पिछले तीन साल से टीवी लगातार इन सवालों के केंद्र में है कि अन्ना आंदोलन को पैदा किया । यह तब हुआ जब टीवी कई घटनाओं के निरंतर दिखाने की आदत का शिकार हो चुका था । प्रिंस जब गड्ढे में गिरा और उससे पहले दिल्ली में मंकी मैन का आना । टीवी लगातार खोज रहा था कि ऐसा कुछ हो जिसे वो घंटों दिखाये । सबकुछ सुनियोजित तरीके से नहीं भी हो रहा था मगर हो जा रहा था । अन्ना आंदोलन एक ऐसा मसला बन गया जिसने मीडिया नागरिकता का विस्तार जंतर मंतर और रामलीला मैदान तक कर दिया । वहाँ होना और टीवी के सामने होना या सोशल मीडिया पर होना एक हो गया । मैं नहीं मानता कि रामलीला मैदान में लोग टीवी पर चेहरा दिखाने गए थे न ही टीवी उन्हें दिखाकर वहाँ ला रहा था । फ़ोन ट्वीटर और फ़ेसबुक और इन सब माध्यमों से भी सुनकर उत्तेजित होकर आए।
अन्ना आंदेलन के कवरेज ने ऐसे घरों में दोपहर के वक्त न्यूज़ टीवी चला दिया जब सीरीयल देखने का होता है । टीआरपी की भाषा में औरतों का समय होता है । लोगों का नए सिरे राजनीतिकरण तो हो रहा था मगर उससे कहीं ज़्यादा 'मीडिया नागरिकीकरण' होने लगा । लोग जहाँ थे वहीं पर एक ख़ास तरीके से मीडिया नागरिक बन गए । टीवी सोशल मीडिया और मोबाइल का विस्तार एक दूसरे के पूरक बन गए ।
गुजरात चुनावों के दौरान अहमदाबाद में एक बीजेपी कार्यकर्ता के घर बैठकर नमो चैनल देख रहा था । एक फ़ोन चालू रखा गया था ताकि उस जगह का रिश्तेदार मोदी का भाषण सुन रहा था जहाँ नमो चैनल नहीं आता था । दिल्ली चुनावों के दौरान मुझे विदेशों से कई फ़ोन आए जो अरविंद केजरीवाल की सफलता को लेकर चिन्तित थे । कुछ होते देखना चाहते थे । फ़ेसबुक के इन बाक्स में कुछ लोगों ने लिखा कि अरविंद का क्या होगा इस चिन्ता से रात भर जाग रहे हैं । उसी तरह जब दिसम्बर के महीने में अरविंद का कवरेज कई गुना बढ़ गया और इससे नरेंद्र मोदी मीडिया विस्थापित हो गए तब नमो फ़ैन्स बेचैन होने लगे । मीडिया नागरिकता के कई लक्षणों में से एक है । नागरिक बेचैनियों का विस्तार है न्यूज़ चैनल और उसके डिबेट शो ।
टीवी का विस्तार गाँवों और झुग्गियों में तेज़ी से हो रहा है । मुंबई दिल्ली की झुग्गियाँ हों या सड़क किनारे बनी मड़ई आप देखेंगे कि उनकी छतों पर डिश टीवी का तवाकार एंटिना बजबजा रहा है । ठेले पर फल बेचने वाले एक जवान ने हाथ मिलाते हुए कहा कि आप नेताओं को सही से नंगा करते हो । इतनी मेहनत की कमाई का बड़ा हिस्सा टीवी पर । केबल पर । यह वो तबक़ा है जिसे मल्टीप्लेक्स सिनेमा हाल ने खदेड़ दिया है । मैं दिल्ली कई इलाक़ों में ऐसे अनेक लोगों से मिलता हूँ जो दिल्ली में रहते हुए बीस साल से सिनेमा हाल नहीं गए हैं । इनमें से कई ऐसे हैं जो कभी सिंगल सिनेमा में फ़्रंट स्टाल का टिकट लेकर देखते थे । इस तबके लिए टीवी सिनेमा है । मनोरंजन का माध्यम है । टीवी के दर्शक का सत्तर फ़ीसदी हिस्सा यही है जिसे नेता नव मध्यमवर्ग कहते हैं । ग़रीबी के सागर में रेखा से ऊपर डूबता उतराता तबक़ा । इसी तबके तक पहुँच की ज़िद में न्यूज़ चैनल भी सिनेमा का विस्तार बन गए । रिपोर्टिंग की जगह किस्सागो बन गए ।अब यह समाज धीरे धीरे राजनीतिक तौर से रूपांतरित हो रहा है । राजनीतिक पहले भी था मगर इसकी सक्रियता मीडिया के स्पेस में भी बढ़ रही है । यही प्रवृत्ति इसके ऊपर के तबके में हैं । इस तबके में पेपर भले न आता हो मगर टीवी आता है ।
