रेडियो भैया
आप कभी भी देखिये, मिलिये अपने बिजेंद्र भैया इसी मुद्रा में मिलेंगे। हाथ में रेडियो लिये। सोते जागते वे कभी भी रेडियो से दूर नहीं होते हैं। वे रेडियो के अलावा किसी और के नहीं हो सके हैं। इनके हाथ में जो रेडियो दिख रहा है वो फिलिप्स का फिलेट मॉडल है। तीस साल पहले २०० रुपये में ख़रीदा था। अब यह मॉडल बंद हो गया है। खराब होने पर पार्ट्स की चिंता न हो इसलिए बिजेंद्र भैया ने आस पास के लोगों से फिलेट मॉडल के पांच सेट खरीद कर रख लिये हैं। कुछ लोगों ने उनकी दीवानगी को देखते हुए फिलेट मॉडल दान भी कर दिये हैं। वे तीस साल से एक ही रेडियो के साथ हैं। दूसरा मॉडल ही नहीं खरीदा। पत्नी से भी ज्यादा रेडिया का साथ निभा दिया।
बीबीसी को बिजेंद्र भैया के पास जाना चाहिए। वे हर दिन बीबीसी सुनते हैं। दुनिया की हर खबर सुनते हैं। वे बीबीसी के उन श्रोताओं में होंगे जिसने हर दिन बीबीसी का हर समाचार सुना होगा। मैं जब छह सात साल का था तब से बिजेंद्र भैया को रेडियो के साथ देखा है। हम जब गंडक नदी में नहाने जाते थे तब भी उनका रेडियो किनारे पर बजता रहता था। वो किसी से बात नहीं करते। चुपचाप रेडियो सुनते रहते हैं। कोई साथ चलता भी है तो वो भी रेडियो सुनने लगता है। क्रिकेट का स्कोर हो या पाकिस्तान में हमला। बिजेंद्र भैया सारी ख़बरों के सोर्स हैं।
जितवारपुर के लोग कहते हैं रेडियो के शौक ने इन्हें नकारा कर दिया। वर्ना वे काफी अच्छे विद्यार्थी थे। मुझे लगता है कि रेडियो के शौक ने बिजेंद्र भैया की दुनिया देखने की जिज्ञासा को शांत कर दिया। प्रवासी मज़दूर या प्रवासी अफसर होकर गांव छोड़ने से अच्छा था रेडियो का साथ पकड़ों और दुनिया को अपनी बांहों में समेटे रहो। इनके पिता जी गांव के मुखिया हुआ करते थे। ज़मीन जायदाद भी ठीक ठाक है। चाहते तो टाटा स्काई लगाकर गांव में टीवी ला सकते थे। मगर रेडियो से इतनी मोहब्बत कि वे टीवी के लिए बेवफाई नहीं कर सके। काफी अच्छे आदमी है मगर रेडियो के बिना ये आदमी ही नहीं हैं। इसलिए मैंने इनका नाम रे़डियो भैया रख दिया है।
मेरे गांव में आज भी लोग रेडियो से ही समाचार सुनते हैं। अच्छा है टीवी नहीं आया है। गांव में अब अख़बार आ जाता है। हिंदुस्तान सुबह नौ बजे तक आ जाता है। कम लोग खरीदते हैं मगर पेपर पढ़ना भी रेडियो सुनने जैसा ही है। एक पन्ने को पचास लोग पढ़ डालते हैं। वे एक्ज़िट पोल पर चर्चा कर रहे थे। इन सबके बीच रेडियो बचा हुआ है। रेडियो के एंटना को लेकर अजीब किस्म का संघर्ष दिखाई दिया। एंटना में एक्स्ट्रा तार जोड़ कर पेड़ तक पहुंचा देते हैं। साफ आवाज़ की कोशिश में एंटना से काफी छेड़छाड़ की जाती है। गांव की बोरियत भरी ज़िंदगी में रेडियो से आती हुई हर आवाज़ तरंग पैदा करती है।
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19 comments:
रेडियो भैया पोस्ट मस्त है।
रेडियो का शौक मेरे एक स्थानीय मित्र को भी है। सुबह सवेरे कंपनी बाग जाते हैं तो गिलहरियों के लिये अन्न और शर्ट की ऊपरी पॉकेट में रेडियो पर एफ.एम. रेडियो! बैंक में हैं, बहुत धीमी आवाज़ में वहां पर भी रेडियो जारी रहता है। पर वह बरबाद नहीं, आबाद हैं। आपने मानसी सांस्कृतिक चेतना मंच नाम से एक अत्यन्त कर्मशील सांस्कृतिक संस्था भी बनाई हुई है जो नवोदित गायकों को बेहतर मंच प्रदान करती है। कभी उनसे आप मिलेंगे तो आपको भी अच्छा लगेगा!
