छोटे शहर बड़े सपने

हमारी वरिष्ठ सहयोगी और दोस्त हैं शिखा त्रिवेदी। उनकी एक सीरीज़ आ रही है एनडीटीवी इंडिया पर हर शुक्रवार साढ़े दस बजे। शिखा जी ने कहा कि कोई नहीं देख रहा है। मुझे यह बात अखर रही है। लोग क्यों नहीं देख रहे हैं? क्या उन छोटे शहरों के लोग भी नहीं देखना चाहते, जिनके सपनों की छवि है इस कार्यक्रम में। मैं उनके प्रोग्राम का ब्लाग पर प्रोमो नहीं कर रहा। जानना चाहता हूं कि कोई क्यों सपनों की बात पसंद नहीं करता। क्या सिर्फ सपने अकेले किसी रात जागते हुए देखने की चीज़ हैं या सबके साथ बैठ कर बांटने की।

उनसे बात करते करते मैं झांसी के सपनों में खो गया। जनरल स्टोर में एक डाक्टर की बीवी पर अच्छी नज़र पड़ी। सोचा इनके सपनों में कौन सा शहर होगा। झांसी होगी। वो काफी सज-संवर कर दुकान में आयी थी। खुद कह रही थी- हमारा पति डाक्टर है। हमें मालूम है मैगी का फायदा नुकसान। स्लीवलेस ब्लाऊज, खूबसूरत साड़ी और शाम का वक्त। तभी उनके पति आ गये। मुझे पहचाना। कहीं आप टीवी में तो नहीं। मैंने कहा- हां, लेकिन अभी तो इस दुकान में हूं। और आपकी पत्नी से बात करना चाहता था। डाक्टर साहब ने कहा अरे घर चलते हैं। मैं उनकी कार में बैठ गया। एक अजनबी से चंद मिनट पहले हुई मुलाकात दोस्ती में बदल रही थी। आपको यह भी बता दूं कि डाक्टर साहब भी कम सजे धजे नहीं थे। दोनों की उम्र पचास के आस पास होगी।

घर पहुंचने से पहले ही मैंने पूछ दिया- आप दोनों के सपने क्या हैं? डाक्टर साहब बोले- बहुत हैं। हर वक्त बदल जाते हैं। यहां बिजली नहीं होती इसलिए सपने देखने का वक्त मिल जाता है। मैंने उनकी पत्नी से कहा- आपने सपनों के बारे में कुछ क्यों नहीं कहा। थोड़ी हंसी के बाद कहा कि सपने पूरे हो चुके हैं। जो सामने है वही सपने जैसा लगता है। मैंने कहा- डाक्टर साहब अब भी सपने जैसे लगते हैं। तो गाड़ी में दोनों हंस पड़े। सफाई देनी पड़ी कि बेटे जैसा हूं इसलिए बेतकल्लुफ हो गया हूं। और मुझे ऐसा होने दीजिए।

दोनों ने कहा कोई बात नहीं। हम घर पहुंच चुके थे। पहली मुलाकात में दहलीज पार। लेकिन मैं सपनों के पार जाना चाहता था। कहा कि छोटे शहरों में रहकर आपको नहीं लगता कि सपनों से दूर हो गये हैं। तभी नज़र उनके ड्राइंग रूम पर पड़ी। करीने से सजा कर रखा गया कमरा। बिल्कुल सपने की तरह। मैंने छोटे शहरों में देखा है- ठीक ठाक लोगों के ड्राइंग रूम खूब सजा कर रखे जाते हैं। मसूरी में खिंचायी गयी बीस साल पुरानी मियां बीबी की तस्वीर। सोफे पर क्रोशिया का कवर। बेटी की बनायी पेंटिंग्स। और दिल्ली के व्यापार मेले से खरीद कर लाया गया लैंप पोस्ट। सेंटर टेबल। महानगरों में भी ऐसा ही होता है। मगर कस्बों के ड्राइंग रुम का एहसास महानगरों से अलग होता है। लगता है किसी ने अपने सपनों को बाहर के कमरे में सजा कर रख दिया है। वहां आप का भी स्वागत है। अचानक आ जाएं तब भी।