इसीलिए आप देखेंगे कि टीवी सिर्फ बोलने लगा है । दिखाना छोड़ दिया है । जनमत के नाम पर हताशा का समोसा तला जा रहा है । बातों और तथ्यों का कोई परीक्षण नहीं है । इंटरनेट स्पेस में पहले से मौजूद तथ्यों के आधार पर सवाल बनते हैं और पूरा संदर्भ एक सीमित दायरे में बनता चला जाता है । हर टीवी पर एक ही टापिक और जानकारी का एक ही सोर्स गूगल । किसी चैनल के पास अपनी रिपोर्टिंग के ज़रिये नई जानकारी नहीं है । चैनल सिर्फ लोगों में मौजूद मिथकों, अवधारणाओं, अधकचरी जानकारियों और बेचैनियां का छेना फाड़ कर पनीर बना रहे हैं । यह जनमत नहीं भगदड़ है । जहाँ सब चिल्ला रहे हैं और सुनने वाले को लगता है कि उसकी बात हो रही है । " आप सही करते हो नेताओं को धो डालते हो " ऐसी प्रतिक्रिया इसी की अभिव्यक्ति है ।
इसीलिए कहता हूँ कि मीडिया समाज की सक्रियता का मतलब जागरूकता ही हो यह ज़रूरी नहीं है । उसकी जानकारी का सोर्स मीडिया है और मीडिया की जानकारी का सोर्स भी मीडिया है । घूम घूम के वही बात । धीरे धीरे मीडिया नागरिक चंद अवधारणाओं के गिरफ़्त में जीने लगता है । यह उसका आरामगाह यानी कंफर्टज़ोन बन जाता है । एक किस्म की कृत्रिम जागरूकता और भागीदारी बनती है । अवधारणाओं की विविधता समाप्त हो जाती है ।
इनदिनों कई टीवी चैनलों पर मत प्रतिशत बढ़ाने का थर्ड रेट अभियान चल रहा है । वोट देना ज़रूरी है लेकिन इसके नब्बे प्रतिशत हो जाने से क्या गुणात्मक बदलाव आता है क्या किसी ने सोचा है । वोट देना ही ज़रूरी है या यह भी ज़रूरी है कि बिना जानकारी के वोट न दें । एक आत्मविश्वासी लोकतंत्र में यह कहा जाना चाहिए कि अगर मुद्दों की पर्याप्त समझ या जानकारी नहीं है तो वोट न दें । प्रतिशत संख्या के लिए जनमत नहीं हो रहा मगर मीडिया ने इसे संख्यात्मक जनतंत्र में बदल दिया है और मीडिया नागरिक ने स्वीकार भी कर लिया है । मीडिया नागरिक अपनी ही अवधारणाओं के सहारे मीडिया का प्रतिबिम्ब बन जाता है । प्रतिकृति या अनुकृति । 'मिरर इमेज' । वो मीडिया की आभासी दुनिया में भड़ास निकाल कर अपनी नागरिकता को जी रहा है।
यहीं से एक संभावना पैदा होती है जनमत को गढ़ने की । मीडिया कारपोरेट और पूँजी का खेल शुरू हो जाता है । विज्ञापन और बयानों के ज़रिये नेता की लोकप्रियता पैदा कर दी जाती है । अब इस खेल से कोई बच नहीं सकता । चिन्ताओं को भुनाने का खेल चल रहा है । चंद चिन्ताओं की पहचान कर उसे व्यापक रूप दिया जा रहा है और एक उम्मीद बेची जा रही है । जनमत सर्वेक्षण के नाम पर कौन कितना लोकप्रिय है और सीटों की संख्या कितनी है इस पर बात हो रही है । मीडिया ने रिपोर्टिंग बंद कर यही रास्ता पकड़ लिया है । ख़बरों और समस्याओं की फ़ाइलें लेकर बड़ी संख्या में लोग रिपोर्टरों को खोज रहे हैं । चैनलों के चक्कर लगा रहे है । ईमेल कर रहे हैं । जिन्हें न्यूज़ रूम में कोई पढ़ता तक नहीं । हरियाणा से एक सज्जन का फ़ोन आया कि मुख्यमंत्री मुफ़्त चिकित्सा योजना लागू हुई है जिससे दूसरे राज्यों के ग़रीब मज़दूरों को बाहर कर दिया गया है । उनका सरकारी अस्पतालों में इलाज बंद हो गया है । सज्जन ने कहा कि अनशन पर बैठने जा रहा हूँ । देखता हूँ मीडिया कैसे नहीं आएगा । इसी ब्लाग पर स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों के लिए लड़ रहे धर्मवीर पालीवाल की कहानी लिखी मगर सोशल मीडिया में चर्चा तक नहीं की और किसी में छापा कर नहीं । एक सज्जन एक लाख करोड़ के धान ख़रीद घोटाले की फ़ाइल लेकर चैनल चैनल घूम रहे हैं कोई पढ़ने वाला तक नहीं । इस कथित घोटाले में बीजेपी कांग्रेस सहित कई सरकारें शामिल हैं । ऐसी बात नहीं कि मीडिया ने घोटालों की खोज नहीं की है । अख़बारों ने की है । टीवी ने कम ।
दूसरी तरफ़ ऐसे कृत्रिम मुद्दे उठ रहे हैं जो कांग्रेस बीजेपी के खुराक बनते हों । ऐसा नहीं है कि मुद्दे नहीं उठते मगर इनकी संख्या दस से बारह होकर रह जाती है । लगातार रिपोर्टिंग नहीं होती । रिपोर्टिंग ने चैनल का बहुत कुछ दांव पर लगता है । संपादक की दोस्ती दाँव पर लगती है । चैनल या अख़बार कई तरह की असुविधा से बच जाते हैं । अख़बारों में भी टीवी है । वहाँ भी घटना प्रधान चर्चा है । इसीलिए टीवी पर जनमत शो की बाढ़ है । आयं बायं सायं बोलकर चले जाइये । इसमें आप पहचाने नहीं जाते कि आपकी रिपोर्ट से किसी को तकलीफ़ तो नहीं हुई । डिबेट शो ज़रूरी है मगर ख़बर की क़ीमत पर नहीं । डिबेट शो जनमत के नाम पर फ्राड है । समझिये इस बात को । अपनी खुजली टीवी देखते हुए मत खुजाइये । मैं इसीलिए घर पर कोई डिबेट शो नहीं देखता । कोई शो अच्छा होगा मगर यह एक बुनियादी ज़ररत की क़ीमत पर है । क्या आप सब्ज़ी की जगह रोज़ रसगुल्ला खा सकते हैं । पौष्टिकता के लिए ज़रूरी है रिपोर्टिंग । इसके न होने से ही मीडिया और मीडिया नागरिक एक दूसरे की अनुकृति बन जाते हैं । कृत्रिम जनमत बनता है ।
22 comments:
kal aapka pt dekh raha tha us waqt mujhe shayad october me aapka ek pt yaad aa gya jab aap delhi poll ke upar ek debate kar rahe the jisme aapne opinion poll ko ek business bataya tha and us debate me manish ne kaha tha ki poll ka raw data website pe dalna chahiye aur kal ke debate me yahi baat clear hui sach me aapki bahut saari aashankaye jo ki aapne purb me ki hoti hai baad me sahi nikalti hai jaise aapka poll ko business batana padso ke news express ke sting me bilkul clear ho gya...sahi kaha tha aapne jab bhi koi in poll me niche jaane lagta hai wo esko ban karna chahta hai jaise apne time pe bjp ne aur ab congress karna chahti hai but koi esko systematic nhi karna chahta hia na ki eska regulator banana chahta hai kal aapke pt ke baad rajdeep sardesai ka show dekha es pe bahut hi sahi kaha unhone aur wo aam aadmi party ke mang se aur yogender yadav ji ke salah se bilkul hi sehmat the....