सुशान्त सिंहल
www.sushantsinghal.blogspot.com
भई अपना अपना शौक है !
रेडियो भैय्या की कहानी बहुत अच्छी लगी. गांवों में ऐसे कई भैय्या हुआ करते थे लेकिन सब ने रेडियो का साथ छोड़ दिया. यहाँ वे एक रेडियो व्रत्त बने हुए हैं. जनम जनम का rishta
Radio sunne mai aata to maza hi hai...
apki post par ke achha laga...
लगता है आजकल बराबर गांव का दौरा हो रहा है... जाते रहिए और गांव के बारे में लिखते रहिए... कभी गांव के स्कूल में जाकर वहां भर्ती किए गए नयका टिचरों का हाल चाल भी मालूम कीजिए... गश खाकर गिर जाइएगा... क्योंकि सभी मुखिया और सरपंच ने अपने अपने परिवार वालों को टीचर बना दिया है... हालात पहले से भी बदतर हो गई है... हम लोगों ने तो रोजी रोटी के लिए आईआईएमसी और हिन्दी व्याकरण के सहारे अपनी अपनी 'लिंग' और मात्रा दुरुस्त कर ली है... लेकिन आने वाले नस्ल का क्या होगा... ये सोचकर मन घबरा जाता है... शायद यही नियति है... शुरूआत सरकारी स्कूल से करेंगे तो बाद में कटोरा लेकर भीख मांगना पड़ेगा... और अगर शुरूआत अंग्रेजी स्कूल से करेंगे तो बाद में सरकारी आईआईटी और आईआईएम का मजा लीजिएगा... खैल छोड़िए बेकार ही मैं आपको और उलझन में डाल रहा हूं... नन रेसिडेंसियल बिहारिओं का कोई क्या बिगार लेगा... सब के सब सेट हैं... जैसे नन रेसिडेंसियल इंडियन दूसरे देशों में गिरमिटिया बनकर भी खुश है उसी तरह हम बिहारी भी तो देशी गिरमिटिया बनकर खुश हैं... आखिर गांव में जाते ही चारों तरफ से लोग घेर जो लेते हैं... सोचता हूं सदा के लिए गांव चला जाऊ और पांचवी क्लास से लेकर आठवीं क्लास तक के बच्चे को मुफ्त में अच्छी अंग्रेजी और हिंदी पढ़ाऊ... लेकिन पता नहीं कब आप लोग कोई क्रांति करेंगे और हम जैसे टुच्चे उस राह पर आगे बढ़ेंगे...
विजेंद्र भैया उर्फ़ रेडियो भैया बहुत अच्छे लगे,
रविश जी ठीक ही है की टाटा स्काई और डिश टीवी खरीदने की ताकत के बावजूद भी आपके रेडियो भैया ने टीवी नहीं लगवाई आज भी वे रेडियो से ही खबरें सुनना पसंद करते हैं....कम से कम उन्हें हर दो मिनट पर ब्रेकिंग न्यूज़ की मार तो नहीं ही झेलनी पड़ेगी....
दिल से पसंद आये आपके भैया, लगता है आप होली मनाने गाँव आये हुए है, गाँव से जुडी ब्लॉग लिखते रहे..आपके अगले पोस्ट के इंतज़ार में....
रेडिया आज भी अजब-गजब है। बेहतरीन लेख।
रेडियो भैया से अच्छा परिचय कराया आपने । रेडियो बचा ही रहेगा यदि ऐसे भैया बचे रहेंगे । धन्यवाद ।
गजब के हैं रेडियो भैया और उनका रेडियो प्रेम । साथ ही साथ आपकी इस पोस्ट ने सारी बातें को आखों के सामने सजीव कर दिया । पढ़कर मजा आया । धन्यवाद
अच्छा शौक है रेडियो का . टी .वी.पर समाचार सुनते तो कब का उसे तोड़ दिया होता भाई सहब ने
ऐसे रेडियोप्रेमी यत्र तत्र देखे जाते हें ....इनकी वजह से ही रेडियो को अभी तक विज्ञापन मिल रहे हैं।
जय विजेन्द्र भैया की!!
