साढ़े चार स्टार्स की फ़िल्म देख रहा था। तारे छिटकते थे और फिर कहीं कहीं जुड़ जाते थे। साल की असाधारण फिल्म की साधारण कहानी चल रही थी। चार दिनों में सौ करोड़ की कमाई का रिकार्ड बज रहा था और दिमाग के भीतर कोई छवि नहीं बन पा रही थी। थ्री इडियट्स की कहानी शिक्षा प्रणाली को लेकर हो रही बहसों के तनाव में कॉमिक राहत दिलाने की सामान्य कोशिश है। कामयाबी काबिल के पीछे भागती है। संदेश किसी बाबा रणछोड़दास का बार बार गूंज रहा था।
पढ़ाई का सिस्टम ख़राब है लेकिन विकल्प भी बहुत बेकार। इसी ख़राब सिस्टम ने कई प्रतिभाओं को विकल्प चुनने के मौके दिये हैं। इसी खराब सिस्टम ने लोगों को सड़ा भी दिये हैं। लेकिन यह टाइम दूसरा है। हम विकल्पों के लिए तड़प रहे हैं। लेकिन क्या हम वाकई विकल्प का कोई मॉडल बना पा रहे हैं? सवाल हम सबसे है।
मद्रास प्रेसिडेंसी में सबसे पहले इम्तहानों का दौर शुरू हुआ था। अंग्रेजों ने जब विश्वविद्यालय बनाकर इम्तहान लिये तो सर्वण जाति के सभी विद्यार्थी फेल हो गए। उसी के बाद पहली बार थर्ड डिविज़न का आगमन हुआ। हिंदुस्तान में सर्टिफिकेट आधारित प्रतिभा की यात्रा यहीं से शुरू होती है। डेढ़ सौ साल से ज़्यादा के इतिहास में परीक्षा को लेकर हमने एक समाज के रूप में तनाव की कई मंज़िलें देखी हैं। ज़िला टॉपर और पांच बार मैट्रिक फेल अनुभव प्राप्त प्रतिभावान और नाकाबिल हर घर परिवार में रहे हैं। दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे में अनुपम खेर अपने खानदान के सभी मेट्रिक पास या फेल पूर्वजों की तस्वीरें लगा कर रखते हैं। शाह रूख खान को दिल की सुनने के लिए भेज देते हैं। पंद्रह साल पहले आई यह कहानी सुपरहिट हो जाती है। अनुपम खेर शाहरूख खान से कहते है कि जा तू मेरी भी ज़िंदगी जी कर आ।
शिक्षा व्यवस्था से भागने के रास्ते को लेकर कई फिल्में बनीं हैं। भागने के कई रास्ते भी हैं।थ्री इडियट्स फिल्म पूंजीवादी सिस्टम को रोमांटिक बनाने का प्रयास करती है। काबिलियत पर ज़ोर से ही कामयाबी का रास्ता निकलता है। काबिल होना पूंजीवादी सिस्टम की मांग है। रणछोड़ दास का विकल्प भी किसी अमेरिकी कंपनी की कामयाबी के लिए डॉलर पैदा करने की पूंजी बन जाता है। कामयाबी के बिना ज़िंदा रहने का रास्ता नहीं बताती है यह फिल्म। शायद ये किसी फिल्म की ज़िम्मेदारी नहीं होती। उसका काम होता है जीवन से कथाओं को उठाकर मनोरंजन के सहारे पेश कर देना। ताकि हम तनाव के लम्हों में हंसने की अदा सीख सकें।
बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में ही प्रेमचंद की कहानी आ गई थी। बड़े भाई साहब। इम्तहान सिस्टम पर बेहतरीन व्यंग्य। बड़े भाई साहब अपने छोटे भाई साहब को नए सिस्टम में ढालने के बड़े जतन करते हैं। छोटा भाई कहता है कि इस जतन में वो एक साल के काम को तीन तीन साल में करते हैं। एक ही दर्जे में फेल होते रहते हैं। लिहाजा खेलने-कूदने वाला छोटा भाई हंसते खेलते पास होने लगात है और बड़े भाई के दर्जे तक पहुंचने लगते हैं।
