चेतना़़ का ढेर
गर्मी आती है और देश के तमाम शहरों से पानी माफ़िया की कहानी चैनलों पर चलने लगती है । पानी माफ़िया के टैंकर की तस्वीर दिल्ली बंगलुरू नाशिक पुणे से आने लगती है । ग़ैर क़ानूनी रूपसे पानी निकाल कर बेचने का धंधा और नेक्सस सब सामने आ जाता है । भू जल स्तर के गिरने के रंगीन ग्राफ़िक्स भी चलते हैं । मगर हालात वही जस का तस । मीडिया अपने असर को देखे या ख़बर को । कुछ तो होता नहीं । लोगों तक पहुँचने वाली जानकारियाँ कहाँ पानी कर बह जाती हैं मालूम नहीं । चेतनाएँ भी कूड़े के ढेर में बदल जाती होंगी । जब होता ही कुछ नहीं तो ये ख़बर क्यों चले । क्या इस भ्रम में रहा जाए कि हम तो अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर ही रहे हैं । चेतना क्या सिर्फ तमाशा है । हम सब टैंकर के उपभोक्ता हैं । कहीं कुछ बदलाव भी होता होगा और होता भी है लेकिन क्या हम इतने नकारे लोग हैं कि ऐसी समस्याओं को भी क़ाबू नहीं कर सकते । क्या हमारी चेतना सिर्फ कांग्रेस के बाद बीजेपी और बीजेपी के बाद कांग्रेस को लाने के लिए ही अभिशप्त है । इन्हीं को अदल बदल कर हमारी चेतना तृप्त हो जाती है । आख़िर इस समाज में ऐसा क्या है कि दिखाने और देख लेने के बाद भी टैंकर माफ़िया हर साल फलते फूलते जा रहे हैं । मामूली बदलावों के लिए ही अगर मीडिया है को इसकी भूमिका निहायत ही सीमित है ।
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4 comments:
Yeh Hamare DNA ka problem hai.In samasyaon ka mukhya karan hai hamara byakigat hona. Ham sabke bare main nahi sochte.Hum yeh sochte hain ki yeh samasyaen sarkar kee hain aur wohi hi isko hal karega. Hamara kam kewal vote de dena hai. Hamaree sarkaren kya kartee hain ese batane kee jaroorat nahee.yeh har saal chapne wale story hee hai bas!
Yes
मन तन सीमित, क्या क्या झेले,
कौन सम्हाले व्यर्थ झमेले।
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