मेरी झूठी रिपोर्ट का सच

शाम के चार बज रहे थे। ढाबे वाले को बार-बार दबाव डाल रहा था कि जल्दी कुछ भी बना दीजिए। सुबह नाश्ता भी नहीं किया था। पेट जल रहा था। बगल की कुर्सी पर ढाबे का मालिक भी आकर बैठ गया था। तभी सामने से एक शख्स शराब के नशे में धुत ख़ुद को संभालता हुआ मेरे पास आने लगा। आकर बैठ गया। आप हैं। आपको टीवी पर देखता हूं। अच्छा लगता है। ठीक बात करते हैं आप। वो इतना होश में था कि मुझे पहचान रहा था। कहने लगा कि मैं ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी में क्लर्क हूं (मैं सही पदनाम नहीं दे रहा हूं)। इतना सुन कर मैं पूछने लग गया कि कितनी ज़मीन किसानों की गई है। कोई गांव बचा भी है जिसका अधिग्रहण न हुआ हो। उसकी आंखें नाचने लगती थीं। जब टिकती थीं तभी जवाब निकलता था। बोला एक भी ऐसा गांव नहीं है।

बातचीत थोड़ी ही लंबी हुई कि उसके साथ खड़े लोगों ने खींचना शुरू कर दिया। कहा भाई साहब इन्हें जल्दी छोड़ दीजिए। फिर उसे पकड़ कर ढाबे में बने कमरे की तरफ ले गए। एक आदमी बाइक पर एक महिला को बिठा कर ले आता है। सरेआम उसे कमरे की तरफ धकेलने लगता है। थोड़ी हिचक के बाद वो अंदर चली जाती है। दरवाज़ा बंद हो जाता है। पांच मिनट के भीतर वो शख्स फिर बाहर आ जाता है। मेरी तरफ आने लगता है और आकर बैठ जाता है। तभी बाइक वाला फिर उस महिला को लेकर चला जाता है। जब तक वो बाइक स्टार्ट करता, दूसरा उसके गाल खींचने लगता है। वो हाथ छुड़ा कर बैठ जाती है। बाइक चली जाती है। शायद मेरे जाने का इंतज़ार किया जा रहा होगा। उन्हें लगा होगा कि टीवी रिपोर्टर के सामने सुरक्षित नहीं है। वो तीन-चार लोग क्लर्क को घेरे हुए थे। दलाल टाइप के लग ही रहे थे। मेरे जाने के बाद उसे दुबारा लाने की योजना इशारों इशारों में बन गई थी।

मैं कार में बैठने लगा। क्लर्क फिर मेरे पास आ गया। मैंने कह दिया कि देखिये हम तो जा रहे हैं। लेकिन बातें समझ में आ ही जाती हैं। जीवन में इतना ग़लत न करें कि अफसोस का भी मौका न मिले। बस इतने में वो बिलखने लगा। अपनी आवाज़़ को दबा कर कहने लगा कि मेरे बस में क्या है। कहते-कहते अपने बांह की चमड़ी नोचने लगा। बोला इसमें कीड़े पड़ गए होंगे। मैं शराब न पीयूं और ये सब न करूं तो इसी नहर में काट के फेंक देंगे। कौन ग़लत नहीं है इस दुनिया में। आप कितनों को दिखायेंगे। आपने जिनता भी शूट किया है वो सब झूठ है। आप सच्चाई के पांच फीसदी भी करीब नहीं पहुंचें होंगे। आपको क्या मालूम कि ज़मीन को लेकर किस लेवल पर कैसा खेल होता है। ये तो आदमी की बोटी खा लेते हैं। मुझमें इतनी ताकत नहीं कि इनको मना कर दूं। ये साले सब...। काग़ज़ तो देना ही होगा न। ज़मीन आदमी को लालची बना देता है। आप रवीश जी अच्छे आदमी हो। मैं भी आपकी रिपोर्ट देखता हूं। मगर बेकार हो आप।

मैं कहने लगा कि ये सब बहाना है। आप ठीक मालूम होते हैं। बस शराब छोड़ दीजिए और इससे पहले कि वो महिला फिर आए आप यहां से चले जाइये। घर जाइये। दफ्तर के बाहर लोगों से क्यों मिलते हैं। मत मिला कीजिए। वो कहने लगा कि रंडी( ये उसी के शब्द हैं) और पैसा दोनों छाती पर डाल कर ये लोग खड़े हो जाते हैं। रही बात बड़ी कंपनी वालों की तो उनका खेल रवीश जी आप कभी नहीं जान पायेंगे। कौन सुधर रहा है। बड़े-बड़े लोग इन ग़रीबों की चमड़ी नोच कर खा जा रहे हैं। वो क्या रंडीबाज़ नहीं हैं। किसानों की चमड़ी से तो ही खेलते हैं वो सब। आप पत्रकारों को कभी इसकी भनक भी नहीं लगेगी। और ये साले जो अभी नारे लगा रहे हैं, ये सब कीड़े की तरह शांत हो जाएंगे। कितनी रिपोर्ट बना लोगे आप। सब झूठी बातें होंगी आपकी रिपोर्ट में।

उसकी बातें मेरी आंखों में धंस गईं। अलीगढ़ के किसानों का प्रदर्शन,कंपनी माफिये के हाथों विकास के नाम पर ज़मीन का सौदा। इतना मन ख़राब हुआ कि रिपोर्ट की आखिर में एक पीटूसी करने की सोच रखा था,किया ही नहीं गया। जब कई लोगों की प्रतिक्रिया आ रही थी 'ज़मीन बनाम जनहित'पर,उस वक्त मैं घबराहट से भरा जा रहा था। कुछ ने तो हदें पार कर यहां तक कह दिया कि मैं महान हूं। जनता की बात करने वाला अकेला रह गया हूं। सच कहता हूं। लेकिन पहली बार मुझे भी लगा कि मेरी रिपोर्ट झूठी है।

