गांवों का पब्लिक ट्रांसपोर्ट




सहारनपुर गया था। गांवों की सड़कें काफी टूटी हुई मिलीं। रास्ता पूछते-पूछते इस ट्रैक्टर पर नज़र पड़ी। गांवों में स्कूलों ने बच्चों को ढोने के लिए तरह-तरह के जुगाड़ निकाले हैं। ट्रैक्टर की ट्राली में तिरपाल जैसी टिन की छत से ढंक दिया गया है। ट्रॉली बड़ी है। बीच में दोनों तरफ से बैठने के लिए बेंच लगे हैं। किनारे किनारे भी बेंच लगे हैं। बच्चों को बैठे देखा तो विचित्र लगा। खड्डे जैसी सड़कों में जब यह ट्रैक्टर गचक-गचक करता होगा तो काठ की बेंच में बैठे बच्चे भी कूदने लगते होंगे।


वैसे एक बात और ध्यान देने लायक है। इंग्लिश माध्यम पब्लिक स्कूलों को गांवों ने अपने तरीके से अपनाया है। शहरों में जाते होंगे हाई मिडिल क्लास के शहज़ादे टाई पहनकर एयरकंडीशन पीली बस में। स्कूल बसों का रंग पीला ही होने लगा है। दिल्ली में तो एक से एक विशालकाय वोल्वो टाइप की स्कूल बसें दिखती हैं जैसे स्कूल नहीं जयपुर जा रहे हों। गांवों ने भी पीले रंग को अपनाया है। ट्रैक्टर की ट्राली को पीले रंग से रंग दिया गया है और सवार बच्चे टाई लगा कर बैठे हैं। हिन्दुस्तान कम से कम में एडजस्ट करना जानता है। हमी महानगर वाले फालतू में मनी फूंक देते हैं।

गांवों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट का विकास नहीं हुआ। पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बहस शहर की बपौती मान ली गई। इसलिए आज भी गांवों में लोग भैंसा गाड़ी और बैलगाड़ी से चल रहे हैं। कम पैसे वाले स्कूल बस नहीं रख सकते तो तीन चार ट्रैक्टर में ट्रालियां लगाकर ही सौ रुपये महीने के रेट से बच्चों को ढो रहे हैं। स्कूल के काम के बाद ट्रैक्टर खेती के काम आ सकता है। टू इन वन हो गया। बारात भी इसमें जा सकती है।

19 comments:

Udan Tashtari said...

हिन्दुस्तान कम से कम में एडजस्ट करना जानता है। हमी महानगर वाले फालतू में मनी फूंक देते हैं।


-महानगर अब हिन्दुस्तान कहाँ बचे सिर्फ इण्डिया शाईनिंग में इस्तेमाल आने के सिवाय.

नीरज मुसाफ़िर said...

रवीश जी, आप नहीं बैठे क्या इसमें?
क्या कहा? भीड ज्यादा थी? अजी सब एडजस्ट हो जाता है। भारत आज भी गांवों में बसता है।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

जो भी हो ...जिंदगी रुकनी नहीं चाहिए....... हर हाल में जीने का ज़ज्बा

विजय सिंह said...

jugaad keval nkaratmk sanskriti nhi hai balki jijiwisha hai jindgi jine ki ,wah bhi sadbhawna aur sahbhawna bhari. n jaane kitne yudho koe baad hmne ise paya ho....

Rahul Singh said...

गाड़ी का नंबर बचा लिया आपने, वरना ...

संतोष कुमार said...

बड़ा रोचक पोस्ट है. बिलकुल सही कहा आपने गावों में पब्लिक ट्रांसपोट की कोई सुचारू वव्यास्था नहीं है.

ऐसे भी हम भारतीय "जुगाड़ तकनीक " में आव्वल है.

ZEAL said...

.

