टिनअहिया हीरो से मुलाकात

भाषा हेडमास्टर है। बोली उदंड छात्राएं। उदंड के साथ साथ स्वतंत्र खयालों वाली छात्राएं। जो व्याकरण की छड़ी से खुद को नहीं हांकती। बल्कि चुपचाप नए शब्द नए वाक्य कहीं से उठा लाती हैं और बोल चलती हैं। बोलियों में बहुत सारे शब्द अवधारणाओं के बनने के बाद बनते हैं। उसे अभिवयक्त करने की ललक एक नए शब्द को जन्म दे देती

हमारे इलाके में एक शब्द प्रचलित था टिनअहिया हीरो। यह एक खास किस्म का हीरो हुआ करता था। जो बांबे दिल्ली से लौटा होता था। सस्ती जीन्स, लाल कमीज़, चश्मा और होठों से सरकते पान के पीक। टिनअहिया हीरो से गांव के देशज लड़के बहुत चिढ़ते थे। वह ग्रामीण समाज में एक शहरी अपभ्रंश की तरह आ चुका होता था। मिलता अक्सर पान की दुकान पर था। जब चलायमान होता तो देखने लायक होती। वह धीरे धीरे सायकिल छोड़ सेकेंड हैंड मोटरसायकिल की सवारी करने लगता। उसकी हेयर स्टाइल किसी हीरो से मिलती थी। अक्सर गांव के लोग उसे सामने पाकर हीरो कहते थे और उसके जाने के बाद टिनअहिया हीरो। इसका बटुआ भी खास रंग का होता था। कवर पर विद्या सिन्हा या रेखा की तस्वीर हुआ करती थी। सिगरेट सरेआम पी डालता था। लगता था कि कोई शहर से आया है। उसकी नज़रें गांव की दबी कुची लड़कियों को ढूंढा करती थीं। बड़ा साहसी होता था। सबके सामने उसकी नज़र पास से गुज़रती लड़कियों पर पड़ती थी। कभी कभी वो सरकारी बालिका विद्यालय के सामने भी पाया जाता था। वो अपने कंधे पर सशरीर शहर को लेकर घूमता था। शहर जैसा लगता था। टिनअहिया हीरो कहलाता था।

कांशीराम का थप्पड़

नोएडा स्टेडियम में बामसेफ का सम्मेलन चल रहा है। यहां कई लोग मिले जो कांशीराम के युवा दिनों के साथी रहे हैं। बल्कि यह बताते रहे कि कांशीराम हमारे युवा दिनों के साथी हैं। पुणा की बात बताने लगे। कहा कि कांशीराम पुणे आर्डिनेंस फैक्ट्री में काम करते थे। तब उन्हें अंबेडकर के बारे में कुछ पता नहीं था। कांशीराम एक हंसते खेलते सिख नौजवान थे। एक दिन दिनामाना नाम के चपरासी से अपने अधिकारी कुलकर्णी से १४ अप्रैल को छुट्टी मांगी। कुलकर्णी ने अंबेडकर जयंती के लिए छुट्टी नहीं दी। दीनामाना ने नाराज़ होकर बात कांशीराम को बताई। कांशीराम ने कहा ये कौन है जिसके लिए तुम छुट्टी मांग रहे हैं। नहीं मिली तो क्या फर्क पड़ता है।

तभी बामसेफ के संस्थापक डी के खापर्डे ने कांशीराम को बहुत डांटा। समझाया कि आपको नौकरी मिली है अंबेडकर की वजह से। वर्ना बिना आरक्षण के ये लोग नौकरी भी नहीं देते। ये सब चंद पल थे जिसने कांशीराम को कुछ सोचने पर मजबूर किया। गुस्से में कांशीराम ने कुलकर्णी को चांटा मार दिया। बस सस्पेंड हो गए।

