हरियाणा की रुचिका गिरहोत्रा मामले का राज़ आज सबको पता नहीं होता अगर अराधना उसकी दोस्त न होती। उन्नीस साल तक अराधना अपनी दोस्त रुचिका के इंसाफ के लिए लड़ती रही। इस दौरान उसने अपनी दोस्त को भी खो दिया। एस पी एस राठौर पुलिस की ताकत का इस्तमाल करता रहा लेकिन अराधना हार नहीं मानी। अमन के साथ शादी के बाद अराधना का मुल्क बदल गया। वो आस्ट्रेलिया और सिंगापुर रहने लगी। इसके बाद भी अराधना अपनी बचपन की दोस्त रुचिका के साथ हुई नाइंसाफी को नहीं भूली। उसके इंसाफ के लिए लड़ती रही।
चौदह-पंद्रह साल की उम्र की यह दोस्ती। हम सब इस उम्र में दोस्तों को ढूंढते हैं। घर से बाहर निकलने की बेकरारी होती है। किसी और से जुड़ कर दुनिया और खुद को समझने की तड़प। उम्र के इस पड़ाव पर लगता है कि अगर दोस्त पक्का है तो जीवन में बहुत कुछ अच्छा है। हम सब के जीवन में इस उम्र के आस-पास बहुत सारे दोस्त बनते हैं और बदलते हैं क्योंकि सब एक दूसरे में सच्चा दोस्त ढूंढते हैं।
रुचिका ने अराधना में जो दोस्त ढूंढा, उसे अराधना ने साबित कर दिया। अपने मां-बाप से इस मामले को अदालत तक ले जाने की दरख्वास्त की। अराधना के पति ने बताया कि वो अपनी कंपनी से बहाने बनाकर ऑस्ट्रेलिया से चंडीगढ़ आते थे, ताकि मुकदमें की सुनवाई के वक्त मौजूद रहे। अराधना के जज़्बे को अमन ने भी समझा। अमन ने कभी अराधना को अकेले नहीं आने दिया। राठौड़ कुछ भी कर सकता था। यह पूरा मामला आज पूरी दुनिया के सामने है क्योंकि इसमें एक सच्चे दोस्त और अच्छे जीवनसाथी की बहुत ही सक्रिय भूमिका रही है।
यही मौका है एक बार फिर से समझने के लिए कि आम हिंदुस्तानी घरों में लड़कों से संस्कार की उम्मीद कम सफलता की ही आशा ज़्यादा की जाती है। उसे नहीं सिखाया जाता कि लड़कियों को किस नज़र से देखना है। सारी तालीम लड़कियों को दी जाती है कि लड़कों की नज़र से कैसे बचें। अगर लड़के को बचपन से ही यह सीखाया जाए कि लड़कियों के साथ सामान्य बर्ताव कैसे करें तो बड़े होने पर या सत्ता हासिल होने पर राठौर जैसे हिंसक और वहशी तत्व उसके भीतर पनप नहीं सकेंगे।
अपने दोस्तों के बीच इस मुद्दे को लेकर खुल कर बात करनी चाहिए। कब तक हमारे शहरों में लड़के छेड़खानी करने के लाइसेंस लिये घूमते रहेंगे। सोच कर डर लगता है कि राठौर के इस अपराध में कितने पुलिस वालों ने साथ दिया। राठौर की वकील पत्नी ने भी साथ दिया। वो लोग कैसे आज अपनी बेटियों का सामना कर रहे होंगे जिन्होंने राठौड़ की मदद की और रुचिका के पिता सुभाष गिरहोत्रा और उसके भाई को तड़पाया।
