गुंडे

बचपन की दौड़ । स्लो मोशन वाली । हाथ में हाथ डालकर मालगाड़ी से सरकते कोयले से फिसलते हुए गिरना । जुर्म करते हुए भागना और भागते भागते  बड़ा हो जाना । कोयला बचपन और दोस्ती हिन्दी सिनेमा की वो यादें हैं जो लौटती रहती हैं । गैंग आफ़ वासेपुर, भाग मिल्खा भाग से लेकर गुंडे तक ।

इस कहानी में कलकत्ता के अलावा कुछ नहीं है । दो ख़ूबसूरत नौजवानों की बलिष्ठ छातियाँ हैं । इरफ़ान और प्रियंका हैं । धनबाद और कोलकाता का कोयले से रोमांस अब उस अतीत का हिस्सा बन चुके हैं जो अब लौटते हुए मौलिक नहीं लगते है । रामलीला के इस हीरो का नाम याद नहीं आ रहा मगर इसमें तेवर है । आगे जायेगा । इरफ़ान इरफ़ान हैं । फ़िल्म के आख़िरी सीन में पान सिंह तोमर के एनकाउंटर वाले सीन की तरह लौटते हैं । डाकू नहीं दारोग़ा बनकर । प्रियंका हसीन लगती हैं । अच्छी अदाकारा है मगर उनका रोल ख़ास नहीं है । बस वो हैं अपनी ख़ूबसूरती के साथ । गुंडे देखकर भुल जाने वाली फ़िल्म है । ऐं वीं पर ठीक ठाक । कैमरा निर्देशन और पटकथा अपनी जगह पर होने के कारण ही देखी जा सकती है वर्ना चलती फ़िल्म के दौरान समीक्षा नहीं लिखता । फ़िल्म का अंत ख़ूबसूरत है । स्केच से रोमांटिक बना दिया गया है ।

8 comments:

Unknown said...

great sir..dis too is a talent of yours..the way you describe things whether politics or movies is just exceptionally amazing..hats off..!! :)

Unknown said...

नमस्कार सर आपका अनुसरण करूँगा.मूवी देखने बिलकुल नही जाऊंगा.

सुमित कुलकर्णी said...

अच्छा लग रहा है आपको छुटियाँ एन्जॉय करते हुए देख कर । मगर गुंडे मत देखिये । हँसी तोह फसी देखिये । और बताएगा कैसी लगी फिल्म । फासी

prabhat kumar said...

Sir aap wrist watch kaun sa pehnte h. Aap apne sare shows mein Wahid pehnte h. Simple h par acchi lagati h. Mujhe bhi lena hai. Reply pls.

Vikram Pratap Singh said...

Umda vishleshan hai Ravish ji.

Unknown said...

I did not hope you will give this movie a Review Whatever even that good story scetch irfan nd all writing is redundant.... pura bakwas hai film

Unknown said...

वर्ना चलती फिल्म के दौरान समीक्षा नहीं लिखता..

ये तो जादा ही कर दिया सर जी

Unknown said...

Ek bar pata kijiye sir, shayad aap pehle patrakaar honge jisne movie k bich me samiksha likhi hogi :)