हिंदी पत्रकारिता का गुट काल

मैं इतिहास के गुप्त काल की बात नहीं कर रहा हूं । हां इसी तर्ज पर पत्रकारिता के एक काल की बात कर रहा हूं जिसकी खाल मोटी होती जा रही है । आप जितना इसके खिलाफ बोलिये, उतना ही आपको यह खाल ढंक लेती है । पहले साफ करना ज़रूरी है कि हिंदी पत्रकारिता का गुट काल क्या है ?

गुट काल से मतलब कुछ पत्रकारों का एक गुट में होना । जिसका एक गुट चैनल प्रमुख या अखबार प्रमुख से सीधा संपर्क रखता हो । कई गुट ऐसे होते हैं जिसके सभी सदस्यों का सर्व प्रमुखों से सीधा संबंध होता है । एक गुट होता है जो समूह में नहीं होता लेकिन गुट के पेरिफेरी यानी किनारे पर रहता है । इस तरह के व्यक्ति समय समय पर मुद्दों के हिसाब से कई गुटों से जुड़ते रहते हैं । ये लोग सबसे कम विश्वासपात्र होंते हैं । कुछ गुट ऐसे होते हैं जो सर्व प्रमुख के विरोधी के रुप में पहचाने जाते हैं । और भी कई तरह के गुट होते हैं । मैं चाहता हूं कि इसे पढ़ने वाले पत्रकार नाम बदल कर ऐसे गुटों की सूचना कमेंट्स में दें । नाम देने की ज़रूरत नहीं है । मेरा मानना है कि उस नाम का क्या फायदा जिसके आने से सच सामने नहीं आ पाता ।

तो हिंदी पत्रकारिता में गुट तो हमेशा से रहे हैं । लेकिन गुट काल क्यों कहा जा रहा है । पिछले कई सालों में हिंदी पत्रकारिता में एक चैनल से दूसरे चैनल या एक अखबार से दूसरे अखबार की यात्रा गुटों में तय की जा रही है । गुट के मुखिया के साथ कई लोग अपना बोरिया बिस्तर लेकर नए सराय में टिक जाते हैं । फिर वहां अपने गुट का विस्तार करते हैं । और विरोधी गुट को पनपने का मौका भी देते हैं । इससे लोकतंत्र की जगह गुटतंत्र का विकास होता है । फिर इन दोनों तरह के गुटों से निकल कर कभी कभी नया गुट बनता है जो अपना गुट लेकर दूसरे चैनल या अखबार की तरफ चल देता है । इनके लिए गुट और उत्साह को लेकर मैंने गुटोत्साह बनाया है । गुटोत्साह के कारण एक गुट के लोग साबित करने के लिए खूब काम करते हैं । ताकि दूसरे गुट के लोगों को काम करने का मौका न मिलें । इसी का फायदा उठा कर कुछ लोग आराम करते हैं । उनके लिए मैंने गुटाराम शब्द गढ़े हैं ।

गुट काल में गुट मेंबर के कई काम हैं । मसलन एक गुट अपने गुट के रिपोर्टर , सब एडिटर की तारीफ करता रहता है । वह इस बात पर विशेष तौर से ज़ोर देता है सहगुटकर्मी खबरों के मामले में फूफा है । असली समझ उसी की है । फलां गुटपोर्टर (अपने गुट का रिपोर्टर) बेजोड़ है । ख़बरों को भांप लेता है । गुटएडिटर उसकी तारीफ सार्वजनिक मेल मंच पर करता है । सहगुटकर्मी विरोघीगुटकर्मियों की धज्जी उड़ाते हैं । कहते हैं इनकी औकात क्या है । दो रुपये की नौकरी न मिले । हमारी जेब में तो हर दिन नौकरी होती है । इस तरह से सहगुटकर्मी चैनल अखबार में अपनी धाक जमाता है । गुटबाज़ दूसरों पर नज़र रखता है । उसकी सूचना गुट प्रमुख को देता है और गुटप्रमुख सर्वप्रमुख को । पत्रकारिता के ये सर्वप्रमुख अब अकेले चैनल नहीं बदलते । जानते हैं अकेले गए तो वहां पहले से मौजूद गुट तेल कर देगा । लिहाज़ा गुट में निकलों और कहीं गुट में पहुंचों । एक तरह से पत्रकारिता का यह जनतादलीकरण है । यानी अपना अपना गुट लेकर जनता दल (अ), (ल), (ब) (ल) बनाते रहते हैं । जनता दल की तरह ये गुट नए नए गुटों से समझौते करते रहते हैं । इन गुटों में कई गुटलंपट होते हैं । जो सर्वप्रमुख की तारीफ कर उनके करीब हो जाते हैं । जब तक नहीं होते दबी ज़ुबान में विरोधीगुटकर्मियों से शिकायत करते रहते हैं । करीबी होते ही सर्वप्रमुख की तारीफ करते हुए फायदा उठा लेते हैं । ऐसे गुटलंपटों को बड़ा भरोसा होता है । यहां नहीं तो वहां काम मिल जाएगा । प्रोफेशनल की जगह गुटनेशनल का इस्तमाल होता है । गुटपोर्टर जल्दी गुटेंकर बन कर खबर पढ़ने लगता है । विरोधीगुटकर्मी ज्योतिषों से ग्रह दशा का पता लगाते रहते हैं । कब वक्त बदलेगा जैसी आहें लेते रहते हैं । निर्गुट बेकार होते हैं । वो एक दो होते हैं । जो अक्सर गुटों की तरफ से छोड़े गए होते हैं । यह विरोधी गुट के खेमें में जाकर पता लगाता है । निर्गुट छवि की आड़ में अपने सहगुटकर्मियों की एक दो बातें भी लीक करता है । ताकि विश्वसनीयता बनी रहे । धीरे धीरे वह मौका देख किसी एक गुट में खूंटी गाड़ देता है । ऐसे लोगों के लिए मैं एक कॉफी होम बनाना चाहता हूं जिसका नाम होगा गुटपी होम । जहां गुटखोर मजे उड़ायेंगे ।