इसी बीच बामसेफ की स्थापना हो गई। ४० लोगों की टीम ने छुट्टी के दिनों में देश में घूम घूम कर सरकारी कर्मचारियों को इकट्ठा करने का फैसला किया। कहा कि अगर एक लाख लोग हमारे दायरे में आ जाएं तो हम सामाजिक परिवर्तन कर सकते हैं। इसके लिए कांशीराम सबसे उपयुक्त मान लिये गए क्योंकि सस्पेंड होने के कारण उनके पास काम नहीं था। ये काम मिल गया। एक थप्पड़ ने कांशीराम को उस ऐतिहासिक मौके के दरवाज़े पर लाकर खड़ा कर दिया जहां से हिंदुस्तान की राजनीति कई दशकों के लिए बदल जाने वाली थी।
( यह प्रसंग पूरी तरह से बामसेफ के लोगों के संस्मरणों को सुन कर लिखा गया है। इसमें कोई जानकारी कम हो या गलत हो तो मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है)

ब्लागईयर

हिंदी लेखन पठन का यह साल ब्लाग लेखन पठन के काल के रूप में जाना जाएगा। यही वो साल रहा जिसमें सैंकड़ों ब्लागर पैदा हुए। तमाम अख़बारों में ब्लागोदय की चर्चा हुई। ब्लाग साहित्य माना जाए या नहीं..इस पर कुछ लोग मायूस नज़र आए। पता नहीं वो क्यों एक मरती हुई विधा की तरह होना चाहते हैं? ब्लागविधा एक नई प्रक्रिया है। आने वाले समय में साहित्य तकनीकी माध्यमों से अवतरित होगा। जिस तरह प्रकाशन ने साहित्य को सुलभ किया उसी तरह ब्लाग साहित्य को पूरे विश्व में एक ही समय में सुलभ करा रहा है। साहित्य को एक नया माध्यम मिला है। तो यह पूरा साल हिंदी ब्लागरों के नाम पर रहा। इसी साल गूगल हिंदी बोलने लगा। इंटरनेट पर हिंदी के लोग अचानक उभरे और कानपुर से लेकर इटली तक आपस में बात करने लगे, बहस करने लगे और बात नहीं करने की धमकी देने लगे। कई तरह के एग्रीगेटर आए। नारद की ऐतिहासिक भूमिका बनी रही। ब्लाग पर तरह तरह के प्रयोग भी हुए। ब्लाग से संबंध बने तो खराब भी हुए। इसलिए यह साल ब्लागईयर के नाम से जाना जाएगा।

प्रणाम सर

कई लोगों ने सर सर कह कर मुझे पका दिया है। अचानक सर संबोधन में आई वृद्धि से परेशान हो गया हूं। पहले जब लोगों ने जी संबोधन का इस्तमाल किया तो तनिक विरोध के बाद छोड़ दिया। लगा कि जी से उम्र ही अधिक लगती है वर्ना समस्या खास नहीं है। सर ने सर खपा दिया है। कई लोग अब जी की जगह सर लगाने लगे हैं। ऐसा भी नहीं कि मैं कोई बड़ा अफसर हो गया हूं। होता भी तो इसकी ख्वाहिश तो बिल्कुल ही नहीं है।

सर क्या है? नाम के बाद आने वाला एक ऐसा सामंती उपकरण जो आपको कई लोगों से अलग करता है। इंसान सर संबोधन से इतना प्रभावित क्यों हैं? जब तक इसका इस्तमाल नहीं करता, उसे लगता ही नहीं कि सामने वाले को इज्जत बख्शी है। क्या सर के बिना सम्मान का कांसेप्ट नहीं होता है? करें क्या? मैं इनदिनों बहुत परेशान हूं। अब सुन कर उल्टी होती है। कहने वाले को समझाता हूं मगर मानते ही नहीं। सर और जी से बड़ा सरदर्द कुछ नहीं होता। मुझे यह समझ नहीं आ रहा है जो लोग साथ काम करते थे वो भी सर लगा देते हैं। मज़ाक की भी हद होती है। कई बार जब कहने को कुछ भी नहीं होता तब भी सर लगा देते हैं। कैसे हैं सर? क्या सर के बिना कैसे हैं का वाक्य पूरा नहीं होता? जिस तरह मुंबई में बीएमसी ने थूकने पर फाइन लगा दिया है उसी तरह दफ्तरों में सर संबोधन पर फाइन की व्यवस्था होनी चाहिए? क्या आप भी सर संबोधन से परेशान है? क्या आप इस परेशानी को दूर करने वाले किसी हकीम को जानते हैं? मैं उसकी पुड़िया सर संबोधन कार्यकर्ताओं को खिलाना चाहता हूं। ताकि यह मर्ज जड़ से गायब हो जाए।

