गूंठा, छाय और रुपट्टा- क्या मतलब है

इस बार स्पेशल रिपोर्ट की जगह मेरा गांव मेरा बजट कार्यक्रम बनाने सहारनपुर,मुज़फ्फरनगर औऱ मेरठ गया था। नए नए शब्दों से पाला पड़ा। सहारनपुर की एक बस के पीछे लिखा था- हवा में उड़ता जाए मेरा लाल रूपट्टा मलमल का। दुपट्टा पढ़ा था रुपट्टा नहीं जानता था। साथ बैठे एक सज्जन से पूछा तो कहां कि सहारनपुर वाले रुपट्टा बोलते हैं। आप लोग दुपट्टा बोलते हैं। जैसे आप अंगूठा बोलते हैं। और हम अ चबा जाते हैं। गूंठा बोलते हैं। हमारे यहां अनपढ़ को गूंठा छाप बोला जाता है।
अभी यही बात हजम नहीं हुई थी कि मेरठ के एक गांव में एक सज्जन छाछ ले आए। कहा कि लीजिए छाय पीजिए। मैंने कहा चाय कह रहे हैं या छाय। तो उन्होंने कहा कि छाय कह रहा हूं। छाछ कहते कहते बोर हो गए थे। हमलोग चाय नहीं पीते हैं। इसलिए छाछ को छाय कहने लगे। तो आप लोग भी गूंठा छाप लगाकर रुपट्टा उड़ाते हुए छाय पी सकते हैं। इसके लिए आपको सहारनपुर, मुज़फ्फरनगर और मेरठ जाना होगा।

सेंसेक्स के समझदार

ये अखबार और टीवी के नए बाइट बालक हैं। हर बालकों का दौर आता है। सबसे पहले नेताओं का आया। हर दल ने टीवी के लिए प्रवक्ता पैदा किए। प्रवक्ताओं ने टीवी के लिए पंच लाइन गढ़े। उसके बाद क्रिकेट बालक आए। ये वो लोग थे जो क्रिकेट से रिटायर होकर बुढ़ा रहे थे। भला हो क्रिकेट और विवाद का इन खिलाड़ियों को नया काम मिला। इन्होंने क्रिकेट की समीक्षा को नया आयाम दिया। लगे बॉल के मूवमेंट से लेकर शाट्स के कट तक का विश्लेषण करने। इसी के साथ मनोविज्ञानियों को भी बुलाया जाने लगा। परीक्षा में तनाव, रिश्तों में टकराव, दफ्तर में मनहूसियत। इन सब कारणों का विश्लेषण आज कल मनोविज्ञानी करते हैं। हर समस्या पर इन्हीं के विचार आते हैं। यही आते हैं बताने कि वक्त बदल रहा है। उम्मीदें बढ़ रही हैं।ऐसे में आदमी तनाव में हैं। इनकी बातें किसी रामदेव से कम नहीं होतीं। टीवी को तुरंता विचारक चाहिए। पता नहीं बाकी लोग क्या कर रहे हैं।

अब एक दौर आया है बाज़ार को समझाने वाले जानकारों का। हर दम अपनी छोटी छोटी दुकानों से किसी अर्थशास्त्री की तरह बकते रहते हैं। कुछ लोगों को छोड़ दें तो किसी की विश्वसनीयता का पता ही नहीं चलता। ज़माना ऐसा पगला गया है कि अगर आप मैनेजमेंट पास हैं या फिर ब्रोकर हैं तो आप बाज़ार के बारे में बकने के लिए अधिकृत हैं।

अजीब हालत है। पहले अर्थव्यवस्था की किसी भी हरकत को अर्थशास्त्री बताते थे। अब लगता है वो कहीं गायब हो गए हैं। एक भी अर्थशास्त्री का कोट कहीं नहीं उनकी जगह हाल ही में उगने वाले शेयर जानकारों ने ले ली है। वो फोन पर बकते हैं। टीवी स्टुडियों में आकर बकते हैं। यहां लगाओ। वहां मत लगाओ। लेकिन जब जनता के खरबों रुपये डूब जाते हैं तो नेताओं की तरह जनता को संयम बरतने का वरदान देने लगते हैं। ये बताते नहीं कि बाज़ार डूबा क्यों और उबरेगा कब। गौर से इनकी बातों को सुनिये। ऐसी गिरावट की स्थिति में यही वो लोग हैं जो बोलते हैं कि सरकार को कुछ करना चाहिए। जब बाज़ार चढ़ता है तो कहते हैं कि सरकार को इससे दूर रहना चाहिए। मैं बिज़नेस का आदमी नहीं हूं। हो सकता है कि बाज़ार बालकों की दूरदर्शी क्षमता की पहचान नहीं कर पाया हूं लेकिन ये टीवी के नए बाइट बालक हैं। ब्लाज जगत में कई लोग बाज़ार से जुड़े हैं। वो जरा प्रकाश डालें कि बाज़ार विशेषज्ञों की विश्वसनीयता कैसे परखी जाए। कैसे भरोसा किया जाए।

