अमानत के गुमनाम दोस्त के नाम

मुझे मालूम है 
तुम सच्चे दोस्त थे उसके,
चाहा था उसे जीने के लिए,
लड़े भी उसकी ज़िंदगी के लिए,
कितना चाहा होगा तुमने उसे,
कितना चाहा होगा उसने तुम्हें,
तुम दोनों ने कितना प्यार किया होगा,
कितने सपने रखे होंगे सिरहाने,
उन सबको हटाकर एक दिन
देखने का मन करता है,
जानने का मन करता है
बताने का मन करता है 
इक दोस्त ऐसा भी होता है 
चुपचाप अकेले में रोता है 
जान पर खेल कर लड़ता है
तुम्हारी आँखों में वो मंज़र 
दर्ज भी होगा और क़र्ज भी,
नहीं बचा सकने की पीड़ा,
तुम्हारी करवटों को कैसे कैसे,
काटती होगी रात भर,
तुम तो मुआवज़े के एलान से भी 
कर दिए गए हो बाहर,
तुम तो इंसाफ़ की लड़ाई से भी 
कर दिए गए हो बाहर,
तुम्हारा दर्द तुम्हीं में जज़्ब हो गया,
जैसे वो दफ़्न हो गई हमेशा के लिए,
हम सबकी नाकामियों में,
दोस्त,
मैं तुम्हारी दोस्ती को चूमना चाहता हूँ,
बाँहों में कस कर रोना चाहता हूँ,
दोस्त,
वो कितना तड़पेगी तुम्हारे लिए,
जन्नत या दोज़ख़ की दीवारों के पीछे,
जाने तुम उसे ढूँढा करोगे कहाँ कहाँ पर,
सिनेमा हाल की सीट पर,
मुनिरका के बस स्टाप पर,
तुमने जो प्यार खोया है,
तुमने जो दोस्ती पायी है,
मैं मिलना चाहता हूँ तुमसे, 
तुम्हारी चाहत के बचे हिस्से में,
अपनी चाहत का इम्तिहान देना चाहता हूँ ।

(ये उस दोस्त के लिए है जो ग़ायब है हमारे बीच होकर भी, जिसकी मोहब्बत अब लौट न सकेगी कभी, इंसाफ़ की तमाम लड़ाइयाँ जीतने के बाद भी)

झांसी का किला बना गुजरात-मोदी की दिलचस्प लड़ाई


एक तय सा लगने वाला चुनाव इतना सपाट भी नहीं होता जितना बताया जाता है गुजरात चुनाव की ऐसी भविष्यवाणियों के बाद भी चुनावी टक्कर कई तरह के उतार चढ़ाव और आशंकाओं से गुज़र रही है जानकार नतीजे का एलान कर स्टुडियो में नरेंद्र मोदी की दिल्ली की पारी पर चर्चा करने में खो गए हैं लेकिन नरेंद्र मोदी टेस्ट खिलाड़ी की तरह एक एक गेंद देख कर खेल रहे हैं उनकी निगाह सिर्फ़ चुनाव पर है और पारी बचाने वाले उस बल्लेबाज़ की तरह जिसकी एक चूक मैच का पासा पलट सकती है

इसीलिए नरेंद्र मोदी ने इस चुनाव में थ्री डी टेक्नोलॉजी से ख़ुद को कई गुना मोदी में बदल दिया है वे लोगों से कहते हैं कि आपसे से हर कोई मोदी है उनके भाषणों के तेवर और रणनीतियों को देखें तो साफ लगता है कि वे इस मैच को जीता हुआ समझ कर नहीं खेल रहे हैं हालांकि उन्होंने कांग्रेस का समूल नाश का नारा दिया है और पोस्टरों में गुजरात के नक्शे पर चारों तरफ कमल खिला हुआ दिखाया जा रहा है लेकिन उनकी पुरानी आक्रामकता की जगह बचाव की मुद्रा वाली बल्लेबाज़ी दिखाई देती है शायद खिलाड़ी परिपक्व होने पर इसी तरह खेलना पसंद करता है वे दिन में कई सभायें करते हैं उनके भाषणों से लगता है कि इतनी व्यस्तता के बाद भी वे सोनिया गांधी,मनमोहन सिंह और राहुल गांधी को काफ़ी ध्यान से सुनते हैं जब ये लोग अपना भाषण समाप्त कर दोपहर तक दिल्ली लौट जाते हैं तब मोदी उनकी हर बात को हास्य में बदल देते हैं जैसे बिहार में लालू यादव खूब हंसाते थे वैसे बल्कि इस कला में मोदी लालू से भी दस क़दम आगे हैं वे विरोधी की हर बात को ऐसे घुमा देते हैं कि काउंटर करने का मौका भी नहीं मिलता और लोगों को हंसा कर चल देते हैं उनके भाषणों में राजनीतिक रसरंजन के तत्व बहुत हैं