खोया खोया चांद

प्रेमी चांद पर बहुत भरोसा करते हैं। कभी चांद को महबूब तो कभी महबूब को चांद बना देते हैं। पता नहीं यह रिश्ता कब से बनता चला आ रहा है। इस दुनिया में प्रेमियों ने अपनी अभिव्यक्तियों की लंबी विरासत छोड़ी है। जिसमें चांद स्थायी भाव से मौजूद है। कोई बात नहीं कर रहा हो तो हाल-ए- दिल सुनने सुनाने के लिए चांद है। वो कल्पना भी अजब की रही होगी की महबूब चांद को देख महबूबा को याद किया करते होंगे। पता नहीं दुनिया के किस पहले प्रेमी ने सबसे पहले चांद में अपनी महबूबा का दीदार किया। किसने सबसे पहले देखा कि चांद देख रहा है उसके प्रेम परिणय को।

बालीवुड का एक गाना बहुत दिनों से कान में बज रहा है। मैंने पूछा चांद से कि देखा है कहीं..मेरे प्यार सा हसीं..चांद ने कहा नहीं..नहीं। यानी चांद गवाह भी है। वो सभी प्रेमियों को देख रहा है। तुलना कर रहा है कि किसकी महबूबा अच्छी है। और किसकी सबसे अच्छी। पता नहीं इस प्रेम प्रसंग में चांद मामा कैसे बन जाता है। जब इनके बच्चे यह गाने लगते हैं कि चंदा मामा से प्यारा...मेरा...। क्या चांद महबूबा का भाई है? क्या प्रेमी महबूबा के भाई से हाल-ए-दिल कहते हैं? पता नहीं लेकिन चांद का भाव स्थायी है। अनंत है।

सूरज में कितनी ऊर्जा है। मगर वो प्रेम का प्रतीक नहीं है। क्या प्रेम में ऊर्जा नहीं चाहिए? चांदनी की शीतलता प्रेम को किस मुकाम पर ले जाती है? तमाम कवियों ने चांद को ही लेकर क्यों लिखा? कुछ गीतकारों ने जाड़े की धूप में प्रेम को बेहतर माना है लेकिन सूरज से रिश्ता जोड़ना भूल गए। धूप के साथ छांव का भी ज़िक्र कर देते हैं। यानी प्रेम में सूरज अस्थायी है। चांदनी का कोई विकल्प नहीं। कई कवियों की कल्पना में प्रेमी चांदनी रात में नहाने भी लगते हैं। पानी से नहीं, चांदनी से। अजीब है चांद।हद तो तब हो जाती है जब प्रेमी चांद से ही नाराज़ हो जाते हैं कि वह खोया खोया क्यों हैं? क्यों नहीं उनकी तरफ देख रहा है? प्रेमी अपने एकांत में चांद को भी स्थायी मान लेते हैं। चांद है तभी एकांत है। चांद पर इतना भरोसा कैसे बना, कृपया मुझे बताइये। कोई शोध कीजिए। कोई किताब लाइये। मुझे चांद चाहिए।

नरेंद्र मोदी- फिफ्टी फिफ्टी

सौ फ़ीसदी नरेंद्र मोदी ही जीतेंगे। गुजरात के शहरी इलाकों में लोगों की नरेंद्र भक्त लाजवाब है। पिछली बार शहरी इलाकों का ही चक्कर मार कर लौटा था।लगा कि सभी वाइब्रैंट गुजरात में पतंग उड़ा रहे हैं। दूसरी यात्रा में कई पतंग कटे बिखरे पड़े मिले। जिनकी डोर लटाई से छूट चुकी थी।

