क्या मान लिया जाए कि अब टीआरपी के खिलाफ लड़ाई शुरू होने जा रही है? आज सुबह पहली नज़र हिन्दुस्तान में आशुतोष के लेख पर पड़ी फिर दैनिक भाष्कर में एन के सिंह के लेख पर। हैदराबाद के न्यूज़ चैनलों ने जो फर्ज़ी खबरें चलाईं हैं,लगता है कि इस भयंकर भूल ने टीआरपी लिप्त हम सभी पत्रकारों का सब्र तोड़ दिया है। आशुतोष के इस लेख से पहले कुछ साल पहले अजित अंजुम ने लिखा था कि इस बक्से को बंद करो। अब लग रहा है कि इसके विरोध को लेकर मुखरता आने वाली है।
पिछले एक साल में टैम के टीआरपी के आंकड़ों को देखने का अनुभव प्राप्त हुआ। हरा,पीला और ग्रे रंग से रंगे खांचे बताते हैं कि आपका कार्यक्रम कितना देखा गया। पहले शुक्रवार को आता था,अब बुधवार को आता है और अब तो ए मैप अगले ही दिन रेटिंग भेज देता है। टीवी वाले तो हर दिन बारहवीं का इम्तहान देते हैं। फर्क ये है कि सुसाइड की जगह खबरों को मार काट कर अनाप-शनाप खबरें ला रहे हैं। यह भी एक किस्म की आत्महत्या है। जिसे देखो वही टीआरपी का आइडिया ढूंढ रहा है। मैंने अपने ही ब्लॉग पर लिखा था कि गोबर हमारे समय का सबसे बड़ा आइडिया है और टीवी गोबर का पहाड़ है। गद्य से असर नहीं हुआ तो पद्य शैली में आ गया। हम लोगों ने भी मुकाबले के लिए प्रस्तुति शैली बदली। थोडे टाइम में ही लग गया कि घटिया होकर यह लड़ाई लड़ी जा सकती है लेकिन इस जीत का कोई मजा नहीं। एडिट की मामूली शैली बदलते ही रेटिंग दिखने लगी। लेकिन जल्दी ही सब आजिज आ गए। सहमति से फैसला हो गया कि इस चक्कर में नहीं पड़ते हैं। ये अब और नहीं हो सकता है। हमारे कुछ शो एनडीटीवी इंडिया के पुराने निष्ठावान दर्शकों को पसंद नहीं आ रहे है। हमने कुछ कार्यक्रम बंद भी कर दिये। रेटिंग के फार्मूले में भयंकर गड़बड़ी है। कोई दर्शक तालिबान या चीन पर बनने वाले एक ही तरह के विजुअल और शो को कैसे एक ही समय पर लगातार देख सकता है। मुमकिन नहीं है। आज तक यह नहीं समझा कि प्रतियोगिता से उत्पाद बेहतर होते हैं लेकिन हिन्दी न्यूज चैनलों में घटिया क्यों हो रहे हैं।
लेकिन क्या आशुतोष,अंजुम और तमाम पत्रकारों के लिख देने से टीआरपी समाप्त हो जाएगी? वैकल्पिक पैमाने की तस्वीर अभी तक सामने नहीं आई है। पूरी दुनिया में यह सिस्टम मान्य है। विज्ञापन कहां से आयेंगे। कैसे मिलेंगे। जब तक इसका विकल्प नहीं आता तब तक इस सवाल से भी जूझना होगा कि क्या हमने बेहतर काम कर रेटिंग लाने की कोशिश की। आशुतोष लिखते हैं कि खबरों की नयी दुनिया तलाशी जाए। उनके इस महत्वपूर्ण लेख में एक लाइन आ कर चली गई है। हिन्दी के चैनल और पत्रकार नए इदारों की तरफ जा रहे हैं? क्या वे प्रस्तुति शैली को लेकर कोई प्रयोग करने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं? दरअसल हमने बेहतर विकल्पों को ढूंढे बिना खुद को टीआरपी के गटर के हवाले कर दिया।
अच्छा पत्रकार होने का मतलब यह नहीं कि कुछ भी लिखेंगे या दिखायेंगे तो लोग देखेंगे। एक अच्छे पत्रकार को सर्जनात्मक भी होना चाहिए। ये नहीं चलेगा कि आप कुछ भी शूट कर लाए,बेतरतीब ढंग से पीटूसी कर के लाएं और अनुप्रासों के ज़रिये स्क्रिप्ट लिख मारे और फिर कहें कि आप अच्छी पत्रकारिता कर रहे हैं और अब दर्शकों को देखना भी पड़ेगा। ज़्यादातर पत्रकारों के शूट टेप निकाल कर देख लीजिए। उन्हें क्रिएटिव होना गुनाह लगता है। टीवी की खबरों को एजेंसी की तरह बनाने वाले रिपोर्टरों और कापीडेस्क के लोगों की नकारा शैली ने भी घटिया