इस तरह की समसया कयो और कैसे आई ? मेरी समझ मे , जब जब टीवी खोले बाबा या डीबेटिग की खोराक ही परोसी जा रही है,इसमे कोई चैनल बाकात है ? हम कया पहने, कया खाये ,कया कितना खाये अब परिवार नही टीवी ही तो तय करने लगा है,समाचार पत्र , समाचार की सामग्री से अधिक शोपिग माल जयादा है,
मेरे घर मेरी फेमिली अमेरिका ,युके से आती है तो बात होती रहती है ,पैसा हम समाचार का देते है या फिर सलाह लेने का.?
NDTV HINDI के डीबेट मे कम हो हळा होता है लेकिन रवीशकुमार नही तो फिर किसी और मनोरनजन का मन बना लेते है , फिर शुभरात्री
#OperationPrimeminister देखने के बाद मन में उठे कुछ सवाल ...
१. दिल्ली चुनाव के ठीक दो दिन पहले देश के बड़े चैनलों पर एक सर्वे आता है जिसमे आम आदमी पार्टी को आश्चर्यजनक रूप से कमतर करके 6 सीट दी जाती है !!
२. उसी समय बीजेपी के दो कद्दावर प्रतिपक्ष के नेता सुषमा स्वराज और अरुण जेटली स्पेशल प्रेस कांफ्रेंस बुलाते है और आम आदमी पार्टी को २- ४ सीटें मिलने का दावा करते है और जेटली जी तो
एक कदम आगे बढ़कर यहाँ तक दावा कर देते है कि अगर "आप" को ४ सीटें भी आ गयी तो वो राजनीती छोड़ देंगे !!
३. चुनाव के दिन मतदान समाप्ति के पहले ही चैनलों पर एग्जिट पोल आता है जिसमे बीजेपी को ४० सीट दी जाती है (एग्जिट पोल के समय लगभग २ लाख मतदाता लाइन में थे)
४. चुनाव के पहले सर्वे में विजय गोयल को सबसे पसंदीदा सी एम का दावेदार होने का दावा किया जाता है जिसके बाद उनकी पार्टी गोयल को हटाकर हर्षवर्धन जी को प्रत्याशी बनाती है (इस स्टिंग में दावा किया गया है कि गोयल जी ने सर्वे पर 8 करोड़ खर्च किए)
५. दिल्ली चुनाव के रिजल्ट में सारे सर्वे फेल हो जाते है जिससे एक शक पैदा होता है कि वो सारे सर्वे
राय जानने के लिए थे या राय बनाने के लिए !!
६. दिल्ली चुनाव के पहले आप के फ़र्ज़ी स्टिंग को सभी चैनल बिना रॉ डेटा देखे जोर शोर से चलाया
७. इतने बड़े और महत्व्पूर्ण स्टिंग पर सरकार के साथ साथ राजनितिक पार्टियों और चुनाव आयोग कि उदासीनता कि आखिर क्या वजह है ?
८. स्टिंग में शामिल कम्पनियों और उसके अधिकारीयों पर कोई कार्यवाही होगी या फिर उनका धंधा ऐसे ही लोकसभा चुनाव तक चलता रहेगा ?
९. इस स्टिंग में जिन लोगो के भी नाम सामने आये है क्या उनपर एक निष्पक्ष जाँच बैठाने कि जिम्मेदारी सरकार और चुनाव आयोग कि नही बनती ?
१०. इस लोकतंत्र का अभिन्न अंग होने के नाते लोगो को भी अपने अपने स्तर पर लोकतंत्र को धूमिल करने वाले ऐसे कुकृत्यों का हर तरह से विरोध करना चाहिए !! copy to my facebook inbox
पत्रकारिता से सम्बंधित नहीं हुँ इसलिए निस्पक्षता पर टिपण्णी करना बेवकूफी होगी। कुछेक टीवी चैनल्स की विस्वसनीयता और कुछ anchors कि IQ लेवल पर भी नज़र फरमाइये। कुछ तो ऐसे विश्लेषक बनते है कि मत पुछिए। आग्रह की कुछ ऐसे डिबेट आप भी नज़र फरमा ले।
यह ब्लॉग हिंदी के दो पत्रकारों के प्रोत्साहन से ही लिख पाया। त्रुटियाँ भाषा की और भावनाओ का कमज़ोर प्रवाह तो इस layman ब्लॉगर को भी स्पष्ट हैं ,फिर भी इन दोनों कि भेट।
" छूटता बंधन-2 " http://atulavach.blogspot.in/
media aajkal bas TRP ka khel rah gaya h.me pahle sochata tha ki media
logo ko jagruk karne ka kaam karta h lekin jis tarah ki debated in channel me calti h jaise ki wo debate nahi wo bas ek aawaj goonj rahi h jisme TV channels ek sawal pe sabko ek jesa dikhana chate ho.
