मोहल्ले की बेटी
अविनाश का मोहल्ला बड़ा हो गया है। एक बेटी आई है। मोहल्ला पर आड़ी तिरछी रेखाएं खींचने और लिखे हुए पर अपनी उंगलियों से काटपिट करने के लिए। कस्बा की तरफ से मोहल्ले की नई मेहमान का स्वागत किया जा रहा है। अविनाश छुट्टी पर हैं इसलिए उनके घर मिठाई खाने कभी भी जा सकते हैं।बेटी की क्यारी
मोदी की जीत
दिल्ली से आने वाले हर फोन में यही बेचैनी थी। मोदी की जीत कहीं पक्की तो नहीं है। सब एक दूसरे से अपनी तसल्ली के लिए पूछ रहे थे। लेकिन ज़मीन पर हकीकत कुछ और कह रही थी। कई जगहों पर गया। कहीं भी मोदी को लेकर लोगों में कोई शंका नहीं थी। इन लोगों से मतलब हिंदू गुजराती से है। मोदी की विकासवादी सांप्रदायिकता के आलोचक सिर्फ मुसलमान नज़र आते हैं। कुछ एनजीओ। कुछ मीडिया के लोग और इन सबके सहारे कांग्रेस।
भावनगर से मिलने आए एक सज्जन ने मुझसे कहा कि मोदी के विरोध या समर्थन में तर्कों की कमी नहीं। हमारी जनता हिंसक शासकों से नफरत नहीं करती है। इतिहास में कई ऐसे राजा हुए जिन्होंने कुआं खुदवाने और पानी लाने के लिए गरीबों की बेटियों की बलि दे दी। जब पानी आया तो लोगों ने राजा के गुनगान में कई गीत रचे। किसी ने मारी गई बेटी और उसके परिवार पर शोक गीत नहीं लिखा। गुजरात में भी नरेंद्र मोदी को इसी मानसिकता से समर्थन मिल रहा है। भावनगर वाले सज्जन बताए जा रहे थे कि लोग कहते हैं कि दंगों में जो मरे सो मरे लेकिन राजा ने गुजरात का भला तो कर दिया। यह कोई मामूली बात नहीं है। सज्जन की बातों से मुझे वो सब जवाब मिलने लगे जिन्हें ढूंढ रहा था।
चुनावी राजनीति में राजनेता को घेरने के कुछ ठोस पैमाने चाहिए। टूटी सड़कें, गायब बिजली और पानी, खराब सरकारी व्यवस्था आदि आदि। गुजरात में यह सब नहीं है। ऐसी बात नहीं है कि पानी की समस्या नहीं हैं और सभी सड़के शानदार हैं। मगर हालत इतनी भी खराब नहीं लगती कि आप बिजली सड़क पानी को मुद्दा बना सकें। अभी भी कई लोग हैं जिनके आधार पर मोदीवादी विकास को चुनौती दी जा सकती है। लेकिन विकास की कमी को लेकर लोग इतने भी परेशान नहीं कि मोदी के खिलाफ लामबंद होने लगे हों। कम से कम सतही तौर पर तो यही लगता है। कई लोगों से मिला। किसी ने नहीं कहा कि मोदी को हरा कर रहेंगे। कांग्रेस से यह सवाल कीजिए तो जवाब मिलता है कि उम्मीद तो है कि मोदी हारेंगे क्योंकि कई विधायक बागी हो गए हैं। सब किसी न किसी बाह्य कारणों से मोदी के हार जाने का ख्वाब देख रहे हैं।
मान लीजिए कि मोदी हार ही जाते हैं। तो क्या हो जाएगा। क्या यह सांप्रदायिकता के खिलाफ जनादेश होगा? जबकि कांग्रेस यह मुद्दा ही नहीं उठा रही है और कई लोग हमें भी राय देते हैं कि आप गुजरात में हैं तो मुसलमानों पर स्टोरी मत कीजिएगा,इससे मोदी को लाभ हो जाएगा। हद है ऐसी सोच की। क्या कोई इस चुनाव में नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिकता के सवाल पर चुनौती दे रहा है? २००२ में गुजरात की जनता ने मोदी के पक्ष में जनादेश दिया था। तो फिर मोदी के हारने या न हारने से सांप्रदायिकता का सवाल कहां उठता है? क्या सिर्फ मोदी के कारण ही वहां सांप्रदायिकता का ज़हर फैला हुआ है। सिर्फ मोदी को हरा कर सांप्रदायिकता को नहीं हरा सकते। इसलिए जीत का लक्ष्य कुछ और होना चाहिए। उनमें से एक मोदी की हार भी होनी चाहिए न कि मोदी की हार से धर्मनिरपेक्षता की जीत का लक्ष्य।
ज़मीन पर गुजरात एक बेहतर राज्य लगता है। कई लोग कहते हैं कि गुजरात हमेशा से अच्छा रहा है। तो क्या यही कम नहीं कि मोदी ने इसे बिगड़ने नहीं दिया। ये लोग नरेंद्र मोदी को श्रेय देने से इसलिए डरते हैं कि कहीं कोई यह न कह दे कि आप मोदी की तारीफ कर रहे हैं। सांप्रदायिकता का साथ दे रहे हैं। तो क्या करें। बतौर रिपोर्टर वह कहे जो वहां के लोग कह रहे हैं या वो कहें जो मैं कहना चाहता हूं। दरअसल यह मुसीबत आई है धर्मनिरपेक्षवादी ताकतों की खोखली लड़ाई से। सांप्रदायिकता से सीधे नहीं लड़ते। यही लोग कहते रहे कि आम आदमी को रोज़ी रोटी चाहिए। सांप्रदायिकता नहीं। एक विकल्प पेश कर रहे थे। उसे खत्म नहीं कर रहे थे। मोदी ने सड़क बिजली और पानी का बंदोबस्त कर दिया। और सांप्रदायिक मानसिकता भी बनी रही। धर्मनिरपेक्षवादी विकास के सवालों से सांप्रदायिकता से लड़ रहे थे। वो यह नहीं कह रहे थे कि अच्छी सड़क और पानी के व्यापक इंतज़ाम के बावजूद सांप्रदायिकता खतरा है। यूपीए की सरकार के घटक दलों ने कितनी जनचेतना रैली सांप्रदायिकता के खिलाफ की है। क्या वो कोई जनजागरण कर रहे हैं?
रही बात गुजरात की तो वहां की सड़को को देखिये। शानदार हैं। राज्य परिवहन की बसें समय पर चलती हैं और बेहतर सेवा है। किसान कहते हैं कि बिजली जाती भी है तो आ जाती है। व्यापारी कहते हैं कि निगम वाले अफसर परेशान नहीं करते। मीडिया मोदी जी को बदनाम करती है। लेकिन हम मोदी जी के साथ है। इसी भरोसे मोदी ने कई विधायकों के टिकट काट दिये क्योंकि लोग इनसे नाराज़ थे। यहां एक विचित्र फर्क दिखता है। लोग स्थानीय विधायकों से तो नाराज़ मिल जाते हैं लेकिन मोदी से नाराज नहीं मिलते। मैं शत प्रतिशत की बात नहीं कर रहा हूं लेकिन सापेक्षिक तौर पर ऐसे लोग मिलते हैं जिनसे अंदाज़ा हो जाता है कि मोदी के खिलाफ कोई लहर नहीं है। हां चाहूं तो गरीब किसानों को ढूंढ सकता हूं, वैसे खेत अभी भी हैं जहां पानी नहीं पहुंचा और वैसे अस्पताल भी हैं जहां कोई डाक्टर नहीं है। लेकिन इनके गुस्से से राजनीति का ऐसा कोई मानस बनता नहीं दिखता जिससे मोदी की हार दिखाई देती हो। यह ज़मीनी हालात हैं। अब यह हो सकता है कि लोगों ने मोदी को हराने का मन बना लिया हो लेकिन ज़ाहिर नहीं करना चाहते। वो मतदान के दिन ही फैसला करेंगे। तब तो अलग बात है। लोगों के ऐसे गुस्से का अंदाज़ा नहीं हुआ। राजनीतिक जानकार इस बात पर मगजमारी कर रहे हैं कि सीटें कम हो जाएंगी। फर्क क्या पड़ता है? सरकार बनाने के लिए जितनी चाहिएं अगर उतनी आ रहीं हैं तो मोदी की वापसी ही कहेंगे न।
भावनगर से मिलने आए एक सज्जन ने मुझसे कहा कि मोदी के विरोध या समर्थन में तर्कों की कमी नहीं। हमारी जनता हिंसक शासकों से नफरत नहीं करती है। इतिहास में कई ऐसे राजा हुए जिन्होंने कुआं खुदवाने और पानी लाने के लिए गरीबों की बेटियों की बलि दे दी। जब पानी आया तो लोगों ने राजा के गुनगान में कई गीत रचे। किसी ने मारी गई बेटी और उसके परिवार पर शोक गीत नहीं लिखा। गुजरात में भी नरेंद्र मोदी को इसी मानसिकता से समर्थन मिल रहा है। भावनगर वाले सज्जन बताए जा रहे थे कि लोग कहते हैं कि दंगों में जो मरे सो मरे लेकिन राजा ने गुजरात का भला तो कर दिया। यह कोई मामूली बात नहीं है। सज्जन की बातों से मुझे वो सब जवाब मिलने लगे जिन्हें ढूंढ रहा था।
चुनावी राजनीति में राजनेता को घेरने के कुछ ठोस पैमाने चाहिए। टूटी सड़कें, गायब बिजली और पानी, खराब सरकारी व्यवस्था आदि आदि। गुजरात में यह सब नहीं है। ऐसी बात नहीं है कि पानी की समस्या नहीं हैं और सभी सड़के शानदार हैं। मगर हालत इतनी भी खराब नहीं लगती कि आप बिजली सड़क पानी को मुद्दा बना सकें। अभी भी कई लोग हैं जिनके आधार पर मोदीवादी विकास को चुनौती दी जा सकती है। लेकिन विकास की कमी को लेकर लोग इतने भी परेशान नहीं कि मोदी के खिलाफ लामबंद होने लगे हों। कम से कम सतही तौर पर तो यही लगता है। कई लोगों से मिला। किसी ने नहीं कहा कि मोदी को हरा कर रहेंगे। कांग्रेस से यह सवाल कीजिए तो जवाब मिलता है कि उम्मीद तो है कि मोदी हारेंगे क्योंकि कई विधायक बागी हो गए हैं। सब किसी न किसी बाह्य कारणों से मोदी के हार जाने का ख्वाब देख रहे हैं।
मान लीजिए कि मोदी हार ही जाते हैं। तो क्या हो जाएगा। क्या यह सांप्रदायिकता के खिलाफ जनादेश होगा? जबकि कांग्रेस यह मुद्दा ही नहीं उठा रही है और कई लोग हमें भी राय देते हैं कि आप गुजरात में हैं तो मुसलमानों पर स्टोरी मत कीजिएगा,इससे मोदी को लाभ हो जाएगा। हद है ऐसी सोच की। क्या कोई इस चुनाव में नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिकता के सवाल पर चुनौती दे रहा है? २००२ में गुजरात की जनता ने मोदी के पक्ष में जनादेश दिया था। तो फिर मोदी के हारने या न हारने से सांप्रदायिकता का सवाल कहां उठता है? क्या सिर्फ मोदी के कारण ही वहां सांप्रदायिकता का ज़हर फैला हुआ है। सिर्फ मोदी को हरा कर सांप्रदायिकता को नहीं हरा सकते। इसलिए जीत का लक्ष्य कुछ और होना चाहिए। उनमें से एक मोदी की हार भी होनी चाहिए न कि मोदी की हार से धर्मनिरपेक्षता की जीत का लक्ष्य।
ज़मीन पर गुजरात एक बेहतर राज्य लगता है। कई लोग कहते हैं कि गुजरात हमेशा से अच्छा रहा है। तो क्या यही कम नहीं कि मोदी ने इसे बिगड़ने नहीं दिया। ये लोग नरेंद्र मोदी को श्रेय देने से इसलिए डरते हैं कि कहीं कोई यह न कह दे कि आप मोदी की तारीफ कर रहे हैं। सांप्रदायिकता का साथ दे रहे हैं। तो क्या करें। बतौर रिपोर्टर वह कहे जो वहां के लोग कह रहे हैं या वो कहें जो मैं कहना चाहता हूं। दरअसल यह मुसीबत आई है धर्मनिरपेक्षवादी ताकतों की खोखली लड़ाई से। सांप्रदायिकता से सीधे नहीं लड़ते। यही लोग कहते रहे कि आम आदमी को रोज़ी रोटी चाहिए। सांप्रदायिकता नहीं। एक विकल्प पेश कर रहे थे। उसे खत्म नहीं कर रहे थे। मोदी ने सड़क बिजली और पानी का बंदोबस्त कर दिया। और सांप्रदायिक मानसिकता भी बनी रही। धर्मनिरपेक्षवादी विकास के सवालों से सांप्रदायिकता से लड़ रहे थे। वो यह नहीं कह रहे थे कि अच्छी सड़क और पानी के व्यापक इंतज़ाम के बावजूद सांप्रदायिकता खतरा है। यूपीए की सरकार के घटक दलों ने कितनी जनचेतना रैली सांप्रदायिकता के खिलाफ की है। क्या वो कोई जनजागरण कर रहे हैं?