पत्रकार दोस्तों, आप हिंदी पत्रकारिता के गुटकाल पर कुछ कहना चाहें तो कहें । मगर गुटनेशनल भावना का ध्यान रखते हुए । इसमें सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष का छिछालेदर किया जाता है । उसके बारे में प्राइवेट जानकारियां गढ़ी जाती है । दलाल, आशिकबाज़ कहा जाता है । सत्य का भी गुट होता है । हिंदी पत्रकारिता के इस गुटकाल का मौटो है ।

17 comments:

Avinash Das said...

मैं एक गुट बनाना चाहता हूं... आपकी कंसल्‍टेंसी भी चाहता हूं... कितना फीस है सर?

नितिन सुखीजा said...

गुट गुट गुट गुट गुट ...गुटर गुटर गुटर गुटर गुटर...गुटर गूँ गुटर गूँ गुटर गूँ गुटर गूँ ...गूह..

मैथिली गुप्त said...

रवीश जी, आपने एक नयी जानकारी दी है.
धन्यवाद.

अनूप शुक्ल said...

हर जगह गुट हैं !

ravish kumar said...

अविनाश
आप गुट बना लीजिए । जिसका नाम होगा गुटभंजक । गुटभंजक सभी गुटों को खत्म करने का काम करेगा । मैं मुफ्त में सलाह देता हूं । क्योंकि गुटकाल के गुटलंपटों से मुझे चिढ़ है । कुछ गुटों में ऐसे चालाक लोग घुस आए हैं जो गुटनाम जपते हुए दफ्तर आराम से आते हैं । अतीत में डूबे रहते हैं । काम नहीं करते । मगर इन पर कोई सवाल नहीं उठाता । क्योंकि ये गुटबंदे होते

ravish kumar said...

अनुप जी

गुट हर जगह है । यह ईश्वर की तरह विद्यमान है । जो है लेकिन दिखाई नहीं देता । आभास होता है।

SHASHI SINGH said...

पत्रकारिता ब्रांड का मस्त गुटका पेश किया आपने।

Manisha Pandey said...

रवीश जी, आपके ब्‍लॉग की हर पोस्‍ट पब्लिश होने के साथ ही पढ़ जाती हूं, लेकिन कमेंट आज पहली बार कर रही हूं। मुझे यकीन नहीं हो रहा कि ऐसे गंभीर सच को इतनी सरलता से लिखा जा सकता था। बहुत शानदार है। हम सब इस गुटकाल के गुटवाद के शिकार हैं। कोई रास्‍ता भी तो नहीं, सिवाय कुढ़ने के।

Soochak said...

ब्लाग की दुनिया में बनने वाले वैचारिक गुटों पर क्या राय है आपकी। काफी कटुता फैल रही है। मानो लिख नहीं काटपीट में उलझे है कुछ वैचारिक लोग

ling_bhedi_astra said...
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ling_bhedi_astra said...
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MRajLive said...
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विवेक सत्य मित्रम् said...

आपके लेख से इतना तो साफ हो गया आप अभी तक इस 'गुटकारिता'से दूर हैं....वर्ना इतने बेबाक तरीके से अपनी बात कहने से पहले इतना तो जरुर सोचते कि फलाने (जो आपको अपने गुट का हिस्सा मानते होंगे) कहीं इस बात का बुरा न मान जाएं।

राजू सजवान said...

कौन है जो किसी गुट में शामिल नहीं है तो उस आदमी के साथ गद्दारी कर रहा है जिसने उसे नौकरी दिलवाई। क्यों कैसी कही

ravishndtv said...

मंथन जी
मुझे किसी ने नौकरी नहीं दिलवाई । मैं अपनी कंपनी में पचास रुपये की दिहाड़ी पर चिट्ठी छांटने के काम में लगा था । मुझे ये नौकरी मेरी प्रतिभा के दम पर मिली थी । इसलिए नौकरी लगाने के लिए किसी गुट में नहीं हूं । बाकी इससे बचना मुश्किल है । हां इसका अहसास रहे तो आपको बहुत हद तक पेशेवर बनने में मदद मिलेगी ।

MRajLive said...

रवीश जी क्या आप अपनी आत्ममुग्धता से त्रस्त हैं.....आप कमेंट्स में क्या सिर्फ अपनी बड़ाई देखना चाहते हैं ....आपने मेरी कमेंट क्यों डिलीट कर दी ...आपको आत्ममुग्धता यदि इतनी ही पसंद है तो ब्ल़ाग पर न लिख कर घर पर किसी पन्ने पर ही अपनी बातें लिखिए और खुश होते रहिए....

Unknown said...

Dear Ravish
aap ka kona padh kar maja aa gaya, jo bate dil me thi vahi aap ney nikla kar rakh di, hum hi patrakarita ke shipahi hai per dalit hi, jab delhi mey yah GUTKARITA ho rahi hai tab..... , hum jaisey choti nagri key logo ki koun suneyga.
bablooo