सोसायटी के सिटीजन


दक्षिण पश्चिम दिल्ली में योजना स्वरूप पैदा किया गया एक नगर है द्वारका। उसी के साउथ दिल्ली हाउसिंग सोसायटी में इस आइसक्रीम कार्ट पर नज़र पड़ गई। अपने आप में संपूर्ण किराने की दुकान। बल्कि आप इसे किराने की दुकान का एक्सटेंशन भी कह सकते हैं। इस दुकान में सब कुछ है। शेविंग क्रीम, टूथपेस्ट, मंजन, सॉस, शैम्पू,रेज़र,कोल्ड ड्रींक,मैगी,साबुन,सर्फ, मच्छर मारने वाला हिट,माचिस आदि आदि। चावल आदि के छोटे पैकेट। ज्यादा बड़ा ऑर्डर करना है तो फोन कर दीजिए शाम तक सामान आ जाएगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह ठेला-दुकान सोसायटी के अंदर खड़ी है। यानी सोसायटी की कमेटी ने इसकी अनुमति दी होगी। दरबान ने बताया कि मेरा भाई भी एक ठो दुकान खोला है। हिमालट सोसायटी में। सब कुछ मिलता है उसमें।

इस प्रवृत्ति पर ग़ौर करना चाहिए। हम दुकानों से घिरे बिना नहीं रह सकते। आप चाहें जितना मर्जी सेक्टर काट लें, हर सेक्टर में मार्केट दे दें मगर हम आदतन दुकान को अपने पड़ोस में ही देखना चाहते हैं। द्वारका के कई सेक्टरों में मार्केट है। फिर भी हर सोसायटी से मार्केट की दूरी अधिक है। कम से कम सौ दो मीटर तो होगी ही। अब आप इसे वक्त की कमी कह लें या फिर आलस्य की अधिकता,आदमी करे तो क्या करे। कितना फोन करे और कितना होम डिलीवरी करवाये। होम डिलीवरी से अच्छा है डोर डिलीवरी का ही जुगाड़ खोज लिया भाई लोगों ने। सोसायटी के भीतर ही दुकान खुलवा दी। दरबान के आस-पास के स्पेस का दुकान के लिए इस्तमाल। हम किराने और टीवी की दुकान में फर्क करने वाले लोग हैं। खुदरा-खुदरी के लिए हमारे ज़हन में अलग सा स्पेस बना हुआ है।

इससे एक हद तक यह भी ज़ाहिर होता है कि हमारे भीतर से मोहल्ला सिस्टम वाला सुकून अभी गया नहीं है। आजकल की सोसायटी लुक पर आधारित है। ताकि देखने में हैवन सिटी लगें हैवान सिटी नहीं। इसलिए दुकानों के प्रति असहनशीलता पैदा करने की नकली कोशिश की जा रही है। कई लोग मुझसे आकर कहते हैं कि इस पर रिपोर्ट बनाइये। आप अमेरिका तो गए होंगे वहां देखा है कभी। यहां तो कोई अनुशासन ही नहीं है। गेट पर ही दुकानें खुल गई हैं। पार्किंग में प्रॉब्लम होती है। सबकुछ पार्किंग तो नहीं तय करेगी न। मेरा उन्हें यही जवाब होता है कि भाई साहब हम हिन्दी के पत्रकार हैं। मुज़फ्फरनगर और हरिद्वार का ही भ्रमण-विश्लेषण करते रहते हैं। इसलिए न्यूयार्क की ठेलागीरी के बारे में ज़्यादा पता नहीं है।

दुकान हमारे लिए सेक्टर नहीं है। बल्कि घर का हिस्सा है। इसीलिए आप देखेंगे कि जहां भी सोसायटी खुलती है उसी के गेट पर सबसे पहले कपड़े प्रेस करने वाले का स्वागत किया जाता है। सोसायटी की दीवार से झोंपड़ी की छत टिकाकर काम चालू कर देता है। धीरे-धीरे गेट के आस-पास आइसक्रीम की ठेलागाड़ी खड़ी होने लगती है। फिर ठेले पर सब्ज़ी,आम और अमरूद लेकर खड़ा हो जाता है। कई बार सोसायटी के बाहर ठेले पर कालीन वाले लादकर आ जाते हैं। इंतज़ार करते रहते हैं। साइकिल पर झाड़ू,पोछा वाला सामान ले आता है। हर सोसायटी के खंभे में कई दुकानों के नंबर ठोक दिए गए हैं। सोसायटी के बाहर का स्पेस अस्थायी बाज़ार से भर जाता है। इसकी कुछ दुकानें हर दिन बदलती भी रहती हैं। एक दिन कूकर बनाने वाला आया तो एक दिन कंबल बेचने वाला आएगा। कुछ स्थायी होते हैं। जैसे दर्जी, धोबी। सोसायटियों में हर पखवाड़े एक पत्रिका आती है जिसमें सभी दुकानों के नाम,नंबर और तस्वीरें होती हैं। डॉक्टर साहब अपनी क्लिनिक का भी विज्ञापन दे देते हैं। पहले अच्छे डॉक्टर को पूरा इलाका जानता था अब पड़ोसी को ही नहीं मालूम है उनकी खासियत।