उत्पादों को जगह दी। घटिया इसलिए आया कि खुद को अच्छा कहने वाले तमाम पत्रकार,संपादकों और लेखकों ने मेहनत नहीं की। खबरों की नई दुनिया के साथ साथ खबरों की नई शैली भी लानी पड़ेगी। पुराने बीट रहेंगे लेकिन नई बीटों की खोज कीजिए। यह बात टीआरपी विरोधियों के मन में भी साफ होनी चाहिए कि अच्छी पत्रकारिता का मतलब होता है अच्छे पत्रकार और संसाधनों पर खर्च जिनसे होगी खबरों की तलाश। अभी तक जो हो रहा है अच्छी पत्रकारिता के नाम पर,उसको भी खारिज करना होगा। उसमें कोई ताकत नहीं है। हिन्दी न्यूज़ चैनल सिर्फ टीआरपी के मारे नहीं हैं। सिस्टम ही सड़ा हुआ लगता है। तो क्या हम इसके लिए भी तैयार हैं?
समस्या यही है कि हिन्दी न्यूज चैनल अच्छाई के छोर पर भी कमजोर लगते हैं। अब सवाल यह है कि टीआरपी के विरोध करने से पहले हम करना क्या चाहते हैं? क्या अब तमाम तरह के घटिया शो बंद हो जाएंगे? मुश्किल लगता है। टीवी एक मंहगा माध्यम है। राजस्व के बिना टिक नहीं सकता। इसलिए आज दैनिक भाष्कर की पहली खबर से गुदगुदी हुई। दूरदर्शन अपना डीटीएच लाएगा। फीस के खर्चे कम होंगे। इससे निजी चैनलों को लाभ होगा। चालीस फीसदी पैसा वितरण पर खर्च हो जाता है। किसी भी बिजनेस में वितरण का खर्चा इतना नहीं है। टीवी को यही मार रहा है। टीआरपी खतम करने से पहले राजस्व का नया वैकल्पिक मॉ़डल की भी ढूंढना होगा। वर्ना हैदराबाद में जो कुछ भी हुआ है,उससे पहले भी ऐसे कई पल आए हैं जब टीवी पत्रकारिता ने इस तरह की गिरावट देखी है। हर बार कुछ करने की बेचैनी सामने आई लेकिन कुछ नहीं हुआ। इस बार उम्मीद लगती है। वर्ना एक ही दिन दैनिक भाष्कर में एन के सिंह और हिन्दुस्तान में आशुतोष के लेख नहीं आते।
यह भी अच्छा लगता है कि टीवी अपनी खराब चीजों के बारे में खुल कर बात करने लगा है। अखबारों की तरह नहीं कि चुनावों में खबरों के लिए पैसे लिए और चुप्पी मार गए। प्रिट में भयंकर चुप्पी है। राजदीप सरदेसाई को लेख लिखना पड़ता है लेकिन हिन्दी अखबारों का कोई संपादक बोलता नहीं है। हिन्दी की बुराई अंग्रेजी अखबार में छपती है। न्यूज़ चैनलों में तो अच्छे बुरे को लेकर न्यूज फ्लोर पर ही घमासान रहती है। व्यंग्य के लहज़े में ही सही लेकिन फैसले लेने वाले को पता चल जाता है कि अगला मन से नहीं मन मार के कर रहा है। ऐसे हालात में कब तक जीयेंगे। शायद अब और बर्दाश्त नहीं हो रहा है। तो देखते हैं कि इसका असर हिन्दी न्यूज चैनलों के कंटेंट पर कितना असर पड़ता है। बहरहाल टीआरपी मीटर के खिलाफ इस बगावत का स्वागत कीजिए।
28 comments:
आपने अपने पोस्ट में NDTV के निष्ठावान दर्शकों का जिक्र किया है जो नयी पनप रही प्रस्तुति-शैली से खफा होकर मुंह मोर लेने को मजबूर हो रहे हैं. शायद मैं भी उनमे से एक हूँ. ये हाल सिर्फ NDTV का ही नहीं बल्कि तमाम हिंदी न्यूज़ चैनलों का है, NDTV ने तो खैर काफी समय तक अपने मूलरूप से समझौता नहीं किया. आश्चर्य होता है कि सबसे ज्यादा TRP वाले चैनल में ये गद्य-शैली सबसे ज्यादा प्रचलित है. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि ये शैली हर प्रकार से हास्यास्पद ही नजर आती है, ख़बरों कि गंभीरता मिलती ही नहीं. खैर आपने खुद ही एक नए कदम कि ओर बढ़ने का इशारा किया है. आशा करता हूँ कि जल्दी ही मेरे जैसे दर्शक फिर से हिंदी न्यूज़ चैनलों का रूख करेंगे और इसबार कुछ ठोस, purposeful और meaningful न्यूज़ देखे जायेंगे..............धन्यवाद!
