सिनेमा से सीखते सीखते


1978 में आई शालीमार फिल्म का गाना। जिसमें  ऊषा उत्थुप अपनी दमदार आवाज़ में वन टू चा चा चा चा के स्टेप सीखा रही थीं। इस गाने में ऊषा उत्थुप दक्षिण भारतीय मिस्टर नायडू से कहती हैं कि भरतनाट्यम छोड़ों और चाचा डांस करो। मिस्टर नायडू गिर मत जाना यहां तुम्हें कल भी आना है। 1982 में एक और फिल्म आती है डिस्को डांसर। मिथुन चक्रवर्ती डांस का समां बांध देते हैं और डिस्को का मतलब सीखा रहे हैं। 2008 में शाहरूख और अनुष्का की फिल्म रब न बना दी का गाना यही काम कर रहा है। "वो बंदा ही क्या जो नाचे न गाये " इस लाइन के साथ नाच न जानने वाले को स्टेप बताया जा रहा है। "चल हाथ घुमा ले यारा जैसे सुइयां सात से बारहा ले बन गया स्टेप सोनिया।" सिनेमा अपने तरीके से सामूहिकता का निर्माण करता है जिसके कई नज़ारे आप आम जीवन में देखते हैं। याद कीजिए उन अनगिनत बारातों के आगे होने वाले डांस को। कोई भगवान की शैली में तो कोई अमिताभ तो कोई ऋषि कपूर तो कोई मिथुन की तरह डांस करता हुआ चला जा रहा है। हिन्दुस्तान का सिनेमा पर्दे के बाहर रोज़ ऐसे अनेक रूपों में दिख जाएगा।

1970 में एक फिल्म आई थी सगीना महतो जिसमें दिलीप कुमार गा रहे हैं कि "ये सूट मेरा देखो, ये बूट मेरा देखो जैसे गोरा कोई लंढन का। तुम लंगोटी वाला न बदला है न बदलेगा।" लंदन को लंढन बोलना और पहली बार सूट पहनने की असहजता से दिलीप साहब का गुज़रना हम सबका अनुभव रहा है। जब हिन्दुस्तान में सूट पहनना एक खास दायरे से निकल कर दूसरे खास दायरे में प्रवेश कर रहा था तो आधुनिकता पर इन्हीं व्यंग्यों के सहारे हम उसे अपनाने का टिकट हासिल कर रहे थे। बाबी फिल्म में डिंपल के पिता का किरदार जब कुलीन प्राण से मिलने जाता है तो प्रेम नाथ की पतलून की चेन खुली हुई है। तथाकथित टकराव या व्यंग्य के ऐसे तमाम दृश्यों के ज़रिये सिनेमा ने आधुनिकता की स्वीकृति को सुलभ कराया।

हिन्दुस्तान का सिनेमा सिर्फ समाज का आईना नहीं रहा है बल्कि एक बड़े तबके के लिए दुनिया को देखने का लाइसेंस रहा है। हमने दुनिया को पहली बार सिनेमा का ज़रिये ही देखा। राजकपूर की फिल्म अराउंड द वर्ल्ड  हो या तमाम गानों में स्विट्जरलैंड से लेकर वेनिस हमारी कल्पनाओं में पर्दे से ही उतरता रहा। नब्बे के दशक का उदारीकरण जब दौलत का दायरा फैलाता है तो हिन्दुस्तानी इस आत्मविश्वास से हांगकांग से न्यू जर्सी तक ऐसे कदम रखता है जैसे उसने इन शहरों को पहले भी कहीं देखा है। हिन्दुस्तान के अपने ही शहर हमारी ज़िंदगी में सिनेमा के ज़रिये आए। एक दूजे के लिए नाम से एक फिल्म आती है जो हिन्दी तमिल भाषा युद्ध के ज़ख्मों को दूसरा ही आयाम दे जाती है। कमल हसन रातों रात हिन्दी सिनेमा के दर्शकों की कल्पनाओं में छा जाते हैं और यूपी बिहार की लड़किया हर दक्षिण भारतीय में वासु को खोजने लगती हैं।

सौ साल का हमारा सिनेमा हो गया है। इस एक सदी में सिनेमा और समाज के रिश्ते कई बार बने हैं और टूटे हैं। अस्सी का दशक जब सिनेमा में अंडर वर्ल्ड हावी हो चुका था, हिन्दुस्तानी दर्शक उस सिनेमा से किनारा करने लगा था। कोई न तो तेजाब के अनिल कपूर की तरह बनना चाहता था न ही हीरो के जैकी श्राफ की तरह। ये वो किरदार थे जो सत्तर के दशक के अमिताभी बगावत की नकल तो कर रहे थे मगर साफ साफ लग रहा था कि ये किसी राजनीतिक सामाजिक स्पेस में ज़बरन ठेले गए थे। वर्ना आप देश भर के स्मार्ट हेयर कट सैलूनों की स्मृतियों को इकट्ठा करने निकलिये। वसीम मियां से लेकर हबीब मियां तक बतायेंगे कि कैसे उन्होंने लोगों को जितेंद्र से लेकर अमिताभ और मिथुन बनाने का प्रयास किया। दिल चाहता है के बाद आमिर की तरह कूल कट जब हिट हुआ तो यह अपने पहले के दौर का ही नकल था। जब लड़कियां साधना कट रखा करती थीं और आशा पारेख की तरह टाइट चूड़ीदार कुर्ता पहनने लगी थीं। सिनेमा का असर अक्सर अपराध के संदर्भ में देखा जाता है मगर हमारा सिनेमा जीवनसाथी की भूमिका भी निभाता रहा है।