इस तरह से देंखे तो रिटेल का भी रिटेलीकरण होने लगा है। हम बड़े-बड़े मॉल से घिर गए हैं। फिर भी लघुतम दुकानों की महिमा अपरंपार बनी हुई है। अच्छा होता अगर हर सोसायटी में कपड़ा प्रेस करने वाले के लिए एक सुंदर सी जगह बना दी जाती। एक छोटी सी दुकान दे दी जाती है। जहां से चाय और साबुन शैम्पू की ज़रूरतें पूरी हो जातीं। आखिर सोसायटी की दरबानी में लगी फौज को भी दैनंदिन मार्केट चाहिए। चाय और चमचम बिस्कुट हेतु। मगर इसकी जगह हो यह रहा है कि कई सोसायटी जहां फ्लैट की संख्या ज्यादा है,अपने सामने के हिस्से को कमर्शियल एरिया में बदल रहे हैं। उनमें बड़ी-बड़ी दुकानें खुल रही हैं। स्पा से लेकर जिम तक। कुछ सोसायटी मिनी मॉल का निर्माण कर रही हैं। शायद इन्होंने भारतीय मानस को कुछ समझा है। कई सोसायटी तो अपनी बाउंड्री लाइन पर एटीएम काउंटर भी खोलने दे रही है। हर सोसायटी में एक मंदिर भी बनने लगा है। पुराना मोहल्ला सिस्टम हाउसिंग सोसायटियों में चुपके-टुपके और चोर दरवाजे से घुसने लगा है। मॉल की अवधारना बिखकर सोसायटी की दीवारों से चिपक रही है।


हाउसिंग सोसायटियों का नियोजन देखें तो एक किस्म का विस्थापन दिखता है। बड़ी-बड़ी सड़कें, अपनी दीवार,अपना गेट। कॉमन के नाम सबकुछ पर्सनल होता जा रहा है। सोसायटी में रहने वाले सिटीजन के अलावा बाकी सबको जबरन ठेल कर दूर किया जाता है। ग़ैर सोसायटी सिटीजन की कार अंदर नहीं आएगी। सोसायटी सिटीज़न की कार के लिए अलग से स्ट्रिकर होता है। आगंतुक के लिए कई नियम बना दिये गए हैं। आने से पहले रजिस्टर पर साइन करो, फिर फोन करो। इससे कुछ सुविधा तो है मगर अजनबीयत का भाव और गहरा कर जाता है। दरबान इस दबाव से मुक्त रहता है कि आने जाने वाले की पहचान करनी है। वो बस रजिस्टर पर आगंतुक के आधू-अधूरे पते और गिचमिच से दस्तखत को देखकर खुश हो लेता है। इन रजिस्टरों का अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि एक किस्म के विरोध और झुंझलाहट में दस्तखत किये गए हैं। बहुत कम लोग हैं जो हर कॉलम में सही या पूरी जानकारी भरते हैं। कई बार तो दरबान से झगड़ा भी करते हैं। अब दरबान तो कोई नहीं कहता। गार्ड ही हो गए हैं दरबान साहब। मेरे बड़े भाई मिलने आए, गेट पर ही झगड़ बैठे। उन्हें अपमान लगा। सोसायटी भले ही उनके और मेरे बीच फर्क करे मगर भाई साहब के लिए तो मेरा घर भी उन्हीं का है और वो अपने घर में आने के लिए पहचान क्यों साबित करें।

यह भी उचित है कि सोसायटी भयंकर असुरक्षा भावों का समुच्य है। सुरक्षा के नियम तो सबके लिए एक से ही बनेंगे। लेकिन रोज़ाना होने वाले झगड़े बताते हैं कि ज्यादतर लोगों को यह व्यवस्था स्वीकार करने में दिक्कत आती है। अब कौन कार से उतरे और रिजस्टर पर साइन करे। गेट पर पहुंच कर लगता है कि दरवाज़ा खुले और लिफ्ट में। दरबानों से पूछिये उन्हें किस तरह से डांट खानी पड़ती है। रजिस्टर सिस्टम बेकार साबित हो रहे हैं। फिर भी लोग इनकी समीक्षा करने से कतराते हैं। इसके बाद भी सोसायटी से माल गायब हो रहे हैं। आखिर सुरक्षा का इंतज़ाम निजी स्तर पर नहीं हो सकता। हमें एक न एक दिन राज्य से पूछना होगा कि आप हमारी सुरक्षा के लिए क्या कर रहे हैं? प्राइवेट पुलिस से खास लाभ नहीं हो रहा है। फ्लैट में चोरियां हो रही हैं। जब तक इन दरबानों के अधिकार स्पष्ट नहीं किये जायेंगे,इनका होना या न होना बराबर है। सुरक्षा चांस की बात है।

इसी ज़रूरत ने सोसायटी के भीतर इंटर कॉम का बाज़ार पैदा कर दिया है। वीडियो इंटरकॉम से लेकर वॉयस इंटरकॉम तक का बाज़ार। हर सोसायटी का अपना परिचय पत्र सिस्टम है जो वहां आने वाली कामवालियों,ड्राइवरों को दिखाना होता है। आप किसी भी सोसायटी में जाए तो रजिस्टर के बगल में ढेरों आई कार्ड दिख जाएगा। कमला,आशा और सुनीता का। कुछ दिनों बाद कामवाली आई कार्ड फेंक कर चली जाती हैं। दरबान देखता भी नहीं। यानी वही पुराना सिस्टम। जब वह पहचानने लगता है तब वह बिना कार्ड की चेकिंग के अंदर आने देता है। मगर हम सारा विकल्प बाज़ार में ढूंढ रहे हैं। समाज में नहीं। जल्दी ही सोसायटी में डिजीटल सिग्नेचर बोर्ड लगने लगेंगे।