तब से सोच रहा हूं कि समाज भी कितने कम से खुश हो जाता है। मेरी औसत से कुछ बेहतर रिपोर्ट को कालजयी बता देता है। टीवी पर दिखने वालों को स्टार मान कर किसी भी न्यूज एंकर को फेसबुक पर महान बताने लगते हैं। रिपोर्टर क्या करेगा। उसकी सीमा तो सिर्फ बताने तक ही है। उसमें भी वो सच के पांच फीसदी तक नहीं पहुंचता है तो फिर उसे महान क्यों कहा जाए। पहली बार लगा कि चिप(टेप की जगह चिप में रिकार्ड करता हूं)को लात मार-मार कर तोड़ दूं। ऐसा नहीं कर सकता था। हर शुक्रवार को रिपोर्ट जानी ही है। सो चली गई। मगर उस शराबी क्लर्क की बातें और उसका चमड़ी नोंचना भूल नहीं पा रहा हूं। मेरी रिपोर्ट की सच का झूठ आप तक पहुंचने से पहले ही उसने साबित कर दिया था। अलीगढ़ के टप्पल में आज भी किसान आमरण अनशन पर बैठे हैं। सब भूल गए। मैं भी। मैं कल से किसी और विषय के आलिंगन में चला जाऊंगा। फिर से अपनी औसत रिपोर्ट पर महान,कालजयी और बेहतरीन जैसी प्रतिक्रियाओं के स्वागत के लिए। मुझे उस क्लर्क की लाचारी कम,अपनी लाचारी ज़्यादा नज़र आ रही थी।

यमुना तुम ऐसे ही बहते रहना

अब तो बता दो
फैल कर
अपने ही दामन में
भींगोते हुए आंचल को
बहते हुए धारा प्रवाह
जी कैसा मचलता है
तु्म्हारा
जो कल तक नदी नहीं थी
नाम भर बहती थी तुम
और
आज तुम्हारी जवानी
ये भीतर से बाहर उठतीं लहरें
टीवी का रिपोर्टर क्या जाने
तुम्हारी मस्ती को
मौजों को कहता है बाढ़ है
शरारतों को बताता ख़तरा है
हेडलाइन से उतर जाने के बाद भी
तुम ऐसे ही बहते रहना
मेरी यमुना
और हां
आई हो लौट कर अपनी धारा में
तो रहना कुछ दिन ऐसे ही
डराते हुए
छेड़ते हुए
दिल्ली वालों को
निज़ामुद्दीन पुल से गुज़रते हुए
तुमको देख मैं मचल गया
मुरझाई धड़कनें जब ज़िंदा होती है
यमुना
तुम आज जैसी लग रही हो
वैसी ही लगती हैं

(ऐ दिल्ली वालों,जिस नदी को तुमने मार दिया था, वो आज खुद से जी उठी है,दो-चार दिनों के लिए ही सही लेकिन अपनी पुरानी धाराओं के दामन में लौटकर यमुना फिर से निहारने लायक हो गई है। मेरी कविता पढ़ें न पढ़े,आप यमुना को ज़रूर देख आइये। क्या पता हेडलाइन से उतरते ही यमुना भी वापस लौट जाए, और छोड़ जाए अपने पीछे एक गंदा सा नाला। नाला कहें या आपकी करतूत। यमुना से पूछिये न।)

हिन्दी पत्रकारिता का दनदनाहट काल

अचानक से हिन्दी न्यूज़ चैनलों पर स्पीड न्यूज का हमला हो गया है। कार के एक्सलेटर की आवाज़ लगाकर हूं हां की बजाय ज़ूप ज़ाप करती ख़बरें। टीवी से दूर भागते दर्शकों को पकड़ कर रखने के लिए यह नया फार्मूला मैदान में आया है। वैसे फार्मूला निकालने में हिन्दी न्यूज़ चैनलों का कोई जवाब नहीं। हर हफ्ते कोई न कोई फार्मेट लांच हो जाता है। कोई दो मिनट में बीस ख़बरें दिखा रहा है तो कोई पचीस मिनट में सौ ख़बरें। ये दनादन होते दर्शकों के लिए टनाटन ख़बरों का दौर है या अब दर्शक को ख़बर दिखा कर उसका दिमाग भमोर दिया जा रहा है। हिन्दी न्यूज़ चैनलों की प्रयोगधर्मिता पर अलग से शोध होना चाहिए। अच्छे भी और बुरे भी। प्रस्तिकरण के जितने प्रकार हिन्दी चैनलों के पास हैं उतने इंग्लिश वालों के पास नहीं हैं।

अगर ख़बर की कोई कीमत है तो वो ऐसी क्यों है कि आप कुछ समझ ही न पायें और ख़बर निकल जाए। प्लेटफार्म पर खड़े होकर राजधानी निहार रहे हैं या घर में बैठकर टीवी देख रहे हैं। माना कि टाइम कम है। लोगों के पास न्यूज देखने का धीरज कम हो रहा है लेकिन क्या वे इतने बेकरार हैं कि पांच ही मिनट में संसार की सारी ख़बरें सुन लेना चाहते हैं। ऐसे दर्शकों का कोई टेस्ट करना चाहिए कि दो मिनट में सत्तर ख़बरें देखने के बाद कौन सी ख़बर याद रही। पहले कौन चली और बाद में कौन। इसे लेकर हम एक रियालिटी प्रतियोगिता भी कर सकते हैं। समझना मुश्किल है। अगर दर्शक को इतनी जल्दी है दफ्तर जाने और काम करने की तो वो न्यूज़ क्यों देखना चाहता है? आराम से तैयार होकर जाए न दफ्तर। सोचता हूं वॉयस ओवर करने वालों ने अपने आप को इतनी जल्दी कैसे ढाल लिया होगा। स्लो का इलाज स्पीड न्यूज है।

अगर दर्शक ज़ूप ज़ाप ख़बरें सुन कर समझ भी रहा है तो कमाल है भाई। तब तो इश्योरेंस कंपनी के विज्ञापन के बाद पढ़ी जाने वाली चेतावनी की लाइनें भी लोग साफ-साफ सुन ही लेते होंगे। पहले मैं समझता था कि स्पेस महंगा होता है इसलिए संवैधानिक चेतावनी को सिर्फ पढ़ने के लिए पढ़ दिया जाता है। इश्योरेंस...इज...मैटर...ब..बबा..बा। मैं तो हंसा करता था लेकिन समझ न सका कि इसी से एक दिन न्यूज़ चैनल वाले प्रेरित हो जायेंगे। जल्दी ही स्पीड न्यूज़ को लेकर जब होड़ बढ़ेगी तो चेतावनी का वॉयस ओवर करने वाला कलाकार न्यूज़ चैनलों में नौकरी पा जाएगा। जो लोग अपनी नौकरी बचा कर रखना चाहते हैं वो दनदनाहट से वीओ करना सीख ले। एक दिन मैंने भी किया। लगा कि कंठाधीश महाराज आसन छोड़ कर गर्दन से बाहर निकल आएंगे। धीमी गति के समाचार की जगह सुपरफास्ट न्यूज़। यही हाल रहा तो आप थ्री डी टीवी में न्यूज़ देख ही नहीं पायेंगे। दो खबरों के बीच जब वाइप आती है,उसकी रफ्तार इतनी होगी कि लगेगा कि नाक पर किसी ने ढेला मार दिया हो।

