पुरानी बहस होगी। कई बार पुरानी बहसों पर फिर से बहस करनी चाहिए। तमाम विवाद और समीक्षाएं छप चुकने के बाद भी। आलोक पुराणिक ने वाक में लिख भी दिया है प्रसून जोशी का हिंदी की साहित्यिक मुख्यधारा में ज़िक्र नहीं होता है। लेकिन प्रसून जोशी हों या जयदीप साहनी या फिर अनुराग कश्यप। ये लोग नया गीत और गद्य रच रहे हैं। भले ही वो उपन्यास नहीं लिखते कविता नहीं लिखते। मगर जो लिख रहे हैं वो एक बेहतर उपन्यास है। बेहतर कविता है। गीतकारों की यह ऐसी पीढ़ी है जो पहले कविता लिखती है। फिर उसे गीतों में ढाल देती है। यह लोग विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक या उनमें छपने वाले लोगों से ज़्यादा बड़े तबके से संवाद करते हैं। अब तो साहित्यकारों को भी मात दे रहे हैं। रंग दे बसंती हो या ब्लैक फ्राइडे अनुराग की लिखावट देखिये। ये लोग बाजार के साहित्यकार हैं। बीच बाज़ार में जा कर रच रहे हैं। अच्छा लिख रहे हैं। सुना रहे हैं।
ये वो पीढ़ी है जिसे देख कर लगता है बालीवुड में अब कई गुलज़ार पैदा हो गए हैं। जिनके पास तमाम वर्गों की समझ है। आबो हवा की खुश्बू पकड़ने के लिए शब्द हैं। और ज़िंदगी के आर पार से गुज़रते हुए अनुभव के तमाम लम्हों को बयां कर देने की सलाहियत भी। स्वर्ण युग की अवधारणा कहां से आती है इस पर शोध फिर कभी। लेकिन इनकी वजह से बंबईया फिल्मों में स्वर्ण युग आ गया है। चक दे का गाना जयदीप साहनी ने लिखा है। मौला मेरे ले ले मेरी जान। इस गीत में जयदीप साहनी ने रंग और त्योहार के बहाने राजनीतिक टिप्पणी की है। खूबसूरती के साथ और खुल कर। इस गीत की चंद पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए-
तीजा तेरा रंग था मैं तो
जीया तेरे ढंग से मैं तो
तू ही था मौला तू ही आन
मौला मेरे ले ले मेरी जान
तारे ज़मीन के सभी गीत किसी कवि के लिखे लगते हैं। इसीलिए प्रसून जोशी कवि लगते हैं। बल्कि वो हैं। उनके बारे में सब जानते हैं। सब लिख चुके हैं। इसलिए मैं कम लिखूंगा। आप ज़रा ग़ौर कीजिए
(1)
तू धूप है झम से बिखर
तू है नदी ओ बेख़बर
बह चल कहीं उड़ चल कहीं
दिल खुश जहां
तेरी तो मंज़िल है वहीं
(२)
मां मैं कभी बतलाता नहीं
पर अंधेरे से डरता हूं मैं मां
यू तो मैं,दिखलाता नहीं
तेरी परवाह करता हूं मैं मां
तुझे सब है पता, है न मां
तुझे सब है पता मेरी मां
सईद क़ादरी का लिखा लाइफ इन ए मेट्रो का गाना-
इन दिनों दिल मेरा
मुझसे है कह रहा
तू ख्वाब सजा
तू जी ले ज़रा है
तुझे भी इजाज़त कर ले
तू भी मोहब्बत
बेरंग सी है बड़ी ज़िंदगी
कुछ रंग तो भरूं
मैं अपनी तन्हाई के वास्ते
अब कुछ तो करूं
बंटी बबली के इस गाने के बोल पर ग़ौर कीजिए-
देखना मेरे सर से आसमां उड़ गया है
देखना आसमां के सिरे खुल गए हैं ज़मीं से
देखना क्या हुआ है
यह ज़मी बह रही है देखना पानियों में ज़मी घुल रही है
कहीं से।