जन्मदिन की माया

अब यह घर घर में मनाया जाने वाला कुटीर दिवस है। कुटीर उद्योग की तर्ज पर कुटीर दिवस। फिल्म मुकद्दर का सिकंदर का वो नज़ारा। अमीर की बेटी केक काट रही है। गरीब का बेटा अमिताभ एक दुकान के बाहर खड़ा शीशे में बंद गुड़िया को निहार रहा है। क्या सीन था। अमीरी के सामने ग़रीबी की चाहत और हौसले का। उस दौर की फिल्मों में जन्मदिन एक अति कुलीन वर्ग का कार्यक्रम हुआ करता था। तब शायद सब जन्मदिन नहीं मनाते होंगे। जबकि पैदा सब होते थे और किसी न किसी तारीख को ही पैदा होते थे।

अब जन्मदिन सब मनाते हैं। गांवों में भी हैप्पी बर्थडे गाया जाने लगा है। ज़िला मुख्यालय से केक आता है।कहीं खीर बनती है तो कहीं समोसा चलता है। शहरों में हर मोहल्ले में जन्मदिन के लिए एक खास स्टोर है। एक स्टोर है जहां केक, कुकीज़ और बलून मिलते हैं।एक स्टोर है जो रिटर्न गिफ्ट का मुखिया है।एक स्टोर है जो गिफ्ट का सरगना है। अनाप शनाप किस्म के खिलौने।घंटा बीत जाता है पसंद करने में। लिहाज़ा आप कुछ भी खरीद लेते हैं। इन सबके बीच संवेदनशील लोगों के लिए एजुकेशनल ट्वायज़ के नाम पर बेकार खिलौनों का बाज़ार बनाया गया है। कुछ खिलौने पज़ल्स के नाम पर बेचे जा रहे हैं। जो एक दो बार खेलने के बाद बेकार हो जाते हैं। कुछ खिलौने लड़कियों के लिए हैं। जिनमें बदसूरत गुड़िया प्रमुख है। जो कृत्रिम गर्भाधान से निकली बार्बी की अवैध संताने लगती हैं। किचन सेट का भी भयंकर आतंक है। लड़कों के लिए प्लास्टिक के बैट, कार आदि।

कई लोगों से बात की जो गिफ्ट के लिए जद्दोज़हद करते हैं। सबने कहा चयन करना बहुत मुश्किल होता है। दुकान भरी होती है मगर पसंद नहीं होती। विकल्प हैं मगर बेकार। गिफ्ट आइटम के सेगमेंट में भयंकर कंगाली है। घंटो लगने के बाद थक हार कर कुछ भी खरीद लेते हैं।

ख़ैर मामला जन्मदिन के सामाजिक प्रसार का था। अब ग़रीब भी जन्मदिन मनाता है। अमीर तो मनाता ही था। मायावती भी मनाती हैं। अटल भी मनाते हैं। सोनिया गांधी मनाती हैँ। लालू भी मनाते हैं। दक्षिण में तो दंगल मचा ही हुआ है। जन्मदिन कई दिवंगतों के भी मनाये जाते हैं। इन्ही दिवंगतों के कारण हमारे मास्टर जी पुण्यतिथि और जयंती में फर्क समझाते रहते थे। कई लोग मिल जाएंगे तो पुण्यतिथि की जगह जयंती लिखकर हंसी का पात्र बन चुके होंगे।

अब बात मायावती के जन्मदिन की। पिछले कई वर्षों की रिपोर्टिंग का अर्काईव निकालिये। जब से मायावती जन्मदिन मनाने लगी हैं। हर अखबार और टीवी में एक ही तरह की रिपोर्ट मिलेगी। फिर आप अन्य नेताओं के जन्मदिन की रिपोर्टिंग से मिलान कीजिए। कहीं कहीं तो समानता मिलेगी लेकिन एक बड़ा फर्क दिखता है। जैसे सोनिया, मुलायम या अटल के जन्मदिन की आलोचना मिलेगी मगर उस स्तर की नहीं होगी जैसी मायावती की होती है। एक किस्म का पूर्वाग्रह दिख ही जाएगा।

