साइकिल का समाज

साइकिल पर बहुत पहले अपने पूर्व सहयोगी अनवर की कमाल की स्टोरी पढ़ी थी । यूरोप के किसी शहर से की गई थी । पब्लिक ट्रांसपोर्ट की संस्कृति में अनायास ही दिलचस्पी पैदा होती चली गई । हमने साइकिल सीखी साइकिल चलाने के लिए नहीं बल्कि दिखाने के लिए कि साइकिल के बाद जल्दी ही बाइक और उसके बाद कार चलायेंगे । साइकिल हमारे लिए कुंठा की सीढ़ी है जिससे आज़ाद होने के तरह तरह के सपने देखते रहते हैं । विज्ञापनों में कार सपना है साइकिल नहीं । इसीलिए हम बड़े होकर साइकिल नहीं चलाते । हमारे शहर साइकिल विहीन लगते हैं । फ़िल्मों ने ज़रूर शुरू में साइकिल को महिमामंडित किया( मैं चली मैं चली देखो प्यार की गली) 
( इस साइकिल को टेप से लपेट दिया गया है ताकि चोरी करने वाले को आसानी से हाथ न लगे । बीच सड़क पर कोई बाँध कर कहीं चला गया होगा) 

भारत में आज भी साइकिल सरकारी उपकार की योजनाओं, मेहनतकश लोगों के इस्तमाल में आती है । सरकारों ने साइकिलें बाँट दी लेकिन ये हमारी संस्कृति का हिस्सा बनी रह जाए इसके लिए सड़क पर कोई इंतज़ाम नहीं किया । हमारे शहर बनते चले गए । अपने आप होने वाली जैविक क्रियाओं की बदौलत । बहुत बाद में यूरोप घूमने वाले नेताओं और अफ़सरों ने वहाँ की सड़कों से साइकिल किराये की योजना तो ले आये लेकिन रोज़ाना अपने दफ्तर के पीछे देखता हूँ तमाम साइकिलें स्टैंड से बंधी लेरूआई हुई निढाल पड़ी हैं । शायद ही कोई चलाता है । 



बर्लिन में ऐसा नहीं दिखा । साइकिल उनके जीवन का हिस्सा है । साथ चल रहीं मानसी ने बताया कि यहाँ साइकिल पुलिस होती है । जो सुनिश्चित करती है कि साइकिल ट्रैक ख़ाली रहे उस पर कोई न जाए । साइकिल ट्रैक पूरी तरह से समतल और ग़ज़ब तरीके से मेट्रो और ट्राम से संयोजित । हिन्दुस्तान में बिना साइकिल को मेट्रो के कोच में लाने की अनुमति दिये कैसे मान सकते हैं कि इससे लोकपरिवहन जनसंस्कृति फैलेगी । आप आराम से साइकिल लेकर मेट्रो के एक ख़ास कोच में जा सकते हैं । ट्राम में चल सकते हैं । किसी को साइकिल से परेशान और शर्मिंदा होते नहीं देखा । हमारी तरह साइकिल का मतलब नहीं कि आप बाक़ी परिवहन की योजनाओं से काट दिये गए हैं । आपको सड़क पर जगह जगह साइकिल स्टैंड दिख जायेंगे । 








कुछ बातें और । बर्लिन में साइकिल वही नहीं चलाते जिनका सपना कार ख़रीदना है । वे भी चलाते हैं जिनके पास कार है । बड़ी तादाद में माँओं को साइकिल चलाते देखा । पीछे की सीट पर ऊँची बेबी
सीट पर बच्चे सीट बेल्ट से मज़बूती से बँधे हुए । साइकिल के आगे और पीछे नाना प्रकार से इस्तमाल होने वाले बेहतरीन बास्केट नज़र आए । ऐसा लग रहा था कि साइकिल उनके लिए फ़ैशन स्टेटमेंट है । वहां की साइकिलों को लेकर जो शोध और विकास की प्रक्रिया है उसके नतीजे में साइकिल में तरह तरह के गैजेट दिखते हैं । हमने भी किया है । कीचड़ के छींटे से बचने के लिए रबर के फ्लैप बनाए । वहां की साइकिलों में मडगार्ड के नीचे पांक रोकने वाला नहीं दिखा । खैर हम पहले फुटपाथ ही बना ले वही बहुत है । 



8 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कई बार सोचा कि साइकिल से ५-६ किमी क्षेत्र के सारे स्थान देख आऊँ, पर कारों ने सड़कों पर आतंक मचा रखा है। पैदल चलने में डर लगता है।

nimeshchandra said...

i used cycle till 1999 to get train to reach collage, cycle parking was such that its hardest work to take out my cycle from 100s others.

राजेश सिंह said...

सायकलों के चलने-चलाने की जगह ही कहाँ बची है

Khushdeep Sehgal said...

मुलायम सिंह और चंद्रबाबू नायडू को जर्मनी में भी चुनाव लड़ना चाहिए...साइकिल पर धड़ाधड़ बटन दबेंगे...


जय हिंद...

Khushdeep Sehgal said...
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Khushdeep Sehgal said...
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Khushdeep Sehgal said...
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Anupam Singh said...

Even I wrote something on "BiCycle" some years back. This is the link.. http://talk2anupamsingh.blogspot.in/2011/03/blog-post.html