ये सब चंद गीत हैं जब बजते हैं तो लगता है इन्हें लिखने वाले ने मंगलेश डबराल, केदार नाथ सिंह,अरुण कमल को पढ़ा होगा। इन्हीं के बीच का होगा। जो अनुभूतियों को बड़े स्तर पर रच रहे हैं। जिनके बोल गुनगुनाने के लिए ही नहीं बल्कि नया मानस बनाने के लिए भी हैं। बल्कि बना भी रहे हैं। आलोक पुराणिक ठीक कहते हैं हिंदी साहित्य में इसकी चर्चा क्यों नहीं। क्यों नहीं प्रसून जोशी और जयदीप साहनी पर नामवर सिंह जैसे आलोचक लिखते हैं? आखिर इनकी रचनाओं में कविता के प्रतिमान क्यों नहीं है? क्या साहित्यकार बाज़ार में नहीं है? क्या उसने बाज़ार की मदद से अपनी रचनाओं का प्रसार नहीं किया? सवाल गीत को कविता से अलग करने का नहीं है। सवाल है कि हम इन्हें क्या मानते हैं? अगर थोड़ा भी रचनाकार मानते हैं तो जयदीप साहनी को युवा कवि का पुरस्कार क्यों नहीं मिलता? प्रसून जोशी को साहित्य अकादमी क्यों नहीं दिया जा सकता?
यह हिंदी समाज का अपना मसला है। हर समाज में खाप और उनकी पंचायत होती है। हिंदी की भी है। लेकिन इस खाप से बाहर बालीवुड के नए गीतकार और पटकथा लेखक इस पतनशील वक्त में प्रगतिशील रचना कर रहे हैं। कम से कम इसे स्वीकार करने का साहस तो दिखाना ही चाहिए।
27 comments:
हिन्दी में यदि लेखन कुछ कमा धमा लेता है तो वह लेखक की बिरादरी से बाहर माना जाता है। लेखक को तो बस भाषा का सेवक होना चाहिये, एक झोला कांधे पर लटकाये. अगर बुढ़ापे में बीमार पड़े तो उसके लिये चंदा हो तभी वह लेखक है।
इन प्रसून जोशियों या जयदीपों को लेखक क्यों माना जाये?
मेरा मानना है कि लेखक केवल लेखक होता है , वह बड़ा या छोटा नही होता, एक बार अरूण कमल जी ने मुझसे कहा था इन्हीं वहस के सन्दर्भ में कि तुलसी का पत्ता क्या बड़ा क्या छोटा ?
वाकई रवीश भाई, ये नए गीतकार सचमुच कमाल के हैं। गज़ब की क्षमता है इस नई फसल में। इन्हें साहित्यकारों की श्रेणी में रखने में शायद आलोचकों को झिझक हो। लेकिन समय बदल रहा है। अब आलोचकों को यह तथ्य स्वीकार कर लेना चाहिए कि एड मैन भी गीत लिख सकते है। ऐसे भी गीत भावनाओं की शाब्दिक अभिव्यक्ति ही तो है। हम-आप भी तो गीतों की तरह ही सोचते हैं। हाँ इस नए पौध के पास उन भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उचित शब्द भी हैं। और इमोशन को कैश करने की क्षमता भी। इसलिए न गीतकार बड़ा है न साहित्यकार। अपने-अपने क्षेत्र में दोनों ही महान हैं। दोनों का अपना अलग मुक़ाम है।
Kyon Hindi sahitya awam uske sahityakaron ki bachi-kuchi asmat bhi lutna chahte hain? Kya Munshi Premchand, Sharatchand jaise kathakaron ne kabhi bazar ke liye rachnaayen rachi? Aaj punjipujak bhediyadhasan duniya bhawnaaye bhi kharidkar mahsus karti hain. So, filmi gitkar ki tulna sahityakaron se thik nahi. ek upbhoktawadi bazar ka hissa hai to dusra yatharthwadita ka. Beshak naye ubhar kar aaye gitkaron ki kabiliyat lajawab hai lekin we bhawnaon ka karobaar karte hain, unke liye Sahitya akabmi puraskar nahi balki iifa awards, filmfare awards hi thik hain.
