अमीरी रेखा से ऊपर

ऐसी रेखा नहीं होती। ग़रीबी की होती है। ग़रीबी की सीमा है। नंगा बदन, खाली पेट, खुला आसमान और भूख से मौत। इससे ज़्यादा कोई ग़रीब नहीं हो सकता। लेकिन अमीरी रेखा क्यों नहीं? भारत में एक लाख पंद्रह हज़ार करोड़पति हो गए हैं। यह संख्या ग़रीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों के लिए रेखा से ऊपर खाली जगह छोड़ती है। हज़ारपति लखपति हो गए और लखपति करोड़पति। ज़ाहिर है नीचे जगह बनी है। यह देश के ग़रीबों के लिए सुनहरा मौका है। आखिर ग़रीबी रेखा से नीचे के लोगों की संख्या कम तो हुई है न। वो कहां गए? क्या वो अमीरी रेखा के अनंत आसमान में बिला गए? पता नहीं चलता है। एक सरकार ने दावा किया तो लोगों ने चलता कर दिया। लगता है कि ये लोग वापस ग़रीबी रेखा के नीचे आकर शाइनिंग इंडिया का तेल कर गए।

मैं यह लेख भारत की दिर्घायु ग़रीबी पर नहीं लिख रहा हूं। अमीरों पर लिख रहा हूं। सवा लाख करोड़पतियों का देश। विश्व संपदा रिपोर्ट कहती है कि करोड़पतियों की संख्या हर साल बीस फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है। रिपोर्ट यह नहीं बताती कि इसमें नए करोड़पति शामिल हो रहे हैं या वही पुराने वाले ही हो रहे हैं। क्या इसमें सरकारी महकमों में रिश्वतखोर,दलाल, दारोगा, तहसीलदार,इंजीनियर,ज़िलाधिकारी,कर चोर व्यापारी आदि को भी शामिल किया गया है? ये सब भारत के अनधिकारिक करोड़पति हैं। इनकी संख्या भी लाखों में होती। मैं कब से कह रहा हूं हमारी सामाजिक व्यवस्था में रिश्वतखोरी अब अतिरिक्त आय का साधन है। इस पर फ्रिंज बेनिफिट यानी सीमांत लाभ कर लागू होना चाहिए। इससे सरकार को धन मिलेगा और भारत का दुनिया में नाम होगा कि हमारे यहां लंदन सिंगापुर से भी ज़्यादा करोड़पति हैं। सबको शामिल नहीं कर पाने की व्यवस्था के कारण ही हमारे देश में सर्वे फेल हो जाते हैं।

और तो और नए सर्वे में करोड़पतियों के घरों को शामिल नहीं किया गया है। इससे कई लखपति करोड़पित होने से वंचित हो गए। इसमें सिर्फ व्यावसायिक संपत्ति और शेयर बाज़ार में निवेश और बचत को आधार बनाया गया है। हम सब के मकान जिसकी लागत पांच लाख रुपये हैं और बाज़ार में कीमत पचास लाख इसे शामिल नहीं किया गया है। लगता है करोड़पति क्लब को सीमित रखने की साज़िश चल रही है। खैर करोड़पति बनने से रह गए लाखों लखपतियों को हमारी तरफ से सांत्वना। वैसे भी हमारे देश में कोई कहता नहीं कि वो करोड़पति है। आप कहेंगे तो जवाब मिलेगा अरे कहां साहब। करोड़ होते तो काम करता। घर का खर्चा इतना की रात को नींद नहीं आती। सामाजिक तौर पर हम नहीं बताते कि कितना पैसा है। बेटा अपने पिता से कहेगा कि बैंक में एक रुपया नहीं। बेटे के बाप ने भी अपने बाप से यही कहा। भाई अपने भाई से छुपाता रहता है कि पैसे की कितनी तंगी है। भाभी और बहन झगड़ते रहते हैं कि कैसे पुरानी साड़ी से काम चलाई जा रही है। एक रुपया नहीं है। पैसे को लेकर झूठ बोलने का संस्कार हमारा परिवार सीखाता है। फिर किसने कहा कि वो करोड़पति है। मुझे तो सर्वे पर शक हो रहा है।

तभी देश में कौन बनेगा करोड़पति फ्लाप हो गया। पांच साल पहले जब स्टार प्लस ने पहली बार शुरू किया तो प्रोग्राम हिट हो गया। दूसरी और तीसरी बार फ्लाप हो गया। करोड़पति बनने का चार्म ख़त्म हो गया। टीवी का दर्शक दूरदर्शन के हमलोग वाले फटेहाल कलाकारों वाला नहीं रहा। वो अमीर हो चुका है। इसलिए करोड़पति बनने का सपना लुभाता नहीं।

और इसीलिए अमीरी रेखा नहीं है। इसका दायरा अनंत है। कोई भी कहीं तक जा सकता है। सौ कार की जगह हज़ार चौरासी कारों का मालिक बन सकता है। किसी अर्थशास्त्री को समझ में नहीं आया कि अमीरों के लिए रेखा कैसे बनाए? पैमाने क्या हों? कई लोगों के पास कार है टीवी है मकान है मगर आदत है कि कहेंगे कि ग़रीब हैं। ऐसा क्यों होता है? जो भी हो राहत मिल रही है कि देश में अमीरों की संख्या बढ़ रही है। अमीरों के लोकतंत्र में रजवाड़ों के अलावा आम लोग भी आ रहे हैं। ग़रीबों पर लेख फिर कभी।

प्रतिभा पाटिल की मुलाकात आत्मा के साथ

हमारे देश में राय न बदलने वालों को काफी महत्व दिया जाता है। स्थायी भाव वाले राय वीरों को महान कहा जाता है। मैं इस धारा के विपरीत जाने का खतरा मोल लेते हुए एक बार फिर प्रतिभा पाटिल पर अपनी राय बदल रहा हूं। सनद रहे कि दो बार राय बदली जा चुकी हैं। इसी ब्लाग पर।

राय बदलने की यह घड़ी इसलिए आई क्योंकि जब भी हम लिखते हैं सारे तथ्य कभी सामने नहीं होते। नए तथ्य राय बदलने के हालात पैदा कर देते हैं।
प्रतिभा को महिला और चुपचाप काम करने वालों को ईनाम के प्रतीक के रूप में देखा गया। तब तक यह बात सामने नहीं आई थी कि चीनी मिल का करोड़ों रुपया चपत कर गईं हैं। भाई पर हत्या का आरोप है। पति पर सिफारिश करने का आरोप। खुद इतिहास का पता न वर्तमान का।

नया बवाल उनके आत्मा से साक्षात्कार से है। जिस दिन काल उन्हें राष्ट्रपति बनाने के फैसले ले रहा था उसी दिन वो माउंट आबू में वो आत्मा से साक्षात्कार का बयान दे रही थीं। तब तक शायद उन्हें यही लगा होगा कि आत्मा परमात्मा की कृपा से ही वे राज्यपाल तक पहुंची हैं। उन्होंने कहा कि ब्रह्माकुमारी प्रजापिता की मौजूदा मुखिया के शरीर में एक आत्मा ने उनसे बात की। यह आत्मा प्रजापिता के संस्थापक गुरु दादा कृपलानी की है। जिन्होंने चार दशक पहले दुनिया छोड़ दी। मगर उन्होंने अपने व्यस्त कार्यकर्म से प्रतिभा जी के लिए वक्त निकाला। और एक शरीर को माध्यम बनाकर जीवात्मा और आत्मा के बीच बातचीत हुई।

जिन लोगों को न्यूज़ चैनलों पर भूत प्रेत की कहानी से एतराज़ हैं वो अब क्या करेंगे? या फिर चैनल वाले कहेंगे कि वो जो कहते हैं वही तो भारत की होने वाली राष्ट्रपति भी कहती हैं। साठ साल बाद हमने आत्मा से बातचीत करने वाली राष्ट्रपति या पत्नी पाया है या पाई है। यह देश के लिए अच्छा रहेगा। वो नाज़ुक मौकों पर गांधी जी की आत्मा से बात कर सकती हैं। उनसे दिशा निर्देश ले कर देश चला सकती हैं। संवैधानिक संकट पर फख़रुद्दीन अली अहमद की आत्मा से बात कर सकती हैं कि आपातकाल जैसे प्रस्ताव पर दस्तखत कैसे की जाती है। आदि आदि।

मुझे देश के संविधान की चिंता नहीं है। क्योंकि इसकी चिंता तो किसी को नहीं है। संविधान लागू हो जाए तो कितने परिवार के लोग जेल चले जाएंगे। रिश्वतखोरी से लेकर गैरजवाबदेही के आरोप में। भला हो संविधान का जिसके सिर्फ कागज में होने से कई परिवारों का भला हो रहा है। मुझे चिंता है हज़ारों बाबाओं, ओझाओं और औघड़ों की। जो भूत प्रेत से बात कर उन्हें वश में करते हैं। लोगों को उनकी समस्याओं से मुक्ति दिलाते हैं। सौ दो सौ के बदले अपना भी पेट भरते हैं। मगर जब राष्ट्रपति भी यही करने लगे तो हर दिन राष्ट्रपति भवन के बाहर कैसा मेला लगेगा। कल्पना कर लीजिए। लोग झाड़ फूंक के लिए भी रायसीना हिल्स पर चक्कर लगाते हुए मिलेंगे। वहां भी कई वायसरायों की आत्मा चक्कर लगाती होगी। प्रतिभा जी उनसे बात कर नया इतिहास लिख सकती हैं। आत्मा से साक्षात्कार।

