राजधानी एक्सप्रेस: रात और रेल

रेल चल रही है । रात भी चल रही है । रेल और रात साथ साथ चल रहे हैं । साथ में एक तीसरा भी है । हिन्दी सिनेमा का गाना । "दो पल रूका ख़्वाबों का कारवाँ और फिर चल दिये तुम कहाँ हम कहाँ ।" वीर ज़ारा का गाना बजा जा रहा है । इस गाने की भव्यता में खो जाता हूँ । वायलीन की धुन भीतर तक गाने की लकीर खींच देती  है । 

कई तरह की आवाज़ें हमसफ़र है । गहरी नींद में कुछ लोग चले जा रहे हैं । इतने सारे लोग पहुँच रहे हैं । धनबाद, आसनसोल, हावड़ा । मैं यश जी के इस गाने में चल रहा हूँ । 

तुम थे कि थी कोई उजली किरण 
तुम थे कि कोई कली मुस्काई 
तुम थे कि था कोई फूल खिला

रात आवाज़ों को सुनने की सबसे मुकम्मल घड़ी है । पटरी और पहिये की आवाज़ को सुनने ही लगा था कि मदन मोहन का संगीत । " एक भटके हुए राही को कारवाँ मिल गया तुम जो मिल गये हो तो ये लगता है कि जहाँ मिल गया ।" बहुत तमन्ना है कि हिन्दी सिनेमा के तमाम पलों को अपनी ज़िंदगी में जी जायें । ऐसी ही किसी बारिश और गरजते बादलों की रात हो और नवीन निश्चल की तरह कार घुमाते गाते निकल जाये । " क़िस्मत से मिल गए हो मिलके जुदा न हो । मेरी क्या ख़ता है, होता है ये भी, कि ज़मीं से कभी आसमां मिल गया ।" इस गाने का संगीत और मौसम । उफ्फ । रेल तुम मुझे लेके कहाँ जा रही हो । 

जैसों पहिये ने अचानक तेज़ हुई धुन को सुन ली है । रफ़्तार तेज़ हो गई है । इस गाने में मदन मोहन भी बादलों को सुनकर बेकाबू हो जाते हैं । बारिश की वो यादगार रात थी । भीतर कोच की चरचराहट सुनाई दे रही है । ऐसा लगता है कोच के पोर-पोर से दरकने की आवाज़ आ रही है । रात जा रही है । रेल जा रही है । रात और रेल साथ साथ जा रहे हैं । खूब सारी बातें करते हुए । मस्ती में झूलते हुए । बोगी झूमती है और पटरी संभालती है । ऐसा साथ मिला क्या आपको कभी । मुझे हासिल है । 

चलती रेल से ब्लाग लिखने का आनंद उठा रहा हूँ । जाने कौन सा गाँव और क़स्बा अभी अभी गुज़रा है ।
कोच के भीतर रात जाग रही है, सबको सुलाकर मेरे साथ । फिर कोई नया गाना बज रहा है । मधुबन में जो कन्हैया किसी गोपी से मिले राधा कैसे न जले ये गाना भी लाजवाब है । किस लिये राधा जले, किस लिये राधा जले । उफ्फ ये रात और बात । ऐ जाते हुए लम्हों ज़रा ठहरो...मैं कहीं भी रहूँ ऐ सनम...मुझकों है ज़िंदगी की क़सम, फ़ासले आते जाते रहें, प्यार लेकिन नहीं होगा कम । बार्डर के इस गाने की यह लाइन रूला देती है । सही में रो़या था । वर्दी पहनकर कभी सीमा की तरफ कदम बढ़ाइयेगा ये गाना ज़िंदगी देगा । सिनेमा की समीक्षा सब करते हैं और गीतकार और गानों की कोई नहीं । हमसफ़र कौन है । सिनेमा या संगीत । 

ओह राजधानी एक्सप्रेस, तुम क्लासिक हो । तुम रफ़्तार हो । तुम रेल नहीं मेरे साथ गुज़र रही एक अच्छी रात हो । 

12 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सोते गाँव में जागती रेल,
लेटी पटरियों पर भागती रेल।

सागर said...

bhavai prasad ne aap jaison ke liye hi kaha hai :

"jis tarah ham bolte hain us tarah tu likh,
aur iske baad bhi hamse bada tu dikh"


Tum jo mil gaye ho wale para ne dimaag mein cinema create kar diya.

mokshroopi said...

aapki kalam jab kuch bhe likhte hai to gazab likhte hai.... me use bhut enjoy karte hoon...

Thanks aap unhe hamare saath share karte hain.

mokshroopi said...

aapki kalam jab kuch bhe likhte hai to gazab likhte hai.... me use bhut enjoy karte hoon...

Thanks aap unhe hamare saath share karte hain.

Unknown said...

लाजवाब है सर

Unknown said...

लाजवाब है सर

Unknown said...

रवीश अगर प्राइम टाइम एंकर न होते तो फिल्म समीक्षक होते ।

Unknown said...

kya bat hai sir ji train ke safar ko jivant kar diya

Ranjit Kumar said...

ऐसी ही किसी बारिश और गरजते बादलों की रात हो और नवीन निश्चल की तरह कार घुमाते गाते निकल जाये ।

Ranjit Kumar said...

ऐसी ही किसी बारिश और गरजते बादलों की रात हो और नवीन निश्चल की तरह कार घुमाते गाते निकल जाये ।

pradeep said...

adbhut......adbhut........adbhut....

Unknown said...

agar lakhni ka jadugar dekha to aapk baad hi sir....aapk twitter sey jaany k baad to msiny usy chalana hi band kar diya tha...aap k nakali awatar ney mujhy yahan tak pahucha diya......