रुचिका की कहानी सामाजिक रिश्तों के दरकने और दोस्ती के बचे रह जाने की कहानी है। दोस्तों की कीमत समझने की कोशिश कीजिए। ये रिश्ता सिर्फ हंसी मज़ाक का नहीं है बल्कि उस बुरे दौर का भी बंधन है जब सारे लोग आपके खिलाफ हो जाते हैं। इसीलिए किशोरों पर दोस्तों का प्रभाव बहुत ज़्यादा होता है। अराधना ने एक बार फिर से इस दोस्ती को गौरवान्वित किया है।
फेसबुक में सैंकड़ों अनजाने लोगों से कनेक्ट होने से तो अच्छा है कि एक अराधना मिल जाए। वो कोई राहुल भी हो सकता है। इस उम्र में हम भी अपने दोस्तों की चीज़ों को अपना समझते थे। किसी की कमीज़ पहन लेते थे तो किसी को अपना जूता दे देते थे। साझा करने का आनंद दोस्त की तलाश पूरी करता है। अब लगता है कि दोस्तों के बीच भावनात्मक संबंध कमज़ोर पड़ रहे हैं। दफ्तरों की गलाकाट प्रतियोगिता दोस्तों को प्रतियोगी बना रही है। पुराने दोस्त या तो कहीं छूट गए या फिर भूल गए।
दोस्ताना,याराना,दोस्ती, दिल चाहता है जैसी फिल्मों को देखकर लगता रहा कि काश ऐसी दोस्ती हमारे हिस्से भी होती। पुरानी फिल्मों में दोस्त का किरदार एकदम भावुक होता था। उससे उम्मीदें होती थीं। उसकी बेरुखी दिल तोड़ देती थी। संगम फिल्म का गाना दोस्त दोस्त न रहा और दोस्ताना का गाना-मेरे दोस्त किस्सा ये क्या हो गया सुना है कि तू बेवफा हो गया,याराना का गाना- तेरे जैसा यार कहां...कहां ऐसा याराना,ऐसे गाने पीढ़ियों तक दोस्ती की छवि गढ़ते रहे। आजकल की फिल्मों के दोस्त मौज मस्ती के होते हैं। प्रैक्टिकल होते हैं। इसीलिए दिल चाहता है दोस्ती के संबंधों को आज के संदर्भ में देखने वाली आखिरी फिल्म थी। वैसे तो बाद में न्यूयार्क और दोस्ताना भी आई। लेकिन अराधना का असली किस्सा अब दोस्ती के किस्सों का सबसे बड़ा किरदार बन गया है। अपने आप से पूछिये क्या आपके पास अराधना जैसी दोस्त है।
22 comments:
Poorn sahmat hun aapse...is poore ghatna ko is najariye se bhi dekha jana chahiye aur nishchit hi yah sakaratmak soch mitrata ka sudartam roop samaaj ko protsahit karega aise hi bhavnatmak riste kayam karne ke liye...
Aapne bilkul sahi kaha hai
यही मौका है एक बार फिर से समझने के लिए कि आम हिंदुस्तानी घरों में लड़कों से संस्कार की उम्मीद कम सफलता की ही आशा ज़्यादा की जाती है। उसे नहीं सिखाया जाता कि लड़कियों को किस नज़र से देखना है। सारी तालीम लड़कियों को दी जाती है कि लड़कों की नज़र से कैसे बचें। अगर लड़के को बचपन से ही यह सीखाया जाए कि लड़कियों के साथ सामान्य बर्ताव कैसे करें तो बड़े होने पर या सत्ता
आपने बहुत सटीक मुद्दे को उठाया है। आराधना जैसी दोस्ती पर बात होनी चाहिए और उस के लड़ने की क्षमता की भी।
उस समाज पर भी बात होनी चाहिए जिस में लड़कों का विसांस्कृतिकरण हो रहा है।
जैसा रंजना जी ने भी कहा, बिलकुल सही निष्कर्ष...