मैं उन्हें अंधविश्वासी नहीं कहना चाहता। क्योंकि गीता में लिखा है। आत्मा मरती है न कोई इसे मार सकता है। तो भाई साहब आत्मा जाती कहां है? वो कहीं न कहीं तो रहती होगी? गीता में ये तो नहीं लिखा है कि आत्मा कहीं चली जाती है। बल्कि लगता है कृष्ण जी को भी उसका पता नहीं मालूम था। इसलिए वो इस पक्ष पर साइलेंट रहे। मैं सिर्फ इतना कह रहा हूं कि जब आत्मा मौजूद है तब वो किसी न किसी से बात तो करेगी ही। प्रतिभा जी ने भी किया है। आपको एतराज़ है तो कमेंट्स लिख दीजिए। वर्ना भारत की उन तमाम महिलाओं की आत्माओं के बारे में सोचिए जो आज इस ऐतिहासिक घड़ी को देखने के लिए ज़िदा नहीं हैं। शुक्र है कि उनसे बात करने की क्षमता रखने वाली एक महिला राष्ट्रपति बन रही है।

बैरकपुर का पार्क

बैरकपुर कहां है? कोलकाता से कोई ६० किमी दूर एक छोटा मगर अच्छा सा लगने वाला शहर है। यहां एचडीएफसी के एटीएम काउंटर है। उमस भरी गर्मी। गंगा के किनारे बसा बैरकपुर। मंगल पांडे ने सबसे पहले यहीं से बिगुल फूंका था। अठारह सौ सत्तावन की क्रांति का।

मई के महीने में बैरकपुर गया। अच्छी सड़क। ड्राइवर से कहा बैरकपुर में देखने लायक क्या है? मंगल पांडे की प्रतिमा या स्मारक तक ले चलोगे? दस मिनट के अंदर वो हमें ले आया। शानदार पार्क। बच्चों के खेलने के स्लाइड। झूले। सामने अपनी दुनिया में मस्त गंगा। गंगा या किसी नदी के किनारे पूरे देश में ऐसा पार्क न होगा। मुंबई का जागर्स पार्क भी फीका। क्या है उसमें ? समंदर। बस। लेकिन बैरकपुर में मंगल पांडे के नाम पर बने पार्क में क्या नहीं है?

पार्क के बीच में मंगल पांडे की प्रतिमा। सेना इसका रख रखाव करती है। प्रतिमा के नीचे दो प्रेमी। मंगल पांडे की ओट में अपने लिए दो पल जी रहे हैं। पूरे पार्क में कोई सौ जोड़े मौजूद होंगे। भरा पूरा पार्क। गंगा फेसिंग बेंच हाउस फुल। छाते के नीचे प्रेमी व्यस्त। पीछे मंगल पांडे और सामने गंगा। प्रेम करने की इससे महफूज़ जगह क्या होगी। अठारह सौ सत्तावन के हर सबक को हम धो पी कर चाट गए। हिंदू मुस्लिम एकता को कबका भूल कर हम एक दूसरे को भिड़ा चुके हैं। मगर बैरकपुर के इस पार्क में मोहब्बत आबाद है। कम्युनिस्ट बंगाल में बुर्जुआ प्रेम क्रांति पनप रही थी। रेडियो से गाने की आवाज़ आ रही थी..सारा प्यार तुम्हारा मैंने बांध लिया है...जवान जोड़े मंगल पांडे की पनाह में दिल्ली मुंबई के प्रेमियों से बेहतर स्थान पा कर अपने हसीन पलों को यादगार बना रहे थे। कोई पुलिस नहीं। कोई बजरंगी नहीं। कोई किसी को छेड़ नहीं रहा था। कोई किसी जोड़े को करीब से देखने की कोशिश नहीं कर रहा था। इतिहास में भूला दिये गए या फिर फिल्मों में समेट दिए गए यूपी के मंगल पांडे ने बंगाल में अपनी याद में ऐसी बेहतरीन जगह प्रेमियों को दी है।

मंगल पांडे के अपने उत्तर प्रदेश में प्रेमियों के लिए कोई जगह नहीं है। मेरठ में एक दिन पुलिस किसी पार्क में धमक गई। प्रेमियों की पिटाई करने लगी। बैरकपुर में सेना इस क्रांतिकारी की याद में पार्क का रखरखाव करती है। मुफस्सिल टाउन के लड़के लड़कियां बिना किसी वाद विवाद का सामना किये अपने रिश्ते बुन रहे होते हैं। नदी के किनारे बने इस पार्क की खूबसूरती उनके प्रेम से भी गहरी है। कभी बैरकपुर जाइयेगा तो हो आइयेगा। अकेले भी जा सकते हैं। किसी को फर्क नहीं पड़ता।

वैसे शहर बदल रहा है। पहले कैसा था मालूम नहीं। छोटा सा शहर मगर किसी बड़े शहर से अनजान नहीं। बैरकपुर देश के कई कस्बों से बेहतर और उदार जगह है। शायद इसलिए भी हो कि लोगों का ध्यान सिर्फ मंगल पांडे की चर्चा तक ही सीमित रहा हो। और प्रेमियों का ध्यान मंगल पांडे को भूल कर अपनी ज़िंदगी के इस खूबसूरत पल को जीने में। पार्क में आने वाले जोड़े किसी अमीर घराने के नहीं। बंगाल के मामूली परिवारों के जोड़े। जो महानगर से पीछे छूट जाने के तनाव में नहीं है। बल्कि जो सामने हैं..उसी को गर्व के साथ जी रहे हैं। हर उम्र के लोग इस पार्क में मिलेंगे। कोई कार या बाइक से आया हुआ नहीं मिला। सब कहीं दूर से पैदल चलते हुए आ रहे थे। थका कर घंटों इस पार्क में आराम के लिए। प्रेम के लिए। बैरकपुर में प्रेम की क्रांति के बिगुल बज रहे हैं। मंगल पांडे की प्रतिमा की आड़ में। मंगल पांडे के नाम पर उत्तर प्रदेश में कोई पार्क होता तो आप कल्पना कर लीजिए? मेरठ में एक स्मारक है। रिटायर्ड लोग कभी कभार मिलते हैं वहां। बैरकपुर में सब जवान। मिलते हैं तो कई सामाजिक मान्यताओँ को तोड़ कर। चुपचाप। हिंदुस्तान में प्रेम करना किसी न किसी स्तर पर विद्रोह है। मंगल पांडे की याद में बने इस पार्क में आज भी विद्रोह हो रहा है। बस आपको बैरकपुर जाना होगा।

पहला प्यार, पहला रिकार्ड

प्रतिभा पाटिल पहली महिला राष्ट्रपति। इंदिरा गांधी पहली भारत की महिला प्रधानमंत्री। किरण बेदी पहली महिला आईपीएस। हमने इस देश में महिलाओं के लिए इतने दरवाज़े बंद कर रखे हैं कि जब भी कोई खुलेगा पहला होने का रिकार्ड बना देगा। अब भी कई दरवाज़े खुलने बाकी है। कई जगहों पर पहली बार महिलाओं को नामज़द होना है। इसलिए महिला पाठक निराश न हों।

मैं कई जगहों पर पहला होना चाहता था। मगर मेल यानी पुरुष होने के कारण चांस समाप्त हो गया है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, पत्रकार आदि आदि। सब जगह मुझसे पहले के मर्द पहुंच चुके हैं। परिवार में भी भाई बहनों में चौथे नंबर हूं। पहला नहीं हुआ। कुछ भी करता हूं सबके करने के बाद। बैंक में खाता भी सबसे बाद में खुला।

पहला होने का गुमान मुझको नहीं हुआ। प्रतिभा पाटिल से ईर्ष्या हो रही है। एक सीट बची थी मार ले गईं। क्या मेरे लिए अब भी कोई मौका है? जैसे मैं अगर राष्ट्रपति बन जाऊंगा तो क्या मेरे पत्रकार साथी लिखेंगे कि मैं अपने गांव से राष्ट्रपति बनने वाला पहला हूं। स्कूल से राष्ट्रपति बनने वाला पहला हूं। फलां मोहल्ले का पहला बच्चा जो बड़ा होकर राष्ट्रपति बना। दोस्तों, जवाब दो।