क्या धनाढ़ समाजवाद के पक्ष होगा? सवाल वो ही है आपका। लेकिन जवाब मेरा है 'नहीं'।
कोई कहे कुत्ता हड्डी को देखकर छोड़ देगा क्या? तो मेरा उत्तर होगा 'नहीं'?
दक्षिण न्यूज चैनलों ने तो हद कर दी, इस पर तो कल हमने चर्चा की थी, लेकिन बीच में से आवाज आई, कौन सा अच्छा चैनल रह गया। मैंने आपके चैनल का नाम लिया, विशेष आपका।, लेकिन विरोध हुआ चैनल का आपका नहीं।
फिर मेरी निगाह आपके ब्लॉग के छोटे से प्रोफाइअल पर गई, जो बहुत पहले से जेहन में था। रवीश कुमार अपने पेशे से खुद को अलग कर एक कुर्सी पर बैठा हुआ चिंतन में डूबा हुआ है। तुम को देखकर खुद के बागी होने पर मुझे गर्व होता है। आप कहता तो फासला बढ़ जाता, अगर फासला चाहते हैं तो आप ही रखता हूँ। वहाँ तुम को आप समझ पढ़ना जी।
सही कहा आपने की प्रतियोगिता उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ाती है। ये शोध का विषय है कि हिंदी मीडिया में उलट क्यों हो रहा है? राजस्व के विकल्प प्राथमिक हैं, वर्ना नौकरियों पर तलवार टंगी समझिए। टीआरपी से बचने के लिए एख योजनाबद्ध, संबद्ध और समेकित प्रयास करना होगा सारे मीडिया को।
आपने ग़लत कहा कि हमारे समय का सबसे बड़ा आयडिया ‘गोबर’ होना है। मेरे ख़्याल से उससे भी बड़ा आयडिया ‘रबिश’ होना है।
यह मैंने क्यों कहा !?
ज़रुरत पड़ी तो आगे चलकर साफ़ करुंगा।
भले ही आज ठूंट पत्रकार (जो मुर्खता कि सीमा लाँघ गए है) अपने दिखाये पर इतरा रहे है, पर जल्द ही भारतीय समाज जो जरा देर से जगता है फिर से ठोस पत्रकारिता कि ओर रुख करेगा.....पाप का घड़ा बस भरने ही वाला है...बस हमारी जिम्मेदारी है कि एक लाठी जोर से मरी जाये..............
SACHIN KUMAR
THIS IS TOO EARLY TO SAY THAT WE HAVE STARTED TO STAND AGAINST TRP. IT WAS ANOTHER THING THAT A HYDERABAD CHANNEL SHOWS THAT STORY...HOW MANY DELHI JOURNALIST WOULD NOT RUN THE STORY IF HE FOUND THAT NEWS? I AM NOT SURE. WHAT'S WRONG JUST GIVE THE COURTSEY OF RUSSIAN WEBSITE AND RUN THE NEWS. OUR RESPONSIBLITY IS OVER. TO SAY AGAINST TRP IS VERY SIMPLE,WHEN IN NEWS ROOM HARDLY ONE SEE OTHER THAN TRP. HOW TO GET TRP IS THE FIRST AND LAST THOUGHT OF MANY?. THIS TRP SYSTEM IS NOTHING BUT FOOLISHNESS, YOU NAME IT RIGHTLY. TILL THIS SYSTEM IS NOT CHANGED. WE CAN ONLY SAY AGANIST TRP BUT CANNOT DO ANYTHING....
