नीतीश का नया पिछड़ावाद

बिहार का चुनाव इस बार कई मामलों में प्रस्थान बिंदु है। पिछले बीस सालों से राजनीति में बनी बनाई सोच को झकझोरने वाले नतीजे आ रहे हैं। राजनीति जब ऊपर से नहीं बदलती है तो नीचे से जनता बदल देती है। इस बार के नतीजे साबित करेंगे कि राजनीति में सामाजिक समीकरण कालजयी नहीं होता है। लालू यादव खुद को मुस्लिम यादव गठबंधन से आगे नहीं ले जा सके और उनके सहयोगी राम विलास पासवान दलित राजनीति को कोई मायने नहीं दे सके। इस समीकरण में नया कुछ भी नहीं जुड़ा,बल्कि कम होता रहा। इनदोनों का गठबंधन जनता के बीच दरक गया है। वहीं कांग्रेस लालू पासवान की डुप्लिकेट समीकरण बनाने में लगी रही। मगर नीतीश कुमार की सबसे बड़ी कामयाबी यह मानी जाएगी कि उन्होंने अपने जनाधार को नया और वृहद बनाया है।


पांच साल पहले जब नीतीश को सत्ता मिली थी तब उनका जातिगत-सामाजिक आधार सीमित था मगर जनाकांक्षा असीमित थी। नीतीश कुमार लालू विरोधी खुमारी में डूबे नहीं रहे। बल्कि अति पिछड़ा और महादलित का नारा देकर राजनीति में पिछड़ावाद को पुनर्परिभाषित तो किया ही, इसे प्रासंगिक भी बना दिया। यूपीए की दो बार की सफलता से लगा कि राजनीति दो ध्रुवीय हो रही है। मगर कांग्रेस की गुटबाज़ी और दिशाहीनता कोई सामाजिक आधार नहीं बना सकी। कांग्रेसी बेकार में राहुल गांधी को दौड़ाते रहे। वहीं नीतीश सामाजिक आधार के वि्स्तार में लगे रहे। पिछड़ा का मतलब यादव या कुर्मी ही नहीं होता। यह एक ऐसा पिछड़ावाद है जिसे सभी सवर्णों और मुसलमानों का भी समर्थन हासिल है। ठीक वैसे जैसे उत्तर प्रदेश में मायावती ने उपेक्षित ब्राह्मणों और मुसलमानों को दलितों के साथ जोड़ कर संपूर्ण बहुमत पा लिया था, नीतीश के भी नतीजे वैसे ही आएंगे। नीतीश ने पिछड़ावाद को प्रगतिशील और विकासोन्मुख बना दिया है।


एक बड़ा सवाल विकास बनाम जाति का पूछा जा रहा है। पूछने वाले वही लोग हैं जो सामाजिक और सियासी हकीकत को अलग-अलग करके देखते हैं। किसी भी राजनीति के लिए सामाजिक आधार ज़रूरी है। सामाजिक आधार जिन ईंटों से बनता है उनमें से एक ईंट जाति भी है। जनादेश से जाति खत्म नहीं होती है। जाति को खत्म करने के लिए सामाजिक आंदोलन की ज़रूरत है। यूपी में सवर्णों और दलितों के साथ आने से दलितों के प्रति अत्याचार कम नहीं हुए हैं। बिहार के नतीजे बतायेंगे कि सभी जातियों ने मिलकर विकास की राजनीति का समर्थन किया है। अब नीतीश पर निर्भर करेगा कि वे सामाजिक अंतर्विरोध को अपने राजनीतिक फैसले से कितना कम करते हैं। नहीं करेंगे तो मायावती की तरह कमज़ोर होने लगेंगे।


आंकड़ों के आधार पर कहें तो नीतीश कुमार ने कोई अप्रत्याशित विकास नहीं किया है। नीतीश कुमार का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उन्होंने सांख्यिकीय विकास की जगह मनोवैज्ञानिक विकास का माहौल बनाया। नीतीश जानते हैं। इसलिए अपनी रैलियों में कहते रहे कि अभी बुनियाद रखी गई है,इमारत का निर्माण बाकी है। नीतीश कुमार भाग्यशाली है कि इमारत बनाने में उन्हें हर तबके का हाथ मिल रहा है। उन्होंने एक जनाकांक्षा पैदा कर दी है। वे इतिहास और भविष्य दोनों की दहलीज़ पर खड़े हैं,उन्हें तय करना है कि वो अपने लिए इतिहास में कैसी जगह चाहते हैं और बिहार को कैसा भविष्य देना चाहते हैं। नतीजे के बाद लालू प्रसाद उस मास्टर की तरह क्लास रूम में खड़े नज़र आएंगे जो ज्ञानी तो है मगर उसे नहीं मालूम कि सिलेबस बदल गया है।