शायद कांग्रेस भी नरेंद्र मोदी के इस हुनर को देखकर रणनीतियां बना रही है वो मोदी को कम से कम मौका देना चाहती है जानकार कहने लगे थे कि राहुल गांधी हार के भय से गुजरात नहीं रहे हैं उत्तर प्रदेश में दो सौ से ज्यादा रैलियां करने वाले राहुल गांधी गुजरात में एक भी रैली नहीं कर रहे लेकिन अब लगता है कि कांग्रेस राहुल गांधी को आखिरी दौर में उतार कर आज़माना चाहती थी ताकि मोदी को राहुल को घेरने के लिए कम से कम मौका मिला लेकिन ऐसा हुआ नहीं राहुल ने कहा कि हमारी सरकारें टेलिकाम क्रांति लाएंगी तो मोदी ने पलटवार करते हुए लोगों से पूछ दिया कि आपको मोबाइल चाहिए या नौकरी तो जवाब में तालियां बजने लगती है कांग्रेस के बड़े नेता हास्य में कमज़ोर हैं वे अपना भाषण गंभीरता से देते है और मोदी उनके भाषणों को कहीं ज़्यादा गंभीरता से लेते भी हैं उनके किसी भी भाषण लीजिए सोनिया मनमोहन और राहुल का ख़ूब ज़िक्र होता है

इससे उनका आत्मविश्वास तो झलकता है पर इरफान पठान को मंच पर लाकर वो अपनी कमज़ोरी ही ज़ाहिर कर रहे हैं सद्भावना यात्रा के दौरान टोपी पहनने से मना करने वाले मोदी ने खुद ही अहमद मियाँ पटेल का राग छेड़ा वो बार बार कांग्रेस को अपनी मांद में बुला रहे हैं कांग्रेस ने दब तूल नहीं दिया तो मुंबई की शाहिन का किस्सा उछाला कि महाराष्ट्र में फेसबुक पर लिखने के कारण शाहिन को जेल भेेजा और अब शाहिन गुजरात में सुरक्षित महसूस करती है मोदी ने आसानी ने शाहिन के गिरफ्तार होने की पृष्ठभूमि को किनारे कर दिया कि बाल ठाकरे की अंतिम यात्रा पर मुंबई बंद को लेकर शाहिन ने सवाल किया था तो कैसे शिव सैनिकों ने शाहिन उसकी दोस्त को धमकाया था बाद में जब शाहिन ने गुजरात में बसने से इंकार किया तो मोदी ने शाहिन के मुद्दे को छोड़ने में ज़रा भी देरी नहीं की। मोदी बार बार कह रहे हैं कि गुजरात में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की राजनीति ख़त्म हो गई है लेकिन क्या इरफान पठान को मंच पर लाना सिर्फ़ एक क्रिकेटर के साथ साझा करना ही समझा जाएगा मोदी तरह तरह से चुनौती दे रहे हैं मगर इस चुनौती के केंद्र में विकास ही है

इस बहाने यह हो रहा है कि दोनों पक्षों के नेता एक दूसरे को विकास की अवधारणाओं को जमकर चुनौती दे रहे हैं यह बहुत अच्छा है गुजरात का चुनाव थोड़े अपवादों को छोड़ दें तो मूल रूप से विकास के मुद्दे पर हो रहा है भाषणों में आंकड़ों की भरमार है इसी बहाने जनता भी ऐसे मुद्दें के प्रति संवेदनशील हो रही है हमारे देश में विकास की राजनीति की शुरूआत मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की सरकार जाने से हुई थी जब बिजली सड़क पानी के सवाल पर राजनीति ने दिशा बदली थी और तब से इन्हीं तीन सवालों पर कई सरकारें चली गईं और कई जीत कर दोबारा तिबारा लौटती भी रही हैं इस राजनीति के करीब दो दशक होने को रहे हैं, देखना चाहिए कि गुजरात का चुनाव बिजली सड़क पानी के सवालों से आगे विकास के उन मुद्दों पर क्या जनादेश हासिल करता है जिनका संबंध विकास की अवधारणा से है यह तभी होगा जब गुजरात के बाद के चुनाव भी विकास का मतलब सिर्फ़ बिजली सड़क पानी तक सीमित रह जाए नौकरी, पर्यावरण, भूमि अधिग्रहण के सवालों पर बात होने लगी है

