पैंसठ और पैंतालीस लाख वाली डीटीसी की हरी और लाल बसों के मॉडल का नाम है मार्कोपोलो। तेरहवीं सदी का यात्री। इटली से आया था और एशिया घूमते हुए कोरोमंडल के तटीय इलाकों में पहुंचा था। आज मार्को दिल्ली आ जाए तो उसका माथा ख़राब हो जाए। बसों में घूमते हुए दिल्ली की एक अलग संस्कृति का पता चलता है। जो पहले से अलग है और बेहतर भी हुई है। कुछ संस्कृतियां पहले वाली ही चली आ रही हैं। जो डीटीसी हर दिन दस लाख किमी की यात्रा करते हुए तीस लाख यात्रियों को ढोती है उसकी कामयाबी या परेशानी की कोई कहानी नहीं है। ऐसा कैसे हो सकता है? बिना किसी नायक या गाथा के इसकी बसें हर दिन सुबह पांच बजे से लेकर चौबीसों घंटे दिल्ली की सड़कों पर होती हैं। अख़बारों में मेट्रो ही मेट्रो है। मेट्रो की परेशानियां मीडिया द्वारा गढ़ी गई उसकी छवि को भी नहीं तोड़ पाती है। दूसरी तरफ डीटीसी है जो बिना किसी छवि के ही चली जा रही है।
आपने देखा होगा कि मेट्रो से जुड़ी सभी बड़ी और सुखद ख़बरें ज्यादातर अंग्रेज़ी अखबारों में आती हैं। टेलीविजन के पत्रकारों को मेट्रो में झांकने का मौका तभी मिलता है जब कहीं से कहीं की मेट्रो को झंडा दिखाया जाता है। मेट्रो ने जानबूझ कर टीवी को दिल्ली में बन रही इस आधुनिक लोक संस्कृति से दूर रखा है। मैंने भी कई बार कोशिश की। कई महीनों तक। जवाब यही मिलता है कि सुरक्षा के कारण मेट्रो में कैमरे की अनुमति नहीं है। वैसे अंग्रेजी के कुछ अत्यंत बड़े संपादकों के साथ श्रीधरण जी अपने टनल में बतियाते मिल जाते हैं। पा फिल्म की शूटिंग में मेट्रो को भीतर से देख लेने से कोई खतरा नहीं पैदा हुआ। मगर टीवी रिपोर्टर के लिए अजीब-अजीब दलीले हैं। वो शायद इसलिए इन बौराये और उत्साही रिपोर्टरों को साधना मुश्किल है। वो जो दिखेगा वैसा दिखा देंगे। ये तो भला हो उस टेक्निकल स्नैग का जिसके कारण थोड़ी बहुत मेट्रो की आलोचना हो जाती है। वैसे आलोचना भी नहीं होती है। मेट्रो के प्रेस मैनेजमेंट ने बहुत चालाकी से एक छवि बनाई है।
मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि मेट्रो के आने जाने का दिल्ली को कोई लाभ नहीं है। मेट्रो आठ साल से चल रही है। रोज़ाना दस लाख यात्री ही ढो पाती है। चालीस हजार करोड़ से ज्यादा का निवेश किया गया। इससे दशांश भी डीटीसी में निवेश नहीं हुआ। फिर भी डीटीसी आज मेट्रो से तीन गुना ज़्यादा यात्रियों को ढोती है। डीटीसी के कर्मचारी और अधिकारी शिकायत करते मिले कि कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान दो महीने तक घर नहीं गए। हमारी एफिशियेंसी सौ फीसदी रही। एक भी बस का ब्रेक डाउन नहीं हुआ। हमने बस के पीछे बस लगा रखे थे। विदेशी यात्रियों ने हमारे बारे में इतनी अच्छी बातें लिखीं हैं मगर हमारा किसी ने ज़िक्र तक नहीं किया।
मेट्रो में जिस तरह छवियों को लेकर नियंत्रण का जुनून है डीटीसी में नहीं है। चेयरमैन नरेश कुमार के इंटरव्यू के बाद भी अधिकारी बेखौफ अपने दिल की बात बोलते रहे। डीटीसी के लोगों ने सबसे पहले अपनी कमियों को ही दिखाया और माना। कहा कि हम सुधर रहे हैं। जल्दी ही हम मुनाफे में आने वाले हैं। डीटीसी की डेमोक्रेसी मुझे मेट्रो के छवि नियंत्रण से बेहतर लगी। किसी ने मुझे मैनेज करने की कोशिश नहीं की। बल्कि नरेश कुमार ने फोन कर कहा जो भी फीड बैक मिला है, मुझे बतायेंगे। मैंने कहा कि ड्राईवरों के रहने का कमरा बहुत ख़राब है। उसे ठीक कर दीजिए। उन्होंने कहा कि हम कर देंगे। लोगों ने कितनी गाली दी ये भी बता दीजिए।