मजनूं का टीला- बस्ती जो बसती ही नहीं है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों की तमाम यादें यहां की दीवारों पर चस्पां हैं। सत्तर हज़ार वर्ग मीटर इलाके में बसा है मजनूं का टीला। साढ़े तीन सौ से अधिक मकान हैं। तीन हज़ार की आबादी है। ज्यादा आबादी दक्षिण भारत के बौद्ध मठों और वहां किसानी करने लगे तिब्बती निर्वासितों का मिलन स्थल है। यहीं ठहर कर वो धर्मशाला की तरफ रवाना होते हैं। पहले यहां तिब्बती आए तो इस वीरानें में झोपड़ियां डालकर रहने लगे। कूली,रेल पटरी बनाने का काम किया। फिर लुधियाना से इनका रिश्ता हुआ। लुधियाना के ऊन व्यापारियों ने इन्हें उधार पर गर्म कपड़े दिये। हम बचपने में सोचते थे कि ये लोग तिब्बत से गर्म कपड़ा लाते हैं। मगर ये अपनी डिज़ाइन देकर लुधियाना के व्यापारियों से स्वेटर मफलर और मोजे बनवाते रहे। उन्हें देश भर के तिब्बती बाज़ारों में ले जाकर बेचते रहे। अक्तूबर नवंबर में लुधियाना में काफी तिब्बती लोगों का मजमा होता है।

लुधियाना ने इन्हें व्यापारिक समर्थन दिया जिसकी बदौलत इनके पास कुछ पूंजी आई। धीरे-धीरे अपने बच्चों को पढ़ाने लगे। अब वो काल सेंटर में नौकरी कर रहे हैं। कई विदेश जा चुके हैं। कुछ को होटलों में चीनी खान-पान बनाने की नौकरी मिल गई है। इससे जो पैसा आया उसका असर यहां की इमारतों पर हुआ। पक्के मकान बने। उनमें किरायेदार ठहरने लगे। बड़ी संख्या में बौद्ध मठों ने धर्मशालाएं बनवाईं। जिनसे होने वाली कमाई के कारण उनका काम चलने लगा। इन मठों में बिहार के गरीब बालिग बच्चों को नौकरियां दी जाने लगीं। इसलिए आपको यहां कई ट्रैवल एजेंट दिखेंगे। फिलहाल यहां किसी तरह के निर्माण कार्य पर रोक लगी हुई है।

तिब्बत की आज़ादी के सपने के साथ- साथ इस छोटे से तिब्बत को देखना चाहिए। गलियां तंग हो चुकी हैं। गाड़ियां अंदर नहीं आ सकतीं इसलिए मंदिर के आंगन और घर के बाहर बने छोटे-छोटे चौराहों पर लोग ठाठ से बैठे चाय पीते नज़र आएंगे। बच्चे बेफिक्र खेलते नज़र आएंगे। एक सुरक्षित माहौल नजर आता है। घरों में अब पारंपरिक चीज़ें कम होती जा रही हैं। सारे घर मुनिरका या बेरसराय जैसे लगने लगे हैं। अभी भी कुछ घरों में धूप जलाने का पवित्र चूल्हा बना हुआ है। मंत्रों से लैस पताके लहरा रहे होते हैं। छुबा लबादा अब कोई नहीं पहनता। अच्छी क्वालिटी का छुपा दस से पंद्रह हज़ार का आता है। कुछ औरतें पहनती हैं। मगर हल्के कपड़ों के।

इस तस्वीर में आप यमुना के किनारे बने एक क्लब देख रहे हैं। तिब्बती यूथ कांग्रेस का क्लब। इसके मालिक ने पैसे की कमी के कारण मकान नहीं बनाया। लिहाज़ा यहां चाय नाश्ते की शानदार दुकान है। खूबसूरत नज़ारा। कैरम खेलते हुए और खिड़की से नदी को देखते हुए। दिल्ली में यह सबसे बेहतरीन जगह होगी जो इतनी सस्ती भी है। यहां के लोगों को कान की सफाई कराने की आदत है। दस रुपये में कान साफ करने वाले खूब दिखते हैं। आखिर की तस्वीर में प्रेम पाल जी हैं। बुलंदशहर खुर्जा के एक गांव के। तेईसा साल पहले आए तो कोई आइडिया नहीं था कि तिब्बती पहनावा क्या होता है। आज वे यहां जम गए हैं।

खास बात यह है कि मोहल्ले की देखरेख पंचायत परिषद करती है। वोटिंग से सात सदस्य चुने जाते हैं। यहां के रेजिडेंट वेलफेयर दफ्तर में हर नागरिक की फाइल बनी हुई है। इसके प्रधान दोरज़ी का कहना है कि हर मकान के नीचे दुकान है। इंडिया ने हमें कितना कुछ दिया। अब हम अपनी तरफ से इंडिया को देना चाहते हैं। इसलिए सारे दकानों की गिनती की गई है। हम अपनी तरफ से कमर्शियल टैक्स देंगे। मोहल्ले का कचरा यमुना में ना जाए इसलिए महिला समिति कचरा उठाने वालों की खुद निगरानी करती है। कचरे को दो भागों में बांटा जाता है। एक प्लास्टिक वाला और दूसरा सड़ने वाला। यमुना में कुछ भी नहीं जाता। लोगों ने बताया कि वो बचपन में जमना बोलते थे। अब यमुना बोलने लगे हैं क्योंकि अभी दिल्ली में सब यमुना बोलते हैं। तब तो हम यमुना में खूब तैरते थे। अभी तो नहीं जा सके।