भाषण चुनावी राजनीति की ऊपरी सतह है इससे अंदाजा मिलता है कि नीचे की सतह पर सियासत किस तरह से करवट ले रही है गुजरात में कांग्रेस कमज़ोर बताई जा रही है लेकिन नरेंद्र मोदी उसी कमज़ोर बताई जाने वाली कांग्रेस से काफ़ी शिद्दत से लड़ रहे हैं ताकि जीत का स्वाद भी ऐसे हो कि लगे कि बांग्लादेश की टीम को हराकर लौट रहे हों कांग्रेस भी इस चुनाव को हारी हुई लड़ाई समझ कर नहीं लड़ रही है सही है कि कांग्रेस बिना चेहरे की टीम से लड़ रही है, कई बार ऐसे अभ्यासों से ही कोई चेहरा निकल आता है 2002 और 2007 में कांग्रेस ने औपचारिकता ही निभाई थी इस बार फ़र्क यह है कि पचास ओवर तक टिका रहा जाए ताकि कम से कम इतना तो लगे कि मुकाबला हुआ इस बार कांग्रेस लड़ रही है तभी मोदी कांग्रेस से लड़ रहे हैं

इसलिए जानकारों के फैलाये इस भ्रम में रहें कि गुजरात में चुनाव नहीं हो रहा है बल्कि इसी बार गुजरात में चुनाव हो रहा है बीजेपी और कांग्रेस दोनों की तैयारियों से ऐसा नहीं लगता है कि जीत का एलान हो चुका है गुजरात एक दिलचस्प चुनावी दौर से गुज़र रहा है गुजरात के चुनावों में रुचि बना़ये रखिये नतीजा आने से पहले मैच का मज़ा तो लीजिए

(यह लेख पिछले हफ्ते राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है)


रघुराय से रघुराम तक- रवि के कैमरे में अयोध्या

रघु राय का जादू न होता तो बीस साल के डी रवींद्र रेड्डी अयोध्या नहीं गए होते। वो बस अपने कैमरे में कैद करना चाहते थे कि रघु राय किस तरह से फोटोग्राफी करते हैं। अपने विषय को चुनते हैं। उनमें क्या ख़ास है जो सबसे अलग फोटोग्राफर बनाता है।१९८७ में हैदराबाद से फोटोग्राफी की दीक्षा लेने के बाद रेड्डी अपनी फोटू एजेंसी बना ली थी। रवि प्रेस फोटो एजेंसी। वो दिल्ली से आयोध्या के लिए रवाना हुए तो बस दिमाग़ में यही था कि इतने बड़े जमावड़े को रघु राय कैसे देख रहे होंगे। रवि ने बाबरी मस्जिद के दायरे में जमा कारसेवकों के बीच रघु राय को ढूंढना शुरू कर दिया। रघु राय मिल गए। कहीं बैठकर तस्वीरें लेते हुए तो कहीं भाग भाग कर। उसे रघु राय तो मिल गए मगर रघुकुल के राम के नाम जो मिला उसे आज तक नहीं भूले हैं। कैसे भूल सकते हैं।




लाखों लोगों की भीड़ उतावली हो चुकी थी। साढ़े ग्यारह बज रहे थे। कारसेवकों ने मस्जिद पर धावा बोलना शुरू कर दिया था। सब तीतर-बीतर हो गया। रवि ने सामने से घुसने की कोशिश की लेकिन भीड़ के धक्के से नहीं जा सके। फिर वो पीछे के रास्ते से मस्जिद में घुसने की कोशिश करते रहे। प्रेस रिपोर्टर और फोटोग्राफर पकड़े और पीटे जा रहे थे। लेकिन रवि के पास जो बैग था वो पेशेवर फोटोग्राफर का नहीं था। जब पीछे की ओर से घुसने की कोशिश में रवि को भी कुछ लोग पीटने लगे। तभी एक आवाज़ आई ये तेलुगू बच्चा है। इसे छोड़ दो। कारसेवकों की भीड़ में कोई आंध्र का रहा होगा जो बच्चे से लगने वाले रवि पर रहम खा गया होगा। रवि को बात समझ आ गई। उन्होंने अपना कैमरा जैकेट के भीतर छुपा लिया और अब वहां से निकलने की तैयारी करने लगे।


