मकानों में मेरी गहरी दिलचस्पी रही है। ग्लोबल आंधी हमारे मकानों के रंग-रूप बदल गए। पहले के मकानों में भी ब्रिटिश और फ्रेंच डिजाइन की छाप रही है। बिहार के कई हिस्सों में बने मकानों में कोलकाता के भद्रजनों के मकानों की छाप रही है। उपनिवेशकालीन असर। मगर कुलीनता के निशानी ये मकान अब गुज़रे वक्त के प्रतीक बन कर खंडहर में बदल रहे हैं। घर को लेकर हमारी सोच पूरी तरह से बदल चुकी है। कोठी की जगह कबूतरखाने ने ले ली है। मुझे याद है पटना में जब उदय अपार्टमेंट बन रहा था तब कई लोग हंसा करते थे। कहते थे कि कबूतरखाना बन रहा है। इसमें कौन रहेगा। शायद बहुत दिनों तक फ्लैट नहीं बिके थे। अब पटना अपार्टमेंट कल्चर में प्रवेश कर चुका है। यूपी में भी शहरों में सरकारी स्कीम के तहत खूब अपार्टमेंट बन रहे हैं। दड़बा कल्चर अब हकीकत है। इसीलिए जब भागलपुर में तीन घंटे का वक्त मिला तो एक सीरीज़ मकानों की भी कर डाली। पूरी जानकारी से लिखता तो आपको भी पढ़ने में मज़ा आता। आखिर का एक मकान जहाज़ जैसा है। लगता है कि कपार पर भरभरा कर गिर जाएगा। भागलपुर का डोल्बी साउंड वाला सिनेमाघर भी मल्टीप्लेक्स बनने का इंतज़ार करता नज़र आया। कुछ मकानों की सजावट और रंग देखने लायक है। एक तस्वीर में फिएट कार कबाड़ बन कर खड़ी है। मकान भी कबाड़ जैसा लग रहा है। ग्रेटर कैलाश या लखनऊ के गोमती नगर की चमक नहीं दिखाई दी यहां के मकानों में।
एक तस्वीर सरकारी क्वार्टर की भी है। पीले रंग के मकान। काई जमी हुई। देश के कई हिस्सों में इस तरह के मकान मिल जायेंगे। अंग्रेजी हुकूमत के जमाने में बने ये मकान गज़ब किस्म की एकरूपता के प्रतीक थे। हर शहर में एक ही तरह के ताकि सरकारी कर्मचारी की सोच और रहन सहन पूरे देश में एक जैसा हो जाए। कभी अलग से पीले मकानों पर सीरीज़ करूंगा। मौका मिला तो।
9 comments:
रवीश मकानों को लेकर मेरे मन में भी ढेर सारी बातें उफान मारती रहती है। मुझे जब भी कहीं पुराने मकान (५०-७० के दशक के) दिखते हैं तो ऐसा लगता है मानो इसे पहेल भी कहीं देखा है। दरअसल पक्के मकानों के डिजाइन पहले हर जगह एक जैसे ही होते थे। दरभंगा, भागलपुर, पूर्णिया, मुजफ्फरपुर आदि इलाकों के पुराने मकानों को देखिए और फिर दिल्ली के पटेल नगर या बंगाली मार्केट के पुराने मकानों को देखिए, ढेर सारी समानता मिलेगी आपको।
sahee kaha gireendra.familiarity pehle bhee thee...aur aaj bhee hai. aaj ke apartment bhi ek hi tarak ke hain...diversity khatam ho rahee hai.
kaash ise aur detail me kar pataa.
रवीश, कानपुर के सिविल लाइंस में मुझे ऐसे ढेर सारे पुराने पक्के मकान मिले, जिसकी बुनावट मुझे अपने शहर पूर्णिया के मकानों की तरह लगे। या फिर ऐसा लगा मानो आईटीओ से मंडी हाउस के रास्ते पर मौजूद मकान हो। फिर नजर अपार्टमेंट पर पड़ी तो लगा मानो गाजियाबाद के वैशाली या इंदिरापुरम की अट्टालिकाओं को देख रहा हूं। दरअसल इन दिनों मैं नौकरी के बहाने कानपुर के दुकानों के नाम और मकानों की बुनावट को देख-पढ़ रहा हूं। जल्द ही इस पर विस्तार से लिखता हूं।
रेलवे के प्राचीनतम से नवीनतम तक के मकानों में रहने का अनुभव है। जितने पुराने मिले, उतने मजबूत थे।
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के ब्लॉग हिन्दी विश्व पर राजकिशोर के ३१ डिसेंबर के 'एक सार्थक दिन' शीर्षक के एक पोस्ट से ऐसा लगता है कि प्रीति सागर की छीनाल सस्कृति के तहत दलाली का ठेका राजकिशोर ने ही ले लिया है !बहुत ही स्तरहीन , घटिया और बाजारू स्तर की पोस्ट की भाषा देखिए ..."पुरुष और स्त्रियाँ खूब सज-धज कर आए थे- मानो यहां स्वयंवर प्रतियोगिता होने वाली ..."यह किसी अंतरराष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय के औपचारिक कार्यक्रम की रिपोर्टिंग ना होकर किसी छीनाल संस्कृति के तहत चलाए जाने वाले कोठे की भाषा लगती है ! क्या राजकिशोर की माँ भी जब सज कर किसी कार्यक्रम में जाती हैं तो किसी स्वयंवर के लिए राजकिशोर का कोई नया बाप खोजने के लिए जाती हैं !
ravish sir, aise makano ke baare me ravish ki report taiyaar kariye to dekhne me achcha lgega......
फिर शायद कोई कवि (शायर?) कहेगा "इस दश्त में इक शहर था / वो क्या हुआ आवारगी?"
हर मकान कुछ कहता है....
मुझे सबसे ज्यादा नीचे से पांचवें टाइप के मकान आकर्षित करते हैं.. एक सामाजिक और सौहाद्र का वातावरण महसूस होता है ऐसे मकानों को देखकर... बस बाहर बरामदे में एक चौकी की कमी खाल रही है... :)
सबसे ज्यादा घुटन ऊपर से पहले टाइप के मकान को देखकर महसूस होती है..
आप जिस टॉपिक पर कलम चलाते हैं, वह खास बन जाता है. अच्छा लगा यह आलेख पढ़कर. धन्यवाद. नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ -
Post a Comment