ऐसा नहीं कि सब मीडिया का ही किया कराया है। मायावती भी खुद मौका देती हैं। कहतीं हैं जन्मदिन कार्यकर्ता मनाते हैं लेकिन केक डीजीपी खिलाते हैं। जब विपक्ष में होती हैं तो मंच पर नेता केक खिलाते हैं। जब सत्ता में होती है तो नेताओं को क्षेत्र में भेज देती हैं और अफसर घेर लेते हैं। मुलायम सिंह यादव भी किसी तरह से सियासत में सादगी के प्रतीक नहीं हैं। सैफई चले जाइये और उनके शपथ ग्रहण का नज़ारा याद कीजिए। लेकिन नेता जी मायावती के जन्मदिन पर होने वाली फिज़ूलखर्ची के खिलाफ धरने पर बैठ गए।

हंसी आती है। आमतौर पर मीडिया को सामूहिक राय देने के मौजूदा प्रचलन से बचना चाहिए। लेकिन मीडिया को हाथ क्या लगता है। मायावती उसे पार्टी का चंदा और खर्चा बता देती हैं। केक का साइज़ बता कर क्या हासिल होता है। वो तो भला हो उन अफसरों का जिनकी पीठ झुक जाती है। वर्ना कहने के लिए वही पुरानी बात। ऐसा लगता है कि मीडिया के हंगामें और मायावती के जन्मदिन में कोई समझौता है। एक दिन पहले मीडिया जम कर सवाल उठाता है दूसरे दिन केक की एक तस्वीर के लिए मारामारी करने लगता है। मायावती भी मीडिया की आलोचना के बाद उसी के कैमरे के सामने केक खाते हुए पोज़ देने लगती हैं। इस बहस विवाद से कुछ हासिल नहीं होता। मीडिया अपनी ज़िम्मेदारी निभा देता है और मायावती अपना जन्मदिन मना लेती हैं।


रही बात राजनीति में सादगी के गायब होने की तो राजनीति सिर्फ नेता से नहीं बनती। उसमें शामिल जनता से भी बनती है। और जनता तो अपना ही जन्मदिन मनाने में व्यस्त है। मुकद्दर का सिकंदर का नायक बड़ा होकर अपना जन्मदिन मनाने लगा है। अब कोई दुकान के बाहर ख़ड़ा नहीं मिलेगा। हीरे की नहीं तो प्लास्टिक की गुड़िया मिल ही जाएगी। क्योंकि जन्मदिन नहीं मनेगा तो खिलौने और तोहफे देने के लिए उत्पादित कूड़ा कचरे की खपत कहां होगी।

ग़रीब की जोरू- नैनो भौजाई

ये एक कहावत है। ग़रीब की जोरू सबकी भौजाई। टाटा की नैनो आ गई तो स्वागत कार्यक्रम में एक तबका जली कटी बातें भी कहने लगा है।ये वो लोग हैं जो छोटी कार से बड़ी कार वाले के जमात में आ गए हैं।इन्होंने कहा कि नैनो में कैसे चलेंगे। ठीक लगेगा क्या?अरे आपके लायक नहीं है।यानी अभी यह कार आम आदमी की हुई भी नहीं है।अभी यह कहा ही जा रहा है कि नैनो खऱीद कर आम आदमी खास आदमी की जमात में आ जाएगा। लेकिन अभी से खास आदमी आम आदमी की इस कार की हैसियत तय करने लगा है। उसे लगता है यह छोटे लोगों की छोटी कार है। खैर यह होगा। तभी एक दिन कोई और एक नया सपना बेचेगा। अभी बात इस नए सपने की।


एक कार को देखने की लंबी कतार।प्रगति मैदान में करोड़ों की कारें इस लाख रुपये की कार की किस्मत से जल रही होंगी।
मोबाइल फोन से क्लिक की जा रही नैनौ की तस्वीर। घर ले जाकर पड़ोसी तक को दिखाने और बताने के लिए कि हमने देखी है नैनो। उपभोग की ईच्छा हमारे जीवन की तमाम हसरतों से बड़ी हैं। रोटी के लिए हम सपना नहीं देखते।मगर कपड़ा,मकान के लिए देखते हैं। इसके अलावा हम कई चीज़ों का सपना समय समय पर देखते रहते हैं। मसलन तीन बुनियादी सपने रोटी कपड़ा और मकान के पूरा होने के बाद हम एसी का सपना देखते हैं।एसी का सपना पूरा होने के बाद हम माइक्रोवेव का सपना देखते हैं। फिर एलसीडी टीवी का सपना देखते हैं। समय समय पर अपना सपना मनी मनी।