भीड़ इतनी ज़्यादा दी थी कि निकलना आसान नहीं था। एक घंटे लग गए फैज़ाबाद स्टेशन पहुंचने में। कोई ढाई बजे रहे होंगे जब स्टेशन पर लोग बोलने लगे कि गुंबद गिरा दी गई है। किसी तरह से रवि भाग कर फ़ैज़ाबाद पहुंचे। वहां से लखनऊ और सात दिसंबर की सुबह दिल्ली। इंडिया टुडे के दफ्तर गए। शरद सक्सेना ने कहा कि हमारा फोटोग्राफर भी वहां है। लेकिन किसी को पता नहीं था कि वहां मौजूद लोगों के कैमरे तोड़े गए हैं। वो पहुंच नहीं पाए थे। रवि ने अपनी तस्वीर दे दी। फिर पहुंचे टाइम पत्रिका के दफ्तर। ब्यूरो चीफ ने भी यही जवाब दिया। इस बातचीत का लंबा प्रसंग है। बाद में रवि की ही तस्वीरें इंडिया टुडे और टाइम के कवर पर छपीं। सीबीआई का अफसर पूछ ताछ के लिए रवि के पास गया था। रवि ने कहा कि कैसे पहचान सकता । तस्वीरें हैं, ले जाइये किसी काम आ जाएं तो अच्छा है।



रवि की तस्वीरों को देखकर सोचता रहा जो लोग इन नेताओं के कहने पर आए वे आज चालीस,पैंतालीस,पचास और साठ साल के हो गए होंगे। वो क्या सोचते होंगे। कोई अफसोस या राम के नाम पर झूठा गर्व। सीखना तो पड़ेगा। इस तरह की हर हैवानियत शर्मनाक है। हमारे भीतर की ऐसी हिंसा को समझना होगा, जो मज़हब की नाइंसाफियों के सच झूठ के किस्सों से भड़क जाती है और भड़काने वाला आसानी से भड़के हुए लोगों को रद्दी की टोकरी में डाल अपने सत्ता सुख की चमक में गायब हो जाता है।


डी रवींद्र रेड्डी से आज ही बात की। हमारे सहयोगी और सीनीयर कैमरा मैन नरेंद्र गोडावली ने उनका ज़िक्र किया तो नंबर लेकर बात करने लगा। रवि ने अपनी सारी तस्वीरें भेज दी हैं मगर संवेदनशीलता को देखते हुए कुछ ही लगाईं हैं। ये तस्वीरें देखकर जो उतावले होंगे वो मूर्खता ही करेंगे। यह सब वो दस्तावेज़ हैं जिन्हें देखकर हमें सीखना है कि राजनीति जब भी भावुकता से भरने की कोशिश करे तो कैसे अलग रह जाए। नहीं सीखा तो दस साल बाद गुजरात में हैवान बन गए लोग। इतिहास में नाइंसाफियों की इतनी दास्तानें हैं कि लोग कभी भी किसी की मिसाल देकर भड़का सकते हैं। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बीस साल हो गए हैं। हम अक्सर जब गुजरात दंगों की बात करते हैं तो जवाब आता है चौरासी के दंगों की बात कीजिए। जवाब देने वालों ने चतुराई से अयोध्या में मची इस हैवानियत को गायब कर दिया है। जो लोग नेतृत्व कर रहे थे उनमें से कई आज भी हैं। ज्यादातर उस घटना को शर्मनाक बता चुके हैं। अच्छा ही है कि अयोध्या के ज़ख्मों को भूल जाया जाए,बीस साल का वक्त इसी इंतज़ार में गुज़रा है। लेकिन अयोध्या की जो तारीख़ बन गई है वो छह दिसंबर से ही शुरू होती है और उसी पर खत्म हो जाती है।



और यह तारीख एक फोटोग्राफर के कैमरे में हमेशा के लिए दर्ज हो गई जो उसे अपने रघुराय की तलाश में वहां ले गई थी। वो रघुराम को खोकर लौटा मगर जब लौटा तो खुद ही रघुराय बन चुका था। WWW.dravinderreddy.com


( you can not use these pictures withouth permission of the photographer. he has given only for qasba)


छठ है कि ईद है


नरियलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुग्गा मेड़राए, ऊ जे खबरी जनइबो अदित से,सुग्गा दिले जूठइयाए,उ जे मरबो रे सुगवा धनुष से, सुग्गा गिरे मुरझाए ।" मैं कहीं भी रहूं किसी भी हालत में रहूं बस ये गाना किसी तरह मेरे कानों से गुज़र जाए, मैं छठ में पहुंच जाता हूं। यह गीत रूलाते रूलाते अंतरआत्मा के हर मलिन घाट को धोने लगता है,जैसे हम सब बचपन में मिलकर झाड़ू लेकर निकल पड़ते थे,सड़क-घाट की सफाई करने। मुझे मालूम है कि छठ के वक्त हम सब भावुक हो जाते हैं। आपको पता चल गया होगा कि मैं भी भावुक हूं। हर छठ में यह सवाल आता है कि छठ में घर जा रहे हो। घर मतलब गांव। गांव मतलब पुरखों की भूमि। अब घर का मतलब फ्लैट हो गया है। जिसे मैंने दिल्ली में ख़रीदा है। गांव वाला घर विरासत में मिला है। जिसने हमें और आपको छठ की संस्कृति दी है।

