चलने का अधिकार

क्या आपको नहीं लगता कि चलने का भी अधिकार होना चाहिए? क्या कभी हमने सोचा है कि ग़रीबी रेखा से नीचे के लोगों की गतिशीलता का माध्यम क्या होगा? क्या कभी हमने सोचा है कि शहर के भीतर आर्थिक रूप से चलने की अक्षमता ने लाखों लोगों को आर्थिक अवसरों से दूर रखा है और घर होते हुए भी बेघर बनाया है? ग्रामीण और शहरी ग़रीबों और बेघरों को सामाजिक सुरक्षा के तहत मिलने वाले अधिकारों के तहत चलने का अधिकार भी दिया जाना चाहिए।

इन सवालों से टकराने का मौका मिला पिछले एक साल में। दिल्ली की सड़कों पर घूमते हुए ऐसे कई लोग मिले जो चलने में आर्थिक रूप से लाचार हैं। पश्चिम दिल्ली के बवाना और सावदा घेवरा में दिल्ली भर से उजाड़े गए लोगों को बसाया गया है। ज़्यादातर के लिए काम करने के जगह की दूरी पचीस से तीस किमी हो गई है। दक्षिण दिल्ली के सरोजिनी नगर मार्केट के पास की झुग्गी से उज़ड़े परिवार को यहां बसाया गया तो उनका मुखिया बेघर हो गया। राजीव गांधी आवास योजना के तहत घर मिलने के बाद भी ज़रीना के पति हफ्ते में एक दिन घर आते हैं। बाकी दिन बेघरों की तरह पटरियों पर सोते हैं क्योंकि घर आने के लिए हर दिन पचास रुपये बस का किराया नहीं दे सकते। पांच लोगों के परिवार का मुखिया महीने में पंद्रह सौ रुपये बस में खर्च करेगा जो बाकी सदस्यों की गतिशीलता भी प्रभावित होगी। लिहाज़ा घर वाले बेघरों की संख्या बढ़ती जा रही है।

इसी तरह दिल्ली शहर में कई लोग साइकिल चलाते मिलेंगे। पर्यावरण को बचाने के लिए नहीं बल्कि किराया बचाने के लिए। हर दिन तीन से चार घंटे लगाकर पंद्रह से बीस किमी की दूरी साइकिल से तय करते हैं। कई लोग तीन चार स्टॉप तक पैदल चलते हैं ताकि बस का किराया बचा सकें। उस पर भी सरकार ने फुटपाथ और साइकिल ट्रैक दोनों खत्म कर दिये हैं। वैसे भी अलग से साइकिल ट्रैक बनाने का मुद्दा इस देश में सिर्फ दिल्ली में ही उठता है। मुंबई, जयपुर,भोपाल,लखनऊ में क्यों नहीं उठता? जबकि सभी शहरों का विस्तार हुआ है और शहर के भीतर की दूरियां पहले से काफी बढ़ गईं हैं। मेट्रो ने इस स्थिति को और भयानक बनाया है। ग़रीबों को तीव्र गतिशीलता से वंचित किया है। मेट्रो में किसी तरह की रियायत नहीं है। मेट्रो के पास बनी झुग्गियों में गया। वहां के लोग मेट्रो को अफसोस के रूप में देखते हैं। देश के किसी भी ग्रामीण इलाके में चले जाइये किराया बचाने के लिए लाखों लोग हर दिन जान पर खेल कर बस से लेकर ऑटो में लटक कर सफर करते हैं। किसी भी शहर में पचास पचीस लोग टाटा 407 में भी खड़े होकर सफर करते दिख जायेंगे। इनके पास किराये के पैसे नहीं होते इसलिए दो या पांच रुपया देकर खड़े होकर अपने काम या रहने की जगह पर पहुंचते हैं। गांव से शहर, शहर से महानगर पलायन करने के लिए बड़ी संख्या में लोग साहूकारों की चपेट में भी आ रहे हैं।