हिंदी सिनेमा में पहला प्यार को लेकर सैंकड़ों गाने हैं। पहला प्यार लाए जीवन में बहार। लेके पहला पहला प्यार। तुम भी पहले पहल। हम भी पहले पहल। कितना अच्छा है। वहां हर दूसरी फिल्म में पहला होता रहता है। इधर लोकतंत्र में एक ही बार क्यों होता? क्या प्रतिभा ताई के बाद कोई सुनीता आंटी राष्ट्रपति बनेंगी तो वो दूसरी कहलाएंगी? किस आधार पर? सुनीता आंटी तो अपने परिवार से पहली ही होंगी न। क्या सिर्फ पद पर आने की गिनती ही गिनी जाएगी? पदस्थापित को भी काउंट किया जाना चाहिए। कैसे लिखेंगे? क्या इस मामले में भी ग्रेडिंग सिस्टम नहीं होना चाहिए? एनसीईआरटी क्या कहती है? इसी पहले के कारण कलाम साहब इतिहास में दर्ज नहीं हुए। कम से कम कलाम राष्ट्रपति बनने वाले अपने पिता के पहले बेटे हैं और गांव के पहले निवासी। इससे पहले मुसलमान राष्ट्रपति हो चुके हैं मगर कलाम पहली बार हुए हैं। वो मुसलमान हैं मगर कई मायनों में पहली बार हैं। इसलिए इतिहास में उनके लिए भी जगह रिजर्व की जाती है। गिनिज बुक वाले को भगाओ। मनोज पाकेट बुक्स को लाओ। इस तंग किताब का ही दिल बड़ा हो सकता है। हर पहले पर एक छोटी किताब।

तो दोस्तों, निराश न हों। अब भी चांस है। कहीं न कहीं पहली बार होने का। जहां कोई पहले पहुंच चुका है वहां भी पहले पहल होने का। आप बस पहुंचें तो? प्रतिभा जी की जय? तुम भी पहले पहल। हम भी पहले पहल। किसी समझदार ने नई फिल्म उमराव जान का गाना लिखा

अहमदाबाद का जातिवाद

पहले ख़बर इंडियन एक्सप्रेस में छपी। अहमदाबाद में कोई जाति दूसरी जाति के साथ नहीं रहता। पढ़कर सोचा कि फिर शहर में रहता कौन है? और किसके साथ रहता है? हमने गुजरात जाने वाले कई पत्रकारों से पूछा कि ऐसा होता है क्या? जवाब मिला कि पुरानी बात है। होता है। कई बार स्टोरी भी हुई है। मैंने कहा कि एक बार अपन भी करना चाहते हैं। देखना चाहता हूं कि कैसे इस शहर में दलितों के मोहल्ले में कोई पटेल नहीं रहता। कैसे पटेल के मोहल्ले में कोई दलित नहीं रहता।

आम सांप्रदायिक समझ बताती रहती है कि सिर्फ मुसलमान घेरेबंदी में रहते हैं। एक ही जगह रहते हैं और दूसरे समाजों से मिलजुल कर नहीं रहते। ऐसी बसावट को अक्सर सांप्रदायिक पहचान से जोड़ा गया। मगर जब हिंदू मत के लोग अलग अलग जातियों में रहें तो क्या कहेंगे? क्या हम वाकई एक ही धर्म जाति के लोगों के साथ ही रहना पसंद करते हैं?

अहमदाबाद में ऐसा ही है। स्पेशल रिपोर्ट करते वक्त मैं हैरान रह गया। मेरे लिए यह जानना पहली बार था कि इस शहर में दलितों के शानदार बंगलों बन रहे हैं मगर उनकी कालोनी में कोई अदलित या सवर्ण नहीं रहता। सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि अगर कोई दलित पहचान छुपा कर किसी पटेल या ब्राह्मण बनिया के अपार्टमेंट या कालोनी में मकान खरीद भी ले तो पता चलने पर सवर्ण कौड़ी के मोल अपने फ्लैट बेच देते हैं। धीरे धीरे पटेलों का अपार्टमेंट दलितों का अपार्टमेंट बन जाता है। एक दूसरे के छाये से दूर रहने की ऐसी सनक खतरनाक है। पूरे शहर की बसावट ऐसी है। गुजरात का कोई पाठक इस लेख को पढ़ेगा तो सुझाव ज़रूर दे। क्या मैंने जो देखा वो ग़लत है?

चांदखेड़ा अहमदाबाद का नया उपनगर है। यहां बेहतरीन बंगलो बन रहे हैं। आठ सौ के करीब बने हैं। इसके ठेकेदार जयंतीभाई जाधव दलित हैं। सारे बंगलों इन्होंने बनाए हैं। मगर इसमें पैसा लगाया पटेल कारोबारी ने। करोड़ों रु का निवेश। मगर पटेल कारोबारी ने कभी इस दलित पार्टनर को घर नहीं बुलाया। दोनों ने कभी मेज़ पर बैठ कर हिसाब किताब नहीं किया। जयंतीभाई कहते हैं कि पटेल खुद बनाकर दलितों को मकान बेचेगा तो उसकी अपने समाज में नाक कट जाएगी। इसलिए बिना पैसे लगाए मैं इस धंधे में आधे का साझीदार हूं। यहां रहने वाले लोगों के भी यही अनुभव हैं। सवर्ण और दलित में भेदभाव हर स्तर पर है। कोई कालोनी दलितों की ही हो या पटेल की तो वहां पलने बढ़ने वाले बच्चों की पहचान कैसी होगी?

हैरानी की बात है कि अहमदाबाद में कोई इस तरह के बसावट के खिलाफ नहीं है। सब कहते हैं मालूम है। नया क्या है? होता है। एक पटेल से पूछा कि क्यों किसी दलित के साथ नहीं रहते तो जवाब था कि दलित मांस खाते हैं औरगंदा रहते हैं। मैंने कहा चांदखेड़ा के बंगलों शानदार हैं। और आप तेईस जून यानी शुक्रवार को साढ़े दस बजे खुद स्पेशल रिपोर्ट में देख सकते हैं। वाकई दलितों के लिए बने बंगलों शानदार है। तो मैंने पटेल साहब को मुफ्त में देने की पेशकश की। उन्होंने थूका तो नहीं मगर कहा कि नहीं लूंगा। न अपनी सोसायटी में किसी दलित को रहने दूंगा।

यह है हमारी आधुनिकता और आर्थिक तरक्की। बहुत से लोग रिजर्वेशन का विरोध करते समय इस तरक्की का हवाला देते हैं और कहते हैं सबके लिए समान अवसर हैं तो फिर रिजर्वेशन कैसा? मेरा सवाल है बाज़ार सबको समान अवसर नहीं देता। होता तो एक पैसे वाला दलित किसी सवर्णों के मोहल्ले में मकान खरीद लेता और लोग दे देते। मगर पटेल कहते हैं कि वो मकान बेचने से पहले जात पूछते हैं। गुजरात देश के अमीर राज्यों में से एक है। ऊपर से लगता है कि यहां धंधे के अलावा कोई और धंधा नहीं। मगर यहां आकर लगता है सबका एक ही धंधा है। जात पात का।

इस तरह से मैंने बिहार उत्तर प्रदेश में भी नहीं देखा। कई जगहों पर दलित सवर्ण साथ रहते हैं। ऐसा कम हुआ होगा कि किसी अपार्टमेंट में जात पूछ कर मकान दिए जाते हों। लेकिन गुजरात में ऐसा हो रहा है। इतने ज़माने से हो रहाहै कि लोगों ने कहा कि स्पेशल रिपोर्ट क्यों? मेरा तर्क था कि सिर्फ जानना कितना खतरनाक हो सकता है। आप भी स्पेशल रिपोर्ट देखियेगा। शुक्रवार को साढ़े दस बजे औऱ शनिवार को साढ़े बारह बजे। ज़रूर बताइये कि वाकई यह पुराना टापिक है।

भू-चु चैनल- जल्द आ रहा है

यह लेख साल भर पहले जनसत्ता के लिए लिखा था। तब व्यंग्य था अब हकीकत है। हम किसी एक चैनल की आस्था को ठेस पहुंचाएं बिना अपनी बात कहने की इजाज़त चाहते हैं। बल्कि आप यकीन कर सकें तो मान लीजिए कि इस लेख को मैं नहीं लिख रहा हूं। एक भूत जो पहले पत्रकार था मुझसे लिखवा रहा है। ग़ौर फरमाया जाए।

हमारे देश की मान्यताओं के अनुसार आत्मा कभी नहीं मरती। इंसान मरता है और मरने के बाद भूत हो जाता है। मरने वाले इंसान की आत्मा उसके पूर्व कर्मों के अनुसार मुक्ति पाती है। मुक्ति नहीं मिलने पर आत्मा भूत का काम करने लग जाती है। अमर आत्माओं के भी लिंग होते हैं। पुल्लिंग आत्मा को भूत कहते हैं। स्त्रीलिंग आत्मा को चुड़ैल। जब से पाप कर्म बढ़े हैं भूत चुड़ैल की संख्या बढ़ी है। क्योंकि इससे मुक्त होने वाली आत्माओं की संख्या कम हो रही है। ज़ाहिर है भूत बने आत्माओं की परेशानियां भी बढ़ी हैं। हमारी ज़िंदगी में भूतों की मौजूदगी पहले से अधिक हो गई है। एक ताजा सर्वे से बात सामने आई है कि ८० फीसदी भूत युवा हैं। भूत आपके अपार्टमेंट की लिफ्ट से लेकर कार की पिछली सीट तक में बैठे मिल सकते हैं। भूतों की पार्टी हो रही हैं और भूत किताब लिख रहे हैं।