फिल्मों की बात करें तो शोले का गाना 'ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे/ छूटे दम मगर तेरा साथ न छोड़ेंगे' को सार्थक किया आराधना ने... इसे संयोग कहें या सौभाग्य कि उसके परिवार के अन्य सदस्य भी - इतने लम्बे समय तक - इसमें उसका साथ निभाते रहे...और केवल अब अन्य भारतियों की नीद थोड़ी -थोड़ी खुली है...अभी भी यह पता नहीं कि 'ऊँट किस करवट बैठेगा'...समय ही बताएगा शायद...
Is ghatna ke ek bade sakaratmak pahlu par dhyan aapne.
आराधना के जोश और दोस्ती के ज़ज्बे को दाद देनी पड़ेगी।
ये एक मिसाल है , सारी जनता के लिए , न्याय के लिए संघर्ष की।
....राठोर की हंसी बहुत चुभती है ..सीने में फांस की माफिक ....वो अपनी ताकत का सरे आम इज़हार है ओर एक तमाचा हम सब के मुंह पर ....हाईटेक होते हम बेंगलोर ओर हेदराबाद पे इतराते है ओर १४ साल की लड़की गिल्ट ओर भय से आत्म हत्या करती है ....केस की जांच से जुड़े लोग भी सरेंडर करते है ....ईमानदार भी अपनी आवाज बुलंद नहीं करते तो क्या ......न्याय व्यवस्था के बंटे हुए खाने के प्रति समाज की एक अप्रत्यक्ष सहमति को दिखाता है .....
१९ साल ...की एक लम्बी दुखद प्रक्रिया ....जिसमे हताशा .दुःख...डर ..क्रोध ..ओर अनजाने निर्णय का भय है .....राठोर हम पर फिर हंसता है उसे इस .. कानून ओर न्याय तंत्र की सारी चालो ओर तरकीबों के तोड़ पता है ओर इससे जुड़े तंत्र की भ्रष्टता को लेकर अति -आत्म विश्वास ....
दोस्ती ओर रिश्तो से कही ऊपर ये मुद्दा हमारे कानून-न्याय -सत्ता के असंवेदनहीन होने का सबूत है....... रुचिका एक ब्रेकिंग न्यूज़ भर नहीं है... .वो चेतावनी है ..इस कंक्रीट के .समाज को ... जो आपाधापी में ...इसे किसी दूसरे का दुःख मानकर .....इसका भागिदार नहीं बनता ....के अब लौटना होगा किन्ही मानवीय मूल्यों की ओर वापस ......ओर प्रतिरोध का स्वर बुलंद करना होगा ......वर्ना कौन जाने .अगली रुचिका ....कौन हो ?
................यही मौका है एक बार फिर से समझने के लिए कि आम हिंदुस्तानी घरों में लड़कों से संस्कार की उम्मीद कम सफलता की ही आशा ज़्यादा की जाती है। उसे नहीं सिखाया जाता कि लड़कियों को किस नज़र से देखना है। सारी तालीम लड़कियों को दी जाती है कि लड़कों की नज़र से कैसे बचें। अगर लड़के को बचपन से ही यह सीखाया जाए कि लड़कियों के साथ सामान्य बर्ताव कैसे करें तो बड़े होने पर या सत्ता हासिल होने पर राठौर जैसे हिंसक और वहशी तत्व उसके भीतर पनप नहीं सकेंगे।
बिलकुल सही कहा आपने. इन संस्कारों की कमी ने ही आज समाज में शरीफों का जीना दूभर कर दिया है.
Paisa kamane ke andhi daud main hamne apne bachchon ko aaya/dayee ke sahare chod diya hai. Aisee santono se hame kyo koi ummeed karnee chahiye. Maine apne Pitaji ko isee maheene khoya hai. Woh dimentia ke patient the. Unkee jaise taise seva susursha maine , mere wife aur mere bade bachche ne kee, waisee seva mere bachchen bhi karange soch kar sihran paida hoti hai. Shayad Pitaji ke diye sanskar the kee uska pratifal kam se kam unke jivan ke antim samay main mil gaya. Main aisee ummeed kaise karoon. Aradhana aur Pati ke jajbe ko salam. aisee dosti apvad hee ho saktee hai. Hamare bhi dost hai woh aaj kal wale to nahin hain.Lekin aradhana jaisee dosti to kadapi nahi.