रवीशजी। ये सब फालतू की बातें है... चाहे आईबीएन के राजदीप सरदेसाई से लेकर आशुतोष हों या फिर न्यूज २४ के अजीत अंजुम साहब ... ये सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं... मुखौटे ओढकर ऐसी बातें बोलते हैं.... कभी समय मिले तो पूरे दिन आईबीएन या फिर न्यूज २४ लगाकर देखिये... क्या कचरा दिखातें हैं ये दोनों पत्रकारिता के महापुरुष। ये सबके सामने बोलते हैं कि पत्रकारिता खत्म हो रही है, समाचार गायब हो रहे हैं...चिंतनीय स्थिति है। राजदीपजी तो शायद किसी इंडियन ब्राडकास्टर्स जैसी कोई संस्था के चेयरमेन-वेयरमेन भी है... क्या दिखाते हैं आईबीएन पर... अजीत अंजुम जी तो आज ही आईबीएन पर पर मुद्दे में आये थे... बहुत भाषण दे रहे थे पत्रकारिता, पीत पत्रकारिता और टीआरपी पर... दिखाते क्या हैं...? वैसे देखा जाए तो आज तक के प्रभु चावला, कमर वहिद नकवी हों, इंडिया टीवी के रजत शर्मा हों, जी न्यूज के ... (नाम याद नहीं आ रहा)... इन तमाम पत्रकारिता के तथाकथित महापुरुषों को भाषण देना और आजकल समाचार पत्रों में लिखना बहुत आ रहा है... पर अपने गिरेबान में झांकने की फुरसत नहीं है। आईबीएन तो वैसे भी एक चोर न्यूज चैनल लगता है, ये मेरा नहीं मेरी पत्नी का कहना है। देख लीजिये उसके सारे कार्यक्रम किस चैनल के कार्यक्रमों की नकल होते हैं ( चैनल का नाम नहीं लुंगा)।
लोगों के सामने बात कहना और समाचार पत्र में लेख छपवाना और बात होती है... मेरा दावा है अजीतजी अंजुम से लेकर आशुतोषजी को हिम्मत है तो दिखाइये सिर्फ समाचार.... मालूम पढ जाएगा एक ही हफ्ते में जब राजदीपजी आशुतोषजी को और अनुराधाजी अजीतजी बाहर का रास्ता दिखा देंगी।
वैसे आजकल टीवी पत्रकारों में एक नया ढर्रा और चल निकला है... राजेन्द्र यादवजी की कृपा के बाद सबके सब को मीडिया और पत्रकारिता पर किताबें लिखने का शौक चर्रा गया है। लगभग ८-१० टी.वी. पत्रकारों की कोई २०-२२ किताबें मैंने पिछले छह माह में पढी हैं... लिखते तो बहुत अच्छा हैं पर होते हैं लिखे से एकदम उलटे ही हैं....
(उपरोक्त विचार मेरे अपने हैं... मैं किसी समाचार पत्र या चैनल से जुड़ा हुआ नहीं हूं... बस १५ सालों से पत्रकारिता और समाचार चैनलों पर अध्ययन कर रहा हूं)
हां, आपने एक बात और लिखी हैं, वह यह कि -
यह भी अच्छा लगता है कि टीवी अपनी खराब चीजों के बारे में खुल कर बात करने लगा है। अखबारों की तरह नहीं कि चुनावों में खबरों के लिए पैसे लिए और चुप्पी मार गए। प्रिट में भयंकर चुप्पी है। राजदीप सरदेसाई को लेख लिखना पड़ता है लेकिन हिन्दी अखबारों का कोई संपादक बोलता नहीं है।
आप राजदीपजी के दिमाग की तारीफ कीजिये... वह इसलिये कि वह एक बुद्धिजीवी वर्ग के व्यक्ति हैं, उन्हें पता है कि देश की जनता जागरुक, पढी-लिखी और समझदार है... भई, पब्लिक सब जानती है... और पब्लिक या फिर कोई और बोले इससे पहले खुद ही बोल लो... जिससे ये हो जाए कि हम तो पहले से ही बोल रहे हैं यह सब। दूसरी बात राजदीपजी हिन्दी अखबारों को क्यों घसीट रहे हैं? सोचिये... भई इसलिये की इस हमाम में हम टीवी वाले ही नहीं... समाचार पत्र वाले भी नंगे हैं... अकेले हमसे मत बोलिये। सब पैसे का खेल है। पिछले लोकसभा चुनावों में किस-किस इलेक्ट्रानिक मीडिया के किस-किस पत्रकार तथा बड़े स्तर पर सेटिंग-गेटिंग वाले प्रमुख तथाकथित महान पत्रकारिता के सम्पादकों ने कितने-कितने में सेटिंग की है यह तो शायद सभी जानते हैं...