दलितों,क्षत्रियों ने पूजा परशुराम को, लेकिन दावेदारी ब्राह्मणों की?



ब्राह्मणवाद सिर्फ ब्राह्मणों की देन नहीं है। सही है कि ब्राह्मणों ने इसे प्रचारित किया लेकिन ब्राह्मणवाद को गढ़ने में सत्ताधारी(क्षत्रिय) वर्ग ने भी सक्रिय भूमिका निभाई। ब्राह्मणवाद सिर्फ वर्ण आधारित विचारधारा नहीं है बल्कि वर्ग आधारित भी है। इतिहासकार डॉ प्रदीप कान्त चौधरी अपने इस निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कोई चार सौ पन्नों की अपनी किताब RAMA WITH AN AXE,myth and cult of parsurama avtara में परशुराम कथा की मिथकीय यात्रा का काफी बारीकी से वर्णन करते हैं। एक इतिहासकार के रूप में प्रदीपकान्त की कोशिश है कि मिथक की संरचना की तमाम प्रक्रियाओं को समझा जाए और देखा जाए कि किस तरह कई जाति संप्रदायों के प्रतीक बनने के साथ साथ परशुराम उत्तर भारत के गंगा के मैदानी इलाकों में कम, दक्षिण के कोंकणी इलाके,जिसकी सीमा गोवा से लेकर केरल तक जाती है,में ज्यादा पूजे जाते हैं।

आजकल आप हरियाणा और उत्तर प्रदेश में परशुराम जयंती के आस-पास परशुराम के पोस्टर देखते होंगे। ब्राह्मण महासभा जैसे संगठन अपने सैन्य चरित्र के उभार के लिए परशुराम को अपना प्रतीक बनाते हैं। समझना ही होगा कि क्यों आज के दौर में विद्वता और विनम्रता से जुड़े तमाम प्रतीकों को छोड़ कर क्षत्रियों से लोहा लेने वाले मिथकीय किरदार परशुराम को अपना प्रतीक बनाते हैं? राजनीति के हाशिये पर पहुंचा दिये गए ब्राह्मण अपनी ताकत की दावेदारी के लिए परशुराम को प्रतीक बना रहे हैं।

लेकिन प्रदीप कान्त चौधरी राजनीति के झंझटों से निकल कर खुद को इतिहास लेखन और शोध तक ही सीमित रखते हैं। बताते हैं कि परशुराम कई जातियों के सामाजिक धार्मिक प्रतीक रहे हैं। सिर्फ ब्राह्मणों के नहीं हैं। इक्कीस बार क्षत्रिय कुल के विनाश की मिथकीय यात्रा और दाशरथी राम के हाथों पराजित होने की कथा के बीच परशुराम की एक समानंतर कथा भारत के दक्षिणी तटीय इलाकों में भी मौजूद है। किस तरह से परशुराम ने सागर को धकेल कर कोंकण को ज़मीनी इलाका तोहफे में दिया। तभी आप गोवा जायेंगे तो वहां के सरकारी म्यूज़ियम में परशुराम को गोवा का संस्थापक बताया गया है। लेकिन जब आप उत्तर भारत में परशुराम को खोजते हैं तो इस तरह की व्यापक मौजूदगी नहीं मिलती है। बिहार के अरेराज के महादेव मंदिर में इतिहासकार प्रदीप कान्त चौधरी परशुराम की प्रतिमा को ढूंढ निकालते हैं लेकिन पाते हैं कि वहीं के महंत को इस बारे में कुछ खास जानकारी नहीं है। इस प्रतिमा को राम सीता और लक्ष्मण की प्रतिमा से ढंक दिया गया है और परशुराम की पूजा तक नहीं होती। यह बताता है कि कालक्रम में परशुराम की ब्राह्मणों के बीच क्या स्थिति थी।

