(पहले करता था तो कोई नहीं कहता था। अब वैसी ही भागमभाग करूं तो सब कहते हैं कि नहीं। और अन्दर से भी आवाज़ आने लगती है कि रुको। पर मैं न बाहर की सुनता हूं न अन्दर की। फिर भी इस बार ज़रा ज़्यादती हो गई। पिछले रविवार को लखनऊ, दोपहर कानपुर, रात फिर लखनऊ, सुबह दिल्ली और शाम इन्दौर और दूसरे दिन वापस दिल्ली।)
प्रभाष जोशी ने यह बात ६ जनवरी १९९४ को कागद कारे में लिखी थी। अपने पागलपन के अर्थ को समझाने के लिए। बताने के लिए कि इनती व्यस्तता के बाद भी क्रिकेट के लिए जगह बचती है। पांच नंवबर २००९ को दुनिया छोड़ कर जाने से पहले वे दुनिया का चक्कर लगा आए। पटना, वाराणसी, लखनऊ, दिल्ली और फिर मणिपुर की यात्रा पर निकलने वाले थे कि शरीर ने इस बार ना कह दिया। क्रिकेट के तनाव और रोमांच ने उनकी धुकधुकी इतनी तेज़ कर दी होगी कि वो अपनी थकान और हार की हताशा को संभाल नहीं पाए। हम सब एनडीटीवी इंडिया के न्यूज़ रूम में बात कर रहे थे कि अगली सुबह प्रभाष जी सचिन के सत्रह हज़ार पूरे होने पर क्या लिखेंगे। कुछ आंसू होंगे, कुछ हंसी होगी और कुछ पागलपन। नए नए शब्द निकलेंगे और इस बार लिखेंगे तो उनकी कलम दो हज़ार शब्दों की सीमा को तोड़ चार हज़ार शब्दों तक जाएगी। शुक्रवार का जनसत्ता देख लीजिए। उसमें प्रभाष जी का नाम तक नहीं है। जिस अख़बार को बनाया वो भी उनकी मौत की ख़बर आने से पहले छप गया। तेंदुलकर की एक तस्वीर के साथ ६ नवंबर का जनसत्ता घर आ गया। उसने भी प्रभाष जी का इंतज़ार नहीं किया। इस बार प्रभाष जोशी ने अपने अख़बार की डेडलाइन की कम और अपने डेडलाइन की परवाह ज़्यादा की।
धोती-कुर्ता पहनकर हाथ से लिखने और दिल से बोलने वाले वे आखिरी गांधीवादी और गंवई पत्रकार संपादक हैं। दरअसल यही हिंदी पत्रकारिता का खालीपन है कि जिसने भी प्रभाष जोशी को उनके जाने के बाद याद किया, कई बार आखिरी शब्द का इस्तमाल किया। साफ है कि किसी ने प्रभाष जोशी बनने की कोशिश नहीं की। आज हिंदी के पत्रकार समृद्धि के मुकाबले में सबके बराबर हैं लेकिन पत्रकारिता कभी इतनी कमज़ोर नहीं रही। हिंदी के पत्रकार कभी इतने बेजान नहीं लगे। पेशेवर संस्कार इस तरह खत्म हो जाएंगे कि हर ओहदेदार पत्रकार यह कहता मिलेगा कि प्रभाष जोशी आखिरी संपादक थे। दरअसल प्रभाष जोशी की विरासत से छुटकारा पाना हो तो हर विश्लेषण में आखिरी लगा दीजिए। साफ है पत्रकार प्रभाष जोशी से प्रभावित तो होते रहे लेकिन प्रेरित नहीं हुए। बात साफ है उनके जैसा होने में असीम मेहनत और त्याग चाहिए। ये दोनों काम अब हिंदी के पत्रकारों के बस की बात नहीं। कुछ अपवादों की बात का यहां कोई मतलब नहीं है। हिंदी का हर पत्रकार कम मेहनत और कर्णप्रिय परंतु प्रभावशाली विचारों के सहारे खुद को पार लगा रहा है। चिंता करना उसकी आदत है और कोशिश करने का काम प्रभाष जोशी जैसे बुज़ुर्गों के हवाले कर देना है।
हिंदी पत्रकारिता के इस शमन-पतन काल में बची हुई चिंगारी का चला जाना भयानक सर्दी में बदन के ऊपर से गरम कंबल का हट जाना है। टीवी पर बंदरों की तरह लपकते-उचकते और अखबारों में कमज़ोर ख़बरों को अनुप्रासों से चमकाने के इस दौर में हिंदी पत्रकारिता समन्वयी हो गई है। प्रभाष जोशी बहत्तर साल की उम्र में इस समन्वय को तोड़ने के लिए घूम रहे थे। हिंदी के अख़बारों के नेताओं से पैसे लेकर ख़बरें छापने की करतूत के ख़िलाफ लिखने लगे। उन संपादकों और पत्रकारों से लोहा लेने लगे जो ख़बरों को छोड़ रहे थे और वक्त को परिभाषित कर रहे थे। टाइम चेंज कर गया है, हमारे समय के इस सबसे बड़े मिथक से लोहा लेने का काम प्रभाष जोशी ने ही किया। वो पागलों की तरह घूमने लगे। पटना, वाराणसी,इंदौर,भीलवाड़ा। कार से घूमते कि कम से कम देश दिख जाए। कुछ लिखा जाए। ड्राइंग रूम में बैठ कर कुछ भी नहीं लिखा। जब भी लिखा कहीं से घूम-फिर कर आने के बाद लिखा।