ये तो वो बात हुई.. हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हे भी ले डूंबेगे... भई राजदीपजी पहले अपना चैनल ही ढंग से समाचारों पर चला लो... दूसरों के घर में बाद में झांक लेना। दुख इस बात का है कि स्व. एस.पी. सिंह, स्व. प्रभाषजी, स्व. उदयनजी से जिन पत्रकारों ने लिखना सीखा था, वे लिखना भूलकर सेटिंग में लगे रहते हैं।
... अब बहुत लिख दिया रवीशजी। वैसे मीडिया मेरे लिये विषय ऐसा है कि अगर सब लिख दिया तो सारे चैनल वाले हमाम में नंग-धड़ंग नजर आने लगेंगे... होगा ज्यादा कुछ नहीं... टीआरपी के चक्कर में सभी इलेक्ट्रानिक मीडिया वाले मुझे नंगा करने में लग जाएंगे।
अरे हां... टीआरपी से याद आया। कुछ महीने पहले एक मनोरंजक न्यूज चैनल (नाम आप स्वयं ही समझ जाईये, क्योंकि न्यूज चैनल के आगे मनोरंजक शब्द लगा है) से एक वरिष्ठ पत्रकार का ई-मेल आया था कि महोदय, आपका जो येति हिम-मानव वाला लेख इन्टरनेट पर उपलब्ध है, क्या हम उसका उपयोग अपने कार्यक्रम के लिये कर लें. मैंने पूंछा क्यों - तो उन जनाब था - अरे यह सब टीआरपी का मामला है। लोग देखते हैं। आपके पास तो रहस्य-रोमांच की सामग्री भरी हुई है... आपको भी गेस्ट के रूप में निमंत्रित कर लेंगे। आपका नाम भी चमक जाएगा। हम रहस्य-रोमांच के ऊपर रोज आधा घण्टे का कार्यक्रम बनाने का सोच रहे हैं। आजकल यही सब पसंद किया जाता है। मैंने पूंछा कि लोग समाचार नहीं देखते क्या? उन वरिष्ठ पत्रकार का जवाब था - समाचार.. उंह.. कैसी बातें करते हैं आप... समाचार के लिये हमने चैनल कहां खोला है, आजकल समाचार नहीं बिकता... टीआरपी बिकती है।
एक बात और... वह यह कि सभी टीवी चैनलों के सम्पादक पिछले कुछ समय से टी.आर.पी. को लेकर हो-हल्ला कर रहे हैं... क्या हुआ कुछ नहीं... और आगे भी देखियेगा कुछ नहीं होने वाला। इन्हीं राजदीपजी का एक लेख आज से कोई साल भर पहले ही शायद मार्च में दैनिक भास्कर के सम्पादकीय पृष्ठ पर छपा था उसमें भी इन्होंने बहुत चिन्ता जाहिर की थी न्यूज चैनलों और टीआरपी के बारे में... क्या हुआ... ढाक के तीन पात। कुछ नहीं होने वाला। सब कमाई करने के तरीके हैं। टी.आर.पी. पर इतना हो-हल्ला कर दो कि टी.आर.पी. का मतलब ही खत्म हो जाए... और विज्ञापन की गाड़ी का पहिया टी.आर.पी. से उतरकर सीधे रास्ते पर आ जाए यानि बिना टी.आर.पी. के विज्ञापन मिलने लगे... देख लीजिये आज जनवरी २०१० चल रहा है... जनवरी २०१५ में भी यही चिन्तन चलेगा।
टीआरपी सिस्टम को सुधारने की ज़रूरत है। एक ऐसा सिस्टम बने जो वृहद हो...। चंद घरों के आंकड़े देश भर की पसंद नापसंद का निर्धारण कैसे कर सकते हैं। मौजूदा टीआरपी सिस्टम में यही खोट है। आंकड़े काल्पनिक हैं और मेरे विचार से तो ये सब आकलन करने वाली संस्थाओं के 'चरित्र' की भी जांच होनी चाहिए।