दलित- २००२ के हिंदुत्व की आग में दलितों ने भाजप के सवर्ण हिंदू का खूब साथ दिया। इसके अपना कारण थे। किसी भी आम शहरी बसावट की तरह अहमदाबाद में भी दलित और मुसलमान एक साथ और बाहर बसे हुए थे। धीरे धीरे शहर के विस्तार के साथ इनके चारों और बसावट बनती गई। दंगों के वक्त दलितों ने असुरक्षित करने लगे और सवर्ण हिंदू के झांसे में तुरंत आ गए कि मुसलमान कभी भी कुछ भी कर सकते थे। इससे पहले दलितों ने १९९५ से कांग्रेस का साथ छोड़ना शुरू कर दिया था। लेकिन अचानक आए हिंदुत्व के ज्वार में वो भी फंस गए। और दंगों में कथित रुप से बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। कहते हैं दंगों में मारे गए हिंदू लोगों में से दलित ही ज़्यादा था।

लेकिन पांच साल की शांति में जातिवाद उभर कर सामने आ गया। जिसके साथ दलित शांति से रह रहे थे उनसे झगड़ा मोल ले चुके थे। अब बारी थी कि उनके घर बेच कर कहीं और जाने की। लेकिन कानून के अनुसार अहमदाबाद में हिंदू मुसलमान आपस में संपत्ति तभी बेच सकते हैं जब कलेक्टर की अनुमति हो। अनुमति की प्रक्रिया लंबी होने के कारण दलितों ने मुस्लिमों के हाथ अपने मकान आधे दाम पर बेच दिए। इसे खरीदा दूसरे इलाके में रहने वाले मुसलमानों ने। खतरे के माहौल में अपने लोगों के साथ रहने का चलन बढ़ा। बाद में दलितों को अहमदाबाद के चांदखेड़ा इलाके में फ्लैट खरीदना पड़ा। इसे अब दलित विस्तार कहा जाता है। इसके आस पास पटेलों के मकान हैं। जो दलितों से घुलते मिलते नहीं हैं। अब दलितों के लिए नज़दीकी दुश्मन जातिवादी पटेल हो चुके हैं। मुसलमानों से उनकी तथाकथित असुरक्षा खत्म हो चुकी थी क्योंकि वो हिंदू इलाके में रहने के लिए आ गए थे। मगर यहां जातिवादी भेदभाव होने के कारण भगवा हिंदुत्व का मुलम्मा उतर चुका है। ये वो दलित मतदाता है जो पिछली बार भाजप के साथ थे इस बार पूरी तरह से नहीं हैं।

यही हाल गांवों का भी है। पांच साल के हिंदुत्व उभार में जातिवादी अपमान नहीं बदला। दलितों ने देखा कि कैसे प्रभावशाली पटेल या कोली या कोई भी अन्य जातियां सत्ता का लाभ हासिल कर रही हैं। और हिंदुत्व का झंडा बुलंद करने में कोई लाभ नहीं। बनासकांठा के एक गांव में पचीस साल से पानी की टंकी से पटेलों के घर में पाइपलाइन बिछी है। मगर दलितों के लिए पाइपलाइन नहीं बिछी। क्योंकि इससे पटेलों का पानी अछूत हो जाता। नतीजे में दलितों की बस्ती में चापाकल यानी हैंडपम्प लगा दिया गया है। इसलिए ऐसी सामाजिक स्थिति में दलित नरेंद्र मोदी के साथ नहीं है। दलित मतदाता में दरार पड़ गई है। हिंदुत्व के चक्कर में बेवकूफ बन गए हैं।