कहानी में बड़े भाई का संवाद है। गौर कीजिएगा। "सफल खिलाड़ी वह है,जिसका कोई निशाना खाली न जाए। मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दांतों पसीना आ जाएगा। जब अलजेबरा और ज्योमेट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे. इंग्लिस्तान का इतिहास पढ़ना प़ड़ेगा। बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं, आठ-आठ हेनरी हुए हैं। कौन सा कांड किस हेनरी के समय में हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो। हेनरी सातवें की जगह हेनती आठवां लिखा और सब नंबर गायब। सफाचट। सिफर भी न मिलेगा,सिफर भी। दर्जनों तो जेम्स हुए हैं,दर्जनों विलियम,कौड़ियों चार्ल्स। दिमाग चक्कर खाने लगता है।"
भारतीय शिक्षा प्रणाली को लेकर ऐसे किस्से इसके आगमन से ही भरे पड़े हुए हैं। प्रेमचंद की यह कहानी बेहतरीन तंज है। उस वक्त का व्यंग्य है जब इम्तहानों का भय और रूटीन आम जीवन के करीब पहुंच ही रहा था। थ्री इडियट्स की कहानी तब की है जब इम्तहानों को लेकर देश में बहस चल रही है। एक सहमति बन चुकी है कि नंबर या टॉप करने का सिस्टम ठीक नहीं है। दिल्ली के सरदार पटेल में कोई टॉपर घोषित नहीं होता। किसी को नंबर नहीं दिया जाता। ऐसे बहुत से स्कूल हैं जहां मौजूदा खामियों को दूर किया गया है या दूर करने का प्रयास हो रहा है। इसी साल सीबीएसई के बोर्ड में नंबर नहीं दिये जायेंगे। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में बोर्ड के इम्तहानों में करीब बीस लाख से ज़्यादा बच्चे फेल हो गए थे।
इन सभी हकीकतों के बीच आमिर की यह फिल्म एजुकेशन के सिस्टम को कॉमिक में बदल देती है। जो मन करो वही पढ़ो। यही आदर्श स्थिति है लेकिन ऐसा सिस्टम नहीं होता। न पूंजीवाद के दफ्तर में और न कालेज में। अभी तक कोई ठोस विकल्प सामने नहीं आया है। प्रतिभायें कालेज में नहीं पनपती हैं। यह एक मान्य परंपरा है। थ्री इडियट्स मौजूदा सिस्टम से निकलने और घूम फिर कर वहीं पहुंच जाने की एक सामान्य फिल्म है। जिस तरह से तारे ज़मीन पर मज़ूबती से हमारे मानस पर चोट करती है और एक मकसद में बदल जाती है,उस तरह से थ्री इडियट्स नहीं कर पाती है। चंद दोस्तों की कहानियों के ज़रिये गढ़े गए भावुकता के क्षण सामूहिक बनते तो हैं लेकिन दर्शकों को बांधने के लिए,न कि सोचने के लिए मजबूर करने के लिए। फिल्मों के तमाम भावुक क्षण खुद ही अपने बंधनों से आजाद हो जाते हैं। जो सहपाठी आत्महत्या करता है उसका प्लॉट किसी मकसद में नहीं बदल पाता। दफनाने के साथ उसकी कहानी खतम हो जाती है। कहानी कालेज में तीन मसखरों की हो जाती है जो इस सिस्टम को उल्लू बनाने का रास्ता निकालने में माहिर हैं। ऐसे माहिर और प्रतिभाशाली बदमाश हर कालेज में मिल जाते हैं।
चेतन भगत की दूसरी किताब पढ़ी है। टू स्टेट्स। थ्री इडियट्स की कहानी अगर पहली किताब फाइव प्वाइंट्स समवन से प्रभावित है तो यह साबित हो जाता है कि फिल्म आईआईटी में गए एक कामयाब लड़के की कहानी है जो आईआईटी के सिस्टम को एक नॉन सीरीयस तरीके से देखता है। चेतन भगत का इस विवाद में उलझना बताता है कि उसकी कहानियों का यह किरदार लेखक एक चालू किस्म का बाज़ारू आदमी है। क्रेडिट और पैसा। दोनों बराबर और ठीक जगह पर चाहिए। विधू विनोद चोपड़ा का जवाब बताता है कि कामयाबी के लिए क्या-क्या किये जा सकते हैं। परदे पर चेतन को क्रेडिट मिली है।लेकिन कितनी मिली है उसे ईंची टेप से नापा जाना बताता है कि फिल्म अपने मकसद में कमज़ोर है।