रही बात गुजरात की तो वहां की सड़को को देखिये। शानदार हैं। राज्य परिवहन की बसें समय पर चलती हैं और बेहतर सेवा है। किसान कहते हैं कि बिजली जाती भी है तो आ जाती है। व्यापारी कहते हैं कि निगम वाले अफसर परेशान नहीं करते। मीडिया मोदी जी को बदनाम करती है। लेकिन हम मोदी जी के साथ है। इसी भरोसे मोदी ने कई विधायकों के टिकट काट दिये क्योंकि लोग इनसे नाराज़ थे। यहां एक विचित्र फर्क दिखता है। लोग स्थानीय विधायकों से तो नाराज़ मिल जाते हैं लेकिन मोदी से नाराज नहीं मिलते। मैं शत प्रतिशत की बात नहीं कर रहा हूं लेकिन सापेक्षिक तौर पर ऐसे लोग मिलते हैं जिनसे अंदाज़ा हो जाता है कि मोदी के खिलाफ कोई लहर नहीं है। हां चाहूं तो गरीब किसानों को ढूंढ सकता हूं, वैसे खेत अभी भी हैं जहां पानी नहीं पहुंचा और वैसे अस्पताल भी हैं जहां कोई डाक्टर नहीं है। लेकिन इनके गुस्से से राजनीति का ऐसा कोई मानस बनता नहीं दिखता जिससे मोदी की हार दिखाई देती हो। यह ज़मीनी हालात हैं। अब यह हो सकता है कि लोगों ने मोदी को हराने का मन बना लिया हो लेकिन ज़ाहिर नहीं करना चाहते। वो मतदान के दिन ही फैसला करेंगे। तब तो अलग बात है। लोगों के ऐसे गुस्से का अंदाज़ा नहीं हुआ। राजनीतिक जानकार इस बात पर मगजमारी कर रहे हैं कि सीटें कम हो जाएंगी। फर्क क्या पड़ता है? सरकार बनाने के लिए जितनी चाहिएं अगर उतनी आ रहीं हैं तो मोदी की वापसी ही कहेंगे न।
बहुमत की जीत पर कविता
पिछले दिनों चुनाव के सिलसिले में गुजरात में था। साबरमती आश्रम के सामने गुजरात टूरिज़्म के होटल में ठहरा था। सड़क पार कर साबरमती पहुंचा तो सबसे पहले इस कविता पर नज़र पड़ी। कोई पढ़ नहीं रहा था सोचा ब्लाग पर उतार देता हूं।
ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का
ज़्यादा से ज़्यादा लाभवाला सिद्धांत
मैं नहीं मानता।
उसे नंगे रूप में देखें तो उसका अर्थ यह होता है
कि ५१ फीसदी लोगों के हितों की ख़ातिर ४९ फीसदी
लोगों के हितों का बलिदान किया जा सकता है।
बल्कि कर देना चाहिए।
यह एक निर्दय सिद्धांत है और मानव समाज को
इससे बहुत हानि हुई है।
सबका ज़्यादा से ज़्यादा भला किया जाए
यही एक मात्र सच्चा, गौरवपूर्ण और मानवीय सिद्धांत है
और इसे पूर्ण आत्मबलिदान के द्वारा ही अमल में लाया जा सकता है।
---महात्मा गांधी, चार जून उन्नीस सौ बत्तीस
ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का
ज़्यादा से ज़्यादा लाभवाला सिद्धांत
मैं नहीं मानता।
उसे नंगे रूप में देखें तो उसका अर्थ यह होता है
कि ५१ फीसदी लोगों के हितों की ख़ातिर ४९ फीसदी
लोगों के हितों का बलिदान किया जा सकता है।
बल्कि कर देना चाहिए।
यह एक निर्दय सिद्धांत है और मानव समाज को
इससे बहुत हानि हुई है।
सबका ज़्यादा से ज़्यादा भला किया जाए
यही एक मात्र सच्चा, गौरवपूर्ण और मानवीय सिद्धांत है
और इसे पूर्ण आत्मबलिदान के द्वारा ही अमल में लाया जा सकता है।
---महात्मा गांधी, चार जून उन्नीस सौ बत्तीस
अस्सी के दशक में नाईटी
अस्सी का दशक। पटना की दुपहरी। रिक्शे से मां बेटी उतरी थीं। खरीदारी कर आईं थीं। मोहल्लों की दुनिया में हर खरीदी हुई चीज़ की पड़ोसियों के बीच नुमाइश होती है। सबको पहले से पता होता है कि कौन क्या खरीदने जा रहा है। कोई कटोरा गिलास भी खरीदता था तो नुमाइश होती थी। कई बार तो खरीदार सारा सामान लेकर पड़ोसी के घर में ही आ जाता था। इस बार खास चीज़ थी। नाईटी। कुछ औरतें इसे मैक्सी बुला रही थीं। कुछ ने गाउन कहा। कुछ औरतें हंस रही थीं और कह रही थीं कि कहां पहनियेगा। पटना में ई नहीं चलेगा। इ सब तक बांबे में चलता होगा। तब दिल्ली का नाम सहसा ज़ुबान पर नहीं आता था। और हां नाईटी खरीदी गई है इसे कुछ दिन तक के लिए घर के कर्ता पुरुष से गुप्त रखा गया था। उन्हें धीरे धीरे बताया गया था। पहले उनके आफिस जाने पर पहना गया फिर धीरे धीरे आने के बाद भी।
खरीदार चाची ने कहा था बढ़िया है।घर में पहनने के लिए। दरअसल तब औऱतें बाहर ही कहां जाती थीं। उन्हें घर में ही कुछ बदलाव चाहिए होता था। खैर उनकी बेटी ने वो गाउन या नाईटी पहनना शुरू कर दिया। जिन पड़ोसनों ने नुमाइश देखी थी कहने लगीं कि कैसी लगती है। बताइये अभी से अपनी बेटी को नाईटी पहना रही हैं। मुझे नहीं मालूम कि क्या मतलब होता होगा। बस बातें याद हैं। सो लिख रहा हूं। एक सांस्कृतिक बहस तो छिड़ ही गई थी। वो लड़की अब ख़राब नज़रों से देखी जाने लगी। वजह उसकी नाईटी। जब भी पहन कर कटोरे में चीनी या दूध देने लेने के लिए किसी पड़ोसी के घर आती, एक मिनट के रास्ते में चंद नज़रे हज़ार बार देख लेतीं थीं। लड़के और खासकर लड़कियों की नज़रें। धीरे धीरे नाईटी कुछ और लड़कियों ने पहनना शुरू कर दिया। बुजुर्गों की मंडली में बहस तेज हो गई कि ये कोई पहनने की चीज़ हैं। मांओं को ताना देने लगे कि सभी अपनी बेटी को बंदर बना रही हैं। हाई फाई सोसायटी का नकल करने से कोई फायदा है। जहां इन सबकी शादी होगी वहां कौन नाईटी पहनाएगा। कई बार बुज़ुर्ग हताश होकर गुस्सा हो जाते और कह देते कि ससुराल में पहनेगी तो ननदें बाल नोच लेंगी और सास लात मारेगी। जब भी किसी को नाईटी पहने देखता हूं, सारी बातें याद आ जाती हैं। मैक्सी की तरह मिडी को लेकर भी गाहे बगाहे बवाल हो जाता था। तब तो और हो गया जब पड़ोसी लड़की नाईटी पहनकर किसी के घर जा रही थी। लेकिन पास से तेजी से गुज़रते हुए सायकिल सवार ने उसे स्वीटी कह कर सीटी बजा दी। मोहल्ले के सारे वीर किस्म के लड़के मारने के लिए दौड़ पड़े। लड़की घबराहट में चिल्लाने लगी थी। वो तो फरार हो गया मगर मैक्सी या नाइटी को दोषी ठहरा दिया गया। सब कहने लगे कि बोलिये ये पहनने की चीज़ है।
दिल्ली आया तो कुछ लड़कियों ने मुझसे कहा था कि जीन्स खरीदना है। वो अकेले नहीं गईं। मुझे कहा कि तुम साथ चलो। दुकानदार से कहा कि इन्हें जीन्स खरीदनी है। उसने साइज़ पूछ दिया। लड़कियों को कहा कि जवाब दीजिए तो मुझे ठीक ठीक याद है उन्होंने बहुत धीरे से कुछ कहा था। खैर उन दोनों ने जीन्स की पैंट खरीदी। बाद में मेरे बिना ही खरीदने लगीं होंगी। क्योंकि उसके बाद फिर नहीं कहा। लेकिन मुझे साथ ले जाने का क्या मतलब होगा। क्या उनके मन में द्वंद चल रहा था कि पता नहीं अकेले जीन्स खरीदने जाएं तो दुकानदार क्या समझेगा। यह १९९४ की एक दुपहर की बात है। या यह लगता होगा कि यह कोई असामाजिक पहनावा है जिसे खरीदने के लिए किसी का साथ चाहिए। ताकि लगे कि जो खरीद रहे हैं वो सही है। याद है मेरे पिताजी ने भी कहा था जिन्स का पैंट लोफर लड़का पहनता है। दिल्ली में कई लड़के एक साथ रहते थे। सबने जीन्स की पैंट इसी तरह से खरीदी। उनके मां बाप बिगड़ने लगे कि जीन्स पहनने लगा है। हीरो बन गया है। दिल्ली जाकर पढ़ता लिखता नहीं होगा। वो भी अजीब किस्म की दलील देते थे। मां, जीन्स इसलिए पहनता हूं कि बार बार धोना नहीं पड़े। दिल्ली में पानी नहीं है। इतना पैंट कौन धोएगा। और समय कितना बचेगा। टाइम बचेगा तो पढ़ने में ही लगेगा न। लड़के और लड़कियों के लिए जीन्स की पैंट के सामाजिक मायने अलग अलग थे।
औरतों के कपड़ों को लेकर हमारा समाज बहुत कुछ कहता रहा है। आज उसी पटना और बिहार के समाज में जब लड़कियों को गांवों तक में देखता हूं तो हैरान रह जाता हूं। जिन्स और टाप। बिहार की कई लड़कियों को अपने ससुराल में जिन्स टाप पहने देखता हूं। उनकी सास और मांएं किसी गुज़रे ज़माने की तरह नज़र झुकाए कमरे में इधर से उधर आती जाती रहती हैं। कोई कुछ नहीं कहता। तब तो स्लीवलेस ब्लाउज़ पर ही बवाल हो जाता था। लेकिन अस्सी के दशक तक सारी औरतें नहीं पहनती थीं। बड़े अफसरों की बीबीयों की पहचान हुआ करता था। वो ही स्लीवलेस ब्लाउज़ पहना करती थीं। धीरे धीरे दूसरे दर्जे के अफसरों की बीबीयों ने भी नकल करना शुरू कर दिया। क्योंकि उन्हें तीसरे दर्जे के कर्मचारियों की बीबीयों से अलग दिखना था। अब तो गांव में खेतों में काम करने वाली महिलाएं भी स्लीवलेस ब्लाउज़ पहने दिख जाती हैं। ज़माना इसी तरह से बदलता है क्या। जब ऊपर वालों की कोई चीज़ लुढ़कती हुई नीचे तक आ जाती है और इस तरह से स्वीकार कर लिया जाता हो जैसे यह हमारे पहनावे का हिस्सा ही था।
खरीदार चाची ने कहा था बढ़िया है।घर में पहनने के लिए। दरअसल तब औऱतें बाहर ही कहां जाती थीं। उन्हें घर में ही कुछ बदलाव चाहिए होता था। खैर उनकी बेटी ने वो गाउन या नाईटी पहनना शुरू कर दिया। जिन पड़ोसनों ने नुमाइश देखी थी कहने लगीं कि कैसी लगती है। बताइये अभी से अपनी बेटी को नाईटी पहना रही हैं। मुझे नहीं मालूम कि क्या मतलब होता होगा। बस बातें याद हैं। सो लिख रहा हूं। एक सांस्कृतिक बहस तो छिड़ ही गई थी। वो लड़की अब ख़राब नज़रों से देखी जाने लगी। वजह उसकी नाईटी। जब भी पहन कर कटोरे में चीनी या दूध देने लेने के लिए किसी पड़ोसी के घर आती, एक मिनट के रास्ते में चंद नज़रे हज़ार बार देख लेतीं थीं। लड़के और खासकर लड़कियों की नज़रें। धीरे धीरे नाईटी कुछ और लड़कियों ने पहनना शुरू कर दिया। बुजुर्गों की मंडली में बहस तेज हो गई कि ये कोई पहनने की चीज़ हैं। मांओं को ताना देने लगे कि सभी अपनी बेटी को बंदर बना रही हैं। हाई फाई सोसायटी का नकल करने से कोई फायदा है। जहां इन सबकी शादी होगी वहां कौन नाईटी पहनाएगा। कई बार बुज़ुर्ग हताश होकर गुस्सा हो जाते और कह देते कि ससुराल में पहनेगी तो ननदें बाल नोच लेंगी और सास लात मारेगी। जब भी किसी को नाईटी पहने देखता हूं, सारी बातें याद आ जाती हैं। मैक्सी की तरह मिडी को लेकर भी गाहे बगाहे बवाल हो जाता था। तब तो और हो गया जब पड़ोसी लड़की नाईटी पहनकर किसी के घर जा रही थी। लेकिन पास से तेजी से गुज़रते हुए सायकिल सवार ने उसे स्वीटी कह कर सीटी बजा दी। मोहल्ले के सारे वीर किस्म के लड़के मारने के लिए दौड़ पड़े। लड़की घबराहट में चिल्लाने लगी थी। वो तो फरार हो गया मगर मैक्सी या नाइटी को दोषी ठहरा दिया गया। सब कहने लगे कि बोलिये ये पहनने की चीज़ है।