तिब्बत कभी तो आज़ाद होगा। यहां के लोग विस्थापन के भीतर विस्थापन भुगत रहे हैं। मां-बाप कई सालों तक मेहनत करने के बाद स्थायी होने लगे तो उनके बच्चे बाहर चले गए। यहां के स्कूल में पढ़ने वाले सभी बच्चे पांचवी के बाद धर्मशाला या पहाड़ों पर बने तिब्बती स्कूलों में चले जाते हैं। यानी फिर से विस्थापन। विस्थापन निरंतर है।
कुछ भी स्थाई नहीं है। पूरी बस्ती ही उजड़कर फिर से तिब्बत में बसने के इंतज़ार में हैं।

एक शहर के भीतर कई तरह के स्पेस हैं। सब स्पेस एक दूसरे से अलग हैं। हर मामले में। इसी थीम को लेकर रवीश की रिपोर्ट का एक हिस्सा चलता है। आज रात आप ९ बजकर २८ मिनट पर एनडीटीवी इंडिया पर देख सकते हैं। शनिवार को सुबह १० बज कर २८ मिनट और रात १० बजकर २८ मिनट और रविवार को ११ बजकर २८ मिनट पर देख सकते हैं।



















तुम कैसे सो जाते हो- तहसीन मुनव्वर

तुम कैसे सो जाते हो
तुम कैसे सो जाते हो
नंगे तन फूटपाथों पर
तोहमत लेके माथों पर
पत्थर जैसे हाथों पर
तुम कैसे सो जाते हो
गर्म अँधेरी रातों में
अशकों की बरसातों में
बर्फ से ठंडी बातों में
तुम कैसे सो जाते हो
पतली सी दीवारों पर
दो धारी तलवारों पर
उर्दू के अख़बारों पर
तुम कैसे सो जाते हो
पुलिस कार के शौर के बीच
लूट मार के ज़ोर के बीच
अप्राधिक घंघौर के बीच
तुम कैसे सो जाते हो
मैं क्यों जागता रहता हूँ
मैं क्यों जागता रहता हूँ
आलीशान मकानों में
दौलत के ऐवानों में
अंग्रेज़ी मैख़ानों में
मैं क्यों जागता रहता हूँ
ख़ुद जैसे बीमारों में
फ़िल्मी से किरदारों में
जिस्मों के बाज़ारों में
मैं क्यों जागता रहता हूँ
दोस्त नुमा अईयारों में
अमरीकी तईयारों में
मसनूई सईयारों में
मैं क्यों जागता रहता हूँ
हुस्न की दिलकश बाहों में
हवस से बोझल आहों में
बरबादी की राहों में
मैं क्यों जागता रहता हूँ
तुम कैसे सो जाते हो
सपनों में खो जाते हो
मुर्दा से हो जाते हो
और में ज़िन्दा रहकर भी
हर पल मरता रहता हूँ
ख़ुद से पूछा करता हूँ
तुम कैसे सो जाते हो
मैं क्यों जागता रहता हूँ
तुम कैसे सो जाते हो
ऊफ़ ......तुम कैसे सो जाते हो
मैं क्यों जागता रहता हूँ
मैं क्यों जागता रहता हूँ
क्यों........
तुम.......
क्यों......
ऊफ़........

वज़ीराबाद से छठ की लाइव रिपोर्टिंग

अस्ताचल सूर्य के शरण में मैं भी चला गया था। दिल्ली के जिस वज़ीराघाट पर अंतिम संस्कार और मूर्ति भसान की रस्म अदायगी हुआ करती है,वहीं पर घाट बन गया था। भयावह दुर्गन्ध को दरकिनार करते हुए व्रत करने वाली महिलाएं दौरा लिये चली आ रही थीं। कस्बा ब्लॉग पर लगी तस्वीरें अलग-अलग श्रेणी की हैं। घाट के नज़ारे की,भीड़ की,साड़ियों की,खिलौनों की और दौरों की। एक महिला ने बताया कि सात दिन लग जाते हैं कि दौरे के लिए नया क्रोशिया कवर बनाने में। हर साल नया बनाते हैं। व्रत करने वाली महिलाओं की साड़ियों के रंग और डिजाइन का अलग से अध्य्यन किया जा सकता है। नीला,हरा, बैंगनी,नारंगी और पीला। गाढ़े और चटक रंग। ये सारे डिजाइन पहले से ही उनके जीवन में रहे हैं जो थोड़े से अदल-बदल के साथ सीरीयलों में आ गए हैं। पहनावे के इन तरीकों से कई लोग खुद को इसलिए जोड़ लेते हैं क्योंकि उनका भी प्रस्थान बिंदु यही है। दिल्ली मुंबई में भले आ गए हों मगर दस पंद्रह साल पहले तक उनके भी कपड़े,साड़ियां ऐसी होती थीं। चमकदार पीले रंग की साड़ी और धोती का अपना ही कलेवर होता है। दिल्ली के सेटअप में भले ही यह रंग मूर्खता जैसा लगे मगर किसी गांव के घाट पर यही साड़ी पूरे माहौल को रंगीन कर देती हैं। हमारी आंखें ऐसे रंगों से अभ्यस्त होते चलती हैं। एक तस्वीर में आप देखेंगे कि एक लड़का सफेद चमकीला पैंट पहना है। गुटखा खा रहा है। बगल में उसका दोस्त शूशू कर रहा है। एक बच्चा भी है जिसकी कमीज़ के कॉलर का बटन बंद है। किसी सयाने को कह दें कि कॉलर का बटन बंद कर एनडीटीवी के दफ्तर चले जाओ तो गेट पर ही शर्म से दम तोड़ देगा। खैर सफेद चमकीला पैंट पहनना भी कम दिलदारी नहीं है। एकदम टिनहइया हीरो छाप। भकभका रहा था उसका पैंट। तस्वीर में तो उतना नहीं चमक रहा मगर अंदाज़ा लगा सकते हैं।