लेकिन टाटा ने बहुत दिनों के बाद एक सार्वजनिक सपना दिया है। राजनीति में सार्वजनिकता के ह्रास के बाद टाटा ने नैनो के ज़रिये इस शून्य को भर दिया। राजनीति के पास देश के लोगों को सपने बेचने के लिए कुछ नहीं है। सिर्फ मायावती ही एक सपना बेच रही हैं।पहली दलित महिला के प्रधानमंत्री होने का सपना।बाकी तमाम दल पुराने सपने ही बेच रहे हैं। लिहाजा आम लोगों की सियासी भागीदारी चुनाव के वक्त वोट डालने की सक्रियता तक सीमित रह गई है।देश खाने कमाने में व्यस्त है।
लगता नहीं कि किसी का किसी से कोई संबंध है। बीच बीच में क्रिकेट एक सार्वजनिक सपने की पूर्ति का अहसास देता है। वरन सपनों के सार्वजनिक स्पेस में एक क़ॉमन ड्रीम की कमी थी। अब पूरी हो गई है।

अगर ऐसा नहीं होता तो हिसार से चलकर टीचर धर्मवीर प्रगति मैदान नहीं आते। पूरे परिवार के साथ। कहा कि दस
हज़ार कमाता हूं। इतने में कार का सपना नहीं देख सकता। अब कम से कम देख सकता हूं और खरीद सकता हूं। बसंत कुंज के एक स्कूल में पढ़ाने वाले टीचर ने कहा कि जब भी बच्चों के पीटीए में जाता हूं वो कहते हैं पापा सबके के पास कार है तुम्हारे पास नहीं। उनके साथ आए एक सज्जन से पूछा कि कार नहीं है तो क्या हुआ,इतना काम्पेल्क्स क्यों? जवाब-थोड़ा तो लगता है। सबके पास है हमारे पास नहीं है। स्कूटर से चलते चलते आप कारों के बीच दब जाते हैं। तब लगता है कि होना चाहिए। दिल्ली पुलिस के दो सिपाही भी मगन होकर नैनो देख रहे थे। कहा कि तेईस साल की नौकरी हो गई। दस हज़ार वेतन मिलता है। स्कूटर भी नहीं है। लेकिन यह कार खरीद लेंगे तो लगेगा कि कुछ किया। हम भी कुछ हैसियत रखते हैं।

अब इन लोगों के बारे में सोचिये। ये आर्थिक विषमता के किस दबाव में जी रहे हैं।खाने भर की कमाई लेकिन रिहाईश उस शहर में जहां लोग बीस लाख की कार ही खऱीदते हैं।ये गरीब नहीं हैं।मगर अमीरों के मोहल्ले में गरीब ही कहे जाएंगे।जैसे गरीबों के मोहल्ले में स्कूटर वाले भी अमीर कहे जाते हैं।लेकिन इन लोगों की कुंठाओं का सामाजिक अध्ययन होना चाहिए।
कार के नहीं होने की हीन भावना का। और देखना एक सपना कि एक दिन अपनी भी कार होगी। चार चक्के पर जाकर दो चक्के वाले बराबर होना चाहते हैं उनके जिनसे बराबर होने का कोई आखिरी पैमाना नहीं। टाटा ने इनके लिए एक सपना दिया।

पर्यावरण की चिंता का सवाल हर कार से जुड़ा है। आटो एक्सपो में पहले दिन सत्रह कारें लांच हुईं। लेकिन हमला हुआ नैनो को लेकर। जैसे बाकी कारें दस बीस की संख्या में ही बेचने के लिए बनी हैं। नैनौ लाखों में बिकेगी तो सड़क पर जगह नहीं बतेगी। किस हिसाब से इनोवा इतनी बड़ी गाड़ी बनी है। तीन कार की जगह लेती है। क्यों नहीं मारूति के बाद किसी अन्य कार के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा। और मारुति क्या कम बिकी। नैनो के आने से पहले ही दिल्ली मे पचपन लाख कारें और स्कूटर हैं। लेकिन हमला हुआ नैनो पर। देश के उन तमाम शहरों में जहां नैनो जाएगी,वहां पहले से ही बिना किसी मापदंड के हज़ारों आटो चल रहे हैं जिससे वहां प्रदूषण का बुरा हाल है।वहां प्रदूषण रोकने के कोई उपाय नहीं किये जाते। गंगा नदी से नाली हो गई। बचाने के लिए आया पैसा खा पी कर बराबर हो गया।यमुना नदी की ज़मीन पर फालतू के गेम्स के लिए कंक्रीट इमारतें बन रही हैं।आप कितनी बार कामनवेल्थ गेम्स के बारे में कुछ ख्याल रखते हैं? क्या यह ओलपिंक है?और है भी तो पर्यावरण की कीमत पर।नदी खाकर गेम्स के लिए पूरी दिल्ली को खुश किया जा रहा है। फ्लाई ओवर बन रहे हैं। गेम्स के नाम पर। लेकिन बदनाम हुई नैनो।क्यों नैनो आएगी तो उसके लिए क्यों नहीं फ्लाई ओवर बनेंगे। जब गेम्स के लिए बन सकते हैं। उस पर कोई हल्ला नहीं करता।