दिल्ली आया तो कुछ लड़कियों ने मुझसे कहा था कि जीन्स खरीदना है। वो अकेले नहीं गईं। मुझे कहा कि तुम साथ चलो। दुकानदार से कहा कि इन्हें जीन्स खरीदनी है। उसने साइज़ पूछ दिया। लड़कियों को कहा कि जवाब दीजिए तो मुझे ठीक ठीक याद है उन्होंने बहुत धीरे से कुछ कहा था। खैर उन दोनों ने जीन्स की पैंट खरीदी। बाद में मेरे बिना ही खरीदने लगीं होंगी। क्योंकि उसके बाद फिर नहीं कहा। लेकिन मुझे साथ ले जाने का क्या मतलब होगा। क्या उनके मन में द्वंद चल रहा था कि पता नहीं अकेले जीन्स खरीदने जाएं तो दुकानदार क्या समझेगा। यह १९९४ की एक दुपहर की बात है। या यह लगता होगा कि यह कोई असामाजिक पहनावा है जिसे खरीदने के लिए किसी का साथ चाहिए। ताकि लगे कि जो खरीद रहे हैं वो सही है। याद है मेरे पिताजी ने भी कहा था जिन्स का पैंट लोफर लड़का पहनता है। दिल्ली में कई लड़के एक साथ रहते थे। सबने जीन्स की पैंट इसी तरह से खरीदी। उनके मां बाप बिगड़ने लगे कि जीन्स पहनने लगा है। हीरो बन गया है। दिल्ली जाकर पढ़ता लिखता नहीं होगा। वो भी अजीब किस्म की दलील देते थे। मां, जीन्स इसलिए पहनता हूं कि बार बार धोना नहीं पड़े। दिल्ली में पानी नहीं है। इतना पैंट कौन धोएगा। और समय कितना बचेगा। टाइम बचेगा तो पढ़ने में ही लगेगा न। लड़के और लड़कियों के लिए जीन्स की पैंट के सामाजिक मायने अलग अलग थे।
औरतों के कपड़ों को लेकर हमारा समाज बहुत कुछ कहता रहा है। आज उसी पटना और बिहार के समाज में जब लड़कियों को गांवों तक में देखता हूं तो हैरान रह जाता हूं। जिन्स और टाप। बिहार की कई लड़कियों को अपने ससुराल में जिन्स टाप पहने देखता हूं। उनकी सास और मांएं किसी गुज़रे ज़माने की तरह नज़र झुकाए कमरे में इधर से उधर आती जाती रहती हैं। कोई कुछ नहीं कहता। तब तो स्लीवलेस ब्लाउज़ पर ही बवाल हो जाता था। लेकिन अस्सी के दशक तक सारी औरतें नहीं पहनती थीं। बड़े अफसरों की बीबीयों की पहचान हुआ करता था। वो ही स्लीवलेस ब्लाउज़ पहना करती थीं। धीरे धीरे दूसरे दर्जे के अफसरों की बीबीयों ने भी नकल करना शुरू कर दिया। क्योंकि उन्हें तीसरे दर्जे के कर्मचारियों की बीबीयों से अलग दिखना था। अब तो गांव में खेतों में काम करने वाली महिलाएं भी स्लीवलेस ब्लाउज़ पहने दिख जाती हैं। ज़माना इसी तरह से बदलता है क्या। जब ऊपर वालों की कोई चीज़ लुढ़कती हुई नीचे तक आ जाती है और इस तरह से स्वीकार कर लिया जाता हो जैसे यह हमारे पहनावे का हिस्सा ही था।
लड़की की दिखाई
कभी कभी पुरुषों को सोचना चाहिए कि एक स्त्री या लड़की उनके बारे में कैसी कल्पना करती होगी। पुरुषों के कल्पना लोक में लड़कियां आतीं रहती हैं। फिल्म के पर्दे से लेकर पड़ोस की खिड़की से। मैगज़ीन के कवर से लेकर रेलगाड़ी में सामने की सीट से। फिल्म और छपाई के ज़माने में लड़कियों के सौंदर्य की एक सार्वभौमिक अभिव्यक्ति बनाई गई। जिनकी पूर्ति के लिए कई लड़कियों ने मटके के पीछे खड़ी होकर शादी के लिए तस्वीरें खींचाईं। फोटो की फाइनल कॉपी से पहले स्टुडियो वाले ने प्रूफ की कॉपी बनाई। उसके बाद यह कॉपी न जाने कितने योग्य वरों के घरों में गई। नहीं मालूम कि योग्य वर ने इंकार करने के बाद उस लड़की के साथ अपने कल्पना लोक में क्या किया। नहीं मालूम की मटकी के पीछे और राजस्थानी घाघरा चोली में खड़ी लड़की की तस्वीर हाथ में आते ही लड़के की नज़र पहले कहां गई। इसका कोई सामाजिक शोध उपलब्ध नहीं है।
मेरे पिता जी ने एक योग्य वर के नखरे से तंग आकर खरी खोटी सुना दी थी। गोरखपुर में किसी रिश्ते के अपने भाई की बेटी के लिए अगुवई में गए थे। लड़के वाले कैसी लड़की चाहिए पर वाम दलों की तरह सूची लंबी किए जा रहे थे। पिता जी की ज़ुबान फिसल गई या गुस्से में कह गए पता नहीं। चिल्लाने लगे कि लड़का को हेमा मालिनी चाहिए तो लड़की को भी धर्मेंद्र जैसा हैंडसम लड़का मिलना चाहिए। आपका बेटा इंजीनियर ही तो है। शक्ल देखिये इसकी। पतलून में बेल्ट लगाने नहीं आता, बाल में तेल है और कमीज़ की कोई फिटिंग तक नहीं। और आप हमारी लड़की में गुण ढूंढ रहे हैं। शादी करेंगे या नहीं। पिताजी बोल तो गए मगर शादी नहीं हुई। लड़के वाले इस बात को स्वीकार नहीं कर सके कि योग्य वर के बारे में योग्य दुल्हन की भी कोई कल्पना होगी?
ऐसे कई प्रसंगों में मैं खुद भी मौजूद रहा हूं। जहां लड़के वालों ने लड़कियों को ड्राइंग रूम में चला कर देखा कि चलती कैसी हैं। कभी चश्में का नंबर पूछा गया तो कभी लड़के की बहन ने लड़की की आंख को घूर से देखा कि कहीं कांटेक्ट लेंस तो नहीं लगा है। यह प्रक्रिया शादी के बाद भी जारी रहती है जब शादी के बाद घर आई दुल्हन की मुंहदिखाई के लिए लोग आते हैं। घूंघट उठा कर देखते हैं और सौ दो सौ रुपया दे जाते हैं। मैंने कई औरतों को देखा है कि दुल्हन की घूंघट उठाई और बोलते रह गईं। किसी ने वहीं कह दिया कि फलां कि बहू जैसी खूबसूरत है। बस इस तुलना से दुल्हन की तौहिन हुई सो अलग, वहीं बवाल मच गया। खैर ऐसे आयोजन को अंग्रेजी में रिसेप्शन कहते हैं। हिंदी में प्रीतिभोज।
यही देखते हुए बड़ा हुआ था। कई बार मां पिताजी, या रिश्तेदारों को पिछले दरवाज़े से जाते हुए देखा था। किसी को पता न चले कि लड़की दिखाने ले जा रहे हैं। बदनामी के डर से कि इनकी बेटी बार बार छंट जा रही है। पिताजी इस खौफ से कई अनर्गल और अवांछित रिश्तेदारों का मान मनौव्वल करते रहते थे कि कहीं वे उन जगहों पर जाकर बेटी के बारे में शिकायत न कर दें। शादी न कट जाए। यही जुमला चलता था। शादी कट गई क्या? रिश्तेदार कोई अनजाने नहीं बल्कि अपने ही मामा चाचा हुआ करते थे। हर दिखाई के बाद जब पड़ोस की चाची पूछती थीं तो पूरा परिवार तुरंत झूठ बोलने लगता था। मैं भी बोलता था। अपनी बहनों की भलाई के लिए। कोई नहीं कहता कि लड़के वाले ने देखा है। कुछ लोग यही गिनते रहते थे कि कितनी बार छंटाई हुई है। कई बार लड़की दिखाने के लिए मां नहीं जाती थी। गांव से बुआ आ जाती थी। ताकि किसी को शक न हो। लगे कि भतीजी अपनी बुआ के साथ कुछ खरीदने गई है।
यही देखते देखते कुछ और बड़ा हुआ। इतना कि मेरी कल्पनाओं में लड़कियां आने लगी थीं। किस रूप में आती थी उस पर बहस फिर कभी। लेकिन कभी कोई लड़की गुज़र जाए तो बहनें या पड़ोस की चाचियां ही कह देती थी कि सुंदर है..रवीश की दुल्हन ऐसी ही होगी। लंबी, गोरी और काले बालों वाली। मैं भी सुन लेता था। कान बंद करने का कोई उपाय नहीं होता था। मगर अच्छा नहीं लगता था। क्योंकि दुल्हन देखने के रस्मों की कड़वाहट ज़हन में उतर गई थी।
पटना स्टेशन के पास हनुमान मंदिर में पड़ोस की चाची की एक बेटी को स्कूटर पर बिठा कर ले गया था। मुझे यह काम इसलिए सौंपा गया कि किसी को शक न हो। मेरी ऐसी साख बन गई थी मोहल्ले की लड़कियों के बीच। लोगों को लगे कि कहीं कोचिंग सेंटर छोड़ने ले जा रहा होगा। मेरा एक काम यह भी था। इसलिए किसी को शक नहीं होता था। उस दिन मैं उस लड़की को हनुमान मंदिर ले गया था। चाची ने कह दिया था धीरे धीरे चलाना। शुभ काम है। मैं भी लगता था कि कितना बड़ा काम मिला है, कर ही देना है। पटना का हनुमान मंदिर। वहां लड़के वाले आ चुके थे। उसे देखने। चाची रिक्शे से पहुंची थीं। अलग से। लड़के ने लड़की को देखना शुरू किया। उसकी नज़रों को मैंने देखना शुरू कर दिया। वो कहां कहां देख रहा है। कहां ज्यादा रूक रहा है।मोहल्ले के फिल्मी भाई की तरह गुस्सा भी आया।लेकिन भला उसी का था, चाची के सर से बोझ उतरना था इसलिए चुप भी रहना था। वो मेरी बहन नहीं थी इसलिए सर उठा कर देख रहा था।अपनी बहनों के वक्त तो नज़र नीचे ही रहती थी। इसी से कई लोगों को लगा कि मैं सीधा हूं।अच्छा लड़का हूं।खैर पहली बार देखा कि मर्द कैसे लड़की को देखता है।साला सामान ही समझता है।और कुछ नहीं।बाद में
उस लड़की को स्कूटर के पीछे बिठा कर घर ला रहा था।रास्ते भर सोचता रहा कि कितना अपमान है।लड़की नहीं होना चाहिए। पहली बार मुझे यह पता चला था कि लड़कों की नज़रें गंदी हो सकती हैं। बुरा या गंदी पता नहीं। अच्छाई के विरोध में तब शब्द भी कम होते थे। उस लड़के ने पसंद नहीं किया। क्या पता किसी और को हनुमान के सामने घूर रहा होगा? पता नहीं।
हिंदुस्तान के लड़के बदसूरत, बेढंग और बेहूदे होते हैं। लड़कियां तो सज कर कुछ बेहतर से बहुत बेहतर लगती रहती हैं। लड़कों के पास नौकरी न हो और समाज में शादी का चलन न हो तो मेरा यकीन है कि लाखों की संख्या में लड़के कुंवारे रह जाते। पिता जी की बात सही लगती रही। आज तक लगती है। शाहरूख ख़ान सिक्स पैक बना रहा है तो मुझे ठीक लगता है। सारे लड़कों को नौकरी के अलावा इस लायक तो होना ही चाहिए कि किसी लड़की की कल्पना लोक में आ सके। वर्ना मैंने शादी से पहले सैंकड़ों मौके देखे हैं जब लड़कियों को लड़कों के सामने दिखाया गया है। एक भी मौके पर किसी भी लड़की ने लड़के की तरफ नज़र उठा कर नहीं देखा। कभी नहीं देखा कि लड़के ने भी लड़की के लिए तस्वीर खिंचाई है। सूट में। स्टुडियो वाले से टाई लेकर। यकीन न हो तो पटना के मौर्या लोक में एक स्टुडियो है। डैफोडिल्स। वहां जाकर पूछ लीजिएगा। यह स्टुडियो स्थानीय स्तर पर लड़कियों की ऐसी तस्वीर तो बना ही देता था कि पहले राउंड में क्लियर हो जाए। और लड़के वाले अपने ड्राइंग रूम में या हनुमान मंदिर में उसे देखने के लिए बुला लें। लड़कियों के सामने लड़कों की तस्वीरों का विकल्प कभी नहीं रहा। क्या पता उन्हें भी पिता जी की तरह लगता हो इंजीनियर ही तो है। जीवन काटना है। हां कह देंगे तो मां बाप है हीं मेरी तरफ से हां कहने के लिए।
मुझे फैशन से चिढ़ है। मेक अप से चिढ़ है। लेकिन जब पढ़ता हूं कि पुरुषों के सजने संवरने का कारोबार हज़ार करोड़ का हो रहा हो तो कभी कभी खुशी होती है। बीते दिनों की ख़राशों पर इसी बात से मरहम लगती होगी। जब मेरी एक दोस्त ने कहा कि शाहरूख इज़ हॉट तो सुनकर अच्छा लगा। एक बार लड़कियों की नज़रे लड़कों को नापने लगे तो कस्बे से लेकर महानगरों के कुंवारे इंजीनियरों, डाक्टरों और एमबीए लड़कों के होश उड़ने लगेंगे। वो भी सिक्स पैक बनाने लगेंगे। बल्कि बना ही रहे हैं।
मेरे पिता जी ने एक योग्य वर के नखरे से तंग आकर खरी खोटी सुना दी थी। गोरखपुर में किसी रिश्ते के अपने भाई की बेटी के लिए अगुवई में गए थे। लड़के वाले कैसी लड़की चाहिए पर वाम दलों की तरह सूची लंबी किए जा रहे थे। पिता जी की ज़ुबान फिसल गई या गुस्से में कह गए पता नहीं। चिल्लाने लगे कि लड़का को हेमा मालिनी चाहिए तो लड़की को भी धर्मेंद्र जैसा हैंडसम लड़का मिलना चाहिए। आपका बेटा इंजीनियर ही तो है। शक्ल देखिये इसकी। पतलून में बेल्ट लगाने नहीं आता, बाल में तेल है और कमीज़ की कोई फिटिंग तक नहीं। और आप हमारी लड़की में गुण ढूंढ रहे हैं। शादी करेंगे या नहीं। पिताजी बोल तो गए मगर शादी नहीं हुई। लड़के वाले इस बात को स्वीकार नहीं कर सके कि योग्य वर के बारे में योग्य दुल्हन की भी कोई कल्पना होगी?
