहते किसी के घर परिवार में शादी नहीं होती क्या ?

स्कॉटलैंड में पुनर्जन्म बनाम उत्तर प्रदेश में एक ही जन्म



मेरा अब उत्तर प्रदेश और बिहार में कोई भी जन्म न हो । ऊपर वाले के दरबार में अपनी इस वसीयत को पहुंचा दिया है । देवी देवता हैरान थे । पूछा क्या हुआ वत्स यहां नहीं तो कहां पुनर्जन्म । मैने कहा आप भी निकलो यहां से । कितने साल से और कितने जन्मों से काशी, मथुरा में अटके पड़े हो । कोई और प्रदेश, विदेश नहीं देखना क्या ? आप क्यों स्थायी भाव से हिंदी पट्टी में अटके हुए हैं ? देवी देवताओं ने कहा हम ८४ करोड़ योनियों को मोनिटर कर रहे हैं । जब तक इंसान इसे पूरा नहीं कर लेता कहीं नहीं जा सकते । कहो तो तुम्हें यहीं पुनर्जन्म का आशीर्वाद दे दूं । मैंने कहा बिल्कुल नहीं । आप का शुक्रिया ।

अगर पुनर्जन्म ही होना है तो स्कॉटलैंड में क्यों न हों ? उसमें कोई बुराई है । नए रिश्तेदार होंगे । दोस्त होंगे । नई सड़क और कस्बे होंगे । कब तक शिल्पा और बिपाशा के यूपी बिहार में आग में जलते रहेंगे । वहां ठंड में मज़े करेंगे । बच्चन जी अगले जन्म में शूटिंग करने आएंगे तो अपने घर में ठहरायेंगे । पूछेंगे बिहार उत्तर प्रदेश में पुनर्जन्म के बाद कैसा लग रहा है । कुछ फ्रेश एयर है भी कि नहीं । मुलायम कैसे हैं ? लालू नीतीश किधर हैं ? अलग अलग हैं या एक ही जगह हैं । सड़कें तो होंगी नहीं । कहां पढ़े आप । इस जन्म में भी खप्पर के स्कूल में पढ़े क्या ? बलिया टू बनारस वाली सड़किया कैसी है बच्चन बाबू ? हम तो स्कॉटलैंड में पुनर्जन्म के बाद एन्ज़ॉय कर रहे हैं । बुलेट ट्रेन में चलते हैं । आप तो वही एक्सप्रैस में न । किराया तो नहीं ही बढ़ा होगा । मुख्तार का प्रचार करके लौट रहे हैं लगता है । इधर तो सब कुछ नया है । जानते थे कि उधर कुछ नहीं बदलने वाला । न भगवान न आप लोग । इसीलिए टाइम से पहले निकल लिए । एक ही प्रदेश को कितने जन्मों तक देखते रहेंगे । यदि हो पुनर्जन्म मेरा तो इधर कभी न हो । उधर हो ।

सेक्स शिक्षा के विरोधी पकड़े गए कच्ची कली देखते



दिल्ली, मेरठ, झांसी, पटना, लखनऊ, बनारस..शहरों का नाम लिखने लगूं तो भारत के सभी धार्मिक सांस्कृति शहरों के नाम लिखने पड़ेंगे । जनाब किसी राष्ट्रीय एकता की पाठशाला नहीं लगाने जा रहा हूं । इन तमाम शहरों में बंद होते सिनेमा घरों में आग की तरह चिपकी फिल्मों की बात कर रहा हूं । कमसिन जवानी, प्यासी औरत, सहेली का साथी और मचलती जवानी । ऐसे नामों से हर हफ्ते आने वाली तमाम फिल्मों की बात । और सेक्स शिक्षा के विरोधियों के मानस को समझने का प्रयास । इस महाविवाद में हमारी भी कुछ योगदान हो ही जाए ।