दीवाली और न्यू ईयर पार्टी दो ऐसे मौके हैं जहां सब आकर नाच खा जाते हैं। यह कहते हुए कि कम से कम इसी बहाने मिलना जुलना तो हो गया। सब हां हूं करके सहमति दे देते हैं। लेकिन अगले ही दिन सब एक दूसरे को भूल कर अपने अपने फ्लैट में गुम हो जाते हैं। गौर से देखिये तो सोसायटी में इन आशंकाओं की कीमत हम अपनी गाढ़ी कमाई से चुका रहे हैं। साल में हज़ारों रुपये देकर। अच्छा पहलू यह है कि सोसायटी भी रोज़गार पैदा कर रही है। हर हाउसिंग सोसायटी एक फैक्ट्री की तरह लगता है। जहां काम करने हर दिन सैंकड़ों किस्म के लोग आते हैं। ड्राइवर, दरबान, कामवाली, खाना बनानेवाली, बढ़ई, धोबी, केबल वाला आदि-आदि। इनकी बदौलत कुछ पेड़ पौधों की संख्या भी बढ़ गई है। मेरे कहने का मतलब यह है कि हमें हाउसिंग सोसायटी की कुछ खूबियों और पुराने मोहल्ला सिस्टम की कुछ खूबियों को मिलाकर नए सिरे से प्लानिंग करनी चाहिए।

हम भारतीय लोग इस तरह से रहने के अभ्यस्त नहीं हैं। यह सही है कि सोसायटी के सिटीजन एक दूसरे से कम परिचित होते हैं इसलिए असुरक्षा भाव ज्‍यादा होता होगा। पुराने मोहल्ला या शहरी सिस्टम में लोग पड़ोसी के रिश्तेदार तक का नाम और गांव जानते थे। अब तो कोई किसी के घर से सामान लेकर जा रहा हो तो फ्लैट वाले पड़ोसी इस लिहाज़ से नहीं टोकेंगे कि किसी को बुरा न लग जाए। पुराने मोहल्लों में दरबान नहीं होते थे। घर से निकलिए कि बाहर बुढ़ापा काट रहे कोई दादा जी टोक देते थे। कहां से ला रहे हो और किसके घर जा रहे हैं। हमने अजनबीयत का जो संस्कार ज़बरन ओढ़ा है उसके लिए खूब कीमत चुका रहे हैं। सोसायटी में हर महीने डेढ़ से तीन हज़ार का मेंटेनेंस कॉस्ट देकर। अजीब-अजीब वर्दियों वाली निरीह सेना खड़ी करके। इनके ख़ून में यह संस्कार अभी तक आया ही नहीं है कि सोसायटी की रक्षा करते हुए कैसे शहीद हुआ जाए। ज़रा सा धमका दीजिए, तीन हज़ार से भी कम पर काम करने वाला गार्ड आपको रास्ता दे देगा। गार्ड भी क्या करे। हर तीन महीने पर उसे भी तो बदल दिया जाता है।

हम चाहें जितनी सोसायटी बना लें और उनके नाम यूरोपीय रख दें। रॉयल कासल,गार्डेनिया या फिर ड्रीम सिटी। हमारी तबीयत में वह नहीं है जो आर्किटेक्ट अपने नक्शे में खींचता है। इसीलिए आप ग्रेटर नोएडा से गुज़रे तो उसकी प्लानिंग पर दिल आ जाए मगर उस जगह से दिली रिश्ता नहीं बनता है। ज़ाहिर है प्लानिंग में सामाजिकता की बड़ी कमी है। उसमें हमारे रहने के तौर तरीके या संस्कार का समायोजन नहीं है। तभी तो सोसायटी के आदेश से दक्षिण दिल्ली हाउसिंग सोसायटी ने ठेलागीरी को अंदर आने की अनुमति दे दी है। कब तक आप ढोंग करेंगे। यह कहानी सिर्फ दिल्ली की नहीं है। भोपाल,जयपुर,मेरठ हर शहर एक जैसे हो रहे हैं। कुछ दिनों में जयपुर और भोपाल में फर्क नहीं रहेगा। वहां भी गार्डेनिया और यहां भी गार्डेनिया। वहां भी ओमेक्स, डीएलएफ यहां भी ओमेक्स,डीएलएफ। शहर बनता है अपने समाजों के संयोजन से न कि इमारतों के रंगरोगन से।

कौन बनेगा किसान

खेती के उत्पादन संबंध जस के तस है। एक गन्ने के खेत में काम कर रहीं सभी बीस महिलाएं हरिजन थीं। सभी बेगार काम कर रही थीं। नकद मज़दूरी की जगह सभी तीस किलो चारे के लिए गन्ने की कटाई कर रही थीं। आठे घंटे की मज़दूरी की कीमत घास है। खेती के जटिल किस्सों को पंद्रह मिनट में समेटना मुश्किल है लेकिन देखियेगा आज रात साढ़े नौ बजे रवीश की रिपोर्ट। कौन बनेगा किसान। शनिवार रात साढ़े दस बजे विश्व कप के कारण नहीं आएगा। रविवार साढ़े ग्यारह बजे देख सकते हैं।

गांवों का पब्लिक ट्रांसपोर्ट




सहारनपुर गया था। गांवों की सड़कें काफी टूटी हुई मिलीं। रास्ता पूछते-पूछते इस ट्रैक्टर पर नज़र पड़ी। गांवों में स्कूलों ने बच्चों को ढोने के लिए तरह-तरह के जुगाड़ निकाले हैं। ट्रैक्टर की ट्राली में तिरपाल जैसी टिन की छत से ढंक दिया गया है। ट्रॉली बड़ी है। बीच में दोनों तरफ से बैठने के लिए बेंच लगे हैं। किनारे किनारे भी बेंच लगे हैं। बच्चों को बैठे देखा तो विचित्र लगा। खड्डे जैसी सड़कों में जब यह ट्रैक्टर गचक-गचक करता होगा तो काठ की बेंच में बैठे बच्चे भी कूदने लगते होंगे।