छोटे किसान- आणंद, खेड़ा के कई छोटे किसानों से मिला। उनका कहना था कि खुशहाली बड़े किसानों के यहां आई है। मैंने कहा कि बड़े किसान कितने हैं। जवाब मिला संख्या में हम उनसे कई गुना है। फिर वो कारण बताने लगे। एक किसान ने कहा कि छोटे किसानों की ज़मीन अक्सर अंदर या पीछे होती है। बड़े किसानों की ज़मीन सड़क के पास। नतीजे में बिजली विभाग वाले सर्वे के लिए नहीं आते। खंभा और तार बिछाने का खर्चा और डिपोज़िट भी हम भरते हैं। हमने कहा यही कम है कि आठ घंटे बिजली मिल रही है। छोटे किसान का जवाब था कि २४ घंटे भी मिलती है जो हमारी बस्ती में आती है। हम घर में २४ घंटे बिजली लेकर क्या करेंगे। टीवी देखना है क्या? खेत में आठ घंटे वो भी महंगी बिजली। साथ ही पानी के लिए भी बड़े किसानों पर मेहरबान हैं। ट्यूबवेल लगाने के लिए सरकार से अनुमति चाहिए। छोटे किसानों को अनुमति मिलने में लंबा वक्त लगता है। लिहाज़ा हम पानी के लिए पटेलों या बघेलों पर निर्भर हैं। अहमदाबाद बड़ौदा एक्सप्रैस वे के कारण हमारे खेतों में बरसात के बाद लंबे अर्से तक पानी जमा रहता है। जिससे फसल बर्बाद होती है और खेत खराब होते हैं।

सरकारी कर्मचारी- पांच लाख सरकारी कर्मचारी पूरी तरह से खुश नहीं हैं। कई बार नरेंद्र मोदी की महिला रैलियों के लिए औरतों को जुटाने का जिम्मा इनके हवाले किया गया। अनाप शनाप आदेश मानने के लिए बाध्य होना पड़ा। अच्छे प्रशासन का लाभ इन्हें नहीं मिला। जबकि नरेंद्र मोदी की नीतियों को लागू करने के लिए इनकी मेहनत का कोई नतीजा नहीं निकला। सरकारी कर्मचारी नाराज़ हैं।

ग्रामीण मध्यमवर्ग और शहरी गरीब-गुजरात की अमीरी का इतना गुणगाण हो रहा है कि इस तबके को लगता है कि उसके साथ मज़ाक हो रहा है। यह वो तबका है जिसे लगता है कि उसकी हालत तो वैसी ही है। बदला क्या है? अच्छी सड़क या बिजली ही विकास नहीं है। रोज़गार में हिस्सेदारी और स्वास्थ्य और शिक्षा का हाल भी देखना होगा। आणंद ज़िले की ही सरकारी वेबसाइट कहती है ज़िले के ढाई सौ सरकारी प्राथमिक स्कूलों में से डेढ़ सौ में एक या दो टीचर हैं। गरीब और मध्यमवर्ग के बच्चे यहां पढ़ते हैं। उनका कहना है कि यह स्वर्ण नहीं बल्कि सवर्ण गुजरात है।

विकास और भ्रष्टाचार- नरेंद्र मोदी देवघर बारिया की एक सभा में चिल्लाते हैं। मुझ पर हिटलर, तानाशाह और मौत का सौदागर होने का आरोप लगा। लेकिन भ्रष्टाचार का एक भी नहीं। मगर भीड़ दमदार ताली नहीं बजाती। रैली के बाद एक दुकानदार जहां हम नाश्ता कर रहे थे, कहता है भाजप के साथ अब सब नहीं हैं। क्यों? कहते हैं सड़क बनी तो ठेका सिर्फ भाजप और उसमें भी नरेंद्र मोदी के समर्थकों को मिला। वही लोगों ने बनाया वही लोगों ने खाया। जो लोग सायकिल से आते थे अब इनोवा से आते हैं। दुकानदार ने कहा कि आपने गौर नहीं किया। नरेंद्र मोदी कहते हैं मुझ पर आरोप नहीं लगा। लेकिन पार्टी के बारे में नहीं बोलते। नहीं कहते कि पार्टी का कोई भी एक कार्यकर्ता भ्रष्टाचार के आरोप में जेल नहीं गया। जबकि हकीकत यह है कि एक पूर्व सांसद, विधायक भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं।आणंद के विधायक दीपक पटेल का टिकट इसलिए काटा कि उन्होंने अस्सी करोड़ रुपये का कोपरेटिव घोटाला किया है। आणंद में गुजरात की गद्दी कार्यक्रम की रिकार्डिंग के बाद बीजेपी के ज़िला स्तर के प्रभारी मंत्री कहते हैं आप अहमदाबाद जा रहे हैं तो शहर से पहले ही मेरा वॉटर पार्क और रिज़ार्ट है। वहां रुक कर एन्ज्वाय कर सकते हैं। मैंने कहा जी शुक्रिया। ये बीजेपी के ज़िला स्तरीय छुटभैया नेता की तरफ से मीडिया को की गई नाकाम पेशकश थी।