तभी मिसेज माथुर ने कहा- हम सपनों के बहुत करीब हैं। हमारे सपने यहीं तक के थे। दोस्तों से शाम के वक्त मिलना जुलना हो जाता है। इनवर्टर से गर्मी की रात कट जाती है। फिल्में नहीं देख पाते। कोई अच्छा सिनेमा हाल नहीं है। डाक्टर माथुर ने कहा ऐसा भी नहीं कि हम वक्त से पीछे है। बच्चे बाहर हैं। फुर्सत में हम उनके भी हिस्से का सपना देख लेते हैं। बहुत दिल किया- काश, शिखा जी हमारे साथ होतीं। इस बातचीत में। सपनों की साझीदारी में। क्या हुआ उनका प्रोग्राम किसी ने नहीं देखा। बेहतर होने के बाद भी। मैंने माथुर परिवार से कहा- शिखा ने छोटे शहर बड़े सपने एक कार्यक्रम बनाया है। डाक्टर साहब बोले- अरे हमें पता होता तो हम उनका भी कार्यक्रम देख लेते। सपने ही तो हैं। किसी के भी हों। सपने अच्छे होते हैं। देखना चाहिए। चाहें आप किसी भी शहर में रहें। सपने देखिये। एक अजनबी से इतनी अंतरंग बातचीत सपना ही तो है। हकीकत को भी सपने जैसा होना चाहिए। हम सबके भीतर एक छोटा शहर है। जहां हम लोगों से नज़रे चुराकर चुपचाप सपने देखने चले जाते हैं।

15 comments:

Manish Kumar said...

किसने कहा नहीं देख रहे हैं लोग , कल चैनल बदलते बदलते कानपुर की कहानी आती सुनाई दी और तब तक देखते रहे जब तक खत्म नहीं हुआ । अच्छा विषय चुना है शिखा जी ने उनको बधाई पहुँचा दें। वैसे बिहार के शहरों को भी कवर किया है क्या उस सीरीज में ?
वैसे एक बात कहूँ अच्छे कार्यक्रमों के बारे में जरूर जानकारी दें । हम लोग टीवी खासकर न्यूज चैनल से उकताए हुए लोग हैं और ये चैनल तब लगाते हैं जब कोई और चारा ना बचे ।

Ashish Maharishi said...

रवीश जी शिखा जी को सबसे पहले इस प्रोगाम के लिए साधुवाद। मैं हर रोज इस प्रोगाम को देखता हूं। माना कि आज टीआरपी के युग में अच्‍छी चीज नहीं बिकती है। लेकिन हमें तो बस ईमानदारी से प्रयास करना चाहिए।

cell no 9867575176

अफ़लातून said...

इलाहाबाद में व्यवस्था का हिस्सा बनने को लालायित बेरोजगारों और दसवीं बार में सफलता पाने वाले अफसर के उपन्यास की बिक्री की खबर देखी । शिखाजी की रपट अच्छी होती हैं , खुद पर यक़ीन रखें ।

shitcollector said...

Shikhaji se kahiyega auroon ka pata nahi par main zaroor dekh raha hoon. Idea accha hai par dekhne ka nazariya zara "elitist" hai.
Aur jis tarah se Bunty aur babli film ke clips aur gaane ka istemal kiya gaya hai,mujhe bilkul pasand nahi aaya. Bunty aur babli chote shahroon ke khawaboon ko sahi tarike se nahi darshate. Jo log un shahroon se sapne lekar chalte hain we bunty aur babli se kafi alag hote hain..pyaar mohabbat me sab gum nahi ho jata jaise film me dikhaya gaya. yashraj ka marketing idea isliye mujhe behad bekaar laga tha. Aur Shikhaji ke karyakaram me bus yehi ek shikayat hai.

Rajesh Roshan said...

This is dedicated to Shikha ji. I made a stub on wikipedia. and tell her write some good scripts.

http://en.wikipedia.org/wiki/Small_Towns_Big_Dreams

Thnaks

अनूप शुक्ल said...

देखिये आपने यहां जिक्र किया शिखाजी के इतने प्रशंसक मिल गये। उनसे कहिये अपना ब्लाग भी बनायें और प्रशंसक मिलेंगे। पोस्ट अच्छी लगी।

rachana said...

मैने अभी तक ये प्रोग्राम नही देखा है...जरूर देखना चाहूँगी..छोटे शहरों का सब कुछ अच्छा लगता है..सपने भी और हकीकत भी..

azdak said...

चलिये, इसी बहाने हमको भी खबर हुई कि एनडीटीवी ऐसा कोई कार्यक्रम कर रहा है.. और ना-ना करते आपने सहकर्मी का प्रोमो कर ही लिया!