इसे देखते हुए हमारा संस्थान भू-चु चैनल लांच करने जा रहा है। भू-चु नाम हमने भूत चुड़ैल के संक्षेप से बनाए हैं। इसके टारगेट दर्शक की पहचान कर ली गई है। अंधविश्वासी किस्म के किसी भी लिंग और उम्र के दर्शक इसे पसंद करेंगे। भूत चुड़ैलों पर यह दुनिया का पहला चैनल होने जा रहा है। इसमें काम करने वाले पत्रकार इतिहास में याद किए जाएंगे। इसके लिए नए भू-चु चैनल में बड़े पैमाने पर भर्ती शुरू की जा रही है।

बहरवक्त अगर आप भूत, प्रेत, ओझा औघड़ आदि में यकीन और इनसे संबंध रखते हों तो आपके पास पत्रकारिता में भविष्य बनाने का सुनहरा मौका है। आप देश भर में बिखरे भूत प्रेतों की कहानियां घर घर पहुंचा सकते हैं। आवश्यकता है ऐसे संवाददाता की जो भूतों को समझता हो- वो कहां रहते हैं, क्या खाते हैं, किनसे संबंध हैं? उनका जीवन कितना आधुनिक हो रहा है आदि आदि जानता हो। भाषा हिंदी और अंग्रेज़ी नहीं चाहिए। अगर आप चूं- चूं सायं..सायं, गरर, हड़ हड़, खड़ खड़, हू..हू को समझते हों तो हमारे लिए उपयोगी होंगे। हम टेस्ट भी लेंगे। प्रशिक्षु पत्रकारों को जंगल, श्मशान और खंडहरों में कई रातें अकेले गुज़ारनी होंगी। कमज़ोर दिल वाले पत्रकार आवेदन न करें।

प्रेत पत्रकारिता इलेक्ट्रानिक मीडिया का नया क्षेत्र है और इसमें अभी ही प्रवेश कर जाइये। प्रमोशन के चांस हैं। कंपटीशन कम हैं। बस आपके भूतहे सूत्र मज़बूत होने चाहिए। आपके पास तमाम ओझा, औघड़, रूहानी बाबाओं के मोबाइल नंबर होने ज़रूरी हैं। बंगाली तांत्रिकों और रूहानी बाबाओं पर भी ज़ोर होगा। इन्हीं की मदद से आप हमारे चैनल पर सबसे पहले किसी भूत की खबर ब्रेक कर सकेंगे। अगर आप भूत प्रेत का लाइव इंटरव्यू करा सकते हैं तो हम आपका विशेष प्रोमो करायेंगे। अखबारों में विज्ञापन देंगे। रामनाथ गोयनका अवार्ड तक दिलवा सकते हैं। हमारे चैनल में भूत बीट, प्रेत बीट, चुड़ैल बीट, पिशाच बीट, वशीकरण बीट और श्मशान बीट कई तरह के नए विभाग खुल रहे हैं। अपेक्षित संवाददाता भूतों का पीछा करने की क्षमता रखता हो।

हमारा चैनल जेंडर सेंसटीव होगा। इसलिए हम महिला भूत यानी चुड़ैलों की कहानी को भी प्रमुखता से दिखायेंगे। अभी तक किसी चैनल ने चुड़ैलों को प्रमुखता नहीं दी है। भविष्य में हम अलग से चुड़ैल चैनल लांच कर सकते हैं। फिलहाल चुड़ैलों की ज़िंदगी में आ रहे बदलाव पर आधे घंटे का विकली स्पेशल होगा। हमारा एक प्रोग्राम होगा भूत प्रेत इन लव। इसमें भूतों की प्रेम कहानी उनके गाने और तनाव पर चर्चा होगी।

इतना ही नहीं हमारे चैनल को भूत, प्रेत, पिशाच, चुड़ैल से संबंधित ख़बरों को बेहतर दिशा देने के लिए एक योग्य संपादक की भी ज़रूरत है। हम संपादक से उम्मीद करते हैं कि वो तमाम बीटों पर काम करने वाले संवाददाताओं की ख़बरों को ठीक कर सके। संक्षेप में वह भू-प्रे संपादक कहलाएगा। संपादक ग़ायब होने की क्षमता रखता हो तो और बेहतर है। वह उजाले में दिखाई न दे और अंधेरे में बल्ब की तरह जल जाए। ऐसे अनुभवी पत्रकार जल्द संपर्क करें।

इस चैनल में उनके लिए कोई जगह नहीं जो यह नहीं मानते कि भूत होते हैं। हम सिर्फ विश्वास वाले लोगों को रखेंगे। भूतों को भी ऐसे लोगों से चिढ़ है जो सिर्फ विरोध करते हैं। भू-चु चैनल दुनिया का सबसे लोकप्रिय चैनल होगा। जो दर्शक इस चैनल को हर दिन एक घंटा नहीं देखेगा उसे कोई न कोई प्रेतात्मा अपने वश में कर लेगी।

भूत होते हैं।

फैंटम के मुक्के का निशान गहरा होता है। सिर्फ खोपड़ी के निशान। फैंटम को कोई नहीं देख पाता। सिर्फ उसका यह निशान दिखता है। विक्रम और बेताल। या फिर वो मशहूर गाना। कहीं दीप जले कहीं दिल। अशोक कुमार का बागीचे में गाना गा रहे आवाज़ को ढूंढना। झूले के करीबा जाना और झूलती हुई नायिका का गायब हो जाना।

कहानी, कार्टून और फिल्म। कोई भी माध्यम हो सबमें भूत होते है। हम सिर्फ उस दुनिया में नहीं रहते जो ईंट गारे की होती है। जिसमें विज्ञान से बनीं सड़कें होती हैं। साहित्य को विज्ञान से प्रमाणित किया जा सकता है? भूत का विशाल साहित्य है। इसके कई नाम हैं। आत्मा, प्रेतात्मा, प्रेत, चुड़ैल, भूत, बेताल, रूह, दैत्य आदि आदि। इतने नामों का आभासी किरदार टीवी चैनल के आने के पहले से है। मैं टीवी पर भूत प्रेत के दिखाये जाने पर कुछ नहीं लिख रहा। ठीक है कि संदर्भ उन्हीं से मिला है मगर लिख रहा हूं भूत प्रेत पर। उनके होने पर।

हिंदुस्तान की हर मां अपने बच्चे को खिलाने के लिए तरह तरह के भूत गढ़ती है। भूत के नाम पर बच्चे को सुलाती है। फिर बच्चा भी कभी कभी भूत के नाम पर मां बाप को डराने की कोशिश करता है। भूत न होता तो मांओं को खिलाने में कितनी दिक्कत आती। भूत से उनकी कल्पनाएं बेहतर हो जाती हैं। वो अपने आस पास की चीज़ों से भूत को गढ़ती हैं। घड़ी वाला भूत। टीवी वाला भूत। घंटी वाला भूत। साधू का भी नाम भूत प्रेत की श्रेणी में ही लिया जाता है। बच्चे का भी रोमांच बढ़ जाता है और वह खाने लगता है।

लिहाज़ा भूत है। हमने बचपन में भूत के होने की कई कहानियां सुनी हैं। ओझा को भूत झाड़ते हुए भी देखा है। और मुहावरा भी सुना है कि भूत चढ़ गया है, झाड़ देंगे। भूत वो कल्पना है जो सबसे अधिक मात्रा या रूप में हमारे आस पास होता है। जिसका अहसास होता है उसी का वजूद होता है। प्यार कोई देखता नहीं है। अहसास है और उसका वजूद है। लिहाज़ा भूत भी है। मैं भूत प्रेत के नाम पर अंधविश्वास नहीं फैला रहा। बल्कि कह रहा हूं कि हमारे सामाजिक जीवन में इनकी मौजदूगी है। घर से लेकर नीम के पेड़ तक भूतों के डेरे। पायल की आवाज़। नाक से बोलने की आवाज़। भूत का सफेद लिबास।

एक कल्पना हकीकत की तरह हमें घेरे रहती है। हम जानते हैं कि भूत नहीं होता। मगर मानते हैं कि भूत होता है। और भूत न हो तो क्या होगा? रोमाचंक, सिहर उठने वाली कल्पनाएं कहां से आएंगी। भूत को रहने दीजिए। टीवी चैनल पर नहीं मगर हमारी कल्पनाओं में। वाकई अगर भूत न होते तो क्या इतने सारे कार्यक्रम होते? आप भी मज़ाक करते हैं। होते हैं भई। जब दिखता ही नहीं तो कहां से देख सकेंगे। टीवी देखते रहिए क्या पता कब भूत दिख जाए। टीआरपी की पूजा कीजिए। एक दिन या तो टीआरपी का भूत निकलेगा या टीआरपी के कारण भूत मिल जाएगा। ख़बर पढ़ते हुए। टीवी देखो भई।हम भूत देखने के एतिहासिक क्षण के करीब हैं।

प्रतिभा पाटिल होने का मतलब

मैंने पहले भी प्रतिभा पाटिल पर लिखा है। जिसमें उनके रबर स्टांप होने जैसी बात कही है। मैं इस राय के साथ कुछ और कहना चाहता हूं। सवाल खुद से भी है और आप सबसे भी।

