दलितों के उत्थान के लिए इंग्लिश देवी अवतरित
आज २५ अक्तूबर २००९ है। नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में इंग्लिश देवी अवतरित हो गईं। चंद्रभान प्रसाद की चार साल पुरानी परिकल्पना एक मूर्ति के रूप में साकार हुई है। चंद्रभान चाहते हैं कि दलित का हर बच्चा अंग्रेजी में पारंगत हो। अंग्रेजी जानेगा तो वो विश्व की तमाम मुख्यधाराओं से संवाद कर सकेगा। हिंदी भाषी चंद्रभान इस मूर्ति के ज़रिये हिंदी इंग्लिश का फरियौता नहीं करना चाहते। उनका मकसद है कि कम से कम समय में दलित साक्षरता को हासिल किया जाए और अंग्रेजी माध्यम में उनकी निपुणता उनके लिए दुनिया के दरवाज़े खोल देगी। इस मौके पर कुछ ऐसे दलित भी बुलाये गए थे जो उद्योगपति बन चुके हैं। जिनका कारोबार पचास से पांच सौ करोड़ रुपये का है। सिर्फ एक भाषा की कमी से वो दुनिया के सामने हीरो नहीं हैं। अंग्रेज़ी के कारण।
इस मौके पर नरेंद्र जाधव,दिग्विजय सिंह,चंदन मित्रा,निवेदिता मेनन,आशीष नंदी,बिबेक देबरॉय,ब्रिटिश काउंसिल के प्रमुख केविन सहित कई दलित अफसर मौजूद थे। प्रसिद्ध इतिहासकार गेल ओमवेत ने लार्ड मैकाले के जन्मदिन पर केक काटा। ऊपर तीन तस्वीरों में से एक गेल ओमवेत की है जो केक काट रही हैं। पहले की दो तस्वीरें इंग्लिश देवी की है। एक हाथ में कलम,दूसरे में किताब,पांव के नीचे कंप्यूटर और सर पर हैट। सबने इस मौके में मैकाले को आधुनिक भारत का जन्मदाता बताया। जिसे लोग क्लर्क पैदा करने की फैक्ट्री कह कर खारिज करते रहे उस शख्स की तारीफ की गई। वरना गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था आज भी एक खास जाति के लोगों के लिए रह जाती। मैकाले ने आधुनिक स्कूल कालेज की कल्पना की और तालीम के दरवाज़े सबके लिए खुले।
दलित शिक्षा आंदोलन में इंग्लिश की ज़रूरत पर ज़ोर दिया जाता रहा है। अंबेडकर ने भी कहा था अंग्रेजी शेरनी का दूध है। दलित मध्यमवर्ग की अब अगली पहचान इंग्लिश से बनेगी। ऐसा दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद मानते हैं। इसीलिए वो कामयाब दलित उद्योगपतियों को पहली बार इंडिया इंटरनेशनल सेंटर बुलाते हैं। पांच सौ करोड़ के उद्योगपतियों को आईआईसी का पता भी नहीं मालूम था। इंग्लिश देवी पर बहस और विवेचना होती रहेगी। मंत्र यह है कि कोई दलित बच्चा पैदा हो तो उसके एक कान में एबीसीडी और दूसरे कान में वन टू थ्री बोला जाए। आमीन।
हॉट सिटी देखनी चाहिए..बीबीसी की बेहतरीन पेशकश
लेगस डूब रहा है। समुद्र उसके किनारों को कुरेद कर चढ़ा आ रहा है। पर्यावरण के कारण ख़राब हुई खेती ने लाखों लोगों को अफ्रीका के इस दूसरे बड़े शहर में ठेल दिया है। शनिवार की रात हॉट सिटी नाम की डाक्यूमेंट्री से नज़र हट ही नहीं पाई। एक-एक शाट और नेचुरल साउंड लाजवाब तरीके से लगाए गए थे। आबादी बढ़ रही है। नतीजा पानी में झुग्गियां बस रही है। लोग लकड़ी के ऊंचे घर बना कर रह रहे हैं। नाव से चलते हैं। नाव की दुकानें हैं। नावों के चलने की जगह कम होती जा रही है। इन्हीं सब के बीच आदमी जीना सीख रहा है। लेगस में ट्रैफिक जाम एक दर्दनाक दास्तां हैं। घंटों जाम के कारण मोटरबाइक टैक्सी शुरू हो गई हैं। बेरोज़गार लड़के बाइक को कारों के बीच जल्दी निकाल कर ठिकाने पर पहुंचा देते हैं। गाड़ियों की रफ्तार धीमी है तो दिल्ली की तरह वहां भी चौराहों पर दुकानें खुल गईं हैं। खिलौने से लेकर कैलकुलेटर तक बिक रहे हैं। बीबीसी ने तीन पात्रों को लेकर विनाश की इस कहानी को अद्भुत तरीके से दिखाया है। रॉकफेलर फाउंडेशन ने ये डॉक्यूमेंट्री बनाई है।
हिंदुस्तान में भी इस तरह की डॉक्यूमेंट्री बनी हैं। किसी न्यूज़ चैनल ने नहीं बनाई हैं। डाउन टू अर्थ के प्रदीप साहा ने डूबते सुंदरबन पर बेहतरीन टीवी डॉक्यूमेंट तैयार किया है। पर्यावरण ने हमारे जीवन को तबाह करना शुरू कर दिया है। हम पर्यावरण को लेकर कम सजग हैं। हमीं झोला लेकर निकलते थे अब पोलिथिन का थैला लेकर घर आते हैं। प्लास्टिक का कचरा पैदा कर रहे हैं।
खैर बात हॉट सिटी की ही करनी चाहिए। ये डॉक्यूमेंट्री एक बेहतर टीवी प्रोफेशनल और एक बेहतर दर्शक होने के लिए देखी जा सकती है। काइरो के बाद दूसरा बड़ा शहर है लेगस। पूरी कहानी गांव से शहर की ओर हो रहे पलायन को एक किरदार से समस्या को पकड़ती है। डर लगता है कि जब शहर की मेयर बताती है कि कैसे समुद्री कटाव को रोकने के लिए पत्थर के बोल्डर डाले गए लेकिन चार साल में समुद्र ने उन पर रेत डाल कर अपने लिए रास्ता बना लिया। लेकिन आबादी का दबाव इतना है कि लोग इस खतरे के बारे में नहीं सोच रहे। मेयर दिखाती है कि कैसे खूंखार समुद्र से सिर्फ दस मीटर की दूरी पर बिल्डर हसीने सपने बेच रहे हैं। उन्होंने मकान बना दिये हैं। मेयर कहती हैं इनके आंगन को बहा ले जाने के लिए सुनामी की ज़रूरत नहीं। मामूली ज्वार ही काफी है। फिर भी बिल्डर घर बना रहे हैं। उधर मछुआरों की बस्ती में पानी पर झुग्गियां बस रही हैं। सरकार पानी बिजली का इंतज़ाम नहीं कर पाती है। रिपोर्टर कहता है लेगस में हर आदमी अपने आप में स्थानीय निकाय है। वो पानी बिजली और चलने के रास्ते का इंतज़ाम खुद करता है। स्कूल नहीं है तो किसी कोने में दस बच्चे पढ़ाये जा रहे हैं। शहर जनरेटर के भरोसे चल रहा है। ये सब बातें दिल्ली आगरा मेरठ और मुंबई की भी लगती हैं। लेकिन इतने संवेदनशील तरीके से कोई डाक्यूमेंट्री नहीं देखी। क्या पता बनी होगी लेकिन कमअक्ली के कारण नहीं पता हो। इसे देखना चाहिए।
हिंदुस्तान में भी इस तरह की डॉक्यूमेंट्री बनी हैं। किसी न्यूज़ चैनल ने नहीं बनाई हैं। डाउन टू अर्थ के प्रदीप साहा ने डूबते सुंदरबन पर बेहतरीन टीवी डॉक्यूमेंट तैयार किया है। पर्यावरण ने हमारे जीवन को तबाह करना शुरू कर दिया है। हम पर्यावरण को लेकर कम सजग हैं। हमीं झोला लेकर निकलते थे अब पोलिथिन का थैला लेकर घर आते हैं। प्लास्टिक का कचरा पैदा कर रहे हैं।
खैर बात हॉट सिटी की ही करनी चाहिए। ये डॉक्यूमेंट्री एक बेहतर टीवी प्रोफेशनल और एक बेहतर दर्शक होने के लिए देखी जा सकती है। काइरो के बाद दूसरा बड़ा शहर है लेगस। पूरी कहानी गांव से शहर की ओर हो रहे पलायन को एक किरदार से समस्या को पकड़ती है। डर लगता है कि जब शहर की मेयर बताती है कि कैसे समुद्री कटाव को रोकने के लिए पत्थर के बोल्डर डाले गए लेकिन चार साल में समुद्र ने उन पर रेत डाल कर अपने लिए रास्ता बना लिया। लेकिन आबादी का दबाव इतना है कि लोग इस खतरे के बारे में नहीं सोच रहे। मेयर दिखाती है कि कैसे खूंखार समुद्र से सिर्फ दस मीटर की दूरी पर बिल्डर हसीने सपने बेच रहे हैं। उन्होंने मकान बना दिये हैं। मेयर कहती हैं इनके आंगन को बहा ले जाने के लिए सुनामी की ज़रूरत नहीं। मामूली ज्वार ही काफी है। फिर भी बिल्डर घर बना रहे हैं। उधर मछुआरों की बस्ती में पानी पर झुग्गियां बस रही हैं। सरकार पानी बिजली का इंतज़ाम नहीं कर पाती है। रिपोर्टर कहता है लेगस में हर आदमी अपने आप में स्थानीय निकाय है। वो पानी बिजली और चलने के रास्ते का इंतज़ाम खुद करता है। स्कूल नहीं है तो किसी कोने में दस बच्चे पढ़ाये जा रहे हैं। शहर जनरेटर के भरोसे चल रहा है। ये सब बातें दिल्ली आगरा मेरठ और मुंबई की भी लगती हैं। लेकिन इतने संवेदनशील तरीके से कोई डाक्यूमेंट्री नहीं देखी। क्या पता बनी होगी लेकिन कमअक्ली के कारण नहीं पता हो। इसे देखना चाहिए।
तेरा राम ही करेंगे बेड़ा पार...
ये फोटू एनडीटीवी के बाहर दादा की दुकान से सटी दीवार पर लगी है। मनहर मुताबिक लखन ने लगाई है। लखन तबाकू,पान बीड़ी का प्रचार प्रसार कर रोज़गार पा रहे हैं। सरकार का फरमान आया है कि अठारह साल से कम उम्र के लोगों के लिए तंबाकू बेचना अपराध है। इस बीच में एक और कानून है कि तंबाकू स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। कमाए खाए आदमी कि कानून पालन करवाए। सो राम भरोसे हवाले कर दिया गया है। दिल्ली में ये आदेश पत्र हर पान दुकान पर अवतरित हो चुका है। कितना पालन हो रहा है वो रामजी जानते हैं। रामजी से घबराने की ज़रूरत नहीं है। वो सिर्फ नैतिक दबाव ही बना दें तो काफी है। वर्ना रामजी और गणेश जी लखन की भक्ति पूजा के ही काम आ रहे हैं। फोटू देख के लगा कि कोई अठारह से कम वाला तंबाकू खरीदा तो राम जी तीर से टन देनाक गरदनवे भांज देंगे। उड़ के चल जाएगा रोडवा पार। देखो देखो...जहां तहां से शहर को देखो और गाओ...तेरा राम ही करेंगे बेड़ा पार..उदासी मन काहे को करे..महक सिल्वर..मेरा दिलबर। ये आज के अखबार में किसी गुटका का स्लोगन है।
लोग लिख रहे हैं...