ऐसे कई प्रसंगों में मैं खुद भी मौजूद रहा हूं। जहां लड़के वालों ने लड़कियों को ड्राइंग रूम में चला कर देखा कि चलती कैसी हैं। कभी चश्में का नंबर पूछा गया तो कभी लड़के की बहन ने लड़की की आंख को घूर से देखा कि कहीं कांटेक्ट लेंस तो नहीं लगा है। यह प्रक्रिया शादी के बाद भी जारी रहती है जब शादी के बाद घर आई दुल्हन की मुंहदिखाई के लिए लोग आते हैं। घूंघट उठा कर देखते हैं और सौ दो सौ रुपया दे जाते हैं। मैंने कई औरतों को देखा है कि दुल्हन की घूंघट उठाई और बोलते रह गईं। किसी ने वहीं कह दिया कि फलां कि बहू जैसी खूबसूरत है। बस इस तुलना से दुल्हन की तौहिन हुई सो अलग, वहीं बवाल मच गया। खैर ऐसे आयोजन को अंग्रेजी में रिसेप्शन कहते हैं। हिंदी में प्रीतिभोज।
यही देखते हुए बड़ा हुआ था। कई बार मां पिताजी, या रिश्तेदारों को पिछले दरवाज़े से जाते हुए देखा था। किसी को पता न चले कि लड़की दिखाने ले जा रहे हैं। बदनामी के डर से कि इनकी बेटी बार बार छंट जा रही है। पिताजी इस खौफ से कई अनर्गल और अवांछित रिश्तेदारों का मान मनौव्वल करते रहते थे कि कहीं वे उन जगहों पर जाकर बेटी के बारे में शिकायत न कर दें। शादी न कट जाए। यही जुमला चलता था। शादी कट गई क्या? रिश्तेदार कोई अनजाने नहीं बल्कि अपने ही मामा चाचा हुआ करते थे। हर दिखाई के बाद जब पड़ोस की चाची पूछती थीं तो पूरा परिवार तुरंत झूठ बोलने लगता था। मैं भी बोलता था। अपनी बहनों की भलाई के लिए। कोई नहीं कहता कि लड़के वाले ने देखा है। कुछ लोग यही गिनते रहते थे कि कितनी बार छंटाई हुई है। कई बार लड़की दिखाने के लिए मां नहीं जाती थी। गांव से बुआ आ जाती थी। ताकि किसी को शक न हो। लगे कि भतीजी अपनी बुआ के साथ कुछ खरीदने गई है।
यही देखते देखते कुछ और बड़ा हुआ। इतना कि मेरी कल्पनाओं में लड़कियां आने लगी थीं। किस रूप में आती थी उस पर बहस फिर कभी। लेकिन कभी कोई लड़की गुज़र जाए तो बहनें या पड़ोस की चाचियां ही कह देती थी कि सुंदर है..रवीश की दुल्हन ऐसी ही होगी। लंबी, गोरी और काले बालों वाली। मैं भी सुन लेता था। कान बंद करने का कोई उपाय नहीं होता था। मगर अच्छा नहीं लगता था। क्योंकि दुल्हन देखने के रस्मों की कड़वाहट ज़हन में उतर गई थी।
पटना स्टेशन के पास हनुमान मंदिर में पड़ोस की चाची की एक बेटी को स्कूटर पर बिठा कर ले गया था। मुझे यह काम इसलिए सौंपा गया कि किसी को शक न हो। मेरी ऐसी साख बन गई थी मोहल्ले की लड़कियों के बीच। लोगों को लगे कि कहीं कोचिंग सेंटर छोड़ने ले जा रहा होगा। मेरा एक काम यह भी था। इसलिए किसी को शक नहीं होता था। उस दिन मैं उस लड़की को हनुमान मंदिर ले गया था। चाची ने कह दिया था धीरे धीरे चलाना। शुभ काम है। मैं भी लगता था कि कितना बड़ा काम मिला है, कर ही देना है। पटना का हनुमान मंदिर। वहां लड़के वाले आ चुके थे। उसे देखने। चाची रिक्शे से पहुंची थीं। अलग से। लड़के ने लड़की को देखना शुरू किया। उसकी नज़रों को मैंने देखना शुरू कर दिया। वो कहां कहां देख रहा है। कहां ज्यादा रूक रहा है।मोहल्ले के फिल्मी भाई की तरह गुस्सा भी आया।लेकिन भला उसी का था, चाची के सर से बोझ उतरना था इसलिए चुप भी रहना था। वो मेरी बहन नहीं थी इसलिए सर उठा कर देख रहा था।अपनी बहनों के वक्त तो नज़र नीचे ही रहती थी। इसी से कई लोगों को लगा कि मैं सीधा हूं।अच्छा लड़का हूं।खैर पहली बार देखा कि मर्द कैसे लड़की को देखता है।साला सामान ही समझता है।और कुछ नहीं।बाद में
उस लड़की को स्कूटर के पीछे बिठा कर घर ला रहा था।रास्ते भर सोचता रहा कि कितना अपमान है।लड़की नहीं होना चाहिए। पहली बार मुझे यह पता चला था कि लड़कों की नज़रें गंदी हो सकती हैं। बुरा या गंदी पता नहीं। अच्छाई के विरोध में तब शब्द भी कम होते थे। उस लड़के ने पसंद नहीं किया। क्या पता किसी और को हनुमान के सामने घूर रहा होगा? पता नहीं।
हिंदुस्तान के लड़के बदसूरत, बेढंग और बेहूदे होते हैं। लड़कियां तो सज कर कुछ बेहतर से बहुत बेहतर लगती रहती हैं। लड़कों के पास नौकरी न हो और समाज में शादी का चलन न हो तो मेरा यकीन है कि लाखों की संख्या में लड़के कुंवारे रह जाते। पिता जी की बात सही लगती रही। आज तक लगती है। शाहरूख ख़ान सिक्स पैक बना रहा है तो मुझे ठीक लगता है। सारे लड़कों को नौकरी के अलावा इस लायक तो होना ही चाहिए कि किसी लड़की की कल्पना लोक में आ सके। वर्ना मैंने शादी से पहले सैंकड़ों मौके देखे हैं जब लड़कियों को लड़कों के सामने दिखाया गया है। एक भी मौके पर किसी भी लड़की ने लड़के की तरफ नज़र उठा कर नहीं देखा। कभी नहीं देखा कि लड़के ने भी लड़की के लिए तस्वीर खिंचाई है। सूट में। स्टुडियो वाले से टाई लेकर। यकीन न हो तो पटना के मौर्या लोक में एक स्टुडियो है। डैफोडिल्स। वहां जाकर पूछ लीजिएगा। यह स्टुडियो स्थानीय स्तर पर लड़कियों की ऐसी तस्वीर तो बना ही देता था कि पहले राउंड में क्लियर हो जाए। और लड़के वाले अपने ड्राइंग रूम में या हनुमान मंदिर में उसे देखने के लिए बुला लें। लड़कियों के सामने लड़कों की तस्वीरों का विकल्प कभी नहीं रहा। क्या पता उन्हें भी पिता जी की तरह लगता हो इंजीनियर ही तो है। जीवन काटना है। हां कह देंगे तो मां बाप है हीं मेरी तरफ से हां कहने के लिए।
मुझे फैशन से चिढ़ है। मेक अप से चिढ़ है। लेकिन जब पढ़ता हूं कि पुरुषों के सजने संवरने का कारोबार हज़ार करोड़ का हो रहा हो तो कभी कभी खुशी होती है। बीते दिनों की ख़राशों पर इसी बात से मरहम लगती होगी। जब मेरी एक दोस्त ने कहा कि शाहरूख इज़ हॉट तो सुनकर अच्छा लगा। एक बार लड़कियों की नज़रे लड़कों को नापने लगे तो कस्बे से लेकर महानगरों के कुंवारे इंजीनियरों, डाक्टरों और एमबीए लड़कों के होश उड़ने लगेंगे। वो भी सिक्स पैक बनाने लगेंगे। बल्कि बना ही रहे हैं।
जेनएक्स की प्रेम कविता
ओमेक्स मॉल की छत पर हमने
देखे थे तुम्हारे साथ कुछ सपने
मिक्सियों और टीवी को निहारते हुए
मेरी निगाह बार बार देखती थी तुमको
ठीक उसी बीच तुम्हारी नज़र पड़ गई
परफ्यूम की एक खूबसूरत शीशी पर
कहने का तरीका तो आसानी से मिल गया
हमने शीशी खरीदी और बिल पे कर दिया
मगर कहने का अर्थ बदल गया
मॉल से बाहर निकलते हुए तुमने
कॉफी की चुस्की के बाद कहा था
पता नहीं टीवी और मिक्सी की तरह
तुम भी क्यों पसंद आते हो मुझको
लगता है कि मैंने तुम्हें पसंद किया है
और बिल किसी और ने पे किया है
हाथ पकड़ कर चलती हूं तो साथ साथ लगता है
साथ साथ चलती हूं तो जकड़ा जकड़ा सा लगता है
कहीं से खुद को छुड़ा कर आती हूं जब तुम्हारे पास
न जाने क्यों हर बार बंधा बंधा सा लगता है
मल्टीप्लेक्स की अंधेरी सीट पर पॉप कॉर्न के दाने
हमारे प्यार के लम्हों को कितना कुरकुरा बना देते हैं
एक्सलेटर की सीढ़ियों पर खड़े खड़े क्यों नहीं लगता
कि तुम्हारा हाथ थाम कर कुछ देर यूं ही उतरती रहूं
वहां भी तुम इस छोर होते हो मैं उस छोर होती हूं
मॉल में तमाम खरीदारियों के बीच हमारा प्यार
अक्सर पेमेंट के बाद न जाने क्यों टिसता रहता है
हमदोनों के लिए मोहब्बत किसी शॉपिंग मॉल है
जहां हर सामान दूसरे सामान से बेहतर लगता है
जनम जनम का साथ नहीं अगले सीज़न का इंतज़ार लगता है।
देखे थे तुम्हारे साथ कुछ सपने
मिक्सियों और टीवी को निहारते हुए
मेरी निगाह बार बार देखती थी तुमको
ठीक उसी बीच तुम्हारी नज़र पड़ गई
परफ्यूम की एक खूबसूरत शीशी पर
कहने का तरीका तो आसानी से मिल गया
हमने शीशी खरीदी और बिल पे कर दिया
मगर कहने का अर्थ बदल गया
मॉल से बाहर निकलते हुए तुमने
कॉफी की चुस्की के बाद कहा था
पता नहीं टीवी और मिक्सी की तरह
तुम भी क्यों पसंद आते हो मुझको
लगता है कि मैंने तुम्हें पसंद किया है
और बिल किसी और ने पे किया है
हाथ पकड़ कर चलती हूं तो साथ साथ लगता है
साथ साथ चलती हूं तो जकड़ा जकड़ा सा लगता है
कहीं से खुद को छुड़ा कर आती हूं जब तुम्हारे पास
न जाने क्यों हर बार बंधा बंधा सा लगता है
मल्टीप्लेक्स की अंधेरी सीट पर पॉप कॉर्न के दाने
हमारे प्यार के लम्हों को कितना कुरकुरा बना देते हैं
एक्सलेटर की सीढ़ियों पर खड़े खड़े क्यों नहीं लगता
कि तुम्हारा हाथ थाम कर कुछ देर यूं ही उतरती रहूं
वहां भी तुम इस छोर होते हो मैं उस छोर होती हूं
मॉल में तमाम खरीदारियों के बीच हमारा प्यार
अक्सर पेमेंट के बाद न जाने क्यों टिसता रहता है
हमदोनों के लिए मोहब्बत किसी शॉपिंग मॉल है
जहां हर सामान दूसरे सामान से बेहतर लगता है
जनम जनम का साथ नहीं अगले सीज़न का इंतज़ार लगता है।
बम बंदूक और बुद्धदेब
बम बंदूक और बुद्धदेब
युद्धदेब युद्धदेब
बाइक पर सवार कॉमरेड
झूम रहे हैं बुद्धदेब
बुद्धदेब का महासंग्राम
माओवाद या नंदीग्राम
मारो इसको पीटो उसको
काडर तुम बस करो काम
पुलिस नहीं है पब्लिक है
हाथ में जिनके रिपब्लिक है
बुद्धदेब बोले हे पब्लिक
निकाल तू अपनी मोटरबाइक
होकर सवार कर लाल सलाम
जो न बोले लाल सलाम
उनको दे तू बंदूक सलाम
बम बंदूक और बुद्धदेब
युद्धदेब युद्धदेब
बंगाल के बुद्धदेब किसके सीएम
सीपीएम सीपीएम सीपीएम
बंगाल के बुद्धदेब किसके साथ
कडर, बंदूक और लाल सलाम
युद्धदेब युद्धदेब
बाइक पर सवार कॉमरेड
झूम रहे हैं बुद्धदेब
बुद्धदेब का महासंग्राम
माओवाद या नंदीग्राम
मारो इसको पीटो उसको
काडर तुम बस करो काम
पुलिस नहीं है पब्लिक है
हाथ में जिनके रिपब्लिक है
बुद्धदेब बोले हे पब्लिक
निकाल तू अपनी मोटरबाइक
होकर सवार कर लाल सलाम
जो न बोले लाल सलाम
उनको दे तू बंदूक सलाम
बम बंदूक और बुद्धदेब
युद्धदेब युद्धदेब
बंगाल के बुद्धदेब किसके सीएम
सीपीएम सीपीएम सीपीएम
बंगाल के बुद्धदेब किसके साथ
कडर, बंदूक और लाल सलाम
नंदीग्राम के बुद्धूदेब
किताब पढ़ना, साहित्य पढ़ना आदि आदि यह सब बेकार हो जाता है जब आप सत्ता के शिखर पर पहुंचते हैं। वहां पर पहुंचा हुआ व्यक्ति एक खास किस्म की सनक का शिकार हो ही जाता है। जहां विचारधारा खत्म हो जाती है और सोच में सत्ता हावी हो जाती है। बुद्धदेब बाबू भी इस मामले में बुद्धूदेब बाबू ही निकले।
