जाने कितने शहरों से गुज़र चुका हूं
अपने गांव से बहुत दूर निकल चुका हूं
लौटना मुश्किल है अब किसी शहर में
हर पुराने शहर को गांव सा भूल गया हूं
रहता हूं जिस मकान में,दाम पूछता हूं
रविवार के अख़बार में खरीदार ढूंढता हूं
आने से पहले ही हो जाती है उससे बातें
आते ही कभी घड़ी कभी मोबाइल देखता हूं
अस्थायी मकानों के बीच किस कदर बंट गया हूं
चिट्ठी तो पहुंचे इसलिए स्थायी पता ढूंढता हूं
(निम्नस्तरीय कालजयी रचनाएं सीरीज के तहत)
15 comments:
कड़वा यथार्थ।
पता नहीं क्यों, पर आपकी यह रचना पसंद आई।
खासकर, आखिर में लिखी पंक्ति कि निम्नस्तरीय कालजयी..।
Jai mata di,
Sometimes I am really surprised that how can you manage so many things at a time. Commendable! Keep it up.
भाई रवीश जी,
22 साल की नौकरी में लगभग 10 मकान बदल चुका हूं----अन्त में किसी तरह सरकारी मकान को ही स्थाई पते के रूप में दर्ज करा दिया। आप तो कम से कम मकानों के दाम पूछ लेते हैं पर मेरी हिम्मत ही नहीं पड़ती दाम पूछने की----
बहुत बड़ी सच्चाई लिखी है आपने इस कविता में--।
हेमन्त कुमार
Ravishji,
This short poem is just great.Keep writing!It reflects the fast paced life people live these days and then encounter IOS(Information overload syndrome),thatswhy poet forgets about village and even the new cities he went into.
I once went to my village when I was small,but I remember everything vividly,khajur trees,fractured mud in farms,well,mango ,chana dal and mud houses.
I wish you a very happy Choti Diwali!
Regards,
Pragya
भाई यह निम्नस्तरीय कालजयी रचनाएं क्या हैं क्रपया खुलासा करें !
हमें तो आपकी यह रचना निम्नस्तरीय नहीं लगी | कड़वा सच बयान किया है आपने |
दीपावली की शुभकामनाएँ |
ट्राई करते रहिए...एक दिन कवि बन ही जाएंगे....या फिर दुनिया थक कर मान ही लेगी..
Giri ji ka comment achha laga. Gaon ke yaad mujhe bhi bahut aati hai.Bachpan ke 11 saal maine bhi gaon main betaye hai. Jeevan main abhav tha lekin mazza bahut tha. Aaz abhav to nahi hai, lekin zindage ka mazza jata raha.
Ant main ravishji, yeh kavita likhne ka shauk apko kabse aur kaise lag gaya.
(निम्नस्तरीय कालजयी रचनाएं सीरीज के तहत)
padhkar maza aaya.
शुक्रिया, महेंद्र जी...वैसे एक रोचक बात बताऊं...आप 11 साल गांव में रहे और मैं 11 साल बाद अपने गांव जा रहा हूं.....दादी छठ करती थीं तो जाता था...उनकी बरसी पर आखिरी बार गया था...मैं भी कुछ लिखूंगा तो ज़रूर पढ़िएगा...
खुद ही नाम पेल दिये हो सीरीज़ का। आप तो किराए के मकान में रहते हो नहीं तो दाम क्यों पूछते हो। अगर बिकावाली का इरादा हो तो त्याग दो। नया मकान बहुत महंगा मिलने वाला है। प्रणय रॉय के लिए छोड़ दो। सब बातों के बाद दीवाली की हार्दिक शुभकामनाएं, अपने मकान की मुंडेरों को जगमगाओ।
SACHIN KUMAR
जब इतने लोग पूछ रहे है तो निम्नस्तरीय कालजयी रचना के बारे में बता ही दीजिए....
true for every person who had left his/her home for the sake of good future
जाने कितने शहरों से गुज़र चुका हूं
अपने गांव से बहुत दूर निकल चुका हूं
लौटना मुश्किल है अब किसी शहर में
हर पुराने शहर को गांव सा भूल गया हूं
aap ne mojhe mera ganve yad dila diya.
pangtiyan padh kar maja aaya.
rakesh khairaliya
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