पंजाब की तरह पटना
एक दौर रहा है जब पंजाब के लोग पंजाब से निकल कर कई प्रांतों में गए। पंजाबी ढाबा देश के तमाम हाईवे पर खुला। पंजाब रोडवेज़ से लेकर गुरुनानक टैक्सी स्टैंड तक खुले। पंजाब के लोग जहां भी गए अपनी मिट्टी का नाम और संस्कार ले गए। हिंदुस्तान के भीतर माइग्रेशन के दूसरे चरण में बिहार और उड़ीसा के लोग काफी रहे हैं। लेकिन अभी उड़ीसा की इस तरह की पहचान नहीं उभर रही है। बिहार की उभरनी शुरू हो गई है। गाज़ियाबाद के जिस इलाके में रहता हूं वहां पटना टैक्सी और पटना सलून खुल चुका है। हमारे मित्र जल्दी ही वैशाली में भोज भात नाम से एक रोड साइड फूड स्टॉल लगा रहे हैं। जिसमें बिहार के प्रतीकों की तस्वीरें होंगी। इस फूड स्टॉल में पहली बार चंपारण के मटन भेराइटी परोसा जा रहा है। ताश एक खास किस्म का मटन फ्राई है। जिसे भूजा के साथ खाने पर सुरूर चढ़ता है। कई तरह के बिहारी पराठे भी परोसने का वादा कर रहे हैं। पूरी तैयारी हो चुकी है बस एक दो दिन में खुलने वाला है। उनका दावा है कि कम तेल कम दाम में बेहतर बिहारी व्यंजन का ठिकाना बनायेंगे। ये अच्छा है। भारत के भीतर माइग्रेशन के इस स्तर का भी पाठ होना चाहिए। माइग्रेशन सिर्फ मज़दूरों का नहीं होता हम जैसों का भी होता है। जो हर दिन अपने भीतर गांव और शहर को लेकर रोते रहते हैं।
अब हैप्पी गोवर्धन पूजा हो गया है
शुभकामनाओं की जगह अब हम हैप्पी बोलने लगे हैं। हैप्पी की सूची में गोवर्धन पूजा और भैया दूज भी जुड़ गए हैं। उभरते हुए नेता समझ गए हैं कि वैशाली में यूपी बिहार और उत्तर भारत के कई शहरों के लोग हैं। क्यों न उनके अपने त्योहारों के लिए शुभकामनाएं देकर जगह बनाई जाए। बधाई संदेशों को लेकर नेताओं में एक खास किस्म का कंपटीशन रहा है। जब ये सिलसिला चला तो बड़ी होर्डिग में एक ही त्योहार या राष्ट्रीय दिवस होता था। बाद में एक होर्डिंग में खर्चा बचाने के लिए हैप्पी न्यू ईयर और गणतंत्र दिवस और मकर संक्रांति एक साथ जोड़े जाने लगे ताकि यह होर्डिंग कुछ महीने तक काम आए। आउट डेटेड न हो जाए। लेकिन अब यह थोड़ा बदला है। भैयादूज और गोवर्धन पूजा के लेवल पर आ गया है। कुछ दिन में सोमवारी व्रत और एकादशी की भी शुभकानाएं हमारे नेताओं के तरफ से मिलेंगी। स्वीकार कीजिए। और हां, इस पोस्टर में आपको नेता का मोबाइल नंबर और जीमेल अकाउंट भी है। उभरते नेता आपसे कनेक्ट होना चाह रहे हैं।
टीआरपी बेहतर पत्रकारिता की दुश्मन नहीं है
आनंद प्रधान का शुक्रिया। उन्होंने मुझे एक बहुत अच्छी किताब पढ़ने को दी। टीआरपी पर बहस करने वाले हर पत्रकार व संपादक को यह पुस्तक पढ़नी चाहिए। इसका नाम ही दिलचस्प है। We Interrupt This Newscast, How to improve local news and win ratings, too. Tom Rosenstiel, Marion R Just, Todd.Ll Belt, Atiba Pertilla,Walter C.Dean Dante Chinni इन लोगों ने मिलकर एक प्रोजेक्ट के तहत पांच साल की मेहनत के बाद इस पुस्तक को अंजाम दिया है। इस किताब की एक एक पंक्ति पांच साल के दौरान ३३,००० न्यूज़ स्टोरी और उनकी रेटिंग का तुलनात्मक अध्ययन के बाद ही निकली है। १९९८ से लेकर २००२ के बीच कई लोकल न्यूज़ चैलनों से प्रसारित रिपोर्ट का अध्ययन है। कुछ भी लगने के आधार पर नहीं लिखा गया है। यह किताब एक कोशिश है कि टीआरपी के इस मौजूदा मॉडल के बीच बेहतरीन पत्रकारिता को कैसे ज़िंदा रखा जाए और उन धारणाओं से भी मुकाबला करना है जो आए दिन हम न्यूज रूम में लगने के आधार पर सिद्धांत बनाते रहते हैं। एक बात ध्यान रखना चाहिए कि यह पुस्तक पूरी तरह अमरीकी समाज के संदर्भ में है और २००७ में छपी इस किताब के बाद से अमरीका से लेकर हिंदुस्तान तक में टीवी की दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे दर्शक का संस्कार भले ही अलग हो लेकिन ज़्यादातर टीवी कार्यक्रमों की रुपरेखाएं अमेरीकी पृष्ठभूमि से ली गईं हैं या उनकी ही तरह हैं। इस पुस्तक को प्रोजेक्ट फॉर एक्सलेंस इन जर्नलिज़्म के तहत पूरा किया गया है।
यह ग्रुप दस साल तक लगातार शोध के बाद अपने नतीजे पर पहुंचा है। इस किताब को पढ़ने से पहले Elements of Journalism by Kovach पढ़ा जाना चाहिए। इस किताब की चर्चा में मैं कई महीने पहले अपने ब्लॉग पर कर चुका हूं। मुझे ये किताब उबैद सिद्दीक़ी से मिली थी। उबैद साहब जामिया विश्वविद्यालय के मास कॉम में पढ़ाते हैं। उबैद साहब बीबीसी में कई साल काम कर चुके हैं और काफी बारीकी और जांच परख कर की जाने वाली पत्रकारिता में यकीन रखते हैं। लेकिन इन जैसे लोगों में अब ज़माना शायद ही यकीन रखता हो। आप इनसे सीखना चाहे तो धीरज के साथ जाइये और काफी कुछ सीख सकते हैं।
ख़ैर। यह किताब उम्दा पत्रकारिता से रेटिंग हासिल करने का मंत्र देती है। सोच सकारात्मक है। मामूली गिरावट पर पत्रकारिता के दोषों को दूर करने से पहले पूंजीवाद को पलट कर बिना किसी विकल्प के पत्रकारिता को गरियाने का मकसद कहीं नहीं है। बल्कि दावा करती है कि मेहनत और निष्पक्षता से की गई ख़बरों को डेस्क पर तैयार की फालतू रिपोर्टों से ज़्यादा नंबर मिलते हैं। हमारे मुल्क में इस तरह का अध्ययन नहीं हुआ है। कुछेक पत्रकार हैं जो संस्मरणात्मक और टिप्पणियात्म किताब लिख रहे हैं। लेकिन रेटिंग की बारीक आंकड़ों के बीच से जुझारू और ज़रूरी पत्रकारिता के लिए अच्छी ख़बर ढूंढ लाने की कोशिश कम हुई है। वैसे भी हमारे यहां पढ़ने का चलन कम है और पढ़ाने का ज़्यादा। सब एक दूसरे को पढ़ाना चाहते हैं। लेकिन इस किताब को पढ़िये ज़रूर। कई मिथक धाराशाही होते नज़र आएंगे।
पहले रेटिंग को समझना ज़रूरी है। शुरूआती दौर में रेटिंग से यह अंदाज़ा लगाया जाता था कि दर्शकों की संख्या कितनी होगी। अब यह मापा जाता है कि किसी खास रिपोर्ट या शो को कितने लोगों ने देखा। अब तो एंकर लिंक से लेकर ब्रेक और हर एक रिपोर्ट की रेटिंग निकाली जा सकती है। शुरूआत में जिनके घरों में टैम मीटर लगाये गए उन्हें एक डायरी दी गई। उनसे कहा गया कि वे एक महीने तक नोट करें कि कोई शो कितने देर तक और क्या क्या देखा। तब साल में चार बार ही रेटिंग ली जाती थी। लेकिन १९९० से हालात बदल गए। निल्सन कंपनी ने ऑडियेंस मीटर लगाने शुरू कर दिये। यह मीटर टीवी ऑन करते ही रिकार्ड करने लगता है। एक घर में अलग अलग लोगों के लिए कोड दिये गए। अगर कोई मर्द देख रहा है तो वह अपने कोड से टीवी ऑन करेगा। तभी हम जान पाते हैं कि अमुक टाइम में मर्द देख रहा है या औरत। इसीलिए दोपहर के वक्त न्यूज़ चैनल ‘महिलाओं के लिए’ चैनल में बदल जाते हैं। माना जाता है कि इस वक्त औरतें अपने कोड से टीवी ऑन करती होंगी। अब आपको हर मिनट की रेटिंग मिल जाती है। अगर आप किसी घटिया कार्यक्रम को एक मिनट से ज्यादा देख लेते हैं तो रेटिंग चाहने वालों का काम हो जाता है। इससे टाइम स्पेंट बढ़ जाता है और नंबर आ जाते हैं। इसलिए जब मैं कई घरों में जाकर सर्वे कर रहा था तो पाया कि ज्यादातर लोग चुनिंदा चैनलों की आलोचना कर रहे हैं लेकिन यह भी पाया कि वे उन चैनलों को देखते भी हैं। मुझे लगा कि वे जब तक आलोचना करने के मूड में आते होंगे वो चैनल उन्हें एक मिनट तक रोक लेता होगा और वो रेटिंग में आगे आ जाता होगा। तभी मैं कहता हूं जैसा दर्शक होगा वैसा ही होगा न्यूज़ चैनल। कम से कम इस रेटिंग व्यवस्था के तहत।
यह जागरूकता ज़रूरी है कि आप किसी चुनिंदा चैनल को पसंद नहीं करते हैं तो कभी जाइये ही मत। इससे खराब शो की रेटिंग खराब आएगी और बेहतर शो के लिए मौके बनेंगे। आप दर्शकों के हाथ में जो रिपोर्ट है उसी से तय होगा कि हम अगले हफ्ते किस किस्म के शो करेंगे। आपने देखा होगा कि अगर चीन पर एक चैनल ने शो चलाया और वो हिट हो गया तो उसकी रेटिंग देखते ही बाकी चैनल भी अगले हफ्ते चीन प्रलाप करने लगते हैं। बड़े-बड़े फिल्म स्टार शुक्रवार से पहले कांपने लगते हैं। करोड़ों रुपये दांव पर लगे होते हैं। हम पत्रकार ये दर्द अब हर दिन झेल रहे हैं। समय के साथ टीवी पत्रकारिता खूब बदली है। बदलना भी चाहिए। कब तक आप अरुण जेटली या अभिषेक मनु सिंघवी की वही बातें बार बार सुनेंगे। इसके साथ टीवी को दूसरे इलाके में जाना होगा। इस माध्यम का काम दिखाना भी है। दिखाने के नए किस्से ढूंढने होंगे। कई लोग आलोचना में स्टोरी की एडिटिंग को भी लपेट में ले लेते हैं। ये अधिकार तो हमें कंप्यूटर देता है। इफैक्ट डालें और कलात्मक संपादन से बेहतर करें ताकि वो दर्शनीय हो। सिर्फ कच्चे फुटेज के सिम्पल एडिट से भी काम नहीं चलेगा। और जब तक इनका इस्तमाल खबर को प्रभावशाली बनाने में किया जाता है तब तक ये ठीक भी है। इन तरीकों की आलोचना होनी चाहिए लेकिन ये नहीं कि क्यों कर दिया। बात इस पर हो कि जो किया उससे अच्छा क्या हो सकता था।
इस किताब के कुछ निष्कर्ष से मैं सहमत होता लगता हूं। मैंने भी देखा है कि खराब तरीके से की गई कई रिपोर्ट की रेटिंग नहीं आती। कारण समझा है तो पाया कि जब भी बेमन से कोई रिपोर्ट फाइल की जाती है उसके नंबर नहीं आते। लेकिन जब पूरी मेहनत और निष्पक्षता से कोई रिपोर्ट फाइल की जाती है तो उसके नंबर आते हैं। मेहनत से मेरा मतलब है कि किसी ने बयान दिया तो उसकी पड़ताल की गई। उस पर प्रतिक्रिया लेने की कोशिश की गई। सही संदर्भों में रखा गया। इस तरह की राजनीतिक खबरों के भी नंबर आए हैं। इस किताब का भी यही दावा है कि अगर रिपोर्टर मेहनत से रिपोर्ट फाइल करेगा तो उसके नंबर आने के चांस वही है जो शिल्पा शेट्टी के चुम्मे से आते हैं।