मेरा फोकस इस पर नहीं है कि डीटीसी देर से आती है या नहीं आती है। मेरा फोकस इस बात पर है कि बत्तीस हज़ार से अधिक कर्मचारियों का यह महकमा चलता कैसे हैं। बिना किसी श्रीधरण साहब जैसे कद्दावर शख्सियत के। नरेश कुमार ने कुछ श्रेय ही लेने की कोशिश नहीं की। ऐसे इंटरव्यू दिया जैसे आप मुझसे क्यों पूछ रहे हैं। ड्राईवरों से ही बात कर लीजिए। अब मैं क्या कह सकता हूं। सबका सहयोग है चल रहा है। बस दो तीन महीने में हम घाटे से उबर जायेंगे। एक डेढ़ साल पहले डीटीसी चालीस रुपये प्रति किमी के घाटे में चल रही थी अब यह घाटा कम हो कर पांच सात रुपये प्रति किमी रह गया है। डीटीसी में हर दिन हर बस के चलने, ईंधन की खपत, यात्रियों की संख्या और कमाई का हिसाब लिखा जाता है। अगले दिन आपको पूरा डिटेल मिल जाएगा कि कितने लोगों ने सफर की और बस ने फेरे लगाने में कितनी चूक की।
डीटीसी के नंबरों की शुरूआत छब्बीस से शुरू होती है। चार सौ बीस नंबर की बस नहीं है लेकिन सौ नंबर की है। मुद्रीका का एक फेरा एक सौ दस किमी का होता है। ज्यादातर ड्राईवर बिना ब्रेक के इसे साढ़े पांच घंटे में पूरी करते हैं। उसके बाद छुट्टी। डीटीसी का दावा है कि मुद्रीका का अधिकतम किराया पंद्रह रूपये है। एक सौ दस किमी इतने सस्ते में कहीं नहीं जा सकते। मुद्रीका रिंग सेवा को कहते हैं। यह भी पता चला कि डीटीसी के ज़्यादतर ड्राईवरों के नाम अनिल, सुनील और राजेश हैं। एक से बेवकूफी भरा सवाल किया तो सही जवाब दिया मुझे। राहुल गांधी नाम होता तो कांग्रेस के अध्यक्ष न बन जाते। ड्राईवरी नहीं करनी पड़ती।
यह भी पता चला कि डीटीसी में ढाई हज़ार पुरानी बसें हैं। जिनकी बुक वैल्यू ज़ीरो है। मगर वो भी ढुलाई और कमाई में पैंतालीस और पैंसठ लाख की बसों से कम नहीं हैं। कुछ राजनीति रूट भी हैं जो नेताओं के दबाव में चलाईं गईं हैं। इनमें काफी घाटा है। प्राइवेट बस वाले अपने स्टाफ बिठा देते हैं डीटीसी की बसों में ताकि डीटीसी को कम यात्री मिले। बेटिकट यात्रियों का अलग सामाजिक अध्ययन किया जा सकता है। लड़के और लड़कियां दोनों ही टिकट न लेने में माहिर हैं। टिकट चेक करने वालों के साथ पकड़े जाने पर किये जाने वाले बहानों के किस्से सुन कर खूब मजा आया। कोशिश यही है कि हम एक संगठन को भीतर से देख सकें कि वो कैसे पिछले तिरेसठ सालों से दिल्ली की जीवन रेखा है। इसी डीटीसी को समझने की कोशिश की है इस बार रवीश की रिपोर्ट में। देखियेगा। FRI-9:30PM, SAT-10:30AM, 10:30PM, SUNDAY-11:30PM, MONDAY-11:30AM
26 comments:
रविश जी, जहां तक मेरा ख्याल है, दिल्ली में पहले 'जी एन आई टी' की बसें चलती थीं,,,फिर 'डी टी यू' के नाम से,,,और फिर 'डी टी सी' चलनी आरम्भ हुईं जिस कारण ६३ वर्ष के स्थान पर शायद कुछ कम वर्ष हों...खुद भी चेक कर लीजियेगा...बदनामी 'ब्लू लाइन' बस के कारण अधिक हुई...