आदिवासी- पंचमहल का भीतरी इलाका। सड़क बहुत अच्छी है। मगर एक आटो वाला कहता है कि आदिवासी लोगों के पास पैसा नहीं होता। बहुत गरीब हैं। पांच रुपये का किराया भी नहीं दे पाते।इसलिए दो रुपये में छत पर बैठ कर जाते हैं। सरकारी बस का किराया आटो के किराये से सिर्फ एक रुपया महंगा है। फिर भी वो आटो में चलते हैं। इनकी गरीबी में कोई सुधार नहीं आया है। एक आदिवासी ने कहा गरीबी तो नहीं बदली साहब। सड़क अच्छी हो गई है। समझ में नहीं आता इस अच्छी सड़क का क्या करें।

वीएचपी- मेरे कार्यक्रम में आए बीजेपी के एक कार्यकर्ता कहते हैं मोदी जी का जवाब नहीं है। मैंने पूछा कि फिर विश्व हिंदू परिषद क्यों अलग है? अगर हिंदुत्व का इतना ही भला हो गया तो वो नराज क्यों हैं? वो मुझे अपनी होंडा सिटी कार में आणंद के कैफे कॉफी होम में ले गया। हॉट ब्राउनी का आर्डर दिया और बोला कि वीएचपी वाले ज़मीन मांग रहे थे। कहीं आश्रम बनाना था तो कहीं दफ्तर बनाना था। सरकार ने नहीं दिया। इसलिए नराज़ हैं। बड़ौदा के वीएचपी के अध्यक्ष अतुल जोशी से हमारी बातचीत होने लगी। मेरा सवाल था-
क्या नरेंद्र मोदी हिंदुत्व के नेता हैं?
अतुल जोशी- आपको बेहतर पता होगा।
क्या नरेंद्र मोदी ने हिंदुत्व के लिए काम किया है?
अतुल जोशी- आपको पता होगा।
हिंदुत्व के हज़ार नेता हैं। क्या नरेंद्र मोदी एक हज़ार में एक नेता हैं?
अतुल जोशी- आप मालूम कर लो।
इस जवाब से मैं सकते में आ गया। अभी तक बातचीत कैमरे पर हो रही थी। मैंने कैमरा बंद कर दिया। बोला ऑफ द रिकार्ड बोलिये। जोशी जी कहते हैं नरेंद्र मोदी हिंदुत्व का झंडा लिये घूमते हैं लेकिन दंगों में नाम किसका आता है। हमारे लोगों का। कोई भी पकड़ा जाता है उसके आगे वीएचपी लिख दिया जाता है। और सत्ता नरेंद्र मोदी भोग रहे हैं। हिंदुत्व के इन पटीदारों, गोतियों का हाल देख समझ में आने लगा कि हिंदुत्व कुछ नहीं है। मोदीत्व तो और भी
कुछ नहीं है। सिर्फ मीडिया की जुगाली है।

इन्हीं सब असंतोष के छोटे छोटे कारणों से दो चार होते हुए लगने लगा कि गुजरात वाइब्रैंट नहीं है। नरेंद्र मोदी का एक छत्र करिश्मा नहीं है। इसीलिए लोग अब कहने लगे हैं कि नरेंद्र मोदी का जीतना फिफ्टी फिफ्टी है। किसी भी ज़िले में बात करता हूं सब कहते हैं फिफ्टी फिफ्टी है। नरेंद्र मोदी की जीत एकतरफा नहीं है। अगर जीत रहे हैं