यह लेख मैं दर्शकों के लिए लिख रहा हूं। कई सीरीज़ में लिखूंगा। मकसद यही है कि टीआरपी का विकल्प जब तक नहीं आता और आज तक कहीं आया भी नहीं है तो कैसे बेहतर पत्रकारिता की जाए। एक बात ध्यान में रखना होगा। टीवी बदल गया है। वो हमेशा सीरीयस नहीं रह सकता। उसके लिए दर्शकों और आलोचकों को अलग पैमाना बनाना होगा। अखबार की नज़र से टीवी नहीं देख सकते।
यह ग्रुप दस साल तक लगातार शोध के बाद अपने नतीजे पर पहुंचा है। इस किताब को पढ़ने से पहले Elements of Journalism by Kovach पढ़ा जाना चाहिए। इस किताब की चर्चा में मैं कई महीने पहले अपने ब्लॉग पर कर चुका हूं। मुझे ये किताब उबैद सिद्दीक़ी से मिली थी। उबैद साहब जामिया विश्वविद्यालय के मास कॉम में पढ़ाते हैं। उबैद साहब बीबीसी में कई साल काम कर चुके हैं और काफी बारीकी और जांच परख कर की जाने वाली पत्रकारिता में यकीन रखते हैं। लेकिन इन जैसे लोगों में अब ज़माना शायद ही यकीन रखता हो। आप इनसे सीखना चाहे तो धीरज के साथ जाइये और काफी कुछ सीख सकते हैं।
ख़ैर। यह किताब उम्दा पत्रकारिता से रेटिंग हासिल करने का मंत्र देती है। सोच सकारात्मक है। मामूली गिरावट पर पत्रकारिता के दोषों को दूर करने से पहले पूंजीवाद को पलट कर बिना किसी विकल्प के पत्रकारिता को गरियाने का मकसद कहीं नहीं है। बल्कि दावा करती है कि मेहनत और निष्पक्षता से की गई ख़बरों को डेस्क पर तैयार की फालतू रिपोर्टों से ज़्यादा नंबर मिलते हैं। हमारे मुल्क में इस तरह का अध्ययन नहीं हुआ है। कुछेक पत्रकार हैं जो संस्मरणात्मक और टिप्पणियात्म किताब लिख रहे हैं। लेकिन रेटिंग की बारीक आंकड़ों के बीच से जुझारू और ज़रूरी पत्रकारिता के लिए अच्छी ख़बर ढूंढ लाने की कोशिश कम हुई है। वैसे भी हमारे यहां पढ़ने का चलन कम है और पढ़ाने का ज़्यादा। सब एक दूसरे को पढ़ाना चाहते हैं। लेकिन इस किताब को पढ़िये ज़रूर। कई मिथक धाराशाही होते नज़र आएंगे।
पहले रेटिंग को समझना ज़रूरी है। शुरूआती दौर में रेटिंग से यह अंदाज़ा लगाया जाता था कि दर्शकों की संख्या कितनी होगी। अब यह मापा जाता है कि किसी खास रिपोर्ट या शो को कितने लोगों ने देखा। अब तो एंकर लिंक से लेकर ब्रेक और हर एक रिपोर्ट की रेटिंग निकाली जा सकती है। शुरूआत में जिनके घरों में टैम मीटर लगाये गए उन्हें एक डायरी दी गई। उनसे कहा गया कि वे एक महीने तक नोट करें कि कोई शो कितने देर तक और क्या क्या देखा। तब साल में चार बार ही रेटिंग ली जाती थी। लेकिन १९९० से हालात बदल गए। निल्सन कंपनी ने ऑडियेंस मीटर लगाने शुरू कर दिये। यह मीटर टीवी ऑन करते ही रिकार्ड करने लगता है। एक घर में अलग अलग लोगों के लिए कोड दिये गए। अगर कोई मर्द देख रहा है तो वह अपने कोड से टीवी ऑन करेगा। तभी हम जान पाते हैं कि अमुक टाइम में मर्द देख रहा है या औरत। इसीलिए दोपहर के वक्त न्यूज़ चैनल ‘महिलाओं के लिए’ चैनल में बदल जाते हैं। माना जाता है कि इस वक्त औरतें अपने कोड से टीवी ऑन करती होंगी। अब आपको हर मिनट की रेटिंग मिल जाती है। अगर आप किसी घटिया कार्यक्रम को एक मिनट से ज्यादा देख लेते हैं तो रेटिंग चाहने वालों का काम हो जाता है। इससे टाइम स्पेंट बढ़ जाता है और नंबर आ जाते हैं। इसलिए जब मैं कई घरों में जाकर सर्वे कर रहा था तो पाया कि ज्यादातर लोग चुनिंदा चैनलों की आलोचना कर रहे हैं लेकिन यह भी पाया कि वे उन चैनलों को देखते भी हैं। मुझे लगा कि वे जब तक आलोचना करने के मूड में आते होंगे वो चैनल उन्हें एक मिनट तक रोक लेता होगा और वो रेटिंग में आगे आ जाता होगा। तभी मैं कहता हूं जैसा दर्शक होगा वैसा ही होगा न्यूज़ चैनल। कम से कम इस रेटिंग व्यवस्था के तहत।
यह जागरूकता ज़रूरी है कि आप किसी चुनिंदा चैनल को पसंद नहीं करते हैं तो कभी जाइये ही मत। इससे खराब शो की रेटिंग खराब आएगी और बेहतर शो के लिए मौके बनेंगे। आप दर्शकों के हाथ में जो रिपोर्ट है उसी से तय होगा कि हम अगले हफ्ते किस किस्म के शो करेंगे। आपने देखा होगा कि अगर चीन पर एक चैनल ने शो चलाया और वो हिट हो गया तो उसकी रेटिंग देखते ही बाकी चैनल भी अगले हफ्ते चीन प्रलाप करने लगते हैं। बड़े-बड़े फिल्म स्टार शुक्रवार से पहले कांपने लगते हैं। करोड़ों रुपये दांव पर लगे होते हैं। हम पत्रकार ये दर्द अब हर दिन झेल रहे हैं। समय के साथ टीवी पत्रकारिता खूब बदली है। बदलना भी चाहिए। कब तक आप अरुण जेटली या अभिषेक मनु सिंघवी की वही बातें बार बार सुनेंगे। इसके साथ टीवी को दूसरे इलाके में जाना होगा। इस माध्यम का काम दिखाना भी है। दिखाने के नए किस्से ढूंढने होंगे। कई लोग आलोचना में स्टोरी की एडिटिंग को भी लपेट में ले लेते हैं। ये अधिकार तो हमें कंप्यूटर देता है। इफैक्ट डालें और कलात्मक संपादन से बेहतर करें ताकि वो दर्शनीय हो। सिर्फ कच्चे फुटेज के सिम्पल एडिट से भी काम नहीं चलेगा। और जब तक इनका इस्तमाल खबर को प्रभावशाली बनाने में किया जाता है तब तक ये ठीक भी है। इन तरीकों की आलोचना होनी चाहिए लेकिन ये नहीं कि क्यों कर दिया। बात इस पर हो कि जो किया उससे अच्छा क्या हो सकता था।
इस किताब के कुछ निष्कर्ष से मैं सहमत होता लगता हूं। मैंने भी देखा है कि खराब तरीके से की गई कई रिपोर्ट की रेटिंग नहीं आती। कारण समझा है तो पाया कि जब भी बेमन से कोई रिपोर्ट फाइल की जाती है उसके नंबर नहीं आते। लेकिन जब पूरी मेहनत और निष्पक्षता से कोई रिपोर्ट फाइल की जाती है तो उसके नंबर आते हैं। मेहनत से मेरा मतलब है कि किसी ने बयान दिया तो उसकी पड़ताल की गई। उस पर प्रतिक्रिया लेने की कोशिश की गई। सही संदर्भों में रखा गया। इस तरह की राजनीतिक खबरों के भी नंबर आए हैं। इस किताब का भी यही दावा है कि अगर रिपोर्टर मेहनत से रिपोर्ट फाइल करेगा तो उसके नंबर आने के चांस वही है जो शिल्पा शेट्टी के चुम्मे से आते हैं।
यह लेख मैं दर्शकों के लिए लिख रहा हूं। कई सीरीज़ में लिखूंगा। मकसद यही है कि टीआरपी का विकल्प जब तक नहीं आता और आज तक कहीं आया भी नहीं है तो कैसे बेहतर पत्रकारिता की जाए। एक बात ध्यान में रखना होगा। टीवी बदल गया है। वो हमेशा सीरीयस नहीं रह सकता। उसके लिए दर्शकों और आलोचकों को अलग पैमाना बनाना होगा। अखबार की नज़र से टीवी नहीं देख सकते।
आओ खेती-खेती खेलें
इनदिनों कई मित्र खेती-खेती खेल रहे हैं। फेसबुक पर फार्म विले नाम का एक खेल लोकप्रिय हो गया है। किसानी का कंप्यूटरीकरण किया गया है। आप वर्चुअल वर्ल्ड में हल जोत सकते हैं। गेहूं से लेकर स्ट्राबेरी तक रोप सकते हैं। एसी चलाइये और क्लिक कीजिए। माउस आपको हल तक ले जायेगा और क्लिक से ही खेत जोता जायेगा। उसके बाद धान या गेहूं रोप दीजिए। अनाज तैयार हो कर बिकेगा। आपके अकाउंट में पैसा जमा होगा।
सब कुछ नकली है। हम किसानी जगत को अब कम जानते हैं। भारत किसानों का देश है या एक ग्राम प्रधान देश है से शुरू होने वाली किताबें अब खत्म हो गईं हैं। इससे पहले कि बच्चे यह समझ लें कि दूध मदर डेयरी देती है और केला रिलायंस फ्रेश के स्टॉल पर ही उग जाता है,खेती-खेती खेल कर आप किसानी जगत की वर्चुअल रियालिटी से अवगत हो सकते हैं। दफ्तर में सुना कि प्लीज़ मुझे फ्री गिफ्ट भेजो ताकि उससे मैं खेती-खेती खेल सकूं।
इस वर्चुअल खेती-खेती गेम में न तो प्रेमचंद की ज़रूरत है तो हरिया होरी की। टाई लगा कर हर बड़ा एक्झीक्यूटिव इ खेल खेल रहा है। कोई विदर्भ टाइप जगहे नहीं हैं इहां। कोई किसान कर्ज़ में नहीं मर रहा है। न ही केंद्र सरकार मुआवज़े का एलान करती है। खेती-खेती खेल में आराम है। धूप नहीं लगती। पसीना नहीं बहता। किसान का कोरपोरेट कल्चर विकसित हो रहा है। लाखों लोग दुनिया में फार्म विले खेल रहे हैं। दिन में स्ट्राबेरी लगाते हैं और रात में धान काट लेते हैं। हद है भाई।
किसानी गेम हो गया है दोस्तों। फार्म विले को लेकर मार मची है। सब धान बाईस पसेरी। न मौसम का तकाजा न महाजन का। ले बिना लोन के किये जा फार्मिंग। गाय-गोरू सब है फार्म में। घोड़ों बंधले है सब। अस्तबल भी है। मुझे कभी नहीं लगा कि खेती-खेती गेम हो सकता है। बड़ा अच्छा है। बाबूजी एक बार कनवे उमेठ दिये थे। खुरपी सही नहीं लगा था। बोले कि ठीक से लगाओ खुरपी। फार्म विले में इ सब झंझट नहीं है। क्लिक करने पर सब सहिये हो जाता है। गैर किसानों के बीच किसान का एक नया मानस बन रहा है। खेती-खेती खेल मुबारक।
सब कुछ नकली है। हम किसानी जगत को अब कम जानते हैं। भारत किसानों का देश है या एक ग्राम प्रधान देश है से शुरू होने वाली किताबें अब खत्म हो गईं हैं। इससे पहले कि बच्चे यह समझ लें कि दूध मदर डेयरी देती है और केला रिलायंस फ्रेश के स्टॉल पर ही उग जाता है,खेती-खेती खेल कर आप किसानी जगत की वर्चुअल रियालिटी से अवगत हो सकते हैं। दफ्तर में सुना कि प्लीज़ मुझे फ्री गिफ्ट भेजो ताकि उससे मैं खेती-खेती खेल सकूं।
इस वर्चुअल खेती-खेती गेम में न तो प्रेमचंद की ज़रूरत है तो हरिया होरी की। टाई लगा कर हर बड़ा एक्झीक्यूटिव इ खेल खेल रहा है। कोई विदर्भ टाइप जगहे नहीं हैं इहां। कोई किसान कर्ज़ में नहीं मर रहा है। न ही केंद्र सरकार मुआवज़े का एलान करती है। खेती-खेती खेल में आराम है। धूप नहीं लगती। पसीना नहीं बहता। किसान का कोरपोरेट कल्चर विकसित हो रहा है। लाखों लोग दुनिया में फार्म विले खेल रहे हैं। दिन में स्ट्राबेरी लगाते हैं और रात में धान काट लेते हैं। हद है भाई।