पुनश्च: जी एन आई टी को हम लड़के कहते थे Goes Never In Time, और दी टी यू को Don't Trust Us....
kripya mere blog ko bhi padhe aur apne blogm e jagah den.. www.pradip13m.blogspot.com
यातायात व्यवस्था के सारे पक्ष समझ पाना बड़ा कठिन है।
बहुत अच्छी रिपोर्ट रही यह वाली। संयोग यह रहा कि मैंने पहले इसे पढ़ा और फ़िर एन डी टी वी पर इसे देखा। बहुत अच्छा लगा।
रवीश जी,
शायद आपको सुनकर आश्चर्य होगा, लेकिन मैं हर दिन ऑफिस समय पर पहुँचने के लिए डी टी सी का सहारा लेता हूँ. दरअसल पिछले एक साल से मैं रोज लाजपत नगर से पीतमपुरा जाता हूँ, अपने दफ्तर. अगर मेट्रो से जाऊं तो २ घंटे कहीं नहीं रखे, लेकिन डी टी सी से जाने में ७५-८५ मिनट में पहुँच जाता हूँ. :)
रविश जी,
कल ही न्यू डेल्ही स्टेशन से वसंतकुंज आ रहा था, देखकर आश्चर्य हुआ की कंडेक्टर महिला थी. उसके विश्वास को देखकर मन में एक आशा जगी. मगर तभी झटका लगा, कुछ नई पीढ़ी की लड़कियां बस में आई, फिर महिला कंडेक्टर पे कई तरह के ताने दिए.
आजकल अक्सर नई कंडेक्टर मिल जाते है, जो अभी अभी बहाल हुए है, उनसे सर सुनकर अच्छा लगता है, ब्लू लाइन की गालिया बहुत सुन चूका हु शायद इसलिए.
गौरव
रविश जी,
आपका ये ब्लॉग पढ़ कर मेरी दिल्ली यात्रा की याद ताज़ा हो गयी. DTC बस के कारण ही मैंने महानगर की तेज़ी महसूस की थी. किस तरफ भाग कर चढ़ना और उतरना , महिला यात्री के लिए सीट छोड़ देना, धुलाकुंवा से गुडगाँव की लास्ट बस पकड़ना. एक अलग ही अनुभव था.
मेरे लिए बस का सवारी बनना , मेट्रो के यात्री बनाने से ज्यादा गौरवपूर्ण है.
धन्यवाद आपका .
Raveesh Ji Aap Bihar ki chavi phir se sudhar rahe hain. Shayad bihar ka bhavishya Raveesh Kumar aur Nitish Kumar ke saath hi ho .