रवीश भाई आपने बिल्कुल सही सवाल उठाया है गलतियो से इस बोझिल समय में। बात निकली है तो दूर तलक जानी चाहिए। लेकिन यह भी गौर करें कि लिखा किसके लिए जा रहा है, यह बात मुख्य होती है, उसे गीतकार लिखे या साहित्यकार। यह भी सोचना होगा कि पांचवें-छठें दशक के कैफी आजमी और आज के जावेद अख्तर में फर्क क्या है, एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...से लेकर बिरला सीमेंट बेंचने तक? सतह तक सच को खंगालेंगे तो बारीकियां सब कुछ बक देंगीं, यहां तक कि कल के रूस-चीन-प.बंगाल और आज के नेपाल में क्या फर्क है। मेरा खयाल है, पुरस्कार मिलने-न-मिलने को लेकर इतना सियापा करने की कोई जरूरत नहीं, जरूरत उन पुरस्कारों को लात मारने की है।
आपसे गुजारिश है कि यहाँ बाजू पट्टी में गाने का जो विजेट लगाया है उसे बाइ डिफ़ॉल्ट चालू न रखें. इसे पाठक की मर्जी पर छोड़ दें कि वह स्वयं प्ले बटन दबाकर सुने या छोड़ दे.
... क्योंकि कई दफ़ा होता ये है कि आप भजन के मूड में होते हैं, और कव्वाली सुनाई देती है तो मामला बिगड़ जाता है...:)
एक पुरस्कार और सौ को बीमार मत करिये . करोड़ो होठ, करोड़ों पाँव हिल-डुल कर , पुरस्कार ही तो देता है एक एक गीत को ,गीतकार को ."होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो ." जिस रोज कविता की दूकान
गीत की तरह कैसेट ,सीडी,डीवीडी मे सजने लगे तब ही सोंचा जा सकता है .
अभी तो मार्केट डाउन है बेचारे का ठीक ब्लोगर्स की तरह एक दूसरे की कविता पर वाह ! वाह !! क्या बात है !
बहुत खूब !! आपस मे ही कर लेते है .सरकारी टीवी चैनल के आलावा कोई और चैनल घास डालने को तैयार नही
होता .कवि सम्मेलन मे जितना माइक वाला अकेले वसूलता है उतना ही दस कवि मिलकर उगाहते हैं . अतः पहले इन्हें बाज़ार दीजिये फ़िर प्रतियोगिता .
रवीश भाई शुक्रिया, मैने आपकी अनुमति से इसे इंडिया बोल में छापा है...बाकई गजब के है ये नये गीतकार, जो अपनी कलम से लोहा मनवा रहे है...
सही बात है रवीश भाई । गुलज़ार कहते हैं कि फिल्म वाले मुझे साहित्य का कहते हैं और साहित्य वाले फिल्म का कहकर खारिज कर देते हैं । सईद क़ादरी की मज़ेदार बात सुनिए, वो रहते जोधपुर में हैं और गाने लिखने के लिए समय समय पर मुंबई में आते हैं, यहां मुंबई में स्थाई रूप से रहने वाले कई गीतकारों के पास काम ही नहीं है । प्रसून तो एक बार में केवल एक फिल्म लेते हैं । मीडिया से ज्यादातर दूर रहते हैं और अदभुत लिखते हैं । वो गीत सुनिये जिसका जिक्र नहीं है--फिल्म है फिर मिलेंगे । बोल हैं खुल के मुस्कुरा ले तू दर्द को शरमाने दो । ना मिले तो हमें बताएं हम भेज देंगे । जयदीप साहनी ने तो और भी कमाल किया है । उनकी लिखी तमाम फिल्में देखिए । दरअसल साहित्य और बाजार का विरोधाभासी और विसंगतिपूर्ण रिश्ता रहा है । साहित्य के कोने में फिल्मी गीतों को जगह नहीं दी जाती । दुर्भाग्य है । पिछले दिनों आय आय टी मुंबई पर एक प्रोग्राम करने के दौरान बच्चों से उनके पसंदीदा गीत पूछे गये तो यही सारे गीत लिस्ट में आए । हर घर हॉस्टल और गली में ये गीत गूंज रहे हैं । हमारे लिए यही साहित्य हैं ।
और रहेंगे । ऐसे गीतों को सलाम ।
रवीश जी,
ये अच्छी बहस है....शायद ब्लॉग पर लिखे जा रहे लेख भी मेरी नज़र में किसी उम्दा सहित्य से कम नहीं है...अब आप के ही लेख किस यथार्थवादी के अनुभवों से महीन नहीं हैं....लेकिन उनको साहित्य अकादमी मिलना, न मिलना कोई पैमाना नहीं है.....