लोगों ने कहा प्रतिभा को नहीं जानते। किसने कहा कि हम नहीं जानते? दिल्ली की मीडिया ने। जो राष्ट्रीय होने के कारण अपनी सीमित जानकारी को पूरे देश पर थोप देती है। प्रतिभा पाटिल १९६२ से विधायक हैं। महाराष्ट्र में पांच बार मंत्री और प्रतिपक्ष की नेता और कांग्रेस की अध्यक्ष रही हैं। क्या यह मुमकिन है कि करोड़ों की आबादी वाले महाराष्ट्र में कोई प्रतिभा पाटिल को नहीं जानता होगा। राजस्थान की राज्यपाल होने के कारण होली दीवाली पर तो उनका संदेश छपता ही होगा तो क्या राजस्थान की करोड़ों जनता वाकई प्रतिभा पाटिल को नहीं जानती होगी। महाराष्ट्र और राजस्थान की आबादी भारत की आबादी का कम से कम दस प्रतिशत होनी चाहिए। सौ में दस आदमी प्रतिभा पाटिल को जानता होगा लेकिन मेरे सहित दिल्ली की मीडिया ने कहा कि प्रतिभा पाटिल को कोई नहीं जानता।

मुझे लगता है प्रतिभा का नाम सिर्फ अचानक ही आया। इसका मतलब नहीं कि वो गुमनाम हैं। यह हमारी अज्ञानता है कि हम राजस्थान की पहली महिला राज्यपाल के बारे कम जानते हैं। वो भी तब जब वो मौजूदा समय में देशभर में अकेली महिला राज्यपाल हैं। दिल्ली मीडिया के किसी संपादक संवाददाता को क्या पता था कि उन्होंने बतौर राज्यपाल किस तरह की भूमिका अदा की है। क्या इसके प्रमाण मिल गए हैं कि राजस्थान में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के रबर स्टैंप के रूप में काम किया है? मीडिया न सही बीजेपी तो बता ही सकती है।
हम अपनी अज्ञानता को कैसे राष्ट्र का मत बना देते हैं।

दूसरी अहम बात ये हैं कि प्रतिभा पाटिल के चुने जाने से वो लोग संतोष कर सकते हैं जो चुपचाप काम करने में यकीन रखते हैं। मीडिया में कई नाम चले। तो क्या हताशा इस बात की है कि वो इस पद पर नहीं पहुंचा जो नामवर था? क्या प्रचार होने से प्रतिभा तय होती है या काम करने की निरंतरता और बिना प्रचार से प्रतिभा तय होती है। शिवराज पाटिल कौन से गुणवान नेता हैं जिनकी चर्चा मीडिया कर रहा था या जिनके न चुने जाने पर निराश हो गया। कर्ण सिंह खुद को सबसे बेहतर उम्मीदवार बता रहे थे। क्या किया है इन्होंने? इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में गप्पबाज़ी या फिर कौन सी इनकी सक्रिय भूमिका रही है? क्या वो इसी दम पर कह रहे थे कि मीडिया के कारण लोग उन्हें अच्छी हैसियत का जानते हैं?

इतिहास तय करेगा कि प्रतिभा पाटिल कैसी राष्ट्रपति होती हैं? मगर इतिहास ने एक बात तय किया है। ज़रूरी नहीं कि चर्चित ही चुना जाए कभी कभी सारगर्भित को भी मौका मिलता है। और ऐसी प्रतिभाओं को अचानक ही मौका मिलता है। जैसे कलाम को मिला था। मैं अपनी राय बदलता हूं।

प्यारे नारद गण

किसी को हटा सकने की असीम ताकत प्राप्त नारद एग्रीगेटर पर बहुत ही कष्टप्रद विवाद चल रहा है। हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिकता के खिलाफ बोलने से सबकी सहनशक्ति क्यों टूट जाती है? क्यों लगता है कि इस चर्चा से ज़हर फ़ैलती है? ज़हर की चर्चा से सावधान रहने की समझ आती है। आपने किताबों में पढ़ा होगा न। कि सांप काटने के थोड़ी दूर पर कस कर पट्टी बांध देने से ज़हर का विस्तार रूक जाता है। इसीलिए तो हम लोग भी सांप्रदायिकता पर खुल कर लिखते हैं। हम यह स्पष्ट कर दें कि कांग्रेस, बीजेपी और लेफ्ट हर तरह के दल के ऐसे किसी भी कदम का विरोध करते हैं जिनसे सांप्रदायिकता की बू आती है। संजय जी आपको क्यों लगता है कि ब्लाग पर लिख देने से ज़हर फैल जाएगा। और नारद जी आपको क्यों लगता है कि ज़हरीले सांप के नाम पर किसी भी सांप को मार दो।

हम कहते हैं कि सांप की पहचान हो। उसे मारो नहीं। उससे बचने का रास्ता समझो। सांप की ज़हर से बेवजह डर के कारण ही हमने कई निर्दोष सांपों को मार दिया। कई सांप विलुप्त हो रहे हैं। मोदी को मारो नहीं। बल्कि उन दरख्तों की पहचान करो जिस पर सांप्रदायिकता का हरा सांप रहता है। यह हमारी नीति है। लोकतांत्रिक नीति। हम बहस और वोट के ज़रिये मोदी को हराने का ख्वाब देखते हैं। ये और बात है कि पिछली बार हमारा ख्वाब टूट गया। मोदी जीत गया। मगर उसके बाद भी हम ऐसे सपने देखते हैं।हिंसा के रास्ते से मोदी का विकल्प नहीं ढूंढते।

अब रही बात नारद के फैसले की। भाई और क्या कर सकते हैं? ब्लाग रूपी बीघे के आप ज़मींदार होंगे। इसीलिए टोले से बाहर कर दिया। राहुल ने खेद जता दिया। प्रियंकर ने खत लिख दिया। अविनाश ने नारेबाज़ी की। तब भी फर्क नहीं पड़ा? क्योंकि इतिहास में ऐसा ही हुआ है। ज़मींदारों को कोई फर्क नहीं पड़ता। बस टोले के लोग दूसरे रास्ते से विदेश जाकर अपनी किस्मत बदल लेते हैं। बाद में गांव में एनआरआई होकर लौटते हैं और गांव को बदल देते हैं। हर दूसरे गांव में पुराने ज़मींदार का घर खपरैल का लगता है। और पुराने मज़दूर का आजकल पक्के का।

मैं कहना चाहता हूं कि आप लोग राहुल के ब्लाग पर प्रतिबंध न लगाएं। मोदी सांप्रदायिक है। गुजरात में ज़हर फैला है। यह बात कहने से अगर ज़हर फैलती हो तो क्या करें। ज़हर किससे फैल रही है इसका फैसला कौन करेगा। नारद? बातों से हम टकराते हैं तभी तो हमारी राय बनती बिगड़ती है। पहले भी मोहल्ला और इरफान, आरफा के लेख को लेकर बवाल मचा था। पंगेबाज़ जी पंगा करने आ गए। सबके बीच खूब गरम संवाद हुआ। पंगेबाज ने मुकदमा नहीं किया और नारद ने भी किसी को नोटिस जारी नहीं किया। या पता नहीं किया भी होगा। मैं ऐसी नोटिसों को नहीं पढ़ता। लेकिन नतीजा क्या हुआ? उस बहस का यह नतीजा निकला सब आपसे में संवाद करना सीख गए। पंगेबाज गुस्से की बजाए दलीलों पर आ गए। और मोहल्ले पर अविनाश ने लिखा भी कि अगर उनके ब्लाग के किसी लेख से दुख पहुंचा तो उन्हें अफसोस है। मगर एक ब्लाग ने राहुल का साथ देने वालों को दीमक और आतंकवादी तक कहा है। क्या यह इंटरनेटीय गुंडागर्दी है? क्या ब्लाग आधिपत्य का अखाड़ा बनाया जा रहा है?