ऐतिहासिक साक्ष्यों में भी परशुराम की पूजा अर्चना की खास जानकारी नहीं मिलती है। प्रदीप कान्त चौधरी तर्क करते हैं कि दाशरथी राम के हाथों परशुराम की हार की मिथकीय कथा से मालूम चलता है कि परशुराम का किरदार बहुत लोकप्रिय नहीं था। तुलसी के रामायण में परशुराम का नकारात्मक किरदार है। वाल्मीकि रामायण में कहीं ज़्यादा सकारात्मक है। सबसे दिलचस्प है चार प्रमुख जाति वर्गों द्वारा परशुराम को अपने प्रतीक के तौर पर पूजे जाने की जानकारी। कोंकणस्थ ब्राह्मण की परंपरा के अनुसार परशुराम बिहार के तिरहुत से दस परिवारों को लेकर आए और उन्हें आधुनिक गोवा के नाम से मशहूर गोकर्ण में बसाया। इसका बहुत ही विस्तार से वर्णन किया गया है। पुस्तक को जानबूझ कर राजनीतिक विवाद से बचाने की कोशिश की गई है। इससे लोग बिना पुस्तक पढ़े संपादकीय तो लिख देंगे लेकिन परशुराम पर काफी मेहनत से किये गए शोध का ऐतिहासिक समझ बनाने में लाभ नहीं उठा सकेंगे।

कई राजपरिवारों ने भी परशुराम को प्रतीक के रूप में इस्तमाल किया है। केरल के इडापिल्ली के नम्बूदरी ब्राह्मण राजा का दावा है कि उनका वंश तब से मौजूद है जब से परशुराम ने समुद्र को धकेल कर इस जगह को बनाया था। यानी अपनी पौराणिकता का दावा परशुराम से किया जा रहा है। वहीं मिथिला के इलाके में परशुराम की कोई कथा नहीं मिलती है। लेकिन आज कल आप परशुराम की सबसे ज़्यादा तस्वीर हरियाणा और यूपी में देखेंगे। बल्कि दोनों राज्यों में परशुराम जयंती पर राजकीय अवकाश भी मिलता है। हाल ही में समाजवादी पार्टी ने ब्राह्मणों को लुभाने के लिए परशुराम जयंती को चुना था। लेकिन इतिहासकार प्रदीप कान्त की यह जानकारी भी कम दिलचस्प नहीं है कि परशुराम का इस्तमाल उच्चवर्गीय ब्राह्मणों ने भौतिक संपदा को बढ़ाने के लिए परशुराम के ज़मीन पैदा करने के मिथक का इस्तमाल किया तो अतिशूद्रो ने अपनी सामाजिक हैसियत बढ़ाने के लिए किया। नंबूदरी ने यह दावा करने के लिए कि ये ज़मीन परशुराम देकर गए हैं उसे कोई नहीं ले सकता है। अतिशूद्रो ने परशुराम की मां रेणुका को अपनी देवी के रूप में भी पूजा है। परशुराम ने पिता के कहने पर अपने मां की हत्या कर दी थी।

मैंने इस पुस्तक की समीक्षा आज के संदर्भ में करने की कोशिश की है। अगर आप यह जानना चाहते हैं कि किस तरह से वेदों की परंपरा से निकल कर कोई कथा पुराणों में दूसरा रुप धरती है और पहुंच जाती है लोक कथाओं में और फिर वहां से जब पुराणों में लौटती है तो उसका रूप कुछ और हो चुका होता है,तो इस किताब को पढ़िये। कैसे एक दौर में परशुराम की कथा को उठाया जाता है और कैसे दूसरे दौर में गिरा दिया जाता है। अक्षय तृतिया के दिन परशुराम जयंती पर अवकाश घोषित कराने वाले ब्राह्मण संगठन भूल जाते हैं कि परशुराम आधे ब्राह्मण थे। उनकी मां,दादी और परदादी क्षत्रिय थीं।