कई लोग कह रहे हैं कि छठ ग्लोबल हो गया है। मुझे लगता है कि छठ मनाने वाले लोग लोकल हुए हैं। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का इलाका प्रवासी उत्पादन में सदियों से आगे रहा है। एक ज़माना था जब सब घर लौट जाते थे। अब घर लौटना आसान नहीं रहा। वज़ीराबाद घाट पर बिहार मित्र संगठन के लोगों ने बताया कि सन १९९९ में जब पंडाल लगाना शुरू किया तो कम लोग आते थे। धीरे-धीरे संख्या बढ़ी,आयोजन का पैमाना बढ़ा तो सियासी दल वाले भी आ गए कि हमें याद कीजिएगा। यह भी बताया कि शुरू में संख्या कम होने के कारण बिहारी लोग कम संख्या में निकलते थे। धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ा तो संख्या बढ़ने लगी। घाट पर रिपोर्टिंग करने पहुंचे हमारे सहयोगी संवाददाता आशीष भार्गव ने कहा कि दिल्ली में ढाई सौ घाट बनाए गए हैं। वज़ीराबाद पर ही बड़ा सा पंडाल लगाया गया था। दो दो संगीत के कार्यक्रम हो रहे थे। दिल्ली सरकार ने पोस्टर लगाए थे कि छठ के पावन अवसर पर सभी दिल्लीवासियों का हार्दिक अभिनंदन है। यह नहीं लिखा था कि पूर्वांचल के लोगों का अभिनंदन है। इस तरह से हम हर जगह लोकल हुए हैं। यह प्रक्रिया सभी समुदायों और राज्यों से आए विस्थापितों के साथ है। दक्षिण भारत के लोग जहां रहते हैं उनके त्योहारों के वक्त उन मोहल्लों का रंग बदल जाता है। अभी उनकी संख्या और सियासी ताकत ज़ाहिर नहीं हो रही है वर्ना दिल्ली में उनके त्योहारों का जलवा देखने लायक होता। इसीलिए कहता हूं कि छठ ग्लोबल नहीं हुआ है। इसे मनाने वाले ग्लोब के अलग-अलग हिस्से में लोकल हो गए हैं।

छठ की खूबी यह है कि इसे सामूहिक होकर ही मनाया जा सकता है। तैयारी घर में होगी मगर जाना होगा नदियों के घाट पर। दुख इस बात का है कि लाखों लोगों का यह भावुक छठ भी नदियों के प्रति उन्हें ज़िम्मेदार नहीं बनाता। नदियों को बचाने के बजाए इनमें से कुछ लोग गोविन्दपुरी में कृत्रिम तालाब बनाकर छठ कर रहे हैं तो नज़फगढ़ में भी यही हालत है। लोग स्वीमिंग पुल में छठ करने लगे हैं। जल्दी ही कपड़े धोने वाले बड़े से प्लास्टिक के कठौते में भी कर लेंगे मगर नदियों के लिए आंसू नहीं बहायेंगे। श्रमदान नहीं करेंगे। हर चीज़ प्रतीक ही बन जाएगी तो सामूहिकता अपना अर्थ खोने लगेगी। सारी तस्वीरों को ध्यान से देखियेगा।

खेल-खिलौना,पटाखा मस्ती है छठ










रंग-बिरंगी साड़ियों का मेला है छठ



















दौरे की ख़ूबसूरती, पहचान है छठ का दौरा





वज़ीराबाद घाट से छठ की कुछ तस्वीरें












भंडारे का समाजशास्त्र



इस नोटिस को ठीक से पढ़िये। मेरी सोसायटी के लिफ्ट के पास सटा था। इसमें लिखा कि निवासी और मेहमान से अनुरोध है कि आप सभी गेट से बाहर लगे भंडारे तक आए और माता का प्रसाद ग्रहण करें। भवदीय अर्थात निवेदक के नाम की जगह फ्लैट का नंबर 301-B लिखा है। पूजा कब हुई और भंडारा क्यों आयोजित हुआ इसका विवरण नहीं है। गेट तक आया तो भंडारे के बाहर पूड़ी,सब्ज़ी और सूज़ी का हलवा खाने के लिए अच्छी खासी भीड़ थी। आयोजक के संयोजक से बात की तो पता चला कि जनाब खुद बिहार में चुनाव लड़ने गए हैं। व्यस्तता के कारण नवरात्रा में भंडारा नहीं करा सके थे। अब करा रहे हैं। सुबह से पंद्रह सौ लोग खा चुके हैं। कोई दस से पंद्रह हज़ार के बीच अनुमानित खर्च बताया।

