अंतिम इच्छा का आखिरी साल

धनतेरस एक साल पहले भी आया था। अस्पताल से निकल कर घर आए थे बाबूजी। जीवनदान का अहसास लेकर कि अब शायद दुबारा जीने का मौका न मिले। अपने हिसाब से उन्होंने जीवन में सब कुछ कर लिया था। जितना कर सकते थे उतने का संतोष हो गया था। इसके बाद के बचे सपने किसी नेता की ज़ुबान की तरह उदघोषित होकर भुला दिये जाते थे। एक सपना बचा रहता था। तमाम घोषणाओं के बीच। नई कार का सपना।

वो अपनी कमाई के पैसे से खरीदना चाहते थे। आईसीयू में ही अखबार में शेवर्ले के स्पार्क्स का विज्ञापन देख लिया था। फोन पर बहुत उत्साहित थे। बता रहे थे कि हेवी डिस्काउंट है। पटना में लोग बुकिंग करा रहे हैं। मेरी पेशकश को हंस के टाल दिया। फिर मै कहने लगा कि क्या करेंगे कार लेकर। ज़रूरत नहीं है। कहने लगे कि मैं जानता हूं कि ज़रूरी नहीं है। तो जवाब मिला कि मैंने बुक कर दिया है। यह सुन कर मैं हैरान रह गया। आईसीयू से निकलते ही कार की बुकिंग। वही कर सकते थे। पेशन से लोन ले लिया। बाकी पैसा निकाला और कार के पैसे दे आए। कहने लगे कि अब पैसे की ज़रूरत नहीं है। तुम लोग संभाल ही लोगे। मुझे नई कार चाहिए।


ठीक एक साल पहले के दिन यानी धनतेरस के दिन लाल रंग की कार आ गई। पोते पोतियों को लेकर बाज़ार गए थे। उन्हें चाऊमिन खिलाने। मेरी बेटी को फोन पर कहा कि तुम्हारे दादा जी के पास नई कार है। तुम जब पटना आओगी तो इस पर खूब घूमना। आज सुबह मां का फोन आया। कार को देख कर वो अंदर चली आईं। रोने लगीं। कहने लगीं कि साल भी पूरा नहीं हुआ। भाभी कह रही थीं कि उस कार को लेकर बहुत खुश थे।

एक कार खरीदने की जल्दी अपने जीवन के आखिरी साल में। समझ के बाहर भी नहीं है यह बात। जिस समाज से वे आते थे,हर दिन एक ताने के साथ उन्हें गुज़रना पड़ता था कि सेकेंड हैंड कार से चलते हैं। उसी की डेंटिंग पेंटिग कराते रहते हैं। हैसियतदार रिश्तेदारों के तानों ने भीतर ही भीरत एक कार का सपना बुन दिया था। जवाब देने की ज़िद भी। उनके सभी बेटे बेटियों ने कार खरीदी। नई कार। कभी खुश नहीं हुए। वो तमाम तानों का हिसाब करते रहे अपने भीतर। कब जवाब देना है। मेरे समझाने पर रुके रहे कि ऐसी बातों का न तो प्रतिकार किया जाता है न मलाल। बाबूजी समझ भी जाते थे। लेकिन उस साल क्या हो गया जो उनका हौसला टूट गया।

नई कार लेकर अपने पुराने पड़ोसी से मिलने गए। चाचाजी बता रहे थे कि इतना खुश थे कि पूछो मत। चाचाजी ने बाबूजी से कहा भी कि आप बच्चों जैसी बातें करते हैं। अब क्या करेंगे कार लेकर। बाबूजी ने कहा कि सब हम पर ताना देता था। बर्दाश्त नहीं होता था। लेकिन बर्दाश्त करते रहे कि बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाना है। उनका काम हो गया और यह पैसा बचा रह गया। अब ज्यादा दिन नहीं जीने वाला, तो बैंक और पेशन के इस पैसे का क्या काम। नई कार पर चढ़ लेते हैं।

कई लोगों ने बताया कि ललकी कार को लेकर काफी खुश थे। सबके यहां आने जाने लगे थे। बताते थे कि अपनी कमाई से खरीदे हैं। किसी बेटे से एक पैसा नहीं लिया। हमारे समाज में पिताओं की अजीब स्थिति है। ज़िंदगी भर यही सोच कर त्याग करते हैं कि बेटे बेटियां नौकरी कर लें। बुढ़ापे का सहारा सुनिश्चित हो जाए। लेकिन बुढ़ापे में खुश इस बात से होते हैं कि बेटे से या किसी से कुछ नहीं लिया। फिक्स्ड डिपाज़िट के साथ भी यही होता है। बुरे वक्त के लिए बचाते हैं मगर खुश इस बात से नहीं होते कि बुरे वक्त में काम आ गया बल्कि इस बात से होते हैं कि उसकी ज़रूरत नहीं पड़ी।

मार्च के महीने में जब आखिरी बार हम उन्हें लेकर गांव जा रहे थे, उनकी कार पीछे पीछे चल रही थी। अनुराग चला रहा था। तब तक मुझे अहसास नहीं हुआ था कि यह वही कार है जिसे वो अपनी ज़िंदगी के आखिरी साल में खरीदना चाहते थे। मैं उस कार को देखने लगा। स्टिरियो पर हाथ चला गया। एक गाना बज गया। बाबूजी को यही एक गाना गुनगुनाते सुना हूं। लेकिन कभी उन्होंने इसकी सीडी या कैसेट नहीं खरीदा। पुरानी गाड़ी में भी सुनने के लिए नहीं। नई कार में बजाने के लिए बाबूजी ने उस गाने की सीडी खरीद ली थी। गाना बज गया।