वैसे एक बात और ध्यान देने लायक है। इंग्लिश माध्यम पब्लिक स्कूलों को गांवों ने अपने तरीके से अपनाया है। शहरों में जाते होंगे हाई मिडिल क्लास के शहज़ादे टाई पहनकर एयरकंडीशन पीली बस में। स्कूल बसों का रंग पीला ही होने लगा है। दिल्ली में तो एक से एक विशालकाय वोल्वो टाइप की स्कूल बसें दिखती हैं जैसे स्कूल नहीं जयपुर जा रहे हों। गांवों ने भी पीले रंग को अपनाया है। ट्रैक्टर की ट्राली को पीले रंग से रंग दिया गया है और सवार बच्चे टाई लगा कर बैठे हैं। हिन्दुस्तान कम से कम में एडजस्ट करना जानता है। हमी महानगर वाले फालतू में मनी फूंक देते हैं।

गांवों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट का विकास नहीं हुआ। पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बहस शहर की बपौती मान ली गई। इसलिए आज भी गांवों में लोग भैंसा गाड़ी और बैलगाड़ी से चल रहे हैं। कम पैसे वाले स्कूल बस नहीं रख सकते तो तीन चार ट्रैक्टर में ट्रालियां लगाकर ही सौ रुपये महीने के रेट से बच्चों को ढो रहे हैं। स्कूल के काम के बाद ट्रैक्टर खेती के काम आ सकता है। टू इन वन हो गया। बारात भी इसमें जा सकती है।

दिल्ली का मार्कोपोलो

पैंसठ और पैंतालीस लाख वाली डीटीसी की हरी और लाल बसों के मॉडल का नाम है मार्कोपोलो। तेरहवीं सदी का यात्री। इटली से आया था और एशिया घूमते हुए कोरोमंडल के तटीय इलाकों में पहुंचा था। आज मार्को दिल्ली आ जाए तो उसका माथा ख़राब हो जाए। बसों में घूमते हुए दिल्ली की एक अलग संस्कृति का पता चलता है। जो पहले से अलग है और बेहतर भी हुई है। कुछ संस्कृतियां पहले वाली ही चली आ रही हैं। जो डीटीसी हर दिन दस लाख किमी की यात्रा करते हुए तीस लाख यात्रियों को ढोती है उसकी कामयाबी या परेशानी की कोई कहानी नहीं है। ऐसा कैसे हो सकता है? बिना किसी नायक या गाथा के इसकी बसें हर दिन सुबह पांच बजे से लेकर चौबीसों घंटे दिल्ली की सड़कों पर होती हैं। अख़बारों में मेट्रो ही मेट्रो है। मेट्रो की परेशानियां मीडिया द्वारा गढ़ी गई उसकी छवि को भी नहीं तोड़ पाती है। दूसरी तरफ डीटीसी है जो बिना किसी छवि के ही चली जा रही है।

आपने देखा होगा कि मेट्रो से जुड़ी सभी बड़ी और सुखद ख़बरें ज्यादातर अंग्रेज़ी अखबारों में आती हैं। टेलीविजन के पत्रकारों को मेट्रो में झांकने का मौका तभी मिलता है जब कहीं से कहीं की मेट्रो को झंडा दिखाया जाता है। मेट्रो ने जानबूझ कर टीवी को दिल्ली में बन रही इस आधुनिक लोक संस्कृति से दूर रखा है। मैंने भी कई बार कोशिश की। कई महीनों तक। जवाब यही मिलता है कि सुरक्षा के कारण मेट्रो में कैमरे की अनुमति नहीं है। वैसे अंग्रेजी के कुछ अत्यंत बड़े संपादकों के साथ श्रीधरण जी अपने टनल में बतियाते मिल जाते हैं। पा फिल्म की शूटिंग में मेट्रो को भीतर से देख लेने से कोई खतरा नहीं पैदा हुआ। मगर टीवी रिपोर्टर के लिए अजीब-अजीब दलीले हैं। वो शायद इसलिए इन बौराये और उत्साही रिपोर्टरों को साधना मुश्किल है। वो जो दिखेगा वैसा दिखा देंगे। ये तो भला हो उस टेक्निकल स्नैग का जिसके कारण थोड़ी बहुत मेट्रो की आलोचना हो जाती है। वैसे आलोचना भी नहीं होती है। मेट्रो के प्रेस मैनेजमेंट ने बहुत चालाकी से एक छवि बनाई है।

मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि मेट्रो के आने जाने का दिल्ली को कोई लाभ नहीं है। मेट्रो आठ साल से चल रही है। रोज़ाना दस लाख यात्री ही ढो पाती है। चालीस हजार करोड़ से ज्यादा का निवेश किया गया। इससे दशांश भी डीटीसी में निवेश नहीं हुआ। फिर भी डीटीसी आज मेट्रो से तीन गुना ज़्यादा यात्रियों को ढोती है। डीटीसी के कर्मचारी और अधिकारी शिकायत करते मिले कि कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान दो महीने तक घर नहीं गए। हमारी एफिशियेंसी सौ फीसदी रही। एक भी बस का ब्रेक डाउन नहीं हुआ। हमने बस के पीछे बस लगा रखे थे। विदेशी यात्रियों ने हमारे बारे में इतनी अच्छी बातें लिखीं हैं मगर हमारा किसी ने ज़िक्र तक नहीं किया।