आपकी पोस्ट में मेट्रो और डीटीसी की तुलनात्मक रिपोर्ट पढकर समझ में आया कि कई बार सच लोकप्रिय धारणा से इतर होता है। डीटीसी महकमे के हर व्यक्ति को सलाम जो रोजाना लाखों लोगों को उनके गन्तव्य तक पहुँचाते हैं। यह भी याद रखना होगा कि मेट्रो बनने में कई पुराने बाशिन्दों को अपने पुश्तैनी मकानों से हाथ धोना पड़ा है। मेट्रो की आलोचना नहीं कर रहा, बस आपकी बात को ही पकड़ रहा हूँ कि हर एक व्यक्ति, वस्तु या संगठन को वह सम्मान और महत्व मिलना चाहिए जिसका वह हकदार है।
रविशजी आपकी रिपोर्ट dekhee...फिर से मन को छु गयी ...कुछ वाक्य ऐसे थे लिखे की बस क्या kahein ..ब्रेक की कुहाड़ और अच्सलेराटर की दहाड़ से दनदनाती हुई दी टी सी अपने आने का आगाज़ देती है...दी टी सी हिंदी मीडियम से इंग्लिश मीडियम हो गयी है... आपकी जिज्ञासा का केंद्र एक अनोखी तरह की पत्रकारिता को जनम देता है और यह मुझे बहुत पसाद आई..जैसे नंबर १०० तो है पर ४२० क्योंन नहीं....६१५ सीपीएम के दफ्तर जाने वाली बात में बहुत हद तक सच्चाई छुपी हुई है. कभी आपसे मुलाक़ात हो तो में जरूर आपके बारे में और भी जानना चाहूँगा
आखिर में आपकी वोह बात की एक ही समय में अलग अलग समय चल रहे हैं ..मन को भाई और इस सच को हम हिंदुस्तान में कभी भी झुटला नहीं सकते क्यों की यहाँ कुछ भी ख़तम नहीं होता है..बहुत बहुत साधुवाद ...पीयूष श्रीवास्तव ..
hello ravishji apko d t c ke itihas se mtlb hai lekin aam jnta ko iaske aane jane ke time se jaisa ki apne bola apko koi mtlb nhi late aati hai ya nhi aati hai kyoki sir apko jaise reporting se mtlb hai vaise hume dtc ke aane jane se mtlb hai.hume aajkl jo preshaniya ho rhi hai ek ke bad dusri bus kb aati hai kuch keh nhi skte ,ab to lgta hai bdnam h shi blue line km se km wqt pe ghr to phunch jate thai ,uma sharma
sir aaj kal ek nai tarah ki advertisment dekhne ko mil rahi hai.
RAAJNITI ME AANE K LIYE PRASIKSHAN
INSTITUTE OF POLITICAL LEADERSHIP
aapse anurodh hai ki iss baare me bhi apni rai hamse baaten....
Gajab tha ye Pandey ji..Mujhe ek sansmaran yaad hai jab maine Noida me admission liya tha Engg college me yr 2000 me, pitaji ke is vaade ke saath ki second year me Byke dila dunga, kayi baar DTC me yatrayen ki aur apni jeb katwayee.GL32 yaad hai Sector 32 Noida se Karmpura jati thi Tagoge garden hote hue. Saturday ka intazzar rahta tha ki kab class khatm ho aur GL pakad ke nikal len Chacha ji ke yahan,, badhiya khana khaane..
Ravish ji, man to karta hai ki Bilasrao Deshmukh jaise hatyaron ko mitryudand de du,if it is legal. Kya us jaise rakshash ko aisi saza milni chaahiye ki use promote kar ke Grameen vikas jaisa important mantralaya de diya jaaye. aap patrkaar log kuch karte kyun nahi..
Sir, Kabhi patrkaraon ki bhi baat kariye na. wo kis halat mein sangharsh kar rahe hain.
x
Ravish ji Har baar aapki Report ka intzaar to Rehta he aur saath yeh bhi aasha hoti he ki desh kuch nayi Mushkeliyon ko bhi aap dikhaye.
Lekin har baar ki tarah iish baar Bhi Delhi se bahar aap nikale hi nahi.
Mahino se dekha raha hu aapki report Bharat Ke baate me nahi pat kuch hisso ke bare me zyada lagati he. jaise Delhi,U.p,Bihar. aapki report Delhi se shuru aur vahi khatm.
Hamara desh kitna bada he. mushkeliya bhi bahut he.
Maharatra,A.p,M.p ke kishan AAtma Hatya kar rahe he.
Gujarat Bhukamp ki 10 va saal Chala gaya jaha 12-13000 log mare the.
lagata he ki aapka Channel aapko Paise nahi deta hamare Bharat ko dikhane K liye.
aap ko Bharat ke Mh,M.p,A.p,Guj,NOrth-East ki mushkeliyo ko bhi dhikhana chahiye.
par ye tab ho sakata he jab App aur Channel Delhi se bahar Nikale.