परशुराम की कथा को समझने के लिए यह एक उपयोगी पुस्तक है। डॉ प्रदीप कान्त चौधरी मेरे टीचर भी हैं। बहुत दिनों से मुझे इनकी इस पुस्तक का इंतज़ार था। अंग्रेज़ी में आई है और आगे हिन्दी में भी लाने की कोशिश है। यह किताब सिर्फ परशुराम की मिथकीय यात्रा को समझने के लिए नहीं पढ़ा जाना चाहिए बल्कि यह जानने के लिए भी कि किस तरह से कालक्रम् में कोई मिथक अपना रूप बदलता रहता है। इसे छापा है आकार बुक्स ने। प्रकाशक का टेलिफोन नंबर है-011- 22795505। flipkart.com पर भी यह किताब उपलब्ध है। आपके कुछ भी सवाल हों तो आप इतिहासकार से सीधा संपर्क कर सकते हैं। उनका ईमेल है- pkcdu@yahoo.com। समीक्षा में सारी जानकारियां नहीं हैं। आपके कई सवाल होंगे इसलिए या तो इतिहासकार से बात कर लें या फिर किताब लेकर पढ़ सकते हैं। एक और बात है कि इस समीक्षा का मतलब किसी भी जाति विशेष को विशेष रूप से ठेस पहुंचाना नहीं है। बल्कि एक मिथकीय ऐतिहासिक किरदार के आस-पास बुनी जाती रहीं कथाओं को सामने लाना है। वैसे मैं जाति का विरोधी रहा हूं। ठेस पहुंचने की बजाय जाति खतम हो जाए तो राहत मिले। वैसे यह सपना मेरी जीवन में तो नहीं पूरा होने वाला।

ग़र तुम आदमी न होते...सबसे कम दाम का बोझ न उठाते





ग़ाज़ियाबाद के जिस हिस्से में मैं रहता हूं,वहां आज से एक मॉल शुरू हो गया है। सारे अख़बारों में छूट और धमाका ऑफर की एक किताब बंटी है। मैं भी महागुन मॉल देखने चला गया जिसमें खुला इज़ीडे डिपार्टमेंटल स्टोर दावा करता है कि उसके यहां सबसे कम दाम हैं। ग़ाज़ियाबाद में सबसे कम। रास्ते में इंज़ीडे के कई होर्डिंग दिखे। बैनर लहरा रहे थे। फिर नज़र पड़ी इन चार टांगों पर,जिनकी पीठ पर इज़ीडे का यह बड़ा सा डिब्बा लड़खड़ा रहा था। झांक कर देखा तो दो पंद्रह सोलह साल के किशोर अपनी पीठ झुकाये जमीन ताक रहे थे। आप दूसरी तस्वीर देख सकते हैं। मानव बिलबोर्ड की तीसरी तस्वीर उस वक्त की है जब दोनों थक गए और पटक कर आराम करने लगे। आप चौथी तस्वीर में इन्हें ज़मीन पर बैठे देख सकते हैं। दुनिया महंगाई के बोझ से दबी है ये सबसे सस्ता के बोर्ड के बोझ से।

पूछने पर पता चला कि इन्हें पांच घंटे के दो सौ रुपये मिलेंगे। प्रति व्यक्ति के हिसाब से। ये बीस मिनट तक लगातार अपनी पीठ पर इज़ीडे का बक्सा लाद कर खड़े रहते हैं। जब थकते हैं तो पांच दस मिनट सुस्ता लेते हैं। लेकिन बीस मिनट तक झुकी पीठ पर भार उठाये रहना,ज़्यादा कहने की ज़रूरत नहीं। मगर परेशानी न हो तो ख़ुद पर शक होने लगता है। सर झुका कर बिलबोर्ड उठाये रहना कहां की जी हुज़ूरी साहब। ये तरीका नया नहीं है। कई कंपनियां ऐसा करती हैं। इसके लिए आपको निगम को किराया नहीं देना पड़ता है। ये अस्थायी ढांचे हैं। कोई टूथपेस्ट का बलून पहनकर घूमता मिल जाएगा तो कोई हाथ में बैनर उठाये रास्ते के किनारे दिख जाएगा। मानव बिलबोर्ड हमारे समय की देन है। इन लड़कों को जो पतलून मिली है वो रेक्सिन की लगी। कई तरफ से सिलाई खुल गई है। गनीमत है कि लड़कों ने पतलून के ऊपर कंपनी की पतलून पहनी है। वर्ना उनकी ग़रीबी बिना कपड़ों के बाहर आ जाती।