मेट्रो में जिस तरह छवियों को लेकर नियंत्रण का जुनून है डीटीसी में नहीं है। चेयरमैन नरेश कुमार के इंटरव्यू के बाद भी अधिकारी बेखौफ अपने दिल की बात बोलते रहे। डीटीसी के लोगों ने सबसे पहले अपनी कमियों को ही दिखाया और माना। कहा कि हम सुधर रहे हैं। जल्दी ही हम मुनाफे में आने वाले हैं। डीटीसी की डेमोक्रेसी मुझे मेट्रो के छवि नियंत्रण से बेहतर लगी। किसी ने मुझे मैनेज करने की कोशिश नहीं की। बल्कि नरेश कुमार ने फोन कर कहा जो भी फीड बैक मिला है, मुझे बतायेंगे। मैंने कहा कि ड्राईवरों के रहने का कमरा बहुत ख़राब है। उसे ठीक कर दीजिए। उन्होंने कहा कि हम कर देंगे। लोगों ने कितनी गाली दी ये भी बता दीजिए।

मेरा फोकस इस पर नहीं है कि डीटीसी देर से आती है या नहीं आती है। मेरा फोकस इस बात पर है कि बत्तीस हज़ार से अधिक कर्मचारियों का यह महकमा चलता कैसे हैं। बिना किसी श्रीधरण साहब जैसे कद्दावर शख्सियत के। नरेश कुमार ने कुछ श्रेय ही लेने की कोशिश नहीं की। ऐसे इंटरव्यू दिया जैसे आप मुझसे क्यों पूछ रहे हैं। ड्राईवरों से ही बात कर लीजिए। अब मैं क्या कह सकता हूं। सबका सहयोग है चल रहा है। बस दो तीन महीने में हम घाटे से उबर जायेंगे। एक डेढ़ साल पहले डीटीसी चालीस रुपये प्रति किमी के घाटे में चल रही थी अब यह घाटा कम हो कर पांच सात रुपये प्रति किमी रह गया है। डीटीसी में हर दिन हर बस के चलने, ईंधन की खपत, यात्रियों की संख्या और कमाई का हिसाब लिखा जाता है। अगले दिन आपको पूरा डिटेल मिल जाएगा कि कितने लोगों ने सफर की और बस ने फेरे लगाने में कितनी चूक की।

डीटीसी के नंबरों की शुरूआत छब्बीस से शुरू होती है। चार सौ बीस नंबर की बस नहीं है लेकिन सौ नंबर की है। मुद्रीका का एक फेरा एक सौ दस किमी का होता है। ज्यादातर ड्राईवर बिना ब्रेक के इसे साढ़े पांच घंटे में पूरी करते हैं। उसके बाद छुट्टी। डीटीसी का दावा है कि मुद्रीका का अधिकतम किराया पंद्रह रूपये है। एक सौ दस किमी इतने सस्ते में कहीं नहीं जा सकते। मुद्रीका रिंग सेवा को कहते हैं। यह भी पता चला कि डीटीसी के ज़्यादतर ड्राईवरों के नाम अनिल, सुनील और राजेश हैं। एक से बेवकूफी भरा सवाल किया तो सही जवाब दिया मुझे। राहुल गांधी नाम होता तो कांग्रेस के अध्यक्ष न बन जाते। ड्राईवरी नहीं करनी पड़ती।

यह भी पता चला कि डीटीसी में ढाई हज़ार पुरानी बसें हैं। जिनकी बुक वैल्यू ज़ीरो है। मगर वो भी ढुलाई और कमाई में पैंतालीस और पैंसठ लाख की बसों से कम नहीं हैं। कुछ राजनीति रूट भी हैं जो नेताओं के दबाव में चलाईं गईं हैं। इनमें काफी घाटा है। प्राइवेट बस वाले अपने स्टाफ बिठा देते हैं डीटीसी की बसों में ताकि डीटीसी को कम यात्री मिले। बेटिकट यात्रियों का अलग सामाजिक अध्ययन किया जा सकता है। लड़के और लड़कियां दोनों ही टिकट न लेने में माहिर हैं। टिकट चेक करने वालों के साथ पकड़े जाने पर किये जाने वाले बहानों के किस्से सुन कर खूब मजा आया। कोशिश यही है कि हम एक संगठन को भीतर से देख सकें कि वो कैसे पिछले तिरेसठ सालों से दिल्ली की जीवन रेखा है। इसी डीटीसी को समझने की कोशिश की है इस बार रवीश की रिपोर्ट में। देखियेगा। FRI-9:30PM, SAT-10:30AM, 10:30PM, SUNDAY-11:30PM, MONDAY-11:30AM

चित्रा..अंग..अदा..ये साली..ज़िंदगी

निर्देशक अपनी नज़र से फिल्म बनाता है और दर्शक अपनी नज़र से देखता है। इस फिल्म को देखते वक्त यही लगा कि सुधीर मिश्रा तमाम किस्सों में उस लड़की के सौंदर्य की कसक को पाने या उभारने की कोशिश कर रहे हैं जो इसकी नायिका है। उनका कैमरा हर बार उस लड़की को ढूंढ लाता है जिसका नाम प्रीति है। गोवा से दिल्ली ले आता है। वो चित्रांगदा की कशिश में फंसे नज़र आते हैं। हर तरह के हालात में कैमरे ने उसकी खूबसूरती का मोह नहीं छोड़ा है। बहुत तराशी हुई नज़र से कैमरा उसकी दिलफेंक अदाओं पर नज़रे लुटाता है। वो अपनी बेबसियों और बदमाशियों के बीच सेक्स के सामान की तरह भीतर से खोखली मगर बाहर से एक ज़िंदादिल लड़की कहानी को ढोती नज़र आती है। किरदार उसे पा लेना चाहते हैं। भोग लेना चाहते हैं। इसलिए वो आखिर तक संबंधों से आज़ाद नज़र आती है। बंधती नहीं है। खुलती जाती है। एक अच्छी अदाकारा हैं चित्रांगदा। निर्देशक ने बड़े हुनर से तमाम तरह की अंधेरी गुफाओं में ले जा कर भी चित्रांगदा को बेदाग़ निकाल लिया है। उससे नफ़रत पैदा नहीं होती। लगाव भी पैदा नहीं होता। बस उसकी ख़ूबसूरती एक कहानी की तरह फिल्म में घूम रही है। आज़ाद कहानी की तरह।