भोज खाना और खिलाना सभी समाजों का पारंपरिक हिस्सा रहा है। एक ज़माने में लोग शान बघारते थे कि हमारे यहां के भोज में तीन दिन तक लोग खाते ही रहे। मगर लिफ्ट के बाहर नोटिस और गेट पर भंडारा कुछ और कह रहा है। हम सब जीवन में चाहे जितने भी सफल हों लेकिन सामाजिक आयोजनों के लिए लोगों की कमी हो रही है। पता ही नहीं होता किस को बुलाए या फिर बुलाएं भी तो आएगा या नहीं। यह भी नहीं कि इंटरकॉम से फोन कर या फिर खुद मिल कर आग्रह करें कि भाई भंडारा लगवा रहा हूं आइयेगा। हमें भरोसा ही नहीं है कि जब पूरे साल मिले नहीं तो भंडारे के लिए कैसे बुलायें। आदमी आदमी से दूर तो नहीं रह सकता इसलिए अच्छा है कि वह गेट के बाहर खुला भोज का आयोजन कर रहा है। उसका एकाकीपन बता रहा है कि अब पारंपरिक सामाजिक संस्कारों में उसका आत्मविश्वास कम हो गया है। एक तरह से अच्छा है कि हाउसिंग सोसायटियों के बाहर के दुकानदारों,रिक्शावालों,चायवालों,कपड़ा प्रेसवालों और बच्चों को अच्छा खाना मिल जाता है। भंडारे के वही उपभोक्ता हैं।

ए ओबामा- फिर मिलेंगे

शुक्रिया ओबामा भारत आने और यहां से जाने के लिए। महान और महाशक्ति होने की ग्रंथि में जी रहे एक मुल्क की मेहमानवाज़ी से अघा कर। अपने भाषण में विवेकानंद,रबीद्रनाथ टैगोर और डॉ अंबेडकर का ज़िक्र कर आपने भारत महान के अदने से लोगों को अनुगृहित किया है। आप आशाओं के प्रतीक हैं और आशंकाओं के संकेत। संसद में जाने कैसे आप हज़ारों शब्दों के भाषण को बिना देखे बोल गए। भगवान जाने टेलिप्रांप्टर कहां लगा था। ऐसा लग रहा था कि जिधर महामहिम देख रहे थे, शब्द उधर ही हवा में तैरते हुए आ जा रहे थे। हम अदने से भारतीयों के कंधा से कंधा मिलाने के काम में अपने देश अमेरिका को लगा गए हैं। ज्ञानी बकबक विशेषज्ञों को आपने सॉलिड खुराक दिया है। एंगल पत्रकारिता चरम पर थी। एंगल पत्रकारिता में किसी एक मुद्दे या घटना के असंख्य एंगल ढूंढे जाते हैं। दिमाग के कारखाने से वाक्य विन्यासों का उत्पादन होने लगता है। मुद्दे का भुर्ता बना दिया जाता है। आज सोमवार आठ नवंबर की शाम भारत और अमेरिका जिस ऐतिहासिक युग में प्रवेश कर गए हैं उसमें न चाहते हुए हम भी ठेला गए हैं। पता नहीं कहां जा कर निकलेंगे। इतिहास में या फिर कूड़ेदान में।

आपने भारत के संयमित सांसदों के समक्ष खूब लंबा भाषण दिया। देने के बाद ऐसे निकल कर चले गए जैसे कुछ कहा ही न हो। आपका भाषण भारत की महान उपलब्धियों पर ठीक तरह से लिखा गया था। ऐसे भाषणों की लच्छेदारिता यूपीएससी का कोई परीक्षार्थी ज्यादा समझेगा। आपने ही कहा कि भारत उदित होने की प्रक्रिया में नहीं है बल्कि उदित हो चुका है। महाशक्ति तो नहीं मगर विश्वशक्ति कहा। सुपरपावर की कुंठा में कई सहयोगी नागरिकों को आराम मिलने की उम्मीद की जा सकती है। आप भारत की महान विरासत का सम्मान करते हैं इसिलए यकीन दिला रहे हैं कि दोस्ती हो सकती है। ज़ीरो भारत की देन है। मनोज कुमार के गाने को आज आपने मान्यता दी है। देता न दशमलव भारत तो चांद पर पहुंचना मुश्किल था। पता नहीं उस गाने में ज़ीरो था या नहीं। ख़ैर। बाद में सुन कर इस पंक्ति में यथोचित संशोधन कर दूंगा। महात्मा गांधी का नाम तो इस देश में दो अक्तूबर और तीस जनवरी के अलावा कभी लिया ही नहीं जाता। आपने महात्मा गांधी को नाम लिया है कहा कि मार्टिन लूथर किंग पर गांधी का असर था। आप पर भी था।