क्रांति फिल्म का गाना है। ज़िंदगी की न टूटे लड़ी,प्यार कर ले,घड़ी दो घड़ी,लंबी लंबी उमरिया को छोड़ो,प्यार कर ले घड़ी दो घड़ी। लाख गहरा हो सागर तो क्या, प्यार से कुछ भी गहरा नहीं। वो इसे ज़रूर कई बार सुनते होंगे। आखिरी बार भी सुनने लगे।

रात का सफर था। हल्की हल्की बारिश हो रही थी। ज़िंदगी की लड़ी टूट गई। बाबूजी की ललकी कार मेरे भीतर रोज़ चलती है। मुझे लेकर अचानक मुड़ जाती है। रुक जाती है। घूमाने लगती है। आज सुबह मां से बात के दौरान एक बार फिर खुद से स्टार्ट हो गई। मां कह रही थी कि बाहर खड़ी है लेकिन मैं देख पा रहा था कि वो चल रही है।

ये जो मन की सीमा रेखा है।

मगर है मन में छवि तुम्हारी
कि जैसे मंदिर में लौ दिये की
छुपा लो दिल में प्यार मेरा
कि जैसे मंदिर में लौ दिये की

हिंदी युग्म के ब्लाग पर यह गाना सुन रहा था। मगर है मन में छवि तुम्हारी। हम अपने मन को कितना जानते हैं। कितनी छवियां होती हैं मन में। कई रिश्ते मन के भीतर होते हैं। जो मन के बाहर होते हैं उससे भी ज़्यादा। हम जिनको सामने से देखते हैं उन्हें मन में क्यों अलग देखते हैं। क्यों चुपके से किसी को ढूंढ लेते हैं और क्यों मन ही मन उसके साथ जो जी में आता है करते चले जाते हैं। ये मन ही है जो इंसान को दोहरा बनाता है। झूठा नहीं बनाता। अक्सर दोहरा बनाने को हम दोगला समझते हैं। हेमंत कुमार का यह गाना कहता है कि मगर है मन में छवि तुम्हारी कि जैसे मंदिर में लौ दिये की। भरोसा दिला रहा है कि मन में भी वैसी छवि है कि जैसे मंदिर में लौ दिये की।

मन के रिश्तों को कोई बताता नहीं। अपना लेता है। अपने जैसा बना लेता है। हम सब मन ही मन कितनी बातें करते हैं। ज़ाहिर नहीं करते। तभी तो हम इंसान को बाहर से ही देखना चाहते हैं। कहने लगते हैं कहां खो गए हो। निकलो वहां से। सामने वाला जानता है कि मन के गुरुत्वाकर्षण ने उसे किसी अंतहीन दिशाओं की तरफ खींच लिया है। जिससे मिला नहीं और जिससे मिल नहीं सकता उसके साथ बैठ कर बतिया रहा है। प्रेम कर रहा है। झगड़ रहा है। कार चलाते चलाते वक्त अक्सर मन ही मन किसी को गोली देने लगता है। किसी को हल्के से छूने लगता है। एफएम पर गाने सुनते हुए बहुत खुश होने लगता है। उसका मन उसे बहला देता है। पता ही नहीं चलता। हम जागते हुए जितना बाहर बोलते हैं उससे कहीं ज़्यादा अपने भीतर बोलते हैं।

क्या ऐसा आपके साथ नहीं होता। जो मन के भीतर होता है वो बाहर वाले से अलग होता है। रहस्यमयी दुनिया बन जाती है। एक चोर की तरह छुपा कर रखना चाहते हैं। किसी को बताना नहीं चाहते। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि मैं हर दिन उठता दिल्ली में हूं मगर आंख खुलती है गांव की उस मोड़ पर से जहां से मेरा घर दिखने लगता है। बांध के ढलाने से उतरती साइकिल। चेन से रगड़ खा कर निकलती आवाज़। अचानक स्कूल के मास्टर जी की शक्ल खड़ी हो जाती है।


ये सब कोई नहीं जानता। ऐसे अनगिनत लम्हें हैं जो मन के भीतर रोज़ आते हैं। कोई नहीं जान पाता। बहुत सारे रिश्ते गायब होते रहते हैं। नए नए बनते रहते हैं। कब आप वहीदा रहमान के साथ बातें करते हुए गाने लगते हैं पता नहीं चलता है। आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है। अपने ही बस में नहीं मैं। दिल है कहीं तो हूं कहीं मैं...