हमारे देश में तीस करोड़ से ज्यादा लोग ग़रीब बताये जाते हैं। मुझे हैरानी होती है कि अभी तक इनके चलने-फिरने के अधिकार के बारे में क्यों नहीं सोचा गया? क्यों सरकार ने बीपीएल कार्डधारियों को सरकारी बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा का एलान नहीं करती है? जवाहर लाला नेहरू नेशनल अर्बन रिनुअल मिशन के तहत सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाने की बातें कहीं गईं हैं। इसके तहत कई शहरों को बस के लिए फंड दिए गए हैं। आप अपने शहर की बसों पर जेएनएनयूआरएम लिखा देख सकते हैं। ये सारी सुविधा पब्लिक के लिए है तो ग़रीब पब्लिक को क्यों वंचित रखा जा रहा है।

दिल्ली शहर में ऐसे सैंकड़ों लोगों से मुलाकात हुई जो सरकारी पैमाने से ग़रीब नहीं हैं मगर चलने में आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं। दिल्ली परिवहन निगम के एक टिकट इंस्पेक्टर ने बताया कि बेटिकट यात्रियों में ज्यादातर वही लोग होते हैं जो पंद्रह रुपये का टिकट नहीं ख़रीद सकते। हज़ारों की संख्या में प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड किराया लेने में सक्षम नहीं है। उनकी तनख्वाह पांच या छह हज़ार से ज्यादा नहीं है। बल्कि कई मामलों में इससे भी कम होती है। लिहाज़ा वो वर्दी पहनकर भी पचीस रुपये का टिकट नहीं ले पाते। उसी तरह हिन्दुस्तान में रिटेल क्रांति करवाने वाले लोगों को पता भी नहीं होगा कि दक्षिण दिल्ली के ही तमाम मॉल में काम करने वाले कर्मचारियों का बड़ा हिस्सा बस में बिना टिकट सफर करने के लिए मजबूर है। सरकार या नीतियां बनाने वालों को इल्म नहीं है। शहरी क्षेत्रों में राजनीति करने वाले लोगों को भी इस तरह के मुद्दों को परखने के लिए वक्त नहीं है। ममता बनर्जी अच्छा खासा कमाने वाले पत्रकारों को परिवार के साथ साल में दो बार रेल यात्राएं करने की छूट देती हैं। वाहवाही लूटने के लिए। ग़रीबों को ऐसी छूट मिलेगी तो वाहवाही भी मिलेगी और वोट भी।

सरकारी बसों में स्वतंत्रता सेनानी, विकलांग, मान्यता प्राप्त पत्रकार, सांसद और विधायकों को मुफ्त आरक्षित सीटें देती है। इनमें से पहले दो को छोड़ दें तो बाकी तीन कैटगरी को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए। बीस लाख की कार में चलने वाला कौन सा सांसद या विधायक अब सरकारी बसों में चलता है। दिल्ली परिवहन निगम की बसों में आम लोगो के लिए नॉन एसी बस का मासिक रियायती पास 815 रुपये का बनता है। अगर आप मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं तो यही पास 100 रुपये का बनता है। फिर इसी दलील से मान्यता प्राप्त ग़रीबों को बस और ट्रेन में चलने के लिए रियायती या मुफ्त का पास क्यों न हो? बस या ट्रेन में रियायत मिल सकती है तो मेट्रों में क्यों न मिले?

शहरी ग़रीबों या बीपीएलकार्ड वालों के लिए मेट्रो में भी फ्री कार्ड होना चाहिए। सरकारी ज़मीन पर बने महंगे प्राइवेट अस्पतालों में ग़रीबी रेखा से नीचे के लोगों के लिए बिस्तर आरक्षित है। सरकारी ज़मीन पर बने महंगे प्राइवेट स्कूलों में ग़रीबों के बच्चों के लिए सीटें आरक्षित हैं। अदालतें भी इसके लागू होने की खोज खबर लेती रहती हैं तो उनकी निगाह से भी ग़रीबों के चलने का अधिकार कैसे छूट गया।
(साभार-राजस्थान पत्रिका)

22 comments:

Anonymous said...