कहीं ऐसा तो नहीं कि अमीरों को अच्छा नहीं लगा कि उनके छोटे लोग अब कार में आएंगे। इसलिए वो अपने बराबर के लोगों को कह रहे हैं कि बेमतलब की कार है। और ब़ड़ी गाड़ी वाले छोटी गाड़ी पर नहीं चलेंगे। आखिर ग़रीब की ज़ोरु सबकी भौजाई, जो चाहे वो ठिठोली कर ले। नैनो भौजाई पर तंग करने वालों ऐसा मत करो। इस धरती को बचाने के लिए अमीरों ने कुछ नहीं किया। उनके ऐशो आराम के लिए बने एसी फ्रीज से जब पर्यावरण गरम हुआ तो लू से गरीब ही मरा है। जब बाढ़ आई तो गरीब मरा। भारत के अमीर कार धारकों ने कब पर्यावरण के लिए कदम बढ़ाये हैं इसका हिसाब करने का वक्त आ गया है। अगर कोई नहीं देता तो नैनो खरीद लाइये। सवारी कीजिए।

ब्लॉग और बरखा दत्त

NDTV 24x7 पर आज रात आठ बजे बरखा दत्त ब्लागिंग पर बहस कर रही हैं। अपने कार्यक्रम वी द पीपल में। बहस की शुरूआत में बरखा दत्त ब्लागिंग को लेकर आशंकित रहीं लेकिन अंत तक पहुंचते पहुंचते उन्होंने वादा किया है कि वे भी अपना एक ब्लाग शुरू करेंगी। इस बहस में दर्शकों के बीच मैं भी था। साथ काम करने का फायदा उठाते हुए मैंने बरखा से कहा कि मैं भी आना चाहता हूं तो मना नहीं किया। बहस ज़्यादातर अंग्रेजी के ब्लागर को लेकर ही रही क्योंकि उनका कार्यक्रम अंग्रेजी का है और हिंदी टीवी में ऐसे विषयों पर बहस नहीं होती। फिर भी आप देख सकते हैं। पता चलेगा कि मीडिया ब्लागर से कितना डरता है। कार्यक्रम देखने के बाद आप यहां जो भी प्रतिक्रिया देंगे उसे बरखा दत्त के पास पहुंचाने की कोशिश करूंगा। वी द पीपुल आज ही है। रविवार को भारतीय समय के अनुसार आठ बजे।

गीतकार बड़ा या साहित्यकार

पुरानी बहस होगी। कई बार पुरानी बहसों पर फिर से बहस करनी चाहिए। तमाम विवाद और समीक्षाएं छप चुकने के बाद भी। आलोक पुराणिक ने वाक में लिख भी दिया है प्रसून जोशी का हिंदी की साहित्यिक मुख्यधारा में ज़िक्र नहीं होता है। लेकिन प्रसून जोशी हों या जयदीप साहनी या फिर अनुराग कश्यप। ये लोग नया गीत और गद्य रच रहे हैं। भले ही वो उपन्यास नहीं लिखते कविता नहीं लिखते। मगर जो लिख रहे हैं वो एक बेहतर उपन्यास है। बेहतर कविता है। गीतकारों की यह ऐसी पीढ़ी है जो पहले कविता लिखती है। फिर उसे गीतों में ढाल देती है। यह लोग विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक या उनमें छपने वाले लोगों से ज़्यादा बड़े तबके से संवाद करते हैं। अब तो साहित्यकारों को भी मात दे रहे हैं। रंग दे बसंती हो या ब्लैक फ्राइडे अनुराग की लिखावट देखिये। ये लोग बाजार के साहित्यकार हैं। बीच बाज़ार में जा कर रच रहे हैं। अच्छा लिख रहे हैं। सुना रहे हैं।