ब्लाग किसी की बपौती नहीं है। किसने पहले लिखा इसका इतना गर्व क्यों? क्यों नहीं आप लिमका बुक वाले के पास चले जाते हैं? वहां पहले दूसरे का रिकार्ड रखा जाता है। मैंने एक जवाब में पढ़ा है कि मैं तब से लिख रहा हूं जब से आप नहीं लिख रहे थे। ये किसी और के बारे में कहा गया है। जो लोग पहले से ब्लाग लिख रहे हैं तो जान लें कि सारे अधिकार सिर्फ इसी आधार पर उन्हें नहीं मिलेंगे। किसी ने कहा कि हम से कई लोग अपने चैनलों में क्यों नहीं अपनी भड़ास निकालते? यह कोई सवाल है? वो एक पेशेवर जगह है। वहां खबरे दिखाते हैं। ब्लाग हमारी निजी अभिव्यक्ति है। जिसका एक सार्वजनिक उद्देश्य है। चैनल में कहने की चुनौती देंगे तो हम पूछ दें कि राहुल की जगह आपके परिवार के किसी बड़े ने ऐसा लिखा होता तो क्या आप घर से बाहर कर देते? हमने किससे सवाल किया कि आप विरोधी जन कहां काम करते हैं? ईमानदार हैं या नहीं? हम सिर्फ आपके लिखे को फेस वैल्यू पर लेते हैं।

मुझे लगता है कि हम किसी न किसी बहाने असहनशील होते जा रहे हैं। राहुल के बाजार को हटा कर अच्छा नहीं हुआ है। मैं व्यस्त था। इसलिए चुप नज़र आ रहा था। मुझे लगता है कि राहुल के साथ मेरे ब्लाग को भी चलता कर दीजिए। आखिर यहां रह कर क्या फायदा? कल मेरी भी किसी बात पर आप भड़क जाएं और बाहर कर दें। कुजात कर दें।

नारद जी। आपका काम कहीं का कहा और कहीं का सुना है। पुराणों में नारद के और भी महीन विवरण होंगे मगर परंपराओं में नारद का यही काम समझा जाता है। इस घर की बात उस घर में। ऐसा मत कीजिए। बल्कि ऐसे मौकों के लिए मध्यस्थ का काम कीजिए तो ठीक रहेगा। जज मत बनिये। वैसे भी हम आपसे दूर कहां जा सकते हैं। जाएंगे भी तो आप पहुंच जाएंगे। पता करने कि वहां क्या हो रहा है। नारायण । नारायण।

प्रतिभा पाटिल को जानते हैं ?

महाराष्ट्र के जलगांव में वकालत। १९६२ में विधायक। राज्य में कई बार मंत्री। कालेज में टेबिल टेनिस की चैंपियन, महाराष्ट्र कांग्रेस की पहली महिला कांग्रेस अध्यक्ष, राजस्थान की पहली महिला राज्यपाल। जाति से कुनबी मराठा। विवाह सीकर के शेखावट से। भारत वर्ष की पहली महिला राष्ट्रपति अगर चुन ली गईं तो। जिसकी संभावना अधिक है।

मज़ाक है गठबंधन की मजबूरी और प्रथम महिला होने के नाम पर ऐसे महान उम्मीदवार का चयन। राजनेताओं ने राजनेता उम्मीदवार चुनने के लिए कितना वक्त बर्बाद किया। गैर राजनीतिक कलाम के विकल्प के रूप में राजनीतिक प्रतिभा का यह सुंदर उदाहरण है। नेता सिर्फ सत्ता का खेल खेलता है और इस खेल के लिए उसे सिर्फ मोहरे की ज़रूरत होती है। हमारे देश में महिला के नाम पर प्रतिभा पाटिल बचीं थीं। उनका चुना जाना सिर्फ किसी ज्योतिष को समझ आ सकता है। जो ग्रहों की चाल देखकर किसी की ज़िंदगी में राजयोग आने का एलान करता है।

भारत में महिलाओं ने कई मुकाम हासिल कर लिए हैं। भारत के आज़ाद होने के बाद और आज़ाद होने से बहुत पहले ही। लेकिन प्रथम होने के इस लिम्का और गिनीज बुकीय रिकार्ड के दौर में ऐसी उम्मीदवार पेश की जाएगी, इसी की
उम्मीद थी।हमारी राजनीति प्रतिभा को नहीं ढूंढती। वह नाम की प्रतिभा में यकीन करती है।कब आपने प्रतिभा पाटिल की राजनीतिक चतुराई की मिसाल महाराष्ट्र या देश की राजनीति में देखी हो। मैं प्रतिभा पाटिल जी का मान मर्दन नहीं कर रहा। पुरुष विकल्प के रूप में शिवराज पाटिल भी इसी श्रेणी के थे। वो भी रबर स्टांप ही थे। साईं बाबा और गांधी परिवार की कृपा से उनका जीवन चलता आया है। अच्छा हुआ नहीं चुने गए। सुशील कुमार शिंदे व्यक्तिगत ज़िंदगी में गरीबी से सत्ता के शिखर पर पहुंचने के उदाहरण हैं मगर दलित होने के नाम पर कलंक। महाराष्ट्र के बाहर देश का एक भी दलित खुद को इस नाम से नहीं जोड़ता होगा। प्रणब मुखर्जी भले ही कांग्रेस का कामकाज देखते हों और इंदिरा राजीव दौर के रबर स्टांप नेता के रूप में अहमियत रखते हों। लेकिन इनकी उम्मीदवारी पर भी देश को कितना गर्व होता, कहना मुश्किल है। इसीलिए जिन नामों को खारिज किया गया है उन पर सोचें तो हमारे राजनीतिक दल व्यावहारिक और दूरदर्शी साथ ही पेशेवर भी नज़र आते हैं। लेकिन प्रतिभा पाटिल? हमारे देश में वाकई इस पद के लिए लायक उम्मीदवार नहीं बचे हैं।

चलिए स्वागत करते हैं। हमने राष्ट्रपति के नाम पर पहले भी कई प्रतिभाओं का स्वागत किया है। देश में मध्यमार्गी मनमोहनों और प्रतिभाओं को ही मौके मिलते रहेंगे। प्रतिभा जी आपने राजनीति में क्या किया है आप जानती होंगी। शुक्र है कि आप राजा भैया या पप्पू यादव की तरह नहीं है। निरपराध जीवन आपकी पूंजी रही होगी। गांधी परिवार के आशीर्वाद और विश्वास से आपको इतिहास में अमर होने का मौका मिला है। इतिहास आपको याद रखेगा और हम भी विरोध के लेख के बाद भी इस सवाल का जवाब तो देंगे ही कि भारत की पहली महिला राष्ट्रपति का नाम क्या है? प्रतिभा पाटिल।

गर्मी पत्रकारिता

तापमान से सावधान करती गर्मी पत्रकारिता के क्या कहने। मौसम बेईमान और गर्मी मेहमान। जाने का नाम ही नहीं लेती। मुंह ढंके लोग और पेड़ से चिपके लोग। एसी में सुस्ताते जन और मॉल में भटकता मन। बुरा न मानो गर्मी है।
टीवी या अखबार सब गर्मी से बेहाल। तापमानों का ग्राफ है तो कहीं लू से मरने वालों की सूची। हर साल आने वाली गर्मी, गर्मी में घूमने वाले पत्रकारों को परेशान करती है। कैमरे गरम हो जाते हैं। स्टीक माइक बमक जाती है। छूने से करंट मारती है। जला देती है। टीवी खोलिये तो तापमान और बढ़ जाता है।
अभी तक आपको यही लगता होगा कि कमरे में गर्मी है मगर चंडीगढ़ में तापमान प्रवचन सुनकर दिल्ली के कमरे का भी तापमान बढ़ जाता है। मौसम खबर है। और खबर मौसम की तरह गरम।

गर्मी अब ऐसे आती है जैसे पहले आती नहीं थी। ४५ डिग्री तापमान के इस दौर में गर्मी खूब सता रही है। हर कोई गर्मी की चर्चा कर रहा है। डिग्री सेल्सियस थर्मामीटर की तरह घर घर में आम हो गया है। मौसम विभाग की भविष्यवाणी झूठी फिर भी ज्योतिष के मारे लोगों का भरोसा मजबूत ही होता जा रहा है। आज कैसा तापमान रहेगा? मौसम वाली लड़की क्या कहेगी? अरे सुनो। सर्दी में उसका मेक अप ही देखते रहे कम से कम गर्मी में तो सुन लो। वो क्या कह रही है? क्या पता? आज भी तापप्रेचर यानी टेंपप्रेचर ४६ डिग्री से ऊपर जायेगा क्या? मर गए। गुप्ता जी पानी पीते रहियेगा। पड़ोस वाले शर्मा जी ने हिदायत डे डाली। शर्मा जी को भी गुप्ता जी से रिटर्न अडवाइस मिल गई। भई आप तो आज छुट्टी ले लीजिए। इस गर्मी का कोई भरोसा नहीं।

चैनल वाले बताते ही नहीं कि गर्मी कब जाएगी। भूल गए क्या अक्तूबर तक गर्मी होती है। और काटिये पेड़। एसी लगाइये। कार्बन का धुंआ निकालिये। गर्मी की खबरों के बीच पर्यावरण एक्टिविस्ट झुंझला रहा था। उसे लगा कि इस बार तो लोग उसकी बातों को सुनेंगे ही । खतरा आसन्न है। लोग बेचैन। कुछ होगा। नीतियां बनेंगी और नियम से चलेंगे।

लेकिन वही ढाक के तीन पात। टीवी दिखाने लगता है मानसून रागा। वाह। बारिश आने वाली है। आर डी बर्मन के गाने बज रहे हैं। बारिश वाले गाने। कहीं बाढ़ से निपटने की तैयारी पर खबर है तो कहीं बारिश के पानी से नाली को बचाने की खबर है। इस बीच गर्मी की खबर आती है। लोग परेशान है। प्यासे हैं। बिजली नहीं है। एसी है। बल्ब नहीं है। लालटेन है। सर्दी नहीं है। गर्मी है।

व्यवस्था बदलाव

इसकी बहुत कोशिशें होती हैं। कई बार व्यवस्था बदल जाती है। पुरानी की जगह नई हो जाती है। फिर उस नई व्यवस्था को बदलने की कोशिश होने लगती है। क्या व्यवस्था का बदलाव एक निरतंर प्रक्रिया है? फिर क्यों इतिहास काल से व्यवस्था बदलने वाले को क्रांतिकारियों से कम अहमियत दी जाती है? क्रांतिकारी बदलाव व्यवस्था बदलाव से बड़ा होता है। आज कल व्यवस्था बदलाव को ही क्रांतिकारी बदलाव कहने लगे हैं। क्योंकि क्रांतिकारी बदलाव हो ही नहीं रहा है। न कोई क्रांतिकारी काम कर रहा है। सिर्फ बात कर देने से उसे क्रांतिकारी कहा जाने लगा है।

इसीलिए व्यवस्था बदलाव के बाद भी कुछ नहीं होता। तब भी कुछ लोग होते हैं जो बदली हुई व्यवस्था के बदल जाने का इंतज़ार करते रहते हैं। नया नेतृत्व नए असंतोष पैदा करता है। नए सवाल खड़े करता है। नई बेचैनियों से उकताए हुए लोगों को व्यवस्था बदलने के सपने देता रहता है। क्यों हर वक्त कुछ लोग व्यवस्था बदलने की आस लिए रहते हैं? क्या इसके बदलने से सब कुछ उन्हें ही मिलता है?

