जागता हूँ कि उसकी नींद महफ़ूज़ रहे

नींद नहीं आ रही है । मेरे भीतर का पिता जाग रहा है । दोस्त बनकर फ़ैसला करना और पिता की तरह उस फ़ैसले को लेकर आशंकित होना अलग है । पर वो तो मुझे भाव ही नहीं दे रही है । उसे मतलब ही नहीं कि मैं ज़रा कमज़ोर हूँ । उसकी निगाह सिर्फ मौज मस्ती की संभावनाओं पर टिकी है । मेरी और नाॅयना की ग़ैर मौजूदगी में रात भर जागने और न जाने क्या क्या करने की सोच रही है । नाॅयना उसके सामान को इस तरीके से बाँध चुकी है कि जब वो खोलेगी तो लगेगा कि मम्मा पास में हैं । जैसे ही उसे किसी चीज़ की ज़रूरत होगी मम्मा लेकर हाज़िर । उसने उसके सामान के साथ अपना पूरा वक्त पैक कर दिया है । दवा कब लेनी है, कहाँ रूमाल है और भूख लगने पर क्या खाना है । क्या करें पहली बार बेटी दूर जा रही है । स्कूल ट्रिप पर । 

दस साल में यह पहला मौक़ा है जब बेटी दो दिनों के लिए हमारे घर से बाहर जा रही है । घर और शहर दोनों से । मैंने  इजाज़त दी या उसने ले ली कुछ याद नहीं आ रहा । पाँच दिनों से उसे छेड़ रहा था कि मैंने भी उसी होटल में कमरा ले लिया है । चुपचाप देखता रहूँगा । वो उलझती रही कि पापा मेरी लाइफ़ में मत घुसो । तुम बिल्कुल ब्वाय की तरह विहेव मत करो । हा हा । मैं अपनी चिन्ताओं को क्यों साये की तरह पीछा करने को कह रहा हूँ । 

स्पेस हम भी माँगते थे अपने माता पिता से । हमारे बच्चे भी हमसे माँगते हैं । उन्हें मिलना भी चाहिए और मिलता भी है । बल्कि वे ले लेते हैं । बात वो नहीं है । बात इतनी है कि नींद नहीं आ रही है । नज़र वहाँ तक जा रही है कि कैसे सबकुछ अकेले करेगी । अपना ध्यान रखेगी कि नहीं । कहीं चोट न लग जाए । मैं हर जगह मौजूद हूँ जबकि वो अभी गई भी नहीं है । मैं ब्वाय की तरह विहेव कर रहा हूँ या बाप की तरह । पर मैं तो किसी अधिकार के खोने से नहीं जाग रहा । मैं उसकी ग़ैर मौजूदगी के आईने में ख़ुद को नहीं देख पाने के कारण जाग रहा हूँ । मैं खुद ख़ाली हो जाने के डर से जाग रहा हूँ । नाॅयना भी तो जाग रही है । क्यों ? किसी गर्ल की तरह या मम्मी की तरह बिहेव कर रही है । इतनी कमज़ोरियों और घबराहटों के बीच मैं कैसे जी लेता हूँ पता नहीं । बेटी तो कहती है वो अपनी ज़िंदगी जीना चाहती है । इस उम्र में ऐसी बातें । और हम जो उसकी ज़िंदगी जीना चाहते हैं ! उसकी ज़िंदगी ही तो जी रहे हैं । बेटियाँ कभी बाप को बड़ा नहीं होने देती हैं । ख़ुद बड़ी हो जाती हैं । हम बच्चे रह जाते हैं । मैं चुपचाप ब्लाग लिख रहा हूँ । लेकिन नाॅयना क्यों जाग रही हैं । ये स्कूल वाले भी न । 

मोदी का संकेत और लुंजपुंज विपक्षी सियासत

"हम सरकार में आयेंगे तो मल्टी ब्रांड रिटेल सेक्टर में एफ डी आई का फ़ैसला वापस लेंगे ।" राजनाथ सिंह बीजेपी अध्यक्ष । वाराणसी की रैली में बोलते हुए । मई 2013। 

" हर बदलाव सुधार नहीं होता । " अरुण जेटली । राज्य सभा में भाषण देते हुए मनमोहन सरकार के इस क़दम की धज्जियाँ उड़ा कर रख देते हैं । bjp.org पर कमल संदेश पत्रिका का एक अंक है इसी पर । इसमें जेटली लिखते हैं कि घरेलू मैन्यूफ़ैक्चरिंग बंद हो जाएगा । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सस्ते में माल ख़रीद कर बेचेंगे । चीन का माल यहाँ पट जाएगा । भारतीय अर्थव्यवस्था का चरित्र ही है सर्विस सेक्टर उन्मुख । बिखरा हुआ बाज़ार उपभोक्ता के हित में होता है और संगठित बाज़ार विकल्प ख़त्म कर देगा ।


कमल संदेश में ही जसवंत सिंह का लेख है जो मूलत द हिन्दू में प्रकाशित हुआ था । वे बताते हैं कि अमरीका का अनुभव कहता है कि वालमार्ट जैसे बड़े रिटेलर विनाशकारी साबित हुए हैं । भारत में एक करोड़ बीस लाख रिटेल आउटलेट हैं । जीडीपी में चौदह प्रतिशत का योगदान है । जसवंत शिकागो के आस्टीन नेबरहुड का उदाहरण देते हैं जहाँ 2006 में वालमार्ट खुला था मगर 2008 तक वहाँ की 306 दुकानों में से 82 बंद हो गईं । जसवंत इकोनोमिक डेवलपमेंट क्वाटर्ली की रिपोर्ट का हवाला देते हैं कि जहाँ भी वालमार्ट खुलता है आस पास की 35-60 प्रतिशत दुकानें बंद हो जाती हैं । वे जयंती घोष की इस बात से सहमत हैं कि भारत में एक वालमार्ट चौदह सौ दुकानों को ख़त्म कर देगा और पाँच हज़ार लोगों को बेरोज़गार । 

गूगल करेंगे तो एफ डी आई के ख़िलाफ़ सुष्मा , रविशंकर, गडकरी सबके बयान और लेख मिलेंगे । आज के अख़बारों में ख़बर छपी है कि नरेंद्र मोदी ने संकेत दिया है कि वे मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश के हक़ में हैं । हालाँकि उन्होंने मल्टी ब्रांड रिटेल शब्द का ज़िक्र नहीं किया फिर भी उनके इस बयान का यही मतलब निकाला गया है । इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार मोदी ने दिल्ली में छोटे व्यापारियों से कहा है कि बड़े रिटेल चेन से भागने की ज़रूरत नहीं है । सामना कीजिये । आनलाइन का लाभ उठा कर अपनी दुकान को वर्चुअल माल में बदल दीजिये । 

जब यही बात मनमोहन सिंह कह रहे थे तब भ्रष्टाचार के कारण उनकी विश्वसनीयता इतनी क्षीण हो चुकी थी कि बीजेपी के लोग रोज़ उन्हें मूर्ख साबित कर देते थे । चालीस लाख रिटेल ट्रेडर को नाराज़ कर मनमोहन सिंह ने यह फ़ैसला लिया । बीजेपी को विधानसभा में चुनावी लाभ भी मिला मगर अब मोदी मनमोहन की राह पर चल रहे हैं । 

मैं अभी भी नहीं मानता कि वे खुलकर मल्टी ब्रांड रिटेल में निवेश की वकालत कर रहे हैं या करेंगे लेकिन मुझे इस बात पर पूरा यक़ीन है कि मोदी केंद्र के इस फ़ैसले को वापस लेने का साहस नहीं कर पायेंगे । चाहे राजनाथ सिंह कुछ भी कहते रहें । सरकार बनने के बाद वे भी यही कहेंगे कि संसद का फ़ैसला है । यह फ़ैसला दिल पर पत्थर रखकर मंज़ूर करना पड़ कहा है ।

दरअसल बीजेपी का काम हो चुका है । अब इन सवालों पर जनमत नहीं बदलेगा । जनमत सेट हो चुका है । मोदी ने अपनी रैलियों में भी कभी एफ डी आई का विरोध नहीं किया है । शायद ज़िक्र भी नहीं किया । जहाँ तक मुझे याद है । वे यह भी जानते हैं कि जनता उन्हें इस बात को लेकर पसंद नापसंद नहीं करती कि एफ डी आई पर स्टैंड क्या है । जनता तो सिर्फ मोदी मोदी करती है । मोदी अब मार्केट को इशारा कर रहे हैं ताकि गुणगान और बढ़े । कांग्रेस मोदी से जवाब भी नहीं माँगेंगी और न इसे लेकर मैदान में जायेंगी कि देखिये ये कहते थे कि हम विरोध में हैं और अब एफ डी आई का समर्थन कर रहे हैं । इन्हीं सब बातों से लगता है कि इस बार भी सब बाज़ार तय कर रहा है । 

वैसे अभी इंतज़ार किया जाना चाहिए और मोदी को भी स्पष्ट करना चाहिए । क्या बीजेपी अपनी दलीलों से पलट जायेगी । क्या सुष्मा और जेटली लोकसभा और राज्य सभा में एफ डी आई के ख़िलाफ़ दिये अपने भाषणों पर माफ़ी माँगेंगे । शायद ऐसी नौबत नहीं आएगी । मोदी का संकेत टीवी बहसों को जन्म देगा जिसमें वे बाज़ार प्रेमी को रूप में दिखा दिये जायेंगे और बीजेपी को चुनाव से पहले स्टैंड साफ़ करने की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी । पब्लिक यह सब अंतर कैसे और अब कब समझेगी । आपको सवाल करने की इजाज़त नहीं है वर्ना आप एंटी मोदी क़रार दिये जायेंगे। जैसे कहीं लिखा है कि हर किसी को और हर बात पर मोदी का समर्थन ही करना है । 

तो छोटे व्यापारियों को किस बड़े रिटेल से लड़ने के लिए तैयार कर रहे हैं मोदी । वालमार्ट ? और छोटे व्यापारियों ने कुछ हल्ला भी नहीं किया । वाह । तब क्यों मोदी ने बीजेपी को संसद में विरोध करने दिया । बीजेपी ने संसद के बाहर भीतर विरोध प्रदर्शनों का लम्बा सिलसिला चलाया था । संसद और देश का कितना वक्त बर्बाद हुआ । 