मेरी दादी मर गई है

हमारी दादियां नानियां न जाने कितनी बार मारीं जाती हैं, उन्हें भी पता नहीं होगा। बहुत सारी दादियां मरने से पहले गंभीर रूप से बीमार पड़ती हैं। कुछ दादियों को अचानक चेकअप के लिए ले जाना पड़ता है। स्कूल, कालेज और दफ्तर में बहानेबाज़ी के अचूक हथियार के रूप में दादी का मरना,बीमार पड़ना आम होता जा रहा है। और कारगर भी। पहले भी इस बहाने का इस्तमाल होता था और आज कल भी हो रहा है। वो लोग भी इस बहाने का इस्तमाल करते हैं जिनकी दादी कब की मर चुकी है या जिन्होंने दुनिया में आने के बाद से ही अपनी दादी को कभी नहीं देखा।

मेरे दोस्तों को इस तरह का अनुभव हो रहा है। वो दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। एक छात्रा ने अपनी दादी को इसलिए मार दिया क्योंकि वो समय पर अपना असाइन्मेंट नहीं कर सकी थी। उसी छात्रा ने किसी और टीचर के सामने अपने चाचा को मृत घोषित कर दिया। शायद यह छात्रा स्कूल के दिनों से दादी को बीमार बताते बताते बोर हो गई होगी। कालेज में आकर लगा होगा कि कितने दिन बीमार रहेगी अब तो मरने का भी वक्त आ गया है। स्कूल के दिनों में भी कई लोग इस तरह के बहाने करते थे। इस पर एक राष्ट्रव्यापी शोध होना चाहिए कि भारतीय छात्र छात्राएं छुट्टी लेने या काम न पूरा करने के लिए क्या क्या कारण देते हैं? मातहत अपने अफसर से छुट्टी पाने के लिए क्या बहाने करते हैं। मैं अपनी बेटी का बर्थ सर्टिफिकेट सत्यापित कराने के लिए नोएडा के एसएसपी के दफ्तर में बैठा था। एक सिपाही आया। जनाब छुट्टी चाहिए। क्यों? एसएसपी ने पूछा। मेरी दादी मर गई है। कब मरी है? परसो साब। कितने दिन की छुट्टी चाहिए?। साब तेरह दिन की। एसएसपी नाराज़ हो गए। बोले कि एक तो तीन दिन बाद छुट्टी मांग रहा है और वो भी तेरह दिन की। तुरंत बाद एक और सिपाही आया। साब छुट्टी की दरख्वास्त है। क्यों चाहिए छुट्टी? जनाब दादा जी बीमार हैं। आगे कहने की ज़रूरत नहीं हैं।

पता नहीं कितने बच्चों के साथ दादी रहती होगी। ये बच्चे अपनी दादी को मारने में संकोच नहीं करते। शायद इससे पता चलता है कि हमारे घरों में दादियों की बाकी बची ज़िंदगी की हालत क्या है? शायद घरों में दादियों की हालत मरी हुई जैसी ही है। उनके साथ ऐसा ही व्यावहार होता होगा या फिर अब मरी कि तब मरी के रुप में मरने का इंतज़ार होता होगा। कोई भावनात्मक संबंध नहीं होगा। कई घरों में दादियां रहती ही न होंगी। जहां रहती होंगी वहां मौत के करीब या मरने वाली दादी ही मानी जाती होगी। तभी एक छोटे से काम के लिए बच्चे स्वाभाविक रुप से अपनी दादी को मार देते हैं। जबकि घरों में जाइये तो बच्चे के लिए दादी का दिल बहुत पिघलता है। काश दादी को पता होता कि ये बच्चा जिसे वो पुचकारना चाहती है, वही आज उन्हें अपने प्रोफेसर के सामने मृत घोषित कर आ रहा है। हंसती बोलती सफेद धवल हमारी दादियां। जिनके साये में हम बड़े होते हैं। पलते रहते हैं। महफूज़ रहते हैं। वो हमें ज़रा सी चोट लगने पर घर आसमान पर उठा लेती हैं। हम उन्हें मारते रहते हैं।