अरे भाई, इन "साहित्यकारों" की जितनी पहुँच है और ये जितनो को हंसा-रुला रहे हैं, (उससे भी ज्यादा अहम् की जिस तरह की heterogeneous audience तक इनकी पहुँच है), उतना एक बड़ा साहित्यकार भी नहीं कर पाता...और फ़िर, सबसे सुकून ये की अब तक इन "प्रसुनों" और "जयदीपों" ने अपने खेमे नहीं बांटे हैं....बाज़ार का लेखन आपको "वाद" में घिरकर सिकुड़ने से बचाता है....
आप कितनी अच्छी बात ब्लॉग में लिखते हैं,टप्पणी के बहाने ये गाने भी आपको याद दिलाना चाहती हूं।
(बंटी और बबली)
छोटे-छोटे शहरों से,खाली बोर दुपहरों से
हम तो झोला उठाके चले
नदियां मद्धम लगती हैं, बारिश कम-कम लगती है हम समंदर के अन्दर चले.....
और फिर इसी गाने में आगे है,
बड़ा-बड़ा कोयले से नाम फलक पे लिखना है
चांद से होकर सड़क जाती है
उसी पे आगे जाके अपना मकान होगा
इस गाने को सुनकर लगता है कितना उत्साह और उमंग है, अपने बूते कुछ करने के लिए कितनी आशाएं भरी हैं छोटे शहरों के युवाओं में
इसके अलावा आप दिल से के गाने सुनिए तो इनमें कल्पनाशीलता का वो स्तर है जहां मेरा मन तो कभी नहीं पहुंचा।
kisi ko 1 situation de di jaati hai bus ,... seema de di jaati hai ,
maano kahani ka gulam...
kuch is tarah zaise 1 auto chaalak ko bata diya jaata hai ki us mood per chod do..... aur apne paise le lo bhai...
sooch ki seema jo nahi pehchanta wohi baadaa hai bhaiyaa.....
baaki baat rahi kon bada hi bhai....gitkar ya sahityakar...
s1 a2 h3 i4 t5 y6 a7 k8 a9 r10
// g1 i2 t3 k4 a5 r6
10>6
hindi aur english doono me sahityakar phir champion...
meri kavita zaroor pade..
http://danishspace.blogspot.com/2007/05/beedi-ka-dhuan.html
Bahut Khoob bahas parh ke maza aya.
Ek khaas bat jo ye geetkar karten hain wo ye hai ki tamam gehrai aramse samjhate hain jo har aam insaan ke liye ho, doosri taraf jin 'Mahan'rachnao ko sirf mahireen hi chhan sakte hain (samajh sakte hain) unhe 'Mahanta'me hissa chahiye,asan hai ye kehna ki,
jisse channe ki zaroorat nahi use sarahne ki zaroorat nahi.