ये वो पीढ़ी है जिसे देख कर लगता है बालीवुड में अब कई गुलज़ार पैदा हो गए हैं। जिनके पास तमाम वर्गों की समझ है। आबो हवा की खुश्बू पकड़ने के लिए शब्द हैं। और ज़िंदगी के आर पार से गुज़रते हुए अनुभव के तमाम लम्हों को बयां कर देने की सलाहियत भी। स्वर्ण युग की अवधारणा कहां से आती है इस पर शोध फिर कभी। लेकिन इनकी वजह से बंबईया फिल्मों में स्वर्ण युग आ गया है। चक दे का गाना जयदीप साहनी ने लिखा है। मौला मेरे ले ले मेरी जान। इस गीत में जयदीप साहनी ने रंग और त्योहार के बहाने राजनीतिक टिप्पणी की है। खूबसूरती के साथ और खुल कर। इस गीत की चंद पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए-

तीजा तेरा रंग था मैं तो
जीया तेरे ढंग से मैं तो
तू ही था मौला तू ही आन
मौला मेरे ले ले मेरी जान

तारे ज़मीन के सभी गीत किसी कवि के लिखे लगते हैं। इसीलिए प्रसून जोशी कवि लगते हैं। बल्कि वो हैं। उनके बारे में सब जानते हैं। सब लिख चुके हैं। इसलिए मैं कम लिखूंगा। आप ज़रा ग़ौर कीजिए
(1)
तू धूप है झम से बिखर
तू है नदी ओ बेख़बर
बह चल कहीं उड़ चल कहीं
दिल खुश जहां
तेरी तो मंज़िल है वहीं
(२)
मां मैं कभी बतलाता नहीं
पर अंधेरे से डरता हूं मैं मां
यू तो मैं,दिखलाता नहीं
तेरी परवाह करता हूं मैं मां
तुझे सब है पता, है न मां
तुझे सब है पता मेरी मां

सईद क़ादरी का लिखा लाइफ इन ए मेट्रो का गाना-
इन दिनों दिल मेरा

मुझसे है कह रहा
तू ख्वाब सजा
तू जी ले ज़रा है
तुझे भी इजाज़त कर ले
तू भी मोहब्बत

बेरंग सी है बड़ी ज़िंदगी
कुछ रंग तो भरूं
मैं अपनी तन्हाई के वास्ते
अब कुछ तो करूं

बंटी बबली के इस गाने के बोल पर ग़ौर कीजिए-
देखना मेरे सर से आसमां उड़ गया है
देखना आसमां के सिरे खुल गए हैं ज़मीं से
देखना क्या हुआ है
यह ज़मी बह रही है देखना पानियों में ज़मी घुल रही है
कहीं से।

ये सब चंद गीत हैं जब बजते हैं तो लगता है इन्हें लिखने वाले ने मंगलेश डबराल, केदार नाथ सिंह,अरुण कमल को पढ़ा होगा। इन्हीं के बीच का होगा। जो अनुभूतियों को बड़े स्तर पर रच रहे हैं। जिनके बोल गुनगुनाने के लिए ही नहीं बल्कि नया मानस बनाने के लिए भी हैं। बल्कि बना भी रहे हैं। आलोक पुराणिक ठीक कहते हैं हिंदी साहित्य में इसकी चर्चा क्यों नहीं। क्यों नहीं प्रसून जोशी और जयदीप साहनी पर नामवर सिंह जैसे आलोचक लिखते हैं? आखिर इनकी रचनाओं में कविता के प्रतिमान क्यों नहीं है? क्या साहित्यकार बाज़ार में नहीं है? क्या उसने बाज़ार की मदद से अपनी रचनाओं का प्रसार नहीं किया? सवाल गीत को कविता से अलग करने का नहीं है। सवाल है कि हम इन्हें क्या मानते हैं? अगर थोड़ा भी रचनाकार मानते हैं तो जयदीप साहनी को युवा कवि का पुरस्कार क्यों नहीं मिलता? प्रसून जोशी को साहित्य अकादमी क्यों नहीं दिया जा सकता?