पिछले साल की गर्मी का महीना । पश्चिम बंगाल के मिदनापुर ज़िले का एक छोटा सा कस्बा । इतना ही बड़ा कि वहां सिर्फ एक चौराहा था और किनारे पर एक सिनेमा हाल । कम्युनिस्ट बंगाल के क्रांतिकारी किसान फिल्म देख रहे थे । दरवाज़ा खुला था । बाहर से हवा आने देने के लिए । अंदर की गर्मी को शांत करने के लिए । मैं और मेरा कैमरा मैन अंदर । इस कौतुहल में कि ये किसान अंग्रेजी फिल्म कैसे देख रहे हैं । सोचा कि बंगाल में अंग्रेजी क्रांति हो गई क्या । पर्दे पर देखा कि रशियन ब्लू फिल्म दिखाई जा रही है । रशियन दावे के साथ नहीं कह सकता । पर अंग्रेजी के अलावा कोई और भाषा थी । किसान सिर्फ तस्वीरों से अपना मनोरंजन कर रहे थे । ज्ञान भी हो ही रहा होगा । हम जल्दी बाहर आए , नाम देखा तो बांगला में लिखा था ।

हाल ही में झांसी में एक उद्योगपति के करीबी ने बताया । वो बैद्य हैं । करीबी ने उद्योगपति का सुनाया हुआ किस्सा हमें सुना दिया । वो एनडीटीवी के अंग्रेजी चैनल पर सेक्स शिक्षा पर हो रही बहस सुन रहा था । मैंने राय पूछी । उसने कहा राय कुछ नहीं । हमारे बैद्य साहब ने सेक्स की एक गोली बना दी । हफ्ते भर में लाखों की बिक गई । बिना विज्ञापन के । उद्दोगपति जी ने कहा कि लगता है भारत का पुरुषार्थ कमज़ोर हो रहा है । करीबी ने कहा लोग चोरी छुपे गोली खरीद लेते हैं मगर रोग नहीं बतायेंगे । शिक्षा हो या न हो सेक्स से उद्योगपति जी को खूब फायदा हो रहा है ।

अब दरयागंज की पटरियों पर बिकने वाली किताबें । हवस की एक रात या फिर सौ लड़कियों का अकेला मर्द । नाम ही भयंकर । बिक रही हैं । लोग खरीद रहे हैं । इसमें इंटरनेट और पार्न सीडी की जानकारी शामिल नहीं है । उस पर कई बार चर्चाएं हो चुकी हैं ।

अब बताइये विरोध कौन कर रहा है सेक्स शिक्षा का । इससे किस धर्म को खतरा है । जब ऊपर के तीनों मिसाल से धर्म का कुछ नहीं बिगड़ा तो क्लास रूम से क्या बिगड़ेगा । देश के सभी बस स्टैंडों और पेशाब घरों में क्या सेक्स शिक्षा नहीं है । सेक्स हकीमों ने जान लिया है कि हमारा समाज फ्राड है । इससे खुल कर बात मत करों । चोरी छुपे संवाद करो । वो सुनेगा । प्रकाश कोठारी जानते हैं अंग्रेजी बोलने वाले सेक्स डेफिसियेंसी कुलीनों की हकीकत । इसलिए कहते हैं क्लास में बिठा कर पहले ही बता दो ।

मेरी राय है कि सेक्स शिक्षा के विकृत रूपों पर अभी तक मर्दों का ही कब्जा है । शायद ही कोई महिला कमसिन जवानी देखने जाती होगी या फिर दरियागंज की पटरी से किताब खरीदती होगी । या ऐसा होता होगा तो इस लेखक का मालूम नहीं । बस गेस कर रहा हूं । हां पढ़ी लिखी लड़कियों के पास इंटरनेटीय पार्न जगत का विकल्प होता होगा । हमने खजुराहों के बाद सेक्स शिक्षा के बारे में कुछ नहीं किया । कामसूत्र को पढ़ा नहीं अलबत्ता इसके नाम पर बना कंडोम बिक रहा है । बाज़ार को मालूम था हिंदुस्तानी भले ही कामसूत्र पढ़ा नहीं होगा मगर उसका नाम ज़रूर सुना होगा । इसीलिए किसी पूजा को अजगर में लिपटा कर कंडोम को घर घर पहुंचा दिया ।

वैसे भी सारे स्कूल इसके विरोधी नहीं है । मैं मुंबई के एक सौ फीसदी मुस्लिम स्कूल की बात कर रहा हूं । दो हज़ार लड़कियां यहां पढ़ती हैं । इनकी मांओं को जब प्रिसिंपल ने बुलाकर कहा हम सेक्स शिक्षा देना चाहते हैं । तो मांओं ने कहा प्लीज दीजिए । निम्नमध्यमवर्गीय इलाके के इस स्कूल में लड़कियों को हमने सेक्स पर लघुनाटिका करते देखा । कई पब्लिक स्कूल हैं जहां इसकी तालीम दी जा रही है । आज भी । सरकारों को डर लगता है । क्यों डर लगता है । उसका वोटर सेक्स नहीं करता क्या ? सिर्फ योग ही करता है क्या ?