हम हिन्दी में जहाँ थे आज भी वहीं खडे हैं न तो हम अपनी भाषा को आगे ले जाना चाहते हैं और नहीं ही इसमें आरही तब्दीलियों को अपनाना चाहते हैं. और रही बात हमारे नए कवियों या शायरों की तो हमारे मास्टरजी जिनको आदत है अपने टूटे हुए चश्में से देखने की और अपनी टूटी हुई साइकिल से पुरस्कार स्थल जाकर अपने जैसे साहित्य कारों को पुरस्कार लेते देखने की चाहे ये पुरस्कार उनकी किसी तथाकथित किसी राजनीतिक पार्टी के संबंधो के कारन ही क्यूँ नहो यदि आदत है तो उनका क्या. रही बात इन शायरों या कवियों की कम से कम लोग इनके गीत गुनगुनाकर इन्हें याद तो रख लेंगे बनिस्पत उनके जिनका ज़िक्र केवल पुस्तकालय में धुल चाट रही किताबों में ही होगा, इनका नाम तमाम पुरस्कारों से बड़ा होगा क्यूंकि यादगार होगा.
रवीश आपका ये लेख दीवान पर देखा. सच कहूँ मैं बरसों से यही कहता आ रहा हूँ. मुझे मालूम नहीं कि आपकी नज़र पड़ी है या नहीं लेकिन मैंने सराय के 'मीडिया नगर -3' में प्रसून जोशी के गीतों पर एक मजेदार लेख लिखा है. ये लेख तब का है जब रंग दे बसंती की धूम थी. और कमाल ये है कि आजकल मैं जयदीप सहनी की 'खोसला का घोसला' पर काम कर रहा हूँ! यही दोनों नाम सबसे ख़ास उभर कर आ रहे हैं इस नई बयार में. और यूनुस भाई की सिफ़ारिश में मैं अपनी सिफ़ारिश भी जोड़ दूँ कि फ़िर मिलेंगे का 'खुल के मुस्कुराले तू' ज़रूर सुनिए...
"झील एक आदत है
तुझमें ही तो रहती है
और नदी शरारत है
तेरे संग बहती है
उतार ग़म के मोज़े
ज़मी को गुनगुनाने दे
कंकरों को तलवों में
गुदगुदी मचाने दे"
इनमें एक नाम और जोड़िए,और भी चढता हुआ : स्वानन्द किरकिरे .
ye antar sarvada se rahta aaya hai. yah abhijan aur bahujan, sanskrit aur prakrit, shatriya aur lokpriya ityadi anek rupon mein dekha ja sakta hai.sahi aur galat ka faisla karne ki baat nahin. donon paramparayon ka apna sthan hai.
Ravishji,
Apka comment pada. Apko malum hona chaya ki kavi chutiya aur kamakal hota hai. Aaj hindi shahitya ke jo kavi Dilli me badkar kaval lafwazi kaar raha hi, unko na samaj se koi matlab hai na jaan se. Saab saale appna-appna gut banakar hindi aur kavita ki mafiyagiri kar raha hai.
Age kabhi vistar se.
Anshu Mali Rastogi
Bareilly
09897220640
बहुत जरुरी है कि हम साहित्यकारों की पारम्परिक शक्ल को तोड़ दें , कुरते पायजामे से बाहर निकल के उनको नया रूप दे दें | हम लोग एक तस्वीर बना लेने के आदमी की हैं ,और उस तस्वीर को आदर्श बनने के लिए बड़े बड़े सिधान्न्तों से धक् देते हैं | भइया कुरता नही पहना टू लेखक कैसे हो गए |मैं इस बात से सहमत नही की , केवल पैसे की लिए ये लोग लिखते हैं , ऑटो वाले की तरह | हमने काल्पनिकता गढ़ ली है शायद की पैसे के लिए लिख रहे हैं ये लोग| लिउखना अपने आप मैं बड़ी घटना है जो पैसे देके नही खरीदी जा सकती | बहुत अच्छा रवीश जी , बिल्कुल ये नए ज़माने के गुलज़ार हैं और हमें बहुत से नए गुलज़ार चाहिए |
दिव्य प्रकाश
बाज़ार अपनी पहुँच बढाने के लिये बहुत कुछ करता है रवीश बाबू ! चे ग्वेरा छाप चड्ढी-बनियान से लेकर सफ़दर हाशमी के हल्ला बोल तक बिकता है. हिन्दी में चैनल खोलने से लेकर भोजपुरी में एक साथ हालीवुडी फ़िल्में रीलीज़ करने तक. मैनेजमेण्ट की डिग्री लेकर ठन्डा का मतलब समझाने वाले खूब समझते हैं कि अब कौन से नये सपने बेचने हैं. बिम्बों की बोरियत तोडने और पुराने बिम्ब बेचने वालों को रास्ता दिखाने का काम किया ज़रूर है इन लोगों ने - लेकिन बिम्ब के स्तर पर ही. माल वही है मेरे भाई.