कोलेज के दिनों मैं हम भी खुब रेडियो सुनते थे.. बाकायदा लिस्ट रखते थे.. कब किस स्टेशन पर क्या प्रोग्राम आने वाला है..
- मस्ती की पाठशाला वाले एफ.एम.रेडियों पर बहस इसी मंच से शुरु करें-
विज्जू भईया जो रेडियों सुन रहे है उसकी बात ही कुछ और है. आज के निजी एफ.एम. रेडियो स्पर्धा के दौर में पूरे सिर दर्दे है. ये रेडियो एक वर्ग विशेष यानि युवाओं के लिए है. इनका उपयोग सामाजिक मूल्यों को विकृति की ओर ले जाने के लिए हो रहा है. दरअसल रेडियो, मीडिया का सबसे प्रभावशाली माध्यम है. लेकिन यह उन नौसिखियों के हाथों में पहुंचा दिया गया है जिन्हें अभी उस स्तर का ज्ञान नहीं है जिसे रेडियों कहते हैं. आज तो एफ.एम. रेडियों का उद्देश्य सिर्फ कमाई का रह गया है. संस्कृति का क्या हो, समाज को वे क्या दे रहे हैं, मस्ती की पाठशाला में वे कितनी अश्लील मस्तियां परोस रहे हैं इन पर लगाम लगाने की जरुरत है. निजी एफ.एम. रेडियों चैनलों के मेरे इन्ही अनुभवों को देखिए www.fafadih.blogspot.com पर. इस मस्ती की पाठशाला वाले एफ.एम.रेडियों पर नियंत्रण किस प्रकार रखा जाए या इसे निजी हाथों से वापस ले लिया जाए इस पर बहस होनी चाहिए और कोई निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए. सो समझिए की इसके लिए बहस की पहल यहीं से शुरु हो रही है. आप सभी इस बहस में इसी मंच से सादर आमंत्रित है.....
फिलिप्स को इनको अपना Brand Ambassador बना लेना चाहिए
हमने भी रेडियो भैया/भैन को बहुत पास रखा है। सन बासठ की लड़ाई की खबरें रेडियो ही सुनाता था। युद्ध-विराम, तोप, टैंक सभी। और क्रिकेट की कमेंटरी जसदेव सिंह और सुशील दोषी की आवज़!
महिलाओं के लिए- खानपान से लेकर स्वास्थ्य चर्चा तक! रात साढ़े नौ बजे का साप्ताहिक नाटक!
वो प्रांभ होने की धुन और ब्रजमाधुरी सभी कुछ याद है! बोरोनहलधर की आवाज़ तक। पर अब नहीं है। अब मोबाइल ही कमी पूरी कर देता है।
मेरे गांव में भी एक ड्राईवर महाराज है। जब देखो रेडियो से चिपके-चिपके घुमेंगे। लोगों ने जिस दिन उन्हें बिना रेडियो देखा, समझ लिये कि अपनी पत्नी से लड झगड किये होंगे, वही छीन झपट कर कहीं रख दी होगी :)
अच्छी पोस्ट।
सुबह जब मैं सोकर उठता तो दादा जीका रेडियो उनके कमरे की खिड़की पर बज रहा होता। आकाशवाणी के शिमला केंद्र से समाचार सुनता और वाचकों की नकल करता। धीर-धीरे ये शौक बढ़ता चला गया और आज उसी बदौलत इस क्षेत्र में हूं। दादा जी का रेडियों उनके स्वर्गवास के साथ ही खामोश हो गया। उनके कमरे पर जाने पर खिड़की पर जब रेडियो नहीं दिखता तो अजीब महसूस होता है। रेडियो से काफी यादें जुड़ी हैं। इंटर में होस्टल की छत पर लेटकर एफएम सुनसुन कर दो साल काट दिए।
वाह क्या बात है विजेन्द्र बाबू।
raveesh ji post achchi lagi .aaj bhee radio ki pahuch jayada hai.iske mahatv ko ghaav jakar dekha aur smjha jaa sakta hai
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