उनके इस संकेत रूपी बयान का मीडिया स्वागत ही करेगा । उनमें संभावना़़यें देखेगा । दिल्ली में जब आम आदमी पार्टी की सरकार बनी थी और अरविंद ने एफ डी आई के ख़िलाफ़ आर्डर किया तो अगले दिन बिज़नेस अख़बारों और मीडिया की बहस निकाल कर देखिये । कैसे सबने धो दिया था लेकिन जब अरविंद के बाद बीजेपी की वसुंधरा ने राजस्थान में एफ डी आई पर गहलोत सरकार के फ़ैसले को पलटा तो वही मीडिया चुप रहा । किसी ने वसुंधरा की आर्थिक जड़ता या मूर्खता पर सवाल नहीं उठाये । किसी बड़े उद्योगपति का बयान नहीं आया ।

मोदी जानते हैं कि चुनाव और जनमत सेट हो चुका है । इसीलिए वे राहुल को शहज़ादा कह कहकर धो डालने के बाद चिराग़ शहज़ादा से हाथ मिला लेते हैं । अपने मतदाताओं या समर्थकों का वोट पासवान परिवार की जीत सुनिश्चित करने के लिए तय कर देते हैं । वंशवाद के झाँसे में आकर कांग्रेस बैकफ़ुट पर चली गई और मोदी फ़्रंटफुट पर आकर उसी वंशवाद का सहारा लेकर मास्टर स्ट्रोक खेल गए । यह संकेत काफी है समझने के लिए कि मोदी जीत चुके हैं । उनके फ़ैन्स सपोर्टर के पास बदलने का वक्त और विकल्प दोनों नहीं बचा है । इस चुनाव में लड़ाई सिर्फ और सिर्फ मोदी लड़ रहे हैं । बाक़ी दल चुपचाप सरेंडर कर चुके हैं । इसलिए नहीं कि उन्हें लड़ना नहीं आता बल्कि इसलिए कि बाज़ार के नियंताओं का यही आदेश हुआ है । बाकी त जो है सो हइये है । वेलकम मोदी जी विद मोर दैन 272 । 

मोदी हमारा भाई है

मीडिया नागरिकता

हम एक मीडिया समाज में रहते हैं । नागरिकता कई प्रकार की होती है लेकिन लगातार कई माध्यमों के असर में हम 'मीडिया नागरिक' बन रहे हैं । हम पहले से कहीं ज़्यादा मीडिया के अलग अलग माध्यमों से अपनी अपेक्षाएँ पाल रहे हैं और ये माध्यम हमें प्रभावित कर रहे हैं । जो काम विज्ञापन अपने असर में हमसे साबुन से लेकर जीन्स तक का सक्रिय उपभोक्ता बनाने में करता है वही काम मीडिया हमें 'दलीय उपभोक्ता' बनाने में कर रहा है । ट्वीटर पर कई लोग अपने हैंडल नाम के लिए नमो फ़ैन्स या रागा फ़ैन्स या केजरी फ़ैन्स लिखते हैं । फ़ैन्स राजनीति का नया उपभोक्ता वर्ग है जिसे सतत प्रचार के ज़रिये पैदा किया जाता है । मीडिया और सोशल मीडिया के स्पेस में । यही वो मीडिया नागरिक है जो सोशल मीडिया के अपने स्पेस में 'नान रेसिडेंट सिटिज़न' की तरह मुख्यधारा की मीडिया को देखता है जैसे एक एन आर आई इंडिया को ताकता है । यह मीडिया को भी एक राज्य और उसमें ख़ुद को नागरिक की तरह देखता है ।

पिछले तीन साल से टीवी लगातार इन सवालों के केंद्र में है कि अन्ना आंदोलन को पैदा किया । यह तब हुआ जब टीवी कई घटनाओं के निरंतर दिखाने की आदत का शिकार हो चुका था । प्रिंस जब गड्ढे में गिरा और उससे पहले दिल्ली में मंकी मैन का आना । टीवी लगातार खोज रहा था कि ऐसा कुछ हो जिसे वो घंटों दिखाये । सबकुछ सुनियोजित तरीके से नहीं भी हो रहा था मगर हो जा रहा था । अन्ना आंदोलन एक ऐसा मसला बन गया जिसने मीडिया नागरिकता का विस्तार जंतर मंतर और रामलीला मैदान तक कर दिया । वहाँ होना और टीवी के सामने होना या सोशल मीडिया पर होना एक हो गया । मैं नहीं मानता कि रामलीला मैदान में लोग टीवी पर चेहरा दिखाने गए थे न ही टीवी उन्हें दिखाकर वहाँ ला रहा था । फ़ोन ट्वीटर और फ़ेसबुक और इन सब माध्यमों से भी सुनकर उत्तेजित होकर आए। 

अन्ना आंदेलन के कवरेज ने ऐसे घरों में दोपहर के वक्त न्यूज़ टीवी चला दिया जब सीरीयल देखने का होता है । टीआरपी की भाषा में औरतों का समय होता है । लोगों का नए सिरे राजनीतिकरण तो हो रहा था मगर उससे कहीं ज़्यादा 'मीडिया नागरिकीकरण' होने लगा । लोग जहाँ थे वहीं पर एक ख़ास तरीके से मीडिया नागरिक बन गए । टीवी सोशल मीडिया और मोबाइल का विस्तार एक दूसरे के पूरक बन गए । 

गुजरात चुनावों के दौरान अहमदाबाद में एक बीजेपी कार्यकर्ता के घर बैठकर नमो चैनल देख रहा था । एक फ़ोन चालू रखा गया था ताकि उस जगह का रिश्तेदार मोदी का भाषण सुन रहा था जहाँ नमो चैनल नहीं आता था । दिल्ली चुनावों के दौरान मुझे विदेशों से कई फ़ोन आए जो अरविंद केजरीवाल की सफलता को लेकर चिन्तित थे । कुछ होते देखना चाहते थे । फ़ेसबुक के इन बाक्स में कुछ लोगों ने लिखा कि अरविंद का क्या होगा इस चिन्ता से रात भर जाग रहे हैं । उसी तरह जब दिसम्बर के महीने में अरविंद का कवरेज कई गुना बढ़ गया और इससे नरेंद्र मोदी मीडिया विस्थापित हो गए तब नमो फ़ैन्स बेचैन होने लगे । मीडिया नागरिकता के कई लक्षणों में से एक है । नागरिक बेचैनियों का विस्तार है न्यूज़ चैनल और उसके डिबेट शो । 

टीवी का विस्तार गाँवों और झुग्गियों में तेज़ी से हो रहा है । मुंबई दिल्ली की झुग्गियाँ हों या सड़क किनारे बनी मड़ई आप देखेंगे कि उनकी छतों पर डिश टीवी का तवाकार एंटिना बजबजा रहा है । ठेले पर फल बेचने वाले एक जवान ने हाथ मिलाते हुए कहा कि आप नेताओं को सही से नंगा करते हो । इतनी मेहनत की कमाई का बड़ा हिस्सा टीवी पर । केबल पर । यह वो तबक़ा है जिसे मल्टीप्लेक्स सिनेमा हाल ने खदेड़ दिया है । मैं दिल्ली कई इलाक़ों में ऐसे अनेक लोगों से मिलता हूँ जो दिल्ली में रहते हुए बीस साल से सिनेमा हाल नहीं गए हैं । इनमें से कई ऐसे हैं जो कभी सिंगल सिनेमा में फ़्रंट स्टाल का टिकट लेकर देखते थे । इस तबके लिए टीवी सिनेमा है । मनोरंजन का माध्यम है । टीवी के दर्शक का सत्तर फ़ीसदी हिस्सा यही है जिसे नेता नव मध्यमवर्ग कहते हैं । ग़रीबी के सागर में रेखा से ऊपर डूबता उतराता तबक़ा । इसी तबके तक पहुँच की ज़िद में न्यूज़ चैनल भी सिनेमा का विस्तार बन गए । रिपोर्टिंग की जगह किस्सागो बन गए ।अब यह समाज धीरे धीरे राजनीतिक तौर से रूपांतरित हो रहा है । राजनीतिक पहले भी था मगर इसकी सक्रियता मीडिया के स्पेस में भी बढ़ रही है । यही प्रवृत्ति इसके ऊपर के तबके में हैं । इस तबके में पेपर भले न आता हो मगर टीवी आता है ।

इसीलिए आप देखेंगे कि टीवी सिर्फ बोलने लगा है । दिखाना छोड़ दिया है । जनमत के नाम पर हताशा का समोसा तला जा रहा है । बातों और तथ्यों का कोई परीक्षण नहीं है । इंटरनेट स्पेस में पहले से मौजूद तथ्यों के आधार पर सवाल बनते हैं और पूरा संदर्भ एक सीमित दायरे में बनता चला जाता है । हर टीवी पर एक ही टापिक और जानकारी का एक ही सोर्स गूगल । किसी चैनल के पास अपनी रिपोर्टिंग के ज़रिये नई जानकारी नहीं है । चैनल सिर्फ लोगों में मौजूद मिथकों, अवधारणाओं, अधकचरी जानकारियों और बेचैनियां का छेना फाड़ कर पनीर बना रहे हैं । यह जनमत नहीं भगदड़ है । जहाँ सब चिल्ला रहे हैं और सुनने वाले को लगता है कि उसकी बात हो रही है । " आप सही करते हो नेताओं को धो डालते हो " ऐसी प्रतिक्रिया इसी की अभिव्यक्ति है ।

इसीलिए कहता हूँ कि मीडिया समाज की सक्रियता का मतलब जागरूकता ही हो यह ज़रूरी नहीं है । उसकी जानकारी का सोर्स मीडिया है और मीडिया की जानकारी का सोर्स भी मीडिया है । घूम घूम के वही बात । धीरे धीरे मीडिया नागरिक चंद अवधारणाओं के गिरफ़्त में जीने लगता है । यह उसका आरामगाह यानी कंफर्टज़ोन बन जाता है । एक किस्म की कृत्रिम जागरूकता और भागीदारी बनती है । अवधारणाओं की विविधता समाप्त हो जाती है । 

इनदिनों कई टीवी चैनलों पर मत प्रतिशत बढ़ाने का थर्ड रेट अभियान चल रहा है । वोट देना ज़रूरी है लेकिन इसके नब्बे प्रतिशत हो जाने से क्या गुणात्मक बदलाव आता है क्या किसी ने सोचा है । वोट देना ही ज़रूरी है या यह भी ज़रूरी है कि बिना जानकारी के वोट न दें । एक आत्मविश्वासी लोकतंत्र में यह कहा जाना चाहिए कि अगर मुद्दों की पर्याप्त समझ या जानकारी नहीं है तो वोट न दें । प्रतिशत संख्या के लिए जनमत नहीं हो रहा मगर मीडिया ने इसे संख्यात्मक जनतंत्र में बदल दिया है और मीडिया नागरिक ने स्वीकार भी कर लिया है । मीडिया नागरिक अपनी ही अवधारणाओं के सहारे मीडिया का प्रतिबिम्ब बन जाता है । प्रतिकृति या अनुकृति । 'मिरर इमेज' । वो मीडिया की आभासी दुनिया में भड़ास निकाल कर अपनी नागरिकता को जी रहा है। 