(कवि बड़ा या गीतकार, बहस, संडे आनंद, अमर उजाला, रविवार 3 फ़रवरी, 2008)
दीवारें टूट रही हैं
रवीश कुमार द्वारा शुरू की गयी बहस ने चिंतन धाबा को भी गरमाया. विद्या आश्रम ने चिंतन ढाबों का जाल बुनने की कोशिश की है (www.vidyaashram.org). सारनाथ स्थित चिंतन ढाबे में अमर उजाला के 3 फ़रवरी 2008 के संडे आनंद में छपा 'गीतकार बड़ा या साहित्यकार' बहस का मुद्दा बना. ढाबे पर लोगों की राय बनी कि चर्चा का निचोड़ 'कस्बा' या अमर उजाला को भेजा जाए सो भेज रहे हैं.
फिल्मों के अच्छे गीतकारों को साहित्यकार का दर्जा नही दिया जा सकता ऐसा हमारे जाने-माने और प्रतिष्ठित साहित्यकार कह रहे हैं. उदय प्रकाश ने विद्या, ग्यानेंद्र पति ने गंभीरता और अरुण कमाल ने भाव की कसौटी का इस्तेमाल किया है. क्या इनमें दीवारों के टूटने कि चिंता नज़र आती है? चिंतन धाबा में यह आम राय रही कि लोकप्रिय विद्याओं को साहित्य का दर्जा मिले या नही यह बहस पुरानी ज़रूर हो सकती है लेकिन इसका संदर्भ मौलिक अर्थों में बदल चुका है.
रवीश के सवाल को समझने का एक नया पक्ष सामने आया और वह यह कि इंटरनेट के आ जाने के बाद से ग्यान कि वैधता कि कसौटियाँ बदल गयीं हैं. अब वह सब ग्यान का दर्जा पाने का हक़दार हो गया है जो कंप्यूटर में संगठन और संचार के लायक होता है. किसी प्राकृतिक क्रिया की जानकारी, उत्पादन के तरीकों या निर्माण की विद्याओं कि जानकारी को ग्यान का दर्जा मिले उसके लिए यह ज़रूरी नही कि उसे तैयार करने में तथाकथित वैग्यानिक तरीके का इस्तेमाल किया गया हो, प्रयोगशाला में प्रशिक्षण किया गया हो या विश्व-विद्यालय के प्रोफेसरों ने उसके लिए हामी भरी हो. कंप्यूटर और इंटरनेट ने हर किस्म के ग्यान की प्रतिष्ठा के रास्ते खोल दिए हैं. क्या ऐसी ही बातें अब साहित्या और कला के क्षेत्र को लागू नही होतीं?
कुछ लोगों का विचार यह रहा कि सूचना युग ने लोकविद्या को ग्यान के रूप में एक नयी, सक्षम और प्रगतिशील पहचान दी.
वैग्यानिक बनाम मेकॅनिक की बहस में मेकॅनिक को एक नयी ताकत मिली है. अब किसान, कारीगर, महिलाएँ और आदिवासी भी विद्याधरों के रूप में पहचाने जाएँ यह जीवंत बहस का मुद्दा बन रहा है. ग्यान के क्षेत्र की श्रेणीबद्धता टूटने की नयी अनुकूल परिस्थितियाँ बनी हैं. सूचना युग में औद्योगिक युग कि कसौटियों की नये सिरे से जाँच शुरू हो गयी है. मीडीया ग्यान की गतिविधि का नया स्थान बन गया है. यह भी कि विश्व-विद्यालय में पढ़े हुए लोगों को यह सब मानने में दिक्कत आती है लेकिन उन्हे इन दिक्कतों को पार करना होगा, वरना अपनी ही आँखों के सामने इतिहास के पन्नों में दर्ज नज़र आएंगे.