सेक्स शिक्षा से हम हर दिन दो चार होते रहते हैं । चौराहे पर लगे और टीवी में दिखाये जाने वाले एड्स विरोधी विज्ञापन किसी न किसी रूप में सेक्स शिक्षा ही तो दे रहे हैं । फिर विरोध कैसा । सेक्स संकट में है । देश नहीं है । समाज नहीं है । इसके लिए शिक्षा ज़रुरी है । अगर क्लास रूम में नहीं पढ़ाओगे तो ये लोग कमसिन जवानी देखने चले जाएंगे । या फिर एमएमएस के ज़रिये किसी रात मोबाइल फोन की रोशनी में अपनी कल्पनाओं से भिड़ते रहेंगे । दिल्ली की एक स्कूल की छात्रा का जीवन इसी ज्ञान की कमी के कारण बर्बाद हो गया । उस लड़के का कुछ नहीं हुआ । अगर तालीम दी गई होती तो इससे ये नौबत न आती और अगर आती भी तो इस तरह की गैरबराबरी का इंसाफ न होता । सवाल है कि चोरी छुपे औरतों में झांकने वाला हिंदुस्तानी मर्द किताबों में इसे पढ़कर परिपक्व और संतुलित होना चाहता है या नहीं ? और इन बेवकूफ मर्दों की अज्ञानता की कीमत औरतें कब तक चुकाती रहेंगी । सेक्स शिक्षा का स्वागत किया जाए । हमारी सभ्यता संस्कृति ने बहुत संकट देखे । इसका कुछ नहीं होगा । इस पर ब्लाग राग ने भी अभियान चला रखा है । यह लेख उनके ही लेख पढ़ने के बाद लिखा गया है । प्रेरित होकर ।

पत्रकारिता का जनपद- ख़बरों की दलाली

पत्रकारिता एक देश की तरह राष्ट्रीय, राज्य और जनपद, तहसील में बंटी हुई है । यहां भी भ्रष्टाचार की शुरूआत नीचे से ऊपर की होती है । या ऊपर से नीचे पहुंची होगी । कई बार लोगों से किस्से सुनता रहा हूं इस करप्शन के बारे में । आज लिख देना चाहता हूं । उनके लिए जो इस पेशे में नहीं हैं ।
हमारे पेशे में बड़ी संख्या में चोर दलाल घुस आए हैं । पहले से ही घुसे रहे हैं । दिल्ली के बड़े राष्ट्रीय दलाल पत्रकारों की तरक्की जनपदीय दलालों से अलग होती है । पत्रकारिता का राष्ट्रीय दलाल प्रतिष्ठित होता है । उसके रसूख से लेकर विचार तक काम में लाए जाते हैं । उसकी संपत्ति के बारे में लोग बात करना छोड़ देते हैं । वो अपनी ज़रूरतों के नाम पर घर भरने के बाद पेशे की भी ज़रूरत बना रहता है । वह किसी न किसी बड़ी संस्था में रहता है जहां की ख़बरें उसे दूसरे गैर दलाल पत्रकारों के बीच महत्वपूर्ण बनाए रखती हैं । वह भी देश में भ्रष्टाचार पर लेख लिखता है । इनके बारे में बात करने की कोई हिम्मत नहीं जुटाता । यह सबके दोस्त होतें हैं । नाइस पर्सन कहलाते हैं ।