अब तो व्यवस्थापक के बदल देने को व्यवस्था में बदलाव कहते हैं। सिस्टम वही रहता है। उसकी आशा निराशाएं वहीं रहती हैं। फिर बदलता क्या है? मुझे लगता है कि कुछ नहीं बदलना चाहिए। अब ज़माना बदलने का नहीं रहा। फैलने का रहा है। बाज़ार का कोई ब्रांड शहर से गांव तक फैल जाए तो उसे ज़माने में आए बदलाव के एक मानक के रूप में देखा जाता है। तो क्या हम भी बदलने के नाम पर फैल कर खुश हो जाते हैं? क्यों इंतज़ार करते हैं कि व्यवस्था बदले? क्या यह ठीक नहीं रहेगा कि आप फैल जाएं? क्या फैलने के बाद आप बदले हुए महसूस नहीं करेंगे?

क्या बदलाव कि इस चाहत का संबंध सिर्फ महत्वकांक्षा से है? महत्वकांक्षा का फैलना यानी नई जगह पाना क्या बदलाव हो सकता है? या यही बदलाव है। पहले जहां जगह नहीं मिलती थी अब मिलने लगी है। सब कुछ आपके हिसाब से ही हो क्या यही तड़प व्यवस्था बदलाव की ज़रूरत पैदा करती है? या बदलने वाले के मन में वाकई कोई बड़ा भारी विकल्प होता है? कभी आपने सोचा है कि इसकी चाहत और ख्वाब में मौजूदा वक्त कितना बर्बाद होता है। दुनिया में हर चीज़ फैल रही है। बदल नहीं रही है। पतली सड़क चौड़ी हो रही है। पुल फ्लाई ओवर हो रहे हैं। कोक मैनहैटन से मोतिहारी आ रहा है। मोबाईल दिल्ली से गांव गांव पहुंच रहा है। फिर बदल क्या रहा है? फैल ही तो रहा है। पसरने को बदलना क्यों कहते हैं? व्यवस्था की निरंतरता क्यों बनी रहती है? क्यों व्यवस्था व्यवस्थापक के बदलने के बाद भी नहीं बदलती? सिर्फ पहले से ज़्यादा फैलने लगती है। क्या फैलने की चाह ही बदलाव है? व्यवस्था का।

जब भी मुझे अकेले में डर लगता है

जब भी मुझे अकेले में डर लगता है
भीड़ में खो जाने का मन करता है

अक्सर मेरा मन चुप सा हो जाता है
अपनी ही बातों पर बोर सा हो जाता है

हर वक्त किसी का इंतज़ार सा रहता है
कैसा अकेलापन है जो बेचैन सा रहता है

जब भी मुझे अकेले में डर लगता है
भीड़ में खो जाने का मन करता है

लौटने की चाह में घर जल्दी भागता है
भीड़ से घबराता है तो अकेला हो जाता है

तबीयत और शख्सियत का हाल पूछता है
जितना मज़बूत है उतना ही थरथराता है

जब भी मुझे अकेले में डर लगता है
भीड़ में खो जाने का मन करता है

सूने मकानों में कुछ शोर किया जाए

सूने मकानों में कुछ शोर किया जाए
शोर को ज़रा और पुरज़ोर किया जाए

सन्नाटों के शहर में कुछ किया जाए
खिड़की खोल कर टीवी चलाया जाए

सबकी नींद खुल जाएगी जगाया जाए
अब शहर को जीता जागता बनाया जाए

सूने मकानों में कुछ शोर किया जाए
शोर को ज़रा और पुरज़ोर किया जाए

कोई आता नहीं है सबको बुलाया जाए
आने वाले को अपना पता बताया जाए

सूने मकानों में कुछ शोर किया जाए
शोर को ज़रा और पुरज़ोर किया जाए

जाति बनाम जनजाति

तलवार, फरसा, गंड़ासा, लाठी और लोहे की छड़। बंदूक नहीं। बंदूक होनी चाहिए थी। खैर। जातिगत उग्रता के पुरातन और मध्यकालीन हथियार खुद जनजाति साबित करने और नहीं करने देने के लिए काम में लाए जा रहे थे। मीणा जनजाति के नेता अचानक अपने आप को जंगलों में रहने वाला बताने लगे। पहले कभी रहते होंगे। मीणा समाज का नेतृत्व कर रहे एक संयासी जातिवादी गेरुआ धारण किये हुए था। हम पहुंचे तो उसने अकेले तस्वीर लेने से मना किया। बीस हज़ार के मोबाइल फोन से फोन किया। कोई पांच मिनट में नौवीं दसवीं में पढ़ने और न पढ़ सकने वाले लड़कों का जमावड़ा हो गया। सबने संयासी के पांव छूकर मीनेश भगवान की जय के नारे लगाए। संयासी से पूछा कि अजीब अजीब किस्म के हथियार क्यों? जवाब था हम जंगलों में रहते हैं और वहां बाघ और शेर आ जाते हैं। जंगल कहां? सवाईमाधोपुर, दौसा में। लेकिन सरकार तो कहती है यहां नाममात्र के जंगल हैं और बाध शेर की कमी हो गई है। संयासी गुस्से में आ गया। बोला कि सरकार क्या जानती शेर और बाघ कब निकल आते हैं। इन लड़कों से पूछो। मैंने लड़कों से पूछा कि कहां रहते हो। तो जवाब मिला दौसा में। फिर सवाल किया दौसा में कहां। तो कई जवाब मिले। बस स्टैंड, टीवी टावर के पास। और हथियार कब उठाया तो जवाब मिला..कल।

इसका विश्लेषण जाति पर अध्ययन करने वाले समाजशास्त्री कैसे करेंगे पता नहीं। मगर अपनी पहचान के लिए कब अतीत में चले जाते हैं पता नहीं। और बातें करते करते खुद अतीत की वर्चुअल रिएलिटी में रहने लगते हैं। जिसमें जंगल में घर होता है। शेर आता है और फरसे से शेर का शिकार हो जाता है। वैसे शिकार करने की जितनी भी तस्वीरें हमने किताबों में देखी हैं उनमें या तो बंदूक, भाले या तीर कमान का ही इस्तमाल दिखा है। फरसा या कुल्हाड़ी का नहीं। गेरूआ स्वामी रामेश्वरानंद ने कहा कि मीन सेना आदिकाल से है। कभी सुना नहीं कि किसी जनजाति की कोई सेना आज भी मौजूद है। मीणा जाति सरकार से मिलने वाली आरक्षण की ठेकेदार हो गई। कहा कि हम किसी को नहीं लेने देंगे। मगर क्या आरक्षण उसका है? क्या मीणा कहेंगे कि सरकार जांच ले कि वो जनजाति है या नहीं। गुर्जर यह लड़ाई चाहते थे। राजस्थान में ओबीसी से लेकर जनजाति तक सब मीणा के जनजाति होने पर सवाल उठाते हैं। जवाहर लाल नेहरू के समय भील मेणा को आरक्षण मिला था। लेकिन कहते हैं कि भील और मेणा के बीच अर्ध विराम लग गया। और अंग्रेजी के कारण मेणा मीणा हो गया। और मीणा जाति जनजाति हो गई। इसकी जांच नहीं होनी चाहिए? क्या सरकार या राज्य को ठग कर संख्या बल पर कोई जाति आरक्षण के लिए मजबूर कर सकती है? गुर्जर जनजाति की मांग नहीं करते। उन्हें लगता है कि हर चीज़ में वो मीणा जैसे हैं। दोनों अपने अपने भगवानों की जयकार लगा रहे थे। गुर्जर देवनारायण भगवान की जय बोलते तो मीणा मीनेश भगवान की जय बोलते थे। दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं। इनका इस्तमाल दोनों ओर से जोश भरने में किया जाता था। एक ही भगवान के दो अलग अलग अवतारों की संताने एक दूसरे को खत्म करने पर तुली हई थीं। एक जनजाति हो सकता है तो दूसरा क्यों नहीं? मीणा जाति ने आरक्षण में हिस्सेदारी नहीं देने का फैसला उसी तरह किया जैसे मंडल आयोग के समय सवर्ण कर रहे थे। फर्क सिर्फ इतना है इस बार आरक्षण के दायरे में आने वाली दो जातियां आपस में लड़ रही थीं।

