काम न होने का मानसिक तनाव

दफ्तर में हर आदमी हर दिन काम नहीं करता । तब क्या करता है ? जाता है और लौट आता है ? नहीं । वो काम करते हुए दिखने की कोशिश करता है । किसी के पास काम नहीं तो सीनियर से नज़रें बचाने की कोशिश करता है । कंप्यूटर पर बार बार लांग इन करता है । फिर मेल लिखता है । फिर फोन देखता है । एसएमएस करता है । वो एक मानसिक तनाव का शिकार हो जाता है । काम न करते हुए देखे जाने का मानसिक तनाव । कुछ लोग जो काम नहीं करते वो अचानक किसी दो की बातचीत में शामिल हो जाते हैं । दो में से एक का समर्थन करने लगते हैं । हंसने लगते हैं । कुछ लोग अपने सीनियर की रिपोर्ट पर एसएमएस भेजने लगते हैं । एक सवाल और है कि सीनियर के पास काम नहीं होने पर वो क्या करता है ? उसके तनाव क्या होते हैं ? बहरहाल इस सवाल को छोड़ते हुए मूल सवाल पर लौटते हैं । कुछ लोग बार बार चाय पीने जाते हैं । बैंक चले जाते हैं । चेक जमा करने । घर के सारे काम याद आने लगते हैं । और वक्त है कि बढ़ता ही नहीं । उस दिन घड़ी की सूई ठहर जाती है । बॉस का पास से गुज़रना और उसका घूरना जानलेवा हुआ जाता है । कुछ लोग इसे सनातन मान कर बेशर्म हो जाते हैं । वो अगले दिन भी यही करते हैं । कुछ लोग फोन कर दोस्त को कहते हैं यार बोर हो गए । कुछ नया किया जाए । नया क्या करें यही पता होता तो फोन करने वाला व्यक्ति बोर ही न होता । होता क्या ? पर वो लंबी सांसे छोड़ता हुआ अपने अपने पेशे में आ रही गिरावट पर चर्चा करता है । फिर टाइम्स आफ इंडिया में तनाव और बीमारी पर छपे लेख की चर्चा करता है । उधर से फोन पर सुन रहा मित्र बेमन से कहता है यार इतना टेंशन मत लो । ज़िंदगी काम से बड़ी नहीं । उसकी कीमत है । दफ्तर तो बदल जाएगा । ज़िंदगी नहीं मिलेगी । फोन पर मित्र काम न करने वाले मित्र को यह भी कहता है अपने दफ्तर में इसे देखो, उसे देखो, क्या वो कभी काम करते हैं ? वो कहां से कहां पहुंच गए । और तुम वहीं के वहीं रह गए । जल्दी ही उन लोगों की लिस्ट तैयार होती है जो कुछ लोगों की नज़र में काम नहीं करते मगर तरक्की पाते हैं । ऐसे लोगों की वजह से ही काम न करने वालों का तनाव कुछ हद तक कम हो जाता है । दोस्त इनका नाम लेकर सलाह देते हैं - टेंशन से बचो और बॉस को बोल दो आज कोई काम नहीं । (पत्रकारिता में कहते हैं आज कोई स्टोरी नहीं है) बस काम न करने वाले को दिलासा मिल जाता है । और वो शिफ्ट खत्म होने के बाद घर चला जाता है ।

मैं आप सबसे जवाब चाहता हूं कि आप सब ऐसी मनस्थिति में क्या करते हैं ? सोच कर विस्तार से जवाब लिखें ताकि इस दैनिक समस्या की कोई सामाजिक तस्वीर नज़र आ जाए । हम सब सामूहिक रूप से किसी नतीजे पर पहुंच सके । मनोचिकित्सक के पास जाने का खर्चा बचा सकें । दोस्तों ज़रा खुल कर लिखना । बताना कि आप जब काम नहीं कर रहे होते हैं तो सबसे ज़्यादा प्रेरणा किससे मिलती है । चमचागिरी के आरोप के साथ ऊपर पहुंचे व्यक्ति से या बहुत काम करने वाले व्यक्ति से आदि आदि....। इंतज़ार रहेगा ।

14 comments:

azdak said...

रवीश कुमार, इन लालित्‍यपूर्ण कल्‍पनाओं का कहां अंत होगा? ज्ञान चतुवेर्दियों को जीने देंगे या नहीं? पत्‍नी आपको घर से खेदकर अंदर से ताला चढ़ा लेती है या नहीं? मोतिहारी में आपके खिलाफ लोगों ने मोर्चा खोल लिया हे या नहीं? और हिंदी प्रकाशक आपको हैंडल करने की कौन-सी विशेष रणनीति तैयार कर रहे हैं?.. टीवी वालों के पास इसकी क्‍या रिपोर्ट है? कृपया पहले इन सवालों का विस्‍तार और जिम्‍मेदारी से जवाब दें।

अभय तिवारी said...