न्यूज़ संकट में है। कोई नहीं देख रहा है या देखना चाहता है तभी सारे चैनल इस तरह की हड़बड़ी की होड़ मचाए हुए हैं। अजीब है। अभी तक किसी दर्शक ने शिकायत नहीं की है कि एक चैनल के सुपर फास्ट न्यूज़ देखते हुए कुर्सी से गिर पड़ा। दिमाग़ पर ज़ोर पड़ते ही नसें फट गईं और अस्पताल में भर्ती कराना पड़ गया। स्पीड न्यूज की मात्रा हर चैनल पर बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं पूरे स्क्रीन पर ऊपर-नीचे हर तरफ लिख दिया गया है। ये सब न्यूज़ चैनलों की ख़बरों के लिए बाज़ार खोजती बेचैनियां हैं। ख़बरें कब्र से निकल कर शहर की तरफ भागती नज़र आती हैं। लेकिन आपने देखा होगा। ख़बरों में कोई बदलाव नहीं आया है। ख़बरें नहीं बदलती हैं। सिर्फ फार्मेट बदलता है।

इतना ही नहीं इसके लिए सारे कार्यक्रमों के वक्त बदल रहे हैं। अब साढ़े आठ या साढ़े नौ या नौ बजे का कोई मतलब नहीं रहा। वैसे ये छोटा था कहने पुकारने में। नया टाइम है- आठ बज कर सत्ताईस मिनट,नौ बजकर अट्ठाईस मिनट। नौ बजे रात से तीन मिनट पहले ही हेडलाइन चल जाती है। कई चैनल 8:57 पर ही हेडलाइन रोल कर देते हैं तो कुछ एक मिनट बाद। हिन्दी चैनलों की प्रतियोगिता हर पल उसे बदल रही है। समय का बोध भी बदल रहा है। यह समझना मुश्किल है कि जिस दर्शक के पास ख़बरों के लिए टाइम नहीं है वो नौ बजने के तीन मिनट पहले से क्यों बैठा है न्यूज़ देखने के लिए। अगर ऐसा है तो हेडलाइन एक बुलेटिन में दस बार क्यों नहीं चलती। तीन-चार बार तो चलने ही लगी है। देखने की प्रक्रिया में बदलाव तो आया ही होगा जिसके आधार पर फार्मेट को दनदना दनदन कर दिया गया है। यही हाल रहा तो एक दिन आठ बजकर पचास मिनट पर ही नौ बजे का न्यूज़ शुरू हो जाएगा। लेकिन नाम उसका नौ बजे से ही तुकबंदी करता होगा। न्यूज़ नाइन की जगह न्यूज़ आठ पचास या ख़बरें आठ सत्तावन बोलेंगे तो अजीब लगेगा। एकाध दांत बाहर भी आ सकते हैं।

ख़बरों के इस विकास क्रम में टिकर की मौत होनी तय है। टॉप टेन या स्क्रोल की उपयोगिता कम हो गई है। कुछ चैनलों ने रेंगती सरकती स्क्रोल को खत्म ही कर दिया है। कुछ ने टॉप टेन लगाकर ख़बरें देने लगे हैं। यह स्पीड न्यूज़ का छोटा भाई लगता है। जैसे चलने की कोशिश कर रहा हो और भइया की डांट पड़ते ही सटक कर टाप थ्री से टाप फोर में आ जाता हो। टाइम्स नाउ ने हर आधे घंटे पर न्यूज़ रैप के मॉडल में बदलाव किया है। इसमें पूरे फ्रेम में विज़ुअल चलता है। ऊपर के बैंड और नीचे के बैंड में न्यूज़ वायर की शैली में ख़बरें होती हैं। अभी तक बाकी चैनल सिर्फ टेक्स्ट दिखाते थे या फिर स्टिल पिक्चर। कुछ हिन्दी चैनल टाइम्स नाउ से मिलता जुलता प्रयोग कर चुके हैं।

इतना ही नहीं न्यूज़ चैनल कई तरह की बैशाखियां ढूंढ रहे हैं। फेसबुक पर मैं खुद ही अपने शो की टाइमिंग लिखता रहता हूं। एनडीटीवी का एक सोशल पेज भी है। वहां भी हम समय बताते हैं। स्टोरी की झलक देते हैं। अब तो रिपोर्टर भी अपनी स्टोरी का विज्ञापन करते हैं। मेरी स्टोरी नौ बजे बुलेटिन में देखियेगा। इतना ही नहीं ट्विटर पर नेताओं और अभिनेताओं के बयान को भी ख़बर की तरह लिया जा रहा है। ट्विटर के स्टेटस को अब पैकेज कर दिखाया जा रहा है। ट्विटर पर राजदीप अपने चैनल के किसी खुलासे की जानकारी देते हैं। मैं ख़ुद ट्विटर पर अपने शो की जानकारी देता हूं। एक अघोषित संघर्ष चल रहा है। कंपनियां आपस में होड़ कर रही हैं। उसके भीतर हम लोग अपनी ख़बरों को लेकर प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। फेसबुक का इस्तमाल हो रहा है। कई चैनल अपना कार्यक्रम यू ट्यूब में डाल रहे हैं। मैंने भी अपने एक एपिसोड का प्रोमो यू ट्यूब में डाला था। हर समय दिमाग में चलता रहता है कि कैसे अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुंचू। कोई तो देख ले। कई बार ख्याल आता है कि एक टी-शर्ट ही पहन कर घूमने लगूं,जिसके पीछे शो का नाम और समय लिखा हो। कुछ स्ट्रीकर बनवाकर ट्रक और टैम्पो के पीछे लगा दूं। यह भी तो हमारे समय के स्पेस है। जैसे फेसबुक है,ट्विटर है। स्टेटस अपडेट तो कब से लिखा जा रहा है। ट्रको के पीछे,नीचे और साइड में। सामने भी होता है। दुल्हन ही दहेज है या गंगा तेरा पानी अमृत। नैशनल कैरियर।