मैं इसे छोड़ कर जनपद की तरफ चलता हूं । स्ट्रींगर । यह वो कड़ी है जिससे पत्रकारिता अंतिम छोर पर बैठे आम आदमी से जुड़ती है । हमारे देश में बहुत सारे विवादास्पद विषय इन्हीं स्ट्रींगरों की देन रहे हैं जिनकी खबरों को हड़प कर राष्ट्रीय पत्रकारों ने दिल्ली और लंदन में ईनाम पाएं हैं । स्ट्रींगर वो है जिसकी ख़बरों को हज़ार दो हज़ार में राष्ट्रीय पत्रकार खरीद लेता है । फिर अपनी खबर बना कर दुनिया के सामने महान बन जाता है । क्योंकि स्ट्रींगर को बाइलाइन नहीं मिलती । उसका नाम नहीं छपता । चेहरा टीवी में नहीं दिखाया जाता । उसकी मेहनत मामूली रकम के बदले लूट ली जाती है । इसे नहीं बदला जा सकता क्योंकि कोई चाहता नहीं । चैनलों को सस्ते में खबर मिल जाती है और स्ट्रींगर को एक लाइसेंस । जिसकी चर्चा अगले पैरा में । पर इतना ज़रूर है कि यही बेचारे स्ट्रींगर दिल्ली से जनपदों में जाने वाले पत्रकारों की हर ज़रूरत बनते हैं । इन्हीं के दिए तमाम विश्लेषण दिल्ली के अखबारों और टीवी की खबरों के आधार बनते हैं ।

जनपद पर दिल्ली का डाका पड़ता रहता है । स्ट्रींगर मामूली रकम के लिए मेहनत करता रहता है । वो हर खबर पर जाता है मगर उसकी हर खबर नहीं लगती । उसकी मेहनत बेकार जाती है । खबर तक पहुंचने की कोई रकम नहीं मिलती । यह है उसके पेशेगत मजबूरी और मेहनत की आदर्श कहानी । बिल्कुल सच ।

लेकिन इस तस्वीर का दूसरा पक्ष भी है । कई स्ट्रींगर दलाली के सूत्र बन गए हैं । किसी भी चैनल या अखबार के हों । वो खुद लुटता है तो इसी के नाम पर वो भी खबरों की दलाली से कमा रहा है । कुछ स्ट्रींगर जनपदीय माफिया , अफसरों को ढंकने का काम करते हैं । उनकी ख़बरे दिखा देने के नाम पर हज़ारों नहीं लाखों कमा रहे हैं । किसी चैनल के स्ट्रींगर बनने पर उनकी कमाई पांच हज़ार से अधिक हर महीने नहीं होती । फिर भी इसके लिए मारा मारी मची रहती है । उनके पास तीन तीन फोन होते हैं । उनके साथ तीन तीन लोग घूमते हैं । कार होती है । पता चल रहा है कि ये लोग थानों से हर महीने सट्टेबाज़ी होने देने के बदले थानेदार और सट्टेबाज दोनों से हफ्ता लेते हैं । फिर इन्हीं का चेहरा ढंक कर राष्ट्रीय चैनलों के लिए एक्सक्लूसिव खबरें भी बना देते हैं । स्थानीय बिल्डर की करतूतों को छाप देने की धमकी के बदले रकम लेते हैं । दिल्ली से आए पत्रकारों के सामने बेचारे बने घूमते हैं और उनके रवाना होते ही इनका धंधा चालू हो जाता है । अब तो कई स्थानीय अखबार इसे औपचारिक करने में लगे हैं । वो अब अपने रिपोर्टरों को इन बिल्डरों और अफसरों से विज्ञापन लाने के लिए कहते हैं । जनपदों में कई सारे चैनल आईडी ऐसे दिखते हैं जिनका काम कहीं नहीं दिखता । मगर इन चैनल आईडी के नाम पर खूब वसूली हो रही है । ये वो लोग हैं जो असली खबरों को बाहर से आए पत्रकारों तक नहीं पहुंचने देते । अपनी मेहनत और गरीबी के नाम पर लूट मचा रखी है । मेरे एक कैमरामैन ने कहा कि कुछ ईमानदार पत्रकारों के खुलासे का ये अपने इलाके में इस्तमाल करते हैं । कहते हैं फलां चैनल पर किस तरह ठेकेदारों को एक्सपोज किया गया है । आपका भी वही हाल होगा । आप जानते नहीं मीडिया की ताकत । बस चोर अफसर झांसे में आ जाता है । और लूट का खेल चालू हो जाता है । मैंने वेतन हासिल कर रहे कई पत्रकारों से सुना है कि किसी ज़िले में स्ट्रींगर बनवा दीजिए वहां चला जाऊंगा । बस एक बार किसी राष्ट्रीय चैनल से जुड़ने का मौका मिल जाए । यह सब छलावा होता है । आज नब्बे फीसदी स्ट्रींगर दलाली कर रहे हैं । इनके पास यही तर्क होता है पेट के लिए करना होता है । क्या करें चैनल में तीन हज़ार की भी खबर नहीं चलती । परिवार भी तो चलाना है । क्या ये दलील काफी है । तो फिर इस तर्क से भारतवर्ष में कोई भी बेईमान नहीं है । सब परिवार के लिए ही तो चोरी कर रहे हैं ।