जीने के लिए मन की उड़ान ज़रूरी है। पर मन बताता क्यों नहीं। साथ वाले को, सामने वाले को। हम देखने में चाहे जैसे दिखें, बोलने में चाहे जैसा बोलें, लिखने में चाहे जैसा लिखें लेकिन मन में वैसे नहीं होते। ज़रा अपने मन के भीतर झांकना तो। और गाने लगना। कई बार यूं ही देखा है। ये जो मन की सीमा रेखा है। मन उसे तोड़ने लगता है।

मार्च ऑन मार्च ऑन

उदारीकरण उदारीकरण
मार्च ऑन मार्च ऑन
खोलो ताले,खोल खजाने
पूंजी बांटो दना दन
उदारीकरण, उदारीकरण

उधार है तो प्यार है
टीवी में इश्तहार है
गिर गया इंटरेस्ट है
चढ़ गया एवरेस्ट है
नफाकरण,नफाकरण
उदारीकरण,उदारीकरण
मार्च ऑन मार्च ऑन

मूर्ख हैं जो गिर गए
बाज़ार में फिसल गए
मुद्रा स्थिति,मुद्रा स्फीति
मंदी की मार,मीठी छुरी
ऑपरेशन,ऑपरेशन
उदारीकरण उदारीकरण
मार्च ऑन मार्च ऑन

मुक्ति बोध मुक्ति बोध
मर रहे हैं हम अबोध
करो ज़िंदा हम मुर्दा को
पोस्टमार्टम पोस्टमार्टम
उदारीकरण उदारीकरण
मार्च ऑन मार्च ऑन

ग्यारह बजे का एसएमएस

तकीये के नीचे से आ रही थी पीली रौशनी
चुपके से बुलाया मेरे हाथ को अपनी तरफ
एक संदेशा चुपके से सिरहाने के नीचे
नाम ही देख कर लगा कितनी बातें
अधूरी रह गई हैं, दिन भर की
फिज़ूल की बातों में आज भी
बची हुई बातों का कहीं ये वही
अक्सर आने वाला एसएमएस तो नहीं


शाम होने से पहले ही बिहार में
२५ लाख विस्थापित हो चुके हैं
रात होते होते तमाम कंपनियों के
२५ हज़ार लोगों की नौकरियां खतम
सेंसेक्स और सेक्स के बीच झूलते
हुक्मरानों ने ताकत की दवा फेंक दी है
बाज़ार में खुलेआम सबके लिए मुफ्त

कल सुबह तुम्हारे सपनों की नौकरी
रात भर जागकर कर रही होगी इंतज़ार
गुलाबी रसीद वाले होठों से चूम लेगी तुमको
एक दम से गरीब नहीं होगे तुम, न खत्म होंगे
नौकरी में आसमान छूने के हमारे तुम्हारे सपने

उन बिस्तरों में कितनों ने कितनी करवटें
बदली होंगी साथ साथ रात भर जाग कर
गुलाबी रसीदों वाले होठों को चूमने के बाद
ख्वाबों से हमबिस्तर होने के लिए
आरबीआई की ताकत की दवा बेअसर हो रही थी रातों को

ग्यारह बजे का एसएमएस तभी क्यों आया
जब बाज़ार बंद हो चुके थे, दलाल सो चुके थे
बैंक का ताला सुबह दस बजे तक के लिए बंद
जेट एयरवेज़ के पायलटों का चेहरा एकदम से
विस्थापित किसानों की रैली में अचानक दिखा
मेरे सारे सपने उस एसएमएस की दो लाइनों में
टूट कर चूर चूर हो कर बिखरे पड़े थे

सिपाही का तो घर मत जलाओ

इंडियन एक्सप्रेस का पन्ना चार। एक ख़बर चीख रही थी। उन तमाम दलीलों के बीच जो सांप्रदायिकता को राष्ट्रवादी नज़र से देखते हैं और जो धर्मनिरपेक्षता को इंसानों की नज़र से। आरिफ हुसैन खाती। जम्मू कश्मीर में आतंकवाद से लड़ने के लिए तैनात बीएसएफ के एक जवान की कहानी।

महाराष्ट्र के धुले में दंगा। ५ अक्तूबर को आरिफ के घर पर हमला। ईद की छुट्टी मनाने घर गया था। हिंसा पर उतारू भीड़ ने आरिफ की वर्दी जला दी। बहादुरी के सर्टिफिकेट जला दिये। जिनसे कभी वो साबित कर पाता कि मुसलमान हो कर भी उसने इस भारत भूमि की सेवा की। पूरी ईमानदारी के साथ। इंडियन एक्सप्रेस की इस ख़बर में आरिफ के बयान बोलने लगते हैं।
मेरे ही पड़ोसी मेरा घर जला रहे थे। हज़ारों की संख्या में आए थे। मेरे भाई सिकंदर को जलती आग में फेंकेने की कोशिश कर रहे थे। मेरी पत्नी बेहोश हो गई। मैं गिड़गिड़ाने लगा। बोलने लगा कि मैं तो सिपाही हूं। मैं देश के लिए लड़ रहा हूं। उन्होंने कुछ नहीं सुना। ज़िंदगी में पहली बार ऐसा लगा कि मैं अकेला हूं। मुझे कहा गया कि मैं मुसलमान हूं और कुछ नहीं।

आरिफ का बोलना अभी खत्म नहीं हुआ है। उसने पुलिस से भी कहा। जिस पुलिस के सहारे हम आतंकवाद से लड़ रहे हैं। भगवान जाने आतंकवाद से लड़ रहे हैं या सांप्रदायिकता को मलहम लगा रहे हैं। ख़ैर।