क्यों? उन्हें ओबीसी के तहत नौकरी में आरक्षण तो मिलता है मगर राजनीति में नहीं। विधानसभा, लोक सभा, पार्षद, और पंचायत की सीटें ओबीसी के लिए आरक्षित नहीं होती । वो सिर्फ अनुसूचित जाति औऱ जनजाति के लिए होती हैं। पांच साल में राजस्थान पब्लिक सर्विस कमीशन की नौकरियां नहीं निकलती होंगी उससे कहीं ज़्यादा हज़ारों की संख्या में पंचायत से लेकर लोक सभा तक की सीटें हर पांच साल के भीतर निकलती हैं। दौसा गुर्जर बहुल क्षेत्र है। लेकिन नई परिसीमन के कारण दौसा सीट जनजाति के लिए आरक्षित हो जाएगी। नतीजा गुर्जरों को नेतृत्व के लिए किसी मीणा के पास ही जाना होगा। अगर वो जनजाति हो जाते हैं तो गुर्जर बहुल क्षेत्र उनके हाथ से नहीं निकलेंगे। वर्ना नौकरी की तरह राजनीति में भी उन्हें मजबूरन मीणाओं का प्रभुत्व स्वीकार करना होगा।

मैं बात हिंसक चरित्र की कर रहा था। मीणा और गुर्जर दोनों ने तलवारें निकाल लीं। हिंसा के लिए लोगों को उकसाया गया ताकि दोनों पक्ष जयपुर में अपनी दावेदारी को मजबूत कर सके। दोनों पक्षों ने अपनी हैसियत बताने के लिए विधानसभावार अपने वोटों की संख्या तैयार की थी। सबके नेता अपनी पार्टी के भीतर नेतृत्व को धमका रहे थे। पहले राजनीतिक पार्टियां वोट के लिए जाति के नाम पर जाति को बांटती थीं। इस बार जाति ने तय कर लिया कि राजनीति को एक होना पड़ेगा। तभी आरक्षण मिलेगा। इसलिए कांग्रेस पार्टी के सांसद सचिन पायलट बीजेपी अध्यक्ष से मिल रहे थे। तो मीणा विधायकों की बैठक में कांग्रेस और बीजेपी दोनों के मीणा विधायक शामिल हो रहे थे। राजनीतिक दल फंस गए थें। पहली बार जाति के नाम पर बना वोट बैंक राजनीतिक दल का इस्तमाल अपने हक में कर रहा था। इतनी लड़ाई क्या कभी शहर या गांव के अस्पतालों में डाक्टर से लेकर जांच तक की बदहाली के खिलाफ हुई है? आरक्षण अलग चीज़ है। सरकार के पास अब देने के लिए बहुत कम हैं और लेने के लिए दावेदार ज़्यादा। आरक्षण की लड़ाई होने लगती है।

मुझे लगता है कि आरक्षण का मसला अब नहीं दिए जाने के विरोध में नहीं फंसा है। बल्कि दिये जाने वालों की पात्रता में फंसा है। क्रीमी लेयर का विवाद इसी की कड़ी है। आरक्षण से क्रीमी लेयर तैयार हुआ है। और इस क्रीमी लेयर की कीमत पर जाति जनजाति विशेष के एक बड़े वर्ग को पीछड़ा रहना पड़ रहा है। जातियों में इसे लेकर असंतोष शुरू हो गया है। आज दो जातियां टकराईं हैं बल्कि आने वाले दिनों में जाति के भीतर पैदा हुए दो वर्गों के बीच लड़ाई होने जा रही है। क्रीमी लेयर और साधारण लेयर के बीच। कम नौकरी और घोर महत्वकांक्षा। टकराव को कौन रोक सकता है।

सुमित्रानंदन की तरह मैं कूड़ा नहीं लिखूंगा

मैं एक दिन सबसे अच्छी कविता लिखूंगा
सुमित्रानंदन की तरह मैं कूड़ा नहीं लिखूंगा
जो भी लिखूंगा सारा का सारा बेहतर लिखूंगा
पंत की तरह आधा बेहतर आधा कूड़ा नहीं लिखूंगा।

मैं एक दिन सबसे अच्छी कविता लिखूंगा
सारे विषय और सारे विश्लेषण पर लिखूंगा
प्रेमचंद, प्रभा खेतान के लिए कुछ नहीं छोडूंगा
इतना लिखूंगा कि आलोचक को भी कहना पड़ेगा
तुमने भी जो कुछ भी लिखा अच्छा लिखा है
कम से कम पंत की तरह कूड़ा नहीं लिखा है।

मैं हिंदी का सबसे नामवर कवि बनने वाला हूं
नामवर मेरी कविता का पाठक बनने वाले हैं
मैं नामवर को जान कर कविता लिखने वाला हूं
अपने लिखे के आस पास कूड़ेदान नहीं रखने वाला हूं
दुनिया मेरे साहित्य को धरोहर कहती रहेगी
मैं अपने लिखे के कूड़े को सोना समझता रहूंगा
बात नामवर की हो या कहें उसे वाजपेयी
मैं एक दिन सबसे अच्छी कविता लिखूंगा।

बारिश तुम आती हो तो....

बारिश तुम आती हो
तो अच्छा लगता है
तुम्हारी हल्की फुहारें ही
भीतर तक हल्का कर देती हैं
मन की गहराई भी भर जाती है
खालीपन के ऊपर बूंदे छलकने लगती है
बारिश तुम्हारे तेज हो जाते ही
ज़िंदगी बेकाबू रफ्तार लगती है
बारिश तुम आती हो
तो अच्छा लगता है

साथ आना तुम्हारे
समंदर की हवाओं का
पहाड़ों से उठकर
हल्की सर्दियों का
और फिर इन सबका
ठंडी हवाओं में बिखेरना
छोटी छोटी बूंदों में तुम्हारी
आसमान में दबी बेसब्री का पिघलना
जिनके खारे पानी पर अक्सर
अपने नंगे बदन किसानों का नाचना
बारिश तुम आती हो
तो अच्छा लगता है

हमारी खिड़की से धीरे धीरे सरकना
छतों की सीलन से धीरे धीरे टपकना
टीन के कनस्तरों में उन बूंदों को उठाना
कभी पांवों को भींगाना फिर बिस्तर पर सूखाना
अचानक ज़िंदगी में कितना कुछ होने लगता है
बारिश तुम आती हो
तो अच्छा लगता है

मगर अच्छा लगना सब पुरानी बाते हैं
तुम्हारा आना सिर्फ इतज़ार की राते हैं
आती ही नहीं हो तुम बारिश
आकर भी बिना भींगाए चली जाती हो तुम
सूखे खेतों और बेकरार किसानों को छोड़ कर
राह देखती मेरी छत की सीलन
और छेद वाले टीन के कनस्तर
तुम्हारी फुहारें मन को भारी कर देती हैं
मन की गहराई और गहरी हो जाती है
कि तुम इतना कम कम क्यों आती हो
बारिश तुम आती हो
तो अच्छा लगता है

मैं बहुत सीधा हूं

मैं बहुत सीधा हूं
सिर्फ समझना मत
कि मैं बहुत सीधा हूं
सीधा हूं सिर्फ अपने काम से
कोई हाथ डाले तो गया काम से
हद की सीमा के भीतर तक ही
मैं बहुत सीधा हूं

सीधा होने की सीमा के बाद
हम सबका टेढ़ा शुरू होता है
हमारे भीतर टेढ़ेपन की तमाम संभावनाएं भी
कितनी जतन से बचाकर रखी होती हैं
अक्सर हद से गुज़र जाने के बाद
सीधेपन के बचाव में टेढ़ापन निकल आता है
तिस पर से कह भी देते हैं अक्सर
देखों मैं बहुत सीधा हूं

सीधा होना कहीं सुविधा तो नहीं
सीधेपन के बहाने चुप रहने का मौका तो नहीं
संबंधों को तौल माप कर भांपने का मौका तो नहीं
जब सब कुछ हद से गुज़र जाए
तभी क्यों टूटती है हमारे सीधेपन की सब्र
फिर हम क्यों कहते हैं
देखो, अब भी संभल जाओ
बहुत हो गया
मैं वैसा भी सीधा नहीं हूं

दुनिया के सारे सीधे लोगों से सवाल है
वो क्यों आखिरी वक्त तक सीधेपन की आड़ नहीं लेते
क्या सीधा होना वाकई एक कमज़ोरी है
कि जो सीधा है उसी से सीनाजोरी है
सीनाजोरी जब हद से गुजर जाए
तो कह देने भर का बयान कि
देखो मैं बहुत सीधा तो हूं
मगर एक शर्त भी है इस सीधेपन में
कि सिर्फ समझना मत कि
मैं बहुत सीधा हूं