कुल मिलाकर न्यूज़ चैनल के क्राफ्ट में गिरावट आ रही है। कैमरे का इस्तमाल कम हो गया है। खूब नकल होती है। कोई चैनल एक फार्मेट लाता है तो बाकी भी उसकी नकल कर चलाने लगते हैं। हिन्दी न्यूज़ चैनलों ने इस आपाधापी में एक समस्या का समाधान कर लिया है। अब उनके लिए नैतिकता समस्या नहीं है। न ही स्पीडब्रेकर। बस यही बाकी है कि न्यूज़ न देखने वाले दर्शकों की पिटाई नहीं हो रही है। नहीं देखा। मार त रे एकरा के। स्पीड न्यूज़ की तरह भाई लोग दर्शक को ऐसे धुन कर चले जायेंगे कि उन्हें पता ही नहीं चलेगा कि स्पीड न्यूज़ में आकर चले भी गए। दूसरे दर्शक भी नहीं जान पायेंगे कि ये अपने ही किसी भाई के पीट जाने की ख़बर अभी-अभी रफ्तार से निकली है। दर्शक पूछते फिरेंगे कि भाई अभी कौन सी ख़बर आने वाली है और कौन सी गई है। खेल वाली निकल गई क्या। ऐसा भी होने वाला है कि पूरा न्यूज़ फास्ट फारवर्ड में चला दिया जाएगा। किचपिच किचपिच। समझें न समझें मेरी बला से। दर्शक बने हैं तो लीजिए और बनिए। और पांच लाइन क्यों पढ़े। चार शब्दों की एक ख़बर होनी चाहिए। मनमोहन सिंह नाराज़। क्यों और किस पर ये दर्शक का जाने बाप। स्पीड न्यूज़ है भाई। इतना बता दिया कम नहीं है। आप देख रहे हैं हिन्दी पत्रकारिता का दनदनाहट काल।

और राकेश मारा गया....पीपली लाइव की समीक्षा

पीपली लाइव के आखिर के उस शाट्स पर आंखें जम गई...जब कैमरे ने कलाई में बंधे ब्रैसलेट को देखा था। जला हुआ। यहां भी मीडिया ग़लत ख़बर दे गया। नत्था तो नहीं मरा लेकिन एक संवेदनशील और मासूम पत्रकार मारा गया। फिल्म की कहानी आखिर के इसी शॉट के लिए बचा कर रखी गई थी। किसी ने राकेश को ठीक से नहीं ढूंढा, सब नत्था के मारे जाने की कहानी को खत्म समझ कर लौट गए। ओबी वैन और मंच के उजड़ने के साथ जब कॉफी के स्टॉल उखाड़ कर जा रहे थे तो लगा कि कैसे बाज़ार राकेश को मार कर चुपचाप और खुलेआम अपना ठिकाना बदल रहा है। नत्था तो अपनी किस्मत के साथ कलमाडी के सपनों के नीचे इमारती मज़दूर बनकर दबा मिल जाता है लेकिन राकेश की ख़बर किसी को नहीं मिलती। हम इस आपाधापी में अपना ही क़त्ल कर रहे हैं। इसीलिए मरेगा राकेश ही। जो सवाल करेगा वही मारा जाएगा।

इस फिल्म को सबने हिस्सों में देखा है। किसी को मल का विश्लेषण करता हुआ पत्रकार नज़र आता है तो किसी समझ नहीं आता कि सास पुतोहू के बीच की कहानी व्यापक वृतांत का हिस्सा कैसे बनती है। धनिया और उसकी सास अपने प्रसंगों में ही फंसे रहते हैं। उन पर मीडिया न मंत्री का असर पड़ता है। दो औरतों के बीच की वो दुनिया जो रोज़ की किचकिच से शुरू होती है और उसी पर ख़त्म हो जाती है। यही मज़ा है पीपली लाइव का। कई कहानियों की एक कहानी। मोटा भसका हुआ बीडीओ और उसका गंदा सा स्वेटर। जीप की खड़खड़ आवाज़। कृषि सचिव सेनगुप्ता की दार्जिलिंग टी और सलीम किदवई का जैकेट और पतलून में इंग्लिश स्टुडियो जाना और हिन्दी स्टुडियो में जाते वक्त कुर्ता पायजामा और अचकन पहनना। नत्था का अपने बड़े भाई के सामने बेबस हो जाना। उसकी मां का बेटे के लिए दहाड़ मार कर नहीं रोना। पत्नी धनिया किसी साइलेंट मूवी की हिरोईन की तरह चुप रहती है और जब फटती है तो लाउडस्पीकर चरचरा जाता है। मीडिया के अपने द्वंद से गुज़रती हुई इसकी कहानी एक परिवार,एक गांव,एक ज़िला,एक राज्य,एक देश और एक विश्व की तमाम विसंगतियों के बीच बिना किसी भावनात्मक लगाव के गुज़रती चलती है। राकेश की तुकबंदी में इराक भी है और किसानों की बातचीत में अमरीकी बीज कंपनी भी।

फोकस में ज़रूर मीडिया है लेकिन जब कैमरा शिफ्ट फोकस करता है तो लेंस की हद में कई चीज़े आ जाती हैं।सियासत की नंगई भी खुल जाती है। दिल्ली में बैठा इंग्लिश बोलने वाला सलीम किदवई भी चालबाज़ियां करता हुआ एक्सपोज़ हो जाता है। राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना का नया प्रतीक लाल बहादुर। गांव गांव में नलकूप योजनाओं का यही गत है मेरे भाई। मुखिया से लेकर मुख्यमंत्री तक सब एक ही कतार में। पीपली लाइव नाम बहुत सही रखा है। सब कुछ लाइव ही था। इंग्लिश की पत्रकार हिन्दी के पत्रकार को छू देती है। वो सारी प्रतिस्पर्धा भूल जाता है। हिन्दी और इंग्लिश के पत्रकार के लाइव चैट में भी अंतर है। हिन्दी की लड़की अपने लाइव भाषण में देश,समाज और राजनीति का ज़िक्र करती है। इंग्लिश की पत्रकार एक व्यक्ति की कहानी से आगे नहीं बढ़ती। इंग्लिश की पत्रकार के लिए नत्था एक इंडिविजुअल स्टोरी है और हिन्दी के पत्रकारों के लिए नौटंकी के साथ-साथ एक सिस्टम की स्टोरी। हिन्दी और इंग्लिश मीडिया के पत्रकारों के रिश्तों में झांकती इस फिल्म पर अलग से लिखा जा सकता है।

फिल्म के फ्रेम बहुत तेज़ी से बदलते हैं। कहानी किसी घटना का इंतज़ार नहीं करती। बस आगे बढ़ जाती है। पूरी फिल्म में प्रधानमंत्री का कोई किरदार नहीं है। मनमोहन सिंह ने इस पद को वाकई अपनी चुप्पी से मिट्टी में मिला दिया है। एक फ्रेम में धनिया और सास की लड़ाई है तो अगले फ्रेम में मुख्यमंत्री की सेटिंग। वैसे में राकेश का यह सवाल कि मर तो होरी महतो भी गया है। होरी महतो का बीच फ्रेम में आकर गड्ढा खोदते रहना। राकेश का बगल से गुज़रना। एक दिन उसकी मौत। स्टोरी और हकीकत के बीच मामूली सा द्वंद। स्ट्रींगर राकेश का सपना। नेशनल चैनल में नौकरी का। उसकी स्टोरी पर बड़े पत्रकारों का बड़ा दांव। संपादक की लंपटई। कैमरा बड़ा ही बेरुख़ेपन से सबको खींचता चलता है। अनुषा के निर्देशन की यही खूबी है।