बहुत वाजिब मुद्दे को उठाया है रवीश जी। इस राठौरवा के चक्कर मे ऐसा सुघढ और सुंदर मुद्दा छूटा ही जा रहा था।
इस तरह की दोस्ती सचमुच एक वरदान की तरह है। मैंने एक शख्स को देखा है जिसने दोस्त की बेटी की शादी की खातिर अर्जेंटी पडने पर अपना घर तक गिरवी रख दिया था, और हां.. उस दोस्ती का मान रखते हुए लडकी के पिता ने भी जल्द ही अपने मित्र के घर को छुडा भी लिया था। एसी मिसाल कम देखने में आती है।
bilkul sahi kaha aapne...
padkar accha laga ki aaj bhi log aise muddo par khulkar likhte ha..
shukriya
क्या बात है , बहुत खूब ।
SACHIN KUMAR
'फेसबुक में सैंकड़ों अनजाने लोगों से कनेक्ट होने से तो अच्छा है कि एक अराधना मिल जाए। वो कोई राहुल भी हो सकता है। इस उम्र में हम भी अपने दोस्तों की चीज़ों को अपना समझते थे। किसी की कमीज़ पहन लेते थे तो किसी को अपना जूता दे देते थे। साझा करने का आनंद दोस्त की तलाश पूरी करता है। अब लगता है कि दोस्तों के बीच भावनात्मक संबंध कमज़ोर पड़ रहे हैं। दफ्तरों की गलाकाट प्रतियोगिता दोस्तों को प्रतियोगी बना रही है। पुराने दोस्त या तो कहीं छूट गए या फिर भूल गए। " मैंनेअक्सर खून के रिश्तों से ज्यादा महत्व दोस्ती के इस रिश्ते को दिया है। वो रिश्ते पहले से तय होते है लेकिन दोस्त हम अपनी मर्जी से चुनते है। दोस्ती किसी की जिंदगी बना देती है तो राठौर जैसों के भी तो दोस्त होंगे ही। रुचिका नहीं रही लेकिन आराधना ने अकेल दम पर संघर्ष किया और ये लास्ट लाफ आराधना के चेहरे पर दिखेगा..इतना तय है...राठौर के हंसने के दिन खत्म हो गए। शायद वो उस हंसी को कोस रहे होंगे क्यों आई उस वक्त वो हंसी...अब जिंदगी भर रोना है। काश रुचिका होती...आज 34 की होती...सानिया मिर्जा से पहले देश की बेहतरीन महिला टेनिस खिलाड़ी हो सकती है...कही दूर से रुचिका अपने डब्लस पार्टरन को देख रही होगी और उसके एक-एक कदम पर मन ही मन मुस्करा रही होगी...ताली बजा रही होगी....राठौर का मैच खत्म हुआ...आराधना मैच और सेट प्वायंट पर है....
SACHIN
A CORRCTION आराधना SET और मैच प्वायंट पर हैं।
हां आपने बिल्कुल सच कहा है कि इस घटना में जो सबसे अहम बात है वो है अराधना की मित्रता और उसका साहस , सच तो ये है कि आज अपने भी इतना नहीं करते
रवीश सर,
मैं अक्सर लोगों से आपके बारे में बात करते हुए ये कहती हूं कि... रवीश कुमार, रवीश कुमार इसलिए हैं क्योंकि उनमें ख़बर से आगे बढ़कर भी कुछ देखने का हुनर है..।
इस आर्टिकल के बाद वो सब मेरी इस बात पर कोई सवाल नहीं पूछेंगे :)
रवीश जी,
यही है सार्थक पोस्ट. सच्ची संवेदनशील पत्रकारिता.