बहस में यह भी उभर कर आया कि कला विद्या का वह रूप है जिसे सिद्धांत कि दरकार नही होती. औद्योगिक युग में साइंस का बोलबाला रहा है और इसी के कारण सिद्धांतकारों और समीक्षकों का दखल कला में बहुत बढ़ गया. किन्तु अब लोकविद्या कि प्रतिष्ठा और इंटरनेट व मीडीया पर ग्यान कि गतिविधियों के चलते विद्या कि दुनिया के नियम व मानदंड बदल रहे हैं. इस परिवर्तन में लोकप्रिय विद्याओं कि बड़ी भूमिका है. चाहे वह गावों कि विपन्न स्वयंभू प्रतिभा हो या सिनेमा की चमकीली और पैसों में लोटती किन्तु आकर्षक और भावपूर्ण अभिव्यक्ति, दोनो ही दिन-ब-दिन अपनी सामाजिक मान्यता की माँग में ज़ोर भरेंगी. कलाक्षेत्र के रचनाकारों और विचारकों को इस परिवर्तन को गंभीरता से लेना होगा, अपनी पूर्व मान्यताओं के घेरे को तोड़कर, नये विचारों के प्रति संवेदनशील होना होगा. जैसे राजनीति और शिक्षा के क्षेत्र में बहुत कुछ ऐसा है जो स्पष्टतः गलत है और नही होना चाहिए वैसे ही सिनेमा और मीडीया में बहुत कुछ ऐसा है जो नही होना चाहिए. लेकिन इसलिए वहाँ गंभीर कला-अभिव्यक्ति नही हो सकती ऐसा सोचना कहाँ तक ठीक है?
भाव एक ऐसी चीज़ है जो विश्लेषण और व्याख्या के मार्फ़त बाँधी नही जा सकती. यह सहज दर्शन का विषय है. इसे महसूस करना होता है. इसे कल्पना कि उड़ान से छूना होता है. इसे संयम और ध्यान से आत्मसात करना होता है. यह सब विद्याएँ आम लोगों कि हैं, सामान्य जीवन की हैं. विशेषग्यता का भाव के धर्शन से संबंध तो है पर ऐसा नही के वो उस पर राज करे. काशी हिन्दू विश्व-विद्यालय के हिन्दी के पाठ्यक्रम में कबीर शामिल हों इसके लिए हजारी प्रसाद द्विवेदी को लंबा संघर्ष करना पड़ा था. पचास साल पहले प्रगतिशील साहित्या की कसौटियों में एक बड़ा इज़ाफा हुआ था. एक बार फिर ऐसी ज़रूरत आ पड़ी दिखाई देती है.
सुनील सहस्रबुद्धे
विद्या आश्रम
सा 10/82 ए, अशोक मार्ग
सारनाथ, वाराणसी - 221007
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it is really a worth reading post..your observations are sensitive and thier expressions are candour and piercing..."mudda bilkul sahi hai...mudde ke paksha me main amir khusro ka sakshya khada karana chahta hoon...unhe hindi ka kabhi nahi mana gaya jabki unhone 'hindavi' ki shuruvat kee..aaj wo hindi sahitya ke mohtaaj nahi hai..udaharan ke liye unki kawwalion aur geeto ko dekh lijiye 'chhap tilak taj deeni re, aaj rang hai he ree...ya phir badi kathin hai dagar panghat kee...jab tak sahitya 'lok' me nahi jata uksa koi matlab nahee hota...jo 'lok' me grahya hain une hindi sahitya ka kyo nahi maana jaana chahiye ??
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