इसीलिए इस फिल्म की कहानी लगान और तारे ज़मीं पर जैसी नहीं है। हां दोस्ती के रिश्तों को फिर से याद दिलाने की कोशिश ज़रूर है। आमिर खान किसी कहानी में ऐसे फिट हो जाते हैं जैसे वो कहानी उन्हीं के लिए बनी हो। कहानी इसलिए अपनी लगती है क्योंकि कंपटीशन अब एक व्यापक सामाजिक दायरे में हैं। शिक्षा और उससे पैदा होने वाली कामयाबी का विस्तार हुआ है। हम भी कामयाब हैं और आमिर भी कामयाब है। पहले ज़िले में चार लोग कामयाब होते थे,अब चार हज़ार होते हैं। मेरे ही गांव में ज़्यादातर लोगों के पास अब पक्के के मकान है। पहले तीन चार लोगों के होते थे। कामयाबी के सार्वजनिक अनुभव के इस युग में यह फिल्म कई लोगों के दिलों से जुड़ जाती है।
भारत महान के प्रखर चिंतकों के लेखों में एक कामयाब मुल्क बनने की ख्वाहिश दिखती है। बीसवीं और इक्कीसवीं सदी का भारत या अगले दशक भारत का। भारत एक मुल्क के रूप में चीन और अमेरिका से कंपीट कर रहा है। ज़ाहिर है नागरिकों के पास विकल्प कम होंगे। सब रेस में दौ़ड़ रहे हैं। आत्महत्या करने वालों की कोई कमी नहीं है। दिमाग फट रहे हैं। सिस्टम क्रूर हो रहा है। काश थ्री इडियट्स के ये किरदार मिलकर इसकी क्रूरता पर ठोस प्रहार करते। लेकिन ये क्या। ये तीनों कहानी की आखिर में लौटते हैं कामयाब ही होकर। अगर कामयाब न होते तो कहानी का मामूली संदेश की लाज भी नहीं रख पाते। बड़ी सी कार में दिल्ली से शिमला और शिमला से मनाली होते लद्दाख। साधारण और सिर्फ सर्जनात्मक किस्म के लोगों की कहानी नहीं हो सकती। ये कामयाब लोगों की कहानी है जो काबिल भी हैं। कामयाब चतुर रामालिंगम भी है। दोनों अंत में एक डील साइन करने के लिए मिलते हैं। एक दूसरे को सलामी ठोंकते हैं। थोड़ा मज़ा भी लेते हैं। वो सिस्टम से बगावत नहीं करते हैं,एडजस्ट होने के लिए टाइम मांग लेते हैं। सिस्टम का विकल्प नहीं देती है यह फिल्म। न ही तारे ज़मीं की तरह सिस्टम में अपने किरदार के लिए जगह देने की मांग करती है। मनोरजंन करने में कामयाब हो जाती है। शायद किसी फिल्म के लिए यही सबसे बड़ा पैमाना है। साढ़े चार स्टार्स की फिल्म।
नोट- ज़ुबी डूबी गाना रेट्रो इफेक्ट देता है। ओम शांति ओम से लेकर रब ने बना दी जोड़ी तक में ऐसे प्रयोग हो चुके हैं। इससे पहले भी कई फिल्मों में रेट्रो इफेक्ट के ज़रिये पुरानी फिल्मों के क्लिशे को हास्य को बदला जा चुका है। गाना बेहद अच्छा है।
40 comments:
:-)
सिस्टम का विकल्प एक व्यावसायिक फिल्म से मिल जाए तो देश की बल्ले बल्ले ना हो जाए।
3 Idiot ki kahani Chetan Bhagat ke Novel par based hai. Film mai dikhaya hai ki Kamyabi kabiliyat ke piche bhagti hai. Par hal-filhal mai film ke Credit ko lekar hue vivad ko dekhkar yahi lagta hai ki Kabiliyat Kamyabi ke piche bhagna chahti hai.