तिहाड़ जेल,जामा मस्जिद,पुरानी दिल्ली और पुराना क़िला। बाहरी दिल्ली की उन बची हुई पहाड़ियों में जहां आए दिन गोरखधंधा चलता रहता है। विस्तार के दौर में दिल्ली में किसी एक राजनेता पर सवाल खड़े नहीं किये गए। जैसे बिहार में लालू और यूपी में मुलायम,मायावती और हरियाणा में चौटाला या हुड्डा के साथ हुआ। दिल्ली में यह खेल राजनीतिक आरोपों से दूर चुपचाप खेला गया। सुधीर मिश्रा के तमाम प्लॉट ने इसे उधेड़ने की कोशिश की है। जगह-जगह पर कब्ज़े हुए। किसी नेता या दल को सज़ा नहीं मिली। सुधीर मिश्रा ने कम से कम दिल्ली को रोमांस कथा में नहीं बदलने दिया। बस जामा मस्जिद के ऊपर उड़ते कबूतरों और दीवार फांदते लफंगों से अनजाने में एक छवि बन गई है। दिल्ली छह की उसी पुरानी छवि को चुपके से मज़बूत कर जाती है जिसके बारे में वहमी लोग दबी ज़ुबान में बातें करते हैं। वैसे दुनिया में कोई जगह पवित्र नहीं होती। हर तरह के किस्से होते ही हैं। गनीमत है कि सुधीर मिश्रा ने किसी मुस्लिम किरदार को नहीं चुना। कुलदीप पुरानी दिल्ली का बाशिंदा है।

यहां वो एक नई छवि भी देने की कोशिश करते हैं मगर कहीं न कहीं कुलदीप बाहरी ही लगता है। जबकि पुरानी दिल्ली में जितने हिन्दू है उतने ही मुसलमान भी। गज़ब की साझा ज़िंदगी है वहां। यहां आप घर से निकले नहीं कि पचास लोगों की निगाहें उठ जाती हैं मगर सुधीर का कुलदीप आता-जाता रहता है और किसी की नज़र नहीं पड़ती है। निर्देशक थोड़ी सी और डिटेलिंग कर लेते तो अच्छा रहता। कुलदीप को मुनिरका में होना चाहिए था। पुरानी दिल्ली की छतों से कोई लटक कर बंदूक ताने रहेगा और किसी की नज़र नहीं पड़ेगी हो नहीं सकता। आज कल के निर्देशक भी बेवकूफियां करते हैं। हां छतों का रास्ते की तरह इस्तमाल करना अच्छा लगा। उस पुरानी दिल्ली के सेट अप में कुलदीप की पत्नी की पीठ सहलाते कैमरे से पूछने का मन किया कि कभी देखा है रे ऐसा वहां। इतना खुलेआम। ठीक है निर्देशक की अपनी मर्ज़ी। आंखें जहां गड़ जाए। एक बेबस लड़की को ख़ूबसूरत बनाने का खेल सामंती ही है। उसकी बेचारगी लिप्स्टिक की तरह लाल लगती है। लैपटॉप वाले गुंडे बदमाशों को दिखा कर भी ठीक किया। आज कल के गुंडे फ्लैट बेचते हैं। ईमेल से ग़ायब होने की बात करते हैं। पुराना मारवाड़ी भी खत्म नहीं हुआ है।

इरफान का स्टारडम उनका अभिनय है। वो चॉकलेटी नहीं हैं। सलेटी हैं। कुलदीप का अभिनय भी अच्छा है। बहुत सारे प्लाट्स ने फिल्म को बेहतर ही किया है। दिल्ली के बारे में नई समझ पैदा करती है। किस्सा कहने का अंदाज़ बहुत अच्छा है। फिल्म हर मोड़ पर कोई अचरज लिए खड़ी रहती है। चौंकाती है। कुछ भी तय नहीं लगता। बस चित्रा-अंग-अदा का मोह निश्चित लगता है। निर्देशक उसकी खूबसूरती को अंत में पकड़ ही लेता है। जब चित्रांगदा इरफ़ान से कहती है होल्ड मी।

देहात का देहान्त

दिल्ली के गांवों में भटक रहा था। बवाना, बुराड़ी, अलीपुर, सिरसपुर, कंझावला, कादीपुर,समालका,बापरौला इत्यादि ग्रामीण इलाकों में शहर को देख रहा था। आपको यह न लगे कि किसी एक इलाके में घूम कर आ गया इसलिए ज़्यादातर का नाम लिख दे रहा हूं। इन इलाकों में घूमते हुए नीतीश पूर्व बिहार के सड़कों की याद आ गई। दिल्ली में दो तरह के देहात हैं। एक ग्रामीण देहात और दूसरा शहरी देहात। कादीपुर बिल्कुल ग्रामीण देहात है। मुनीरका शहरी देहात है। कहते हैं दिल्ली में तीन सौ साठ गांव हैं। उनकी बड़ी ताक़त है। बीस से ज़्यादा विधायक इन इलाकों से चुन कर आते हैं। जब आप इन इलाकों का दौरा करेंगे तो पता चलेगा कि तीन सौ साठ गांवों की कोई औकात नहीं है। सरकार की कोई सुविधा ठीक से इन इलाकों में नहीं पहुंची है। बस समस्याएं अब शहरों वाली हो गईं हैं।