अराधना जैसे दोस्त को सलाम. दोस्ती जिंदाबाद.
वैसे मुझे भी फक्र करने के लिए एक बेहतरीन दोस्त है. आपके आलेख ने आज समाज में दोस्ती के जज़्बात को बल दिया है.
संघर्ष और न्याय के सफ़र में मानवीय संवेदनाओं और विश्वाश के अलख की जरुरत है.
- सुलभ
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अपने आप से पूछिये क्या आपके पास अराधना जैसी दोस्त है?
सही बताऊं तो नहीं है, आराधना जैसा दोस्त पाने के लिये खुद भी तो आराधना जैसा बनना पड़ेगा न... शायद मुझ में ही कुछ कमी है।
रवीश भाई.....
'फेसबुक में सैंकड़ों अनजाने लोगों से कनेक्ट होने से तो अच्छा है कि एक अराधना मिल जाए। वो कोई राहुल भी हो सकता है।' आपको साधुवाद....ई राठोडवा के बहाने 'सिस्टम' के खिलाफ सिस्टम वालों के ही गाली गलौच के बीच आपका यह लेख अनूठा है.इस केस को पहली बार सिर्फ 'खबर' से अलग हटकर दिखाया है आपने.
आराधना ने दोस्ती की जो मिसाल कायम की है...उसे सलाम...उम्मीद है कुछ आराधना या राहुल के दिल में दोस्ती का यही जज़्बा जन्म लेगा और इस से प्रेरणा ले अपनी दोस्ती का क़र्ज़ अदा करेंगे.
उस दिन 'बरखा दत्त' के टाक शो में यह देख हैरान रह गयी...कैसे उस स्कूल की टीचर्स.ने ..दिन रात एक लड़की को रोते देख भी अनदेखा कर दिया..उस तक पहुँचने के कोई पुल तैयार नहीं किये..ऐसा अक्सर होता है..किसी को उदास दुखी देख लोग उसके हाल पर छोड़ देते हैं...यह सोच कि वह खुद डिप्रेशन के गड्ढे से बाहर निकल आएगा,पर ऐसा होता नहीं वो शख्स और भी गहरे चला जाता है..और जब वहीँ दम तोड़ देता है तब..तमाशा देखने सब गड्ढे के चारो तरफ जमा हो जाते हैं...जबकि ऐसे में दरकार थी एक मजबूत हाथ की जो उसे बाहर निकालने में मदद करे...आराधना के हाथ खुद उस वक़्त बस १८,१९ के रहें होंगे...और वह वक़्त कामयाब नहीं हो सकी..पर उसने लोगों को हंसने का मौका नहीं दिया
फेसबुक में सैंकड़ों अनजाने लोगों से कनेक्ट होने से तो अच्छा है कि एक अराधना मिल जाए।
इस वाक्य ने मुझे अन्दर तक प्रभावित किया है...एक दम सच्ची...खरी बात...बहुत ही अच्छी पोस्ट है ये आपकी...इसे सबको पढना चाहिए...
नीरज
बहुत ही अच्छा मुद्दा उठाया है। बाकी आपकी ये लाइनें सोचने को मज़बूर कर दी हैं।
यही मौका है एक बार फिर से समझने के लिए कि आम हिंदुस्तानी घरों में लड़कों से संस्कार की उम्मीद कम सफलता की ही आशा ज़्यादा की जाती है। उसे नहीं सिखाया जाता कि लड़कियों को किस नज़र से देखना है। सारी तालीम लड़कियों को दी जाती है कि लड़कों की नज़र से कैसे बचें। अगर लड़के को बचपन से ही यह सीखाया जाए कि लड़कियों के साथ सामान्य बर्ताव कैसे करें तो बड़े होने पर या सत्ता हासिल होने पर राठौर जैसे हिंसक और वहशी तत्व उसके भीतर पनप नहीं सकेंगे।
very very senstive article...love ur style ravish ji
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