काडर ने जो किया ठीक किया। भाई साहब ने नज़ीर पेश कर दी है। आगे के लिए। पहले कहा कि नंदीग्राम में माओवादी का कब्ज़ा हो गया है। यह कभी नहीं कहा कि कौन से माओवादी वहां घुसे हैं। ठीक है कि माओवादियों का एक बड़ा संगठन सीपीएम माओवादी है। लेकिन पार्टी ने इस संगठन का भी नाम नहीं लिया। सिर्फ माओवादी कहा। कई तरह के माओवादी संगठन हैं। मगर सीपीएम को नाम नहीं पता चल सका। और जिस माओवादी को पुलिस नहीं हटा सकी उसे सीपीएम के काडर ने हटा दिया। वाह। अगर ऐसा है तो केंद्र सरकार को नक्सल प्रभावित इलाकों से सीआरपीएफ हटाकर सीपीएम काडर भेजने चाहिए। माओवादी भाग जाएंगे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह चाहे तो दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर सीपीएम के काडर को न्योता भेज सकते हैं। इससे उनके राज्य को नक्सली कब्जे से मुक्ति मिल जाएगी। यह आइडिया उन्हें मुफ्त में दे रहा हूं।
बुद्धदेब बाबू अपनी तरह बाकी लोगों को भी बुद्धू समझते हैं। वाकई यह देश में पहला मौका है जब नक्सलियों को सीपीएम के काडर ने खदेड़ दिया। पश्चिम बंगाल की पुलिस तो सिर्फ मीडिया को रोकने के लिए पिकेट बना कर खड़ी रही। काम तो काडर ने किया। आखिर कौन मुख्यमंत्री अपनी पुलिस से सक्षम काडर की तारीफ नहीं करता। इन्हें तो केंद्र सरकार की तरफ से भी ईनाम मिलना चाहिए।
दुख की बात है कि जिस सुमित सरकार ने आवाज़ उठाई उन्हें ही पागल करार दिया गया। कहा गया कि वे तो आलोचक ही रहे हैं। सुमित सरकार के पढ़ाये न जाने कितने इतिहासकार आज की तारीख में सीपीएम की राजनीति कर रहे हैं। लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया। बल्कि नंदीग्राम का मामला सीपीएम या बीजेपी का नहीं था। यह मामला था कि किसी भी विचारधारा के लोकतांत्रिक मूल्यों से भटक कर तानाशाही हो जाने का। इसका तो विरोध किया ही जा सकता था।
तिसपर से सीपीएम ने जिस तरह से बचाव किया है वो काबिल-ए तारीफ है। हम गलत हो ही नहीं सकते। यह भाव सर चढ़ कर बोल रहा था। सीपीएम नंदीग्राम की लड़ाई किस लिए लड़ रही थी। नव आर्थिक उदारवाद की नीति लागू करने के लिए न। जिसके कारण सीपीएम मनमोहन सिंह का विरोध भी करती है और उनका समर्थन भी।
नंदीग्राम का मुद्दा तो वहीं से शुरू हुआ था। यह सही है कि ममता बनर्जी ने भी इस मामले को राजनीतिक फायदे के लिए खराब किया है मगर यह तो उनकी साख ही है। यहां दांव पर सीपीएम थी। जिससे उम्मीद भर की जा रही थी कि आप सत्ता के मामले में लोकतांत्रिक मूल्यों का निर्वाह करेंगे। मगर उम्मीद के स्तर पर ही फेल हो गए। सीपीएम सत्ता के मामले में चाहे जितनी बातें कर लें...उसका दिल भी वैसा ही है जैसे दूसरे दलों का है। मिल जाए तो हाथ से न जाए। वैसे सीपीएम काडरों को जो कामयाबी मिली है उस पर भरोसा करें तो यह सब मिलकर अपनी बाइक पर सवार हो कर अमरीका को भी भगा देंगे। तब न्यूक्लियर डील एक बार में क्लियर हो जाएगा।
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री को कुछ हो गया है। वो भाजपाई या कांग्रेस होने के लिए बेचैन हैं। इसलिए वो मुख्यमंत्री होकर काडर की पीठ ठोंक देते हैं और चुनौती दे देते हैं कि ईंट का जवाब पत्थर से देंगे। पढ़े लिखे संभ्रात लोगों की यह सड़क छाप हकीकत देख सुन अच्छा लगा। बुद्धदेब बाबू ने सड़क छाप नेताओं की हैसियत बढ़ा दी है। बधाई।
काडर ने जो किया ठीक किया। भाई साहब ने नज़ीर पेश कर दी है। आगे के लिए। पहले कहा कि नंदीग्राम में माओवादी का कब्ज़ा हो गया है। यह कभी नहीं कहा कि कौन से माओवादी वहां घुसे हैं। ठीक है कि माओवादियों का एक बड़ा संगठन सीपीएम माओवादी है। लेकिन पार्टी ने इस संगठन का भी नाम नहीं लिया। सिर्फ माओवादी कहा। कई तरह के माओवादी संगठन हैं। मगर सीपीएम को नाम नहीं पता चल सका। और जिस माओवादी को पुलिस नहीं हटा सकी उसे सीपीएम के काडर ने हटा दिया। वाह। अगर ऐसा है तो केंद्र सरकार को नक्सल प्रभावित इलाकों से सीआरपीएफ हटाकर सीपीएम काडर भेजने चाहिए। माओवादी भाग जाएंगे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह चाहे तो दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर सीपीएम के काडर को न्योता भेज सकते हैं। इससे उनके राज्य को नक्सली कब्जे से मुक्ति मिल जाएगी। यह आइडिया उन्हें मुफ्त में दे रहा हूं।
बुद्धदेब बाबू अपनी तरह बाकी लोगों को भी बुद्धू समझते हैं। वाकई यह देश में पहला मौका है जब नक्सलियों को सीपीएम के काडर ने खदेड़ दिया। पश्चिम बंगाल की पुलिस तो सिर्फ मीडिया को रोकने के लिए पिकेट बना कर खड़ी रही। काम तो काडर ने किया। आखिर कौन मुख्यमंत्री अपनी पुलिस से सक्षम काडर की तारीफ नहीं करता। इन्हें तो केंद्र सरकार की तरफ से भी ईनाम मिलना चाहिए।
दुख की बात है कि जिस सुमित सरकार ने आवाज़ उठाई उन्हें ही पागल करार दिया गया। कहा गया कि वे तो आलोचक ही रहे हैं। सुमित सरकार के पढ़ाये न जाने कितने इतिहासकार आज की तारीख में सीपीएम की राजनीति कर रहे हैं। लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया। बल्कि नंदीग्राम का मामला सीपीएम या बीजेपी का नहीं था। यह मामला था कि किसी भी विचारधारा के लोकतांत्रिक मूल्यों से भटक कर तानाशाही हो जाने का। इसका तो विरोध किया ही जा सकता था।
तिसपर से सीपीएम ने जिस तरह से बचाव किया है वो काबिल-ए तारीफ है। हम गलत हो ही नहीं सकते। यह भाव सर चढ़ कर बोल रहा था। सीपीएम नंदीग्राम की लड़ाई किस लिए लड़ रही थी। नव आर्थिक उदारवाद की नीति लागू करने के लिए न। जिसके कारण सीपीएम मनमोहन सिंह का विरोध भी करती है और उनका समर्थन भी।
नंदीग्राम का मुद्दा तो वहीं से शुरू हुआ था। यह सही है कि ममता बनर्जी ने भी इस मामले को राजनीतिक फायदे के लिए खराब किया है मगर यह तो उनकी साख ही है। यहां दांव पर सीपीएम थी। जिससे उम्मीद भर की जा रही थी कि आप सत्ता के मामले में लोकतांत्रिक मूल्यों का निर्वाह करेंगे। मगर उम्मीद के स्तर पर ही फेल हो गए। सीपीएम सत्ता के मामले में चाहे जितनी बातें कर लें...उसका दिल भी वैसा ही है जैसे दूसरे दलों का है। मिल जाए तो हाथ से न जाए। वैसे सीपीएम काडरों को जो कामयाबी मिली है उस पर भरोसा करें तो यह सब मिलकर अपनी बाइक पर सवार हो कर अमरीका को भी भगा देंगे। तब न्यूक्लियर डील एक बार में क्लियर हो जाएगा।
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री को कुछ हो गया है। वो भाजपाई या कांग्रेस होने के लिए बेचैन हैं। इसलिए वो मुख्यमंत्री होकर काडर की पीठ ठोंक देते हैं और चुनौती दे देते हैं कि ईंट का जवाब पत्थर से देंगे। पढ़े लिखे संभ्रात लोगों की यह सड़क छाप हकीकत देख सुन अच्छा लगा। बुद्धदेब बाबू ने सड़क छाप नेताओं की हैसियत बढ़ा दी है। बधाई।
फेसबुक का चेहरा
दोस्तों,
अब मैं फेसबुक पर आ गया हूं। वहां कुछ पुराने ही दोस्तों से लिखा पढ़ी के तौर पर बात हो रही है। टाइप करते रहिये और बकते रहिये। कुछ बचपने का भी नमूना है। जैसे आप दोस्तों को बलून या बाल्टी भर पानी भेज सकते हैं। बलून आपके फेसबुक पर ब्लिंक करता रहेगा। कई दोस्त इसी में ही ही करते रहते हैं। बहुत देर तक फेसबुक पर बोर होने के बाद लगा कि सकारात्मक हुआ जाए। इंटरेस्ट पैदा किया जाए। तो कुल मिला कर चार कविताएं निकल आईं। भावनात्मक बयार में निकली इन पंक्तियों को अन्यथा मत लीजिएगा। पढ़ लीजिएगा।
(१)
प्रेम का मुकम्मल महीना कौन सा है
जब अमलतास खिलता है
जब बारिश होती है
जब सर्दी होती है
जब ठंडी हवायें चलती हैं
जब गर्मी की छांव होती है
प्रेम के एक मुकम्मल महीने की तलाश में
प्रेम का हर लम्हा गुज़रता जा रहा है
(२)
बहुत कुछ लिखना बाकी है
जो बाकी है उस पर फिर कभी
जो शुरू किया है उन सबको
अभी ख़त्म करना बाक़ी है
(३)
कहीं हम उस दौर में तो नहीं लौट रहे
जब लिखा करते थे ख़त दोस्तों को
जब लिखी जाती थी कविता प्रेम में
जब गाये जाते थे गीत विरह में
फेसबुक उन्हीं दिनों को वापस ला रहा है
अब लोग लिख रहे हैं
फिर से ख़त, कविता और गीत
(४)
अब मैं फेसबुक पर आ गया हूं। वहां कुछ पुराने ही दोस्तों से लिखा पढ़ी के तौर पर बात हो रही है। टाइप करते रहिये और बकते रहिये। कुछ बचपने का भी नमूना है। जैसे आप दोस्तों को बलून या बाल्टी भर पानी भेज सकते हैं। बलून आपके फेसबुक पर ब्लिंक करता रहेगा। कई दोस्त इसी में ही ही करते रहते हैं। बहुत देर तक फेसबुक पर बोर होने के बाद लगा कि सकारात्मक हुआ जाए। इंटरेस्ट पैदा किया जाए। तो कुल मिला कर चार कविताएं निकल आईं। भावनात्मक बयार में निकली इन पंक्तियों को अन्यथा मत लीजिएगा। पढ़ लीजिएगा।
(१)
प्रेम का मुकम्मल महीना कौन सा है
जब अमलतास खिलता है
जब बारिश होती है
जब सर्दी होती है
जब ठंडी हवायें चलती हैं
जब गर्मी की छांव होती है
प्रेम के एक मुकम्मल महीने की तलाश में
प्रेम का हर लम्हा गुज़रता जा रहा है
(२)
बहुत कुछ लिखना बाकी है
जो बाकी है उस पर फिर कभी
जो शुरू किया है उन सबको
अभी ख़त्म करना बाक़ी है
(३)
कहीं हम उस दौर में तो नहीं लौट रहे
जब लिखा करते थे ख़त दोस्तों को
जब लिखी जाती थी कविता प्रेम में
जब गाये जाते थे गीत विरह में
फेसबुक उन्हीं दिनों को वापस ला रहा है
अब लोग लिख रहे हैं
फिर से ख़त, कविता और गीत
(४)
दोस्त कई जगहों पर मिलते हैं
बार बार मिलते हैं
कई दिनों तक नहीं मिलते हैं
फिर मिलते हैं
तो कई जगहों पर मिलते हैं।
मिलते रहने का रोमांच अगर कहीं है
तो दोस्ती में है
दोस्त कहीं हैं तो कहीं नहीं
सिर्फ फेसबुक में हैं
कानपुर- ब्लू बनाम ब्लैक लेबल
हमारे एक वरिष्ठ सहयोगी बता रहे थे कि ब्लू लेबल शराब ब्लैक लेबल से अच्छी होती है।शराब के बारे में मेरी जानकारी कम है। इसलिए प्रभावित होकर सुन रहा था। लेकिन अनमने ढंग से कि इस जानकारी का क्या करना है। लेकिन सुनी गई बातें कई बार काम आ जाती हैं।