किसानी गेम हो गया है दोस्तों। फार्म विले को लेकर मार मची है। सब धान बाईस पसेरी। न मौसम का तकाजा न महाजन का। ले बिना लोन के किये जा फार्मिंग। गाय-गोरू सब है फार्म में। घोड़ों बंधले है सब। अस्तबल भी है। मुझे कभी नहीं लगा कि खेती-खेती गेम हो सकता है। बड़ा अच्छा है। बाबूजी एक बार कनवे उमेठ दिये थे। खुरपी सही नहीं लगा था। बोले कि ठीक से लगाओ खुरपी। फार्म विले में इ सब झंझट नहीं है। क्लिक करने पर सब सहिये हो जाता है। गैर किसानों के बीच किसान का एक नया मानस बन रहा है। खेती-खेती खेल मुबारक।
हर शहर को गांव सा भूल गया हूं
जाने कितने शहरों से गुज़र चुका हूं
अपने गांव से बहुत दूर निकल चुका हूं
लौटना मुश्किल है अब किसी शहर में
हर पुराने शहर को गांव सा भूल गया हूं
रहता हूं जिस मकान में,दाम पूछता हूं
रविवार के अख़बार में खरीदार ढूंढता हूं
आने से पहले ही हो जाती है उससे बातें
आते ही कभी घड़ी कभी मोबाइल देखता हूं
अस्थायी मकानों के बीच किस कदर बंट गया हूं
चिट्ठी तो पहुंचे इसलिए स्थायी पता ढूंढता हूं
(निम्नस्तरीय कालजयी रचनाएं सीरीज के तहत)
अपने गांव से बहुत दूर निकल चुका हूं
लौटना मुश्किल है अब किसी शहर में
हर पुराने शहर को गांव सा भूल गया हूं
रहता हूं जिस मकान में,दाम पूछता हूं
रविवार के अख़बार में खरीदार ढूंढता हूं
आने से पहले ही हो जाती है उससे बातें
आते ही कभी घड़ी कभी मोबाइल देखता हूं
अस्थायी मकानों के बीच किस कदर बंट गया हूं
चिट्ठी तो पहुंचे इसलिए स्थायी पता ढूंढता हूं
(निम्नस्तरीय कालजयी रचनाएं सीरीज के तहत)
दैनिक भास्कर के रघुरामन और चौकसे
इस अख़बार के हाथ में दो बेजोड़ लेखक लग गए हैं। एन रघुरामन और जयप्रकाश चौकसे। सौ गज स्पेस में इनका लेख होता है। सौ गज से मेरा मतलब पांच से आठ सौ शब्दों के बीच। फुल पेज यानी तीन हज़ार स्क्वायर फुट जितने फ्लैट की जगह में लिखे गए लेख। जिनमें एक कमरा इंट्रो का होता है। एक कमरा कंक्लूज़न का और कई कमरे अलग अलग पैरे के लिए होते हैं। पता नहीं क्यों इन दिनों मेरे प्रिय हो चुके रघुरामन और चौकसे जी को दैनिक भास्कर ने सौ गज ज़मीन ही दी है जिसमें सिर्फ उनके लेखों से एक कोठरी मुश्किल से बन सकती है।
फिर भी इस कोठरी(वन रूम सेट भी कह सकते हैं)में इनके लेख पूरे लगते हैं। जैसे आम लोगों की ज़िंदगी की बातें थोड़े में पूरी लगती हैं। पहले भास्कर के आखिरी पन्नों में से एक पर दोनों जय-विजय की तरह अगल-बगल छपते थे लेकिन अब अलग-अलग पेज पर छपने लगे हैं। एन रघुरामन मैनेजमेंट का फंडा लिखते हैं। हिंदी मानस को बिजनेस की दुनिया के तरीके बताते हैं और उद्यमिता के संस्कारों से परिचय कराते हैं। आज के ही लेख से उनके लिखे का एक टुकड़ा पेश करता हूं।
पिछले दस वर्षों में टाटा समूह की टाइटन कंपनी घड़ी बनाने वाली आम इकाई से आगे बढ़कर वॉच-ज्वेलरी या वॉच-प्रेसिशन इंजीनियरिंग कंपनी बन चुकी है। अब यह कंपनी दुनिया की सबसे स्लिम घड़ी बनाने में अग्रणी है। इससे पहले कोई घड़ी निर्माता इस कदर स्लिम घड़ी नहीं बना पाया। आपको याद रखना होगा कि वॉटरमैन ने पेन का आविष्कार किया लेकिन रेनॉल्ड्स ने इसी पेन को डिस्पोजिबल बनाकर इससे काफी पैसा कमाया। इसी तरह टाइटन को पैसा कमाने से कौन रोक सकता है।
ये रघुरामन के लेख का एक हिस्सा भर है। हिंदी के अखबारों में बिजनेस पन्नों की पत्रकारिता में सुधार आया है। लेकिन अभी भी ये हम पाठकों को महज़ उपभोक्ता से ज़्यादा नहीं समझते। कहां निवेश करें और कहां खरीदें टाइप की सूचनायें। रघुरामन कहां से आएं हैं या किनकी खोज है इसकी जानकारी मुझे बिल्कुल नहीं हैं। लेकिन जो लिख रहे हैं वो आज कल आदतन पढ़ने लगा हूं। हिंदी पत्रकारिता के चिंतनवादियों के बीच इस लेख की तारीफ करना किसी जोखिम से कम नहीं जिसका शीर्षक यह हो-धन कमाने से कोई नहीं रोक सकता। तुरंत मेरे आलोचक दोस्त लिखेंगे कि भाई साहब का क्लास बदल गया है। सत्तर फीसदी गरीब हैं। उन पर लिखे लेखों को उलाहना देते हैं। ये मेरा मकसद नहीं है। ग़रीबी पर भी लेख होने चाहिए। नक्सल समस्याओं पर भी होने चाहिए। मगर इस तरह के विषयों पर भी होने चाहिए जिनपर रघुरामन जी लिख रहे हैं।
फिल्मों पर जयप्रकाश चौकसे का लेख भी किसी दायित्वबोधिय दबावो से मुक्त लगता है। आज उनका लेख अमिताभ बच्चन पर है। नायक की आधार भूमि। बिना किसी वैचारिक प्रतिस्थापना गढ़ते हुए। लेकिन उनकी बातें इन्हीं प्रतिस्थापनों के आस-पास होती हैं। बस दावा नहीं करती। हांकती नहीं कि चलो अगंभीर किस्म के फालतू इंसान,लेख को पढ़ो और बालकनी में जाकर चिंतन करो। इस चक्कर में पाठक बेरोजगार भी हो सकता है। चौकसे जी हर दिन इसी तरह के लेख लिखते हैं। उनके लेख का एक अंश पेश कर रहा हूं-
विगत दशकों में सुपरमैन,बैटमैन इत्यादि फिल्मों से आम आदमी को नायक की तरह प्रस्तुत करने की परंपरा अवरुद्ध हुई है।(लगता है किसी साहित्यिक प्रतिभाशाली संपादक की नज़र नहीं पड़ी,वरना एक वाक्य में इत्यादि,प्रस्तुत और अवरुद्ध को ठांय कर देता,सिम्पल हिंदी के लिए) पूरी दुनिया में बच्चों के बाक्स आफिस मूल्य ने इस तरह की फिल्मों को खूब पनपने दिया। ऋतिक रोशन की कोई मिल गया और क्रिश की विराट सफलता का आधार भी बच्चे ही रहे। दरअसल आज नायक कौन हो,का मामला बाज़ार और विज्ञापन की ताकतों ने बहुत उलझा दिया है। नकली समृद्धि का हौव्वा खड़ा कर दिया है,हर छोटे-बड़े शहर में शापिंग मॉल अपने मोहक मायाजाल में मनुष्य को गैर-उपयोगी वस्तुओं को खरीदने के लिए भरमा रहे हैं और इन्हीं शक्तियों ने जीवन-मूल्यों में भी भारी परिवर्तन किया है। दूसरी ओर राजनीति में कोई आदर्श नहीं है,इसलिए नायक की आधार भूमि ही फिसलन भरी हो गई है।
हिंदी में इस तरह की नॉन-कॉन्क्लूसिव गैर-अंतिम दावों के साथ कम ही लेख खतम होते हैं। चौकसे और रघुरामन इसी तरह हर दिन दिलचस्प सामग्री प्रस्तुत करते हैं। पढ़ने में मज़ा आता है। संपादकीय पन्नों में ये लेख नए बदलाव का रास्ता बताते हैं।
इनके लेखों में कई तरह की नई जानकारियां होती हैं। सिर्फ सत्तर के आपातकाल की नहीं। आजकल की जानकारियां।
हिंदी अख़बारों ने न्यूज़ चैनलों के साथ खूब दादागीरी की है। जब हिंदी के न्यूज चैनल शुरू हो रहे थे,रात दिन दफ्तर में गुजार कर शारीरिक श्रम युक्त पत्रकारिता करने वालों की भाषा से लेकर हाव भाव तक पर नज़र रखी गई। अखबारों में टीवी के वॉचडॉग बनाए गए। एक तरह की लड़ाई चली। बाद में वो लड़ाई नियमित हो गई तो रूटीन टिप्पणी में बदल गई। संपादकों ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया। ये बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं। क्योंकि वॉचडॉग ने ज्यादातर टीवी पत्रकारों का मज़ाक ही उड़ाया। ये वो हिंदी के टीवी पत्रकार थे जो अपने पहले चरण में हिंदी के अखबारों और अंग्रेजी के अखबारों और पत्रकारों से लोहा ले रहे थे। खबरों को लेकर उड़ जाते थे। कोई खबर किसी सूत्र युक्त पत्रकार तक पहुंचती उससे पहले ही वो दरवाज़े पर खड़े होकर ख़बरों को लोक (कैच का बिहारी देशज ब्रांड शब्द)लेते थे। इन परिश्रमों को किसी ने नहीं सराहा। ये और बात है कि हिंदी न्यूज़ चैनल अपने इस बेहतरीन काल को छोड़ जल्दी ही फटीचर काल में प्रवेश कर गए। जिसकी कई वजहें रही हैं। जिस पर बहुत बातें कही जा चुकी हैं और कहीं जा रही हैं।
लेकिन इस दौरान अखबारों का मूल्यांकन ही नहीं हुआ। अख़बारों ने उन नंगे फंगे बाबाओं का विज्ञापन परोसा जिनका पता ढूंढते न्यूज़ चैनल वाले पहुंच गए। जो नहीं होना चाहिए था। लेकिन जिस तरह की बुराई टीवी पर है उसी तरह की बुराई अखबारों में भी हैं। कई चीज़े बेतुकी और खराब छपती रही और छप रही हैं। उन पर कोई कुछ नहीं कहता। अच्छा हुआ कि लोकसभा चुनावों के बाद प्रिंट और ब्लॉगजगत के ही पत्रकारों ने अखबारों के बिकने के सवालों को मुखर किया। अब लगता है कि अख़बारों की भी समीक्षा हो और इसके लिए समीक्षक हो। ब्लॉग ही जगह हो सकती है। लेकिन उन रास्तों को ढूंढने की कोशिश की जाए जिनसे इस पेशे को फायदा हो। अखबार बाज़ार में बिकता है। अच्छी पत्रकारिता को बाज़ार से ही कोई रास्ता निकालना होगा। जिस तरह अधिकतर विज्ञापन बेहतरीन होते हैं। प्रतियोगिता में कंपनियों के माल बेहतर होते हैं। यह सिर्फ हिंदी टीवी पत्रकारिता में हुआ है कि प्रतियोगिता के चलते उत्पाद यानी माल खराब हुए हैं। फिर भी इस तरह की समीक्षा का मकसद कुछ नया करने का होना चाहिए। बहुत गरिया लिये हम सब यारी और दिलदारी में। चौकसे और रघुरामन के लेख इसी श्रेणी में आते हैं। अच्छा लिखते हैं। पढ़ते रहिए बस लाइफ फिट रहेगी।
फिर भी इस कोठरी(वन रूम सेट भी कह सकते हैं)में इनके लेख पूरे लगते हैं। जैसे आम लोगों की ज़िंदगी की बातें थोड़े में पूरी लगती हैं। पहले भास्कर के आखिरी पन्नों में से एक पर दोनों जय-विजय की तरह अगल-बगल छपते थे लेकिन अब अलग-अलग पेज पर छपने लगे हैं। एन रघुरामन मैनेजमेंट का फंडा लिखते हैं। हिंदी मानस को बिजनेस की दुनिया के तरीके बताते हैं और उद्यमिता के संस्कारों से परिचय कराते हैं। आज के ही लेख से उनके लिखे का एक टुकड़ा पेश करता हूं।
पिछले दस वर्षों में टाटा समूह की टाइटन कंपनी घड़ी बनाने वाली आम इकाई से आगे बढ़कर वॉच-ज्वेलरी या वॉच-प्रेसिशन इंजीनियरिंग कंपनी बन चुकी है। अब यह कंपनी दुनिया की सबसे स्लिम घड़ी बनाने में अग्रणी है। इससे पहले कोई घड़ी निर्माता इस कदर स्लिम घड़ी नहीं बना पाया। आपको याद रखना होगा कि वॉटरमैन ने पेन का आविष्कार किया लेकिन रेनॉल्ड्स ने इसी पेन को डिस्पोजिबल बनाकर इससे काफी पैसा कमाया। इसी तरह टाइटन को पैसा कमाने से कौन रोक सकता है।