Unke liye issue important nahi h;konsa neta kab kiski khilli udata h wo jyada mahatvpoorn h
Aaj kal to media bhi ek tharah ke political party banti ja rahi hai.Aapne suvidhanusar kisi khabar ko band ya chalu karti hai,janta ki rai se usse kuch lena dena nahi hai.Kuch din pahle ek khabar aaye thi ke MUKESH AMBANI ke bate ne raste par sote huye logo par car chada di par kisi media ne nahi dikhaya.
यह सही है की मीडिया इंफलून्स करता है , पर कितनो को ? मेरा तो मानना है के ज्यादा तर लोग लोकल इशू को लेकर ही वोट देते है , सोसाइटी का एक ही तबका है और वोह भी बहुत छोटा जो यह डिबेट शो देखता है और जो देखते है उसमे में ज्यादा टर सोच समजकर ही वोट देते होंगे
यह सही है की सब पार्टी औ ने आयीटी सेल खोल रखे है , खूब पैसे खर्च हो रहे है - सब सही है पर उनकी पहुच कहा तक है ? बहुत ही कम तबके तक
एक मुद्दा है सर जो अभी प्रकाश में नहीं आया है - फंडिंग को लेकर , जरुरी मुद्दा है
३-४ घटना इसमे जुडी हुयी है ...
1.) फेमा के तहत पोलिटिकल पार्टीया विदेश से चंदा नहीं ले सकती
2.) इलेक्शन कमिशन ने कहा था की बाबा रामदेव की सभा में होने वाला खर्च बजीपी के खर्च में जोड़ा जाये
3.) आम आदमी पार्टी को फोर्ड का फण्ड
अब जब बीजेपी और कांग्रेस यह आरोप लगाती है तो "चाय पे चरचा " का कम्पैन एक ऍन गई औ ( सिटीजन फॉर ऑकउंटेबले गवर्मेंट) ने शरू किया था , पूरा प्रचार मोदीजी का और बीजेपी का हुआ , अब यह ऍनगईऔ तो विदेश से फण्ड ले ही सकते है न। अब फाइनल फायदा तो बी जी पी हुआ न। मीडिया और सोशल मीडिया से ज्यादा एफ्फेक्ट यह नए तरीके करते है , जिस पर लगाम कसना जरुरी है
ये भी एक नशा है! जहाँ तक पर्याप्त समझ कि जानकारी का सवाल है, एक बहुत ही जटिल प्रशन है, पर्याप्त कितना है, क्या रवीश कुमार और मेरा पर्याप्त बराबर है। अपने जैसे देश मे जहाँ शिक्षित लोगो कि संख्या इतनी कम है(सब पढ़े लिखे लोगो को आप शिक्षित नहीं मान सकते वर्ना देश मे इतनी सामाजिक समस्या नहीं होती) वहाँ लोकतंत्र चलाना बहुत ही मुश्किल काम है।
जानकारी का एक ही सोर्स गूगल
Technically Google is not a source of information, it is only a tool which helps you to get to the source of information.
मीडिया मे बहस भी प्रायोजित लगने लगी है मीडीया दूसरो की ईमानदारी पर प्रश्न उठाता है , लेकिन उपने ग़रेबान मे झाँकने की ज़रूरत नही समझता . समाज से ही ईमानदारी गायब हो गयी है ,राजनीति इसके लिए सबसे बड़ी दोषी है लकिन इसके बावजूद मीडीया जो की सबसे प्रभवशाली है उसे इस ओर ध्यान देना चाहिए.आप जैसे ईमानदार लोग मीडीया मे कम ही है .