मेरा गांव जितवारपुर गंडक के किनारे हैं। बड़की माई छठ करती थीं। उनकी तैयारियों के साथ पूरा परिवार जो जहां बिखरा होता था, सब छठ के मूड में आ जाता था। मां पूछती ऐ जीजी केरवा केने रखाई, बाबूजी अपने बड़े भाई से पूछने लगते थे हो भइया,मैदा,डालडा कब चलल जाई अरेराज से ले आवे, आ कि पटने से ले ले आईं। कब जाना है और कब तक मीट-मछरी नहीं खाना है,सबकी योजना बन जाती थी। डालडा में ठेकुआ छनाने की खुश्बू और छत पर सूखते गेंहू की पहरेदारी। चीनी वाला ठेकुआ और गुड़ वाला ठेकुआ। एक कड़ा-कड़ा और दूसरे लेरुआया(नरम) हुआ। आपने भी इसी से मिलता जुलना मंज़र अपने घर-परिवार और समाज में देखा होगा। छठ की यही खासियत है, इसकी जैसी स्मृति मेरी है, वैसी ही आपकी होगी। आज के दिन जो भी जहां होता है, वो छठ में होता है या फिर छठ की याद में।

उस दिन मेरी नदी गंडक कोसी के दीये से कितनी सुंदर हो जाती है, क्या बतायें। अगली सुबह घाट पर प्रसाद के लिए कत्थई कोर वाली झक सफेद धोती फैलाये बाबूजी आज भी वैसे ही याद आते हैं। जब तक ज़िंदा रहे, छठ से नागा नहीं किया। दो दिनों तक नदी के किनारे हम सब होते हैं। सब अपनी अपनी नदियों के किनारे खड़े उस सामूहिकता में समाहित होते रहते हैं जिसका निर्माण छठ के दो दिनों में होता है और जिसकी स्मृति जीवन भर रह जाती है। हमारे जितने भी प्रमुख त्योहार बचे हैं उनमें से छठ एकमात्र है जो बिना नदी के हो ही नहीं सकता। बिहार को नदियां वरदान में मिली हैं,हमने उन्हें अभिशाप में बदल दिया। आधुनिकता ने जबसे नदियों के किनारे बांध को ढूंढना शुरू किया, नदियां को वर्णन भयावह होता चला गया। छठ एकमात्र ऐसा पर्व है जो नदियों के करीब हमें ले जाता है। ये और बात है कि हम नदियों के करीब अब आंख मूंद कर जाते हैं ताकि उसके किनारे की गंदगी न दिखे, ताकि उसकी तबाही हमारी पवित्रता या सामूहिकता से आंख न मिला ले। घाटों को सजाने का सामूहिक श्रम नदियों के भले काम न आया हो मगर सामाजिकता के ज़रूरी है कि ऐसे भावुक क्षण ज़रूर बनते चलें।


"पटना के घाट पर, हमहूं अरगिया देबई हे छठी मइया,हम न जाइब दूसर घाट, देखब हे छठी मइया। "शारदा सिन्हा जी ने इसे कितना प्यार से गाया है। पटना के घाट पर छठ करने की जिद। गंगा की तरफ जाने वाला हर रास्ता धुला नज़र आता है। सीरीज़ बल्ब से सजा और लाउड स्पीकर से आने वाली आवाज़, ऐ रेक्सा, लाइन में चलो, भाइयो और बहनो, कृष्णानगर छठपूजा समिति आपका स्वागत करती है। व्रती माताओं से अनुरोध है कि लौटते वक्त प्रसाद ज़रूर देते जाएं। कोई तकलीफ हो तो हमें ज़रूर बतायें। पूरी रात हिन्दी फिल्म के गाने बजने लगते हैं। हमारे वक्त में दूर से आवाज़ आती थी, हे तुमने कभी किसी को दिल दिया है, मैंने भी दिया है। सुभाष घई की फिल्म कर्ज का यह गाना खूब हिट हुआ था। तब हम फिल्मी गानों की सफलता बाक्स आफिस से नहीं जानते थे। देखते थे कि छठ और सरस्वती पूजा में कौन सा गाना खूब बजा। काश कि हम नदियों तक जाने वाले हर मार्ग को ऐसे ही साल भर पवित्र रखते। जो नागरिक अनुशासन बनाते हैं उसे भी बरकरार रखते।