पत्रकारिता के फटीचर काल का सही चित्रण है पीपली लाइव। गोबर हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया है। अनुषा और महमूद के कैमरे ने तो गोबर से गू तक के सफर को बखूबी दिखाया है। इंग्लिश और हिन्दी दोनों ही माध्यमों में काम करने वाला पत्रकार एक-एक फ्रेम को देखकर कह सकता है सही है। इसका मतलब यह नहीं कि टीवी के पत्रकारों ने कभी अच्छा काम नहीं किया है। वही तो याद दिलाने के लिए यह फिल्म बनी है। हम क्या से क्या हो गए हैं। किरदारों के किसी असली नाम से मिलाने का कोई मतलब नहीं है। हर किरदार में हर पत्रकार शामिल है। मीडिया मंडी में बिक गया तो पगड़ी तो उछलेगी ही। कई फिल्मों और लेखों में मीडिया के इस फटीचर काल की आलोचना होती रही है। लेकिन पीपली लाइव ने आलोचना नहीं की है। सरेस काग़ज़ लेकर आलोचना से खुरदरी हुई परतों को और उधेड़ दिया है। टीवी और टीआरपी की लड़ाई को मल्टीप्लेक्स से लेकर सिंगल स्क्रिन के दर्शकों के बीच लाकर पटक दिया है जिनके नाम पर करीना के कमर की मोटाई न्यूज़ चैनलों में नापी जा रही है। यह फिल्म मीडिया से नहीं दर्शकों से टकराती है।

आप इस फिल्म को कई बार देख सकते हैं। अनुषा और महमूद को बधाई लेकिन विशेष बधाई शालिनी वत्स को। धनिया बनने के लिए। कौन बनता है आज के ज़माने में पर्दे पर नत्था और धनिया और कौन बनाता है ऐसी फिल्में। उम्मीद है साउथ दिल्ली की लड़कियां अपना पेट या कैट नाम धनिया भी रखेंगी। अनुषा का रिसर्च बेज़ोड़ है। निर्देशन भी बढ़िया है। वैसे याद रहे। बदलेगा कुछ नहीं। मीडिया ने महंगाई डायन को छोड़ अब मुन्नी बदनाम हो गई का दामन थाम लिया है।

आया आया कलामे रूमी आया


दारा शिकोह की स्मृति में एक किताब आई है। कलामे रूमी। अभय तिवारी ने फारसी के महान सूफ़ी कवि मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी की रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद किया है। यह किताब नए और पुराने पाठकों दोनों के लिए हैं। मेरा मतलब जो लोग रूमी के बारे में नहीं जानते हैं, वे भी इसे पढ़ कर शुरूआत से रूमी के बारे में जान सकते हैं। कविता पढ़ने के बाद गूगल करने की ज़रूरत नहीं। अभय तिवारी ने कोशिश की है कि रूमी तक पहुंचने से पहले इस्लाम और सूफ़ी परंपरा के द्वंदों और विकास यात्राओं को भी संक्षिप्त नज़र से जान लिया जाए। अभय ने अपनी दलीलों की प्रमाणिकता में चैप्टर के बाद संदर्भ सूची भी दी है। इसीलिए आप इस किताब को पढ़ते हुए कई किताबों से भी गुज़र सकते हैं। कुल्लियाते दीवाने शम्स तबरेज़ी,और मसनवी मानवी,ये रूमी की रचनाओं के दो मुख्य ग्रंथ हैं। अभय ने लिखा है कि रूमी की एक छवि बनी हुई है, जैसे कोई उदारवादी, रहस्यवादी आध्यात्मिक गुरु हो। यह छवि ग़लत नहीं है मगर अधूरी है। रूमी ये सब होने के साथ साथ मुसलमान भी हैं। रूमी वे सारी बातें भी करते हैं जिसके लिए इस्लाम की आलोचना की जाती है। लेकिन पश्चिम के अनुवादकों और भारत के भी अनुवादकों ने रूमी की ये सभी बातें छानकर अलग कर दी हैं।

मोटी किताब है लेकिन हिन्द पाकेट बुक्स ने इसे हल्का कर दिया है। आप आसानी से उठाकर पढ़ सकते हैं। १९५ रुपये की कीमत इस किताब के लिए बिल्कुल ज़्यादा नहीं है। इतनी शानदार रचनाओं का संकलन है कि जब भी और जहां से भी पढ़ेंगे मजा आने लगेगा।

अपने आशिक को माशूक़ ने बुलाया सामने
ख़त निकाला और पढ़ने लगा उसकी शान में
तारीफ़ दर तारीफ़ की ख़त में थी शाएरी
बस गिड़गिड़ाना-रोना और मिन्नत-लाचारी
माशूक़ बोली अगर ये तू मेरे लिए लाया
विसाल के वक़त उमर कर रहा है ज़ाया
मैं हाज़िर हूं और तुम कर रहे ख़त बख़ानी
क्या यही है सच्चे आशिक़ों की निशानी?

एक जगह रूमी कह रहे हैं-लफ्ज़ सिर्फ़ बहाना है। असल में ये अन्दर का बंधन है, जो एक शख्स को दूसरे से जोड़ता है, लफ्ज़ नहीं। कोई लाखों करिश्मे और ख़ुदाई रहमतें भी क्यों न देख ले अगर उस फ़क़ीर या पैग़म्बर के साथ कोई तार नहीं जुड़ा है तो करिश्मों से कोई फरक़ नहीं पड़ने वाला है। ये जो अन्दर का तत्व है यही खींचता और चलाता है,अगर लकड़ी में पहले से ही आग का तत्व मौजूद नहीं है तो आप कितना भी दियासलाई लगाते रहिए,वो नहीं जलेगी। लकड़ी और आग का संबंध पोशीदा है,आंख से नहीं दिखता।

मुझे ये किताब अच्छी लगी है। आपको भी लगनी चाहिए। रूमी के बारे में तो जानेंगे ही साथ-साथ सूफ़ी परंपरा और उसके शब्दों,दर्शनों से भी परिचय हो जाएगा।