Raag said...

मेरे ख्याल से प्रोमो करना गलत भी नहीं है, रवीश जी कुछ रेकमंड करेंगे तो देखने लायक होगा ही। रवीश जी एनडीटीवी इंटरनेट पर मुफ्त करवा दीजिए, प्लीज़ज़ज़ज़ज़ज़ज।

Shiv said...

Shikha ji ki shikaayat laazmi hai.Mujhe vishwas hai ki log nahin dekh rahe.

Kaise dekhenge?SMS karke apna naam TV par dekhne ka mauka nahin milta aise karykramon mein.'Darshkon' ko TV par apna naam dekhne ka sukh dein aur uska asar dekhiye.Shikha ji ka ye karykram 'hit' ho jaayega.

Manjit Thakur said...

बहुत पहले किसी ने मुझसे कहा था कि कोई सपना देखो और उस पर यकीन रखो तो वह सच होगा। क्या कहूं कि वह कहना सच है... रवीश भाई सपने के रंग बदलने लगे हैं. इसका सतरंगापन चुक रहा है. गांव, कस्बे और शहर के सपनों की परिधि में अंतर होता है। उनके रंगों में अंतर होता है..वैसे ही जैसे फिल्मों के रंगों में होता रहा है.. श्वेत-श्याम से लेकर ईस्टमैन कलर और फिर इंद्रधनुषी रंगों के....साथ ही सपनो ंकी भाषा में भी बदलाव आ गया है. शहर के सपनों में और गांव के सपनों में भाषाई अंकर पैदा हो गया है. हम लोग अपना सपना हिंदी में देखते हैं और फिर उसे प्रकट करना पड़ता है अंग्रेजी में. यह विसंगति हमारी पीढ़ी की विसंगति है.. और यही सबसे बड़ा फ्रस्ट्रेशन भी..

मंजीत ठाकुर,

Jitendra Chaudhary said...

भई हम तो यह प्रोग्राम नही देख सकते, क्योंकि मिडिल ईस्ट में NDTV 24x7 तो आता है, लेकिन NDTV India नही।

छोटे शहर बड़े सपने। ह्म्म! बहुत अच्छा विषय है। मै भी कानपुर जैसे छोटे शहर से पहले दिल्ली फिर कुवैत आया। लेकिन सच बोलूं, आज की इस भागदौड़ की जिन्दगी मे अब भी दिल के किसी कोने मे कानपुर ही बसा है। वो बेफिक्र, बेतकल्लुफ़ सा, उंनीदा सा, धीमी रफ़्तार वाला मेरा अपना शहर। सुविधाए हो या ना हों, इससे क्या फर्क पड़ता है, लेकिन लोगों मे वो अपनापन वो सहजता और कहाँ। बड़े शहरों मे कहाँ दिखता है ये सब?
यहाँ अगर आपको देखकर कोई मुसकरा भी दे तो समझो, आपको कुछ ना कुछ टोपी पहनाने ही वाला है।

इस पर खैर फिर कभी। अरे यार! तुम बहुत दिनो बाद लिखे, कहाँ हो आजकल?

ravish kumar said...

jitendra jee..

Small Town Big Dream 27\4/7 par bhi aataa hai. friday evening. main aaj kal jhansi kanpur se up ka chunaav cover kar raha hun. isliye blog par kum hun

पाणिनि आनंद said...

रवीश भाई, आपके माध्यम से शिखा जी को बहुत-बहुत धन्यवाद प्रेषित कर रहा हूँ. इलाहाबाद वाली कहानी तो काफी अच्छी लगी. दरअसल, इन शहरों में रोज़ छपने वाले अख़बारों और अक्सर सामने आने वाले फ़ुटेज से कई ऐसे सवाल अभी भी अनछुए हैं जो महत्वपूर्ण हैं, बुनियादी हैं पर उपेक्षित हैं... शिखा जी, इसकी चिंता मत कीजिए कि कितने लोगों ने कार्यक्रम देखा. कई कार्यक्रम रोज़ टीआईपी बढ़ाते हैं पर कितनों को अगले दिन याद रहते हैं यह भी तो सोचिए. आपके उठाए सवाल लोगों के जेहन में ज़िंदा रहेंगे... लंबे समय तक.

Prabin Barot said...
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