kyaa aapko nahi lagta ki 3 idiot ke jarye ab chetan bagat ki kitaab bhi bechi ja rahi hai vivaad khada karke..
bilkul mere man ki bat likh di film blkul sadharan hai aur usme 3 idiot nahi kewal 2 idiot hai amir khan to super dimag ke bane hai jase pagam pich me dilip kumar sab kuch jante the enng se lear ricshwa chalana aur basuri bhe baja lete the amir bhe sab kuch jante the pata nahi kyo digree lene college me aa jate hai aur baki dono bilkul idiot hai kyon ki unko blkul bhe mahatva nahi mila hai film me aamir hi sara cradit le gai hai baki ke karne ke liye kuch tha hi nahi film kuch bhe sandesh nahi deti hai na apni chaap chodti hai
अब क्या कहुं ये तो सच ही है कि कामयाबी काबिल लोगों के पास ही फटकती है लेकिन क्या जो आदमी नाकाबिल है किसी एक काम में, वो क्या बेकार होता है। इसका जवाब कहां है
film ko shayad hum film ki tarah dekhna bhool chuke hai. har baat me hame samaj ko sudharnewale elements ki khoj rahti hai. film ki kahani hai to filmi to hogi hi. film ko dekhne ke baad ye sanjha ja sakta hai vipreet paristhithiyon ka himmat se samna kiya ja sakta hai.
"फाइव पॉइंट समवन" से पूर्णतया प्रेरित और दो तिहाई से ज्यादा नक़ल की एक अच्छी कोशिश है "थ्री इडियट्स".. ये फिल्म मनोरंजन के लिए बनायी गयी है न की किसी सन्देश या सामाजिक परिवर्तन के लिए.. इसलिए होंठ घुमाओ सीटी बजाओ क्यूंकि संवेदनाओं के बलात्कार के बिना जनता इस फिल्म को देखने के लिए अपना धन नहीं खर्च करती. वैसे इस फिल्म को बनाने वालों का चेतन भगत को शुक्रिया अदा करना चाहिए.. क्यूंकि इस से पहले उन्ही के नोवेल "वन नाईट एट कॉल सेंटर" पर बनी फिल्म "हेल्लो" बुरी तरह फ्लॉप हुई थी अपने घटिया निर्माण की वजह से.
कब से सुनते चले आ रहे हैं सिस्टम बदलना चाहिए मगर सवाल वही है बदलेगा कोन ? बिल्ली के गले मैं घंटी कोन बांधेंगा ?
किस से उम्मीद की जाए?
सिस्टम........?
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आजकल भेड-चाल के कारण प्रचार का महत्व बढ़ गया है...वो दिन हवा हो गए जब कोई महात्मा गाँधी समान समाज-सेवा की ही सोचता था. लोग आज कहते हैं कि गांधीजी देश का भला सोचे इस लिए लंगोट और लाठी के सहारे जीए और अंत में गोली भी खाए. जबकि नेहरु सफल रहे और अपनी सात पुश्तों का भला कर गए :)
अंग्रेजी में कहावत है "Nothing succeeds like success"...
आजका युग है "After the event wise" का, जिसमें चेतन भगत भी आते हैं...अब वो 'भागते भूत की लंगोटी' के चक्कर में हैं :)
फिल्म से क्रांति आने वाली रहती तो कब का जय हिंद हो चुका रहता।
bahu achi picure hai, itni tension ke bich 3 ghante ki treat samchiye.
chetan bhagat ko credit milna chahiya tha,FIVE POINT SOMEONE par base d movie thi, original story to hui nahi.par movie bahut achi hai.
aur ravishji aap bahut acha likhte hai.