उनकी कमी इसलिए भी खलेगी कि उनके बाद के बचे हुए लोगों ने खुद को खाली घोषित कर दिया है। लेकिन प्रभाष जी इस कमी का रोना कभी नहीं रोए। बम-बम होकर जीया. बम-बम होकर घूमा और बम-बम होकर लिखा। नर्मदा को मां कहा और गंगा से कह दिया कि तुमसे वैसे रिश्ता नहीं बन पा रहा जैसा मां नर्मदा और मौसी क्षिप्रा से है। मालवा के संस्कारों को हिंदी के बीच ऐसे मिला दिया कि लोग फर्क ही नहीं कर पाये कि ये मट्ठा है या लस्सी।
जनसत्ता अख़बार में जाना होता था तो एक नज़र प्रभाष जोशी को खोजती थी। कालेज से निकले थे तो धोती-कुर्ते वाला संपादक अभिभावक की तरह लगता था। हिम्मत नहीं हुई उनके पास फटक जायें। बाद में पता चला कि उनके पास तो कोई भी आ-जा सकता है। गांव बुला लीजिए गांव चले जायेंगे और उनके साथ जन्मदिन मना लीजिए तो केक काटने आ जायेंगे। उनकी इसी भलमनसाहत ने उन्हें आम आदमी का संपादक बना दिया। वो विज़िटिंग कार्ड वाले संपादक नहीं हैं। मुझसे चूक हो गई। एनडीटीवी के दफ्तर में आते जाते वक्त दूर से नमस्कार और उनका यह कह कर जाना कि अच्छा काम करते रहो। लगता था कि बहुत मिल गया। एक बार निर्माण विहार के घर में गया। क्रिकेट पर स्पेशल रिपोर्ट बना रहा था। दीवार पर बगल में अपनी तान में खोए कुमार गंधर्व की तस्वीर और सर के ऊपर चरखा कात रहे गांधी की तस्वीर। समझ में आ गया कि ये आज कल वाले सुपर स्टार झटका टाइप पत्रकार नहीं हैं। ऐसा कैसे हो रहा है कि जिस शख्स से सिर्फ एक बार मुलाकात हुई उसके बारे में लिखने के लिए इतनी बातें निकलती जा रही हैं। कागद कारे को पढ़ने के बाद मन ही मन उनसे बात मुलाकात होते रहती थी। सहमति-असहमति चलती रहती थी।
क्रिकेट की सामाजिकता को मेरी नज़रों के सामने से ऐसे घुमा दिया कि मैं सोच में पड़ गया। आज कल हिंदी में क्रिकेट के विशेषज्ञ पत्रकार हैं। लेकिन वो स्कोर बोर्ड के जोड़-तोड़ से आगे नहीं जा पाए। उनके लिए क्रिकेट पत्रकारिता क्रिक इंफो से रिकार्ड ढूंढने जैसा है। काश मैं पूछ पाता कि प्रभाष जी आप जब लिखते हैं कि क्रिक इंफो से रिकार्ड चेक करते हैं। क्रिक इंफो ने पत्रकारों का काम आसान कर दिया। उसके बेहतर रिकार्ड संयोजन से काफी मदद मिलती है लेकिन क्या पत्रकारों ने इसका फायदा क्रिकेट के दूसरे हिस्सों को समझने के लिए उठाया। शायद नहीं। अगर प्रभाष जी क्रिकेट की रिपोर्टिंग के आदर्श रहे तो बाकी खेल पत्रकारों ने उसे आगे बढ़ाकर समृद्ध क्यों नहीं किया।
जनसत्ता एक दस्तावेज़ है। प्रभाष जोशी उसके इतिहासकार हैं। जो लिखा दिल और दिमाग से लिखा। तमाम भावनात्मक उतार-चढ़ाव के बीच भी विवेक की रेखा साफ नज़र आती थी। उनके आलोचक भी हैं। होने भी चाहिए। जिस व्यक्ति ने सब कुछ लिख दिया हो, उसके आलोचक नहीं होंगे तो किसके होंगे। वो अपने सही और ग़लत को हमारे बीच लिखित रूप में छोड़ गए हैं। जिसे जो उठाना है, उठा ले।
हिंदी पत्रकारिता में प्रतिभा की आज भी कमी नहीं है। उन प्रतिभाओं में भरोसे और प्रयोग की भयंकर कमी ने खालीपन को और बढ़ा दिया है। प्रभाष जोशी ने अपना भरोसा खुद ढूंढा। उन नौजवान पत्रकारों के बीच जाकर उसे और बढ़ाया जो उन्हें सुनने के लिए तैयार थे। उनके लिए वक्त निकाला। दरअसल यही मुश्किल है प्रभाष जोशी को याद करने में। कब आप उनके बारे में बात करते करते पत्रकारिता की बात करने लगते हैं और कब पत्रकारिता की बात करते करते प्रभाष जोशी की बात करने लगते हैं पता नहीं चलता। दोनों को अलग कर लिखा ही नहीं जा सकता। उनका खुद का इतना लिखा हुआ है कि उनके बारे में आप जितना लिखेंगे, कुछ न कुछ छूट ही जाएगा। शायद इसलिए भी कि वो हम सबके लिए बहुत कुछ छोड़ गए हैं।
शुक्रवार की सुबह एम्स में उनके लिए ताबूत आया तो उस पर लिखा था- मॉर्टल रिमेन्स ऑफ प्रभाष जोशी। जो छोड़ गए वो तो हिंदी पत्रकारिता की परंपरा का है, बाकी बचा तो बस प्रभाष जोशी का नश्वर शरीर। वो भी राख में बदल कर नर्मदा मां की अविरल धारा की गोद में खेलने चला गया।
( आज के जनसत्ता में भी छपा है)