यहीं से एक संभावना पैदा होती है जनमत को गढ़ने की । मीडिया कारपोरेट और पूँजी का खेल शुरू हो जाता है । विज्ञापन और बयानों के ज़रिये नेता की लोकप्रियता पैदा कर दी जाती है । अब इस खेल से कोई बच नहीं सकता । चिन्ताओं को भुनाने का खेल चल रहा है । चंद चिन्ताओं की पहचान कर उसे व्यापक रूप दिया जा रहा है और एक उम्मीद बेची जा रही है । जनमत सर्वेक्षण के नाम पर कौन कितना लोकप्रिय है और सीटों की संख्या कितनी है इस पर बात हो रही है । मीडिया ने रिपोर्टिंग बंद कर यही रास्ता पकड़ लिया है । ख़बरों और समस्याओं की फ़ाइलें लेकर बड़ी संख्या में लोग रिपोर्टरों को खोज रहे हैं । चैनलों के चक्कर लगा रहे है । ईमेल कर रहे हैं । जिन्हें न्यूज़ रूम में कोई पढ़ता तक नहीं । हरियाणा से एक सज्जन का फ़ोन आया कि मुख्यमंत्री मुफ़्त चिकित्सा योजना लागू हुई है जिससे दूसरे राज्यों के ग़रीब मज़दूरों को बाहर कर दिया गया है । उनका सरकारी अस्पतालों में इलाज बंद हो गया है । सज्जन ने कहा कि अनशन पर बैठने जा रहा हूँ । देखता हूँ मीडिया कैसे नहीं आएगा । इसी ब्लाग पर स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों के लिए लड़ रहे धर्मवीर पालीवाल की कहानी लिखी मगर सोशल मीडिया में चर्चा तक नहीं की और किसी में छापा कर नहीं । एक सज्जन एक लाख करोड़ के धान ख़रीद घोटाले की फ़ाइल लेकर चैनल चैनल घूम रहे हैं कोई पढ़ने वाला तक नहीं । इस कथित घोटाले में बीजेपी कांग्रेस सहित कई सरकारें शामिल हैं । ऐसी बात नहीं कि मीडिया ने घोटालों की खोज नहीं की है । अख़बारों ने की है । टीवी ने कम ।

दूसरी तरफ़ ऐसे कृत्रिम मुद्दे उठ रहे हैं जो कांग्रेस बीजेपी के खुराक बनते हों । ऐसा नहीं है कि मुद्दे नहीं उठते मगर इनकी संख्या दस से बारह होकर रह जाती है । लगातार रिपोर्टिंग नहीं होती । रिपोर्टिंग ने चैनल का बहुत कुछ दांव पर लगता है । संपादक की दोस्ती दाँव पर लगती है । चैनल या अख़बार कई तरह की असुविधा से बच जाते हैं । अख़बारों में भी टीवी है । वहाँ भी घटना प्रधान चर्चा है । इसीलिए टीवी पर जनमत शो की बाढ़ है । आयं बायं सायं बोलकर चले जाइये । इसमें आप पहचाने नहीं जाते कि आपकी रिपोर्ट से किसी को तकलीफ़ तो नहीं हुई । डिबेट शो ज़रूरी है मगर ख़बर की क़ीमत पर नहीं । डिबेट शो जनमत के नाम पर फ्राड है । समझिये इस बात को । अपनी खुजली टीवी देखते हुए मत खुजाइये । मैं इसीलिए घर पर कोई डिबेट शो नहीं देखता । कोई शो अच्छा होगा मगर यह एक बुनियादी ज़ररत की क़ीमत पर है । क्या आप सब्ज़ी की जगह रोज़ रसगुल्ला खा सकते हैं । पौष्टिकता के लिए ज़रूरी है रिपोर्टिंग । इसके न होने से ही मीडिया और मीडिया नागरिक एक दूसरे की अनुकृति बन जाते हैं । कृत्रिम जनमत बनता है । 


 

वो मेरा मैं है ।

वो आता है तो मैं ही आता हूँ । उसके शहर से देर शाम लौटा तो इस यक़ीन के साथ कि मेरे घर का दरवाज़ा वही खोलेगा । यही हुआ । सारे लोग खाने की मेज़ पर बैठे पर थे और दरवाज़ा उसने ही खोला । लगा कि चौखट पर एक सी दो छाया मिल रही हैं । ज़िंदगी में ऐसे लोग कम होते हैं जो आपके घर में आकर आपसे ज़्यादा आपके घर के हो जाते हैं और सारा घर उसी का हो जाता है ।उसका है भी ।

वो मेरा दोस्त नहीं है । मेरा एक और मैं है । हम एक ही क्लास से सरकते भटकते चले आ रहे हैं । गिरते-पड़ते । पाँचवी से । वो नहीं आता तो मैं यहाँ नहीं आता । उसे देखकर मैंने उससे ज़्यादा सीखा । बहुत सी बुराइयों लोपरवाहियों से बच गया । जिन्हें वो ख़ुद भी करता तब भी मुझे बचा लेता था । मुंबई में उसका घर भी मेरा घर है । दिल्ली में मेरी उसका । मुंबई जाकर उसके घर गया नहीं ये और बात है ।  पटना में जब भी उसके घर गया बाहर का दरवाज़ा खुलते ही सारे दरवाज़े खुलते रहे । उसके घर से जो भी खाने का सामान आया मेरे लिए भी आया । ख्याल रखने की उसकी आदत मेरे भीतर बेख़्याली पैदा कर गई । मैंने कभी आवाज़ नहीं दी और उसने हमेशा सुन लिया ।


जिस राज्य और समाज से आता हूँ वहाँ कभी किसी को नियमों पर चलते नहीं देखा । जिसे भी जानता था सब किसी न किसी चोरी में शामिल रहे । नियमों की धज्जियाँ उड़ाते रहे । किसी भी समाज में शहरी नागरिकता के संस्कार पनपने में वक्त लगता है । उसके पिता ने मेरी ज़िंदगी बदल दी । बिजली का मीटर तेज़ भाग रहा था । बचपने में कह दिया चाचाजी जीभिया( जीभ साफ़ करने वाली प्लास्टिक की पत्ती) लगाकर रोक दें । छठी सातवीं में पढ़ता था । उनका हल्का ग़ुस्सा और समझाना ऐसे घर कर गया कि कभी निकला ही नहीं । वक़ील होकर भी यही साख थी । ग़लत नहीं करते हैं । वे जब दिल्ली आते तो यही बताते कि पैरवी नहीं कर सकते । जितना मिला उससे ख़ुश रहे । कभी लालच करते नहीं देखा । उनका ही असर है कि आज भी ग़लत करने से दस बार सोचता हूँ । होता नहीं । लगता है कि उनका भरोसा टूट जायेगा । ये वही असर था जिसे मेरे ससुर जी ने धार में बदल दिया । 

पिछले के पिछले साल पटना गया था । मुझे देख ऐसे ख़ुश हुए जैसे उनका बेटा आया हो । वो ऐसे ही ख़ुश हुए । उनके चेहरे की झुर्रियाँ मुझे देखकर जवान हो गईं । कभी मेरी ग़ैर हाज़िरी में मेरा ज़िक्र करके देखियेगा वो ऐसे ही ख़ुश होंगे । इतना आशीर्वाद दे देते हैं कि कुछ वहीं छोड़ कर आना पड़ता है । वो वहाँ नहीं था । ख़ाली घर । फिर भी कह दिये कि जाओ भीतर जाकर घर देख लो । 

पटना में वो मेरा दूसरा घर था जहाँ मैं अपने घर की विसंगतियों और असहमतियों को छोड़ हक़ से जा सकता था । आज भी वो मेरा ही घर है । इस बार पटना साहित्य मेले में गया था । पाँच घंटे के लिए । चाचाजी से मिलने नहीं जा सका । ऐसे खटका जैसे चोरी करके पटना से भाग रहा हूँ । लगा कि फोन कर दूँ । नहीं कर पाया । हवा में उड़ते जहाज़ के नीचे 
मैं अपना नहीं उनका घर ढूँढ रहा था । एक बार फ़ोन तो कर ही लेना चाहिए था । खैर ये अफ़सोस भी सबके लिए नहीं होता । कहने के लिए भी नहीं होता ।

मुंबई से लौटते वक्त केनरा बैंक के कार्यकारी निदेशक ने कहा कि दिनमान पत्रिका न होती तो मैं घूसखोर हो जाता । मैं बताने लगा कि जो दोस्त इस वक्त मेरे घर पर इंतज़ार कर रहा है वो न होता तो मैं भी चोर बेईमान और दहेज़खोर होता । मैं उनके घर अपने घर से अलग होने जाता था । मेरे घर में पढ़ाई का माहौल बिल्कुल नहीं था । नाते रिश्तेदार भरे रहते थे । दिन भर रिश्तेदारों के पैंतरें और तानेबाज़ी । उसी का असर है कि दिल्ली में जब अपना घर ख़रीदा तो सबसे पहले रिश्तेदारों को बैन कर दिया । मैं अब इस घर से नहीं भागना चाहता था । तब घर और चौपाल में फ़र्क ही नहीं लगता था । शहर में घर के बाहर शहरी संस्कार वहीं से मिला ।उसके घर में सब पढ़ते ही थे । कोई बड़ा अफ़सर था तो कोई अच्छा नागरिक । स्कूल से हम कालेज और पटना से दिल्ली तक आ गए । जहाँ जहाँ मैं फँसा वहीं वहीं वो गया । मैं ख़ुद की जगह उसे भेज देता था । वो ख़ुद भी चला जाता । तुमसे नहीं होगा मैं देखता हूँ । उसने न जाने कितने नए लोगों से मिलवाया । वो सबसे मिलता और मुझे साथ ले जाता । उसके नाते रिश्तेदार उसे देखकर मेरे बारे में पूछते रहे । अरे रवीश नहीं आया । 

हम दोनों की ज़िंदगी में दोस्त बहुत आये । जो भी उसके ज़्यादा क़रीब हुआ लगा कि मेरा हिस्सा कम हो गया ।  उम्र ही ऐसी थी । ईर्ष्या होती थी । हम अलग अलग जीना सीख गए मगर बेहद तकलीफ़ के साथ । उसका पता नहीं पर मुझे तकलीफ़ हुई । एक ही ट्रेन से दिल्ली आए थे । हर अनुभव साझा । उसके जाने के बाद उसके बनाए दोस्तों में उसे ढूँढता रहा । मिला ही नहीं । धीरे धीरे मैं भी जीने लगा । पर बहुत ढूँढा । मिस किया । हम पहली बार अकेले रहने जा रहे थे । मेरा शहर और घर बस रहा था और वो घर बसाने के लिए शहर ढूँढ रहा था । उसकी कमी ऐसे ख़ली कि ख़ुद का भरोसा कमज़ोर होने लगा । वो नहीं है । कैसे करूँगा मैं । ख़ुद से बचने की रेस में मैं किसी और रेस में शामिल हो गया । काम । 