अमर श्री नायक
shriamarshri@rediffmail.com
मीडिया मे बहस भी प्रायोजित लगने लगी है मीडीया दूसरो की ईमानदारी पर प्रश्न उठाता है , लेकिन उपने ग़रेबान मे झाँकने की ज़रूरत नही समझता . समाज से ही ईमानदारी गायब हो गयी है ,राजनीति इसके लिए सबसे बड़ी दोषी है लकिन इसके बावजूद मीडीया जो की सबसे प्रभवशाली है उसे इस ओर ध्यान देना चाहिए.आप जैसे ईमानदार लोग मीडीया मे कम ही है .
अमर श्री नायक
shriamarshri@rediffmail.com
jo bhi ho, mujhe lagta hai ki sarve dekhane ya dikhane se jyada asar nahi padhta. vote kise dena hai ye hum dusare karno se tay karte hai.
wah sir kya point nikala hai ekdum correct...............
इनदिनों कई टीवी चैनलों पर मत प्रतिशत बढ़ाने का थर्ड रेट अभियान चल रहा है । वोट देना ज़रूरी है लेकिन इसके नब्बे प्रतिशत हो जाने से क्या गुणात्मक बदलाव आता है क्या किसी ने सोचा है । वोट देना ही ज़रूरी है या यह भी ज़रूरी है कि बिना जानकारी के वोट न दें । एक आत्मविश्वासी लोकतंत्र में यह कहा जाना चाहिए कि अगर मुद्दों की पर्याप्त समझ या जानकारी नहीं है तो वोट न दें । प्रतिशत संख्या के लिए जनमत नहीं हो रहा मगर मीडिया ने इसे संख्यात्मक जनतंत्र में बदल दिया है और मीडिया नागरिक ने स्वीकार भी कर लिया है ।
जब तक देश में थी राजनीती को केवल भाजपा बनाम कांग्रेस ही पाया | अब जब देश छोड़ दिया तब जाकर "आप" आयी | मैंने तब भी कभी वोट नहीं दिया अब भी नहीं देने वाली पर राजनीती को देखने का नजरिया बदल गया है...
भारत में जनता ने "हाथ" थामे कि सेवा करेंगे परन्तु वे भृष्टाचार का कीचड़ फैलाने लगे फिर उस कीचड़ का फायदा उठाते हुए कुछ लोगो ने उसमे "फूल" खिला दिए, कुछ ने अलग अलग नामों से कितने ही बीज डाल दिए ..कुछ इन की सुंदरता से जुड़े भी पर नियति ने ही फूल पौधों को सफाई के लिए नहीं बस सुंदरता और नव जीवन के लिए बनाया है | तब आखिरकार झाड़ू आयी जिसका केवल एक ही काम है - सफाई..वो हाथ और फूल में भेद नहीं करती...गंदगी भी साफ़ करती है और उन जगहो से फूल और उन पौधे हो चुके बीजों को भी जहाँ वे या तो मुरझा चुके है या बस खर पतवार बन चुके हैं |
तो भारत की राजनीती की नियति यही है कि वहाँ जहाँ "हाथ" सेवा करगा (जिसकी कोई उम्मीद नहीं बशर्ते कि पूर्णतया हाथ बदल दिए जाएँ), बना रहेगा..जहाँ "फूल" मुरझाया नहीं है, खिला रहेगा..लेकिन जहाँ थोड़ी भी गंदगी है वहाँ "झाड़ू" के बिना कोई विकल्प नहीं है...
कैसा चक्र है ये..हाथ गंदगी फैलाए फिर उसमे फूल खिले और फिर इनकी झाड़ू सफाई करे ..अविरत,निरंतर
कुछ एक साल पहले की बात एक पत्रकार मित्र के समाचार पत्र में अमुक कैंडिडेट के पक्ष में हवा चलने की खबर छपी थी . मैंने उनसे कहा कि भाई मुझे तो हाथ से chalane वाला पंखा वाली हवा भी नज़र नहीं आ रही तो कहने लगे यह आप समझ नहीं पाएंगे . चुनावों में तो न्यूज़ चैनल वालों की बल्ले बल्ले है . पिछले १३ महीनो से tv से दूर हूँ lekin उसकी कोई कमी नहीं महसूस नहीं होती . सुबह प्रभात खबर फिर आकाशवाणी और रात में बीबीसी की 7.30- ८:०० अंत में आपका ब्लॉग . इससे अपना कोटा पूरा हो जाता है .