आरिफ कहता है- हमें लग रहा था कि तनाव बढ़ रहा है। हमला हो सकता है। लेकिन एक भी पुलिसवाला हमें बचाने नहीं आया। हम पूरी रात थाने के बाहर बैठे रहे। हमारी शिकायत तक दर्ज नहीं हुई। पुलिस ने हमें यही कहा कि घर छोड़कर जल्दी भाग जाओ।

खाती को यह नौकरी अनुकंपा के आधार पर मिली थी। २००२ में उसके पिता रियाज़ खाती की ड्यूटी पर मौत हुई थी। खाती कहता है उसने आतंकावदियों के खिलाफ कई मोर्चे में जान की बाज़ी लगाई है। कभी डर नहीं लगा। लेकिन उस दिन मैं डर गया था। लगा कि मार दिया जाऊंगा।

मैं नामर्द नहीं हूं।

मैं(इन पंक्तियों के लेखक)तो मर्द हूं। अब वो भी हैं। आज मुंबई के शिवाजी पार्क में उद्धव ठाकरे ने साफ कर दिया कि वे नामर्द नहीं है। वो बोलते जा रहे थे और न्यूज़ चैनलों पर फ्लैश चमकते जा रहा था।

1. मैं नामर्द नहीं हूं

2. मुंबई मेरे बाप की है

3. मेरे बाप ने शेर को जन्म दिया है।

बयान है या खंडन पता नहीं। उद्धव ठाकरे ने बता दिया कि वे मर्द हैं। किसने कहा कि वे मर्द नहीं है पता नहीं चला। उद्धव को उकसाने वाले को सज़ा मिलनी चाहिए। उद्दव मर्द थे और हैं और आगे भी रहेंगे। शांत से दिखने वाले शौक से फोटोग्राफी करने वाले इस युवा नेता को किसने क्या कह दिया। वो चिल्लाने लगा कि मेरे बाप ने शेर को जन्म दिया है। मर्दानगी का चरम शेर होना है। राजनीति के इस जंगलवाद में उपमाओं का शूरमा है अपना शेर। जंगलों से मिट गया है मगर शिवाजी पार्क में खुला घूम रहा है। शेर ने खुद को शेर नहीं कहा होगा। प्रागैतिहासिक काल में किसी इंसान ने ही कहा होगा कि ये शेर है। जब इंसान जानवर को शेर कह सकता है तो खुद को क्यों नहीं। इसी तरह उसने भारत से विलुप्त हो रहे शेरों का संरक्षण कर दिया है। अब शेरों की आबादी एक अरब से ज़्यादा है। वाह यूनेस्कों का कोई पुरस्कार दिलवाओ भाई।

मर्द फिर शेर और अब बारी थी हिंदुत्व की। उसका नंबर बाद में आया पहले कहा कि महाराष्ट्र में हम मराठी हैं और देश में हिंदू। ये शानदार परिभाषा है। जिस महाराष्ट्र से देश के बाकी हिंदुओं को लतिया के, गरिया के और धकिया के निकाल दिया उससे देश के स्तर पर रिश्ता जोड़ने की यह उदारता उद्धव ही कर सकते हैं। दक्षिण भारतीयों को उनके पिता ने निकालने की कोशिश की। जिस दक्षिण भारतीयों को वे मुंबई में बर्दाश्त नहीं कर सके उनके यहां जाकर ठाकरे जी हिंदू होना चाहते हैं। मैं जानता था यही हिंदुत्व की औकात है। पहले पेट भरेंगे फिर माला फेरेंगे। पूर्वांचल के भैयों, बिहार के मज़दूरों लगा लेना गले उद्धव भाई को। उद्धव कोई पराये नहीं हैं। कम से कम हिंदू तो हैं। देश में।

नोट- औरतों को जल्दी बुलाओ। आरक्षण छोड़ो। राजनीति में कूदो। लेकिन औरतें क्या कहेंगी..मैं मर्द नहीं हूं। हमारी राजनीति की बोली में औरतों के लिए जगह नहीं है। उन्हें अपनी जगह बनानी होंगी। ब्लॉगर महिलाओं कूदों इस आग में। बोल देना दुनिया से कि न हम नामर्द हैं और न मर्द हैं।

प्रेम-पत्र वाले मुंशी जी का ख़त























(प्रकाश पब्लिकेशन, गली नंबर १३, कैलाश नगर दिल्ली की इस हस्त पुस्तिका के पहले पन्ने पर लिखा है प्रेम-पत्र रोमांटिक लव लेटर। लेखक हैं अवधेश कुमार उर्फ मुंशी जी।)

मुंशी जी सही मायने में प्रेमचंद हैं। प्रेम के तमाम एंगल पर ख़त लिखने का हुनर किसी साहित्य अकादमी वालों की नज़र से नहीं गुजरता। देश की गलियों में पलते हुए बुढ़ा रही तमाम प्रतिभाओं के सम्मान में कस्बा में बिना मुंशीजी से पूछे उनकी एक महान रचना को इंटरनेट पर पेश किया जा रहा है। मुंशी जी की दुनिया में आज भी ख़त पत्र है।