आपने कहा कि अमेरिका और भारत बुनियादी मानवीय मूल्यों में यकीन रखने वाले देश हैं। यह वाक्य विन्यास की चतुराई के अलावा कुछ और नहीं है। दोनों देशों में घोर सामाजिक अन्याय का वातावरण रहा है। घंटा मानवीय मूल्यों की बुनियादी बातों का सम्मान हुआ है यहां। इराक,ईरान और अफगानिस्तान में जिन मानवीय मूल्यों का आपने सम्मान किया है,उसकी तारीफ खुद के बजाए कोई और करे तो अच्छा लगेगा। खुद की तारीफ खुद ही करेंगे तो बकबक विशेषज्ञ कहेंगे क्या। इंडिया को बिजनेस दे दो और पुरानी दलीलों पर सबको चुप करा दो। अमेरिका खलनायक नहीं रहा। अमेरिका अब सहनायक हो गया है। सुपरपावर फिल्म के ये दो को-स्टार लगते हैं। विनोद खन्ना और अमिताभ बच्चन। अब डायरेक्टर तय करेगा कि आखिरी सीन में मरेगा कौन।

जिस हरित क्रांति की आपने तारीफ की उसकी वजह से आज पंजाब के खेतों में कैंसर की पैदावार होने लगी है। आपने इसका ज़िक्र नहीं किया। आपने यह ज़रूर कहा कि भारत ने विज्ञान के क्षेत्र में तरक्की की है। हकीकत यह है कि इसरो ने कमाल का काम किया है। डीआरडीओ फिसड्डी रहा है। परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भारत ने आपके बिना काम करके दिखा दिया। आप अच्छे वक्ता है। अपने पैतृक शहर शिकागो को विवेकानंद के भाषण से जोड़ दिया। फिर बखान पुराण को आगे बढ़ाते हुए कि कहा कि मैं आज आपके सामने इसलिए खड़ा हूं क्योंकि अमेरिका का हित और उसका भारत के साथ जो हित है वो पार्टनरशिप में काफी आगे बढ़ चुका है। अमेरिका अपने मित्र राष्ट्रों की सुरक्षा और समृद्धि का आकांक्षी है। इक्कीसवीं सदी के दो दशक गुज़र जाने के बाद आपने भारत को इस सदी का दोस्त बताया है। अभी भी अस्सी साल है। कम नहीं है मौज के लिए। पर मैं यह सोच रहा हूं कि अगर भारत वाकई अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सही जगह हासिल कर रहा है और आप इस ऐतिहासिक मौके को गंवाये बिना दोस्ताना संबंध बनाना चाहते हैं तो ये उज्ज्वल आइडिया बाकी देशों को क्यों नहीं आ रहा है। आप कह रहे हैं कि आप और भारत मिलकर संरक्षणवाद का विरोध करेंगे। आप का मुल्क चाहता है कि भारत न सिर्फ पूर्व की तरफ देखे बल्कि पूर्व के साथ रिश्तेदारियां भी कायम करे ताकि इलाके में शांति कायम हो सके। अब इस तरह की लटपटिया बातों पर हम कुछ नहीं कहेंगे। फ्री का ब्लॉग है तब भी नहीं।


आपके भाषण का एक मूल सार यह है कि भारत और अमेरिका दोनों बेहद अच्छे मुल्क हैं। दोनों में कोई बुराई नहीं है। दोनों महान हैं। एक महान और एक महान मिलकर दो दुकान की जगह एक दुकान ही खोले रखें तो अच्छा रहेगा। मैं आज खुद को किस्मत वाला समझ रहा हूं। आपको सुना। देखा। जिस तरह से आपने वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिये किसानों से मुलाकात की,उसी तरह हमने लोकसभा टीवी के ज़रिये आपको देखा। कैमरा एंगल और टेलिकास्ट का प्लान सबसे बेहतर लोकसभा टीवी का ही रहा। कार से उतरने से लेकर भाषण देने और मंच से उतरने से लेकर कार में बैठने तक को बेहतरीन कैमरावर्क के ज़रिये दिखाया गया। इसके लिए लोकसभा टीवी वालों को बधाई।


ओबामा जी हमारे निरीह भारत को आगे भी महान बनाए रखिएगा। हम दिन रात यही सोचते हैं कि कब सुपरपावर बनेंगे। उसी कुंठा और बेसब्री में सत्तर पचहत्तर हज़ार करोड़ की लूटपाट कर देते हैं। मगर दिल से हम देशभक्त हैं। सत्तर फीसदी गरीबों के लिए कानून बना रहे हैं ताकि उनको अनाज मिल सके। गरीबी रहेगी क्योंकि वे अब अनाज के लिए गरीब बने रहेंगे। यह कमाल भारत ही कर सकता है कि इतनी बड़ी आबादी गरीबी रेखा पर लटक रही है और वो विश्वशक्ति बन चुका है। अमेरिका ने उसे आइएसओ सर्टिफिकेट भी दे दिया है। मैं उम्मीदों से लबालब हूं। बस इस तरह की बातें इसलिए लिख दी कि पुराने युग को मिस कर रहा हूं। नोस्ताल्जिक हो गया हूं। आखिर नए ऐतिहासिक युग में आपके साथ एक झटके में प्रवेश कर जाने से थोड़ा सैटिल होने में टाइम तो लगेगा न।