दिल ने कहा कि कुछ ऐसा किया जाये जो सार्थक हो, तो यह विचार आया कि क्यों न उन्हें बेनकाब किया जाये जो इस देश को खाये जा रहे हैं। तो शुरू हुआ एक एक प्रयास भ्रष्टाचारियों के खिलाफ
।
सुझाव आमंत्रित।
http://4polkhol.blogspot.com/
कभी समय मिल तो एक विषय देता हूँ उस पर स्टोरी कीजिएगा। विषय है न्यायपालिका में पदस्थ जजों के यहॉं बेगारी करते हुए लोगों पर। चाहे जिला न्यायालय हो या उच्च न्यायालय सभी जगह एक ही हालात है, बंधुआ मजदूरों से। इनकी सेवाएं तो शासकीय होती हैं लेकिन बैगारी करते हैं न्यायाधीशों के बंगलों पर। बहुत बुरा हाल है इनका।
http://4polkhol.blogspot.com/
क्या कन्याभ्रूण हत्या रोकने से या यूं कहे कि बालिकाओं को बचाने से ज्यादा जरूरी है बाघों को बचाना ? सोचिये !
संविदा नौकरी क्यो ?
क्यों न आय ए एस और आय पी एस को भी संविदा पर रखा जाए। अगर डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, टीचर, प्रोगरामर, कम्प्यूटर ऑपरेटर, बाबू, चपरासी, ड्रायवर और न जाने कितने ही ऐसे पदों पर संविदा नियुक्ति के नाम पर रखा जा सकता है तो आय ए एस और आय पी एस को क्यो नही ? कब तक बेरोजगारों को ठगा जाता रहेगा इस सबसे बड़े लोकतंत्र में।
न्यायालयों में आजकल न्याय नहीं मिलता। क्यों ?
क्यों कि न्यायधीश बंधे हुए हैं यूनिट सिस्टम से। दर असल में प्रत्येक न्यायधीश को हर महीने कुछ निश्चित यूनिट गेन करनी होती है। यह यूनिट उन्हें हर मामले को निपटाने पर मिलती है। किंतु इसका दबाव इतना होता है कि इससे क्वांटिटी वर्क तो हो रहा है पर क्वालिटी वर्क नहीं हो रहा। यदि यूनिट गेन न करे तो न्यायाधीश को स्पष्टीकरण देना पड्ता है। हो सके तो इस पर स्टोरी कीजिएगा।
respected ravish ji, aapane achchha yaad dilaya logon ko delhi ki DTC bason ke baare men. haalanki physical problem ke kaaran delhi study karate hue bhi in bason men baithane kaa maukaa nahi milaa ,phir bhi auto se aate jaate DTC ki yatraa aur doston se baatchit ke dauraan bhi badi majedaar baaten hoti thi DTC ke baare men. lekin aapane ek nai baat ki taraf hi ishaaraa kiya jidhar kisi kaa bhi dhyan nahi jaataa .
Who is to blame?
We read it in the paper and hear it on the air
Of killing and stealing and crime everywhere.
We sigh and we say as we noticed the trend,
This young generation.. where will it end?
But can we be sure that its their fault alone?
Are we less guilty, who place who place in their way?
Too many things that lead them astray?
Too much money, too much ideal time
Too many movies of passion and crime.
Too many books not fit to be read
Too much evil in what they hear said.
Too many children encouraged to roam
Too many parents who wont stay home.
Kids dont make the movies, they dont write the books
They dont paint the pictures of gangsters and crooks.
They dont make the liquor, they dont run the bars,
They dont change the laws, and they dont make the cars.
They dont make the drugs that muddle the brain;
Thats all done by older folks.. eager for gain.
Delinquent teenagers; oh how we condemn
The sin of the nation and blame it on them.
Instead of placing, lets fix the cause,
And remember as we pause;
That in so many cases its said but its true“
The little âdelinquent fits older folks too!
ये रिपोर्ट पसंद आयी थी मुझे। खासकर उस लड़के का चीर हरण काफी अच्छा था, जिसमें भाई साहब ज़माने को टिकट खोजने की पैंतरेबाजी सिखा रहे थे।
रवीश जी, आपका कार्क्रम प्रस्तुत करने का अंदाज़ बहोत ही अनोखा है... इस कार्क्रम के माध्यम से आप भारत को भारत के सामने प्रस्तुत करते है..
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