शीर्षक- अनजाने प्रेमी का पत्र

जाने सनम,

जब से मैंने आपके सौंदर्य को एक नज़र निहारा है तब से दिल बेकरार है। अब आप को बग़ैर जाने पहिचाने ही कैसे किसी पर मोहित होकर प्यार जताने का अधिकार है। सवाल ठीक है परन्तु दिल जब आ जाता है तो किसी से रोके नहीं रुकता। अब सवाल यह उठता है कि प्यार अनजाने क्यों किया?मेरी जान,प्यार करने से नहीं बल्कि हो ही जाता है चाहे किसी से भी हो जाए तभी तो जब से आपको देखा है तब से पहलू में दिल बेचैन है,मैं स्वयं भी समझने में असमर्थ हूं क्योंकि-

दिल आ गया तुम पर, दिल ही तो है।
तड़पे क्यों न, बिसमिल ही तो है।।

मैं क्या बताऊं कि मुझे क्या हो गया। हर समय दिल काबू से बाहर हो गया। माइन्ड पर कंट्रोल नहीं रहा है। मेरे दिल की मलिका, मैंने आपको जब से सुभाष पार्क में गांधी जयंती में अपने परिवार के साथ टहलते देखा तब से ही ह्रदय में एक हलचल पैदा हो गई जिसे मैं रोकने में असमर्थ हूं और बहुत देर से न्योछावर करता हूं। यूं तो आज तक लाखों हसीना मेरी आंखों के आगे गुज़रे होंगे परन्तु ईश्वर ने आपकी अदा ही निराली बक्शी है। जिसने मुझे दीवाना बना दिया।

देखा जो हुश्न आपका, तबियत मचल गई।
आँखों का था कसूर, छुरी दिल में चल गई।।

प्रिय जाने मन और गुलबदन तुम क्या जानो कि आपको वियोग में हमारे दिल पर क्या क्या गुजर रही है। दिन पर दिन दहशत बढ़ती जा रही है। ख्याल बदलते जाते हैं। आखिर दिल बेचैन हो कर यही कहता है-

तुझे क्या खबर वे मुर्ब्बत किसी की।
हुई तेरे गम में क्या, हालत किसी की।।

इतना ही नहीं इश्क के सिद्धांत यहां तक बढ़ गई कि पागलों की तरह मारा मारा आपकी कोठरी के इर्द-गिर्द फिरता हूं। इस ख्याल में कि एक बार वो चांद सा मुखड़ा देखने का अवसर मिल जाए ताकि ये तड़पता हुआ दिल किसी तरह तस्कीन पाए।

रात दिन सोचते हुए समय व्यतीत कर दिया, फैसला हो न सका। आखिर आत्मघात कर लेने का विचार किया परन्तु आपका प्रेम और दर्शन की आशा ने मुझे मरने भी नहीं दिया।आपको कालिज पहुंचाने को आपका ड्राइवर कार लाया और आपको बुलाने ज्यों ही अंदर गया बस मेरी आत्मा प्रफुल्लित हो गई। मैंने शीघ्र ही यह प्रेम पत्र जान बूझकर सुन्दर लिफाफे में बन्द करके आपकी सीट पर डाल दिया। अब इंतजार पत्र के उत्तर पाने को है। अब आप चाहे जो कहें मगर मैं तो यही कहूंगा-

जवानी दीवानी गजब ढा रही है।
मोहब्बत के पहलू में लहरा रही है।।
किया खत का मजमून खतम चुपके चुपके।।
रुकी अब कलम यहीं पर चुपके चुपके।

अधिक क्या लिखूं रंग लाने को ही बहुत है।
आपका अनजाना प्रेमी सतीश

पहचान का स्थायी पता

पहचाने जाने के डर से मैंने एक पहचान बना ली
बालों को छोटा कर लिया और दाढ़ी कटवा ली
जिन्स पहनकर अपने कानों में लटका ली बाली
इस नई पहचान से मैं तमाम नौजवानों सा हो गया
हुलिया बदल कर नए ज़माने का मुसलमान हो गया
नहीं बदली तो आदत पांच वक्त नमाज़ पढ़ने की
रोज़े के तीस दिन भूखे रहने और ईद मनाने की
कहने वालों ने तब भी कहा कट्टर होता है मुसलमान
बदल कर भी नहीं बदलता, रह जाता है मुसलमान

ऐसा क्यों होता है कि शहर बदल जाने के बाद भी
हर फार्म में स्थायी पता का नंबर पहले आता है
होली में हम चाहे कितना भी लगा लें रंग गुलाल
झटका खाने वाले हमको कहते हैं हलाल मुसलमान
बदल कर भी नहीं बदलता, रह जाता है मुसलमान
हमारी इबादत की हर आदत पर रंज हैं उनको
एक सांस में जल उठाकर दौड़ने की आदत जिनको
उनकी भक्ति का रंग हमने भी देखा है कई बार
भोले की भक्ति हो या फिर नौ दिन माता का त्योहार
हमने कभी नहीं कहा तुम बदल दो अपनी पहचान
क्यों करते हो साल के बारहों महीने पूजा भगवान की
क्यों नहीं बदल देते हो अपने हिंदू होने के पहचान की
बदल कर भी नहीं बदलता, रह जाता है मुसलमान
ये सियासत वाले हैं जो मुल्क को बदलने निकले हैं
मुल्क बहाना है, हिंदू मुसलमान को बदलने निकले हैं