हम एक दूसरे से ग़ैरहाज़िर हो गए । इस अनुपस्थिती में कितना कुछ हो गया है । फिर भी लगता है कि कुछ नहीं हुआ है । हम अब कम जानते हैं पर सब जानते हैं । हमारे रिश्ते में ग़लत सही को जगह नहीं मिली । हमारे बीच प्राइम टाइम टीवी नहीं है और न वो दुनिया जिससे मैं अचानक घिर गया हूँ । मेरी दीदी ने बिरयानी बनाकर भेजा तो नयना ने बताया कि उसके लिए भी पैक कर दिये हैं । वो लेकर गया भी । मुंबई । मैं पटना में था । 

वो रात मैं भूल नहीं पाता । बाबूजी चले गए । उनका शरीर पड़ा था । मैंने तो कहा भी नहीं कि चलो । कुछ बात ही नहीं हुई । बहुत बाद में ध्यान आया कि बगल की सीट पर बैठा जो कार चला रहा है वो अनुराग है । पटना से मोतिहारी के उस तकलीफ़देह सफ़र से रोज़ गुज़रता हूँ और रोज़ ही अनुराग ड्राइविंग सीट पर होता है । उसी का भरोसा है कि डर नहीं लगता । वो आ जायेगा । आया भी है । तभी जब लिफ़्ट में था तो ख्याल आया कि देखें आज वो दरवाज़ा खोलता है कि नहीं । मेहमान होकर मेज़बान की तरह । वही हुआ । मैंने घंटी बजाई और दरवाज़ा उसने खोला । जब भी वो आता है लगता है मैं आया हूँ । 

राहुल के भाषण में राशन कम है

भाषण की कला भी आए लेकिन भाषण में बात तो होनी चाहिए कि लोग बात करे। ऐसा नहीं कि राहुल गांधी बोलने की कला में कमज़ोर हैं मगर उनके भाषणों को सुनकर लगता है कि वे लोगों से कम ख़ुद से ज़्यादा बात कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि इस चुनाव में वो अपनी पार्टी के लिए वोट नहीं मांग रहे बल्कि लोगों को बता रहे हैं कि वे अपनी पार्टी को कैसे बदलना चाहते हैं। हर चुनाव में नेताओं के भाषणों की बात होती है। चर्चा होती है। तुलना होती है। कई नेता होते हैं जो भाषणों में उत्तरोत्तर विकास करते जाते हैं। मगर राहुल का भाषण सुनकर लगता है कि वे कहीं ठहर गए हैं। वे चुनाव को अपने आगे से जाने देना चाहते हैं।

जिन लोगों ने टीवी पर देहरादून रैली लाइव देखी होगी अगर वे ध्यान करें तो बीच बीच में लोगों की तस्वीरें भी आती थीं। सुननेवालों के चेहरे थके से नजर रहे थे। उनका राहुल के भाषण से कोई जुड़ाव नहीं बन पा रहा था। राहुल की बातें इस चुनाव की तात्कालिक बातों से जुदा लग रही थीं। उनके भाषणों को सुनकर लगता है कि वे भी जनता से कटे हुए हैं। वे लोगों की आंख में आंख मिलाकर बात नहीं करते हैं। जैसे मोदी करते हैं। मोदी अपनी आवाज़ में उतार चढ़ाव का भी इस्तमाल करते हैं। नाटकीयता किसी भी भाषण का अभिन्न अंग हैं। राहुल गांधी की बातें भले ही अच्छी हों लोगों तक पहुंचने के ज़रुरी तत्वों से लैस नहीं हैं। मोदी लंबा बोलते बोलते अचानक धीमा बोलने लगते हैं। जब धीमा बोलते हैं तो माइक के करीब जाते हैं। राहुल एक सुर में ही एक पिच में ही बोलते जाते हैं। उनका माइक इतना खराब है कि आवाज़ फटती है। टीवी पर गरजती हुई फटने लगती है। मोदी मनोरंजन भी करते हैं। राहुल सिर्फ भाषण देते हैं। अच्छा भाषण वो है जो देते हुए बात करे लोगो से।


राहुल के भाषणों के त्वरित अध्ययन से लगता है कि वे अपने विरोधी का भाषण नहीं सुनते हैं। उन्हें लगता है कि वे मोदी का नाम ले लेंगे तो वे बड़ा नेता बन जायेंगे। जबकि मोदी राहुल की रैली को सुनते हैं। ऐसा उनके जवाब से लगता है। अगर मोदी की रैली राहुल के बाद होती तो वे उनके बोले पर टिप्पणी कर मैच में बदल देते। राहुल की रैली बाद में हुई उन्होंने मोदी की रैली पर कुछ नहीं कहा। इसलिए आज के अखबारों में
मोदी की रैली की ही बातें हैं राहुल की नहीं। एक आरोप लग सकता है कि मीडिया राहुल को कम दिखाता है या मोदी के साथ पक्षपात करता है। एक मिनट के लिए इस आरोप को मान भी लें तो क्या राहुल की बातों में ऐसा कुछ है जो भावनात्मक से लेकर तथ्यात्मक कलाबाज़ियों की गुज़ाइश पैदा करता है। राहुल यह सोचते हैं कि वे अपनी बात कहेंगे। अपनी सरकार की उपलब्धि गिनायेंगे। अधिकारों की बात करेंगे। जो विरोधी कहते हैं उन पर कमज़ोर हमले करेंगे। यह रणनीति मार्केटिंग कंपनी की हो सकती है राजनीतिक दल की नहीं होनी चाहिए। आपको जवाब देना पड़ता है और सवाल करना होता है।

चुनाव में हार जीत के लिहाज़ से नहीं कह रहा। लेकिन अच्छा भाषण चुनावी चर्चाओं को दिलचस्प तो बना ही देता है। राहुल के भाषणों में विविधता नहीं है। एकरसता है। हो सकता है कि यह राहुल की अपनी राजनीति हो लेकिन वे अपनी बात भी जोरदार और मनोरंजक तरीके से नहीं कहते। स्वास्थ्य का अधिकार की बात की। यही बात मोदी कहते तो खबर बन जाती। मोदी इसे किस्से में बदल देते। ऐसे पेश करते जैसे उन्होने पहली बार सोचा हो। इसलिए राहुल गांधी की रैली में बैठे लोग उदास दिखते हैं। इनकी हताशा से लगता है कि वे राहुल गांधी की अधिकार योजनाओं के कभी लाभार्थी ही नहीं रहे। मोदी होते तो अपनी रैली में उन लोगों को बुलवाते जिन्हे मनरेगा से लाभ मिला हो। सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं को बुलाते। शायद इसी वजह से लगता है कि राहुल चुनाव नहीं लड़ रहे। वे चुनाव में चुनाव सुधारों का प्रचार कर रहे हैं जो एक आम दिनों में टीवी का एंकर या सेमिनारवादी करता है। वे सामने से नहीं लड़ते। अपने भाषणों में जोखिम नहीं उठाते। मोदी ने कितनी गलतियां की लेकिन उन्होंने भाषण देना बंद नहीं किया। नीतीश कुमार ने उनके इतिहासबोध को तुर्की वा तुर्की धज्जी उड़ा कर रख दी लेकिन मोदी रूके नहीं। वे बोलते रहे हैं। तभी मैंने पिछले लेख में कहा था कि राहुल जीतने के लिए चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। उनकी बातें सही हो सकती हैं मगर वे चुनाव का मुद्दा नहीं हैं। मैं अक्सर इन रैलियों के प्रसारण के बाद सोशल मीडिया पर चेक करता हूं। मोदी की रैलियों पर मज़ाक ही सही बात होती है। आलोचना ही सही बात होती है। आप आलोचना करें नहीं कि उनके समर्थक तुरंत जाकर आपके सवालों को दलाल वगैरह कह कर चुप कराने की कोशिश करते हैं। आप राहुल गांधी को कुछ भी बोल दीजिये उनके बचाव में कोई नहीं आता।


अगर राहुल ने अपने भाषणों का अंदाज़ नहीं बदला, उसमें विविधता नहीं ला पाते हैं तो वे बस खानापूर्ति करते हुए ही नज़र आएंगे। रैलियां चुनाव को मनोरंजक बनाती हैं। चर्चाओं का बाज़ार गरम होता है। मोदी हर दिन नए आइडिया के साथ मैदान में उतर रहे हैं। पैसा तो कांग्रेस भी खर्च कर रही है। एक बात और है। जब हवा साथ नहीं होती है तो चर्चा तब भी नहीं होती जब आपकी बात में दम हो लेकिन नेता वो होता है जो लड़ते हुए दिखता है। अपनी बात को चर्चा लायक बना देता है भले ही उसकी हार तय हो। कम से कम सीधे वार करने का साहस तो होना ही चाहिए ताकि कार्यकर्ता तो कम से कम जोश में जाये।

 देहरादून की रैली में बैठे कांग्रेस नेताओं की उदासीनता और लुधियाना की रैली में मंच बैठे नेताओं के चेहरे की सक्रियता से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। राहुल गांधी को अपना वीडियो चलाकर देखना चाहिए। रैली का और जब वे किसानों युवाओं से बुलाकर बात करते हैं उसका भी। आज जब किसानों के बीच उन्हें अनौपचारिक तरीके से बोलते देखा तो लगा कि यह दूसरे तरह का नेता है। राहुल को इसे ही अपनी ताकत में बदल देना चाहिए। मंच की औपचारिकता अगर उनका आत्मविश्वास कमज़ोर करती है तो उन्हें रैलियों का रास्ता छोड़ देना चाहिए। सड़क पर घूमते चलते लोगों से बात करना चाहिए। मंच पर भी ऐसे ही पेश आना चाहिए। मगर इन सब बातों के लिए देर हो चुका है। वे विधानसभा चुनावों के दौरान अपनी भाषण की कापी ही पढ़े जा रहे हैं। उनका भाषण बता रहा है कि उन्होंने हार मान ली है। मोदी का भाषण बताता है कि सबने उनकी जीत को स्वीकार कर लिया है। भाषण ज़रूरी रणनीति नहीं होता तो कोई नेता महीनों गांव गांव जाकर भाषण ही क्यों देता। नतीजा चाहे कुछ भी हो मगर बात तो याद करने लायक। अटल जी जमाने तक हारते रहे मगर अपनी बातों से वे हमेशा विजयी रहे। कभी कभी अपने विरोधी से सीखने में हर्ज़ नहीं है।