खै़र,आप आए,खाए,नाचे,गाए और बोले। अच्छा लगा। फेनू आइयेगा। अबकी मरतबा आपको मोतिहारी ले चलेंगे। वैसे आपके जाने के बाद बकबक विशेषज्ञ भी बड़ी रोयेंगे। उन्हें अपने साथ ले जाइये। किसी और देश में जाइयेगा तो इंडिया से विशेषज्ञ ले जाइयेगा। आपके लोग तो किसी चैनल पर बोले ही नहीं। ई लोग बोल बोल के बम-बम कर देंगे। ईरान को एतना न पका देंगे कि झट से गोड़ पर गिर जाएगा औउर कहेगा कि भाई साहब कहो क्या करना है। ई तुम अपने दौरा का लाइव टेलिकास्ट करा कर भेजा मत फ्राई करो। मिशेल मामी को प्रणाम कहियेगा। इंडिया के कल्चर में भगिना के किसी बात का बुरा नहीं मानते। मामू लोगों की यही मजबूरी होती है।

अत्यधिक ओबामा

अमेरिका में ओबामा कम हो रहे हैं। भारत में ओबामा अत्यधिक हुए जा रहे हैं। पांच दिनों से ओबामा के बारे में हर आतंरिक जानकारी दी जा रही है। ओबामा और भारत के तथाकथित रिश्ते को लेकर लाखों पन्ने विश्लेषण के छप चुके हैं। सैंकड़ों घंटे न्यूज़ चैनलों की चर्चाओं में विश्लेषण के ढेर उत्पादित हो चुके हैं। दिल्ली में मौजूद सभी विशेषज्ञों ने यथासंभव समीक्षा कर दी है। सोच रहा हूं कि अगर इतना ही विश्लेषण भारतीय विदेश सेवाओं के अफसरों को करना पड़ गया होगा तो उनकी तो गत निकल गई होगी। अंडरवीयर की साइज़ छोड़ हर आतंरिक जानकारी जनरल नॉलेज की किताब की मानिंद छप चुकी है। दिखाई जा चुकी है। कुछ विवादित खबरें भी छपी हैं। ओबामा की यात्रा पर ९०० करोड़ रुपये प्रतिदिन खर्च होंगे। सीएनएन के एंडरसन कूपर ने दो सौ मिलियन ड़ॉलर के मिथ पर कार्यक्रम कर पोल खोल दी है। भारतीय मीडिया की इस जानकारी की खिल्ली उड़ाते हुए कूपर के शो में आए मेहमानों ने काफी मज़ेदार टिप्पणियां की हैं।

एक अध्य्यन किया जाना चाहिए। ओबामा के आने से कितने टन पेपर छपे और कितने घंटे की फुटेज बनी। दस साल बाद कोई दिवाली के बाद के तीन दिनों में हिन्दुस्तान की घटनाओं को खंगालेगा तो उसे ओबामा के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। हालांकि आज कुछ स्थानीय चैनलों में हत्या वगैरह की खबरें दिखाईं जा रही थीं। आज के दिन भारत में एक ही घटना घट रही है। ओबामा अवतरित हो रहे हैं। मैं भी एक तटस्थ ब्लॉगर के रूप में इसे दर्ज कर रहा हूं। मीडिया का हर मंच अपने पाठक और दर्शकों को जागरूक तो करेगा ही। उन्हें जानकारी तो देगा ही। कौन रोक सकता है। इसे रोकना असंभव है। इसलिए इस प्रक्रिया पर अपनी टिप्पणी दर्ज कर रहा हूं। यह लेख विरोध टाइप फ्रेमवर्क में नहीं है। मैं खुद कई दिनों से ओबामा साहित्य पढ़ रहा हूं। लोकसभा टीवी पर एक अच्छी चर्चा भी सुनी। लगा कि काफी है। फिर अखबार निकाला तो ओबामा भार से दब गया। आज टीवी पर ओबामा ऐसे आ रहे हैं जैसे फरहान अख्तर की फिल्म में कोई डॉन आ रहा हो। ओबामा के जहाज़ को लेकर ग़ज़ब का रोमांच है। एयरफोर्स वन को काफी प्रमुखता मिली है। इतने वाक्य कहे और लिखे जा चुके हैं कि पार्थसारथी का कहा हुआ सी उदय भास्कर का लगता है और भास्कर का लिखा हुआ ब्रह्मा चेलानी का लगता है। बारीक विश्लेषण बालू की तरह दिमागी छलनी से ससर कर निकल जा रहा है।