कैसे बचेंगे हम और हमारा मकान



गली का आखिरी होता मकान
अर्धगोलाकार
भूरे रंग की खिड़कियां होतीं
मोटी मोटी सीढ़ियां
कुमार सदन नाम का एक मकान
पुराने मोर्टे पर्दे
बेंत की कुर्सियों से भरा बरामदा
ऊपर से जाता फ्लाईओवर आसमान
तेज भागती कारों से दिखती
कमरे में फैली ट्यूबलाइट की रौशनी
और
नीली दीवार
लाल रंग की फर्श और काले खंभे
रेडियो पर रखा क्रोशिया कवर
और
एक छोटा सा गुलदान
सेंटर टेबल पर रखकर लात
सुबह हाथों में लिये अख़बार
पन्नों पर दुनिया होती
और
सामने मेरा मकान
बिल्कुल न बदलने की ज़िद में
केपटाउन अपार्टमेंट के सामने
कुमार सदन
शहर में एक पुराने पते की तरह
ऊंची इमारतों से नीचे झांकने पर
दिखती मेरी छत
उस पर रखी बेटी की पुरानी साइकिल
और
लुंगी गंजी भरमार
हवाओं के संपर्क में लहराते सूखते
वही बूढ़ा आज भी बैठा है
लिये हाथ में अख़बार
कैसे बेकार पड़ा है इसका मकान
बेच कर बिल्डर को दे देता
कुमार से केपटाउन हो जाता मकान
अपार्टमेंटों के इस गुमान काल में
कैसे बचे रहे हम
और
हमारा मकान

झुग्गी में जिमखाना क्लब

दिल्ली की गलियों में भटकते हए एक दिन बदरपुर बोर्डर पर पहुंच गया। थोड़ा पहले एक आलीगांव है। उसी से सटे गौतमपुरी में जाना हुआ। गौतमपुरी सरकार की बसाई अस्थायी झुग्गी है। फर्क ये है कि यहां लोगों को दस साल की लीज़ पर प्लॉट मिले हैं। १२ गज के प्लॉट। कभी देखना चाहिए कि कैसे इतनी कम जगह में लोगों ने रहने का नक्शा बनाया है। महिलाएं बाहर सड़क पर आराम से नहा लेती हैं। कुछ ने मकान चढ़ने की सीढ़ी के नीचे टाट से एक कमरे जैसे बना लिया जिसका इस्तमाल नहाने के लिए करती हैं। आस पास से लोग,साइकिल,ठेले वाले लौकी भिंडी बेचते गुज़र जाते हैं।



तो इसी गौतमपुरी में गया। नज़र पड़ी इस बोर्ड पर। जिमखाना क्लब। इंग्लिश में बोर्ड। हैरानी में पड़ गया। पूछा कि जिमखाना क्लब यहां कैसे। तो लोगों ने बताया कि ये क्लब नहीं है। इसमें तो क्लब में काम करने वाले चपरासी,वेटर और खानसामा रहते हैं। इनके तो अफसरों से अच्छी जान पहचान थी इसलिए इनकी अलग से प्लॉट कट गई। सड़क भी दस फुट चौड़ी है। इनका अपना गेट है। एक बस लगी है। आप गेट के ऊपर पढ़िये। इसमें हिन्दी में मित्रा फाटक लिखा है। पूरी तरह इंग्लिश में लिखे इस बोर्ड में यही दो शब्द हिन्दी के हैं। दिल्ली के महंगे कस्तूरबा गांधी मार्ग पर रहने वाले के जी मित्रा साहब ने इस गेट को लगवाया है। उन्होंने लिखवाया है कि इन द नेम ऑफ फ्रेंडशिप। अक्सर क्लब में किसी खास वेटर से दोस्ती हो जाती है। ये लोग भी जानते हैं कि जिमखाना क्लब का नाम न होता तो ऐसी रिहाइश नसीब न होती।



कुछ समय पहले एम्स के पास गौतमनगर की झुग्गी में जब ये लोग रहते थे तो कोई फर्क न था। जिमखाना क्लब वालों का मकान भी बाकी झुग्गी वालों जैसा था। लेकिन जब वहां की झुग्गी टूटी तो बदरपुर के पास बसाई गई। नाम पड़ा गौतमपुरी। इनके दो मंजिला मकान सरकारी अफसरों के स्टॉफ क्वार्टर जैसे लगते हैं। एक घर में एयरकंडीशन भी दिखाई दिया। कूलर सबके पास है। साफ सफाई बिल्कुल साहबों के मोहल्ले जैसी। अगर आप किसी रसूखदार के संपर्क में हैं तो इस देश में आप नाले के बीच से भी अपने लिए एक नदी निकाल सकते हैं। कभी झुग्गी में बने जिमखाना क्लब घूम आइयेगा। बताने की ज़रूरत नहीं कि दिल्ली की सोसायटी में जिमखाना क्लब की क्या औकात है। इन लोगों को भी मालूम है इसलिए वो अपने रहने की जगह को भी जिमखाना के नाम से पुकारना चाहते हैं।

मैं प्रवासी हूं

बचपन से पहचान का यह सवाल परेशान करता रहा है। जब पटना शहर से गांव जाता था तो लोग ताने देते थे। बबुआ शहरी हो गया है। चूड़ा दही कम ब्रेड बटर खाता है। शहर और गांव के एक फर्क को जीता रहा। दोनों ही अस्थायी ज़मीन की तरह मालूम पड़ते थे। पटना आता था तो लगता था कि गांव जाना है। गांव जाता था तो लगता था कि छुट्टियां खत्म होते ही पटना जाना है। इस बीच बिहार की अराजकता ने पटरी चेंज कर दी। दिल्ली आ गया। अब तीन जगहों के बीच अस्थायी सफर शुरू हुआ। गांव वाले फिर से कहने लगे कि पटना से ही लौट जाते हो। अपनी ज़मीन पर आया करो। दिल्ली आता था तो बस में डीटीसी वाला कह देता था अरे बिहारी। मुझे अच्छा लगता था। बिहारी। पटना में स्कूल की किताब ने यही पढ़ाया कि गुजराती होते हैं,मराठी होते थे और मद्रासी होते हैं। उसमें बिहारी होते हैं नहीं लिखा था। लगा कि अरे हम भी गुजराती मराठी की तरह बिहारी हैं। अनेकता में एकता के एक फूल हम भी हैं। बाद में पता चला कि बिहारी कहने के पीछे सस्ते श्रम का अपमान छुपा है।