कितने नामों से हमने नदियों को बुलाया है।गंगा,गंडक,कोसी,कमला,बलान,पुनपुन,सोन,कोयल,बागमती, कर्मनाशा, फल्गु,करेह,नूना,किऊल ऐसी कई नदियां हैं जो छठ के दिन किसी दुल्हन की तरह सज उठती हैं। आज कई नदियां संकट में हैं और हम सब इन्हें छोड़ कर अपने अपने छतों पर पुल और हौद बनाकर छठ करने लगे हैं। दिल्ली में लोग पार्क के किनारे गड्ढा खोदकर छठ करने लगते हैं। यहां के हज़ारों तालाबों को हमने मकानों के नीचे दफन कर दिया और नाले में बदल चुकी यमुना के एक हिस्से का पानी साफ कर छठ मनाने लगते है। तब यह सोचना पड़ता है कि जिस सामूहिकता का निर्माण छठ से बनता है वो क्या हमारे भीतर कोई और चेतना पैदा करती है। सोचियेगा। नदियां नहीं रहेंगी तो कठवत में छठ की शोभा भी नहीं रहेगी। घाट जाने की जो यात्रा है वो उस सामूहिकता के मार्ग पर चलने की यात्रा है जिसे सिर्फ नदियां और उनके किनारे बने घाट ही दे सकते हैं। क्या आप ईद की नमाज़ अपने घर के आंगन में पढ़ कर उसकी सामूहिकता में प्रवेश कर सकते हैं। दरअसल इसी सामूहिकता के कारण ईद और छठ एक दूसरे के करीब हैं। बिहार की एक मात्र बड़ी सांस्कृतिक पहचान छठ से बनती है। इसका मतलब यह नहीं कि अन्य सामाजिक तबकों के विशाल पर्व त्योहार का ध्यान नहीं है, लेकिन छठ से हमारी वो पहचान बनती है जिसका प्रदर्शन हम मुंबई के जूहू बीच पर करते हैं और कोलकाता के हावड़ा घाट पर करते हैं। इस पहचान की से वो ताकत बनती है जिसके आगे ममता बनर्जी बांग्ला में छठ मुबारक की होर्डिंग लगाती हैं और संजय निरुपम मुंबई में मराठी में। दिल्ली से लेकर यूपी तक में छठ की शुभकामनाएं देते अनेक होर्डिंग आपको दिख जायेंगे।

अमेरिका में रहने वाले मित्र भी छठ के समय बौरा जाते हैं। हम सब दिल्ली मुंबई कोलकाता बंगलुरू में रहने वाले होली को जितना याद नहीं करते, छठ को याद करते हैं। यह एक ऐसा पर्व है जो भीतर से बिल्कुल नहीं बदला। पूजा का कोई सामान नहीं बदला। कभी छठ में नया आइटम जुड़ते नहीं देखा। अपनी स्मृति क्षमता के अनुसार यही बता सकता हूं कि छठ की निरंतरता ग़ज़ब की है। बस एक ही लय टूटी है। वो है नदियों के किनारे जाने की। लालू प्रसाद यादव के स्वीमिंग पुल वाले छठ ने इसे और प्रचारित किया होगा। यहीं पर थोड़ा वर्ग भेद आया है। संपन्न लोगों ने अपने घाट और हौद बना लिये। बिना उस विहंगम भीड़ में समाहित होने का जोखिम उठाये आप उस पहचान को हासिल करना चाहते हैं यह सिर्फ आर्थिक चालाकी ही हो सकती है। लेकिन इसके बाद भी करोड़ों लोग नंगे पांव पैदल चल कर घाट पर ही जाते हैं। जाते रहेंगे। घाट पर नहीं जाना ही तो छठ में नहीं जाना होता है। अब रेल और बस के बस की बात नहीं कि सभी बिहारियों को लाद कर छठ में घर पहुंचा दे। इसलिए आप देखेंगे कि छठ ने अनेक नई नदियों के घाट खोज लिये हैं। यह छठ का विस्तार है।

सर...सर..छुट्टी दे दीजिए..सर। बस चार दिन में आपना गांव से वापस लौट आयेंगे। माई इस बार छठ कर रही है, मामी भी, छोटकी चाची भी। सब लोग। कलकत्ता से बड़का भईया भी आ रहे हैं..सर..हम भी जायेंगे..सर..टिकट भी कटा लिए हैं...। सर सब कुछ तो आपका ही दिया हुआ है..यु बुशर्ट ...ये खून में मिला नमक...मेरा रोम रोम आपका कर्ज़दार है...बिहारी हैं न...पेट भरने अपने घर से मीलों दूर...आपकी फैक्ट्री में...पर सर..छठ पूजा हमारे रूह में बसता है...अब हम आपको कैसे बताएं...छठ क्या है..हमारे लिये। हम नहीं बता सकते और ना आप समझ सकते हैं।