एक और बात सामने आई है। दिल्ली अब विशेषज्ञों की सबसे बड़ी मंडी है। कोलकाता,मुंबई और चेन्नई में एक भी आदमी नहीं है(होगा भी तो आमंत्रित नही है) जो टीवी पर आकर अपना नज़रिया रखने लायक समझा गया हो। सारे के सारे दक्षिण दिल्ली के आसपास या कुछ पड़पड़गंज टाइप के इलाकों से उदित हो रहे हैं और स्टुडियो में मुखरित हो रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति को मालूम होगा कि उनका दौरा किसी जगह पर कितनी दुकानें खुलवाता है। जितने दिनों का दौरा उतने दिनों की दुकानें। विशेषज्ञ न होते तो भगवान जाने भारत अमेरिका की दोस्ती का क्या हाल हुआ होता। पता ही नहीं चलता कि कहां समस्या है और कहां समाधान। दिल्ली भारत के राष्ट्रीय विशेषज्ञों की राजधानी बन चुकी है।

भारत जनरल नॉलेज की सालाना किताब का ख्वाब पाल रहा है। सुपरपावर होने का ख्वाब। ये ख्वाब कब और कहां से हमारे नेशनल डिस्कोर्स में आ गया मुझे ज्ञात नहीं है। अज्ञात सूत्रों के मुताबिक भारत के संविधान में भी नहीं लिखा है कि हम भारत के लोग एक दिन मिलकर भारत को सुपरपावर बना देंगे। कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है कि जैसे किसी कार्यकर्ता के घर राहुल गांधी खाने चले गए हों और उनके जाने के बाद वो प्रदेश कांग्रेस के दफ्तर में चौड़ा होकर घूम रहा हो कि देखो हमारे रिश्ते बेहतर हो रहे हैं। राहुल जी सुपरपावर हैं तो हम उनके साथ खाकर एडिशनल सुपरपावर तो हो ही गए हैं। उसका दिल तब टूटता है जब सुपरपावर राहुल जी किसी और राज्य के कार्यकर्ता के घर जाकर खा लेते हैं। वैसे इसी बहाने आम दर्शक और पाठक भारत और अमेरिका के हर पहलु का ज्ञाता बन जाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए।

ओबामा के दो साल गुजर गए। कर्णप्रिय कथनों के उच्चरण का असर कम हो रहा है। गांधी को अपना आदर्श मानते हैं मगर यह भी कहते हैं कि गांधी जैसे होना मुश्किल है। कैसे होगा। गांधी खादी में थे और आप सूट में हैं। गांधी होते तो एक साधारण विमान से अमेरिका चले जाते और आप भारत आने के लिए विमानों की प्रदर्शनी कराने लगे हैं। गांधी का नाम लेना ओबामा की चालाकी है। अंबेडकर को भी याद कर लेते। जिस लड़ाई के ओबामा प्रतीक हैं उसमें अंबेडकर एक अच्छी मिसाल हो सकते थे। ऐसा करना उनके लिए अच्छा भी होता। मगर गांधी का नाम और उनकी तस्वीर लगाकर ओबामा ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे लगे कि उनकी विचारधारा का एक चेला दुनिया की सबसे ऊंची कुर्सी पर पहुंच गया है। वो उनके जैसा ही कुछ करना चाहता है। ओबामा ने यस वी 'कैन' तो कह दिया लेकिन क्या 'कैन' किया है किसी को मालूम नहीं है। गांधी का नाम लेकर यह आदमी बाज़ार खोज रहा है। किसी को शर्म नहीं आई कि ग्लोबल गांधी को ग्लोबलाइज़ेशन का उपकरण बना दिया। बंदूक और बम का बाज़ार। भारत में। नौकरियां अब राष्ट्रवाद को परिभाषित कर रही हैं। मुल्कों के प्रधान नौकरियों के लिए बिजनेस खोज रहे हैं। पहले राष्ट्र का विस्तार उसकी भौगोलिक सीमाओं से होता था अब नौकरियों की संभावनाओं से हो रहा है। आइये ओबामा का विमान टच डाउन कर गया है। कुर्सी से खड़े हो जाइये और कहिये ज़ोर ज़ोर से,
बाअदब,बामुलाहिज़ा,होशियार...
सारे मुल्कों के मामा आ रहे हैं।
सर झुकाइये,ओबामा आ रहे हैं।

अगले तीन दिनों तक टीवी देखिये, अखबार पढ़िये और लगे हाथ भारत अमेरिका संबंधों पर एक सार्वजनिक कंपटीशन भी करा लिया जाए। देखें कितने लोग टॉप करते हैं। मीडिया में ख़बरोत्सव एक हकीकत है। एक बड़ी ख़बर की तलाश रहती है जिसे उत्सव के पैमाने पर लिखा और दिखाया जा सके। सीएनएन की साइट पर ओबामा की यात्रा को पहली खबर के रूप में लिया गया है। दो और न्यूज़ हैं। मगर बाकी दुनिया की भी ख़बरें हैं। हमारे यहां तो देसी ज़ुबान में ओबामा की खबरों ने पूरे मीडिया स्पेस में छेर दिया है।