ईमानदारी से कहूं, मुझे तो फ़िल्म बहुत अच्छी लगी थी. जब कुछ मित्रों से यह सुना कि यह एक साधारन फिल्म है, तो उनकी बात गले नहीं उतर पाई. लेकिन अब आपने बाकायदा तर्कों से इस सच्चाई को मेरे भी गले उतार दिया है. फिल्म न तो कोई विकल्प देती है और न कोई सार्थक प्रतिरोध ही करती है.फिल्मकार की नीयत आत्महत्या करने वाले प्रसंग को वहीं खत्म कर देने में भी साफ नज़र आती है. रही-सही कसर चेतन भगत और फिल्म निर्माताओं के बीच हुए विवाद ने पूरी कर दी है. धन्यवाद, रवीश जी.
भाई रविश जी ,शुक्रिया इस विश्लेषण केलिए अब देखें असर क्या होता है ..
मैं भी इस फिल्म को किसी बदलाव के संदेश के लिए नहीं गया था। लिखा भी है कि फिल्में इस ज़िम्मेदारी से नहीं बनतीं। हर बार बनाना मुश्किल भी है। जब देख रहा था तब काफी मज़ा भी आ रहा था। जो लिखा है वो सिनेमा हाल से निकलने के बाद की प्रतिक्रिया में लिखा है। लेख लिखने के लिए फिल्म नहीं देखने गया था। पूरा मज़ा लेकर लौटा हूं। बस इसके असाधारण होने पर मुझे शक है।
मेरी नज़र में मुन्नाभाई ऍम बी बी एस तो एक संदेश देती है, पर ३ इडियट्स घूम फिर कर सिस्टम के साथ चलकर सिर्फ कामयाब होने की बात करती है चाहे वह कामयाब लद्दाख के एकांत में रहे पर पूजी पतीयो की जेबे भरता रहे.
रवीश चूँकी एक बड़े पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं इसलिए उन्हें थ्री idiots के बारे में अपनी राय देते वक़्त अपने अंतरविषयी ज्ञान का मुलम्मा सबको परोसना ही था जो उन्होंने इस ब्लॉग के रूप में लिखा है...आयाम दो हैं- एक तो इस फिल्म की तुलना प्रेमचंद की एक कहानी से कर के और दूसरी ddljj के कुछ सन्दर्भों को इस फिल्म से जोड़ कर.. बयानबाज़ी यहाँ तक कि "थ्री इडियट्स फिल्म पूंजीवादी सिस्टम को रोमांटिक बनाने का प्रयास करती है।" सब फर्जी बयानबाजी...तुम कितने समाजवादी हो ये सब जानते हैं....फिल्म माध्यम के रूप में ये फिल्म एक बहुत सफल विकल्प बनेगी ये निश्चित है...
रवीश जी, पिक्चर पर एक टिप्पणी अमेरिका से मेरी बेटी की भी आई है. उसने आमिर खान में मेरी दूसरी लड़की के बेटे, ८ वर्षीय जयदेव, की छवि देखी क्यूंकि वो आरंभिक काल से ही डांस में विशेष रूचि रखता है और जतिन दस जी ने भी उसकी चित्रकारी में रूचि देख उसे प्रोत्साहन देने की सलाह दी है - मैंने उसके साथ ही 'पा' देखी थी:
"I saw a very funny movie yesterday 3 idiots. Aamir Khan reminds me of Jaddu and he was on my mind the whole time. I can imagine Jaddu dancing to the songs aall izz well. Hope you take him to show this movie. Pa, u shud also try and watch it..."
रवीश जी मेरे साथ समस्या यह है मैं फिल्में नहीं देखता
कम से कम फिल्म के बहाने शिक्षा प्रणाली पर बहस तो हो रही है।...
मौजूदा शिक्षा प्रणाली अथवा 'सिस्टम की 'खामियों' की बात करें तो पता नहीं इस पर किसी का ध्यान गया कि नहीं, मैंने कई वर्ष पहले एनंडीटीवी के बरखा दत्त के कार्यक्रम के बाद भी प्रश्न किया था किन्तु उत्तर नहीं मिला. हाँ, जवाब में एक ईमेल मिला उनसे कि मैं भविष्य में भी कार्यक्रम देखता रहूँ (शायद चुपचाप, बिना प्रश्न करे :)...