ये रघुरामन के लेख का एक हिस्सा भर है। हिंदी के अखबारों में बिजनेस पन्नों की पत्रकारिता में सुधार आया है। लेकिन अभी भी ये हम पाठकों को महज़ उपभोक्ता से ज़्यादा नहीं समझते। कहां निवेश करें और कहां खरीदें टाइप की सूचनायें। रघुरामन कहां से आएं हैं या किनकी खोज है इसकी जानकारी मुझे बिल्कुल नहीं हैं। लेकिन जो लिख रहे हैं वो आज कल आदतन पढ़ने लगा हूं। हिंदी पत्रकारिता के चिंतनवादियों के बीच इस लेख की तारीफ करना किसी जोखिम से कम नहीं जिसका शीर्षक यह हो-धन कमाने से कोई नहीं रोक सकता। तुरंत मेरे आलोचक दोस्त लिखेंगे कि भाई साहब का क्लास बदल गया है। सत्तर फीसदी गरीब हैं। उन पर लिखे लेखों को उलाहना देते हैं। ये मेरा मकसद नहीं है। ग़रीबी पर भी लेख होने चाहिए। नक्सल समस्याओं पर भी होने चाहिए। मगर इस तरह के विषयों पर भी होने चाहिए जिनपर रघुरामन जी लिख रहे हैं।
फिल्मों पर जयप्रकाश चौकसे का लेख भी किसी दायित्वबोधिय दबावो से मुक्त लगता है। आज उनका लेख अमिताभ बच्चन पर है। नायक की आधार भूमि। बिना किसी वैचारिक प्रतिस्थापना गढ़ते हुए। लेकिन उनकी बातें इन्हीं प्रतिस्थापनों के आस-पास होती हैं। बस दावा नहीं करती। हांकती नहीं कि चलो अगंभीर किस्म के फालतू इंसान,लेख को पढ़ो और बालकनी में जाकर चिंतन करो। इस चक्कर में पाठक बेरोजगार भी हो सकता है। चौकसे जी हर दिन इसी तरह के लेख लिखते हैं। उनके लेख का एक अंश पेश कर रहा हूं-
विगत दशकों में सुपरमैन,बैटमैन इत्यादि फिल्मों से आम आदमी को नायक की तरह प्रस्तुत करने की परंपरा अवरुद्ध हुई है।(लगता है किसी साहित्यिक प्रतिभाशाली संपादक की नज़र नहीं पड़ी,वरना एक वाक्य में इत्यादि,प्रस्तुत और अवरुद्ध को ठांय कर देता,सिम्पल हिंदी के लिए) पूरी दुनिया में बच्चों के बाक्स आफिस मूल्य ने इस तरह की फिल्मों को खूब पनपने दिया। ऋतिक रोशन की कोई मिल गया और क्रिश की विराट सफलता का आधार भी बच्चे ही रहे। दरअसल आज नायक कौन हो,का मामला बाज़ार और विज्ञापन की ताकतों ने बहुत उलझा दिया है। नकली समृद्धि का हौव्वा खड़ा कर दिया है,हर छोटे-बड़े शहर में शापिंग मॉल अपने मोहक मायाजाल में मनुष्य को गैर-उपयोगी वस्तुओं को खरीदने के लिए भरमा रहे हैं और इन्हीं शक्तियों ने जीवन-मूल्यों में भी भारी परिवर्तन किया है। दूसरी ओर राजनीति में कोई आदर्श नहीं है,इसलिए नायक की आधार भूमि ही फिसलन भरी हो गई है।
हिंदी में इस तरह की नॉन-कॉन्क्लूसिव गैर-अंतिम दावों के साथ कम ही लेख खतम होते हैं। चौकसे और रघुरामन इसी तरह हर दिन दिलचस्प सामग्री प्रस्तुत करते हैं। पढ़ने में मज़ा आता है। संपादकीय पन्नों में ये लेख नए बदलाव का रास्ता बताते हैं।
इनके लेखों में कई तरह की नई जानकारियां होती हैं। सिर्फ सत्तर के आपातकाल की नहीं। आजकल की जानकारियां।
हिंदी अख़बारों ने न्यूज़ चैनलों के साथ खूब दादागीरी की है। जब हिंदी के न्यूज चैनल शुरू हो रहे थे,रात दिन दफ्तर में गुजार कर शारीरिक श्रम युक्त पत्रकारिता करने वालों की भाषा से लेकर हाव भाव तक पर नज़र रखी गई। अखबारों में टीवी के वॉचडॉग बनाए गए। एक तरह की लड़ाई चली। बाद में वो लड़ाई नियमित हो गई तो रूटीन टिप्पणी में बदल गई। संपादकों ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया। ये बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं। क्योंकि वॉचडॉग ने ज्यादातर टीवी पत्रकारों का मज़ाक ही उड़ाया। ये वो हिंदी के टीवी पत्रकार थे जो अपने पहले चरण में हिंदी के अखबारों और अंग्रेजी के अखबारों और पत्रकारों से लोहा ले रहे थे। खबरों को लेकर उड़ जाते थे। कोई खबर किसी सूत्र युक्त पत्रकार तक पहुंचती उससे पहले ही वो दरवाज़े पर खड़े होकर ख़बरों को लोक (कैच का बिहारी देशज ब्रांड शब्द)लेते थे। इन परिश्रमों को किसी ने नहीं सराहा। ये और बात है कि हिंदी न्यूज़ चैनल अपने इस बेहतरीन काल को छोड़ जल्दी ही फटीचर काल में प्रवेश कर गए। जिसकी कई वजहें रही हैं। जिस पर बहुत बातें कही जा चुकी हैं और कहीं जा रही हैं।
लेकिन इस दौरान अखबारों का मूल्यांकन ही नहीं हुआ। अख़बारों ने उन नंगे फंगे बाबाओं का विज्ञापन परोसा जिनका पता ढूंढते न्यूज़ चैनल वाले पहुंच गए। जो नहीं होना चाहिए था। लेकिन जिस तरह की बुराई टीवी पर है उसी तरह की बुराई अखबारों में भी हैं। कई चीज़े बेतुकी और खराब छपती रही और छप रही हैं। उन पर कोई कुछ नहीं कहता। अच्छा हुआ कि लोकसभा चुनावों के बाद प्रिंट और ब्लॉगजगत के ही पत्रकारों ने अखबारों के बिकने के सवालों को मुखर किया। अब लगता है कि अख़बारों की भी समीक्षा हो और इसके लिए समीक्षक हो। ब्लॉग ही जगह हो सकती है। लेकिन उन रास्तों को ढूंढने की कोशिश की जाए जिनसे इस पेशे को फायदा हो। अखबार बाज़ार में बिकता है। अच्छी पत्रकारिता को बाज़ार से ही कोई रास्ता निकालना होगा। जिस तरह अधिकतर विज्ञापन बेहतरीन होते हैं। प्रतियोगिता में कंपनियों के माल बेहतर होते हैं। यह सिर्फ हिंदी टीवी पत्रकारिता में हुआ है कि प्रतियोगिता के चलते उत्पाद यानी माल खराब हुए हैं। फिर भी इस तरह की समीक्षा का मकसद कुछ नया करने का होना चाहिए। बहुत गरिया लिये हम सब यारी और दिलदारी में। चौकसे और रघुरामन के लेख इसी श्रेणी में आते हैं। अच्छा लिखते हैं। पढ़ते रहिए बस लाइफ फिट रहेगी।
हिंदुस्तान में आशुतोष उपाध्याय का लेख
दैनिक हिंदुस्तान में आज पर्यावरण पर अच्छा लेख है। आशुतोष उपाध्याय का। इसी लेख के ज़रिये मेरा इनसे पाठकीय परिचय हुआ है। पहली बार। इस बार अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार एलनॉर ओस्ट्रॉम को मिला है। आशुतोष ने इनके विषय और काम को विस्तार से बताया है। बिना एक लाइन संस्मरण और विवेक पर खर्च किये। मतलब यह लेख अपनी हर पंक्तियों में जानकारी के साथ आगे बढ़ता है। लगता है कि मेहनत से लिखा गया है। न कि संस्मरणीय प्रतिभा से। जिसके रोग ने हिंदी पत्रकारिता को तबाह किया है।
हिंदी पत्रकारिता में वाक्यों से तथा और द्वारा को खदेड़ने वाले साहित्याचार्यों और व्याकरणाचार्यों ने भाषा साधक की ही परंपरा विकसित की है। तथ्यों और नई जानकारियों तक पहुंचने की बजाय अपने संस्मरणों को लेकर साहित्यिक प्रतिभाशालियों ने पत्रकारिता के एक बड़े हिस्से को लघु साहित्यिक पत्रिका में बदल दिया। आज हिंदी का पत्रकार तब तक गर्व नहीं महसूस करता जब तक उसकी कोई साहित्यिक पृष्ठभूमि नहीं बन जाती। हालांकि कवि होना किसी पत्रकार के लिए बुराई नहीं है। शायद वो बेहतर कलमकार हो जाए लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कुछ लोगों तक ही सीमित रहा। ज़्यादातर लोग अपनी पहचान किसी श्रमजीवी पत्रकार की बजाय किसी साहित्यकार की महफिल में आने जाने से ही जोड़ते रहे हैं।
इसका असर हिंदी के तमाम अखबारों में संपादकीय पन्नों पर छपने वाले लेखों में मिलता है। नई जानकारियों की जगह भाषण होता है। लोहिया और समाजवाद के नैतिक ढिंढोरावादियों का ही शोर रहता है। हर लेखक कोशिश(अटेम्पट)करता है कि वो युग विचारक बन जाए। यह भी एक कारण रहा कि जागरूकता फैलाने निकली हिंदी पत्रकारिता बेहतर पाठकीय मानस नहीं रच पाई। हमेशा पत्रकारिता और साहित्य के फ्यूज़न को लेकर कंफ्यूज रही। साहित्य पूरक होने की बजाय बाधक बन गया। मैं कविता कहानी के सम्मान के खिलाफ नहीं बोल रहा। आप कवि होकर क्रिकेटर नहीं हो सकते। उसके लिए चौक छक्के के नए छंद रचने होंगे।
इसीलिए आशुतोष उपाध्याय के लेख को पढ़ना चाहिए। हिमालय की नोबल परंपरा का सम्मान। मैं नहीं कहता कि इस विषय पर लिखा यह कोई सर्वश्रेष्ठ लेख है। पर किसी भी स्तर से बेहतर तो है ही। हिंदी पत्रकारिकता के इस फटीचर काल में मेहनत से लिखे लेख ही नया रास्ता बनायेंगे। तभी हम प्रोफेशनल हो पायेंगे। हिंदी में पेशेवर होने की मानसिकता अभी तक नहीं बनी। लोग दफ्तरी शिकायतों के कारण काम को भी खराब कर देते हैं। हर पल समीकरणों के सहारे दूसरे के मुकाबले खुद को बेहतर बताते हैं। सबको लगता है कि उसे सेट कर देने की साज़िश हो रही है। किसी की तारीफ कर दीजिए तो उसका चरित्र हनन चालीसा लिख डालते हैं। एक दूसरे के बारे में अगर सबकी राय लेकर काव्य रचे तो उसमें हम सब की शक्लें किसी आततायी की बन जायेंगी। इससे हम सबने पत्रकारिता को मौज के साथ जीने का मौका गंवा दिया है। अपने पेशे को कमतर समझने लगते हैं।
हमें यह समझना होगा कि कवि होने के लिए कोई और जगह है। पत्रकार होने के लिए कोई और। पत्रकार संवेदनाओं की खोज करने वाला नहीं बल्कि संवेदनाओं के साथ नई नई जानकारियों को खोजने वाला प्राणी है। अलग-अलग जगहों पर चंद लोग अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन वो नज़ीर नहीं बन पाते। अगर हिंदी के बेहतरीन लोगों को पेशेवर रूप में सामने लाया गया होता तो कई लोग हिंदी वालों की तरह भी बनना चाहते। बात साफ है टीवी से लेकर अखबार तक नई परंपरा बनानी होगी। फटीचर काल के बीत जाने के इंतज़ार से कुछ नहीं होगा। छोटी छोटी शुरूआत करनी होगी। हिंदी पत्रकारिता में कभी स्वर्ण युग था इस मिथकीय मोह को भी त्याग देना चाहिए। कभी था ही नहीं।