वेलकम टू सज्जनपुर

मामूली खुशियों की दुनिया में लौटा लेने आई है श्याम बेनेगल की फिल्म वेलकम टू सज्जनपुर। हमारी ज़िंदगी के बीच से बहुत सारी चीज़े गायब होती जा रही हैं, अपनी इस फिल्म के ज़रिये बेनेगल उन्हें ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। चिट्टी आती नहीं और डाकिया अब परिवार नियोजन से लेकर कूरियर तक के काम में लगा दिया जा रहा है। गली की मोड़ से लाल बक्सा गायब होता जा रहा है। ई-मेल और एस एम एस के ज़माने में शब्द सिर्फ एक बीप साउंड बन कर रह गए हैं। हमें मालूम ही नहीं शब्दों का इस्तमाल और लिखने का अंदाज़।

बेनेगल का किरदार महादेव याद दिलाता है कि शब्द सबके बस की बात नहीं। वेलकम टू सज्जनपुर का किरदार महादेव कहता है एक एक शब्द के पीछे भावना होती है। यूं ही नहीं लिख देता है कोई चिट्ठी। रात भर जाग कर जब वह शब्दों में भाव भरता है तो फ्लैश बैक में प्रेम के बिल्कुल सादे क्षण बन जाते हैं। जहां आडंबर नहीं है, कोई बड़ी बात नहीं है। सिर्फ प्रेम की चाहत है। मामूली चाहत।

बहुत दिनों के बाद एक ऐसी फिल्म आई है जो वासु चटर्जी, ह्रषिकेश मुखर्जी की याद दिलाती है। श्रेयस तलपडे आज के अमोल पालेकर लगते हैं। आम आदमी का हीरो। गमछा और कुर्ता और साइकिल। गांव की पगडंडिया। कभी खुशी कभी गम, तारा रम पम पम, हंसो और हंसाया करो। थोड़ा है थोड़े की ज़रूरत है, ज़िंदगी फिर भी यहां खूबसूरत है। कुछ इसी तरह के साधारण गाने हैं वेलकम टू सज्जनपुर के। नब्बे के दशक में हमारी चाहत बड़ी होती चली गई। आर्थिक उदारीकरण ने हमारे सपनों को उदार बना दिया। हम गाने लगे थोड़ी सी तो लिफ्ट करा दे। हमारा हीरो बड़ी कामयाबी हासिल करने लगा। महानगरों और मल्टीप्लेक्स का होने लगा। मल्टीप्लेक्स के हिसाब से फिल्में बनने लगी। शहरी और मध्यमवर्गीय फिल्में। गांवों को ग़ायब कर दिया गया। हमने मान लिया कि देश साक्षर हो चुका है। गांव शहर हो चुके हैं।


श्याम बेनेगल की यह फिल्म उन गांवों की कहानी है जहां आज भी बहुत कुछ नहीं बदला। डिस्पेंसरी की दीवार पर चिपका सरकारी नारा हम दो हमारे एक। डॉक्टर गायब है और कंपाउंडर इलाज कर रहा है। दिल्ली और मुंबई के कई अपार्टमेंट को आबाद करने वाले मध्यमवर्ग के भीतर आज भी गांव छुपा हैं। वो स्वीकार नहीं करना चाहते। बेनेगल याद दिलाते हैं। हैदराबाद में मध्यप्रदेश के बघेलखंड की पृष्ठभूमि तैयार कर देते हैं और इस तरह यह गांव पूरे भारत का गांव बन जाता है। धीरे धीरे कहानी खुलती है और बताती हैं बड़े सपनों की चाहत में हम छोटी खुशियों को कैसे भूल गए हैं। बॉल पेन को खारिज कर महादेव जब स्याही की कलम से ख़त लिखता है तो किसी पुराने ज़माने में छूट गया इंसान नहीं लगता। दुकानदार कहता है तुम अपना नाम महादेव से भ्रम देव रख लो। महादेव कहता है कि वो इस कलम से मोहब्बत करता है। फिल्म बहुत ही सहज रूप से बता रही है कि हम सब के भीतर महादेव है जो स्याही की कलम को प्यार कर सकता है। मगर हम सब दुनिया की दौड़ में बॉल पेन और कंप्यूटर की-बोर्ड पर शब्दों को टाइप किये जा रहे हैं। भावनाएं खत्म हो रही हैं।

लेकिन यह फिल्म गांव की याद दिलाने के लिए ही नहीं बनी है। कामेडी है। मगर कामेडी के ज़रिये उन मुद्दों पर फिर से बहस करा देती हैं जिन्हें हम बोरियत भरा मान कर उन न्यूज़ चैनलों को देखने लगते हैं जहां दुनिया के खात्मे का एलान हर दिन कोई बेलमुंड ज्योतिष करने लगता है। वेलकम टू सज्जनपुर जन के द्वारा जन के लिए लोकतंत्र की बात करती है। मुखिया के चुनाव में होने वाले प्रपंच को प्रहसन में बदल कर उस कुंठा को हल्का किया जाता है जो हमें यही याद दिलाती है कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता।

हंसते हंसाते बेनेगल बताते हैं कि बहुत कुछ हो सकता है। वो भी आसानी से। सिर्फ हम अपने बोल बदल दें। शब्दों को ठीक जगह पर इस्तमाल करें। तभी तो दबंग रामसिंह कलेक्टर को चिट्ठी भेज कर अपने प्रतिद्वंदि को पाकिस्तानी जासूस बना देता है। लिखने वाला तो महादेव ही है। अगली बार महादेव राम सिंह की चिट्ठी की भाषा बदल देता है और कलेक्टर रामसिंह पर शक करने लगता है। मुन्नी देवी का किरदार कामेडी के बाद गंभीर होता हुआ लोकतंत्र की लड़ाई को जन की लड़ाई में बदल देता है। मुन्नी देवी कहती है मैं तो ऐसी तैसी नहीं जानती, डेमोक्रेसी जानती हूं।