यह हिंदी समाज का अपना मसला है। हर समाज में खाप और उनकी पंचायत होती है। हिंदी की भी है। लेकिन इस खाप से बाहर बालीवुड के नए गीतकार और पटकथा लेखक इस पतनशील वक्त में प्रगतिशील रचना कर रहे हैं। कम से कम इसे स्वीकार करने का साहस तो दिखाना ही चाहिए।

क्या आपको भी ऊब होती

हर काम से ऊब होती है। एक न एक दिन होती है। सबको होती है। मुझे भी होती है। लगता है जहां हूं वहां क्यों हूं। जहां नहीं हूं वहां क्यों नहीं हो जाता हूं। यह काम अच्छा नहीं है। वह काम अच्छा है। उस काम वाले से मिलता हूं तो कहता है आपका काम बड़ा अच्छा है। ऊब से कंफ्यूज़ हो जाता हूं। लगता है टीवी नहीं अख़बार ठीक है। अख़बार कहता है टीवी ठीक है। अपने दफ्तर को भला बुरा दूसरे दफ्तर को ठीक समझने लगता हूं। दूसरे दफ्तर वाले से मिलने के बाद अपने दफ्तर को ठीक समझने लगता हूं। लगता है हर अच्छी चीज़ बुरी होती है और हर बुरी चीज़ अच्छी होती है। मैं ऊब रहा हूं। इन दोनों ही स्थितियों से। कुछ नया करना चाहता हूं। पिछले दिनों जो नया किया उन्हीं से ऊब गया हूं। फिर एक और बार ऊबने के लिए कुछ और नया क्यों करना चाहता हूं।

शर्मा जी पड़ोसी थे। ज़िंदगी भर एक ही मेज़ से क्लर्की करते रिटायर हो गए। रिटायरमेंट के दिनों तक पहुंचते पहुंचते उनकी मेज़ चमकने लगी थी। सागवान की लकड़ी संगमरमर लगने लगी थी। तीस साल एक ही कुर्सी और एक ही मेज़। बैठने की एक ही जगह। दफ्तर के काम की कोई प्रगति नहीं। सिर्फ दिन बीतने की प्रगति। पहले दिन से रिटायर होने के आखिरी दिन तक पहुंचने की प्रगति। शर्मा जी ने कभी नहीं कहा कि ऊब गया हूं। हर दिन दफ्तर जाते रहे। कभी नहीं कहा कि दूसरे दफ्तर में क्यों हूं। पर दावे के साथ नहीं कह सकता कि शर्मा जी ऊब से बेचैन नहीं होंगे। एक ही करवट बैठे बैठे और हर सर्दी में पत्नी का बुना नया स्वेटर पहनते हुए वह अपनी ऊब किससे कहते होंगे पता नहीं। ऐसे तमाम लोगों पर शोध होना चाहिए। वो एक ही तनख्वाह, एक ही दफ्तर और एक ही दिशा में बैठे बैठे ऊबते क्यों नहीं हैं। हम क्यों ऊब जाते हैं। मैं क्यों ऊब जाता हूं।

मफ़लर

सर्दी के तमाम कपड़ों में मफ़लर देहाती और शहरी पहचान की मध्यबिंदु की तरह गले में लटकता रहता है। एक सज्जन ने कहा आप भी मफ़लर पहनते हैं। देहाती की तरह। एक पूर्व देहाती को यह बात पसंद नहीं आई। आखिर मुझे और मेरे मफ़लर में कोई फ़र्क नहीं है। मफ़लर एक पुल की तरह वो पट्टी है जो फैशन भी है और पुरातन भी।

कैसे? बस आप मफ़लर को सर के पीछे से घुमाते हुए दोनों कान के ऊपर से ले आईये और फिर ठुड्डी के नीचे बांध कर कालर में खोंस दीजिए। आप देहाती की तरह लगते हैं। मफ़लर तब फ़ैशन नहीं रह जाता। नेसेसिटी की तरह सर्दी से बचने का अनिवार्य ढाल बन जाता है। बिहार, उत्तर प्रदेश के ठीक ठाक लोगों से लेकर रिक्शेवाले, चायवाले तक इसी अंदाज़ में मफ़लर की इस शैली को ज़माने से अपनाते रहे हैं। मफ़लर पर किसी ने शोध नहीं किया है। शायद ब्रितानी चीज़ होगी। लेकिन हम मफ़लर से पहले शाल को भी इसी अंदाज़ में कॉलर के ऊपर गांठ बांध कर ओढ़ते रहे हैं। हिमालय से नीचे उतर कर आने वाली सर्द हवाओं से बचने के लिए। लालू जैसे नेता तो कपार के ऊपर घूमा घूमा कर बांध देते हैं। मफ़लर का एक रूप यह भी है।

