(२)
मैंने एक रेखाचित्र खींची है । तुम्हारे साथ इस शहर में चलते हुए । हाँ देख रही हूँ । हर रास्ता दूसरे से लिपटा हुआ लगता है । हाँ हर रास्ता उलझा हुआ भी । जब भी मैं इस शहर से निकलना चाहता हूँ कोई न कोई रास्ता लौटा लाता है । मैं तुम्हें हर लैंप पोस्ट पर खड़ा देखती हूँ । हर बस की पहली सीट पर तुम्हीं बैठे लगते हो । अब हम कम चलते हैं न ? मिलने के लिए चलते ही नहीं । बस पहुँचते हैं । हाँ जब से हमने घर बसाया है, हम शहर छोड़ आये हैं । रास्ते, लैंप पोस्ट, बस की पहली सीट, पापकार्न का कार्नर । कितना कुछ छूट गया हमारे मिलने में न ? तुम चुप क्यों हो ? रेखाचित्र देख रही हूँ ।
(३)
बहुत दिनों से सोचा था तुम्हें एक ख़त लिखूँगी । तुम्हारे बिना लिखना ही अच्छा लगता है । अल्फ़ाज़ तुम तक पहुँचने के क़दमों के निशान लगते हैं । डर लगता है कोई पीछे पीछे न आ जाये । कितनी पास है मंज़िल पर हमने रास्ते को लंबा कर लिया है । हम मुल्कों में बंट गए हैं । तुम वहाँ मैं यहाँ । मैं बस यही लिखना चाहती हूँ कि कम से कम पढ़ना तो रोना मेरे लिए । मैं भी रोना चाहती हूँ । अपने सर्टिफ़िकेट पर खड़े अरमानों की इमारत की छत पर जाकर । ये ख़त तुम तक पहुँचने से पहले डाकिया पढ़ लेगा । ज़ालिम है वो । पर तुम तो नहीं हो न । तुम तो मेरे अल्फ़ाज़ों को समझ लोगे न । मैं किससे कहूं । तुम्हारी बातें भी ख़ुद से कहती हूं । थक गई हूं । आमीन !
6 comments:
Likhate raho ravishbhai ...bahut acha .. thanks.
Ab kaha woh hota hai ? सुनो तुम फ़ेसबुक में सारी बातें क्यों लिख देते हो ? :(
aapki lekhni aur kya kar rahi hai nahi janta, lekin mujhko paipakq bana de rahi hain . . .
जब सुनना हो, कहें कहाँ से।
अपने सर्टिफ़िकेट पर खड़े अरमानों की इमारत की छत पर जाकर
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