आज कानपुर में भारत पाक मैच हुआ तो काले रंग के कपड़े पर प्रतिबंध लग गया। कैमरे दिखा रहे थे कि दर्शकों के काले जुराब तक उतरवा लिये गए। काले गंजी और काले रुमाल। काले अंडरवियर के बारे में कैमरे ने कुछ नहीं कहा। सो इसे ऑफ द रिकार्ड मान लिया जाए। पुलिस को काले रंग से सुरक्षा को ख़तरा था। इसलिए दर्शकों के ज़र्रे ज़र्रे से काले रंग को निकाला जा रहा था। कैमरा दिखा रहा था कि बगल से अंबेसडर कारों का काफिला आ रहा है। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती आ रही हैं। एक जैमर पजेरो भी था। काले रंग था। बाकी सभी कारें सफेद। बेदाग़। नीले रंग की पार्टी की मुखिया को काला रंग सुहाया नहीं।
क्यों? क्योंकि बर्खास्त सिपाही काला झंडा दिखा कर मायावती के खिलाफ नारेबाज़ी कर सकते थे। कानपुर का पुलिस महकमा इसी बात में लगा था कि कोई काला कपड़ा पहनकर आ गया और उतार कर स्टेडियम में लहरा दिया तो नौकरी गई। आदेश ऊपर से आया था। काला उतारो। और कोई भी रंग चलेगा। हमें यह जानकर खुशी हुई कि नेताओं को काले रंग से डर लगता है। वो इसे गंभीरता से लेते हैं। अब आगे हर प्रदर्शन में काला रंग का इस्तमाल होना चाहिए। अगर काला रंग पर प्रतिबंध लगता है तो जल्दी ही पीले रंग को प्रदर्शन और विरोध का रंग बना देना चाहिए। बहुत रंग है। कमी नहीं है। हम आज से विरोध के रूप में बाजू पर पीली पट्टी बांधेंगे। लेकिन प्रदर्शनकारी नया नया आइडिया लाते नहीं इसलिए मायावती के लिए आसान हो गया कि काले रंग पर लगाम लगाओ।
क्या बहन जी। इतना क्या डरना। आपने अच्छा किया है चोर रास्ते से बहाल सिपाहियों को निकाल कर। फिर उनके प्रदर्शन से घबराहट कैसा। ग्रीनपार्क में अगर काला झंडा लहराते भी तो आपकी इज्जत बढ़ जाती कि मायावती ने सही किया है। आखिर किसे इन सिपाहियों से सहानुभूति है। बहन जी का क्रिकेट से कोई लेना देना नहीं। वो कहती रहती हैं बहुजन के काम के लिए वक्त कम पड़ जाता है ऐसे में न बालीवुड की फिल्में देखती हूं न मैच। मैच के बारे में कभी आधिकारिक रूप से नहीं कहा। लेकिन इसी दलील में मान लिया कि क्रिकेट भी बहुजन समाज की लड़ाई के रास्ते में एक गैर ज़रूरी चीज़ है। अब अचानक बहन जी के स्टेडियम पहुंचने की खबर सुनी तो लगा कि शायद संदेश देना चाहती हैं कि अब उन्हें हर चीज़ से नफरत नहीं है। वो शहरी लोगों के शौक को पसंद करती हैं। क्रिकेट देखती हैं। यह छवि उनके काम आती। बड़े शहरों के लोगों पर जादू करने में। पैन इंडियन खेल को अपना कर।
लेकिन उन्होंने काले रंग के कारण मौका गंवा दिया। बेचारे काले जुराब क्या करते। इतने बड़े स्टेडियम में कोई काला जुराब लहरा भी देता तो किसे दिखाई देता अगर कैमरा न दिखाता। कोई फेंक भी देता तो यही समझा जाता कि पाकिस्तान के खिलाड़ियों पर किसी ने फेंका है। तब लोग हैरान हो जाते क्योंकि अब ऐसा नहीं होता है। कोई पाकिस्तान के खिलाड़ियों से ऐसा बर्ताव नहीं करता।
लेकिन सत्ता है। विपक्ष में रहते हुए नीले रंग की बीएसपी ने कई बारे काले रंग के झंडे दिखाये होंगे। लेकिन सत्ता में आते ही उसे काले रंग से घबराहट होने लगती है। कहीं वह जनता से डरने तो नहीं लगीं या कहीं मायावती अब विरोध प्रदर्शन को सहन नहीं कर पातीं। माजरा क्या है...वही जाने। लेकिन नीले रंग को जब काला पसंद नहीं आया तो वरिष्ठ पत्रकार की बात याद आ गई। ब्लू लेबल का क्लास अलग है।महंगा है। ब्लैक लेबक थोड़ा कम है। कहीं ऐसा तो नहीं है। इसलिए ब्लू दल को ब्लैक झंडा बर्दाश् नहीं हुआ।
राजनीति में इस तरह के अजब गजब होते हैं । खासकर सत्ता में आने के बाद ऐसे आइडियाज़ आने लगते हैं। इसीलिए कहता हूं प्रदर्शन में हर रंग का इस्तमाल करो। ये हमारी भी नाकामी है। सिर्फ ब्लैक लेबल को ही उठाये फिरते हैं। तभी तो बहन जी को लगा कि एक ही रंग की बात है...बैन कर दे। उतरवा दे जुराब। निकलवा ले गंजी। और भेज दे घर। जा कुछ और कलर पहन कर आ। पता नहीं हमारे राजनेता कब क्या कर बैठते हैं। ये फिल्म वाले जैसे हो गए हैं। हर समय नया आइडिया ढूंढते रहते हैं। इन्हें बर्दाश्त करना आना चाहिए। काले रंग को भी। भले ही यूपी में इस वक्त ब्लू लेबल टॉप पर चल रहा है।
आज कानपुर में भारत पाक मैच हुआ तो काले रंग के कपड़े पर प्रतिबंध लग गया। कैमरे दिखा रहे थे कि दर्शकों के काले जुराब तक उतरवा लिये गए। काले गंजी और काले रुमाल। काले अंडरवियर के बारे में कैमरे ने कुछ नहीं कहा। सो इसे ऑफ द रिकार्ड मान लिया जाए। पुलिस को काले रंग से सुरक्षा को ख़तरा था। इसलिए दर्शकों के ज़र्रे ज़र्रे से काले रंग को निकाला जा रहा था। कैमरा दिखा रहा था कि बगल से अंबेसडर कारों का काफिला आ रहा है। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती आ रही हैं। एक जैमर पजेरो भी था। काले रंग था। बाकी सभी कारें सफेद। बेदाग़। नीले रंग की पार्टी की मुखिया को काला रंग सुहाया नहीं।
क्यों? क्योंकि बर्खास्त सिपाही काला झंडा दिखा कर मायावती के खिलाफ नारेबाज़ी कर सकते थे। कानपुर का पुलिस महकमा इसी बात में लगा था कि कोई काला कपड़ा पहनकर आ गया और उतार कर स्टेडियम में लहरा दिया तो नौकरी गई। आदेश ऊपर से आया था। काला उतारो। और कोई भी रंग चलेगा। हमें यह जानकर खुशी हुई कि नेताओं को काले रंग से डर लगता है। वो इसे गंभीरता से लेते हैं। अब आगे हर प्रदर्शन में काला रंग का इस्तमाल होना चाहिए। अगर काला रंग पर प्रतिबंध लगता है तो जल्दी ही पीले रंग को प्रदर्शन और विरोध का रंग बना देना चाहिए। बहुत रंग है। कमी नहीं है। हम आज से विरोध के रूप में बाजू पर पीली पट्टी बांधेंगे। लेकिन प्रदर्शनकारी नया नया आइडिया लाते नहीं इसलिए मायावती के लिए आसान हो गया कि काले रंग पर लगाम लगाओ।
क्या बहन जी। इतना क्या डरना। आपने अच्छा किया है चोर रास्ते से बहाल सिपाहियों को निकाल कर। फिर उनके प्रदर्शन से घबराहट कैसा। ग्रीनपार्क में अगर काला झंडा लहराते भी तो आपकी इज्जत बढ़ जाती कि मायावती ने सही किया है। आखिर किसे इन सिपाहियों से सहानुभूति है। बहन जी का क्रिकेट से कोई लेना देना नहीं। वो कहती रहती हैं बहुजन के काम के लिए वक्त कम पड़ जाता है ऐसे में न बालीवुड की फिल्में देखती हूं न मैच। मैच के बारे में कभी आधिकारिक रूप से नहीं कहा। लेकिन इसी दलील में मान लिया कि क्रिकेट भी बहुजन समाज की लड़ाई के रास्ते में एक गैर ज़रूरी चीज़ है। अब अचानक बहन जी के स्टेडियम पहुंचने की खबर सुनी तो लगा कि शायद संदेश देना चाहती हैं कि अब उन्हें हर चीज़ से नफरत नहीं है। वो शहरी लोगों के शौक को पसंद करती हैं। क्रिकेट देखती हैं। यह छवि उनके काम आती। बड़े शहरों के लोगों पर जादू करने में। पैन इंडियन खेल को अपना कर।
लेकिन उन्होंने काले रंग के कारण मौका गंवा दिया। बेचारे काले जुराब क्या करते। इतने बड़े स्टेडियम में कोई काला जुराब लहरा भी देता तो किसे दिखाई देता अगर कैमरा न दिखाता। कोई फेंक भी देता तो यही समझा जाता कि पाकिस्तान के खिलाड़ियों पर किसी ने फेंका है। तब लोग हैरान हो जाते क्योंकि अब ऐसा नहीं होता है। कोई पाकिस्तान के खिलाड़ियों से ऐसा बर्ताव नहीं करता।
लेकिन सत्ता है। विपक्ष में रहते हुए नीले रंग की बीएसपी ने कई बारे काले रंग के झंडे दिखाये होंगे। लेकिन सत्ता में आते ही उसे काले रंग से घबराहट होने लगती है। कहीं वह जनता से डरने तो नहीं लगीं या कहीं मायावती अब विरोध प्रदर्शन को सहन नहीं कर पातीं। माजरा क्या है...वही जाने। लेकिन नीले रंग को जब काला पसंद नहीं आया तो वरिष्ठ पत्रकार की बात याद आ गई। ब्लू लेबल का क्लास अलग है।महंगा है। ब्लैक लेबक थोड़ा कम है। कहीं ऐसा तो नहीं है। इसलिए ब्लू दल को ब्लैक झंडा बर्दाश् नहीं हुआ।
राजनीति में इस तरह के अजब गजब होते हैं । खासकर सत्ता में आने के बाद ऐसे आइडियाज़ आने लगते हैं। इसीलिए कहता हूं प्रदर्शन में हर रंग का इस्तमाल करो। ये हमारी भी नाकामी है। सिर्फ ब्लैक लेबल को ही उठाये फिरते हैं। तभी तो बहन जी को लगा कि एक ही रंग की बात है...बैन कर दे। उतरवा दे जुराब। निकलवा ले गंजी। और भेज दे घर। जा कुछ और कलर पहन कर आ। पता नहीं हमारे राजनेता कब क्या कर बैठते हैं। ये फिल्म वाले जैसे हो गए हैं। हर समय नया आइडिया ढूंढते रहते हैं। इन्हें बर्दाश्त करना आना चाहिए। काले रंग को भी। भले ही यूपी में इस वक्त ब्लू लेबल टॉप पर चल रहा है।
सेक्स सर्वे
आए दिन होने लगा है। तमाम पत्रिकाएं सर्वे कर रही हैं। सेक्स सर्वेयर न जाने किस घर में जाकर किससे ऐसी गहरी बातचीत कर आता है। कब जाता है यह भी एक सवाल है। क्या तब जाता है जब घर में सिर्फ पत्नी हो या तब जाता है जब मियां बीबी दोनों हों। क्या आप ऐसे किसी को घर में आने देंगे जो कहे कि हम फलां पत्रिका की तरफ से सेक्स सर्वे करने आए हैं या फिर वो यह कह कर ड्राइंग रूम में आ जाता होगा कि हम हेल्थ सर्वे करने आए हैं। एक ग्लास पानी पीने के बाद मिसेज शर्मा को सेक्स सर्वे वाला सवाल दे देता होगा। मिसेज शर्मा भी चुपचाप बिना खी खी किए सवालों के खांचे में टिक कर देती होंगी। और सर्वेयर यह कह कर उठ जाता होगा कि जी हम आपका नाम गुप्त रखेंगे। सिर्फ आपकी बातें सार्वजनिक होंगी। मिसेज शर्मा कहती होंगी कोई नहीं जी। नाम न दीजिए। पड़ोसी क्या कहेंगे। सर्वेयर कहता होगा डोंट वरी...पड़ोसी ने भी सर्वे में जवाब दिए हैं। मिसेज शर्मा कहती होंगी...हां....आप तो...चलिए जाइये।
ज़रूरी नहीं कि ऐसा ही होता हो। मैं तो बस कल्पना कर रहा हूं। सर्वे में शामिल समाज को समझने की कोशिश कर रहा हूं। क्या हमारा समाज हर दिन सेक्स पर किसी अजनबी से बात करने के लिए तैयार हो गया है। हर तीन महीने में सेक्स का सर्वे आता है। औरत क्या चाहती है? मर्द क्या चाहता है? क्या औरत पराई मर्द भी चाहती है? क्या मर्द हरजाई हो गया है? क्या शादी एक समझौता है जिसमें एक से अधिक मर्दो या औरतों के साथ सेक्स की अनुमति है? क्या सेक्स को लेकर संबंधों में इतनी तेजी से बदलाव आ रहे हैं कि हर दिन किसी न किसी पत्रिका में सर्वे आता है?