हिंदी पत्रकारिता में वाक्यों से तथा और द्वारा को खदेड़ने वाले साहित्याचार्यों और व्याकरणाचार्यों ने भाषा साधक की ही परंपरा विकसित की है। तथ्यों और नई जानकारियों तक पहुंचने की बजाय अपने संस्मरणों को लेकर साहित्यिक प्रतिभाशालियों ने पत्रकारिता के एक बड़े हिस्से को लघु साहित्यिक पत्रिका में बदल दिया। आज हिंदी का पत्रकार तब तक गर्व नहीं महसूस करता जब तक उसकी कोई साहित्यिक पृष्ठभूमि नहीं बन जाती। हालांकि कवि होना किसी पत्रकार के लिए बुराई नहीं है। शायद वो बेहतर कलमकार हो जाए लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कुछ लोगों तक ही सीमित रहा। ज़्यादातर लोग अपनी पहचान किसी श्रमजीवी पत्रकार की बजाय किसी साहित्यकार की महफिल में आने जाने से ही जोड़ते रहे हैं।
इसका असर हिंदी के तमाम अखबारों में संपादकीय पन्नों पर छपने वाले लेखों में मिलता है। नई जानकारियों की जगह भाषण होता है। लोहिया और समाजवाद के नैतिक ढिंढोरावादियों का ही शोर रहता है। हर लेखक कोशिश(अटेम्पट)करता है कि वो युग विचारक बन जाए। यह भी एक कारण रहा कि जागरूकता फैलाने निकली हिंदी पत्रकारिता बेहतर पाठकीय मानस नहीं रच पाई। हमेशा पत्रकारिता और साहित्य के फ्यूज़न को लेकर कंफ्यूज रही। साहित्य पूरक होने की बजाय बाधक बन गया। मैं कविता कहानी के सम्मान के खिलाफ नहीं बोल रहा। आप कवि होकर क्रिकेटर नहीं हो सकते। उसके लिए चौक छक्के के नए छंद रचने होंगे।
इसीलिए आशुतोष उपाध्याय के लेख को पढ़ना चाहिए। हिमालय की नोबल परंपरा का सम्मान। मैं नहीं कहता कि इस विषय पर लिखा यह कोई सर्वश्रेष्ठ लेख है। पर किसी भी स्तर से बेहतर तो है ही। हिंदी पत्रकारिकता के इस फटीचर काल में मेहनत से लिखे लेख ही नया रास्ता बनायेंगे। तभी हम प्रोफेशनल हो पायेंगे। हिंदी में पेशेवर होने की मानसिकता अभी तक नहीं बनी। लोग दफ्तरी शिकायतों के कारण काम को भी खराब कर देते हैं। हर पल समीकरणों के सहारे दूसरे के मुकाबले खुद को बेहतर बताते हैं। सबको लगता है कि उसे सेट कर देने की साज़िश हो रही है। किसी की तारीफ कर दीजिए तो उसका चरित्र हनन चालीसा लिख डालते हैं। एक दूसरे के बारे में अगर सबकी राय लेकर काव्य रचे तो उसमें हम सब की शक्लें किसी आततायी की बन जायेंगी। इससे हम सबने पत्रकारिता को मौज के साथ जीने का मौका गंवा दिया है। अपने पेशे को कमतर समझने लगते हैं।
हमें यह समझना होगा कि कवि होने के लिए कोई और जगह है। पत्रकार होने के लिए कोई और। पत्रकार संवेदनाओं की खोज करने वाला नहीं बल्कि संवेदनाओं के साथ नई नई जानकारियों को खोजने वाला प्राणी है। अलग-अलग जगहों पर चंद लोग अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन वो नज़ीर नहीं बन पाते। अगर हिंदी के बेहतरीन लोगों को पेशेवर रूप में सामने लाया गया होता तो कई लोग हिंदी वालों की तरह भी बनना चाहते। बात साफ है टीवी से लेकर अखबार तक नई परंपरा बनानी होगी। फटीचर काल के बीत जाने के इंतज़ार से कुछ नहीं होगा। छोटी छोटी शुरूआत करनी होगी। हिंदी पत्रकारिता में कभी स्वर्ण युग था इस मिथकीय मोह को भी त्याग देना चाहिए। कभी था ही नहीं।
गंदगी का धंधा है ये मेरा शहर
हर तरफ से गंदा है ये मेरा शहर,
गंदगी का धंधा है ये मेरा शहर,
बाज़ार में धूल मुफ्त के उड़ रहे हैं,
वजन से उनके समोसे भारी हो रहे हैं,
जलेबियों के पीछे कौन काटे चक्कर,
मुफ्तखोर मदहोश मक्खियों से पूछो
गंदगी का धंधा है ये मेरा शहर
थूक-थूक के सबने सींचा है सड़कों को,
पेशाब न करने की धमकियों से भरा है मेरा शहर
ऐसे गलीज़ शब्दों का गलीचा देखा न किसी शहर में,
पेशाब करने वाले को गधे का बाप कहता है ये मेरा शहर
जहां बोर्ड लगे हैं उसी के सामने मूतता है ये मेरा शहर
कौन सिखाये ग़ालिब इन्हें शहर में रहने की तमीज़
बदतमीज़ बदमिज़ाज होके ही ज़िंदा है ये मेरा शहर
गंदगी का धंधा है ये मेरा शहर
भिनभिनाते हैं साइनबोर्ड मक्खियों के झुंड से
दुकानों के नाम से भर गया है मेरा शहर
किन किन आदतों पर यहां फाइन नहीं है
फाइन दे दे के धुंआ छोड़ता है ये मेरा शहर
गंदगी का धंधा है ये मेरा शहर
( आज शाम गाज़ियाबाद के वैशाली प्रांत के सेक्टर चार के मार्किट गया। वहां धूलों के अंबार और गंदगी के विस्तार के सामने मैं नतमस्तक हो गया। चंद पंक्तियां अंगड़ाइयां लेती हुई सर से बाहर आ गईं। आप सबको समर्पित हैं। गंदगी के इस साफ विवरण से अगर मन खिन्न हो जाए तो मैं अपनी सफाई के लिए माफी चाहूंगा)
गंदगी का धंधा है ये मेरा शहर,
बाज़ार में धूल मुफ्त के उड़ रहे हैं,
वजन से उनके समोसे भारी हो रहे हैं,
जलेबियों के पीछे कौन काटे चक्कर,
मुफ्तखोर मदहोश मक्खियों से पूछो
गंदगी का धंधा है ये मेरा शहर
थूक-थूक के सबने सींचा है सड़कों को,
पेशाब न करने की धमकियों से भरा है मेरा शहर
ऐसे गलीज़ शब्दों का गलीचा देखा न किसी शहर में,
पेशाब करने वाले को गधे का बाप कहता है ये मेरा शहर
जहां बोर्ड लगे हैं उसी के सामने मूतता है ये मेरा शहर
कौन सिखाये ग़ालिब इन्हें शहर में रहने की तमीज़
बदतमीज़ बदमिज़ाज होके ही ज़िंदा है ये मेरा शहर
गंदगी का धंधा है ये मेरा शहर
भिनभिनाते हैं साइनबोर्ड मक्खियों के झुंड से
दुकानों के नाम से भर गया है मेरा शहर
किन किन आदतों पर यहां फाइन नहीं है
फाइन दे दे के धुंआ छोड़ता है ये मेरा शहर
गंदगी का धंधा है ये मेरा शहर
( आज शाम गाज़ियाबाद के वैशाली प्रांत के सेक्टर चार के मार्किट गया। वहां धूलों के अंबार और गंदगी के विस्तार के सामने मैं नतमस्तक हो गया। चंद पंक्तियां अंगड़ाइयां लेती हुई सर से बाहर आ गईं। आप सबको समर्पित हैं। गंदगी के इस साफ विवरण से अगर मन खिन्न हो जाए तो मैं अपनी सफाई के लिए माफी चाहूंगा)
राष्ट्र के नाम मौत
१२ अगस्त १८८४ का कोई वक्त रहा होगा। रॉयल इंजीनियर्स के जेनरल मेडले का इंग्लैंड जाते वक्त निधन हो गया। इस स्मारिका के अनुसार बीच समुद्र में उनका निधन हो गया। दूसरी स्मारिका में फिलिप टॉलबट का नाम लिखा है। ऑस्ट्रेलियन इम्पीरियल आर्मी के ग्यारहवें बटालियन से रहे होंगे। फ्रांस में युद्ध के दौरान मारे गए होंगे। ३० मई १९१६ को। तब फिलिप की उम्र ३० साल की थी। ये दोनों पट्टियां शिमला के मॉल पर बने क्राइस्ट चर्च में लगी हुई हैं।
इस तरह की हज़ारों पट्टियां हमने देश के कई हिस्सों में देखी है। मेरठ और झांसी के कब्रिस्तानों में लगी हुई हैं। अठारह सौ सत्तावन की क्रांति के डेढ़ सौ साल होने के मौके पर मैं झांसी गया था। आर्मी इलाके में मिसेज कैंटम से मुलाकात हुई। बहुत मेहनत से उन्होंने खंडहर हो चुके कब्रिस्तान को संवारा था। कब्रों के बीच से चलने लायक रास्ते बनाये थे। जिनपर उकेरी गईं अनगिनत टिप्पणियां कुछ कहना चाह रही थीं। कई नौजवान अंग्रेजो की मौत हिंदुस्तान में गर्मी और हैजा से हुई। सबकी उम्र सत्ताईस से लेकर तीस साल की थी। मेरठ में एक ब्रिटिश पिता ने अपनी आठ साल की बेटी की याद में बेहद खूबसूरत ग्रेव्स स्टोन बनाया था।
जब भी इनको देखता हूं,राष्ट्रवाद की सीमाओं को लेकर उलझ जाता हूं। अपने तब के मुल्क के लिए शहीद हुए ये नौजवान आज उस मुल्क में वीरान पड़े हैं जो अब उनका नहीं है। एक वक्त उन्होंने हिंदुस्तान की मिट्टी को अपना समझा होगा और यहां रहने वाले पराये लोगों से बचाने के लिए ब्रिटेन के किसी गांव शहर को छोड़ यहां आ गए और मारे गए। इतिहास ने इनका नाम अमर होने लायक भी नहीं समझा। ये वो सिपाही और अफसर हैं जो बरतानिया हुकूमत के एक इशारे पर मारते हुए मारे गए।
वक्त के साथ राष्ट्रवाद की दलीलें बदल जाती हैं। ये न तो शहीद हैं न गद्दार। कोई इनकी परवाह भी नहीं करता। खामोशी से सीने पर इबारतों को चस्पां किये सो रहे हैं। सफेद संगमरमर की कब्र अनंत काल तक के लिए बना दी गई है। खूब घने पेड़ और जंगल बन गए हैं। गेट पर रजिस्टर रखा होता है। आने-जाने वाला अपने पुरखों के दर्शन के बाद दर्ज करा जाता है। फलां तारीख को आपका परपोता अपने पूरे परिवार के साथ यहां आया था। ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दे।
मेरठ का कब्रिस्तान तो देखने लायक है। अपने मित्र श्याम परमार के साथ गया था। हमने वहां लगे अमरूद खाये। फिर कब्रों को देखने में मशगूल हो गए। उन पर लिखी इबारतों को पढ़ने लगे। पता चला कि आज भी इनके परनाती परपोते इन कब्रों को देखने आते हैं। सोचने लगा कि इन परपोतों और परनातियों के बीच कैसी बातें होती होंगी। कैसा रिश्ता है जो इन्हें यहां ले आता है। १८५७ की क्रांति के दौरान मारे गए ब्रिटिश अफसरों की कब्रों को देखने के लिए आज भी उनके रिश्तेदार यहां आते हैं। ब्रिटेन में इनका एक ग्रुप बना है। मिसेज कैंटम बताती भी हैं कि इस बार १८५७ फैमिली की टीम आ रही है। तुम आ जाओ इनसे मिलो।
ये कब्र आज भी ब्रिटेन के महत्व के हैं। इसी तीस अक्तूबर को बीबीसी की टीम झांसी आ रही है। अठारह सौ सत्तावन की फैमिली नेटवर्क के लोगों के कुछ चंदे से मिसेज कैंटम ने अब कब्रिस्तान को बैठने और घूमने लायक बना दिया है। इनकी इबारतों पर लिखे सेना के ब्रिगेड का नाम पढ़ना चाहिए। सेना के ये रेजिमेंट आज भी भारतीय सेना का हिस्सा हैं। लेकिन ये लोग नहीं हैं। भारतीय रेजिमेंट अपनी विरासत को ब्रिटिश रेजिमेंट से जोड़ते हैं लेकिन इन कब्रों से नहीं। क्यों जोड़े। क्या गोरखा रेजिमेंट का कमांडेंट अपने रेजिमेंट के इन पूर्वजों की कब्र पर फूल चढ़ा सकता है? नहीं। राष्ट्रवाद की सीमायें और परिभाषायें उसे उलझा देंगी। फिर मिसेज कैंटम किस श्रद्धा से उनकी देखभाल कर रही हैं। शायद इसीलिए कि कोई आए तो पता चले कि देखो राष्ट्रों के नाम पर बहे इन खूनों को पहचानों। इंसानों को व्यवस्थायें गुलाम बनाती हैं। इन व्यवस्थाओं को चलाने के लिए हमने राष्ट्र बनायें हैं। अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों और कमज़ोरियों को किसी को समर्पित करने के लिए।