लुधियाने वाले मोदी

अरुणाचल प्रदेश की रैली की एक तस्वीर अख़बारों के पहले पन्ने पर छपी है । जिसमें नरेंद्र मोदी की वहाँ के परिधान में भाषण दे रहे हैं । उसके दो दिन बाद नरेंद्र मोदी की एक और तस्वीर छपती है । लुधियाना की रैली में वे चुस्त दुरुस्त सरदार दिख रहे हैं । पगड़ी ने उनकी आक्रामकता को बदल तो दिया लेकिन वे सिख वेशभूषा में बादल परिवार से भी ज़्यादा ओरजिनल लग रहे हैं । उनकी क्रीम कलर की सदरी की फीटिंग भी चुस्त है । इसी तरह अगर आप अख़बार के एक पन्ने पर विभिन्न परिधानों में नरेंद्र मोदी की तस्वीर छापें तो चुनाव ख़त्म होते होते भाँति भाँति के मोदी नज़र आएँगे । यह पन्ना दिलचस्प होगा और पाठक विस्मय और मुस्कान से भी देखेंगे ।

( गूगल से ली है और तस्वीर इंडियन एक्सप्रेस की है)
हो सकता है राजनीतिक दल मोदी की इस क़वायद को फ़ैन्सी ड्रैस और स्व मोह में फँसे एक व्यक्ति की प्रवृत्ति के रूप में देखें लेकिन इस मीडिया युग में मोदी ने विभिन्न परिधानों के साथ खुद को घर घर में पहुँचा दिया है । मीडिया और प्रचार को लेकर उनकी रणनीति जितनी बारीक और बहुस्तरीय है उस पर तो पीएचडी की जा सकती है । मेरा मानना ै कि मोदी की प्रचार टीम अोबामा के प्रचार युद्ध से कई मामलों में प्रभावित लगती है । आज के संदर्भ में जब ओबामा के कैंपेन मैनेजर रहे डेविड प्लाफ की किताब दि ओडेसिटी टू विन पढ़ता हूँ तो लगता है कि सबने इसकी नक़ल मारी है । बस मोदी ने अपनी अकल भी लगाई है ।

याद कीजिये मोदी का गुजरात चुनाव । दूसरी बार वाला । वे मुखौटा ले आये । गुजराती अस्मिता की राजनीति को स्थापित करने के बाद मोदी ने अपना मुखौटा उन पर डाल दिया । गुजरात भर में बीजेपी के कार्यकर्ता मोदी का मुखौटा पहनकर घूमने लगे । रणनीति यह थी कि लगे कि हर तरफ़ मोदी हैं । हर गुजराती मोदी है । छह करोड़ गुजराती को अपना मुखौटा दे दिया और गुजरात ने भी चुनाव में जीत दिलाकर मुखौटे की मनोरंजक राजनीति को स्वीकार कर लिया । लेकिन अगले चुनाव में मोदी ने मुखौटा छोड़ दिया । वैसे अब भी बीजेपी के कार्यकर्ता पहनकर बैठ जाते हैं लेकिन मोदी तीसरे चुनाव में थ्री डी प्रोटेक्शन ले आए । वे एक जगह से कई जगहों पर अवतार मुद्रा में दिखने लगे । लोक सभा चुनावों में भी इस मनोरंजक तकनीक का इस्तमाल करने वाले हैं । आज के इकोनोमिक टाइम्स में ख़बर है कि मोदी की रैलियों को साढ़े छह सौ वैन के ज़रिये भारत भर में लाइव दिखाया जाएगा । चाय पे चर्चा भी नई योजना है । एक तरह से वे अपनी रैलियों को मनोरंजक बना रहे हैं ताकि चर्चा चलती रहे हैं । भारत में किसे मतलब है कि इन सब पर कितना पैसा और किसका पैसा ख़र्च होता है । आरोप लगते हैं मगर लगाने वाला हल्के से लगाता है क्योंकि उस पर यही लगने वाला होता है । इस मामले में अरविंद केजरीवाल की स्थिति अलग है । वे खुलकर कांग्रेस बीजेपी के चुनावी ख़र्चों पर सवाल उठाते हैं । मोदी की तुलना में राहुल की रैली नीरस और भाषण बासी लगता है । 


। इस बार में हर रैली में अलग कुर्ते में दिखते हैं । अनेक कुर्ते पहनकर मोदी हर रैली में कुछ नया दिखते हैं । उनके भाषण भले थकते हुए लगे, क्योंकि काफी लंबे समय से रैलियाँ कर रहे हैं, मगर वे कुछ न कुछ नया दिखते हैं । 
(यह तस्वीर भी गूगल इमेज से ली गई है) 

इंदिरा गांधी भी एक ज़माने में किया करती थीं । राहुल सोनिया ने भी किया है । ख़ासकर आदिवासी इलाक़ों में जब भी गए हैं गांधी परिवार ने उनके परिधान या प्रतीक के साथ तस्वीरें छपती रही हैं । नरेंद्र मोदी जब चुनाव अभियान पर निकले तो सबने कहा कि आधा भारत उन्हें जानता तक नहीं । इसी आधार पर उन जगहों के आँकड़े निकाल कर बताया जाने लगा कि मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे । मुझे लगता है कि मोदी ने अपनी और अपनी पार्टी की अनुपस्थिती वाली जगहों का गहरा अध्ययन किया होगा । मोदी अब नए तरह के मुखौटे में हैं । इस बार अपना मुखौटा नहीं पहनाया बल्कि उनकी पगड़ी और परिधान का मुखौटा पहन लिया । भाषा का भी ख्याल रख रहे हैं । कहीं बांग्ला में तो कहीं मगही भोजपुरी में दो चार लाइन रट कर जाते हैं और ठीक ठाक बोल आते हैं । ताकि सुनने देखने वाले को लगे कि कोई उनके बीच का है ।

मोदी जीतने के लिए वो सब कुछ कर रहे हैं जो करना चाहिए । उन जगहों में भी खुद को और बीजेपी को पहुँचा रहे हैं जहाँ नहीं हैं । यह एक ऐसा जोखिम है जिसे हाल की पीढ़ी के कम ही नेताओं ने इतनी गंभीरता से किया होगा । पगड़ी तो राहुल गांधी ने भी पहनी है मगर मोदी की तरह हर रैली में नया कुर्ता नई भाषा और गुजरात से नाता ये सब मसाला उनके पास नहीं है । मोदी का भारत एक गुजरात लगता है ।( इस पर अलग से लिखूँगा क्योंकि मैं ज़्यादातर मोदी का ही अध्ययन करता हूँ )  हर जगह गुजरात ले जाते हैं । 

और जब तक यह लगने लगता है कि मोदी सिर्फ मीडिया के ज़रिये आगे बढ़ रहे हैं ख़बर आती है कि रामविलास पासवान उनके साथ गठबंधन कर रहे हैं । पासवान मोदी विरोधी रहे हैं । कहा जाता है कि मोदी अपने विरोधी को नहीं भूलते । मगर यहाँ तो वे मास्टर स्ट्रोक चल कर पासवान को अपने पाले में ले आते हैं । अभी अंतिम फ़ैसला नहीं हुआ है फिर भी क्या यह दिलचस्प नहीं है कि मोदी या बीजेपी में से किसी ने नहीं कहा कि मोदी को गाली देने वाले पासवान मंज़ूर नहीं हैं । दरअसल इस चुनाव में लड़ तो सब रहे हैं मगर जीतने के लिए सिर्फ मोदी लड़ रहे हैं । इन भाव भंगिमाओं से क्या होगा मैं नहीं जानता पर इतना ज़रूर है कि घर घर मोदी पहुँच रहे हैं । मैं बस ये सोचता हूँ कि मोदी अपने परिधानो और उनके रंग पर कितना वक्त और ध्यान देते होंगे । उनके पास कितने कुर्ते होंगे और कितने अभी सिल रहे होंगे । वैसे जो सफ़ेद पहनते हैं उन नेताओं के पास भी पचासों कुर्ते होते है । मीडिया युग की राजनीति में नेता एक पूरे पैकेज की तरह होता है लेकिन असली खिलाड़ी वो होता है जो इन छवियों के पीछे कुछ और राजनीतिक चालें चल रहा होता है ।

आप को फिर से ?

इनदिनों यही प्रतिक्रिया मिलती है । कई लोगों से मिलता हूँ जो ऐसा कहते हैं । ऐसा नहीं है कि अरविंद केजरीवाल के समर्थक नहीं मिलते लेकिन उनके कई समर्थक ऐसे मिलते हैं जो अब समर्थक जैसा उत्साह नहीं दिखाते । अगर यह तादाद बड़ी है तो अरविंद और आम आदमी पार्टी को सोचना चाहिए । मैं शुरू में समझता था कि नाराज़ वो लोग हैं जो हमेशा से थे । जो अन्ना आंदोलन के समय भी कोस रहे थे । वही लोग इस बार भी आप को कोसने में लगे हैं । यही लोग इस बार भी सक्रिय हैं मगर कुछ और नए लोग आ गए हैं ।

इस्तीफ़े से उन लोगों पर भी असर पड़ा है जो दिल्ली में अरविंद को वोट देने के बाद केंद्र वाली दिल्ली के लिए मोदी को वोट देना चाहते थे । अब इनके लिए मोदी के पाले से लौटा लाना आसान नहीं होगा ।अरविंद का लोकसभा चुनाव न लड़ने का बयान भी घातक हो सकता है । कई लोग मानते हैं कि इससे आप की दावेदारी की गंभीरता कम होती है । जब अरविंद ही नहीं लड़ेंगे तो क्यों वोट देंगे । ये वो तबक़ा है जो बात कर मुखर माहौल बनाता है । विधानसभा चुनाव में लक्ष्य की जो स्पष्टता थी वो लोकसभा चुनावों के संदर्भ में कम है । 

छुट्टी पर होने के कारण इस्तीफ़े से जुड़ी ख़बरों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन आप को लेकर लोगों की इस तरह की प्रतिक्रिया बढ़ती जा रही है । आप में से कई कह रहे थे कि मेरा नज़रिया क्या है। इसीलिए नहीं लिखा क्योंकि टीवी देखा न पेपर पढ़ा । जिस दिन अरविंद इस्तीफ़ा दे रहे थे उसी वक्त मुंबई से दिल्ली उतरा था । हवाई अड्डे पर लगे टीवी सेट पर सुरक्षाकर्मी और एयरपोर्ट स्टाफ़ और कर्मचारी जुटे हुए थे । इस तबके में अरविंद की गहरी पैठ हैं । ज़्यादातर ने कहा कि सही किया है । एक सिपाही ने कहा कि इनको ज़रा बाँदा ले आइये । वहाँ भी ज़रूरत है । अगले दिन ब्रेड लेने निकला तो दुकान पर सब पेपर पढ़ रहे थे । इस तबके की यही राय थी कि कांग्रेस बीजेपी की मिल़ीभगत से बंदा लड़ रहा है । रिलायंस की राजनीतिक छवि के कारण अंबानी पर हमला करने से इस तबके में पार्टी की छवि मज़बूत हुई है लेकिन मध्यमवर्गीय तबके के एक हिस्से को यही अच्छा नहीं लगा । अगर नीचला तबक़ा अरविंद के साथ खड़ा रह गया तभी वे अपने आधार का बचाव या विस्तार कर पायेंगे लेकिन अरविंद उस तबके के प्रति उदासीन नहीं हो सकते जिसका उन पर से विश्वास हिला है ।