keen observation....but its not our fault..hum to shaam ko thake haare aate hai office se..n jitna samjh aya debate se n baaki khud ki addhi adhuri information laga k koi conclusion nikal lete hai :-|
बात 16-17 वर्ष पुरानी है. Syber दुनिया और कम्युनिज्म के भविष्य को लेकर बहस कर रहे थे.उस समय एक मित्र की बात याद है की आने वाले समय में इस दुनिया का एक 'स्वायत' स्वरुप होगा जो किसी देश की बौद्धिक संरचना को गुणात्मक रूप से प्रभावित करेगा. आज बहुतायत में मीडिया क्या कर रही है? किस तरह की चीजों को construct और deconstruct कर रही है. एक तरफ पुरे विश्व में Islamophobia, इस्लामिक terrorism, Rescuing Muslim women,democracy आदि आदि. दूसरी तरफ हमारे यहाँ इसी बड़े narrative को स्थानीय स्तर पर गढ़ा जा रहा है. न तो हमारी मीडिया कश्मीर और उत्तर-पूर्व के दुसरे पक्ष पे बात करती है और न ही जनजातियो और खनन के रिश्ते पे कभी बात करती है. हाँ सैनिको या अर्ध सैनिक बलों के मरने पे हाय तौबा मचाकर अन्ध्राष्ट्र्भक्ति जरूर पड़ोसती है. देश में कई स्तरों पर लोग अपने जनतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. लेकिन Democracy का बड़ा Narrative उसे ढक देता है. रिपोर्टिंग का एक खतरा तो बना ही रहता है की जाने-अनजाने सच्चाई सामने आ जाती है. आखिर मीडिया के आक़ा- शाशक वर्ग और corporate इसे बर्दाश्त करेंगे? लिखने को तो मीडिया के कई आयाम हैं .लेकिन फिर कभी. वैसे आपका लेख पढ़कर अच्छा लगा. इसमें आपके विचार और आपकी मजबूरी दो दिखती है. चलिए टीवी में न सही ब्लाग पर ही.
कई लोगों को समाचार में मनोरंजन तत्व प्रधान होने पर अच्छा लगता है, सब अपना मन पहले से बनाये रहते हैं।
Ravish ji, Maine aaj hi aapka facebook page like kiya aur aaj hi message dekha ki aap apna facebook account band kar rahe hai.
I am not even sure if that is your own account ya kisi aur ne bana diya hai.
गज़ब का विश्लेषण कर दिया रवीश जी। वाकई 'यू स्क्रैच माय बैक, आई स्क्रैच योर्स' वाला सम्बन्ध बन गया है मीडिया और मीडिया consume करने वालो में। एक किस्म का compartmentalization तो हो ही गया है हमारी सभी भावनाओं का, कि हमें कैसे विरोध करना है, कैसे हल्ला करना है, कैसे नेता को जितवाना है, कैसे देश बचाना है, सभी पहले से ही खांचों में परोसा जा रहा है.…सभी प्रश्न भी इसी आभासी माहौल में पैदा हो रहे हैं और इनके पूर्व निर्धारित जवाब भी। और जैसा आपने कहा,ऐसे आभासी नकली माहौल में, असली मुद्दे छूट जा रहे हैं।
एक और लाईन जो खास कर छू गयी.… "एक आत्मविश्वासी लोकतंत्र में यह कहा जाना चाहिए कि अगर मुद्दों की पर्याप्त समझ या जानकारी नहीं है तो वोट न दें ".... । कितनी सही बात है पर ये लक्ष्य कितना दूर लगता है अभी.… पर ये भी है कि इतने विरोधाभासों, इतनी कठिनाईयों के बावजूद, लुंज पुंज सा ही सही, अपनी डेमोक्रेसी चलती है, ये भी कोई कम आश्चर्य नहीं।
और हाँ, अब आपके ब्लॉग का अब नियमित पाठक बन गया हूँ। ( पुराने पोस्ट खंगाल कर पढूंगा ) :)
आपके मीडिया पर - आप को फिर से? लेख पर लिख दिया है टाइम मिले तो पढ़ लीजियेगा | लिखते रहिए !!!
Ravish ji bura mat maaniyega... lekin aapke hath me kuch had tak chheze hai abhi... aap field reporting ko protsaahit karne k liye kya kar rahe hai... mai maanta hu aapka channel baki channelo se jada report dikhata hai... lekin vo b bohut kam hai...
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