यह मेरी आज की रिपोर्ट है। अब टीवी पर भरोसा कम होता जा रहा है। पहले टीवी सर्वशक्तिमान लगता था। अब कई माध्यमों में से एक लगता है। रिपोर्टिंग करना किसी झंझट से कम नहीं। कई कारणों से(जिसमें हम पत्रकारों का जायज़ आसमानी वेतन भी शामिल है)टीवी एक महंगा माध्यम है। दफ्तर जाओ,कैमरे की बुकिंग करो,शूट करो,फिर एडिट मशीन की बुकिंग करो,इन सबसे पहले मीटिंग में संपादक से स्टोरी पास कराओ। कई बार ये बोझ लगने लगता है। अब सिस्टम भी क्या करे। हर किसी के नीयत के हिसाब से तो नहीं चल सकता। सिस्टम सबको फ्री करे तो आधे लोग घर बैठ जायेंगे।

इसलिए ब्लैकबेरी लाजवाब है। बिना किसी से पूछे सस्ते में क्लिक करता हूं और ब्लॉग पर रिपोर्ट हाज़िर कर देता हूं। वैसे भी जो मैं कर रहा हूं,उसके लिए टीवी में जगह नहीं है। इन सब चीज़ों का न्यूज़ पेग नहीं होता। मगर शहर आंखों के सामने बदल रहा है तो कैसे छोड़ दूं। नतीजा यह है कि गाड़ी चलाना मुश्किल हो गया है। एक कदम चलता हूं,कार रोकता हूं और उतर कर क्लिक करने लगता हूं। मज़ा आता है। टीवी से दूर रहने का कोई अफसोस नहीं है। देखना और दिखाना मेरा जुनून है।

नीचे लगी इस तस्वीर को भी देखियेगा। रैली की शक्ल में इज़ीडे के प्रीपेड कार्यकर्ता जा रहे हैं। बजट के दूसरे दिन जब जनता प्रणब मुखर्जी के बजट की मार से कराह रही थी ये लोग जाने किस बजट के सहारे दाम करने का एलान कर रहे थे। ऐसा ही है तो साल भर रखो न सस्ता भाई। क्यों लूट रहे हो। पचास रुपये लूटते हैं। एक दिन दिल आता है तो कहते हैं आ जाओ आज पचीस ही लूटेंगे। पचीस डिस्काउंट देते हैं। गाज़ियाबाद के वैशाली से कस्बा के लिए रवीश कुमार। ये मेरा साइन ऑफ है।

मैं आ गया भोपाल से











भोपाल गया था। शहर को देखने का ज़्यादा वक्त तो नहीं मिला लेकिन जो दिखा ले आया हूं। हिन्दू समागम हो रहा है। मध्यप्रदेश एक फंसा हुआ राज्य लगा। लोग जागरूक हैं मगर प्रखर नहीं। हिन्दू समागम होने वाला है। संघ की तरफ से हिन्दू समरसता का ज्ञान दिया जाएगा। जल्दी ही आरएसएस को किसी महिला,किसी दलित और किसी मुस्लिम को भी प्रमुख बनाना चाहिए ताकि राष्ट्रीयता के उनके सिद्धांत का कोई समरसता वाला फ्रेमवर्क तैयार हो सके। इंग्लिश सीखाने वालों का आत्मविश्वास बढ़ता जा रहा है तो स्टेशन पर कतार की जगह क्यू ने जगह बना ली है। वहीं अद्धा और पव्वा का हिन्दी मिल गया है। बच्चा पेग। नब्बे एमएल यानी एक पेग से थोड़ा कम। सैलून की जगह अब पार्लर जनशब्द है। हैरी खुद को स्टार के रूप में देखता है। यह एक बेहतर सामाजिक अभिव्यक्ति लगी है जहां एक आम नाई भी अपने काम में इतना सम्मान व्यक्त करता है और खुद को एक स्थानीय स्टार के रूप में पेश करता है। आप हैरी की तस्वीर देख सकते हैं। क्लासिक पार्लर की दुकान में एक भी शब्द हिन्दी का नहीं है। अंग्रेज़ी को देवनागरी में देखकर अच्छा लगा। हवा पंचर कहीं नहीं देखा था सो दिख गया। फ्रैश होने की उत्तम व्यवस्था भोपाल के कुछ होटलों की खूबी लगी। दूसरी जगहों में भी होगी लेकिन यह एक देसी मार्केंटिंग शैली है। बड़े बड़े फाइव स्टार या थ्री स्टार ऐसी सुविधा नहीं देते। आदमी गया और फ्रैश होकर पचास सौ देकर बाहर गया। छोटे-मोटे होटल इस ज़रूरत को बेहतर समझते हैं।