यहीं पर श्याम बेनेगल भाषा का फर्क सीखा रहे हैं। राम सिंह की भाषा और मुन्नी देवी की भाषा का फर्क। जब एक प्रसंग में मुन्नी देवी कलेक्टर को ख़त लिखती है तो उसकी भाषा बता रही है कि बहुत कुछ बचा है। कलेक्टर को हुजूर कहते वक्त मुन्नी देवी सिस्टम के सामंतवादी ढर्रे में आस्था नहीं जताती बल्कि एक जनसेवक से उम्मीद लगा बैठती है कि हुजूर इंसाफ करेंगे।

ख़त लिखने के बहाने श्याम बेनेगल किसी नोस्ताल्जिया को उतारने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। वह शब्दों की अहमियत पर ज़ोर दे रहे हैं। उदासी और हताशा के दौर में वो आस्था पैदा कर रहे हैं। अच्छे शब्दों से निकले नारे से जनता मुन्नी देवी के लिए खड़ी हो जाती है। फिल्म में लोकतंत्र जीतता है तो यही बताने के लिए अपनी मामूली समस्याओं के बाद भी लोक जी रहा है। मरता नहीं है।

महादेव का प्रेम, कमला का इंतज़ार और मौसी की बेकरारी। मुंबई गए एक मज़दूर की व्यथा। अपनी बाल विधवा बहू के प्रेमी को पाकर रोते बिलखते सूबेदार। इसके बाद भी सज्जनपुर सबका स्वागत करता है। याद दिलाता है कि हो सके तो कभी लौट आइयेगा अपनी उस पुरानी दुनिया में। जिसे हम छोड़ कभी बड़े सपनों को हासिल करने चले गए हैं। यह एक अद्भुत फिल्म है। हंसाती है, रुलाती है और खुशियों से भर देती है। जीवन यहां किसी राष्ट्रीय समस्या को निपटाने का संघर्ष नहीं है बल्कि छोटी छोटी खुशियों को पाने की ज़िद है।

इस फिल्म की कहानी, किरदार और संवाद किसी कल्पना की उपज नहीं है। आम जीवन से बस उठा लिये गए हैं। साधारण से संवाद हैं और बाते बड़ी बड़ी नहीं हैं। यह फिल्म सरपंची के चुनाव को इतना मार्मिक बना देती है कि मुन्नी देवी के साथ साथ रोने का मन करता है। कमला की खुशी के लिए जब महादेव अपनी ज़मीन गिरवी रख देता है तो याद आता है कि तमाम कामयाबियों के बीच हम किसी के लिए कुछ करने की आदत को किस तरह से भूलते जा रहे हैं। इन्हीं सब बातों को याद दिलाने के लिए श्याम बेनेगल आप सभी का स्वागत कर रहे हैं। वेलकम टू सज्जनपुर।
(आज के अमरउजाला में यह लेख छपा है)

तुम बहुत मोटे हो गए हो..व्हाट इज़ रांग विद यू

इक दिन जब मैं पतला हो जाऊंगा, हवायें ले उड़ेंगी मुझे

बादलों पे मेरा घर होगा, भूख से बिलखते इंसानों की तरह

अंदर धंसा हुआ पेट होगा, गड्ढे हो जायेंगे दोनों गालों में

ग़रीबी रेखा से नीचे के रहने वालों जैसा मेरा स्तर होगा

खाये पीये अघाये लोगों के बीच मैं किसी हीरो की तरह

बड़े आदर के साथ, मचलती नज़रों के बीच बुलाया जाऊंगा

इक जिन जब मैं पतला हो जाऊंगा, हवायें ले उड़ेंगी मुझे

मेरी दलील तेरी दलील से सफेद

तर्कबाजों हम ये बहस किस लिये कर रहे हैं? विश्वास का कोई नया रास्ता ढूंढने के लिए या फिर अपने पूर्वाग्रहों को सच साबित करने के लिए। देखा मैं कहता था न ये ...ऐसे ही होते हैं। सच साबित हो गई। कहीं हम अलग अलग पार्टी लाइन के हिसाब से तो दलीलबाज़ी नहीं कर रहे। किस ओर की दलील में खामियां नहीं हैं। क्या हम इन खामियों के सहारे दंभ भर रहे हैं कि वो तो होते ही ऐसे हैं। अविश्वास को कई बार सच की परछाइयां मिल जाती हैं। इससे सच नहीं बन जाता। दिल्ली धमाकों के बाद बहस ऐसे हो रही है मानो भूत हमने देखा है। दूसरा कह रहा है...भूत का अस्तित्व नहीं होता। कोई महाभारत कोट कर रहा है तो कोई आइंस्टाइन।