नज़फ़गढ़ से नांगलोई की सड़क सीवर डलने के नाम पर महीनों से बन रही है। गड्ढे इतने गहरे हैं कि गाड़ियां चलते ही टूटने लगती हैं और हड्डियां चटकने लगती हैं। कहीं पर भी सड़क नहीं है। लोग अपने पैसे से सड़कें बनवा रहे हैं। भलस्वा-स्वरुपनगर की सड़क पर चलने वाले ऑटो वाले सौ-सौ रुपये चंदा कर मलबा डलवाते हैं ताकि सड़क चलने लायक हो सके। सिरसपुर गांव में एक गोदाम के मैनेजर मिले लक्ष्मीकांत शुक्ला। बताया कि तीस हज़ार रुपये खर्च कर सामने की नाली भरवा रहा हूं। सभी ने इसी तरह से पैसे खर्च कर मलबे डाले हैं ताकि कीचड़ रहित ऊबड़-खाबड़ सड़क का लाभ उठा सकें। अजीब दौर है। जो काम सरकार का है वो काम लोग कर रहे हैं। बात बात में खाप करने वाले गांव के इन लोगों को भी नहीं लगता कि दिल्ली के गांवों में सड़क मुद्दा है। कंझावाला गांव के लोग रोने लगे। कहा कि घर में धूल भर आती है। रोटी नहीं खा पाते। फेफड़े की बीमारी हो जाती है। कॉलेज के लड़कों ने कहा कि घर से नहा कर निकलते हैं लेकिन जब पहुंचते हैं तो लड़कियों को लगता है कि नहा कर नहीं आया। पूरा कपड़ा और सर धूल से भर जाता है। कांग्रेस के विधायक चुप रहते हैं क्योंकि वे शीला दीक्षित के ख़िलाफ नहीं बोल सकते। बीजेपी के विधायकों को संघ ने खत्म कर दिया। उन्हें हिन्दुवाद से अलग कुछ मुद्दा नज़र नहीं आता। कीर्तन करने वाली पार्टी बन कर रह गई है। कांग्रेस निरकुंश हो चुकी है। वामपंथी दलों का पता नहीं चलता। वो लेख लिखने में माहिर हो चुके हैं।

ख़ैर आप इस दिल्ली को देखियेगा। हम सबकी अपनी-अपनी दिल्ली होती है। मीडिया की बनाई दिल्ली शानदार शहर है। मेरी दिल्ली प्रवासियों और मूल बाशिंदों के तक़लीफ़ों वाली दिल्ली है। सत्ता और पैसे वाले लोगों की दिल्ली में कोई समस्या नहीं है। उन्हीं की दिल्ली का जश्न चारों तरह नज़र आता है। तीन सौ साठ गांवों की तस्वीर हुड़दंग के संदर्भ में ही दिखाई जाती है। रवीश की रिपोर्ट देखियेगा। आज रात साढ़े नौ बजे। शनिवार सुबह साढ़े दस बजे और रात साढ़े दस बजे। इन तीनों वक्त न देख पायें तो रविवार रात साढ़े ग्यारह बजे देख सकते हैं। अब यह मत कहियेगा कि मैं दिल्ली में ही क्यों फंसा हूं। डेढ़ दिन में ज्यादा दूर नहीं जा सकता। मैंने दो करोड़ लोगों की दिल्ली को ही अपना राज्य मान लिया है। मेरी नज़र से इसमें कोई बुराई नहीं है। हम जहां हैं वहीं अगर ठीक से देखें तो बात आगे बढ़ती रहेगी। बाकी आपकी आलोचनाओं को भी स्वीकार करता हूं। उसमें भी काफी दम है कि सिर्फ दिल्ली ही क्यों?

फेसबुक्रांति

फेसबुक,ट्विटर,ब्लॉग,यू ट्यूब को अनर्गल सोशल मीडिया बता कर खारिज करने वाले जानकारों को एक बार फिर से अपनी समझ के गिरेबां में झांक लेना चाहिए। खाली वक्त में किसी फालतूपने की अभिव्यक्तियों का माध्यम नहीं है सोशल मीडिया। यह एक एक व्यक्ति के मन का एक ऐसे नेटवर्क की दुनिया में विस्तार है जहां कई मन जुड़ जाए तो देश में सियासी बवाल खड़ा हो सकता है। मीडिया पर नियंत्रण के ज़रिये सत्ता सुख भोगने की आदी सरकारों को सोशल मीडिया के ये खुदरा क्रांतिकारी गंभीर चुनौती दे रहे हैं।

मिस्र में होस्नी मुबारक के ख़िलाफ आंदोलन को हवा देने में फेसबुक,ट्विटर,मोबाइल फोन और यू ट्यूब का बड़ी भूमिका सामने आ रही है। लोग महंगाई से तड़प रहे हैं, सरकार भ्रष्टाचार में डूबी है, मुख्यधारा की मीडिया सत्ता से सांठगांठ कर शांत तो जनता क्या करती। वो सोशल मीडिया के ज़रिये आपस में बात करने लगी। होस्नी मुबारक के सलाहकार इस ताकत को तब तक नहीं समझ पाए जब तक ट्यूनिशिया से चली आंधी उनके महल को उखाड़ने न आ पहुंची। फेसबुकियों ने अपनी आलोचनाओं से ऐसी हवा खड़ी कर दी कि हज़ारों लाखों लोग तहरीर स्कावयर की तरफ निकल पड़े। मिस्र के एक प्रसिद्ध ब्लॉगर अब्बास को सरकार ने गिरफ्तार भी कर लिया। अब्बास ने भी आश्चर्य व्यक्त किया कि इतने प्रदर्शनकारी तो कभी देखे ही नहीं। मुबारक विरोधी एक फेसबुक समूह से तो नब्बे हज़ार लोग जुड़ गए। इतनी बड़ी संख्या तो आज किसी नेता की सभा में नहीं होती है। पैसे देकर भी लोग लाए जाएं तब भी इतनी भीड़ नहीं आएगी।