सीधे एक कड़ी जनसँख्या नीति लागू करने की मांग क्यों नहीं करते? साधन तो पहले की तुलना में अधिक हैं, पर आबादी कहीं तेजी से उन्हें निगल जाती है.

जड़ पर प्रहार करने में क्यों सबकी नानी मरती है?

prabhatdixit said...

gareebo par reportig RKR se bhi jyada marmsparshi hoti hai,leki apke aise blogs padkar dil baith jata hai.ek dhang ka comment bhi nahi kar pata.
samajh mein nahi aata ye kaise badal sakta hai.
gareebo ki sochne wale bahut hai iss desh mein,,afsos...unke liye karne wala koi nahi.
sayad unhein apni jung khud hi ladte rehna hai.
namaskar.

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बिल्कुल सही है ...पर कौन सोचे इनकी गतिशीलता के विषय में.....

om sudha said...

apki report mujhe achhi lagti hai...bina chochlebazi ke..kabhi hamare bhagalpur aaiye..hamare yahan aaj bhi dom jati k aadmi ko insan nhi samjha jata

Rahul Singh said...

फ्री की सुविधा और फ्री का जुगाड़.

प्रवीण पाण्डेय said...

जब तक गरीबी की सही पहचान और उसका सही निदान नहीं होगा, गरीबी बनी रहेगी।

Kunal Verma said...

ऐसे ही जब मैँ भूखे-नंगे लोगोँ को देखता हुँ तो दिल भर आता है।आखिर एक आम आदमी क्या कर सकता है?

Dr Shuchita Vatsal said...

Well scripted .. Sir,keep going...
"Jo bhi neetiyaan sarkarein banati hain,woh kisi ke welfare ke liye kam, aur propaganda ke liye ziada hoti hain.
Hindustan ko pahle ek "beautiful liveable land for all" banayiye phir kahin usko Switzerland banane ki sochiye!We have different problem than West. So, we can't copy there way to progress."
"Hindustan ki planning bade Afsar apne A.C. rooms mein,yaatharth se door baithkar kar hi nahi sakte!
Agar ujjwal hindustan ki parikalpana karni hai, toh Ravish ji ki tarah 'Swapnon ki duniya se nikalkar Yathaarth ki bhoomi par chalna hoga..jeevan ka katu satya janna aur uske anuroop yojnaye banana zaroori hai!"

Kunal Verma said...

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सम्वेदना के स्वर said...

जिस तरह ज्ञानी मीडिया ने इस देश को बता रखा है कि कौन सामप्रदायिक है, और कौन धर्म निरपेक्ष। कौन सुधारवादी है और कौन धार्मिक कट्टर उसी तरह क्या यह नही बता सकता कि इस देश में गरीब कितने है?

तीस करोड़ से अधिक तो कोई आकड़ा नहीं हुआ? इक्क्तीस करोड़ भी और एक सौ बीस करोड़ भी सब इसमें आ गये।

वातानुकूलित स्टूडियों में ये करोड़ो रुपये के स्क्रीन लगा कर जो राष्ट्रीय बकवास चालू कर रखी है उसे देश कर बहुत कोफ्त होती है, आम आदमी को !

फिर ऐसे मे गरीब और गरीबी की बातें पाखड़ क़ॆ सिवा कुछ नहीं लगतीं।

टाइगर बचाऑ भाई लोग, गरीब तो साला ऐसे ही मरेगा!!

Gaurav said...

टाइगर बचाऑ भाई लोग, गरीब तो साला ऐसे ही मरेगा!!

बहुत खूब लिखा

रविश जी का पत्रकारों को आरक्षण पर सवाल अच्छा लगा, बहुत कम पत्रकार ऐसे है जो अपने बिरादरी पर बोल सके. बहूत बहूत बधाई.

gaurav

गिरधारी खंकरियाल said...