हवाई जहाज़ को दूर आसमान में उड़ता देख हम बचपन में चील गाड़ी पुकारा करते थे। जब फिल्मों के करीब गए तो कई नायक नायिकाओं को एयर पोर्ट से खास शैली में बाहर आने का सीन देखा। उनके विदेश जाने या लौटने पर विदाई या स्वागत के दृश्यों में कई लोगों  के हवाई पट्टी के बाहर घेरा लगा कर खड़े रहने का सीन याद कीजिए। मध्यवर्गीय आकांक्षाएं इन्हीं दृश्यों से खुद को तैयार कर रही थीं । सीढ़ियों पर उतरते वक्त जूते का क्लोज़ अप स्कूल यूनिफार्म वाले बाटा शू से अलग हटकर जूता पहनने का संस्कार फैलाता गया। खड़ाऊं या नगाड़ा जूते विलुप्त प्राय हो गए। मेरा तो मानना है कि चिकन के लेग पीस के प्रति विशेष आकर्षण सिनेमा से ही आया। लड़कों के पतलून में घाघरे का घेरा ठूंस कर बेलबाटम ऐसे बना कि गली गली में जेन्ट्स टेलरों ने इसकी विशेषज्ञता का एलान कर दिया। लेडीज टेलर के साइन बोर्ड पर साधना,आशा पारेख, हेमा मालिनी और बेलबाटम में नीतू कपूर अवतरित हो गईं।


ज़ाहिर है हमने सिनेमा से काफी कुछ सीखा। ड्राइंग रूम में मच्छरदानी वाली चौकी लोगों के पास पैसा आते ही समाप्त हो गई। फिल्मी ड्राइंग रूम की तरह घर घर में खिड़कियों  पर पर्दे टंग गए और साज सज्जा के सामान रख दिये गए जिनमें ज़िंदा मछली का अक्वेरियम विशेष तौर पर प्रतिष्ठित हुआ। ऐसा नहीं कि सिनेमा बदलते समाज के साथ नहीं चल रहा था। वो भी काम होता रहा। तभी तो पुरानी फिल्मों में नहाने के तमाम दृश्य नदियों के किनारे के हैं। आज ऐसे दृश्य कहां मिलते हैं। नायक या नायिका आलीशान प्राइवेट बाथरूम में ही नहाते हुए फिल्माये जाते हैं। एक दशक में इन दृश्यों को खास तरीके से परोसा गया। अब शायद ऐसे दृश्यों में वो नयापन नहीं रहा इसलिए कम होते हैं। सौ साल में हम बहुत कुछ सिनेमा की तरह हुए हैं। मात्राओं में फर्क हो सकता है। मैं नहीं कहता कि सिनेमा ने इसी तरह से हमें बदला है। इसके असर के कई रूप हैं। कई संदर्भ हैं। अब सिनेमा ही सिनेमा की नकल कर रहा है। सिनेमा ने पर्दे पर स्मृतियों का भंडार कायम किया है जिसकी अनुकृति आप रीमेक या रिमिक्स फिल्मों में देख रहे हैं। सिनेमा में सिनेमा है। अगर आपको यकीन नहीं तो उन करोड़ों कारों में झांक कर सुनिये। कोई न कोई हिन्दी गाना बज रहा होगा। हम सिनेमा के साथ सिर्फ सिनेमाघर में नहीं होते, उसके बाहर भी सिनेमा के साथ साथ चलते हैं।
(राजस्थान पत्रिका में यह प्रकाशित हो चुका है)

6 comments:

Suchak said...

Political tribute to 100 years of Indian cinema : http://suchak-indian.blogspot.in/2013/05/political-tribute-to-100-years-of.html #Lighter Note

आशु said...

एक सुधार राजकपूर की फिल्म का नाम अराउंड द वर्ल्ड था, अराउंड द वर्ल्ड इन एट्टी डेज जुल्स वेर्न का उपन्यास था जिस पर कई फ़िल्में बनी हैं पर राजकपूर की फिल्म उस पर आधारित नहीं थी ।

nptHeer said...

Good observational knowlegible tribute on 100 years of Indian cinema :) chil gaarhi se hee patna jate ho na aap?:) :p :p :p

Unknown said...

cinema se kuch dharmik mithak bhi diye hai jaise :-
1. 786
2. karva choth
3. snatoshi ma ka vrit

Adi said...

Ravish Ji,

Pichle 1-2 salon se aapse prime time me rubaru ho rha hun. TV nhi hai lekin online sunne ki adat hai. Peshe se chizon ki tulna krne ki pravritti ho gyi hai. Aaj ke is arthwad me jahan naitik moolyon ko bhi arth ke paimane par napa jata hai, wahan mainstream media ke manobhav bhi asani se samjh me aate hain. Naam nhi lunga lekin bahut bde bde patrakarita ke naam vibhinn guton ke liye ladte nazar aate hain. Aap jaise hi kuchh chuninda log hain jinhone aaj bhi media ko nishpaksh banaye rakha hai. Aap ka prashanshak hun. Aap ko Pranam.

कमल said...

बच्चन जी एक बढ़िया कलाकार है। 80 के दशक में उनकी हर फिल्म में लोग खुद को देखने लगे, फिल्म की शुरवात में बच्चन जी एक दबे कुचले इंसान की भूमिका में आते है और अचानक से वो Angry Young Man बन जाते है। हर व्यक्ति बच्चन जी में खुद की तस्वीर देखने लगा और इस बच्चन एक ऐसा नाम बन गया जो आज सबके लिए एक आदर्श है। बच्चन जी के बाद कई सितारे आये पर बच्चन आज भी बच्चन है। सिनेमा हमारे समाज का दर्पण है दोनों एक से चलेंगे हमेशा।