अभी तक हम यही समझते रहे हैं कि लोग फेसबुक पर चैट करने वक्त अपने एकाकीपन की बोरियत को खाली कर रहे हैं। ब्लॉगर आत्ममुग्धता का शिकार है। ट्विटर करने वाला बेकार है। सिर्फ इस बात से खुश होना चाहता है कि वह अमुक फिल्म स्टार के ब्लॉग या ट्विटर से जुड़ा है। हिन्दुस्तान में ही लोग महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। राजनीतिक दलों से उनका विश्वास उठ रहा है तो वो आपस में बात कर रहे हैं। दलों के प्रवक्ता प्रेस कांफ्रेंस में एक दूसरे के बयानों की धज्जियां उड़ाकर खुश हैं। ठीक है कि हिन्दुस्तान में करीब सात करोड़ लोग ही इंटरनेट का इस्तमाल करते हैं। इस सात करोड़ में से ज्यादातर मुंबई,दिल्ली और हैदराबाद जैसे कोई दस महानगरों में ही रहते हैं। फिर भी इनकी ताकत को अनदेखा करना किसी राजनीतिक मूर्खता से कम नहीं है। मैसूर में रामसेने के खिलाफ दिल्ली की एक लड़की ने फेसबुक पर पिंक चड्ढी कैंपने चलाकर अच्छा खासा आंदोलन खड़ा कर दिया था। आज भी फेसबुक पर कई तरह के ग्रुप बने हुए हैं जिनसे हज़ारों लोग जुड़े हुए हैं। ये सभी अल्पकालिक आंदोलनकारी कभी भी पूर्णकालीक आंदोलनकारी में बदल सकते हैं।

आखिर लोग कहां जाए। न्यूज़ चैनलों से आम लोग ग़ायब हैं। कुछ बड़े लोगों के आस-पास ख़बरें घूम रही हैं। उनके इस्तीफा देने या खंडन कर देने भर से पत्रकारिता का महिमामंडन हो जाता है। हिन्दुस्तान में न सही काहिरा और ट्यूनिशिया में उसे एक नया मंच मिल गया है। इसकी ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मिस्र में फेसबुक, ट्विटर, न्यूज साइट पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कई क्षेत्रों में मोबाइल सेवाएं बंद कर दी गईं। इससे यह धारणा भी बदल जानी चाहिए कि आंदोलन के लिए राजनीतिक दल या नेता को होना ज़रूरी है। कम से कम ट्यूनिशिया या मिस्र में घोषित तौर पर ऐसा नहीं दिखता। लोग अपनी रोज़मर्रा की दिक्कतों से इतने आज़ि़ज आ चुके हैं कि ट्युनिशिया के दक्षिणपंथी इस्लामी संगठन के पीछे खड़े हो गए। मगर जब विपक्षी दल के नेता देश लौटे हैं तो ऐसे भी नारे लगे कि हमें मज़हब के नाम पर बेतुके कानून नहीं चाहिए।

सबक यह है कि सरकारें प्रेस खरीदने या निंयत्रित करने की कोशिश न करें। लोगों के हाथ में सोशल मीडिया नाम का अस्त्र हाथ लग गया है। ट्यूनिशिया में ही कई ब्लॉगर, नेट आंदोलनकारी जगह-जगह से सूचनाएं और वीडियो अपलोड कर रहे थे। जब तक सरकार उन तक पहुंचती, वे सभी किसी और छद्म नाम से और अधिक लोगों तक पहुंच चुकी होती थीं। सरकारी सेंशरशिप का जवाब मिल चुका है। इंटरनेट तकनीकी की भाषा में इसे साइबरसबवर्ज़न कहते हैं। मतलब आप मेन रोड से नहीं जाने देंगे तो हम गली कूचों से निकल कर गंतव्य तक पहुंच जायेंगे। किसे पता था कि तानाशाहों के मुल्क में सोशल मीडिया लोकतंत्र कायम करने का हथियार बन जाएगा।

इन्हें प्रतिबंधित करने का रास्ता और जोखिम भरा है। ईरान और पाकिस्तान ने भी फेसबुक और यू ट्यूब पर बैन लगा कर देख लिया है। सीरिया में भी फेसबुक के चैट पर रोक लगाई जा चुकी है। चीन में नेट नेशनलिस्ट से सरकार को भी डर लगने लगा है। चीन की विदेश नीति का हिस्सा बनता जा रहा है कि किसी फैसले का इंटरनेट से जुड़े समूह किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे। सरकारों को यह समझ लेना चाहिए कि उनके फैसले से आम जनता के बीच बढ़ने वाली खाई किसी भी मंच को राजनीतिक बना सकती है। वो अगर सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने की तैयारी में जुटेंगी तो लोग कोई और रास्ता ढूंढ लेंगे। ग्लोबल जगत की पैदाइश ये सोशल मीडिया तथाकथित उदारीकरण से जन्म ले रही असामनताओं को आवाज़ दे रही हैं।