इनदिनों ऐसी बाड़शाला की चंंद मिनटों की क्लिपिंग आपने चैनलों पर देखी होगी । राहुल गांधी एक बाड़े के भीतर काॅलर माइक पहने लोगों से घिरे होते हैं । बाड़े में सुरक्षा जाँच के बाद कुछ लोगों को सटा-सटा के बिठाया जाता है । राहुल इनके बीच होते हैं और इनसे सवाल करते हैं । कुछ लोग खड़े होते हैं और सवाल करते हैं । कई बार उल्टे पड़ने वाले सवाल भी और कई बार बचकाने । खुद राहुल वाराणसी रेलवे स्टेशन के बाहर रिक्शेवालों से बचकाने सवाल करते हैं । आप कितने घंटे काम करते हैं । जब बीमार पड़ते हैं तो क्या होता है । ख़र्चा कहाँ से आता है । कोई रिक्शावाला कहता है कि हमारा स्टैंड अलग होना चाहिए । जैसे प्र म बनने के बाद वे स्टैंड भी बनवाने जा रहे हैं । अव्वल तो यह काम नगरपालिका का है लेकिन अच्छा ही है कोई नेता समस्याओं को समझ रहा है ।
मैंने पूरी चर्चा कभी नहीं देखी । जो टीवी में आया उसका थोड़ा अंश था । देखने की नज़र से तो लगता है कि एक नेता लोगों के बीच खड़ा होकर सुन रहा है । सीख रहा है । कितने लोग सीखने का ही दंभ भरते हैं । यह ठीक है कि राहुल लोगों के बीच चले जाते हैं । सुरक्षा का ख़तरा उन्हें भी किसी नेता से कम नहीं है । दिल्ली में जब पूर्वोत्तर के छात्र प्रदर्शन कर रहे थे तब उनके बीच राहुल और केजरीवाल दोनों गए थे । लेकिन नरेंद्र मोदी ने उन छात्रों को अपने पास बुलाया । वे उनके बीच नहीं गए । एक बड़े से हाल में उन्हें मेज़ कुर्सी पर बिठाया और खुद को उनसे दूरी बनाते हुए । यह दो नेताओं की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति बताता है । लेकिन सारा फ़र्क इसी आधार पर थोड़े न होगा । विश्वसनीयता, अनुभव, उम्मीद और आरोपों के संदर्भ में ही सबकुछ देखा जायेगा । इस प्रयास में उनका नेक इरादा झलक सकता है लेकिन इसका राजनीतिक असर क्या है ।
राहुल की इस बाड़शाला को चैनल वाले शाम को दिखा तो देते हैं मगर जल्दी उतार भी देते हैं । संतुलन का लिहाज़ न होता तो इसमें दिखाने लायक कुछ भी नहीं क्योंकि मीडिया मोदी की भी न दिखाने लायक बैठकों को दिखाता है । मोदी के प्रति उदार मीडिया छोटे व्यापारियों की बैठकें भी लाइव करता है । अगले दिन उसी दिल्ली में और उसी बैठक में दूसरे नेता भी बोले । शरद यादव कपिल सिब्बल । चेक कीजियेगा । कहीं छपा भी है या नहीं । ख़ैर । संतुलन के लिहाज़ से राहुल की इस बैठक को जगह तो मिल जाती है मगर इसमें कोई टांकिंग प्वाइंट नहीं होता । कोई राजनीतिक संदेश नहीं होता । शायद राहुल के रणनीतिकार इसके ज़रिये टीवी के स्पेस में एक नया नेता लाँच करना चाहते हैं । इससे वे अपने वोटर और कार्यकर्ता दोनों को ही कंफ्यूज़ कर रहे हैं । उनके कपड़ों में भी मोदी के कुर्ते की रंगीनीयत और ताज़गी नहीं है और सादगी को कांग्रेसी संदेश में नहीं बदल पाते । इससे जनता को कोई फ़र्क नहीं पड़ता । जनता को फ़र्क पड़ता है राजनीतिक बात से ।
इसीलिए राहुल की यह क़वायद अच्छी होते हुए भी बेकार है । यही तरीक़ा चुनाव से कई महीने पहले चल सकता था । चुनाव के आख़िरी दो महीने में यह थसक गया है । इसका एक कारण राहुल ख़ुद हैं । अगर मोदी ये करते तो रिक्शेवालें के बीच प्रोफेसर बनकर जाते । सारी जानकारी जमा करते और उनको उन्हीं की बात बता कर चकित कर जाते । छोटी बैठक का भी ऐसा राजनीतिक इस्तमाल करते कि दो दिनों तक हेडलाइन होती । बहस होती । कुछ चीन और अमरीका भी मिला देते। कह देते कि सबको एटीएम कार्ड मिलना चाहिए । एटीएम कार्ड में ही ब्लड ग्रुप लिखा होगा ताकि कोई मोटरवाला मारकर चला जाए तो जान बच सके । उसी में बीमा होगा और वही आधार । वे काल्पनिक कहानियाँ बना देते । जबकि ऐसा भी नहीं है कि ये सब मुमकिन नहीं है । राहुल हर मौक़ा गँवा देते हैं मोदी हर मौक़े का लाभ उठाते हैं ।