जब सबका रास्ता एक जैसा होगा
कार की साइड मिरर से
झांका था कोई
दांते निकालते हुए बेदम
चल बढ़ा गाड़ी एक कदम
बैक मिरर में कोई बैठी थी चुप
झुंझलाते ड्राइवर को सहते हुए
मेरी ड्राइविंग पर तरसते हुए
उसकी असहमति ने मुझे
एक हौसला दिया रूके रहने का
ट्रैफिक में ठेले जाने के खिलाफ
ब्रेक दबाकर पांव पर खड़े रहने का
बगल वाली कार में बैठा वो अधेड़
झाड़ता रहा राख कार से बाहर
जाम की बेचैनियों से दूर खोया रहा
काम के तनावों में हर कश के साथ
सामने सरकती कार के पीछे रखे टेड्डी बीयर
यातना कैंप के रास्ते से भागने का रास्ता
पूछ रहे थे मुझसे बार-बार,मिन्नतें हज़ार
फिर नज़र झांकती है साइड मिरर में एक बार
बकते,गरियाते और लतियाती उसकी नज़रें
लाल-लाल होकर खाक करने का फाइनल एलान
बगल की सीट पर बैठी उसकी क्या लगती होगी
जिसकी असहमतियों ने मेरा हौसला बढ़ा दिया
ऐसे ही गुज़रना होगा तुमको सबको इस जाम से
गुस्से को संभालते हुए थोड़ा रोमाटिंक होते हुए
रास्ते अब वही हैं,थोड़े से और संकरे से
मंज़िल पर पहुंचने की रफ्तार तो कम होगी ही
जब सबका सपना एक जैसा होगा
जब सबका रास्ता एक जैसा होगा
घर-नौकरी-घर का ही फासला होगा
झांका था कोई
दांते निकालते हुए बेदम
चल बढ़ा गाड़ी एक कदम
बैक मिरर में कोई बैठी थी चुप
झुंझलाते ड्राइवर को सहते हुए
मेरी ड्राइविंग पर तरसते हुए
उसकी असहमति ने मुझे
एक हौसला दिया रूके रहने का
ट्रैफिक में ठेले जाने के खिलाफ
ब्रेक दबाकर पांव पर खड़े रहने का
बगल वाली कार में बैठा वो अधेड़
झाड़ता रहा राख कार से बाहर
जाम की बेचैनियों से दूर खोया रहा
काम के तनावों में हर कश के साथ
सामने सरकती कार के पीछे रखे टेड्डी बीयर
यातना कैंप के रास्ते से भागने का रास्ता
पूछ रहे थे मुझसे बार-बार,मिन्नतें हज़ार
फिर नज़र झांकती है साइड मिरर में एक बार
बकते,गरियाते और लतियाती उसकी नज़रें
लाल-लाल होकर खाक करने का फाइनल एलान
बगल की सीट पर बैठी उसकी क्या लगती होगी
जिसकी असहमतियों ने मेरा हौसला बढ़ा दिया
ऐसे ही गुज़रना होगा तुमको सबको इस जाम से
गुस्से को संभालते हुए थोड़ा रोमाटिंक होते हुए
रास्ते अब वही हैं,थोड़े से और संकरे से
मंज़िल पर पहुंचने की रफ्तार तो कम होगी ही
जब सबका सपना एक जैसा होगा
जब सबका रास्ता एक जैसा होगा
घर-नौकरी-घर का ही फासला होगा
राग लफंगा
चुरा कर नंबर तुम्हारे मोबाइल का
रात भर एसएमएस टाइप करते रहे
बदलते करवटों से दबती रहीं आहें मेरी
हाल-ए-दिल का ड्राफ्ट सेव करते रहे
कवर में रखता हूं अपने फोन को
झांक न ले कोई दिल के भीतर
फ्लैश करेगा जब भी तुम्हारा नंबर
मेरे मोबाइल के स्क्रीन पर
काट दूंगा खुशी के मारे तुम्हारा कॉल
सेंड कर दूंगा सारे बचे हुए एसएमएस
बेशक मेरा इंतज़ार न करना
बस अपना नंबर मत बदलना
अपना नंबर कैसे दूंगा तुमको
बस इसी का एक क्लू देना है
जब दिल करे मिलने का मुझसे
किसी नामचीन शायर से पूछ लेना है
गा रहा हूंगा मैं किसी मुशायरे में
तेरे नाम और नंबर का राग लफंगा
रात भर एसएमएस टाइप करते रहे
बदलते करवटों से दबती रहीं आहें मेरी
हाल-ए-दिल का ड्राफ्ट सेव करते रहे
कवर में रखता हूं अपने फोन को
झांक न ले कोई दिल के भीतर
फ्लैश करेगा जब भी तुम्हारा नंबर
मेरे मोबाइल के स्क्रीन पर
काट दूंगा खुशी के मारे तुम्हारा कॉल
सेंड कर दूंगा सारे बचे हुए एसएमएस
बेशक मेरा इंतज़ार न करना
बस अपना नंबर मत बदलना
अपना नंबर कैसे दूंगा तुमको
बस इसी का एक क्लू देना है
जब दिल करे मिलने का मुझसे
किसी नामचीन शायर से पूछ लेना है
गा रहा हूंगा मैं किसी मुशायरे में
तेरे नाम और नंबर का राग लफंगा
फिर याद आई है...दीवाली आई है
दूर गहरे नीले आकाश में
ढूंढने की एक कोशिश
बीच शहर के शोर शराबे में
सुनने की एक कोशिश
सजे धजे लोगों की भीड़ में
मिलने की एक कोशिश
अधूरी मुलाकात की तड़प में
पूरी होने की एक कोशिश
वक्त बेवक्त आ जाने की ज़िद में
ग़ायब होने की एक कोशिश
पुकार कर तरंगों के बीच में
धड़कनें बन जाने की एक कोशिश
सुने जाने के लिए,ढूंढे जाने के लिए
पिता को पाने की फिर एक कोशिश
यादों के बस्ते से निकल कर उनकी
फिर से याद आई है
दीवाली आई है....
ढूंढने की एक कोशिश
बीच शहर के शोर शराबे में
सुनने की एक कोशिश
सजे धजे लोगों की भीड़ में
मिलने की एक कोशिश
अधूरी मुलाकात की तड़प में
पूरी होने की एक कोशिश
वक्त बेवक्त आ जाने की ज़िद में
ग़ायब होने की एक कोशिश
पुकार कर तरंगों के बीच में
धड़कनें बन जाने की एक कोशिश
सुने जाने के लिए,ढूंढे जाने के लिए
पिता को पाने की फिर एक कोशिश
यादों के बस्ते से निकल कर उनकी
फिर से याद आई है
दीवाली आई है....
रिंगटोन का रोमांस
बिना बात के मुलाकात सी
पर बातें हो गईं हज़ार सी
रिंगटोन बजा जब मोबाइल का
डरपोक धड़कनों का सीना तन गया
गाने लगा जब मैं उसके रिंगटोन सा
खत्म हो गया डर पल भर में
मिस्ड कॉल या रिजेक्ट कॉल का
कौन तरसता है अब ग़ालिब
मुलाकातों और बातों के लिए
नेटवर्क एरिया से बाहर कहीं चलके
खो जाने का दिल करता है
रिगंटोन सुनने के बहाने
कुछ कहने का दिल करता है
रिचार्ज कूपन से भी सस्ता है रिंगटोन
तीस रुपये महीने में वो गाना
गाया जिसे लता ने लिखा जिसे साहिर ने
लगाया जिसे मोहतरमा ने,सुना जिसे मैंने
मिनट से बदलकर सेकेंड में पल्स रेट होंगे
बातों के लिए लम्हें अब कतरनें हो जाएंगी
इनबॉक्स में अधमरे पड़े मेरे एसएमएस
कब देखेंगी,कब करेंगी रिप्लाई
मूड कैसा होगा,लिख क्या देंगी
कौन पाले झंझट उनके मूड का
लगा नंबर और बजने दे रिंगटोन
ये न तो मिस्ड होता है न डिस्कनेक्ट
लगता है तो बस बजता रहता है
एक बार नहीं दो तीन बार बजता है
घनघनाता है मेरे ईयर पीस में
गानों का सलेक्शन जी भर आता है
बिना रेट के हो गए शायर खूब
मुफ्त कॉल सा बेअदब महबूब
शट अप,डोंट कॉल कौन सुने ग़ालिब
मिला के खो जाता हूं किसी और का नंबर
रिंगटोन से बातें करने लग जाता हूं
लो कर लो बात का टाइम खतम है
जब कुछ है ही नहीं कहने को
रिंगटोन का टोन ही बहुत है
पर बातें हो गईं हज़ार सी
रिंगटोन बजा जब मोबाइल का
डरपोक धड़कनों का सीना तन गया
गाने लगा जब मैं उसके रिंगटोन सा
खत्म हो गया डर पल भर में
मिस्ड कॉल या रिजेक्ट कॉल का
कौन तरसता है अब ग़ालिब
मुलाकातों और बातों के लिए
नेटवर्क एरिया से बाहर कहीं चलके
खो जाने का दिल करता है
रिगंटोन सुनने के बहाने
कुछ कहने का दिल करता है
रिचार्ज कूपन से भी सस्ता है रिंगटोन
तीस रुपये महीने में वो गाना
गाया जिसे लता ने लिखा जिसे साहिर ने
लगाया जिसे मोहतरमा ने,सुना जिसे मैंने
मिनट से बदलकर सेकेंड में पल्स रेट होंगे
बातों के लिए लम्हें अब कतरनें हो जाएंगी
इनबॉक्स में अधमरे पड़े मेरे एसएमएस
कब देखेंगी,कब करेंगी रिप्लाई
मूड कैसा होगा,लिख क्या देंगी
कौन पाले झंझट उनके मूड का
लगा नंबर और बजने दे रिंगटोन
ये न तो मिस्ड होता है न डिस्कनेक्ट
लगता है तो बस बजता रहता है
एक बार नहीं दो तीन बार बजता है
घनघनाता है मेरे ईयर पीस में
गानों का सलेक्शन जी भर आता है
बिना रेट के हो गए शायर खूब
मुफ्त कॉल सा बेअदब महबूब
शट अप,डोंट कॉल कौन सुने ग़ालिब
मिला के खो जाता हूं किसी और का नंबर
रिंगटोन से बातें करने लग जाता हूं
लो कर लो बात का टाइम खतम है
जब कुछ है ही नहीं कहने को
रिंगटोन का टोन ही बहुत है
कार,कमिश्नर और कारोबार इन दिल्ली
दिल्ली में साठ लाख से अधिक गाड़ीवान हैं। इतने लोगों ने किसी न किसी किस्म की गाड़ी खरीदने का अपना सपना पूरा कर लिया है। कार और बाइक वाले लोगों की लंबी करातें रोज़ सड़क पर दिख रही है। शहर घरों,दफ्तरों और दुकानों के बाहर खड़ी बेतरतीब कारों और स्कूटरों से बेहूदा लगता है। नए समय में गाड़ीवानों ने नए किस्म का धीरज धर लिया है। गाड़ी खरीदी इस दलील के साथ कि कहीं आराम और जल्दी से पहुंचेंगे। लेकिन कार में बैठकर घंटों इंतज़ार एक खास किस्म का अर्बन धीरज पैदा कर रहा है। बैक मिरर में अपना ऊबड़-खाबड़ थोबड़ा देख कर और एफएम चैनलों में बकवास सुन कर भी लोग एफएम चैनलों को फोन करने की नादानी करते हैं। ट्रैफिक पत्रकार बन कर बताते हैं कि धौला कुआं में जाम है। औसत रफ्तार दस किमी प्रति घंटा है। दांत निपोरती एक बालिका और खे खे करता एक छोकरा बताने लगता है कि हे हे जी रास्ता बदल लो। नहीं बदल सको तो लो सुन लो ये गाना...ज़रा ज़रा किस मी किस मी...टच मी टच मी।
हम अपने समय के बेहूदा ज़ोन से रोज़ गुजरते हैं। डीएनडी वाले को चालीस रुपया रोज़ देते हैं। पांच मिनट बचाने के लिए। पार्किंग वाले को दस रुपये रोज़। अब पुलिस कमिश्नर ने कह दिया है कि लाखों रुपये खर्च कर वे साठ लाख से ज़्यादा गाड़ीवान वालों को खत लिखेंगे। उसमें दुकान का पता देंगे कि कहां कहां से वे गीयर लॉक और कार लॉक लगवा सकते हैं। दिल्ली में लोहे की रॉड का लॉक लगता है कार खरीद कर हम किसी भाड़े के सिपाही की तरह कच्चे पक्के हथियारों से लैस हो लिये हैं। आ जा तू..देख लूंगा इसी रॉड से। कारों की सुरक्षा एक बड़ा उद्योग है। हज़ारों करोड़ों का। कार खरीद कर बीमा कराओ। अब पुलिस कमिश्नर के मुताबिक गाड़ी की सुरक्षा का इंतज़ाम आप कर लोग।