हमारे मित्र रंजन ऋतुराज ने अपने फेसबुक पर इस काल्पनिक से लगने वाले छठ संवाद को लिखा है। क्या पता कितने लोगों ने ऐसे ही छुट्टी मांगी होगी, मिलने पर नाचे होंगे और नहीं मिलने पर उदास हो गए होंगे। सब आपस में पूछ रहे हैं, तुम नहीं गए, जाना चाहिए था। हम तो अगले साल पक्का जायेंगे। अभी से सोच लिये हैं। बहुत हुआ इ डिल्ली का नौकरी। हम सब यहां जो गंगा और गंडक से दूर हैं छठ को ऐसे ही याद करते हैं। कोई घर जाने की खुशी बता रहा है तो किसी को लग रहा है कि शिकागो में आकर भी क्या हासिल जब छठ में गांव नहीं गए। तभी मैं कहता हूं कि इस व्रत को अभी नारीवादी नज़रिये से देखा जाना बाकी है, हो सकता है इसे जातिगत सामूहिकता की नज़र से भी नहीं देखा गया हो, ज़रूर देखना चाहिए लेकिन इस त्योहार की खासियत ही यही है कि इसने बिहारी होने को जो बिहारीपन दिया है वो बिहार का गौरवशाली इतिहास भी नहीं दे सका। शायद उस इतिहास और गौरव की पुनर्व्याख्या आने वाली राजनीति कर के दिखा भी दे लेकिन फिलहाल जिस रूप में छठ हमें मिला है और हमारे सामने मौजूद है वो सर माथे पर। हर साल भाभी का फोन आता है। छठ में सबको चलना है। जवाब न में होता है लेकिन बोल कर नहीं देते। चुप होकर देते हैं। भीतर से रोकर देते हैं कि नहीं आ सके। लेकिन अरग देने के वक्त जल्दी उठना और दिल्ली के घाटों पर पहुंचने का सिलसिला आज तक नहीं रूका। छठ पूजा समिति में कुछ दे आना, उस सामूहिकता में छोटा सा गुप्तदान या अंशदान होता है जिसे हमने परंपराओं से पाया है। तभी तो हम इसके नज़दीक आते ही यू ट्यूब पर शारदा सिन्हा जी को ढूंढने लगते हैं। छठ के गीत सुनते सुनते उनके प्रति सम्मान प्यार में बदल जाता है। शारदा जी हम प्रवासियों की बड़की माई बन जाती हैं। हम उनका ही गीत सुनकर छठ मना लेते हैं।
(नोट- यह लेख आज के दैनिक प्रभात ख़बर में प्रकाशित हो चुका है। कृपया इसे अपने किसी अख़बार का हिस्सा न बनायें)


मदीना ढाबा संग संग शिवा ढाबा


शाकाहारी हैं तो क्या हुआ बाज़ार के सेकुलर स्पेस पर सबका दावा होता है। मुरादाबाद हापुड़ के बीच किसी जगह पर आपको यह अद्भुत नज़ारा दिखेगा। शिव ढाबा नाम के कई ढाबे आपस में असली होने की होड़ करते हुए भी सेकुलर बने हुए हैं। कोई बीस साल पुराना है तो किसी की जगह बदल गई है। शायद शिव नाम के किसी मुखिया का परिवार बंट गया होगा या फिर भगवान शिव इतने बड़े शाकाहारी ढाबे के ब्रांड बन गए होंगे कि तीन तीन ढाबे वालों ने थोड़ा थोड़ा शिव का अंश लेकर असली शिव होने का दावा ठोंक दिया होगा।