namaskar ravish ji, bolate to aap hai hi achcha lekin ab mujhe lagta hai ki aap likhte usse bhi achcha hai.maine abhi kuch hi dino se blogs padne shuru kiye hai kya karu pehale janta hi nahi tha aur doosari baat ki aaj tak bas apke hi blog pade hai.achche hai bahut achche lekin kuch jyada hi udaarvaadi jaise ho rahe hai.khair jo bhi hai aapka lekhan mujhe na chahte hue bhi kahi na kahi chcho raha hai mujhe bahut kuch kehna hai aapse apke har ek blogs par. bhoomika bana raha hoo apko impress karne ki,lekin lagta hai abhi thoda time lagega,pehale to computer use karna sikh loo thik se uske baad hi aisa hona sambhav hai,haa mein yah bhi janta hoo ki apko impress to kabhi nahi kar paunga lekin eklavya ban ne ki kosish jaroor karunga.maaf karna sir ji
अच्छा है रवीश जी। अगर कुछ कर नहीं पा रहे तो कम से कम आलोचना तो कर रहे हैं। मुझे याद पडता हे कि राजदीप जी जो लेख अंगे्जी में लिखते हैं उसी का हिन्दी रूपांतरणा दैनिक भास्कर और पंजाब केसरी जालंधर अपने अखबार में छापते हैं लेकिन उनके जिस लेख की बात आप कर रहे हैं वह अंगे्जी में ही छपा। हिन्दी अखबार उसको छाप तक नहीं सके। सही कहा है हमाम में सब नंगे हैं।
अच्छा है रवीश जी। अगर कुछ कर नहीं पा रहे तो कम से कम आलोचना तो कर रहे हैं। मुझे याद पडता हे कि राजदीप जी जो लेख अंगे्जी में लिखते हैं उसी का हिन्दी रूपांतरणा दैनिक भास्कर और पंजाब केसरी जालंधर अपने अखबार में छापते हैं लेकिन उनके जिस लेख की बात आप कर रहे हैं वह अंगे्जी में ही छपा। हिन्दी अखबार उसको छाप तक नहीं सके। सही कहा है हमाम में सब नंगे हैं।
प्रतियोगिता का पता नहीं। सब चैनल्स पर एक समय पर एक ही विषय आते हैं। चैनल १ यदि अभिनेता क को को दिखा रहा है तो चैनल २ अभिनेत्री ख को। दर्शकों के पास क्या विकल्प रह जाते हैं? सिवाय अभिनेता क, ख, ग या घ को देखने के? या फिर टी वी बन्द कर देने का विकल्प तो है ही।
आपकी चैनल का पता नहीं, किन्तु अधिकतर चैनल्स समाचार इस प्रकार दिखाती हैं जैसे हमें पाठ का रट्टा लगवा रही हों। टी, वी, पत्रकारिता आदि का ज्ञान नहीं है किन्तु यह तो सच है कि अब समाचार देखने की इच्छा ही नहीं होती। टी वी तभी खोलती हूँ जब यह सूचना मिले कि बच्चों, अपने या किसी अपने के शहर में गड़बड़ी है। या फिर तब देख लेती हूँ जब पति उसे चालू कर दें।
वैसे मुझे समाचार सुनना देखना सदा पसन्द था।
घुघूती बासूती
इसके खिलाफ आवाज उठाने का बिल्कुल स्वागत करता हूं। मैंने नया ज्ञानोदय के मीडिया विशेषांक में इसी के इर्द-गिर्द एक लंबा लेख लिखा है। लंबा होने पर पता नहीं कितनी लोग हिम्मत जुटा पा रहे होंगे। शीर्षक है- क्या है टेलीविजन का अर्थशास्त्र।..
चैनल, उसका प्रासारण, विज्ञापन, दर्शक और उनके खरीदने की ताकत, ये सब चीजे इस कदर गुंथ चुके है कि इनमें फर्क करना और इसको अलग से करना काफी मुश्किल है।लेकिन परेशानी है इसमें तो इसका हल भी ज़रुर होगा नहीं तो परेशानी नहीं होती, सभी लोगों को आगे आना होगा, वहीं उन मालिको को इस दुनिया से हटना होगा जो पैसे कमाने के मकसद से आये है
अज्ञात जी इतना कुछ लिख गए वर्तमान के सत्य पर, "...लोग देखते हैं। आपके पास तो रहस्य-रोमांच की सामग्री भरी हुई है... आपको भी गेस्ट के रूप में निमंत्रित कर लेंगे।..."