भाई साहब फिर पी सी आर वैन पर लिख कर काहे घूमते हैं। आपके लिए हमेशा। जब हम अपना इंतज़ाम कर ही लेंगे तो जाइये न। आपकी क्या ज़रूरत है। इन्हीं के आंकड़े हैं कि सितंबर तक दिल्ली में हर दिन औसतन ३० से अधिक कार या बाइक चोरी होती रही है। वाह। हमारे सहयोगी के अपार्टमेंट में भाई लोग गए।उनकी कार के तीन चक्के निकाले और चक्कों की जगह कार को ईंटों पर खड़ा कर के चले गए। बगल की कार से भी एकाध टायर ले गए। यह लेख इसलिए लिख रहा हूं कि टायर लॉक की खोज में काम शुरू हो जाना चाहिए। सेंट्रल लॉक से काम नहीं चलेगा। अव्वल तो कई लोगों की जान चली गई है। कार जली तो दरवाज़ा ही नहीं खुला। एफएम चैनलों का कारोबार न पैदा होता अगर ट्रैफिक जाम न होता। रेडियो जॉकी ट्रैफिक समस्या की ही देन हैं। उनका हुनर निखरता ही इस बात से है कि आप ट्रैफिक जाम में फंस कर भयंकर पीड़ा से गुज़रते हैं और वो आपका टाइम पास कराने के लिए आ जाते हैं।
सुरक्षा चक्र एक धंधा चक्र है। आप असुरक्षित है, इसका अहसास कराने के लिए कमिश्नर की चिट्ठी आएगी तो डर तो जायेंगे ही। दुकान का पता होगा तो वहां भी जायेंगे। खूब माल खपेगा और बिकेगा। इससे कार लॉक बनाने वाली मझोले किस्म की कंपनियों का कारोबार बढ़ जाएगा। भारत से मंदी भग जाएगी।
सड़क पर चलने वालों के लिए एक और प्लांट खबर आई है। शोध हुआ है कि दिल्ली में मेट्रो के आने से हर दिन साठ हज़ार के करीब कारें सड़कों से गायब हो गईं हैं। जिस शहर में साठ लाख से अधिक गाड़ियां हों वहां पचास साठ हज़ार की न चलने से क्या फर्क पड़ेगा?पता किया जाना चाहिए कि दिल्ली में औसतन कितनी गाड़िया हर दिन सड़कों पर होती है। उस अनुपात में अगर मेट्रो साठ हज़ार गाड़ियों की ही छुट्टी कर पाया है तब तो यह नाकामी है। फिर यह भी देखना होगा कि मेट्रो में दस लाख से अधिक लोग चलने लगे हैं। ये कौन लोग हैं। बस वाले ही ज़्यादा चल रहे हैं या अपनी गाड़ियों को घर पार्क कर देने वाले। इसका अध्ययन करना चाहिए। वर्ना खबरों के मुताबिक जो शोध के नतीजे हैं उससे तो यही लगता है कि मेट्रो फेल हो गई है। लो फ्लोर बसें लाकर ज़्यादातर लोगों को खड़ा कर दिया है। खड़े होने की जगह ज़्यादा बना दी गई है और शीशा बड़ा कर दिया गया है ताकि भीड़ में दबे कुचले लोग एक खास किस्म का सौंदर्य बोध भी पैदा कर सके।
दोस्तों ट्रैफिक ने जीवन को बदल दिया है। रिश्तों को तोड़ दिया है। इसका कुछ करो। ये सिर्फ प्रदूषण और धरती का मामला नहीं हैं। दिल्ली वाला औसतन एक घंटा रोज़ आने जाने में लगा देता होगा। काम के घंटे बढ़ रहे हैं। जाम के घंटे बढ़ रहे हैं। ब्लॉगरों से अनुरोध है कि अगर उनके इलाके से मेट्रो गुज़र रही है तो वो इलाके की ट्रैफिक का अध्ययन करें और कुछ लिखें।
हम अपने समय के बेहूदा ज़ोन से रोज़ गुजरते हैं। डीएनडी वाले को चालीस रुपया रोज़ देते हैं। पांच मिनट बचाने के लिए। पार्किंग वाले को दस रुपये रोज़। अब पुलिस कमिश्नर ने कह दिया है कि लाखों रुपये खर्च कर वे साठ लाख से ज़्यादा गाड़ीवान वालों को खत लिखेंगे। उसमें दुकान का पता देंगे कि कहां कहां से वे गीयर लॉक और कार लॉक लगवा सकते हैं। दिल्ली में लोहे की रॉड का लॉक लगता है कार खरीद कर हम किसी भाड़े के सिपाही की तरह कच्चे पक्के हथियारों से लैस हो लिये हैं। आ जा तू..देख लूंगा इसी रॉड से। कारों की सुरक्षा एक बड़ा उद्योग है। हज़ारों करोड़ों का। कार खरीद कर बीमा कराओ। अब पुलिस कमिश्नर के मुताबिक गाड़ी की सुरक्षा का इंतज़ाम आप कर लोग।
भाई साहब फिर पी सी आर वैन पर लिख कर काहे घूमते हैं। आपके लिए हमेशा। जब हम अपना इंतज़ाम कर ही लेंगे तो जाइये न। आपकी क्या ज़रूरत है। इन्हीं के आंकड़े हैं कि सितंबर तक दिल्ली में हर दिन औसतन ३० से अधिक कार या बाइक चोरी होती रही है। वाह। हमारे सहयोगी के अपार्टमेंट में भाई लोग गए।उनकी कार के तीन चक्के निकाले और चक्कों की जगह कार को ईंटों पर खड़ा कर के चले गए। बगल की कार से भी एकाध टायर ले गए। यह लेख इसलिए लिख रहा हूं कि टायर लॉक की खोज में काम शुरू हो जाना चाहिए। सेंट्रल लॉक से काम नहीं चलेगा। अव्वल तो कई लोगों की जान चली गई है। कार जली तो दरवाज़ा ही नहीं खुला। एफएम चैनलों का कारोबार न पैदा होता अगर ट्रैफिक जाम न होता। रेडियो जॉकी ट्रैफिक समस्या की ही देन हैं। उनका हुनर निखरता ही इस बात से है कि आप ट्रैफिक जाम में फंस कर भयंकर पीड़ा से गुज़रते हैं और वो आपका टाइम पास कराने के लिए आ जाते हैं।
सुरक्षा चक्र एक धंधा चक्र है। आप असुरक्षित है, इसका अहसास कराने के लिए कमिश्नर की चिट्ठी आएगी तो डर तो जायेंगे ही। दुकान का पता होगा तो वहां भी जायेंगे। खूब माल खपेगा और बिकेगा। इससे कार लॉक बनाने वाली मझोले किस्म की कंपनियों का कारोबार बढ़ जाएगा। भारत से मंदी भग जाएगी।
सड़क पर चलने वालों के लिए एक और प्लांट खबर आई है। शोध हुआ है कि दिल्ली में मेट्रो के आने से हर दिन साठ हज़ार के करीब कारें सड़कों से गायब हो गईं हैं। जिस शहर में साठ लाख से अधिक गाड़ियां हों वहां पचास साठ हज़ार की न चलने से क्या फर्क पड़ेगा?पता किया जाना चाहिए कि दिल्ली में औसतन कितनी गाड़िया हर दिन सड़कों पर होती है। उस अनुपात में अगर मेट्रो साठ हज़ार गाड़ियों की ही छुट्टी कर पाया है तब तो यह नाकामी है। फिर यह भी देखना होगा कि मेट्रो में दस लाख से अधिक लोग चलने लगे हैं। ये कौन लोग हैं। बस वाले ही ज़्यादा चल रहे हैं या अपनी गाड़ियों को घर पार्क कर देने वाले। इसका अध्ययन करना चाहिए। वर्ना खबरों के मुताबिक जो शोध के नतीजे हैं उससे तो यही लगता है कि मेट्रो फेल हो गई है। लो फ्लोर बसें लाकर ज़्यादातर लोगों को खड़ा कर दिया है। खड़े होने की जगह ज़्यादा बना दी गई है और शीशा बड़ा कर दिया गया है ताकि भीड़ में दबे कुचले लोग एक खास किस्म का सौंदर्य बोध भी पैदा कर सके।
दोस्तों ट्रैफिक ने जीवन को बदल दिया है। रिश्तों को तोड़ दिया है। इसका कुछ करो। ये सिर्फ प्रदूषण और धरती का मामला नहीं हैं। दिल्ली वाला औसतन एक घंटा रोज़ आने जाने में लगा देता होगा। काम के घंटे बढ़ रहे हैं। जाम के घंटे बढ़ रहे हैं। ब्लॉगरों से अनुरोध है कि अगर उनके इलाके से मेट्रो गुज़र रही है तो वो इलाके की ट्रैफिक का अध्ययन करें और कुछ लिखें।
जलो मत रीस करो
भारत एक संदेश प्रधान देश है। संदेश देने में हमारा जवाब नहीं। हर तरफ दीवारों पर चुनवा दिए गए संदेश आपको झटके देते रहे हैं। ऐसा कोई मार्ग नहीं जिससे गुज़रें और किसी संदेश पर नज़र न पड़े। दुकानदार भी संदेश देता है। गारंटी वाला माल। मोलभाव नहीं होता। उसकी दीवारों पर आज नगद कल उधार टाइप के संदेश जाने कब से उधारवाद को लानत भेज रहे हैं। उधार प्रेम की कैंची हैं। इसके बाद भी प्यारे मनमोहन सिंह उधारवादी उदार अर्थव्यवस्था ले आए। सब लोन लो और प्रेम को कैंची से काट कर होम लोड ले लो।
आज एक दफ्तर में गया। कई संदेश चिपकाए गए थे। तभी एक और थ्योरी दिमाग में घूमी। हाथ से लिखे संदेश कम होते हैं। ज़्यादातर संदेश स्टीकर पर होते हैं। कुछ संदेश अनाम पेंटर लिखते रहते हैं। लक्ष्मीनगर के उनके दफ्तर में एक संदेश लिखा था। जिसके मुताबिक कुसंगति से सब कुछ नष्ट हो जाता है। बाहर एक दुकान पर लिखा था कि बिका हुआ माल न तो वापस होगा न बदला जाएगा। बाप रे। कब संदेश फरमान हो जाते हैं पता नहीं चलता।
पंजाब की ट्रकों पर लिखा होता है जलो मत रीस करो। किसी से पूछा तो पता चला कि रीस का मतलब बराबरी करना होता है।
अगर किसी ने होंडा सिटी खरीदी तो जलो मत। तुम भी मेहनत करो और कमा कर होंडा सिटी करो। यानी बराबरी करो। यानी रीस करो। बुरी नज़र वाले तेरा मुंह काला टाइप के संदेश कम हो रहे हैं। कुछ ट्रकों पर जाने क्यों लिखा होता है कि कोशिश करेंगे वायदा नहीं। सराय ने इन संदेशों पर एक शोध भी किया है।
लेकिन श्लोक वाक्य बोलकर लगता है कि हमने कोई सूत्र दे दिया। अब जीवन ऐसे ही जीया जाएगा। श्मशान घाटों पर तो ऐसे ऐसे संदेश लिखे होते हैं कि मन ही नहीं करता कि वहां से वापस हुआ जाए। बाहर ज़िंदगी इतनी गई गुज़री है तो वही धुनी रमाओ भाई। इस विषय पर पहले भी लिख चुका हूं। फिर लिखने का मन किया है।
आज एक दफ्तर में गया। कई संदेश चिपकाए गए थे। तभी एक और थ्योरी दिमाग में घूमी। हाथ से लिखे संदेश कम होते हैं। ज़्यादातर संदेश स्टीकर पर होते हैं। कुछ संदेश अनाम पेंटर लिखते रहते हैं। लक्ष्मीनगर के उनके दफ्तर में एक संदेश लिखा था। जिसके मुताबिक कुसंगति से सब कुछ नष्ट हो जाता है। बाहर एक दुकान पर लिखा था कि बिका हुआ माल न तो वापस होगा न बदला जाएगा। बाप रे। कब संदेश फरमान हो जाते हैं पता नहीं चलता।
पंजाब की ट्रकों पर लिखा होता है जलो मत रीस करो। किसी से पूछा तो पता चला कि रीस का मतलब बराबरी करना होता है।
अगर किसी ने होंडा सिटी खरीदी तो जलो मत। तुम भी मेहनत करो और कमा कर होंडा सिटी करो। यानी बराबरी करो। यानी रीस करो। बुरी नज़र वाले तेरा मुंह काला टाइप के संदेश कम हो रहे हैं। कुछ ट्रकों पर जाने क्यों लिखा होता है कि कोशिश करेंगे वायदा नहीं। सराय ने इन संदेशों पर एक शोध भी किया है।
लेकिन श्लोक वाक्य बोलकर लगता है कि हमने कोई सूत्र दे दिया। अब जीवन ऐसे ही जीया जाएगा। श्मशान घाटों पर तो ऐसे ऐसे संदेश लिखे होते हैं कि मन ही नहीं करता कि वहां से वापस हुआ जाए। बाहर ज़िंदगी इतनी गई गुज़री है तो वही धुनी रमाओ भाई। इस विषय पर पहले भी लिख चुका हूं। फिर लिखने का मन किया है।
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