नेमसेक के किरदार हम भी हैं

हम सब के भीतर कितना कुछ छूट गया है । कितना कुछ जुड़ गया है । मीरा नायर की फिल्म नेमसेक को कई तरह से देखा और पढ़ा जा सकता है । किसी से अचानक हुई मुलाकात, कोई किताब, फिर शादी, फिर परदेस और वापस स्वदेश । इन सब के बीच वो छोटी छोटी तस्वीरें, जो पीड़ा के किन्हीं क्षणों में फ्लैश की तरह आती जाती रहती हैं । हम सब कई शहरों और कई संस्कारों के मिश्रण होने के बाद भी अपने भीतर से सबसे पहले के शहर को नहीं मिटा पाते । विस्थापन का दर्द मकानों के बदलने से नहीं जाता । दुनिया को देखने का जुनून कितना कुछ छुड़ा देता है । भले ही अफसोस न हो । सिर्फ हिंदुस्तान से अमरीका गए लोगों की दूसरी पीढ़ी की कहानी नहीं है नेमशेक । पहली पीढ़ी की कहानी है । जो पहली बार गया अपने मोहल्ले को छोड़ । अपनी गलियों को छोड़ के । परदेस में सब कुछ खो देने के बाद भी तब्बू के किरदार में बहुत कुछ बचा रह जाता है । वह अमरीका से नाराज़ नहीं होती । बस अपने भीतर मौजूद उन तस्वीरों को पाने के लिए उसे छोड़ देती है । ज़माने बाद हिंदुस्तान से अमरीका गए परिवारों के विस्थापन की कहानी में अमरीका को लानत नहीं भेजी गई है । उसे धिक्कारा नहीं गया है । वह एक स्वभाविक मुल्क की तरह है । जो अपने यहां आए लोगों के बीच मोहल्ला नहीं बना पाता । वो यादों का हिस्सा नहीं बन पाता । तब्बू की ज़िंदगी खोते रहने की कहानी है । कुछ पाने की कोशिशों मे । मैं इस कहानी को देख बहुत रोया । अमरीका नहीं गया हूं । पर जहां काम करता हूं वहां कहीं से आया हूं । पंद्रह साल बीत गए । पर हर सुबह आंखों के सामने से गांव गुज़र जाता है । चुपचाप । यह कोई साहित्यिक नोस्ताल्ज़िया नहीं है । मेरे भीतर जो गांव है उस पर दिल्ली का अतिक्रमण नहीं हो सका है । हम सब विस्थापन के मारे लोग हैं । पर कोई अफसोस नहीं होता । शायद इसलिए कि यही तो चाहते थे हम सब । मेरे मां बाप,रिश्तेदार । कि लड़का बड़ा होकर नौकरी करेगा । कुछ करेगा । कुछ भी संयोग नहीं था । सब कुछ निर्देशित । मीरा नायर की फिल्म नेमशेक की तरह ।

वो सारे दोस्त मुझे अब भी याद आते हैं मगर वही पुराने चेहरों के साथ । वो अब कैसे दिखते होंगे जानता नहीं । पंद्रह साल से मिला ही नहीं । पूरे साल दशहरे का इंतज़ार करना । कपड़े की नई जोड़ी के लिए । मेले के लिए दो चार रुपये के लिए बड़ी मां से लेकर मां तक के पीछे घूमना । एक टोकरी धान के बदले बर्फ (जिसे हम आइसक्रीम कहते हैं) खरीदना । बहुत छोटी छोटी तस्वीरें हैं जो अचानक किसी वक्त बड़ी हो जाती है । किसी चौराहे पर हरी बत्ती के इंतज़ार के बीच सामने की होर्डिंग्स पर गांव की वो तस्वीरें बड़ी हो जाती है । फिर गायब हो जाती हैं । हम आगे बढ़ जाते हैं ।