मेरा प्रश्न था कि ऐसा क्यूँ होता है किसी भी परीक्षा में, संसार में कहीं भी शायद, कि प्राप्तांक लगभग शून्य से सौ प्रतिशत के बीच में होता है? जबकि औसत प्रतिशत कुछ भी हो सकता है, ४० से ८० प्रतिशत मान लीजिये, जो कई अन्य विभिन्न मानदंडों पर निर्भर करता प्रतीत होगा, जैसे सरकारी स्कूल अथवा निजी स्कूल आदि?...
men bhee is vishay par likhane jaa rahaa thaa par aapane likh kar meraa kaam kar diyaa
इस फिल्म को लेकर मैं थोड़ा कंफ्यूज हूं। इसमें तीन चरित्र दिए गए हैं लेकिन मुझे लगता है कि जो केन्द्रीय चरित्र है उसकी मांग है और क्यों है इस पर कई दिन से पोस्ट लिखने की कोशिश कर रहा हूं। इस गड़बड़ झाले में तीन बार फिल्म देख चुका हूं।
लोबो को भूलना नहीं चाहिए वह सिस्टम का महत्वपूर्ण पार्ट है जिसके लिए रैंचो आंकड़े लिए खड़ा निदेशक से बहस कर रहाह है।
शानदार समीक्षा के लिए आभार....
एक गुजारिश है आप सबसे। मुझे बड़ा पत्रकार कह कर संबोधित न करें। मुझे इस संबोधन से परेशानी होती है। यह आपके भीतर की कुंठा हो सकती है,लेकिन बड़ा पत्रकार बनना या कहलाना मेरी कोई ख्वाहिश नहीं है।
रही बात आलोचना की तो वो किसी भी स्तर की हो,कोई परेशानी नहीं। तारीफ सुनने के लिए नहीं लिखता। न ही मैं तारीफ या आलोचना करने वालो की मंशा पर शक कर सकता। मैं समाजवादी नहीं हूं। न था न होऊंगा। इस फिल्म को देखकर यही कहना चाहता हूं कि फिल्म कंपटीशन का विकल्प नहीं है। फिल्म अच्छी और मनोरंजक है,ये भी कहा है। लेकिन किरदार नया नहीं है। कहानी नई नहीं है। कंपटीशन के खिलाफ नहीं है।
आज के भारत में अब लाखों घरों में बच्चे अपनी मर्जी का काम कर रहे हैं। मां बाप भी बदले हैं। बच्चों को पता होता है कि उन्हें क्या करना है। यह उस बची खुची व्यापक दुनिया को संबोधित करती है जहां अभी भी गार्डियन होने का मतलब जेलर होना है।
फिल्म देखते वक्त काफी मज़ा आया। बस सिनेमा हाल से निकलने के बाद उसे हकीकत के संदर्भों में प्लेस करने की कोशिश कर रहा था।
कुलमिलाकर फिल्म कमाई कर रही है। विवादों और फंसे चेतन भगत के लिए कही गई लाइन मुफीद है। वो बुकर के लिए नहीं लिखता है। सही कहा आपने, उसने अपने साधारण अनुभवों को जनता के बीच किताब के तौर पर उतार दिया है। जनता सहज और सरल पढ़ना चाहती है। उसकी रूमानी कहानियां पसंद आ रही हैं लोगों को, लेकिन कब तक। अब तक उसने ऐसा कुछ नहीं लिखा जिसे पढ़ने के लिए दोबारा किताब उठानी पड़े। खैर आपका विश्लेषण अच्छा लगा। फिल्म तो अभी देखी नहीं लेकिन कभी देखूंगा तो सिनेमा से निकलने के बाद आपकी 'थिंक लाइन' पर सोचूंगा।
अच्छा विश्लेषण
मुझे तो एक बात समझ में आती है, कि कामयाबी के जो फ्रेम है, उसमे बहुत से लोग फिट हो नहीं सकते नहीं तो कामयाबी का मिथक ही टूट जाएगा. फिर कामयाब होने के लिए क्यूँ लोग अपने जीवन को रेहन पर रखेंगे?