हिंदुस्तान का दिल बस्ता है गावों में । गर्व है मुझे उन सभी भारतवासियों पर जो अभावों और कष्टों में रहते हुए भी मुस्कुराकर जीने का विकल्प निकाल लेते हैं ।

मुझे विश्वास है हमारे देश के नौनिहाल , कठिन परिस्थियों में भी अपना मार्ग बनाना सीखेंगे और देश का नाम रौशन करेंगे ।

हमारे पूर्व प्रधानमन्त्री 'श्री लाल बहादुर शास्त्री ' तो नदी तैर कर जाते थे स्कूल , शिक्षा ग्रहण करने।

.

Anonymous said...

Ravish ji aapki is post ko apne Facebook wall pe sajha kar raha hun. vinaamra nivedan.

सतीश पंचम said...

मैं इस तरह की ट्राली में एक दो बार बैठ चुका हूं....मजबूरीवश नहीं बल्कि इसका आनंद लेने के लिये कि देखूं कैसा लगता है।

बारात में जाते वक्त जब यह ट्रक्टर टुक टुक करते हुए खेतों के बीच से गुजरता है तो यूं लगता है कि किसी फिल्म की शूटिंग चल रही है......हिचकोले खाते वक्त अक्सर मुंह से कुछ गंवईं ठसक वाली बोली निकलती है......कुछ कुछ छिनरी बुजरी टाईप.....और दुपहरीया में जब लौटानी बेला बारात का सामान ढोकर इस ट्रैक्टर पर लाया जाता है तो जो बंदा धूप में इस ट्रॉली में बैठता हो उसे ओवन कुक्ड माहौल का अच्छा खासा अनुभव मिलता है....जरा सा ट्राली का गर्म लोहा छुआ नहीं कि फिर वही छिनरी ...बुजरी :)

अब तो इस तरह के ट्रॉली में दुपहरीया बेला बैठने की मेरी हिम्मत नहीं है.....आनंद गया तेलिहर क्षेत्रे :)

जिससे दुश्मनी हो उसे दुपहरीया के समय कह देना चाहिये....जरा उस ओपन ट्रॉली में बैठकर दिखाओ तो.....देखूं कैसे लगते हो...और तभी फोटूआ खिंचना चाहिये....खिचिक :)

सम्वेदना के स्वर said...

रवीश भाई!
आपके आत्मकथ्य में, "कमैंटबाज" जुमला बहुत पंसद आया! इसके जुमला हूकूक क्या हमें मिल सकते हैं?

खैर! आपकी यह यात्रायें "जायका भारत का" सरीखी लगतीं हैं। कुछ लोग देश के लिये खातें हैं, तो कुछ लोग देश के लिये घूमतें हैं। बढिया है रवीश बाबू!!

Atul Shrivastava said...

यातायात नियमों में मालवाहक गाडियों में सवारी ढोना अपराध है, लेकिन क्‍या करे सरकार भी जब भी किसी मंत्री या नेता की सभा होती है, इन्‍हीं गाडियों में गांवो की जनता को 'लादकर' लाया जाता है। अब कार्रवाई कौन करे।
रवीश जी आपने अच्‍छी तस्‍वीर पेश की।

vijai Rajbali Mathur said...

गाँव की सड़कों के मुताबिक ही प्रबंध किया गया है.कम से कम बच्चों को स्कूल जाने का साधन तो मिल गया.vyavastha ke liye sharm kee baat hai.

प्रवीण पाण्डेय said...

किसने कहा कि जुगाड़ में हम किसी से कम है। सब पढ़ेंगे, खेती भी होगी और शादी भी।

अन्तर सोहिल said...

चलो,
बच्चे स्कूल तो पहुँच जाते हैं।

प्रणाम

Harshvardhan said...

भारत गावो में बसताहै सर.......इस हफ्ते रवीश की रिपोर्ट में क्या
इस हफ्ते यही दिखा रहे है?

Satish Chandra Satyarthi said...

स्कूल चलें हम :) :)

ritvija dixit said...

hi i love ur blog, me n my husband are great fan of urs, thanks for makin news worth watchin

Unknown said...

This reminds me of our former president Kalam sahib,great men are not made in BMW.

Unknown said...

This reminds me of our former president Kalam sahib,great men are not made in BMW.