इतिहास के पन्नों ने समझाना शुरू किया जो मैं भुगत रहा हूं उससे कहीं ज्यादा पुरखे भुगत कर जा चुके हैं। गिरमिटिया बनकर। वेस्ट इंडीज़,मारिशस और आस्ट्रेलिया तक। बिहार और उत्तर प्रदेश के अभागे इलाके अपने गानों में हम जैसों के लिए तरसते रहे और हम उन गानों की याद में दिल्ली के कमरों में सिसकते रहे। छठ हो या दिवाली। ऐसी हूक उठती थी कि लगता था कि दीवार से सर दे मारे। कहां रोये और कब तक रोये। छह फुट के थुलथुल शरीर पर टपकते आंसू अजीब लगते थे। दोस्तों के फिल्म जाने का इंतज़ार करता था ताकि दरवाज़ा बंद कर रो लूं। जब गांव-पटना था तो लोगों को गाली देता था। अब दिल्ली आ गया तो उनकी याद आ रही है। पटना के बांसघाट से लाउडस्पीकर से आती आवाज़। कर्ज़ फिल्म का गाना। तुमने कभी किसी को दिल दिया है। मैंने भी दिया है। फिर हम सबका रास्ते को बुहारना और घाट से लौटती व्रतियों से चादर बिछाकर ठेकुआ प्रसाद मांगना। सार्वजनिक हिस्सेदारियों से शहर से इतना प्यार हो जाएगा कि आज तक वो किसी पहली लड़की की तरह याद आता रहेगा। सब छूट गया। क्या करें।

दिल्ली के गोविन्दपुरी की गलियां हर वक्त अपने को खोजती थी। दुकानदार से पूछ लेता था। कहां के हो। गोरखपुर। अरे वहीं पास के ज़िले में तो ननिहाल है। कोई रोटी वाला कहता था गाज़ीपुर है,तो कहता था अरे वहीं पास में बड़ी बहन की शादी हुई है। कोई बस्ती का बताता तो बहनों का ससुराल बताकर रिश्ता जो़ड़ लेता था। गोरखपुर वाला तो भाई कहने लगा और दाल में एक पीस मटन का रखने लगा। सीवान का दर्ज़ी फ्री में बटन लगा देता था क्योंकि वहां मेरी मां का ननिहाल था। इतने इलाके, इतने गांवों से रिश्तेदारी फिर भी गोविन्दपुरी की एक गली में अकेलापन। एक दिन चार बजे नार्थ ईस्ट ट्रेन पकड़ने जा रहा था। कोई ऑटो वाला नहीं जा रहा था। बस पूछ लिया कहां के हो जी। बोला मोतिहारी। बस बैठ गया और कह दिया कि हम भी तो वहीं के हैं। चलो स्टेशन। वो भी चल दिया। पैसा ही नहीं लिया। ट्रेन में सवार होते होते लगा कि फिर कोई रिश्तेदार छूट गया है। एक शहर के बदलने से हमारे कितने रिश्ते बदल गए।

अब इस तरह से परिचय पूछकर नाता जो़ड़ने का सिलसिला टूट गया है। अब नहीं पूछता कि तुम कहां के हो। अब मेरे जैसे बहुत से लोग इस शहर में हैं। पत्रकार बनकर प्रवासी मुद्दे पर बहस करने लगा। अचानक एक दिन ध्यान आया। मैं व्हाइट कॉलर प्रवासी हूं। कोई मुझसे परेशान नहीं है। जो मजदूर है उसी को प्रवासी बताकर धकियाया जा रहा है। प्रवासी का भी क्लास होता है। किसी को एलिट प्रवासी से प्रॉब्लम नहीं है। सबको गैर कुलीन प्रवासी से समस्या है। ख़ैर धीरे धीरे अहसास कमज़ोर होता चला गया। लगा कि मैं तो कास्मोपोलिटन हो रहा हूं। फिर भी शहर और गांव की याद तो तब भी आती रही। आज भी आती है।

जब भी बंबई से प्रवासियों की खबर आती है,दिल धड़क जाता है। ये राज ठाकरे कहता है कि बाहर से आए लोगों के कारण मलेरिया फैला है। शीला दीक्षित कहती है कि आबादी का बोझ दिल्ली नहीं सह पाएगी। मैंने प्रवासी होने की प्रक्रिया पर कोई किताब नहीं पढ़ी है। अपनी सहजबुद्धि से सोच रहा हूं।

प्रवासी होना एक आर्थिक प्रक्रिया है। आर्थिक ज़रूरत है। वर्ना दिल्ली और आस पास के इलाकों में रियल इस्टेट से लेकर कंपनियों को सस्ता श्रम नहीं मिलता। वर्ना पंजाब के लोग स्टेशन पर मुर्गा मोबाइल लेकर बिहार से आने वाले मज़दूरों का इंतज़ार न करते। हम प्रवासी छात्रों के कारण दिल्ली के बेरसराय,कटवारिया सराय,मुनिरका से लेकर जीया सराय तक धनी हो गए। उनकी झोंपड़ी महलों में बदल गई। दिल्ली विश्वविद्यालय के आस पास का इलाका चमक गया। दिल्ली में अकूत धन और सस्ते श्रम का इंतज़ाम हो गया। रोज़गार और बाज़ार का सृजन हुआ। सरकारी सिस्टम पर बोझ भी बढ़ा। लेकिन एक मंजिल के मकान पर चार मंज़िल मकान बनाकर क्या बोझ नहीं बढ़ाया गया। क्या सिर्फ प्रवासियों ने बोझ डाला?यहां के तथाकथित स्थाई लोगों ने नहीं।

उदारीकरण एक बेईमान आर्थिक अवधारणा है। यह बाजार के विकेंद्रीकरण और उत्पादन के केंद्रीकरण पर टिका है। तभी चंद शहरों के आस पास ही कंपनियां लगाई गईं। उन जगहों में भी कंपनियां लगाने से पहले रिश्वत दी गई। लेकिन बिहार उत्तर प्रदेश और उड़ीसा को छोड़ दिया गया। कहा गया कि कानून व्यवस्था नहीं है। आज भी प्लंबर और फिटिंग के मामले में उड़ीया मज़दूर सूरत से लेकर पुणे तक में प्रसिद्ध हैं। उनके कौशल का जवाब नहीं। दिल्ली को भी बनाने में बिहार,यूपी,उत्तराखंड और उड़ीसा के मज़दूरों से पहले पाकिस्तान से आए शरणार्थी पंजाबियों के सस्ते श्रम और अकूत लगन ने भूमिका अदा की है। उन्होंने दिल्ली को एक नई आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान दी। अपने ग़मों को छुपाकर रखा। उनकी सिसकियों की बुनियाद पर जब पसीने गिरे तो पंजाबीबाग से लेकर जंगपुरा तक के मोहल्ले आबाद हो गए। अब हिन्दी ह्रदय प्रदेशों के मज़दूर इसे आबाद कर रहे हैं। दिल्ली के बदरपुर,मीठापुर,आलीगांव,करावलनगर,भजनपुरा और संगम विहार। यहां भी सस्ते श्रम से धीरे धीरे पूंजी बन रही है। सारे प्रोडक्ट ने अपनी दुकान लगा ली है। लेकिन इन गलियों की सड़न देखकर जी आहें भरता है। रोता है मन। इनको मिला क्या। गैरकानूनी दर्जा। इनके वोट से न जाने कितने नेताओं की दुकानें भी चलीं। अर्थव्यवस्था के साथ साथ राजनीति भी प्रवासियों से फायदा उठाती है। मनमोहन सिंह खुद प्रवासी प्रधानमंत्री हैं। पंजाब के होकर असम से राज्य सभा के सांसद हैं।