दूसरा कामयाबी का सीधा वास्ता बाज़ार की ज़रुरत से है, काबिलियत से नहीं. क्यूंकि काबिलियत के जो मानदंड है, और कामयाबी के उनका साझा बहुत कम रहा है. बाज़ार की ज़रुरत बदलती है, और अगर काबिलियत उसमे फिट नहीं होती, तो नाकामयाबी में तब्दील हो जाती है.
Ravish ji aapka vishleshan aacha laga.
I don't agree you . You can not downsize an IITian -IIM like Chetan Bhagat . Story was simple but It happened in every technocrates living in a hostel life . Similar things you write on ur Blog - Ek room Romance etc ... Its tough to manage funds in an MNC bank or to write codes which can make GOOGLE or FACEBOOK . Our middleclass society still respect an IITian than an anchor of a TV channel .
मुखिया जी
मैं आपसे सहमत हूं। आईआईटी और आईआईएम का हमारे समाज में बहुत ऊंचा स्थान है। कामयाब होना है तो यही तीन दर्जे हैं। आईआईएएस। न्यूज़ एंकर की तो आज कल कोई वैल्यू ही नहीं है जी। कैसे होगी। बंदरों की तरह हम उछलेंगे और पता नहीं क्या क्या करेंगे और उस पर प्रतिष्ठा भी चाहेंगे कि मिल जाए तो कुछ ज्यादा होगा। संकट का टाइम है। कभी कभी लगता है कि मैंने भी कुछ ज्यादा लिख दिया है। एक बार फिर से सोचूंगा। आखिरी सत्य तो मिला ही नहीं है। न मुझे न किसी को। आप सबकी प्रतिक्रियाओं के बीच खुद को नापने का मौका मिलता है।
हुज़ूर , आप बड़े हैं , मशहूर हैं और ज्ञानी भी हैं ! आप की हर एक बात पर - हजारों नहीं - लाखों की निगाहें रहती है ! ऐसा हर किसी के नसीब में नहीं होता ! फिर , समाज कहता है - अपनी भावनाओं को 'कंट्रोल' में रखते हुए कुछ कहिये ! आप हमारी तरह .."आम" नहीं हैं ...आप 'खास' हैं और "खास" लोगों को बहुत कुछ बलिदान पर चढ़ाना होता है ! और कुछ नहीं !
चलिये ये मुखिया जी के दालान का फैसला है। जैसे गाली वैसी तारीफ।
namaskaar ravish bhaaii
three idiots teen ghante ke liye idiot banaa detii hai.
desh kii priikshaa pranaali aur sahakaaritaa pratiyogitaa par vyaapak charchaa kii avashyakataa hai.
namaskaar.
kabiliyat ke jawab ke liye dhanywad, jab se ye film dekhi thi, yahi sawal ghoom raha tha, mil gaya aur klik bhi kiya...
mujhe pata tha aap aisa hi kuch likhenge...bahut besabri se intezar kar raha tha aapke 3 idts pe comments...
humari wavelength match karti hai
:)
lekin movie ko movie tarah dekhen jyada maja aayega....
बहुत मजे हैं कमेंट के इस बाजार में भाई। कभी-कभी रवीश के लिखे हुए को पढ़ने से ज्यादा मजा उसपे आए कमेंट्स को पढ़ने में आता है। इस लेखनी की आलोचना करने वालों में कुछ ऐसे होंगे जो अगर रवीश ने उलट बात लिखी होती तो भी आलोचना करते। ऐसे ही कुछ तारीफ करने वाले भी हैं। वैसे फिल्म आमिर की औसत फिल्मों में से एक लगी।
आप में से कुछ लोग अच्छे थिंकर हैं.लेकिन ये सच है यह फिल्म ज्यादातर लोगों के मनोरंजन में सफल है.हाँ फ़िल्म है,थोड़ी नौटंकी तो होगी ही.कभी वरना आंधी तूफान बाढ़ में वैक्युअम क्लीनर से कहीं बच्चा होता है.खैर छोडिये ...व्यवसायिक फिल्म समाज बदलने के लिए नहीं होती.वही चीज परोसी जाती है जो हम देखना चाहते हैं.कुल मिलकर थोड़ी देर का मजा तो है..
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