कहानी का सूत्रधार शुरू और अंत में कहता है दुनिया देखो, कभी अफसोस नहीं होगा । यही नियति है विस्थापन की । दुनिया देखने की । बहुत परिपक्व तरीके से मीरा नायर ने इस फिल्म को बनाया है । कोई शोर नहीं है । अमरीकी निंदा का शोर या कोलकाता के गुणगाण का शोर । सब कुछ सामान्य और इतना स्वाभाविक कि लगता है कि इस कहानी में हम सब हैं । जिनका कस्बा, मोहल्ला कहीं छूट गया है । बार बार याद आने के लिए । हम लोगों में से बहुतों के पास वो पहला बक्सा ज़रूर बचा हुआ है जिसे लेकर हम मगध एक्स्प्रेस से दिल्ली आए थे । मैंने आज तक उस बक्से को संभाल कर रखा है । कभी लौटने के लिए । वह बक्सा बचा रहा मेरे साथ । दिल्ली के तमाम मोहल्लों में मकानों के बदलने के बाद भी । टिन का है ।

12 comments:

Jitendra Chaudhary said...

अरे यार! क्या बात याद करा दी।
अभिनव की एक कविता याद आ गयी
आज हैं अपने घर से दूर,
भले कितने भी हों मश्हूर,
हो दौलत भले ज़माने की,
हैं खुशियां सिर्फ दिखाने की,
याद जब मां की आती है,
रात कुछ कह कर जाती है,
ह्रदय में खालीपन सा है,
लौट चलने का मन सा है,
मगर हैं घिरे सवालों में,
रह पाएंगे आखिर कैसे हम घरवालों में।

अब नोस्ताल्ज़िया के व्यवहार के नाते एक अलग सीरीज ही शुरु कर दों वो बिछड़ा मोहल्ला (अविनाश वाला नही, अपने घर वाला) हमने तो अपना मोहल्ला पुराण लिखा है इस पर टाइम मिले तो पढ लेना|

ravish kumar said...

चौधरी साहब
मोहल्ला पुराण पढ़ा । क्या करें अपने भीतर बचे रह गए इन कस्बों, मोहल्लों का । जहाज़ में उड़ते वक्त खिड़की से अक्सर पतंग दिखाई दे जाती है । जिसका धागा हमीं ने मांझा किया था । पतंग को नज़दीक से देख कितना अच्छा लगता है । कसम से ।

azdak said...

यह तो लगभग पद्यात्‍मक समीक्षा हो गई। फ्रेम में मढ़वाकर फिल्‍म की दुबारा कोई कटिंग हो तो मीरा नायर फिल्‍म में यूज़ कर सकती हैं। मोतिहारी-दिल्‍ली लाईन के बीचवाला भी नेमशेक बनना चाहिये। पटकथा की तैयारी पर इरफानवाले सीरियसनेस से सोचना शुरु कर दीजिये।

Raag said...

क्या बढ़िया समीक्षा है, बिलकुल दिल से। देखनी पड़ेगी। (नाम नेमसेक है या नेमशेक?)

Sagar Chand Nahar said...

बहुत कुछ बातें याद दिलवा दी रवीश जी आपने। गुलजार की एक कविता में एक शब्द बदल दें तो कुछ यूं होगा
मैं अपने घर (शहर)में ही अजनबी बन गया हूँ आकर
मुझे यहाँ देखकर मेरी रूह डर गई है,
सहम के सब आरजुएं कोनों में जा छिपी हैं

लवें बुझा दी है अपने चेहरों की, हसरतों ने
कि शौक पहचानता ही नहीं है
मुरादें दहलीज ही पे सर रख कर मर गई हैं
मैं किस वतन की तलाश में युँ चला था घर से
कि अपने ही घर में भी अजनबी हो गया हूँ आकर
॥दस्तक॥

गिरिजेश.. said...