हो सकता है कि ऐसा होने लगा हो। लोग नाम न छापने की शर्त पर अपनी सेक्स ज़रूरतों पर खुल कर बात करते हों। समाज खुल रहा है। सेक्स संबंधों को लेकर लोग लोकतांत्रिक हो रहे हैं। क्या सेक्स संबंधों में लोकतांत्रिक होने से औरत मर्द के संबंध लोकतांत्रिक हो जाते हैं? या फिर यह संबंध वैसा ही है जैसा सौ साल पहले था। सिर्फ सर्वे वाला नया आ गया है। सर्वे वाला टीन सेक्स सर्वे भी कर रहा है। लड़के लड़कियों से पूछ आता है कि वो अब कौमार्य को नहीं मानते। शादी से पहले सेक्स से गुरेज़ नहीं। शादी के बाद भी नहीं। सेक्स सर्वे संडे को ही छपते हैं। सोमवार को नहीं। क्या इस दिन सेक्स सर्वे को ज़्यादा पढ़ा जाता है।
आज के टाइम्स आफ इंडिया में भी एक कहानी आई है। नाम न छापने की शर्त पर कुछ लड़के लड़कियों ने बताया है कि वो शादी संबंध के बाहर सिर्फ सेक्स के लिए कुछ मित्र बनाते हैं। फन के बाद मन का रिश्ता नहीं रखते। सीधे घर आ जाते हैं। इस कहानी में यही नहीं लिखा है। जब पति पत्नी को पता ही होता है कि उनके बीच दो और लोग हैं। तो सेक्स कहां होता होगा। घर में? इसकी जानकारी नहीं है। सिर्फ कहानी है। ऐसी कि आप नंदीग्राम छोड़ सेक्सग्राम की खबरें पढ़ ही लेंगे। सेक्स संबंधों में बदलाव तो आता है। आ रहा है। हमारा समाज बहुत बदल गया है। लेकिन वो सर्वे में आकर सार्वजनिक घोषणा करने की भी हिम्मत रखता है तो सवाल यही उठता है कि वो अपना नाम क्यों छुपाता है। क्या सिर्फ २००७ के साल में ही लोग शादी से बाहर सेक्स संबंध बना रहे हैं? उससे पहले कभी नहीं हुआ? इतिहास में कभी नहीं? अगली बार कुछ सवालों का सैंपल बनाकर मित्रों के बीच ही सर्वे करने की कोशिश कीजिएगा। पता चलेगा कि कितने लोग जवाब देते हैं। या नहीं तो किसी बरिस्ता में बैठे जोड़ों से पूछ आइयेगा। जवाब मिल गया तो मैं गलत। अगर मार पड़ी तो अस्पताल का बिल खुद दीजिएगा।
ज़रूरी नहीं कि ऐसा ही होता हो। मैं तो बस कल्पना कर रहा हूं। सर्वे में शामिल समाज को समझने की कोशिश कर रहा हूं। क्या हमारा समाज हर दिन सेक्स पर किसी अजनबी से बात करने के लिए तैयार हो गया है। हर तीन महीने में सेक्स का सर्वे आता है। औरत क्या चाहती है? मर्द क्या चाहता है? क्या औरत पराई मर्द भी चाहती है? क्या मर्द हरजाई हो गया है? क्या शादी एक समझौता है जिसमें एक से अधिक मर्दो या औरतों के साथ सेक्स की अनुमति है? क्या सेक्स को लेकर संबंधों में इतनी तेजी से बदलाव आ रहे हैं कि हर दिन किसी न किसी पत्रिका में सर्वे आता है?
हो सकता है कि ऐसा होने लगा हो। लोग नाम न छापने की शर्त पर अपनी सेक्स ज़रूरतों पर खुल कर बात करते हों। समाज खुल रहा है। सेक्स संबंधों को लेकर लोग लोकतांत्रिक हो रहे हैं। क्या सेक्स संबंधों में लोकतांत्रिक होने से औरत मर्द के संबंध लोकतांत्रिक हो जाते हैं? या फिर यह संबंध वैसा ही है जैसा सौ साल पहले था। सिर्फ सर्वे वाला नया आ गया है। सर्वे वाला टीन सेक्स सर्वे भी कर रहा है। लड़के लड़कियों से पूछ आता है कि वो अब कौमार्य को नहीं मानते। शादी से पहले सेक्स से गुरेज़ नहीं। शादी के बाद भी नहीं। सेक्स सर्वे संडे को ही छपते हैं। सोमवार को नहीं। क्या इस दिन सेक्स सर्वे को ज़्यादा पढ़ा जाता है।
आज के टाइम्स आफ इंडिया में भी एक कहानी आई है। नाम न छापने की शर्त पर कुछ लड़के लड़कियों ने बताया है कि वो शादी संबंध के बाहर सिर्फ सेक्स के लिए कुछ मित्र बनाते हैं। फन के बाद मन का रिश्ता नहीं रखते। सीधे घर आ जाते हैं। इस कहानी में यही नहीं लिखा है। जब पति पत्नी को पता ही होता है कि उनके बीच दो और लोग हैं। तो सेक्स कहां होता होगा। घर में? इसकी जानकारी नहीं है। सिर्फ कहानी है। ऐसी कि आप नंदीग्राम छोड़ सेक्सग्राम की खबरें पढ़ ही लेंगे। सेक्स संबंधों में बदलाव तो आता है। आ रहा है। हमारा समाज बहुत बदल गया है। लेकिन वो सर्वे में आकर सार्वजनिक घोषणा करने की भी हिम्मत रखता है तो सवाल यही उठता है कि वो अपना नाम क्यों छुपाता है। क्या सिर्फ २००७ के साल में ही लोग शादी से बाहर सेक्स संबंध बना रहे हैं? उससे पहले कभी नहीं हुआ? इतिहास में कभी नहीं? अगली बार कुछ सवालों का सैंपल बनाकर मित्रों के बीच ही सर्वे करने की कोशिश कीजिएगा। पता चलेगा कि कितने लोग जवाब देते हैं। या नहीं तो किसी बरिस्ता में बैठे जोड़ों से पूछ आइयेगा। जवाब मिल गया तो मैं गलत। अगर मार पड़ी तो अस्पताल का बिल खुद दीजिएगा।
आपातकाल
भूतकाल न भविष्यकाल
आपातकाल आपातकाल
सारा पावर अपना माल
सारी सेना अपनी ढाल
कदमताल कदमताल
आपातकाल आपातकाल
मोटी वर्दी बन कर खाल
दो दो कुर्सी की है चाल
बीच में टपका है यह काल
सत्ता का है यह मायाजाल
मुशर्रफ़ पर आया महाकाल
आपातकाल आपातकाल
आपातकाल आपातकाल
सारा पावर अपना माल
सारी सेना अपनी ढाल
कदमताल कदमताल
आपातकाल आपातकाल
मोटी वर्दी बन कर खाल
दो दो कुर्सी की है चाल
बीच में टपका है यह काल
सत्ता का है यह मायाजाल
मुशर्रफ़ पर आया महाकाल
आपातकाल आपातकाल
बुढ़ापे का बजट
चालीस के पास रिटायर होना चाहें तो कहां निवेश करें। आज कल निवेश निवेदन कार्यक्रमों में ऐसे सुझाव आते रहते हैं। बुढ़ाने से पहले ही बुढ़ापे का इंतज़ाम। हमने अपने बुज़ुर्गों को उनकी जवानी में परेशान होते हुए नहीं देखा है। वो पूरी जवानी अपने बाल बच्चों को पढ़ाने लिखाने, शादी करने और बाकी बचे पैसे से मकान बनाने में ही खपे रहे। उन्होंने कोई जीवन बीमा की कोई पालिसी नहीं खरीदी। न ही म्यूचुअल फंड खरीदा। वो अपना फर्ज़ पूरा करते रहे। एक जोखिम के साथ जीते रहे कि कोई न कोई बाल बच्चा पूछ ही लेगा। अपनी ज़रूरतें कितनी हैं, दवा दारू का इंतज़ाम हो जाए बस बाकी ज़िंदगी कट जाएगी।
लेकिन अब ऐसा नहीं है। आप जवानी के साथ साथ बुढ़ापे का भी इंतज़ाम कर रहे हैं। रिटायरमेंट प्लान खरीद रहे हैं। मेडिकल इंश्योरेंस करवा रहे हैं। आप जानते हैं कि बुढ़ापा आपका बोझ होने वाला है। बच्चों का नहीं होगा। बच्चे अपनी जवानी का बोझ उठाने में मशगूल रहेंगे। अब बाप अकेला है। पहले उसके पास कई लोग होते थेँ। हालांकि तब भी बाप को यह खतरा होता था कि बेटा नहीं पूछेगा तो क्या होगा। यही दिलासा देते रहते थे कि जो भी पेंशन मिलेगा काम चल जाएगा। बुढ़ा-बुढ़ी हरिद्वार जाकर ज़िंदगी काट लेंगे। ऐसे बचे खुचे बुज़ुर्गों को कोई बता देता कि हरिद्वार में प्रोपर्टी प्राइस बढ़ गया है। वहां यूं ही जाकर बुढ़ापे का गुज़ारा नहीं किया जा सकता। हरिद्वार में जाना एक निवेश है। जिसके लिए आपको रामदेव के आश्रम के पास बन रहे हाउसिंग कालोनी में फ्लैट बुक कराना होगा। जिनका नाम स्वर्गाश्रम, हैवन एन्क्लेव होता है।
हमारा समाज और हम हर दिन बदल रहे हैं। वैसे बाप को, जिनके दो चार बच्चे हैं, तनाव से गुज़रना पड़ रहा है। क्योंकि इनके बच्चे अपने बुढ़ापे के लिए जीवन बीमा की पालिसी खरीद रहे हैं। इनके पास बाप के बुढ़ापे के लिए कोई पैसा नहीं है। हाल ही में दिल्ली के एक बाप ने अपने बच्चों पर मुकदमा कर दिया। अदालत ने भी बेटों से कमाई का हिसाब किताब मांगा है। जवानी के तूफान में हम उम्र की हकीकत को नहीं देख पाते।
सर्वे में कहा जाता है कि भारत की आबादी युवा हो रही है। फिर भी लोग बुढ़ापे की पालिसी की जमकर मार्केंटिंग कर रहे हैं। उन्हें बुढ़ापे का भय दिखा रहे हैं। एक तरह से बता रहे हैं कि आपने जिस तरह अपने बाप को नहीं पूछा, या पूछा तो देख लिया होगा कि कितना महंगा होता है, बुढ़ापे में बाप का ख्याल रखना। इसलिए आप रिटायरमेंट पालिसी खरीद लीजिए। क्योंकि आपके पास इतने सारे बच्चों के आप्शन नहीं होंगे। डर लगता है। हम इस नश्वर जीवन को कितना कंक्रीट बनाएंगे। रिश्ते बनाने निभाने की पालिसी नहीं है। अपना अपना गुज़ारा करने के लिए तमाम पालिसी है। इतना ही नहीं बुढ़ापे को भी रंगीन बनाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि अगर पालिसी खरीदी होगी तो साठ साल के बाद विदेशों का भ्रमण कीजिए, माल में शौपिंग कीजिए और रेस्त्रां में खाना खाइये। बुढ़े लोगों की दुनिया भी बदल रही है। बदलेगी ही। जो नौजवान जवानी भर सिर्फ अपने बुढ़ापे के लिए बचत करता रहा, उसके पास पैसा तो होगा ही। और वो पैसा कहां खर्च होगा। लिहाज़ा उसे भी खर्च कराने के तमाम पालिसी निकल रही हैं। भाई साहब बीमाओं का बुढ़ापा कब आएगा। एक चक्र लगता है जिसमें जवानी में आप फंसते हैं और बुढ़ापे में उलझ जाते हैं।