गरीबी नहीं, गरीब ही समाप्त किये जाते है इस देश में. भ्रष्टाचार का बोलबाला है

सतीश पंचम said...

बहुत सही मुद्दा उठाया है। मुंबई में कुछ समय पहले चली थी यह मांग कि फुटपाथ जरूरी है....बाद में क्या हुआ पता नहीं।

विडम्बना यह है कि गरीबों को लेकर अब कोई बात ही नहीं करना चाहता...न कुछ सुनना चाहता है।

'हम दोनों' फिल्म में जब अपनी प्रेमिका के पिता से देवानंद कहते हैं कि मैं गरीब सही....लेकिन मेरे प्यार में वो ताकत है कि मेरे साथ आपकी बेटी सूखी रोटियों पर भी खुशी खुशी रह लेगी....तब प्रेमिका के पिता कहते हैं कि गरीबी और सूखी रोटी केवल अमीरों के दिल बहलाने के साधन है.....उनके लिये कविताएं हैं। आज के दौर में पैसा ही सब कुछ है.....ऐसे में गरीबी की बात करना और गरीबी में पड़े रहना एक किस्म की हिमाकत है.... हिमाकत।

और सचमुच अब गरीबी में पड़े रहना हिमाकत ही माना जायगा । ये शॉपिंग मॉल....ये बड़े बड़े टॉवर वगैरह इसी हिमाकत को ठेंगा दिखाते नज़र आते हैं । ऐसे में आगे जाकर फुटपाथ पर चलना भी शायद हिमाकत में ही न गिना जाये।

vijai Rajbali Mathur said...

यह आलेख शत प्रतिशत सही है.प्रस्तुत करने हेतु आप धन्यवाद के पात्र हैं.

કાચઘર KachGhar said...

रविश सर, 'गरीबो के देवता'.
आपका, आपकी लेखनी का चाहक,
अहमदाबाद से,
सवजी चौधरी.

दीपक बाबा said...

सवेदना के स्वर में मेरा भी स्वर सम्मिलित किया जाए....

@टाइगर बचाऑ भाई लोग, गरीब तो साला ऐसे ही मरेगा!!

जय राम जी की.

शोभना चौरे said...

कितने ही नए आमिर लोग जिसमे उद्योगपति ,फ़िल्मी कलाकार ,बड़ी बड़ी विदेशी कम्पनी गरीबो के लिए अरबो रूपये दान देने का दंभ भरते है फिर भी गरीबी बढती ही जा रही है ये लोग कोनसे ?गरीबों की मदद करते है ?
हमेशा ये प्रश्न मन में उठता है |
अक फुटपाथ बचा था उनके चलने के लिए लिए वो भी कहाँ रहा ?

Satish Chandra Satyarthi said...

हर चीज मुफ्त में दे देना गरीबी की समस्या का समाधान नहीं है... जरुरत है ऐसी नीतियों की जो गरीबों को इस लायक बनाएँ की वो टिकट खरीद सकें...

Anupam Singh said...

is chalaymaan bhagti duniya mein hum mein se kitne hain jinke paas saamaajik taur pe asurakshit logon ke liye samay hai.
kal ko unhe chalne ka bhi adhikar mil jaaye to chalne ki jagah nahi di jaayegi.

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छा लिखा है। सुन्दर!

Aamir said...

Shandaar lekh...

Janahitwadi said...

मुफ्त में कोई भी चीज मिलनेसे उसका महत्व कम हो जाता हैं। शासन ऐसे कदम उठाये की कोई भी मुफ्त में देने की आवश्यकता नही रहे। हर गरीब ने अपना परिवार छोटा रख़ना चाहिये और शासन हरेक को नोकरी धंदा दे। दुसरी बात यह है की, शासन यदी कोई चीज़ मुफ्त दे दे तो उसके लिये खर्च होनेवाला पैसा गरीबों को ही अलग तरीके से देना पडता है। कोई भी चीज़ मुफ्त मत मांगो उसके दाम देना का लिये काम मांगो।