भाग्यशाली हैं वे लोग जो समाज के कामकाजी अंग हैं.. हम तो निठल्लों की श्रेणी में हैं.. किस मुंह से सलाह दें आपको.. काश हम भी आपको कुछ गुर बता कर जीवन सार्थक कर सकते..हमदर्दी भी नहीं दे सकता.. आपके दर्द से मैं नितांत अपरिचित हूँ..

Avinash Das said...

देखिए, कुछ कहूंगा तो लोग कहेंगे माइंड झाड़ रहा है। लेकिन कहना ही होगा। काम न करने की मानसिकता सिर्फ उस आदमी की मानसिकता नहीं होती, जो काम नहीं कर रहा है। यह पूरी व्‍यवस्‍था से जुड़ा हुआ मामला है। बहुत सारे लोग काम नहीं करते हैं, लेकिन व्‍यवस्‍था चलती रहती है। हम-आप जिस पेशे में हैं, उसमें ये प्रसंग लिखना चाहिए कि जब ब्रेकिंग न्‍यूज़ सिचुएशन होती है, तब पूरा न्‍यूज़ रूम भागता-दौड़ता हुआ दिखता है। लेकिन ये भाग-दौड़ कहीं पहुंचने के लिए नहीं होती। किसी को रोक कर कोई पूछ ले कि भाई क्‍या कर रहे हो, तो वह शर्म से गड़ जाएगा। फिर भी ब्रेकिंग न्‍यूज़ हैंडिल होती रहती है। ये सब कैसे होता है? वो कौन ईश्‍वर है, जो कामचोरों की जमात से भी काम निकलवा लेता है और टीआरपी बढ़वा लेता है। आपको उस ईश्‍वर की खोज करनी चाहिए, और उसको कोसना चाहिए। न कि हम जैसे साथियों को, जो काम न करते हुए भी भरपूर कामकाजी दिखते हैं।

गिरिजेश.. said...

काम न होने पर हम तो भई नई सड़क या मोहल्ले तक घूम आते हैं। लेकिन यहां भी पंडित रवीशानंद सरस्वती आइना लेकर डराने खड़े हो गए। जाऊं कहां बता ऐ दिल, दुनिया बड़ी है संगदिल। इनका ये लेख 'देखो गधा...' वाली उस लाइन जैसा है जो 'प्रेशर' का मारा होने पर किसी दीवार पर लिखी मिलती है।
लेकिन आप भी जान लीजिए रवीश बाबू, उस लिखे के आस-पास की जमीन हमेशा गीली ही रहती है।

Jitendra Chaudhary said...

देखो भैया,
जहाँ तक काम ना होने की बात है, अक्सर ऐसा होता है, हालांकि कोई भी ये मानने को तैयार नही होता कि वो आफिस मे कभी फालतू भी बैठता है।

अगर आप सीनियर है और फालतू है, तो मीटिंग कीजिए, टाइम किल करने का इससे अच्छा साधन और कोई नही। किस मुद्दे पर? अमां मुद्दे तो हजार मिल जाएंगे, टीवी वाले टीआरपी पर, कम्यूटर वाले तकनीक पर, ...वगैरहा वगैरहा। मीटिंग के पहले का हफ़्ता एजेन्डा बनाने मे निकाल दो, मीटिग का इन्तजाम हजार काम है यार। अब जब मीटिंग होगी तो किसी किसी पर कुछ काम करने की गाज तो गिरेगी ही। अब अगला हफ़्ता मीटिंग के मिनट्स बनाने और एप्रूव कराने मे निकाल दीजिए। जब इन सबसे फ्री हो, अगली मीटिंग की तैयारी मे जुट जाइए।

भारत एक मीटिंग प्रधान देश है।

अगर आप जूनियर हो (और जब सीनियर मीटिंग मे व्यस्त हो) तो ब्लॉग लिखिए ना। अपने सम्पर्कों का प्रयोग करते हुए, ब्लॉगिंग विधा को प्रचारित प्रसारित करिए। हर जगह। समय ही नही बचेगा पूछने का, 'यार फ्री टाइम मे क्या करें?'

Anil Dubey said...

abhi main office mein hun aur mujhe kaam nahi hai.aur dekhiye to hai bhi.waise kam nahi hai ,tabhi to kasbe mein ghum raha hun.nahi to pichhle char dinon se to fursat hi nahi mili. itni bhi nahi ki kasbe ki gumtiyon par ja kar paan kha aayen....

Unknown said...

दफ़्तर में हमेशा काम हो ये मुमकिन नहीं। आदमी आराम भी करता है। मैं भी ताल ठोक कर आराम के दौरान मोहल्ला, कस्बा या किसी और ठिकाने की सैर कर लेता हूं। यहां अनाप-शनाप बोल कर भड़ास निकाल लेता हूं।
मैंने भी कई लोगों को जल्द ही तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते देखा है। आपत्ति उनसे हैं जो दूसरे के काम को बॉस के सामने चिल्ला कर अपनी क़ाबिलियत बताते हैं। और टोपी पहन लेते हैं। मैं भी बॉस की नज़र में आना चाहता हूं। मैं चाहता हूं रोज़ उनके कान में जाकर उगल दूं देखिये मैंने ये सब किया है। लेकिन फिलहाल मन को समझा नहीं पाया हूं। ये बातें छोटी लगती हैं। सीख रहा हूं। कम-से-कम अपनी मेहनत की टोपी मैं खुद पहनुंगा। मुझे मेरे काम का श्रेय चाहिए। बाक़ी कोई चापलूसी करके अपनी कितनी भी बना रहा हो। मेरी उससे कोई प्रतियोगिता नहीं है। मेरी दुनिया अलग, उसकी अलग।

Rajesh Roshan said...
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Rajesh Roshan said...