लेकिन इस सड़क की ख़ास स्थिति ने ढाबे के बाज़ार को अनोखी मंज़िल दे दी है। यह सड़क सीधा आपको दिल्ली ले जाती है और मामूली दायें बायें होते हुए अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड़्डा। पूरे रास्ते में आपको हज मुबारक की स्ट्रीकर वाली गाड़ियां दिखेंगी। टवेरा,इनोवा और वैगन आर टाइप की कारें हाजियों को विदा करने जा रहे रिश्तेदारों से भरी होती हैं। अब ये रास्ते में कहीं न कहीं रूकेंगे तो सही। चाय पानी के लिए। तो शिव ढाबा वाले कैसे इतने बड़े बाज़ार को हाथ से जाने दें। इसलिए मामा यादव जो किसी एक शिव ढाबा के मालिक हैं नमाज़ी टोपी और कंधे पर किफ़ाया रखे नज़र आ रहे हैं। मामा यादव ने नमाज़ पढ़ने के सुविधा भी उपलब्ध करा दी है। और आपको विश्वसनीय सेकुलर लगें इसलिए समाजवादी पार्टी के नेता आज़म ख़ान भी होर्डिंग पर नामूदार हैं। शिवा ढाबा की तमाम होर्डिंग पर हज यात्रियों को तहेदिल से मुबारकबाद दिया जा रहा है। शाकाहारी ढाबा है लेकिन हज यात्रियों को ये न लगे कि यहां नहीं रुका जा सकता है इसलिए पुराने हिन्दू होटलों की तरह ठसक नहीं है। सब पर हज मुबारक लिखा हुआ है। बस इतना ज़्यादा सेकुलर हो गए हैं कि हज में एक नुक़्ता ज़्यादा लगा दिया है। हज की जगह हज़ लिख दिया है।


लेकिन इस प्रेम के पीछे प्रतियोगिता का गहरा भाव है। अस्तित्व की लड़ाई भी है क्योंकि इस मार्ग पर कई ऐसे ढाबे खुल गए हैं जो मुस्लिम पहचान लिये हुए हैं। इतना ज़्यादा कि एक ढाबे का नाम लिखा था चौधरी मूस्लिम(मुस्लिम नहीं) ढाबा। मुरादाबाद और अन्य मुस्लिम इलाकों से गुज़रने वाली यह सड़क कई मुस्लिम पहचान वाले ढाबों को ख़ूब मौका दे रही है। आप इसे मुस्लिम समाज के कारोबारियों में आ रहे नए आत्मविश्वास की तरह देखिये। जैसे शिव ढाबे वालों का आत्मविश्वास है कि वे हज यात्रियों को भी अपना ही ग्राहक समझ रहे हैं। नमाज़ की सुविधा दे रहे हैं। लेकिन अल शमीम ढाबा और शादाब ढाबा को अलग से नहीं लिखना पड़ रहा है कि हमारे यहां नमाज़ की भी सुविधा उपलब्ध है। हो सकता है कि गाड़ी चलाते वक्त मेरी निगाह से यह लाइन ओझल हो गई हो मगर दिल्ली मुरादाबाद मार्ग पर कई मुस्लिम ढाबों की उपस्थिति पहचान के नए आत्मविश्वास के दौर का भी प्रतीक है । कम से कम वे इस नाम के साथ शिव ढाबा की ग्राहक खींचने की क्षमता को चुनौती देने आ गए हैं। बिस्मिल्लाह ढाबा भी है। लेकिन शिव ढाबा की तरह मदीना ढाबा का नाम खूब उभर कर सामने आ रहा है। मदीना ढाबा पंजाबी ढाबा की तरह नया ब्रांड हो गया है। कई जगहों पर मदीना ढाबा दिखा। कोरमा,नेहारी और इश्टू की लज़ीज़ तस्वीरें शान से होर्डिंग पर प्रदर्शित की गई हैं जैसे कई जगहों पर गणेश ढाबे वाले अपनी खीर और पनीर का प्रदर्शन करते हैं। मदीना ढाबा किसका है मालूम नहीं लेकिन होर्डिंग पर राजीव चौधरी का भी नाम है और मोहम्मद आलम का भी।


यह नया हिन्दुस्तान है जो पुराने हिन्दुस्तान के बीच किसी किसी कोने से निकलता रहता है। इनके बीच हरियाणा के मुरथल वाले भी मुरथल नाम का ढाबा खोल रहे हैं। मुरथल के साथ बड़ा अन्याय हो गया है। दिल्ली चंडीगढ़ मार्ग पर कई फ्लाईओवर बन जाने के कारण मुरथल पराठे वालों का ढाबा मुख्य मार्ग से कट गया है। इसलिए वे मुरथल ब्रांड के साथ फरीदाबाद मथुरा मार्ग और दिल्ली मुरादाबाद मार्ग पर अपना वजूद खोज रहे हैं। बीकानेरवाला और मोगा वालों ने अपना एसी ढाबा भी खोल रखा है। ढाबों को अपना अस्तित्व बचाने के लिए पहचान का सहारा लेना बिल्कुल जायज़ है। पहचान भी एक ब्रांड है जैसे कोई ब्रांड पहचान। मुस्लिम ढाबा और शिवा ढाबा का स्वागत। एक ही स्पेस में मदीना और शिवा की होड़। वाह। अति सुन्दर।