सब्ज़ी लेने जाना अच्छा लगता है क्योंकि हरी-हरी पालक, मूली, सरसों, मिर्च देखकर अपने घर, अपने खेतों की याद आती है। चने का साग खोंटकर उससे गस्से में धनिया-मिर्च की चटनी छुपाकर खाने का स्वाद..। अपने खेत से निकले वो मटर के दाने जैसे आलू जो मिट्टी से निकलकर नवजात शिशुओं जैसे लगते थे।
मुंबई में समंदर के किनारे खड़ा होता था तो कई बार लगता था कि लहरों पर बैठकर मेरा गांव मेरे पास आ रहा है। लेकिन पत्थरों से टकराकर वो छायाएं बिखर जाती थीं।
नेमसेक देखता हूं।

Manish Kumar said...

नेमशेक के पहले ५० पन्ने पढ़े थे, पर समयाभाव की वजह से आगे नहीं बढ़ पाया...जिस तरह से आपको इस फिल्म ने झकझोरा है उससे यही लगता हे कि फिल्म किताब से ज्यादा अच्छी तरह से अपनी बात रख पाई है । विस्थापितों के दर्द को जिस तरह अपनी जिंदगी से जोड़कर आपने प्रस्तुत किया है वो मन को छू गया।

Unknown said...

झुम्पा ने \'इंटरप्रीटर ऑफ़ मैलडीज़\' और \'नेमसेक\' दोनों ही किताबों में बड़ी ख़ूबसूरती से अपने किरदार और यादों को रखा है। मीरा नायर ने इसकी फ़िल्मी व्याख्या की है। बेहद अच्छी फ़िल्म है। फिल्म को देखते समय किताब में लिखी बातें भी याद आ रही थीं। और जो मैं अपने पीछे छोड़ आया वो पल भी ज़ेहन में आ-जा रहे थे। लेकिन आपने अपनी व्याख्या से कई घाव छेड़ दिए। हम सब यही तो चाहते हैं। मैं वहीं तो पहुंचना चाहता हूं जहां आप लोग हैं। लेकिन आज भी अपने गांव में बड़ी लाइब्रेरी बनवाने का सपना संजो रखा है। वो तस्वीरें उतरी कहां हैं दिल से? आपकी बस्ता लेकर गांव लौटने की बात पर मुझे लगने लगा कि कहीं मैं अपने माता-पिता को यहां साथ रखने की ज़िद कर ज्यादती तो नहीं कर रहा हूं। क्या मैं खुद हमेशा यहां रहना चाहता हूं?

Unknown said...

पिछले कुछ दिनों से कस्बे में घूमने मैं भी आ जाती थी। लेकिन आज सिर्फ घूम कर निकल जाना संभव नही लगा। धान के बदले बरफ खरीदना याद आने से अचानक ही कंप्यूटर स्क्रीन धुंधला नज़र आने लगा। कितनी यादें दस्तक देने लगी। वो सब पीछे छूट जाने की कसक कुछ ज्यादा ही महसूस हुई। हमारे तुम्हारे जैसे न जाने कितने हैं इस परदेस में जो अपने अंदर एक गांव छुपाए हुए हैं,आंख बंद कर कभी भी,कहीं भी उसे जिन्दा कर लेते हैं। भले ही हम बक्से के बहाने जाने के सपने देखते हों लेकिन ये तुम्हें भी मालूम है अब लौटना आसान नही। भले ही हमारे गांव औऱ कस्बे का हाल पहले जैसा हो लेकिन ये कस्बा खूब फल फूल रहा है..बड़ा ही अपना लगता है..बधाई..

Prabhat Shunglu said...

