पागलनामा- पार्ट वन

थकान गले तक भरी हुई है । दिमाग़ पाँव तक सुन्न है । सुबह सुबह रात की बची ख़बरें झनझना रही हैं । ऐसी तमाम ख़बरों के साथ दिन बदल जाते हैं । हम उन्हें युद्ध में बदल कर मोर्चे पर डटे सिपाही का भरम पाल लेते हैं । कुछ दर्शक कुछ पाठक भी रण में उतरे होते हैं । तलवारें भांज रहे होते हैं । बाक़ी बची ख़बरों से चुपचाप रक्त रीसता है । इस माहौल में कौन रोता है किसका लहू देखकर, कौन भीगता है किसी के आँसू देखकर । हम सबको पता है कि हम सब ऐसे ही हैं । हम सब ऐसे ही रहेंगे । चुप रहना है बस । खुद से भी चुप्पी साध लेनी है । जो पकड़ा जाएगा मारा जाएगा । उसके लिए बाक़ी लोग लिख कर या बोलकर क्या बदल लेंगे । फिर भी बोला तो जायेगा । लिखा तो जायेगा । कुछ बदल भी जाये तो इसी नाम पर सब चलता चला जाएगा । आप ख़ुद को जितना ख़ाली करते हैं उतना ही भरने लगते हैं । ख़ाली जगह में हवा घुसकर साय सायं करती है । शोर है । भीतर ,बाहर । आप जो नहीं है वो भी हैं कई लोगों की नज़र में । जो हैं वो भी नहीं हैं कइयों की नज़र में । आप कहीं है ही नहीं । ख़ुद में न दूसरों की नज़र में । राजनीति कीजिये । बस कहिये कि राजनीति नहीं करते । अपना साक्षी ख़ुद बन जाइये । 
तब भी कुछ नहीं होगा । कुछ नहीं बदलेगा । भाषा के उसी भवंर में हम आप उतराते रहेंगे । वाक्य विन्यासों के हाइवे पर स्कूटी दौड़ाते रहेंगे । चेतना जड़ समाज में लिखना चेतनाशील नहीं है । दावा मत कीजिये । दूसरे को दे दीजिये । गुट ज़रूरी है । गुटका भी । कांग्रेस ज़रूरी है । बीजेपी भी । नेता ज़रूरी हैं । कार्यकर्ता भी । विचारधारा ज़रूरी है । अवसरवाद भी । पीछे से मार करने की रणनीति बनाते रहिए । सामने से मुस्कुराते रहिये । सामने वाले को गिरते देखिये । गिराने वाले के साथ हो जाइये । दलीलें तैयार रखिये । यही हथियार हैं । शातिर और दलाल यूँ ही नहीं श्रेष्ठ दलील रखते हैं । उनका दर्शन त्वरित और मारक है । कुछ भी नया नहीं है । जो नया नहीं है वो भी आपका है । पहली बार है । ऐसा दावा करते रहिए । बातें परती ज़मीन हैं । हर दौर में उन पर कब्ज़ा होता रहेगा । तनाव से गुज़रते हुए पागल हो जाइये । मेरी तरह अल्ल-बल्ल लिखते जाइये जैसा कि मैं अभी अभी कर चुका हूँ । मैं अभी पागल नहीं हुआ हूं । ईंट पत्थर की बदबू से भरा यह शहर जल्दी पागल कर देगा । शातिर शांत है । वो लिखता नहीं है । मारे गए लोग लहू को स्याही समझ लिख देते हैं । पागल होने के इस दौर में पैराग्राफ़ मत बदलिये । एक ही साँस और एक ही रौं में कह जाइये । कुछ नहीं होगा । जो पाया है गँवा दीजिये । सिर्फ बातें बचती हैं । जिन्हें छोड़ दिया जाता है आपके पीछे । ताकि आप भागते रहें और सुनते रहें । दीवारों पर, पोस्टरों पर, टीवी में, अख़बारों में । हर तरफ़ बातें हैं । सत्य अंडरवियर पहनकर समंदर के किनारे 'हाफ़ ट्रूथ' बना सूर्य स्नान कर रहा है । झूठ शहर का मेयर बन गया है । बारिश से कौन भीग रहा है । वो जो घर से निकला ही नहीं । आनंद रेडिमेड है । नूडल है । शर्म आँखों में नहीं जुराब में होती है । जूते तो उतारो । मिल जाओ हर धारा से । मिले रहो । इससे उससे । सबसे । सुनो । चुपचाप । साँसों को आहट की तरह । कहो चुपचाप कानों में साज़िश की तरह । बिजली चली जाएगी । नींद भी चली जाएगी । जागते हुए पागल होना अच्छा नहीं है । क्या इस शहर में नींद किराये पर मिलती है ? 

6 comments:

Vivek Garg said...

abe yaar.. sach me paagalnama hai

Awadhesh K Jha said...

Ravish ji, aapke blog par pagalnama. kya bat ho gayi sir. aap kafi gusse me lagte ho. Pichle bolg par likhe gane ko kal kai bar suna...Dil ki girah...koi geet gao. sach kahu to aap apne shabdon me bhi geet gate hi ache lagte ho. Dikkat yeh hai ki ham kuch samajh hi nahi pate. Balki mujhe to yeh lagne lagta hai ki kahin hamari baton ka to bura nahi man gaye.
Sach kahu to bahut darta hu. main to kasbe me aaya hi isliye tha...thori tajgi, thora sukun ke liye. Jindgi me har samay sirf achi baten hi nahi hoti, kabhi kabhi buri baton ka bhi samna karna parta hai...Ek kavita hai na bachpan ki...YEH JIVAN KYA HAI NIRJHAR HAI, MASTI HI ISKA PANI HAI. SUKH DUKH KE DONO TIRON SE CHAL RAHA RAH MANMANI HAI. Umeed karta hu jaldi hi kuch sukun wali baten padhne ko milengi...

anuj sharma fateh said...

जो लिखा छोड़ दिया जो छुट गया था लिखा हुआ है। भावनाएं बह निकलीं हैं सच भी पूरा कहाँ हुआ है .................

Arvind said...

agar builders padh lenge to kahenge ki gaziabaad ki image bigad rahe hain . . . kaun rahega phir waha . . . sach me kabi kabi zindagi pagal bana deti hai . . . todh-fodh karne ka maan karta hai. . . khair pagalnama ki defth jaan kar tasalli hui ki chalo koi aur bhi hai jo mujhse kahi zyada pagalpan jhel raha hai . . .sidha chalna fakr ki anubhuti karata hain , phir lagta hai ki mai to sidhe chal raha hu, rasta sidha hai kya?? yahi pagalpan hai shyad ...

Manish Sachan said...

अरे बाप रे, इतना गुस्‍सा, कहां निकलेगा, किस पर फूटेगा, आपको देखकर तो कतई अहसास ही नहीं होता कि आपके अंदर भी एक ज्‍वालामुखी हो सकता हैं

Unknown said...

this is called data fatigue in the information age. when adrenalin level comesgot mill back to normal after a long bout of high stress /thrill the normal feels low. and pair this with lack of accomplishment real or perceived.welcome to the modern times. Info technology got millions of years ahead of us, our minds are still stuck in good,honest,truth,charity instaead of speed ,profit,money.mental fatigue =sleeplessness. physical fatigue = good sleep . this is as gibbersh as your post ravishji! keep up the good work any ways!