लभ इन बर्लिन वाया रभीस कुमार


बर्लिन के कनाट प्लेस यानी अलेक्जेंद्रप्लात्ज की तरफ़ बढ़ते इस जोड़ी की घुड़चढ़ी देख मन पुलकित हो गया । हमारे साहित्य और मूर्तिकला में प्रेम चाहे जितना हो सार्वजनिक अभिव्यक्तियाँ कम हैं । हम ताकाझांकी खूब करते हैं । इस उम्र में अपनी दोस्त प्रेमिका अथवा पत्नी को पीठ पर लादे चला जा रहा यह प्रेमी कमाल का लगा । कोई शर्त लग गई होगी या दिल्लगी का इरादा कर लिया गया होगा । हमारे यहाँ के पति और प्रेमी अपनी पत्नी या प्रेमिका का पर्स ही उठा लें तो लाज के मारे नज़र दौड़ाने लगेंगे कि कोई दोस्त न देख ले । पीठ पर उठाने की बात तो दूर । हाँ नालायक सब होली मे ज़रूर उठाने का मौक़ा तलाशते रहते हैं । इसीलिए हमारे यहां ऐसे दृश्य की मान्यता सिर्फ श्रवण कुमार टाइप केस में मिली है । जैसा कि आप इस तस्वीर में देखेंगे कि कोई इनकी घुड़दौड़ ये हैरान नहीं है । एक मै ही बिहारी इन बर्लिन हूँ जो ऐसे पलों की तस्वीरें उतार रहा हू । बेहूदा नंबर वन कहीं का । 



ऐसा नहीं कि बर्लिन में सब अच्छा ही है । बेहद ख़ूबसूरत शहर में भी लड़कियों को रात अपनी करने के लिए सामूहिक दौड़ लगाना पड़ती है । दिन के स्पेस में औरतों को लेकर ऐसा कोई भेदभाव तो नज़र नहीं आया मगर एक अपार्टमेंट के कोने में लगे इस पोस्टर से दिमाग़ ठिठक गया । दिल्ली की याद आ गई । कुलमिलाकर औरतों की दो बड़ी समस्याएँ हैं । एक मर्द और दूसरी रात । 

कुछ मित्रों ने ताकीद की थी कि बर्लिन का बीयर चख के आ जाना । ऐसे जैसे गंगोत्री से बीयर निकलती हो । लेकिन शहर आया तो एक कोने में सुबह सुबह बोतल हाथ में लिये नशे में धुत एक लड़की को चीख़ते चिल्लाते और रोते देख मन दुखी हो गया । रात के नशे ने उसे दिन के उजाले में बिखेर दिया था । लोग बची हुई बीयर सड़क किनारे भिखारियों को दे जाते है । वे भी रात भर टुन्न । कई पोस्टर नज़र आए जो ड्राईवर शराब पीये था मोड में लगे थे । अपनी सीमा को जानों इन पोस्टरों का मूल भाव था । शराबखोरी वहाँ एक समस्या है । 


शहर के खंभों पर छोटे छोटे स्ट्रीकर चिपके मिले । मतलब तो समझा नहीं पर बर्लिन की गुप्त गलियों को क़िस्सों की झलक मिली । शहर की लोकसंस्कृति भी खूब फलफूल रही है । कुछ मज़ाहिया तो कुछ बंगाली बाबाओं टाइप स्ट्रीकर चिपके दिखे । यह स्ट्रीकर किसी प्ले का लगा । 

ये तस्वीर एक रेस्त्रां के दो दरवाज़ों की है । पता बताने के संकेतों को लेकर दुनिया इतनी प्रयोगधर्मी है जानकर अच्छा लगा । 



एक सुबह किसी फ़ोटोग्राफ़ी स्कूल के छात्र शहर की वास्तुकला को उतारते दिख गए । जिज्ञासावश निकट जाकर पूछा तो बताया कि ये एनालाग कैमरा है । छात्रों ने बताया कि  इमारतों की मुकम्मल तस्वीर लेने में इसका आज भी कोई सानी नहीं है । हमारे यहाँ काँठ के बक्से में यह कैमरा कचहरियों के बाहर दिखता है । तकनीकि कैसे कैसे चुपचाप लौट रही है । 


ऐसी आँखें तो होती नहीं मगर औरतों के लिए टोपी की इस दुकान में गर्दनकट यह प्रतिमा अच्छी लगी । अजीब भाव है । तमाम लड़कियाँ दोस्त हैं मगर किसी को ऐसे प्लास्टिक की तरह देखते नहीं देखा । ज़रा नज़रों से कह दो जी ये गाना गूँजने लगा ।

इसे देख अपने राजकपूर की याद आ गई । राजकपूर ने इतना रपेटा कि अब लगता है यही लोग राजकपूर की नक़ल कर रहे हैं । 


9 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

रंग बिरंगी दुनिया अपनी,
बर्लिन खट्टी मीठी चटनी।

Anupam Singh said...

बाह हो भैया.. ठीके है.
मने बर्लिनो घूम लिए..

Brij ka baashinda said...
This comment has been removed by the author.
Brij ka baashinda said...

Rabhees kumar....foreign return.

Unknown said...

उम्दा ! कब गये ? कब लौटे ?

Unknown said...

उम्दा ! कब गये ? कब लौटे ?

Anonymous said...

wah ravish bhai mjaa aa gya.man gye apki parkhi najar ko................

amarjit said...

Thank u, berlin ki shair karane k liye.

amarjit said...

Thank u, berlin ki shair karane k liye.