जो भी इस लेख को पढ़ रहा है क्या वह स्वीकार करने का हौसला दिखाएगा कि उसने भी किसी प्रसंग में दादी या किसी रिश्तेदार के बीमार होने से लेकर मर जाने तक का बहाना किया है। यह एक गंभीर सामाजिक शोध का विषय हो सकता है। इससे पता चलेगा कि झूठ बोलने के इन मौकों में हम किन किन लोगों का इस्तमाल करते हैं। कुछ लोगों ने बताया कि मां बीमार है कहने में कलेजा कांप जाता है। पापा को बीमार कह नहीं सकते। दादी ही है जिसे बीमार से लेकर मारा भी जा सकता है। मैं उन तमाम दादियों की आत्मा की शांति के प्रार्थना करता हूं जिनके पोते पोतियां उन्हें मार देते हैं। झूठ की सामाजिकता इन्हीं सब बहानों से बनती जाती है। ईश्वर सभी दादियों को बहुत लंबी उम्र दे ताकि उनके पोते पोतियों को मारने का यह बहाना कई सालों तक काम आता रहे। बल्कि दादियों के लिए एक आइडिया है। वो पता करती रहें कि पोती ने होमवर्क किया है या नहीं. या फिर स्कूल गई है या नहीं। जब भी उन्हें लगे कि ऐसा हुआ है तो वो झट से स्कूल फोन कर दें औऱ बता दें कि मैं मरी नहीं हूं। बीमार नहीं हूं। ज़िंदा हूं। दादियों को भी स्ट्रीट स्मार्ट होना होगा।

अहमदाबाद

अहमदाबाद
दंगों के बाद का शहर
पतली टांगों में फंसी जिन्स का शहर
लिवाइस जीन्स का खरीदार शहर
मारे गए लोगों के लिए रोता नहीं है
वह नया ब्रांड पहनता है
जैन पिज़्‍ज़ा खाता है
और नवरात्रा में कंडोम की बिक्री बढ़ाता है

अहमदाबाद

मोदी पर मंत्रमुग्ध है शहर
मॉल के माल पर मालामाल है शहर
गोधरा से पहले और बाद के दंगों से भागता
एक्सक्लेटर से गड्ढे में उतरता एक कतराता शहर
सब दोषी है
लेकिन पहले वो दोषी हैं
गोधरा के बाद ही हम दोषी हैं
हिसाब किताब करता एक अच्छा सा साहूकार शहर

अहमदाबाद

दंगों में मारे गए लोगों के लिए रोता नहीं है
प्लाईओवर पर भागता रहता है
हवाई जहाज़ में छुपता रहता है
स्टाक एक्सचेंज में गिरता चढ़ता है
कांग्रेस को गरियाता
मोदी को मर्द बताता है

अहमदाबाद

दंगों में मारे गए लोगो के लिए रोता नहीं है
रात भर नाचता रहता है
जासूस की निगाहों से बचता हुआ
जल्दी से कहीं रात गुजार देता है
नवरात्रा में कंडोम की बिक्री बढ़ाता है

अहमदाबाद

हादसों को भूल जाने वाला शहर
हादसे के बाद घर में छुप जाने वाला शहर
मर्दानगी ढूंढता रहता है नेता में
वह मोदी को पसंद करता है
बिजली पानी की कमी नहीं
वह एक मर्द को ढूंढता रहता है
दंगों में मारे गए लोगों के लिए रोता नहीं है

अहमदाबाद

एक ही तो नेता हुआ है शहर में
गोधरा के पहले का सच
गोधरा के बाद का सच
कभी एक से छुपता है
तो कभी एक से भागता है
मर्दों की मर्दानगी वाले इस शहर में
सिर्फ एक ही मर्द क्यों मिलता है
अहमदाबाद
दंगों में मारे गए लोगों के लिए रोता नहीं हैं