ऐसा नहीं कि इतना ही दिखा भोपाल। बहुत कुछ दिखा जो इन तस्वीरों में नहीं हैं।माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के उत्साही छात्रों से मिलकर अच्छा लगा। अच्छा लगा कि अभी भी हिन्दी के पत्रकार समाज को बदलने की चाहत रखते हैं और नौकरी करते वक्त इस चाहत के धूल में मिल जाने को लेकर चिंतित भी रहते हैं। ये लड़ाई चलती रहे। उम्मीद है उन्हें बेहतर ट्रेनिंग मिल रही होगी और छात्र अपनी पढ़ाई गंभीरता से करते होंगे। ये बात इसलिए कह रहा हूं कि भारत में पत्रकारिता की पढ़ाई का विकास नहीं हुआ है। पश्चिम और अमरीका में पत्रकारिता की पढ़ाई अकादमी का रूप ले चुकी है। हिन्दुस्तान में इसे सिर्फ रोज़गार प्राप्त करने का साधन माना जाता है। विकास संवाद के आमंत्रण पर भोपाल गया था। बहुत लोगों से मिलने का अनुभव अच्छा रहा। स्टेट्समैन के पत्रकार शिवकरण सिंह का शोध प्रस्ताव पढ़ कर बहुत मज़ा आया। काफी गहराई और समझ। टीवी के स्टंटबाज़ और स्टार पत्रकारों की तरह नहीं बल्कि शिवकरण ने ज़मीन पर जाकर मुद्दों को नए नज़र से समझने के बाद अपना शोध प्रस्ताव लिखा था। इस वजह से यात्रा सार्थक रही।

लंदन की पढ़ाई आरा में


यह तस्वीर दीपक कुमार ने अपने मोबाइल फोन से ली है।

ट्विटर ऑन फायर, कार्लटन टावर का ट्विट प्रसारण

किसी घटना को देखते हुए दर्शक किस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करता है अब इसे उसी वक्त समझा जा सकता है। ट्विटर जैसी सोशल साइट्स की मदद से। बंगलोर के कार्लटन इमारत में आग लगी। इमारत में फंसे लोगों ने ट्विटर के ज़रिये अपने दोस्तों और दुनिया से संपर्क करना शुरू कर दिया। कई लोगों ने अपने ट्विट से इस ख़बर को दूसरे तक पहुंचाया। एसएमएस की उपयोगिता कम होती जा रही है। बंगलौर जैसे शहर में स्वाभाविक है कि बड़ी संख्या में लोग लैपटॉप पर ऑनलाइन होंगे। बात बात में मोबाइल उठाने वाली जनता अब उंगलियों का सहारा ले रही है। दस साल की मोबाइल क्रांति के बाद यह पहला मौका दिख रहा है जब संकट के वक्त मोबाइल का इस्तमाल कम हो रहा है। मोबाइल का इस्तमाल हो भी रहा है तो उस पर ऑनलाइन उपभोक्ता ट्विट कर रहा है। यानी मोबाइल की क्षमता या उपयोगिता इंटरनेट के कारण ही बनी हुई है। वैसे ट्विट या सोशल साइट्स के आने के बाद मोबाइल फोन के एक छत्र राज के दरकने या और विस्तृत होने का अध्ययन किया जाना चाहिए।