कुछ साल पहले एक यूनिवर्सिटी में मास कम्यूनीकेशन फैक्लटी के युवा साथियों के साथ कुछ आपबीति सुनाने का मौका मिला। मीडिया के एक सो-कॉल्ड दोस्त का भी लेक्चर था । वो भी टीवी का बड़ा नाम था। बाद में थोड़े इन्फॉर्मल माहौल में हंसी ठहाकों के बीच उन युवा दोस्तों को न्योता दे डाला कि वे अगर दिल्ली आये तो उनकी मदद करने की भरसक कोशिश करूंगा। बहुतों नें विज़िटिंग कार्ड रख लिये। कुछ ने मोबाइल नम्बर। कुछ महीनों बाद अचानक एक दिन एक 20-22 साल का लड़का मेरे ऑफिस आ धमका। सर पहचाना। देखते ही पूछा। लेकिन मैंने ना में सिर हिला दिया। सर आप यूनिवर्सिटी आये थे... इतनी भीड़ में कोई एक चेहरा याद रखना और वो भी महीनों बाद..लेकिन जब उसने मेरा विज़िटिंग कार्ड दिखाया तो विश्वास करना पड़ा कि वो सही बोल रहा था...सर अब दिल्ली आ गये हैं। नौकरी की तलाश है। सर कुछ कीजिए सर। इससे पहले कि मैं उससे कुछ कहूं उसने मुझे मेरे लेक्चर के कुछ हाईलाइट्स मेरे सामने उगल दिये। सर मैं आपकी बातों से बड़ा प्रभावित हुया था। खैर नौकरी की तलाश थी तो सामने वाले का दिल जीतना भी जरूरी था। उसकी बात खत्म हुयी तो मैने कहा कि इस कंपनी में तो जगह नहीं है अभी लेकिन तुम अपना बायोडेटा मेरे पास रख जाओ। जब मैने उसे उस तथाकथित दोस्त से मिलने को कहा तो उस लड़के ने कहा सर मैं उनके ऑफिस दो बार गया पर घंटो इंतजार के बाद भी वो नहीं मिले। मैने तो आपको भी डर डर के फोन किया कि पता नहीं आप फोन उठायेंगे या नहीं। उठा भी लें तो मुझसे मिलेंगे या नहीं। मैंने कहा कोई बात नहीं,और एक दूसरे चैनल में अपने एक दोस्त को फोन कर पूछा कि क्या उसके यहां नये लोगों की इंटर्नशिप या भर्ती चल रही। एक-आध फोन और किये और उस युवा साथी को खुशी खुशी चाय पिला कर विदा किया।

ये साहित्यिक नोस्ताल्जिया नहीं है, हकीकत बयां की है मैने। उन लोगों के लिये जो अपने गांव और शहर को छोड़ दिल्ली में बढ़िया नौकरी कर रहे और बात बात पर शहर और गांव का ज़िक्र छिड़ते ही इमोश्नल हो जातें है। कहते हैं कि कैसे उनकी रग रग में अब भी उनका गांव बसा है, खेत खलिहान, सरसों और चोखा की बात करते हैं। जिन्हे अपनी मां, बहन, नाना नानी, चाचा चाची, आटा की चक्की सब बहुत याद आते हैं..

लेकिन असल में होंते वैसे ही हैं जैसे कि मेरे उन तथाकथित मीडिया के दोस्त ने उस युवा साथी के साथ किया। ऐसे लोग जिन्होने अपना गांव, शहर छोड़ने के बाद दिल्ली में कई ऊंचाइयां छुई हैं उनसे ऐसे गिरे हुये व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन ऐसे और भी कई उदाहरण इस शहर में बिखरे पड़े होंगे।

ए भाई, ये गांव, शहर की इमोश्नल बाते कर के किसको चूतिया बना रहे हैं हम सब।

हम सब विस्थापन के मारे हैं, ये सच है। लेकिन हम सब बड़े खुदगर्ज हो गये हैं। खुदगर्ज होना हमारे गांव ने हमें नहीं सिखाया था। वो तो हम यहां आकर बन गये। अफसर बन कर बन गये। नाम वाला बन कर बन गये। गांव लौट नहीं सकते। शहर लौट नहीं सकते। तो चलों उस नोस्ताल्जिया में ही जी लें और अपनी पीठ थपथपा ले कि गांव के नाम पर आज भी आंखों में पानी छलक आता है।

गिरिजेश.. said...