तो क्या प्रवासियों को वापस भेजा सकता है? प्रवासी का मतलब मज़दूर से क्यों हैं। ग्लोबल प्रवासी भी तो हैं। जो दिल्ली से जाकर बंगलौर में नौकरी करते हैं। वहां से अमेरिका जाते हैं। प्रवास सिर्फ श्रम का नहीं है। टेक्नॉलजी का भी तो है। एक जगह की कार दूसरी जगह बिक रही है। बाज़ारवाद ही प्रवास पर टिका है। वो स्थायी नहीं है। उसकी कोई स्थायी ज़मीन नहीं है। उत्पाद बिकने के लिए प्रवास करते हैं। चीन का माल भारत आता है। दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रवासी उत्पाद और प्रवासी उपभोक्ता के दम पर चल रही है। एयरलाइन्स का कारोबार काम से प्रवास पर निकले लोगों से चल रहा है।

किस किस को भगायेंगे आप। जब मज़दूर भगाये जायेंगे तो टेक्नॉलजी भी लौटा दी जाए। सब अपनी अपनी भाषा में टेक्नॉलजी का विकास कर लें और जी लें। जब टेक्नॉलजी का हस्तातंरण हो सकता है तो श्रम का क्यों नहीं। उसे रोकने का नैतिक आधार क्या है? इस दौर में स्थानीय रोज़गार की अवधारणा खत्म हो चुकी है। क्या अमेरिका को सिलिकॉन वैली से भारतीय प्रवासियों को लौटा नहीं देना चाहिए? अगर सरकार आर्थिक उत्पादन का विकेंद्रीकरण नहीं कर सकती,राज्यों में संस्थाओं का विकास नहीं कर सकती तो प्रवासी होने के अलावा चारा क्या है। आखिर क्यों आईआईएम अहमदाबाद और आईआईटी के लोग बाहर जाते हैं.क्या ये प्रवासी होना नहीं है। ये तो बेज़रूरत प्रवासी होना है। इन्हें अपनी जड़ों से बांध कर रखने के लिए क्या किया जा रहा है। आईआईएम अहमदाबाद का मैनेजर किसी अमेरिकी कंपनी के लिए सस्ता प्रवासी श्रम है। प्रवासी होना एक आर्थिक स्वाभिमान है। गर्व से कहना चाहिए कि हम श्रम,बाज़ार और उत्पादन का सृजन कर रहे हैं। इतना ही नहीं प्रवासी होकर हम उत्पाद की प्रक्रिया में अपने श्रम का मोलभाव करने का हक रखते हैं। जहां भी ज्यादा दाम मिलेगा,जहां भी काम मिलेगा, जायेंगे।

हम सस्ते और लाचार प्रवासियों की वजह से ग्लोबल अर्थव्यवस्था में जान आई है। कौन खरीदता नोएडा और ग्रेटर नोएडा के मकानो को। उड़ीसा और झारखंड के लोग उजड़ें हैं तभी तो कंपनियों को ज़मीन मिली है। सस्ता श्रम मिला है। ऐसा नहीं हो सकता कि अर्थव्यवस्था प्रवासी से लाभ ले और राजनीति दुत्कार दे। नहीं चलेगा। प्रवासियों को अर्थव्यवस्था का हिस्सा मानकर उन्हें स्वीकार करना होगा। आज कल तो धंधे की प्रतिस्पर्धा में लोगों ने पीछे छूट चुके राज्य को पहचानना शुरू कर दिया है। डीटीसी के ड्राइवर ने जब बिहारी कहा था तब अच्छा लगा था। अब कोई बिहारी कहता है तो राजनीतिक लगता है। बुरा लगता है। इस देश में सब प्रवासी हैं। जो आज नहीं हैं वो कल हो जायेंगे। वो नहीं होंगे तो उनके बच्चे हो जाएंगे। इसलिए अब प्रवासी होने को मौलिक अधिकार में जोड़ा जाना चाहिए।

संविधान में कानून बदल कर प्रवासी होने के अधिकार को जो़ड़ा जाना चाहिए। ताकि किसी को कहने में शर्म न आए और जो कहे कि देखो वो प्रवासी है,मलेरिया लेकर आया है तो उसे किसी धारा के तहत जेल में ठूंस दिया जाए। अगर राज ठाकरे कहीं से आकर मुंबई और दिल्ली में अपनी ज़मीन बना सकते हैं,दावा कर सकते हैं तो फिर सबको हक है। दक्षिण के राज्यों की हालत तो अच्छी है। फिर वहां के लोग मुंबई,दिल्ली क्यों आते हैं? भारत के सभी राज्यों के लोग यहां से वहां जा रहे हैं।

इसीलिए खुद को प्रवासी कहने में शर्म नहीं आनी चाहिए। इसमें कुछ गलत नहीं है। अगर आप एक राज्य के भीतर एक ज़िले से दूसरे ज़िले में जाते हैं तो भी प्रवासी हैं। अगर प्रवासियों को वापस भेजना है तो ग्लोबलाइजेशन को रोक दो। राज ठाकरे से पूछों कि वो ऐसा कर सकते हैं? अमर्त्य सेन या शीला दीक्षित से पूछ लो। शहर बोझ नहीं सह रहा तो सबको मिलकर सबसे बातकर हल निकालना होगा। किसी एक को भगाकर नहीं। हर शहर संकट में हैं। मुंबई की गत पर बात हो रही है सतारा और पुणे की क्यों नहीं हो रही है। नागपुर भी तो चरमरा गया है। बंगलौर में क्या कमी थी? कर्नाटक से लोग दिल्ली में काम करने आए और अब दिल्ली के लोग वहां नौकरी कर रहे हैं। क्या दिल्ली और मुंबई के लोग दूसरे राज्यों में जाकर काम नहीं कर रहे। प्रवासी होना एक आर्थिक सामाजिक प्रक्रिया है। इसे कोई नहीं रोक सकता।