Main to aisa maanta hi aadami chahe to khali nahi ho sakta. Kuch to kar hi sakta hai. Office ka na sahi, kuch constructive, kuch productive to kar hi sakte hain. Apna blog likhiye, comment dijiye. Jung me jai bolne wale bhi mahan hote hain. Vinod Dua ji kahte hain poll mein hissa lijiye isse fark padta hai. Main manta hu ki kalyugi baabwo mein sms karne se accha hai ki poll mein sms kare, na kar paaye to sms poll ko dekhe jaroor isse fark padta hai.
Jis office mein hum khali bathe hain wahi par koi kaam ke bojh se daba ja raha hai, uska haath baataye. Ye nahi ho sakta!!! Kyonki wo to abhi junior hai. hai na. Baat kadwi hai lekin sachhi hai. Ye jaadu ki jhappi ki tarah hai mere bloggers bhaaiyo. :)

Soochak said...

क्या किया जाए। काम न हो तो समझ के बाहर होता है व्यस्त रहना। पर यही से ये सवाल भी खड़ा होता है कि काम क्यों नहीं है। दो वजहें है। आपकी सीमितता और आपकी झिझक। दोनों ही कारक है विकास का। दरअसल टीवी चैनलों में काम का बंटवारा आपको चिन्हित सा कर देता है। इनपुट, आउटपुट। लेकिन एक और वजह है। ये है आपकी सामाजिक विकास या दायरा। अमूमन रिपोर्टिंग करने वालों को माना जाता है कि वे लोगों से इंटरएक्ट करते होंगे।लेकिन जहां भी चार यार मिले, एक ही तरह की बातों का अंबार लग जाता है। सो खालीपन को भरने के लिए एक ही तरह की बातें। आफिस में ये महसूस होना कि हम खाली है, परिचायक है कि आप खुले माहौल में काम नहीं करे रहे है। या ये कि आप अपने प्रति आभार पाने के ज्यादा ही चाहने वाले है। टीवी पर दिखते दिखते या टीवी की गति से काम करते करते और दिखने दिखाने या करने या हिस्सा होने के ज्यादा कायल हो चले है। मजबूरी है। इसे ढोना पड़ेगा। लेकिन एक रास्ता है। आप ये बात ऊपर रख दें। कि हम भी खाली रहते हैं। हमें काम करने से परहेज नहीं। पर कभी कभी क्या करें समझ नहीं आता। ज्यादातर कार्यालयों में खाली वक्त बिताने का कोई जरिया नहीं होता। इमारतों में कैद आफिसों में समय काटना मुश्किल होता है। सो खुले आफिस में खुले माहौल की दरकार है। इसके अलावा खाली वक्त में खालीपन को भरने के सामाजिक तौर तरीकों को फिर से जिंदा करने की भी। जैसे समाज के बारे में बात करके, अपने आसपास पैर फैलाते दुरभिसंधियों पर औऱ अपने सीमितता के आकलन पर। पढना पढ़ाना आपका रोज का पेशा है। लेकिन सामान्य होकर लोगों से जुड़ना आप भूल सा गए है। सो जुड़िए। यही रास्ता है।

Unknown said...

daftar mein jab kaam nahin hota to apne hi jaise kisi bekar aadmi ko dhoondkar charcha hoti hai ki is daftar mein aisa kya hai jiske liye kaam kiya jaye. Phir jab inse bhi mann bhar jata hai tab bari aati hai boss ke chamche per ek lambe vyakhyan ki kis tarah yeh buddhiheen apni chamchayi ke bal per aaj office mein sabse kabil mana jata hai. Is chamche ko galiyan dekar din bhar ki karyvahi ko viram dekar ghar ka rasta lete hain

Sagar Chand Nahar said...

"यार इतना टेंशन मत लो । ज़िंदगी काम से बड़ी नहीं । उसकी कीमत है । दफ्तर तो बदल जाएगा । ज़िंदगी नहीं मिलेगी "
॥दस्तक॥

ajai said...

ravishji
kam na hone ka gam nashedion ko nahi hota,unka kam to paan beedi se chal hi jata hai.unka kya karen jo apne kam ki topi doosre ko pahna kar manager hone ka swang karte hai.inka bhi kuch kiya jaye.lagta hai ye samasya aapke yahan bhi hai.

VIMAL VERMA said...

ravish baabu
kamaal ke vishay par aapne kalam chalai hai.daftar mein khalipan to lagta hai har jagah vyapt hai.logon ke javaab bhi pathneey hain.ummeed karta hoon is chrcha ko aage bhi zaari rakhiyega.