किनकी पहचान हैं लक्ष्मीबाई


पहचान के सवाल में कई चीज़े जुड़ती रहती हैं । मैं झांसी में हूं । यहां के बुंदेलखंड विश्वविद्यालय में नकल हो रही थी । छात्रों ने हथगोले फेंक दिए । प्रिंसिपल को घेर लिया । अगले दिन सोनिया गांधी की रैली । लाउडस्पीकर चिल्ला रहा था ये वीरांगना लक्ष्मी बाई की धरती है । जिसने अंग्रेजों को भगा दिया । झांसी की शान और बान हैं लक्ष्मी बाई । मैंने नकल करने की उम्र वाले नौजवानों से पूछा कि लक्ष्मी बाई कैसे पहचान हो सकती हैं । यहां एक से एक गुंडे चुनाव लड़ रहे हैं । उन्हें हज़ारों लोग वोट देते हैं । गैरकानूनी रूप से उत्खनन चलता है । कोई नियम का पालन नहीं करता । हर नेता अपने भाषण में १८५७ की कसम खाता है । झांसी की रानी पहचान का हिस्सा बनी हुई हैं ।

सवाल है कि यह पहचान किस लिए है ? क्या सिर्फ बाहर से आए लोगों को बताने के लिए ? कि हम बड़ी महान हस्ती की धरती के सपूत हैं या सुपुत्री हैं । और अंदर ही अंदर झांसी की रानी की लड़ाई को मिल कर बेच रहे हैं । लक्ष्मी बाई मुझे बहुत कमज़ोर नज़र आई । मूर्तियों में बंद बेबस । हमें इसका सामाजिक विश्लेषण करना चाहिए कि चोर बदमाश भी कहते हैं कि हम झांसी की संतान हैं । क्या इसी लिए किसी ने अपनी जान दी । हिंदुस्तान की जनता बहुत भ्रष्ट है । वो दूसरे के बलिदानों का भुगतान अपने नाम करा लेती है । झांसी में लक्ष्मीबाई के नाम पर जितनी लूट मची है ये अगर रानी को मालूम होता तो वह अंग्रेजों को झांसी देकर किसी जंगल में चली गईं होती । नहीं गईं । किसी को फर्क नहीं पड़ता । झांसी में कहीं भी जाइये बेकार लोग गुनगान करते मिल जाएंगे ये फलां दबंग का मकान है । इसने यहां कब्जा किया है । वहां डाका डाला है । ठेकेदारों दलालों के भेष में अंग्रेज आ गए हैं । और लक्ष्मीबाई मूर्तियों में बंद नेताओं का स्वागत कर रहीं हैं । वीरांगना की धरती पर । मुझे झांसी से कोई सहानुभूति नहीं है । यहां भी चोरी भ्रष्टाचार वैसा ही है जैसा हर जगह । झांसी की रानी झांसी की पहचान नहीं है । काली कमाई का आइडेंटीटी कार्ड है । इस शहर को विसर्जित कर दिया जाना चाहिए । किसी कूड़ेदान में । कम से कम लक्ष्मीबाई की मूर्तियां सिसकेंगी तो नहीं ।

चम्पा देवी को वोट कौन देगा ?