प्रभात ने गाड़ी दूसरी ओर मोड़ दी है। अब, कुछ बातें जिन्हें कहना है..

सबसे पहली बात- जिंदगी में बहुत कुछ होता है जिसे लेकर हम कई बार इमोशनल होते हैं। मेरी समझ से इमशोनल होना, किसी बात पर आंसू छलक आना या गला भर आना इस बात की निशानी है कि हममें एक इंसान अभी बाकी है। जो कभी इमोशनल नहीं होता, रोता नहीं, वो मर चुका है। (ये इसलिए कहा क्योंकि बुद्धिजीवी बिरादरी में इमोशनल होने पर बड़े तंज़ किए जाते हैं, जैसा कि प्रभात भी करते दिख रहे हैं। ये बीमारी बड़ी व्यापक है।)

दूसरी बात- मेरे पास भी संघर्ष के दिनों की कुछ कड़वी यादें हैं। लेकिन मैं समझता हूं टीवी के किसी 'बड़े नाम' के लिए किसी उम्मीदवार को कई दिनों तक समय न दे पाना एक आम व्यावहारिक समस्या है। सिर्फ इस प्रमाण के आधार पर इसे 'गिरा हुआ व्यवहार' कहना ठीक नहीं लगता। ऐसा कुछ हमारे आस-पास हर दिन होता रहता है। और हर दिन हममें से कई लोग, कई लोगों की मदद भी करते हैं। इंसान फिल्मी किरदारों की तरह ब्लैक या ह्वाइट में नहीं होता- एक ही समय हम किसी के साथ अच्छे तो किसी के साथ बुरे हो रहे होते हैं। जो किसी के साथ ज्यादती कर रहा है वो भी अपने बीवी-बच्चों और कई लोगों को बहुत प्यार देता होगा। 'पहला पत्थर वो मारे..' की चुनौती का जवाब कोई नहीं दे सकता। तो, कहीं असंवेदनशील होने के चलते किसी का- खेत खलिहान, सरसों और चोखा की बात करने का हक नहीं छीना जा सकता। और न ही उसके नोस्ताल्जिया पर उंगली उठाई जा सकती है। नोस्ताल्जिक होना अपने आप में एक खूबसूरत घटना है। इसका संरक्षण होना चाहिए।

तीसरी बात- मैं सहमत हूं कि 'हम बड़े खुदगर्ज़ हो गए हैं' या फिर होते जा रहे हैं। यहां सजग होने की जरूरत है। ये एक coution है, एक आह्वान है कि महानगरीय जीवनशैली में सूखते जा रहे अपने इंसानियत के रस को बचाने के लिए हम हर संभव कोशिश करते रहें।

ravishndtv said...

आप इमोशनल नहीं होने का चुनाव कर सकते है मगर इसका चुनाव नहीं कि इमोशनल होने के हालात ही सामने न आएं । नेमसेक ने यही तो किया । जो भी देख रहा था उसके भीतर के नोस्ताल्जिया को कुरेद दिया । आप याद करने लगते हैं । बहुत बातें याद आती हैं । गांव की नानी दादी के अलावा । वो लड़की जिसे आप देखते ही रह गए । वो रास्ता जिससे गुजरते हुए आप के भीतर कई यादें हैं । नाई की दुकान । इससे बचना मुश्किल है । पर यह भी सही है कि हम सब शहर में आकर बदल गए हैं । अब गांव के नहीं हो सकते हैं । बल्कि गांव भी गांव जैसा नहीं रहेगा । वहां भी लोग एमटीवी देखने लगे हैं । वहां के लड़के लड़किया जीन्स की पैंट और टीशर्ट पहनने लगे हैं । सस्ते चश्में बिकने लगे हैं । हम जितना नया होंगे उतना ही पुराने को याद करेंगे । तुलना कैसे खत्म होगी । इमोशनल हो तब भी नहीं और रैशनल हों तब भी नहीं