यह कथन जतलाता है कि कैसे हर व्यक्ति के भीतर प्राकृतिक तौर पर एक अनंत जिज्ञासा सदैव बनी रहती है, घोड़े के सामने तथाकथित 'लटके गाजर की भांति', कुछ रहस्यमय जिसे शायद वो पाने हेतु इस संसार में आया हो ;) और वो किसी न किसी रूप में अपने पीछे किसी व्यक्ति को सदैव पाता है - तांगेवाले समान चाबुक लिए, जैसे भागवद गीता में उसे 'पार्थसारथी यानि अर्जुन का रथचालक कृष्ण' कहा गया किसी प्राचीन पत्रकार द्वारा ही, किन्तु संस्कृत भाषा में जो हिंदी भाषा का शुद्ध रूप है...और वर्तमान में संस्कृत केवल एक पहाड़ की चोटी सामान है एवेरेस्ट से भी ऊंची...उसे केवल 'आधुनिक पंडित' गीता में कुछ एक वाक्य दोहरा खुद ही खुश हो लेते हैं...किन्तु उसके सार, परम सत्य, को अनदेखा कर देते हैं - 'टी आर पी' के कारण...शायद, हलवा और काजू की बर्फी नहीं तो कौन चढ़ाएगा ;)
प्राचीन ग्यानी इस मायावी संसार से उपर उठने के लिए बाहरी संसार से अविचिलित रहने का सुझाव दे गए - बस आनंद लो जो भी आपके सामने भोजन समान परोसा जा रहा है...जैसे मेरी माँ इस का सार इन शब्दों में करती थी अपने छः बच्चों से, "खाना है तो खाओ/ नहीं तो भाग जाओ!"
लेकिन क्या आशुतोष,अंजुम और तमाम पत्रकारों के लिख देने से टीआरपी समाप्त हो जाएगी?
नहीं ! रवीश जी। इसका सबूत हमारे पत्रकार भाइयों ने हैदराबाद में दोषी पत्रकारों की गिरफ्तारी के बाद देदिया....
काश! मीडिया कर्मी की तरह ही इस देश के सभी कामगार और मालिक अपने-अपने धंधे में पतन की पड़ताल कर पाता... पता नहीं सभी संवेदनशील और हिम्मत वाले लोग मीडिया में ही क्यों आ जाते हैं... जबकि सबसे ज्यादा कचरा तो सरकारी नौकरी करने वालों ने फैला रखी है... उसके बाद वकीलों ने... फिर डॉक्टरों ने... और बनिया तो इस देश का हमेशा से लुटेरा ही रहा है... लेकिन गाली सिर्फ नेता... और मीडिया को खानी पड़ती है... वैसे ये दोनों लोग समय समय पर अपने गिरेवान में भी झांकते हैं... और समाज के लिए और धंधें करने वालों के मुकाबले ज्यादा समाज को देते हैं... जबकि दोहन न के बराबर करते हैं... पत्रकार तो रोज कुंआ खोदता है और रोज पानी पीता है... गरीबी और गुरबत तो उनका कपड़ा-लत्ता और ओढ़ना बिछौना होता है... फिर भी जिसे देखो वहीं ईमानदारी की घुट्टी पिलता रहता है... खैर कोई बात नहीं इस देश में कम से कम मीडिया में वो हिम्मत तो है... जो अपने आप को गाली देने की औकात रखता है... काश दूसरे धंधे वाले भी ऐसा कर पाते... फिर तो मेरा देश सोने की चिड़िया फिर से बन सांतवे आसमान पर उड़ती
Ravishji Aapki iss Pehal ka swagat hain lekin aapki iss baat ko aapko pehele NDTV INDIA par hi implement karna hoga kyoni zyaada na sahi thoda hi sahi NDTV INDIA bhi TRP ke chakkar mein nazar aata hua dekhai de raha hain,tab main bahot "aahat" hota hun jab NDTV INDIA par kisi "sadharan" khabar ko auron ki tareh "Natkiyata" ke saath dikhaya jata hain tab ye abhaas hota hain ki NDTV INDIA bhi TRP ke daud mein lag chuka hain
:( jaisa ravish ji ne likha hai inse pehle bhi kai aur reporter editor TRP ke bare me likh chuke hai uske baad bhi humlog trp ki is andhi dauad me lage huye hai..kisi bhi reporter ko apni khabro ko chamkane ke liyetrp ka sahara lena pad raha hai..jab ki aisa hota ki unki khabre bolti janta tay karti hai ki kaun achchi reporting kar raha hia aur kaun achcha reporter hai lekin ho ulta raha hai...hume trp ke is makadjaal se nikalna hoga..