हो सकता है कि अरविंद ने अपनी बात लोगों तक न पहुँचाई हो कि क्यों इस्तीफ़ा दिया । लेकिन इन लोगों की दिलचस्पी कारण में ही नहीं है। दूसरा इनमें से कई मोदी समर्थक भी हैं । जिन्हें अरविंद को एक बार के लिए मौक़ा देना था । लोकसभा में वे मोदी को देंगे । साफ़ साफ़ नहीं कहते मगर यह ज़रूर गिनाते हैं कि आप से क्यों निराशा हुई । इसलिए दूसरा चांस नहीं देंगे । 

आज ही लिफ़्ट में एक महिला ने कहा कि आप का क्या हो रहा है तो मैंने सवाल उन पर डाल दिया कि आप बताइये आप को वोट देंगी ? जवाब था फिर से ? मतदाता आप को छोड़ बीजेपी या कांग्रेस की तरफ़ अगर जा रहा है तो अरविंद को सोचना चाहिए । क्या वे अपने से दूर गए मतदाता को समझा पायेंगे कि आपने कांग्रेस बीजेपी को बारी बारी से कितनी बार वोट दिया लेकिन कभी ये कहा़ कि फिर से । उन्हें और ठोस रूप से समझाना होगा कि इस्तीफ़ा क्यों दिया । बहुमत होते हुए भी अल्पमत जैसी सरकार क्यों चलाना ज़रूरी नहीं समझा । लोकसभा चुनावों में अपनी गंभीरता को और स्पष्ट और सुनियोजित करना होगा । कांग्रेस विरोधी तबके म़ें आप और मोदी को लेकर अंतर्विरोध कम दिख रहा है । बीच में इसका बड़ा हिस्सा आप की तरफ़ गया था मगर इस वक्त पलड़ा मोदी की तरफ़ झुका हुआ है ।  कुछ मात्रा में ज़रूर मोदी पर उनका सीधा हमला समर्थक से आलोचक बने आप मतदाताओं को खुराक दे रहा है मगर इसकी संख्या नाराज़ तबके में कम है । नीचले तबके में ज़्यादा है । यही अब अरविंद की नई ताक़त है लेकिन बिना मध्यमवर्ग के मुकुट नहीं मिलता । गुरुवार को दिल्ली की सड़क पर उनकी कार देखी  । तस्वीर लेने के दौरान ग़ौर से देखा कि केजरीवाल निश्चिंत बैठे हैं । इत्मिनान से । मुझे देख मुस्कुराते हुए हाथ भी हिलाया । 



मैं यह लेख चंद लोगों से हुई बातचीत के आधार पर लिख रहा हूँ । मिलने वालों में कुछ की आस्था आप में इसलिए बढ़ गई है क्योंकि अरविंद ने कुर्सी छोड़ दी है और कुछ की इसी कारण घट गई है । मध्यम वर्ग का एक तबक़ा अभी भी साथ में हैं लेकिन उसके बराबर का एक तबक़ा ख़िलाफ़ हो गया है । ख़िलाफ़ से ज़्यादा उदासीन हो गया है । निम्न मध्यमवर्गीय और नव मध्यमवर्गीय तबके में ख़ास प्रभाव नहीं घटा है लेकिन इस तबके में लोग आप के ख़िलाफ़ नहीं हुए हो यह मैं नहीं मानता । मुस्लिम मतदाता में भी आप का विस्तार हो रहा है मगर यह इस बात पर निर्भर करेगा कि किसका उम्मीदवार बीजेपी को हरायेगा । कई लोगों को यह भी लग रहा है कि लोक सभा का चुनाव आप का नहीं है । सरकार तो बना नहीं सकती तो वोट क्यों ख़राब करें । देखते है तेईस की रैली से अरविंद लोगों में आई उदासीनता को पलट देते हैं या नहीं । यह सब सोचते सोचते उनकी कार ट्रैफ़िक में ओझल होती दिखी क्योंकि जहाँ जहाँ जगह मिल रही थी रफ़्तार पकड़ लेती थी । 

नात्ज़ी दौर के गुनहगारों के बहाने

अल जज़ीरा की वेबसाइट पर एक ख़बर पढ़ी जिससे मिलती जुलती ख़बर मैं अगर नब्बे साल का हो गया तब भी पढ़ना चाहूँगा । ख़बर यह है कि जर्मन पुलिस ने ऐसे तीन लोगों को गिरफ़्तार किया है जो 1940-45 के दौरान नाज़ी कैंप आशविच में गार्ड के रूप में तैनात थे जहाँ बड़ी संख्या में यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया गया था । इनकी तीनों की उम्र 88,92,94 है । इन्हें गिरफ़्तार करने के लिए काफी लम्बे समय तक छापामारी चली । 

2011 में म्यूनिख की अदालत ने एक गार्ड को पाँच साल की क़ैद सुनाई जो एक नाज़ी कैम्प में तैनात था । इसी के बाद से कैंपों में तैनात गार्डों के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने का रास्ता साफ़ हो गया था । जर्मनी की सरकार हिटलर के इन कैंपों में नीचले स्तर के या मामूली रूप से तैनात या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करने वालों का पता कर रही है । अल जज़ीरा की साइट पर किसी का बयान है कि वक्त के गुज़र जाने से हत्यारा दोष मुक्त नहीं हो जाता । कैंपों में जो गार्ड तैनात थे उनकी वहाँ मारे जा रहे लोगों से कोई सहानुभूति नहीं थी । इसलिए ये भी सहानुभूति योग्य नहीं हैं । सोचिये इस उम्र में भी सरकार तानाशाही दौर के अपराधियों को खोज रही है गिरफ़्तार कर रही है । नाज़ी पार्टी मिट्टी में मिल गई । हम दंगों में लिप्त तमाम दलों के नेताओं को सत्ता सौंप रहे हैं । इसका बनाम उसका कर रहे हैं । 

इस ख़बर को पढ़ रहा था तभी इत्तफ़ाक़ से मेरी पत्नी अपनी छात्रा का अनुभव बताने लगी । सिख लड़की चौरासी के दंगा पीड़ित परिवारों से बात कर न्याय की अवधारणा को समझने का प्रयास कर रही है । उस लड़की की मुलाक़ात एक परिवार से होती है जो बताता है कि नरसंहार के वक्त उनके घर में हथियार थे लिहाज़ा सबने मिलकर दंगाइयों को खदेड़ दिया । थोड़ी देर में पुलिस आई और कहा कि हम आ गए हैं सुरक्षा के लिए । आप अपने हथियार दे दीजिये । परिवार ने पुलिस पर भरोसा कर लिया । उसके पंद्रह मिनट बाद ही दंगाइयों की भीड़ लौट आई और क़त्लेआम कर गई । 

सोचिये पुलिस वाले प्रमोशन भी पा गए होंगे । पेंशन भी ले रहें होंगे । मुझे नहीं मालूम केजरीवाल सरकार की एस आई टी बनाने की ख़बर सुनकर डर गए होंगे या हंस रहे होंगे । हम दलों में बँटे बेईमान लोग न होते तो दंगों में शामिल पार्टियों को समाप्त कर देते और सरकारों पर आजतक उन अपराधियों का पता लगाने के लिए दबाव डालते । गुजरात भागलपुर, दिल्ली और मुज़फ़्फ़रनगर न जाने कितने राज्य और शहर । क्या कभी आशविच कैंप में तैनात नाज़ी गार्ड की तरह इन राज्यों की पुलिस को सज़ा मिलेगी । लोगों को सज़ा देगा। कई दंगों में सज़ा मिली है लेकिन क्या जर्मनी की तरह एक एक को खोज कर दी गई है । क्या आज तक उनकी खोज जारी है । जब जर्मनी आजतक सज़ा दे रहा है तो हिन्दुस्तान क्यों नहीं । 

कई बार सोचता हूँ जो बाबरी मस्जिद ढहा कर गुमनामी में खो गए वे किसे कहते होंगे कि इस भीड़ में मैं भी था मगर पुलिस आज तक नहीं पहुँच सकी । न ही वे उन लोगों तक पहुँच पाये होंगे जो बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद बड़े नेता बन गए । उनका एकांत और अफ़सोस कितना भयानक होगा । इतनी बड़ी संख्या में हिंसक लोग बचे रह गए ।  इसी ब्लाग पर जब वहाँ मौजूद एक फ़ोटोग्राफ़र की तस्वीर पर लिखा रहा था तब इन सवालों से गुज़र रहा था । वे लोग जब इन तस्वीरों को देखते होंगे तो ख़ुद को पहचानते होंगे या नहीं । कोई प्रायश्चित्त भी करते होंगे या अपनी हिंसा को जायज़ ठहराते होंगे । मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों में मारने वाले हिन्दू मुस्लिम हत्यारे अपने अपराध को कैसे देखते होंगे । कौन सी विचारधारा और आग है ये जो लोगों को वहशी बना देती होगी । गोधरा ट्रेन कांड के आरोपियों को सज़ा मिली है मगर उनके भीतर की हिंसा में क्या किसी ने झाँकने की कोशिश की है । क्या कोई चुप रहकर यह सोचता होगा कि उस भीड़ में कौन लोग होंगे जो अहसान जाफ़री को घर में ही जलाकर देख रहे होंगे । चीख़ने की आवाज़ सुनकर क्या पानी फेंकने का जी नहीं किया होगा । सिखों के गले में टायर डालकर एक बार तो लगा होगा कि नहीं नहीं उतार देते हैं । इस जलते को बचा लेते हैं । कई सिख परिवार कहते हैं कि जिन हिन्दुओं के लिए हमारे गुरुओं ने अपने और अपने बच्चों के सर तक क़लम करा दिये वही हमारे गले में जलती टायर डाल रहे थे । 