राहुल बाड़े में लाए लोगों से बेहद बुनियादी सवाल कर रहे हैं । उनके रोज़मर्रा के सवाल जिनसे कोई राजनीतिक भाषा नहीं बनती । मौजूदा राजनीतिक विमर्श में हस्तक्षेप नहीं होता । उल्टा असर ये बनता है कि देखो इसे ये भी नहीं मालूम । कोई पंच नहीं है । आख़िर इस बाड़-बैठक ( एनक्रोचमेंट मीटिंग) का कुछ राजनीतिक मतलब तो होना चाहिए । यह बैठक किसी लायक नहीं है क्योंकि करने वाले में दम नहीं है । इस वक्त जब एक एक मिनट क़ीमती है राहुल अपना वक्त जाया कर रहे हैं । ल्युटियन दिल्ली के अंग्रेज़ी अख़बार के सम्पादकों की तरह चुनाव के समय इंडिया को समझने निकले हैं ।
पहले भी कह चुका हूँ कि राहुल गांधी यह चुनाव लड़ ही नहीं रहे हैं । ठीक है कि हार तय है और इसकी एक वजह वे ख़ुद हैं( मनमोहन के अलावा) । लेकिन ये सब आप तब करते हैं जब आपके पास पर्याप्त समय है । वे सेमिनार कर रहे हैं । अच्छा लगता है कि नेता जनता के बीच है । मगर बीच में होने के प्रचलित साइकिल यात्रा, पदयात्रा और रोड शो से क्या अलग है । देखियेगा बीजेपी उनकी इस क़वायद को भी धो देगी । इंतज़ार कीजिये मोदी क्या बोलते हैं । राहुल ने जब कालेजों में जाना शुरू किया, दलितों के घर खाने से लेकर ट्रेन में चलना शुरू किया तो बीजेपी ने उसी पे हमला कर दिया । इतना हमला किया कि राहुल ने उसे छोड़ ही दिया । राहुल को भगाकर बीजेपी खुद करने लगी । शिवराज दलित घर में खाते हुए फोटू खिंचाने लगे तो वसुंधरा ट्रेन के सेकेंड क्लास डिब्बे में सवार होकर फोटू खिंचाने लगीं । मोदी ख़ुद राहुल की तरह देश के कालेजों में घूमने लगे । इतना घूमे कि अब लगता है कि ये आइडिया मोदी का ही था । दरअसल मनोवैज्ञानिक युद्ध में बीजेपी राहुल को जब चाहती है तब हरा देती है । वे हार जाते हैं ।
इसीलिए राहुल गांधी को इस चुनाव में प्रचार छोड़ देना चाहिए । किसी टीवी चैनल में रिपोर्टर बनकर मोदी की रैली कवर करनी चाहिए । सीखना चाहिए । राजनीति में स्टंट ज़रूरी है । ये सब बेकार की बातें हैं कि उनकी रैलियों में इतने महीनों में कितने ख़र्च हो गए होंगे । क्या कोई यह जानकर वोट देने का मत बदलता है । क्या कांग्रेस की रैलियां फ़्री में होती है । पैसे सब ख़र्च करते हैं और कांग्रेस बीजेपी दोनों अपने खर्चे का सोर्स नहीं बताते हैं । दोनों एक हैं तो एक जैसा करने में शर्म काहे । कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस के कार्यकर्ता भी भाग गए हैं और राहुल के पास बाड़शाला लगाने का ही विकल्प बचा है ।
मोदी मनोवैज्ञानिक असर डालने में लखनऊ में कितनी बड़ी रैली कर रहे हैं । इसका उद्देश्य है कि सबसे बड़ी रैली करो ताकि सबको दिखे कि यूपी में भाजपा कितनी बड़ी हो गई है और कांग्रेस इतनी छोटी कि राहुल को बाड़े में बुलाकर भाषण देना पड़ रहा है । मोदी के नेता टीवी पर खुलकर बोल रहे हैं कि मायावती की रैली के लिए उन्नीस ट्रेनें बुक हुई थीं। हमने उससे दस ज़्यादा ट्रेनें बुक की हैं । 15 जनवरी को लखनऊ में मायावती ने बड़ी और भव्य रैली की थी मगर मीडिया ने उसे छोटी रैली की तरह छापा और दिखाया । देखियेगा मोदी की रैली की भीड़ पर कितनी बातें होंगी । ये है मोदी का चुनावी मनोवैज्ञानिक मीडिया मैनेजमेंट ।
मोदी जी को बधाई । उन्होंने मनोवैज्ञानिक तरीके से कांग्रेस और राहुल को तोड़ दिया है । इतना तोड़ दिया है कि राहुल छोटे छोटे समूहों में बुलाकर रैली की जगह स्कूल जाने जैसा काम कर रहे हैं जबकि मोदी की रैलियों में लोग एक ऐसे नेता को सुनने के लिए आ रहे हैं या लाये जा रहे हैं जो कालेज में टाप करके ज़िले में घूम घूम कर भाषण दे रहा हो । मैं हार स्वीकार लेने की राहुल की ईमानदारी की भी सराहना भी करता हूँ । दस साल बाद यही सब उनके राजनीतिक बा़योडेटा को मज़बूत करेगा तब जब मोदी उन्हें इस लायक छोड़ेंगे । इसीलिए आलोचना हो या सराहना सब मोदी की तरफ़ है । इसीलिए मैं भी मोदी को ट्रैक करता हूँ । राहुल गांधी आउट आफ़ दि ट्रैक हैं ।
16 comments:
bahut antar hai INC aur BJP ke prachar shaili me. aapse nispakchta ke umeed me aap ki prachar shaili ki apekcha hai
Lage rahiye nirbhik , nispakch hokar; kathin hai par aur koi chara bhi to na hai
india me aajkal aisa bahut kam hai jo west se copy nahi hota...aur jo nahi hota wo aksar below average hota hai...baki hava jo bani hai sirf uspe voter vote de dega aaj bhi itna kam dimaag voter hai india ka ispe vishwas nahi hota...sahi mayno me ye voter ki buddhimatta ka litmus test hai 2014
मैं ज्यादा कुछ नहीं समझ पाता..लेकिन मोदी द्रोह मतलब rastradroh जैसा लगने लगा है इनदिनों ..कब चनाव ख़त्म होंगे और केजरीवाल की तरह मोदी जी का postmartam शुरू होगा ??
देश के बारे में जानना है तो देश घूमना ही पड़ेगा, गांधीजी ने वही किया था। संभवतः मैं एक ही स्थान पर रहता तो समझ सीमित ही बनी रहती मेरी।
सब चोचले बाजी है आखिर चुनाव जो सर पड़ है
Shasakt hone ke bajay din prati din dayniye hote ja rahe hai
Modi ji is doing each and every thing in an organised way with a spontaneous motivation while Rahul is unable to face Halo and it is clearly visible in his body language.
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Modi ji is doing each and every thing in an organised way with a spontaneous motivation while Rahul is unable to face NAMO and it is clearly visible in his body language.
Very well written. You have Nicely described the character of two poles of Indian politics and there is swing in favour of BJP due to the complete failure of Government.
Another experiment that Congress tried last month was - they organized a rally in Tumkur Karnataka supposedly only for women, but on rally day, men out numbered women. As Rahul Gandhi spoke, a local Congress MLA juxtaposed the speech with its Kannada translation. But more claps and whistles were heard after Rahul spoke than after the translation was read out, which left one wondering if the translation was really needed.
In large parts of Karnataka, Hindi is well understood and taught in schools as part of the 3 language formula. Unlike in Tamil Nadu and Kerala, Muslim population in Karnataka and Andhra speak in (a very weird dialect of) Hindi/Urdu.
Seems like agencies managing Congress rallies are in experimental mode and quite unaware of the ground realities.
Modi ji ki tarah Jhoot bolna pta nai kab seekhega yeh Rahul.
Considering your ideology (which i understand) i don't think you will do. But you should also tell (as you did with Modi and Rahul) the "Parachar Ka Tarika" of Arvind which nothing but inspired from communists and Stalininst just "Thooko Aur Bhago".
कल मैंने लखनऊ में मोदी की रैली का नज़ारा देखा. मेरा पहला प्रत्यक्ष अनुभव था. रविश जी , तरीका तो मुझे पुराना ही लगा. इतनी गाड़ियों का रेला मैंने किसी रैली में नहीं देखि है. वो भी कौन सी गाड़ी नहीं थी. बस और ट्रक के अलावे सभी तरह के SUV, लक्ज़री कारें. देखकर ऐसा लगा कि उत्तर प्रदेश के सुदूर इलाके में कैसे कैसे धनाढ्य लोग है. यह मोदी की रैली थी या गाड़ियों का रेला -अंतर नहीं कर पाया. पैसे का ऐसा भोंडा प्रदर्शन शायद अमीरों की शादिओं में दीखता है या फिर चुनाव में. जय हो मोदी जी.
मैं भी मोदी को ही ट्रेक करता हूं लेकिन अब मुझे उनमे भी दोहराव नजर आने लगा है । वही बातें घुमा फिराकर । देखिएगा जल्द ही लोग उनसे भी ऊबने लगेंगे ।
Confuse karne wali rajniti hai sir Kuch samajh nahi aata kaun kya hai.
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