लेकिन मफ़लर का एक अंदाज़ खांटी देहाती होने के बाद भी शहरी रूप में बचा रहा है। जिसे आप अपने कोट के दोनों साइड के बीच लटका देते हैं। यहां मफ़लर का कुछ हिस्सा कोट के पीछे रहता है और कुछ कोट के बाहर। यह मफ़लर का शहरी रूप है। इस रूप में आप स्मार्ट कहे जाते हैं।मफ़लर नेसेसिटी से फ़ैशन हो जाता है। देहात और शहर के बीच का एक मध्यबिंदु मफ़लर में ही वो ताकत है जो पल में देहाती और पल में शहरी हो सकता है। वो मेरे जैसा है। पूर्व देहाती और मौजूदा शहरी। कृपया मफ़लर को गया गुज़रा न समझें। इससे मेरी आत्मा आहत होती है।

मोनालीसा हंस रही थी

अशोक भौमिक का यह उपन्यास पढ़ कर डर गया। बहुत दिनों बाद तमाम महत्वकांक्षाओं की उड़ान के बीच रिश्तों के खत्म और खतरनाक होने की ऐसी कहानी पढ़ी है। लखनऊ, लंदन, आज़मगढ़, फ्रांस, लियोनार्दो, किशन और प्रो नियोगी और मुंबई।अलग अलग समय और अलग अलग शहर। लेकिन किरदारों से कहानी ऐसी बुनी गई जैसे सब एक दूसरे के समकालीन हों। बड़ा कलाकार कितने बड़ों का प्यादा होता है और उसकी कला बाज़ार में बिक कर क्या हो जाती है। इन सब यथार्थ पर मोनालीसा का हंसना। रोना आया। हम सब किसी बाहरी एजेंट की तय की हुई शर्तों के अनुसार कुछ पाने की होड़ में जानवर होते हुए लोगों के लिए यह कहानी आईना का काम कर सकती है। वो तमाम लोग जो अपने अपने संस्थानों में महान और मैनेजिंग डाइरेक्टर होना चाहते हैं,उन्हें मोनालीसा की हंसी को समझना चाहिए। इस कहानी को पढ़ना चाहिए। मैं बहुत कम पढ़ता हूं। इसलिए इसे बेहतर बताने के लिए किसी अन्य बेहतर से तुलना करने में समर्थ नहीं हूं। लेकिन मोनालीसा हंस रही थी पढ़ना ज़रूरी है। पेरिस तक उड़ान भरने की चाह में अपने भीतर का आज़मगढ़ गंवा देने वाला किशन और उसके जैसे तमाम हम लोग। आइये इस कहानी का पाठक बन कर ख़ुद को ढूंढते हैं वहां जाकर जहां पहले से पहुंच कर मोनालीसा हंस रही है।

साल का इंतज़ार

साल का इंतज़ार
किसलिए हो रहा था
पता नहीं था
लकड़ियां जलाईं गईं
दोस्त बुलाए गए
कुछ अनजाने चेहरों से
मिलना हो रहा था

साल का इंतज़ार
किसलिए हो रहा था
पता नहीं था
कबाब और शराब के बीच
पनीर का टिक्का बीच बीच में आता जा रहा था
आने वाले मेहमानों को
बिठाने के लिए
पहले आ चुके मेहमानों को कुर्सी से उठाया जा रहा था
साल का इंतज़ार
किसलिए हो रहा था
पता नहीं था

टीवी ने माहौल बना दिया था
अख़बारों ने तैयारी कराई थी
दुनिया भर के होटलों में
रात काटने के लिए
देश विदेश की भीड़ बुलाई गई थी
वहां भी कबाब और शराब के बीच
पनीर का टिक्का
बीच बीच में आता जा रहा था
गोवा के तट पर
कुछ कम कपड़ों में
जोड़ों को मस्ती में उतरते देख
लाइव टीवी पगला रहा था
साल का इंतज़ार
किसलिए हो रहा था
पता नहीं था

बारह बजने के साथ ही
सब चिपके एक दूसरे से
दर्दे डिस्को का गाना
बड़बड़ता नज़र आ रहा था
जावेद अख़्तर की धुनों का
कोई मतलब नहीं था
साल का इंतज़ार
किसलिए हो रहा था
पता नहीं था

एक रिवाज सा था
इसलिए हो रहा था
कहने के लिए
मिलने के लिए
एसएमएस के लिए
उन तमाम गानों पर नाचने के लिए
जिन पर थिरकने की कुंठा
उस शाम खत्म होने वाली थी
उन लड़कियों के लिए
जिनके सामने नज़र उठ जाने वाली थी
उन दुकानदारों के लिए
जिनके माल बिक जाने वाले थे
उन बावर्चियों के लिए
जिनकी सी कबाब के साथ
शराब परोसी जा रही थी
और पनीर का टिक्का
बीच बीच में आता जा रहा था
साल आ चुका था
फिर भी स्वागत किया जा रहा था