संजय अहिरवाल टीवी पत्रकारिता के पुराने चेहरों में से एक हैं । कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर और दुनिया के तमाम देशों से रिपोर्ट कर चुके हैं । ज़ाहिर है ज़हन में यहां वहां की बातें टकराती होंगी । महिला दिवस पर उन्होंने भारत लंका के अनुभवों को जोड़ा है । एक तरह से सवाल उठा रहे हैं कि हमारी पुरूष आबादी महिलाओं के बारे में इतनी निर्लज्ज क्यों हैं?
दिल्ली की किसी भी ज़ेबरा क्रासिंग पर खड़े हों आप...जब तक एक भी गाड़ी दिखाई दे रही हो...आप सड़क क्रास करने का जोखिम नहीं उठा सकते ..और तो और अगर आपने हिम्मत कर एक दो कदम बढ़ा भी लिये तो सामने वाली गाड़ी के ड्राइवर का पांव एक्सलेटर को और दबा देगा...कि तूने हिम्मत कैसे की सड़क पार करने की जिस पर पहले गाड़ी वाले का अधिकार है..पैदल चलता इंसान तो कीड़े मकोड़े के समान है.जो अगर कुचला भी गया तो गलती उसी की मानी जायेगी
दूसरी तरफ भारत के दक्षिणी तट से ७० मील दूर श्रीलंका है...जहां हम मानते हैं कि एक ज़माने में रावण राज करता था जिसे परस्त्री की कैसे इज़्ज़त की जाती है ज्ञान तक नहीं था..सीता के कारण न सिर्फ उसे अपने राद से बल्कि जान से भी हाथ धोना पड़ा था ..उसी लंका की मैं बात बताता हूं ..आप वहां किसी भी सड़क को क्रास करना चाहते हों यदि आप ज़ेबरा क्रासिंग पर खड़े हैं तो गाड़िया भले ही कितनी सरपट भाग रही हों आपको देख कर खुद ब खुद ड्राइवर गाड़ी रोक देगा । आंखों में भाव होगा..पहले आप..आप पैदल चल कर मेहनत कर रहे हैं...मैं तो गाड़ी रूपी मशीन में बैठा हूं...इसलिये सड़क पर पहला अधिकार आपका है ।
रावण सीता प्रकरण का ज़िक्र भी एक मकसद से ही किया गया है छोटे से द्वीप में औरतों को पुरूषों के बराबार हिस्सा मिलता है..कदम से कदम मिला कर चलती हैं नारी..विश्व में पहली बार प्रधानमंत्री का पद संभालने वाली स्त्री श्रीलंका की श्रीवामों भंडारनायके ही थी जिन्होंने १९६० में सत्ता संभाली थी ..इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने से ६ साल पहले. इंदिरा गांधी के बाग भारत में और महिला सर्वोच्च पद नहीं बैठ सकी..लेकिन श्रीलंका में १९९४ में एक बार फिर चंद्रिका कुमारतुंगे ने राष्ट्रपति का पद संभाला..बात राजनीति में महिलाशक्ति की नहीं है..बात है माइंड सेट की...कांग्रेस में गांधी परिवार की ही चलती है..लेकिन प्रियंका कितनी ज़्यादा करिश्माई क्यों न हों राजनीतिक विरासत राहुल को मिलेगी...या मिल रही है...उसके नाम में गांधी लगा है..प्रियंका के नाम से बडरा जुड़ चुका है परिवार का नाम तो बेटा ही चलायेगा
एक दूसरा माइंड सेट है..समाज में महिलाओं को दर्जा देने के नज़रिये का..आठ मार्च है नारी दिवस..विश्व भर में नारीशक्ति के कसीदे पढ़े जाएंगे..लेकिन ज़रा भारत की राजधानी में किसी भी महिला या लड़की से पूछिये तो कि वो सड़कों पर, बसों में, दिन रात अपने आप को कितना सुरक्षित महसूस करती हैं..घर से निकलने से पहले क्या वो नहीं सोचती कि कहीं उसके कपड़ों पर पुरूषों की निगाहें उसे दिमागी रूप से निर्वस्त्र न कर दे..अरे भड़काऊ कपड़ों को छोड़िये..बसे में लड़कियों से छेड़छाड़, आटो में छिंटाकशी, दफ्तर में खास नजर, पुरूषों को किसी बहाने की जडरूरत वैसे भी नहीं पड़ती..ये कैसा समाज है जिसमें आधी आबादी घबरा घबरा कर जीती है
तो क्या सचमुच रावण की लंका हमें सभ्यता सीखा सकती है.. हमारे यहां भले ही विश्व की प्राचीनतम सभ्यताएं हड़प्पा और मोहनजोदड़ो हुई हैं लेकिन अब हम ढोल पीटने के लिए सभ्य रह गए हैं...लंका सीता के अपहरण के कलंक से आगे निकल चुका है । क्या हम लंका से कुछ सीख सकते हैं
संजय अहिरवाल
सीनियर एडिटर
एनडीटीवी इंडिया
1 comment:
बहुत अच्छा विश्लेषण। मगर हम भारतीय तो पद और पदवी के अलावा किसी भी चीज़ की इज्ज़त नहीं करते। ना कानून की, ना महिलाओं की, ना किसी व्यक्ति की (जब तक कि वो सामाजिक पदवी में हमस् बड़ा ना हो)।
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