या फिर हम सांप्रदायिकता पर होने वाली बहसों से बोर हो चुके हैं। नई चीज़ की तलाश में फिर से अपने पूर्वाग्रहों की ओर लौट रहे हैं। क्या हम अपनी हार मना रहे हैं या दोनों तरफ के फिरकापरस्तों की जीत में शामिल होना चाहते हैं? यह कहा जा रहा है कि मुसलमान आत्ममंथन करे। कहने वाला कौन है? जिसका बहुमत है? जो मुखिया बनना चाहता है? हम चाहते हैं तुम आत्ममंथन करो। किस बात का आत्ममंथन। आत्ममंथन के समर्थक कहते हैं कब तक जामिया ओखला बसेगा? ये एक ही जगह क्यों रहते हैं? क्यों नहीं कोई हिंदू जा रहा है जामिया में बसने। कि हम रहेंगे मुसलमानों के बीच। उन्हें जानेंगे? अब यह मत बताइये कि वहां हिंदूं रहते हैं क्योंकि हिंदुओं के बीच रहने वाले मुसलमान भी कम नहीं? ये बसावट किसकी देन है? विशुद्द हिंदूवादी और जातिवादी। जिस देश की हर बस्ती जात के आधार पर बसी हो वहां कोई धर्म के नाम पर जाकर कैसे एक दूसरे से घुलमिल सकता है। तभी मैंने बहुत पहले लिखा था कि भारत के गांवों पर बुलडोज़र चलवा दो। ठाकुर बस्ती, ब्राह्मण बस्ती और दलित बस्ती को मटियामेट कर दो। नई बस्ती बसाए। एक घर ठाकुर का,बगलवाला दलित का, उसके साथ वाला मुसलमान का। आत्ममंथन कर इसपर सहमति बना लीजिए। कोई बात हुई। सवर्ण मानसिकता ही चलाती है सांप्रदायिक सोच को। तभी तो दलित निकल भागे और यूपी में ही कमंडल को पटक कर दे मारा। बाद में जाना पड़ा ब्राह्मणों को हाथ मिलाने के लिए। सत्ता चाहिए थी। पहले इनके बिना सत्ता मिलती थी तो भगा कर रखते थे। अब इनसे मिलने लगी है तो घरों में आने जाने लगे हैं।


सवाल यही है कि क्या यह अकेले का आत्ममंथन है? अगर हां तो क्यों? किस आधार पर कहा जा रहा है कि मुस्लिम समाज आतंकवाद के समर्थन में है?उसे ही कुछ करना होगा? ये आत्ममंथन का क्या तरीका होना चाहिए? अपने बेटों से पूछें कि कहीं तुम तो आतंकवाद के रास्ते पर नहीं जा रहे? कैसे पता कि जामिया की घटना के बाद मां बाप ने नहीं पूछा होगा? उन्हें डर नहीं लगा होगा कि कहीं मेरा आरिफ,साजिद( अगर हैं) आतंकवाद के रास्ते पर तो नहीं भटक रहा। क्या हम अपनी सोच सिर्फ तर्कों से बना रहे हैं या तथ्यों से। या दोनों का घालमेल कर।

आत्ममंथन का सिद्धांत क्या यह मान कर चलता है कि मुसलमान आतंकवादी हैं उन्हें अपने भीतर झांकना चाहिए। क्या यह समस्या नहीं है? क्या हिंदू आत्ममंथन कर रहे हैं कि बजरंगी क्या कर रहे हैं? क्या किया उन्होंने अयोध्या में? जिसे तोड़ने के लिए सर पर पट्टी बांध कर घूमा करते थे,तोड़ देने के बाद गुम हो गए? कहां गुम हो गए? आत्ममंथन करने वालों की गोद में? गोधरा को जलाने वाले और गुजरात के जलाने वालों को लेकर कौन आत्ममंथन कर रहा है? भागलपुर को लेकर क्या कांग्रेस आत्ममंथन कर पाई? क्या कांग्रेस और बीजेपी को लोगों ने सजा दी? आप कहेंगे सत्ता से हटा दिया? ये वही सजा है जैसे किसी अफसर को निलंबित किया जाता है बाद में बहाली कर दी जाती है। बहस करने वालों को साफ करना चाहिए कि वह किस पार्टी का है। किसी पार्टी की तरफ से दलील न दे। दे तो नाम बता दे। किया तो था मुसलमानों ने आत्ममंथन। दिल्ली से लेकर अहमदाबाद और सहारपुर में मौलवियों की बड़ी रैली हुई। आतंकवाद की निंदा हुई। तब भी कुछ लोग आतंकवाद के रास्ते पर चल निकले। सच या झूठ अभी फैसला नहीं हुआ है। मगर क्या आत्ममंथन को भी हम अपनी सुविधा से स्वीकार करने लगे हैं? यह सबसे बड़ा झूठ है कि मुस्लिम समाज आत्ममंथन नहीं कर रहा?

हम सब की आधी से ज़्यादा दलीलें पुरानी और बेकार हो चुकी हैं। पीठ की तरफ दौड़ने का प्रयास करते हैं। आतंकवाद किसी एक समाज के आत्ममंथन से नहीं हल होगा। आधा रास्ता चलकर क्या हासिल कर लेंगे? पूरा रास्ता चलना होगा? नहीं चलेंगे? क्योंकि तब फिर कांग्रेस को सही और बीजेपी को गलत कैसे साबित करेंगे? कैसे हम अपने अपने समाज के खलनायकों को बचायेंगे?