ललितपुर बुंदेलखंड का पिछड़ा और बेकार इलाका है। यहां कोई बुंदेला बंधु हैं जो नेता से दादा हो गए हैं। लोग खुशी खुशी इनके दबदबे को स्वीकार करते हैं। मैं बुंदेला बंधु के घर भी गया। कई एकड़ में फैला घर। पचासों ट्रक, एंडेवर जीप, स्कार्पियो। घर इतना बड़ा कि आंगन बागीचा लगता है। लोग बड़े खुश हैं कि उनके यहां का नेता दबंग है। अब मैं इन पर आरोप लगाकर इनकी मेहनत की कमाई पर तोहमत नहीं भेजना चाहता। पर पूछा ज़रूर कि कहां से सब कुछ इतना विशाल हो गया। तो बड़े बुंदेला सुजान सिंह बोले- मेहनत की कमाई है। मैंने ग्राम की प्रधानी से लेकर विधायक और संसद के चुनाव जीते हैं। यह सब जनता के आशीर्वाद और प्यार का फल है। ऐसी जनता को गोल्ड मेडल देना चाहिए। एक ग़रीब नेता को कहां से कहां पहुंचा दिया। उसका प्यार है भई- कह कह कर बुंदेला साहब ठंडी आहें लेते रहें।

तो क्या जनता चम्पा देवी को भी ऐसा प्यार देगी? चम्पा देवी विकलांग हैं। मेरी अचानक नज़र पड़ी। व्हील चेयर को खींचते कोई पचास विकलांग नारे लगाते जा रहे थे। विकलांगों की एक आवाज़- चम्पा देवी का हो साथ। चम्पा देवी को वोट दो। मैंने सोचा धार्मिक खैरातों के लिए जुलूस निकला होगा। मगर शर्मिंदा हो गया अपनी सोच पर। ये लोग अपने हक के लिए मैदान में हैं। कड़ी धूप में बैसाखी पर कई लोग चले आ रहे थे। नारे लगा रहे थे। कहा कि हमें कोई मीडिया नहीं दिखाता। हम हक के लिए लड़ रहे हैं। ललितपुर में २८,००० विकलांग वोटर हैं। क्या आप जानते हैं? मैंने कहा- नहीं। चम्पा देवी ने कहा कि इसके बाद भी कोई हमारी बात नहीं करता। हमारी रैली में पंडित, मुसलमान, यादव, जाटव सब जाति धर्म के विकलांग हैं। सब बेरोज़गार। राजनेता और प्रशासन हमें व्हील चेयर दान देकर भूल जाता है। हमारी नौकरियां दूसरे को दे दी जाती हैं। रिजर्वेशन का फायदा नहीं मिला। हम चाहते हैं कि हमारा एक तो विधायक हो। मैं शूट करता रहा। इन विकलांग कार्यकर्ताओं के चेहरे पसीने से तर थे।

लोग इन्हें धकिया कर चले जा रहे थे। विकलांग एकता ज़िंदाबाद। चम्पा देवी ज़िंदाबाद। मैंने देखा किसी ने उनकी तरफ नहीं देखा। जनता ने इन्हें अपना प्यार नहीं दिया। क्यों देगी? विकलांग लोग कैसे पत्थर की खदानों की गैरकानूनी खुदाई कर जनता को सामूहिक भोज देंगे? राजनीतिक व्यवस्था से इतने ही परेशान हैं तो क्यों नहीं जिता देते चम्पा देवी को? कम से कम इतना तो संतोष होगा कि ललितपुर का मतदाता कितना प्रगतिशील है! उसने उत्तर प्रदेश की विधानसभा में एक विकलांग नेता चुन कर भेज दिया है। चम्पा देवी को उम्मीद नहीं है। मगर वो व्हील चेयर खींचती हुईं चली जा रही थी। ये कहानी एनडीटीवी इंडिया पर दिखायी गयी। कुछ साथी पत्रकारों ने कहा- आफ बीट स्टोरी है। अच्छी है। चम्पा देवी तुम इनकी बातें मत सुनना। लड़ती जाना। बुंदेला बंधु से तुम नहीं लड़ पाओगी, क्योंकि जनता तुम्हें आशीर्वाद नहीं देगी। मगर तुम लड़ना। किसी रिपोर्टर की आफ बीट स्टोरी बनने के लिए नहीं। अपना दिल जलाने के लिए।