लेकिन अब ऐसा नहीं है। आप जवानी के साथ साथ बुढ़ापे का भी इंतज़ाम कर रहे हैं। रिटायरमेंट प्लान खरीद रहे हैं। मेडिकल इंश्योरेंस करवा रहे हैं। आप जानते हैं कि बुढ़ापा आपका बोझ होने वाला है। बच्चों का नहीं होगा। बच्चे अपनी जवानी का बोझ उठाने में मशगूल रहेंगे। अब बाप अकेला है। पहले उसके पास कई लोग होते थेँ। हालांकि तब भी बाप को यह खतरा होता था कि बेटा नहीं पूछेगा तो क्या होगा। यही दिलासा देते रहते थे कि जो भी पेंशन मिलेगा काम चल जाएगा। बुढ़ा-बुढ़ी हरिद्वार जाकर ज़िंदगी काट लेंगे। ऐसे बचे खुचे बुज़ुर्गों को कोई बता देता कि हरिद्वार में प्रोपर्टी प्राइस बढ़ गया है। वहां यूं ही जाकर बुढ़ापे का गुज़ारा नहीं किया जा सकता। हरिद्वार में जाना एक निवेश है। जिसके लिए आपको रामदेव के आश्रम के पास बन रहे हाउसिंग कालोनी में फ्लैट बुक कराना होगा। जिनका नाम स्वर्गाश्रम, हैवन एन्क्लेव होता है।
हमारा समाज और हम हर दिन बदल रहे हैं। वैसे बाप को, जिनके दो चार बच्चे हैं, तनाव से गुज़रना पड़ रहा है। क्योंकि इनके बच्चे अपने बुढ़ापे के लिए जीवन बीमा की पालिसी खरीद रहे हैं। इनके पास बाप के बुढ़ापे के लिए कोई पैसा नहीं है। हाल ही में दिल्ली के एक बाप ने अपने बच्चों पर मुकदमा कर दिया। अदालत ने भी बेटों से कमाई का हिसाब किताब मांगा है। जवानी के तूफान में हम उम्र की हकीकत को नहीं देख पाते।
सर्वे में कहा जाता है कि भारत की आबादी युवा हो रही है। फिर भी लोग बुढ़ापे की पालिसी की जमकर मार्केंटिंग कर रहे हैं। उन्हें बुढ़ापे का भय दिखा रहे हैं। एक तरह से बता रहे हैं कि आपने जिस तरह अपने बाप को नहीं पूछा, या पूछा तो देख लिया होगा कि कितना महंगा होता है, बुढ़ापे में बाप का ख्याल रखना। इसलिए आप रिटायरमेंट पालिसी खरीद लीजिए। क्योंकि आपके पास इतने सारे बच्चों के आप्शन नहीं होंगे। डर लगता है। हम इस नश्वर जीवन को कितना कंक्रीट बनाएंगे। रिश्ते बनाने निभाने की पालिसी नहीं है। अपना अपना गुज़ारा करने के लिए तमाम पालिसी है। इतना ही नहीं बुढ़ापे को भी रंगीन बनाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि अगर पालिसी खरीदी होगी तो साठ साल के बाद विदेशों का भ्रमण कीजिए, माल में शौपिंग कीजिए और रेस्त्रां में खाना खाइये। बुढ़े लोगों की दुनिया भी बदल रही है। बदलेगी ही। जो नौजवान जवानी भर सिर्फ अपने बुढ़ापे के लिए बचत करता रहा, उसके पास पैसा तो होगा ही। और वो पैसा कहां खर्च होगा। लिहाज़ा उसे भी खर्च कराने के तमाम पालिसी निकल रही हैं। भाई साहब बीमाओं का बुढ़ापा कब आएगा। एक चक्र लगता है जिसमें जवानी में आप फंसते हैं और बुढ़ापे में उलझ जाते हैं।
सड़क निर्माण सीएम
आज कल नेताओं को बिजली सड़क पानी पर को जनादेश मिल जाता है तो उन्हें लगता है कि उनका काम यहीं तक है। हज़ार किमी सड़क बनवा दो, बिजली के खंभे लगवा दो और पानी के टैंकर भिजवा दो। अगर इतना ही काम है तो मुख्यमंत्री और पूरी सरकार का चुनाव क्यों। क्यों नहीं पांच साल पर जनता सिर्फ पीडब्ल्यू डी मंत्री, बिजली मंत्री और जल मंत्री का चुनाव करे। मुख्यमंत्री का पद ख़त्म कर दिया जाए।
जब से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने हैं बिहार नहीं गया हूं। सुनता रहता हूं कि सड़क का शिलान्यास हो रहा है तो कहीं निर्माण कार्य शुरू हो गया है। मैं भी खुश होता रहा कि बिहार बदल रहा है। क्या बिहार सिर्फ सड़क के बनने से ही बदलेगा? क्या नीतीश कुमार का सड़कें बनवाना काफी है? पांच साल बाद वो यह कह कर वोट मांगेगे कि हमने दस हज़ार किमी सड़कों को निर्माण करवाया है, वोट दीजिए।
गुजरात में भी अच्छी सड़के हैं। दिल्ली में भी अच्छी सड़के हैं। तो क्या राजनीति का यही चरम है कि कोई सड़क बनवा कर अपनी मंज़िल पा लेगा। नीतीश कुमार के बिहार में सड़क, बिजली और पानी के अलावा क्या बदल रहा है? क्या मुख्यमंत्री पार्षद की तरह गली नाली बनवाने में व्यस्त हैं? या फिर नई राजनीतिक संस्कृति भी बना रहे हैं? कैसे बनायेंगे। राम नाम वाली पार्टी का साथ है। खुद की पार्टी में कमीशन कट खाने वाले नेता खत्म नहीं कर पाए। क्या नीतीश दावे के साथ कह पायेंगे कि उनके राज्य में तबादलों में पैसे का लेन देन खत्म हो गया। उनके मंत्रियों ने पैसे नहीं बनाये।
अगर इस पर अंकुश लग गया होता तो अनंत सिंह की हिम्मत नहीं होती कि वो एनडीटीवी के पत्रकार प्रकाश सिंह और कैमरामैन हबीब की पिटाई करता। यह एक अपराधी और बददिमाग़ किस्म का नेता लगता है। जो अपने घर के जिम में शारीरिक ताकत बढ़ाता रहता है। दिमाग से नहीं सोचता। नीतीश कुमार ने अभी तक अपनी पार्टी के बाहुबलियों का क्या किया? क्या जनता के पास गए कि इस बार से बाहुबलियों को भी हरा दीजिएगा? जैसे लालू को हराया?
सवाल वही दस साल पुराना है। यहां की सामाजिक राजनीतिक संस्कृति कब बदलेगी। कब लोग ट्रांसफर पोस्टिंग की कामना लिए मंत्रियों के चक्कर नहीं लगाएंगे? कब लोग अपनी बेटी की शादी के लिए पटना के हनुमान मंदिर में मन्नत नहीं मांगेगे। एक जड़ समाज बनता जा रहा है बिहार का। जहां हर तरह के गैरकानूनी काम का सामाजिक समर्थन नज़र आता है। वर्ना अनंत सिंह जैसे नेताओं को अपनी पार्टी का बताने में नीतीश को शर्म आती और अनंत सिंह और उनके साथी शर्म से बताते नहीं कि हम भी विधायक है। मगर ऐसा नहीं है। ये सीना ठोक कर चलते हैं। बताते हैं कि बिहार इसी लायक है। बिहार के लड़के हीरो बन जायेंगे, आईआईटी चले जायेंगे मगर उन्हें नेता इसी लायक मिलेंगे। जो बंदूक लेकर चलता हो, गाली देता हो। इसीलिए लगता है कि बिहार नहीं बदला है। जैसे बिहार के लड़के सिलिकन वैली में इंजीनियर बन कर बिहार के बदलने का झांसा देते लगते हैं उसी तरह नीतीश कुमार गली नाली बनवाकर बिहार को बना देने का झांसा दे रहे हैं। प्रकाश सिंह, हबीब अली, अजय कुमार और सभी मीडियाकर्मियों पर हुए हमले की निंदा की जानी चाहिए। ये वही बिहार है। याद रखा जाना चाहिए। सड़कों में नए बिहार की तस्वीर मत ढूंढिये।
जब से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने हैं बिहार नहीं गया हूं। सुनता रहता हूं कि सड़क का शिलान्यास हो रहा है तो कहीं निर्माण कार्य शुरू हो गया है। मैं भी खुश होता रहा कि बिहार बदल रहा है। क्या बिहार सिर्फ सड़क के बनने से ही बदलेगा? क्या नीतीश कुमार का सड़कें बनवाना काफी है? पांच साल बाद वो यह कह कर वोट मांगेगे कि हमने दस हज़ार किमी सड़कों को निर्माण करवाया है, वोट दीजिए।
गुजरात में भी अच्छी सड़के हैं। दिल्ली में भी अच्छी सड़के हैं। तो क्या राजनीति का यही चरम है कि कोई सड़क बनवा कर अपनी मंज़िल पा लेगा। नीतीश कुमार के बिहार में सड़क, बिजली और पानी के अलावा क्या बदल रहा है? क्या मुख्यमंत्री पार्षद की तरह गली नाली बनवाने में व्यस्त हैं? या फिर नई राजनीतिक संस्कृति भी बना रहे हैं? कैसे बनायेंगे। राम नाम वाली पार्टी का साथ है। खुद की पार्टी में कमीशन कट खाने वाले नेता खत्म नहीं कर पाए। क्या नीतीश दावे के साथ कह पायेंगे कि उनके राज्य में तबादलों में पैसे का लेन देन खत्म हो गया। उनके मंत्रियों ने पैसे नहीं बनाये।
अगर इस पर अंकुश लग गया होता तो अनंत सिंह की हिम्मत नहीं होती कि वो एनडीटीवी के पत्रकार प्रकाश सिंह और कैमरामैन हबीब की पिटाई करता। यह एक अपराधी और बददिमाग़ किस्म का नेता लगता है। जो अपने घर के जिम में शारीरिक ताकत बढ़ाता रहता है। दिमाग से नहीं सोचता। नीतीश कुमार ने अभी तक अपनी पार्टी के बाहुबलियों का क्या किया? क्या जनता के पास गए कि इस बार से बाहुबलियों को भी हरा दीजिएगा? जैसे लालू को हराया?
सवाल वही दस साल पुराना है। यहां की सामाजिक राजनीतिक संस्कृति कब बदलेगी। कब लोग ट्रांसफर पोस्टिंग की कामना लिए मंत्रियों के चक्कर नहीं लगाएंगे? कब लोग अपनी बेटी की शादी के लिए पटना के हनुमान मंदिर में मन्नत नहीं मांगेगे। एक जड़ समाज बनता जा रहा है बिहार का। जहां हर तरह के गैरकानूनी काम का सामाजिक समर्थन नज़र आता है। वर्ना अनंत सिंह जैसे नेताओं को अपनी पार्टी का बताने में नीतीश को शर्म आती और अनंत सिंह और उनके साथी शर्म से बताते नहीं कि हम भी विधायक है। मगर ऐसा नहीं है। ये सीना ठोक कर चलते हैं। बताते हैं कि बिहार इसी लायक है। बिहार के लड़के हीरो बन जायेंगे, आईआईटी चले जायेंगे मगर उन्हें नेता इसी लायक मिलेंगे। जो बंदूक लेकर चलता हो, गाली देता हो। इसीलिए लगता है कि बिहार नहीं बदला है। जैसे बिहार के लड़के सिलिकन वैली में इंजीनियर बन कर बिहार के बदलने का झांसा देते लगते हैं उसी तरह नीतीश कुमार गली नाली बनवाकर बिहार को बना देने का झांसा दे रहे हैं। प्रकाश सिंह, हबीब अली, अजय कुमार और सभी मीडियाकर्मियों पर हुए हमले की निंदा की जानी चाहिए। ये वही बिहार है। याद रखा जाना चाहिए। सड़कों में नए बिहार की तस्वीर मत ढूंढिये।
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