पिछले हफ़्ते एक पत्रकार के ज़रिये फ़ोन आया । यह सज्जन एक राज्य में हुए दंगों के एक मामले का मुख्य आरोपी है । मुक़दमा चल रहा है मगर यह शख्स अपने पेशे में लौट चुका है । कहने लगा कि आप विश्व हिन्दू परिषद के एक नेता से बहस करो । मैंने कहा कि क्यों करूँ । बोले कि बस आप एक सवाल पूछ लो । क्या ? यही कि एक हिन्दू परिवार का नाम बता दे जिनकी सेवा की हो । मैं बस सुन रहा था । वो कहने लगे कि देखो जी एक बात समझ गया हूँ । मेरे आरोपों पर तो अदालत फ़ैसला करेगी और मुझे उम्मीद है कि मैं बरी हो जाऊँगा क्योंकि मैं शामिल नहीं था । मेरा ध्यान उनकी इस बात पर नहीं था क्योंकि ये काम अदालत का है । जनाब कहने लगे कि देखो जी इस देश से न मुसलमान जा सकते हैं न कोई और धर्म । सबका है ये देश । कुछ संगठन हम जैसे जवानों को अठारह उन्नीस साल की उम्र में बहका देते हैं । हम समझते हैं कि हिन्दुओं के लिए लड़ रहे हैं ।बाद में पता चला कि ये लोग हमारा हिन्दू मुसलमान के नाम पर इस्तमाल कर रहे हैं । हमें मिलजुलकर ही रहना है । यही मैंने सीखा है । हाल ही में एक और मित्र बताया कि नौजवानी में एक कमरे में बंदकर कोई इस्लाम इस्लाम करता था तो असर तो हो ही जाता था । 

जर्मनी की इस ख़बर से उम्मीद बढ़ती है कि भारत में भी दंगाई नब्बे साल की उम्र तक पकड़े जायेंगे। हम एक सचेत नागरिक समाज की तरह दंगों में शामिल राजनीतिक दलों को चुनाव हराने से भी सख़्त सज़ा देंगे । उन्हें ख़त्म करने तक की सोचेंगे । पूरा राजनीतिक समाज मिलकर सार्वजनिक रूप से दुख और अफ़सोस करेगा ताकि हमारे भीतर ज़रा भी हिंसा न बची रहे जो हिन्दू को हिन्दू के नाम पर मुसलमान को और मुसलमान को मुसलमान के नाम पर हिन्दू को मारने के लिए उकसाये । हम डरपोक लोग हैं । क्या जर्मनी हिटलर के बाद उसकी नाज़ी पार्टी को माफ़ी मांग लेने से माफ़ कर देता । जर्मनी नाज़ी दौर के काले इतिहास पर सिख बनाम गुजरात दंगे टाइप की बहस नहीं करता । कभी हिटलर के उदय की परिस्थितियों को जायज़ नहीं ठहराता है । हम गोधरा बनाम ताला बनाम इंदिरा की हत्या में बचाव खोजते हैं । पूरा जर्मनी अपने इस अतीत पर शर्म करता है और उस मुल्क के प्रायश्चित का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि वह आज तक हिटलर के कैंपों में लगे और चुपचाप देखते रहने वाले चपरासियों क्लर्कों से लेकर गार्डों को खोज रहा है ।पकड़ कर सज़ा दे रहा है ।  हमारे यहाँ सरकार या प्रशासन ऐसा क्यों नहीं है जो दंगाइयों को उनकी उम्र के अंतिम पड़ाव तक पीछा करें और सज़ा दे । हमने दंगों को मनोरंजक मैच में बदल दिया है।  

अखंड स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी

"उनका एक ही व्यक्तित्व था और वह था - स्वयंसेवकत्व  । उनकी एक ही आकांक्षा थी- पूर्ण स्वयंसेवक ।" नरेद्र मोदी ने एक किताब लिखी है ज्योतिपुंज । इस किताब में वे गुरु गोलवलकर की सबसे बड़ी ख़ूबी का ज़िक्र करते हैं जिससे वे काफी प्रभावित हुए हैं । गोलवलकर से जुड़े अनेक प्रसंगों के सहारे मोदी एक स्वयंसेवक के स्व के विलीन हो जाने पर ज़ोर देते हैं ।  लिखते हैं कि गुरु जी ने एक स्वयंसेवक को 'मेरे कार्यकर्ता'कहने पर टोका था कि सब सहयोगी हैं । उन्हें कोई भी भेद-रेखा मंज़ूर नहीं थी । मैं हूँ वही तू है । कैसे गुरु जी दीनदयाल उपाध्याय को टोकते हैं जब खाने की पाँत में बैठे लोगों को रोटी बाँटते वक्त उनके हाथ से टोकरी गिर गई । गुरु जी ने हँसते हुए कहा कि क्यों पंडित जी आजकल शाखा में जाना बंद है ? 

नरेंद्र मोदी को जो भी संघ या स्वयंसेवक से बाहर देखने के अभ्यस्त हैं उन्हें उनकी किताब ज्योतिपुंज का गहन अध्ययन करना चाहिए । नरेंद्र मोदी अपनी किताब में गुरु गोलवलकर की एक बात से गहरे प्रभावित हैं । वे बार बार बता रहे हैं कि न तो वे संघ से दूर हैं और न ही उनके भीतर स्वयंसेवक के अलावा कुछ और भी है ।किसी नेता को समझने के लिए उसकी किताब से बेहतर कोई सार्वजनिक मंच नहीं । जिसे वो लिखते हुए अपनी सोच और इरादे की झलक देता है । प्रभात प्रकाशन ने गुजराती में छपी नरेंद्र मोदी की किताब ज्योतिपुंज का हिन्दी अनुवाद छापा है । संगीता शुक्ला ने सहज अनुवाद किया है ।यह किताब अपनी सामग्री में कई जगहों पर साधारण भी लगती है क्योंकि संघ के संस्थापक डाक्टर हेडगेवार और उनके बाद बने एम एस गोलवलकर पर पहले से ही इतना व्यापक और जटिल साहित्य मौजूद है कि कोई नई जानकारी नहीं मिलती । सिवाय इसके कि मोदी संघ के इन मूल आधार स्तंभों के बारे में क्या सोचते हैं और किन गुणों का ज़िक्र करते हैं, उनके प्रति कितनी श्रद्धा रखते हैं । इस प्रक्रिया में स्वयंसेवक मोदी की निष्ठा और ध्येय का अंदाज़ा मिलता है । 

जैसे कई बार लगता है कि वह ख़ुद को स्वयंसेवक साबित करने के लिए किताब लिख रहे हैं । उनकी सोच में एक रणनीति भी झलकती है । यह किताब गुजराती में तब आई जब बीजेपी के भीतर उनकी राष्ट्रीय दावेदारी उभर रही थी । मोदी संघ के संस्थापकों का ज़िक्र क्यों कर रहे हैं । यूँ तो वह कभी भी कर सकते हैं लेकिन क्या इसका सम्बंध इससे है कि वे इस धारणा को ध्वस्त करना चाहते हैं कि गुजरात में मोदी ने संघ को कभी पनपने नहीं दिया । आर एस एस को अपनी सत्ता से दूर और नियंत्रित रखा । पब्लिक डोमेन में इस तरह की बातें होती रहती हैं । इस फ़्रेमवर्क में अगर मोदी की किताब ज्योति पुंज पढ़ेंगे तो लगेगा कि वे इस धारणा को चुनौती देने के लिए संघ और प्रचारकों से अपने सम्बंधों और उनके विचारों के असर का ज़िक्र कर रहे हैं । वे ऐसे उदाहरण दे रहे हैं जिन्हें पढ़कर यक़ीन होता है कि मोदी ने शायद ही कभी खुद को संघ से आगे करने का प्रयास किया या नियंत्रित किया हो । हो सकता है कि यह धारणा भी एक रणनीति के तहत बनने दी गई ताकि मोदी की स्वीकार्यता ऐसे नेता की तरह हो जो ज़रूरत पड़ने पर हिन्दुत्व से आगे जाकर सोच सकते  हैं । हिन्दुत्व संगठनों पर नियंत्रण रख सकते हैं लेकिन मोदी की इन संगठनों में अगाध श्रद्धा को देखते हुए ऐसा कहना उचित नहीं लगता । जबकि यह किताब बताती है कि उनके लिए हिन्दुत्व से बाहर राष्ट्र को समझने का कोई और ज़रिया - नज़रिया नहीं है। संघ के तमाम प्रचारकों का मोदी के प्रति स्नेह भी अगाध है । 

मोदी की लिखावट बेहद साफ़ है । वे अपनी बात साफ़ साफ़ लिखते हैं । पढ़कर लगता है कि वे सिर्फ राजनीति सोचते रहते हैं । राजनीति करते रहते हैं । वे राजनीति के सतत विद्यार्थी हैं । जिसे लेकर अपनों के बीच भी लड़ते रहते हैं । उनकी यही ख़ूबी मज़बूत विरोधियों को कमज़ोर और आलसी बना देती है ।वे भले अपनी रैलियों में भारत भारत करते हैं मगर किताब में लिखते वक्त हिन्दुस्तान भी नहीं हिन्दुस्थान लिखते हैं । हिन्दुस्तान और हिन्दुस्थान में विचारधारा से लेकर उच्चारण तक का भेद है । पर वे रैली में हिन्दुस्थान क्यों नहीं बोलते ? 