रवीश जी एक सवाल मन में बार-बार उठ रहा है कि आखिर फिर मापदण्ड क्या होगा। आपको या आपके कंटेंट को लोगों ने कितना पसंद किया ये कैसे जाना जाएगा?
असित नाथ तिवारी
namaskaar
miidikarm yaa ptrakaaritaa dono ke liye pathak/darshak chaahiye. isake liye vigyaapan chaahiye. usake liye koii jaruurii nahii hai ki aajkal jo ho rahaa hai vahii kiyaa jaay. aap pathak/ darshak juttane ke liye kuchh aur sochiye jisase kamse kam vah to hota rahe jisake liye patrakaaritaa ho rahi hai. ptrakaaritaa ko paisa bhii chaahiye kintu pratibadhdhataa samaj ke prati hona chaahiye.
achha hai kuchh manthan to ho rahaa hai . aashaa kare janataa sachchi khabar, achhi khabar milegii.
namaskaar.
Harish ji sirf likhne se kuch nhi hota use karna bhi padta hai.TRP ki maar TV channel par hamesha hi padti rahegi.aaj News channel entertainment channel lagta hai.agr wakai journalist TRP ko lekar itne hi gambheer hai to phir wapas khabar par kyun nahi lautte.
Aapka yeh lekh gazab ka hai. Agar aap kuchh pramukh TV patrkaar ikathe mil baith kar iss baare mein baat karte rahenge to koi na koi raasta zarur niklega. Aap sab (TV channels ke pramukh log) Mahine mein kam se ek baar zarur lunch ya dinner par kahin mil liya karen - kabhi kabhar kisi ko bahar se bhee bula sakte hain. Mujhe maalum hai yeh kitna mushkil ho sakta hai par phir bhee do teen ghanta saath aap log rahenge to zarur raasta niklega. Kya pata aapka ye informal group hee iss TRP ke farce ko puri tarah expose kar de !
Vibhu
(vbarora@gmail.com)
रवीशजी, आप बड़े पत्रकार हैं, आपकी बात दुनिया सुनती है। अजीतजी, आशुतोषजी, एनके सर, राजदीपजी .. सब के सब बड़े-बड़े नाम हैं पत्रकारिता जगत। लेकिन चार लाईन / एक आर्टिकल लिखने के अलावा टीआरपी के धंधे पर कोई सार्थक पहल होती हुई तो मुझे अब तक नहीं दिखी।
लगभग ढ़ाई साल पहले अविनाश के मोहल्ले में टीआरपी के बारे में कुछ विस्तृत सामग्री लेकर पहली बार मैं आया था (http://mohalla.blogspot.com/2007/10/blog-post_5630.html)। इसे बाद में अपने ब्लॉग पर भी पोस्ट किया (http://baatbolegi.blogspot.com/2007/10/blog-post.html)।
ये कोशिश इसलिए की थी मैंने कि इस मुद्दे पर सार्थक बहस हो। इस लेख के आधार पर कई लोगों ने टीआरपी पर लिखा भी। लेकिन बहस से हम सब कतराते रहे।
तब और अब में अंतर ये है कि उस वक्त किसी ने टिप्पणी करने की भी जहमत नहीं की, आज कुछ लोग बोल रहे हैं।
विद्रोह की ये भावना तो उन दिनों भी थी .. लेकिन न तब बहस हुई और न आज हो रही है। हो भी रही है तो वो इस रूप में कि लोग या कुछ संपादक/बड़े पत्रकार चिंता जता रहे हैं और इसे बहस का नाम दिया जा रहा है।
.. इससे आगे बढ़ते हुए देखना एक सपना है।
लगता है कि जब एक पत्रकार जब संपादक बन जाता है तो अपने संघर्ष के उन दिनों को भूल जाता है जब कितना खून जलाकर वो स्टोरीज़ लाता था या उसकी कॉपी लिखता था। बाजार का दबाव इस कदर हावी है हम पर।
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