ज्योति पुंज पढ़कर किसी को शक नहीं होना चाहिए कि मोदी की सोच या संस्कार संघ से इतर हैं । ये तो वही बता सकेंगे कि सायास या सोच के साथ वैसे संघ हस्तियों का ज़िक्र किया हैं जिन्होंने गुजरात आकर संघ के लिए काम किया और मोदी पर भी उनका असर हुआ । लेख में कहानी बनाने की भी प्रवृत्ति है यानी कई जगहों पर कम जानकारी होने के बाद भी वे भावपूर्ण वाक्यों से लेख को बड़ा कर देते हैं । राजकोट और अहमदाबाद के डाक्टर हेडगेवार भवनों की तस्वीर भी है जिससे लगे कि उनके राज्य में संघ के दफ़्तर भी चकाचक लगते हैं । जैसे लेखक नरेंद्र मोदी विस्तार से बताते हैं कि कैसे गुजरात में संघ और बीजेपी के लिए कार्यरत के का शास्त्री के सौ साल होने पर उनके सम्मान में राज्य सरकार ने समारोह मनाया जबकि विरोधी सवाल कर रहे थे । राज्य सरकार पर काफी ज़ोर है । 

शास्त्री जी के साथ एक प्रसंग का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि गुजरात में गोधरा कांड के बाद जब भी 
दंगे फ़साद हुए कब शास्त्री जी विश्व हिन्दू परिषद के गुजरात एकम के प्रमुख थे । उन्होंने गुजरात के हित की ज़ोरदार वकालत की थी । उन्होंने एक अखबारी मुलाक़ात में कहा था " गुजरात के दंगों के बाद गुजरात की छाप टी वी चैनलों और राष्ट्रीय अख़बारों ने बिगाड़ी थी । उन्होंने गोधरा कांड को नहीं लेकिन उसके बाद में हुए दंगों को तूल दिया और विश्व के सामने उसे दिखाया जिससे गुजरात को नुक़सान हुआ ।" उन्होंने कहा " यह चैनल भारतीय संस्कृति के लिए बहुत ही जोखिम भरा साबित होंगे । शास्त्री जी ने बहुत ही धैर्यपूर्ण हिन्दुओं को जगाने का आह्वान किया था ।" ये पुस्तक से शब्दश: है । इसके पहले की कई पंक्तियाँ भी शब्दश: है । 

मोदी पर शास्त्री जी का गहरा असर मालूम होता है । कहते हैं कि वे पितातुल्य वात्सल्य रखते थे । जल शास्त्री की संज्ञा देते हुए सरस्वती नदी की खोज का एक प्रसंग मोदी सुनाते हैं । जिसके बाद विद्वानों ने राय दी कि लुप्त सरस्वती के प्रवाह में आज यदि फिर से ट्यूबवेल द्वारा काम किया जाए तो शायद पानी का प्रवाह फिर से प्राप्त होने की संभावना है । मुरली मनोहर जोशी तो वाजपेयी सरकार के समय सफल नहीं हुए लेकिन मोदी के आने पर सरस्वती की प्राप्ति की उम्मीद करनी चाहिए । 

मोदी इन प्रचारकों के योगदान को गुजरात से जोड़ते हैं । गुजरात को इनका क़र्ज़दार बताते हैं । कैसे शास्त्री जी ने संसार को दिखाया कि गुजराती अमाप और समृद्ध भाषा की खाई है । शास्त्री जी ऐसा आग्रह करते थे कि गुजराती भाषा को बचाने के लिए घर में गुजराती भाषा बोलनी चाहिए । मोदी लिखते हैं कि हावर्ड यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में शास्त्रीजी की पुस्तक को रखा गया है । हावर्ड के प्रति मोदी जी की ऐसी श्रद्धा चिदंबरम के संदर्भ में नहीं दिखाई देती है !!

शास्त्री जी के प्रति मोदी का लगाव काफी गहरा है । लिखते हैं कि उनकी पत्नी के हाथ का बनाया बेसन का लड्डू उनकी ऊर्जा का अहम कारण है । मोदी उन्हें बा कहकर बुलाया करते थे । इसी प्रकार महाराष्ट्र से गुजरात में प्रचारक के रूप में काम करने आए वक़ील साहब का भी ज़िक्र करते हैं । मोदी लिखते हैं कि लक्ष्मणराव इनामदार को गुजरात के गाँवों में भी लोग वक़ील साहब के नाम से जानते हैं । वक़ील साहब पच्चीस साल की उम्र में संघ की योजनानुसार गुजरात में नवसारी आ पहुँचे । वक़ील साहब को मोदी ने संघ योगी लिखा है ।मोदी इन प्रचारकों के योगदान के सहारे विश्व हिन्दू परिषद की भी तारीफ़ करते हैं । एक जगह वी एच पी को आशावादी दल बताते हैं । 

हर चैप्टर के बाद मोदी उस शख्स के प्रति भावांजलि भी अर्पित करते हैं । कविता की शैली में । जिससे प्रतीत होता है कि वे किस हद तक पूर्णकालिक स्वयंसेवक और राजनेता है । उनके लगातार सोचने और बोलने की प्रक्रिया का निखार कविता लिखने के प्रयास में दिखता है । जो लोग मोदी को हल्के में लेते हैं उन्हें ज्योतिपुंज पढ़नी चाहिए । खुद लिखने का ऐसा अभ्यास मैंने मायावती में भी देखा है ।

लेखक मोदी ने एक चैप्टर मौजूदा संघ प्रमुख मोहन भागवत के पिता पर भी लिखा है । इस लेख को भी पढ़ते हुए उस फ़्रेम से बच पाना मुश्किल लगता है कि आख़िर मोदी साबित क्या करना चाहते हैं । क्या यह कि देखिये उनके ताल्लुकात कैसे रहे हैं । वे संघ के प्रति कितने समर्पित रहे हैं और रहेंगे । जिस तरह से मोदी अपनी रैलियों के भाषणों में उस स्थान के किसी व्यक्ति,इतिहास या प्रसंग को गुजरात से जोड़ देते हैं उसी तरह अपनी किताब में चौदह प्रचारकों को गुजरात से जोड़ते हैं । डा हेडगेवार और गोलवलकर के अलावा लेखक मोदी गुजरात के बाहर के अपने कार्य क्षेत्रों में सम्पर्क में आए प्रचारकों के बारे में नहीं लिखते हैं । कोई कारण ? 

खैर मोहन भागवत के पिता मधुकरराव भागवत के बारे में लिखते हैं कि उनके पहनावे में मराठी एक गुजराती की छाप झलकती थी । गुजरात हमेशा श्रद्धेय मधुकरराव का ऋणी रहेगा । समाज भक्ति और राष्ट्र भक्ति ने भी आध्यात्मिक अनुष्ठान दिलाने में संघ का अत्यंत अद्भुत दृष्टिकोण रहा है । इस परंपरा को चलाने वाले श्री मधुकरराव को समाजभक्ति का शक्तिपात करते हुए मैंने स्वंय अनुभव किया है । मेरे जैसे हज़ारों लोगों को शक्तिपात का लाभ मिला है । मोदी लिखते हैं कि मधुकरराव के पिता भी संघ से जुड़े थे । तो इस तरह से मोहन भागवत संघ में तीसरी पीढ़ी हैं । महाराष्ट्र से गुजरात काम करने आए मधुकरराव ने अपने नाम के अनुरूप ही उन्होंने गुजराती बोलना भी सीख लिया था । नाम के अनुरूप ? ख़ैर ।  मोदी बताते हैं कि आडवाणी जैसे अनेक स्वयंसेवकों को मधुकरराव के पास शिक्षण लेने का सुअवसर मिला ।

नरेंद्र मोदी ने डा प्राणलाल दोशी यानी पप्पाजी के बारे में लिखते हैं कि "कान में यदि पप्पाजी शब्द पड़े तो राजकोट ही नहीं गुजरात के कोने कोने में एक बड़े वर्ग की आँखों में चमक का अनुभव होता है । लिखते हैं कि राजकोट में भी कलकत्ता की जवानी की छाया झलकती थी । पश्चिम रंग का असर दिखे बिना न रह सका । शाम को क्लब कल्चर,ताश खेलना और सिगरेट के धुएँ में ज़िंदगी हरी भरी रहती है । सरदार पटेल की ज़िंदगी में भी ज़रा झाँककर देखें तो ऐसा ही कुछ देखने को मिलेगा । वक़ील का व्यवसाय,बार में बैठना, क्लब में साथियों के साथ ताश खेलना, सिगरेट के धुएँ में आज़ादी के दीवानों का मज़ाक़ उड़ाना, महात्मा गांधी के प्रति भी मज़ाक़ में कभी-कभी बोलना । सरदार पटेल के जीवन का यह स्वाभाविक क्रम था किंतु महात्मा गांधी के स्पर्श ने सरदार पटेल का जीवन बदल दिया । पप्पाजी के जीवन में कुछ ऐसे ही आमूल परिवर्तन देखने को मिलते हैं ।" 

सरदार पटेल पर मोदी की यह जानकारी तथ्यात्मक है या नहीं मैंने चेक नहीं की है । सरदार पटेल के इस रूप के बारे में कभी पढ़ा नहीं । खैर मोदी जब गुरु गोलवलकर पर लिखते हैं तो सबसे पहले उन्हें दी गई श्रद्धांजलि का ज़िक्र करते हैं । आश्चर्य है मोदी या किसी बीजेपी ने गोलवलकर के संदर्भ में अपनी आलोचना का जवाब देते वक्त इस बात को कैसे भूल जाते हैं । लेखक नरेंद्र मोदी लिखते हैं कि भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था " े संसद के सदस्य नहीं थे, एक ऐसे प्रतिष्ठित सज्जन श्री गोलवलकर आज हमारे बीच नहीं हैं । वे विद्वान थे, शक्तिशाली थे आस्थावान थे । अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व और अपने विचारों के प्रति अटूट निष्ठा के कारण राष्ट्र जीवन में उनका महत्वपूर्ण स्थान था ।"  मोदी लिखते हैं कि गोलवलकर के निधन पर संसद के दोनों सदनों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी थी ।


इसी तरह वे कई अख़बारों का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि जनसत्ता ने तब लिखा था कि स्वामी विवेकानंद और मदन मोहन मालवीय ने भारतीयत्व के लिए जिस प्रकार के उपदेश दिये हैं वे वर्ष दर वर्ष परंपरानुसार चालू रहनेवाले तथा स्वदेशी और भारतीयत्व सम्बंधी देश के वर्तमान नेताओं में वे अकेले ही ज्योतिर्धर थे । स्पष्ट नहीं है कि आज वाले जनसत्ता ने लिखा था या कोई और जनसत्ता था । मोदी पौने तीन सौ पेज की किताब में संदर्भ नहीं देते है । पता नहीं चलता कि उनके किस्से उनके ही देखे या गढ़े हुए हैं या किस किताब किस भाषण से लिये गए हैं । स्मृति के आधार पर इतनी लंबी किताब ? कमाल है ।

यह पुस्तक नरेंद्र मोदी की लेखकीय प्रतिभा को सामने लाती है। उनके आलोचक और समर्थन करने वालों को पढ़ना चाहिए । मोदी और संघ के बीच तनाव की बातों को वे मनगढ़ंत साबित कर देते हैं । मोदी के भीतर संघ है और संघ के भीतर ही मोदी । इस घनघोर घमासान राजनीतिक जीवन में मोदी किताब भी लिख सकते हैं पढ़कर हैरानी हुई । हमें राजनेताओं के बारे में पढ़ना चाहिए । इससे आलोचना और प्रशंसा समृद्ध होती है । किताब जितना बताता है उतना टीवी नहीं बता सकता । एक चुटकी मेरी तरफ़ से । किताब की भूमिका लिखते हुए  स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी की आख़िरी पंक्ति है- " परमात्मा उन्हें स्वस्थ रखे और उन्हें गुजरात की ही नहीं पूरे राष्ट्र की सेवा करने का अवसर प्रदान करे, ऐसी कामना एवं प्रार्थना है।" कहीं इसीलिए तो नहीं लिखी ये किताब !! कोई भी किताब जिसे महत्वपूर्ण नेता स्वयं लिखते हों पढ़नी चाहिए ।क़ीमत है चार सौ रुपये ।