कार्लटन टावर में आग लगी है। ग्यारहवीं मंज़िल पर रोशन अपने दफ्तर में अकेले मौजूद हैं। इसकी सूचना वे ट्विट से दे रहे हैं। बता रहे हैं कि यह इमारत गंध है,आग से बच निकलने का रास्ता तक नहीं है। रौशन यह भी बताते हैं कि यह बंगलौर की पुरानी इमारतों में से एक है। हितेश जोशी बता रहे हैं कि कार्लटन टावर बंगलौर में है और इसमें आग लगी है। एचफैक्टर मनोज लिखते हैं कि कार्लटन टावर में आग लगी है। ओल्ट एयरपोर्ट रोड से न आएं। कुछ लोग ट्विटर पर हेल्प लाइन का नंबर भेज रहे हैं। निनादा लिखते हैं कि कई लोग फंसे हैं मगर अब आग पर काबू पा लिया गया है। कुछ लोग सिर्फ इतना ही लिखते हैं-बंगलौर फायर। कपिल लिखते हैं कि घबराने की ज़रूरत नहीं है। रणजीत का ट्विट है कि क्या कोई पुलिस को फोन करेगा।कृष्णास्वामी का ट्विट है कि मैं पुलिस से संपर्क नहीं कर पा रहा हूं। क्या कोई बंगलोर पुलिस को बतायेगा। यह साफ नहीं हो पा रहा है कि कृष्णास्वामी कार्लटन टावर में हैं या किसी और इमारत में। गणेशकेएन का ट्विट है कि डायमंड डिस्ट्रिक्ट के ठीक सामने की इमारत में आग लगी है। ट्रैफिक जाम हो गया है। इस रास्ते से बचिये। करोना का ट्विट है कि बुरा लग रहा है। मुझे पहले भी बुरा लगता था जिस तरह से कार्लटन टावर की देखरेख की जा रही थी, आग लगेगी इसकी कल्पना भी नहीं की थी। अमर का ट्विट है कि आग बुझाने की जो गाड़ी आई है उसमें पानी नहीं है। एक सज्जन ने ट्विट पर इमारत की तस्वीर भेजी है। लगता है यह तस्वीर सामने की किसी इमारत से ली गई है।

प्रहुलनायक का ट्विट है कि टेक्नॉलजी के इस्तमाल की हद हो गई, एक आदमी आग में फंसा हुआ है और ट्विट कर रहा है। शिल्पावीके भी लिखती हैं कि मैं हैरान हूं कि लोग इमारत में फंसे हैं और ट्विट का इस्तमाल कर रहे हैं। मर्सी लिख रही हैं कि मैं पास की इमारत में हूं और पांच एंबुलेंस पहुंच गए हैं। एक सज्जन ने लिखा है कि मैं अपने ऑफिस की टेरिस पर था। दूर इमारत से धुंआ निकलता देखा लेकिन समझ नहीं पाया कि कार्लटन इमारत में लगी आग का धुंआ उठ रहा है। एक ट्विट है कि टीवी चैनल वाले पगला गए हैं। एक औरत कूद रही है और उस तस्वीर को बार बार दिखा रहे हैं। दीपक मोदी लिखते हैं कि न्यूज चैनल वाले विचलित करने वाली तस्वीरें दिखा रहे हैं। इसकी इजाज़त नहीं होनी चाहिए।
एक घटना है। उस घटना में शामिल लोग हैं। उस घटना को देख रहे लोग हैं। उस घटना को रिपोर्ट कर रहे हैं लोग हैं। आप तमाम ट्विट में लोगों की प्रतिक्रियाओं को समझ सकते हैं। बातें किस तरह से फैल रही हैं। ट्विट किस तरह आदत में शुमार हो चुका है। एक सज्जन का ट्विट है कि उस इमारत में काम करने वाले एक लड़के का ट्विट है कि घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है। एनडीटीवी इंग्लिश चैनल पर एंकर इन ट्विट को अपनी ख़बर में शामिल करती हैं। कमेंट पढ़ती हैं और ट्विट की गई तस्वीरों को प्रसारित करती हैं। इससे पहले ऐसे मौके पर मोबाइल फोन से किसी फंसे व्यक्ति का फोनो चलने लगता था। अब उसका कमेंट चलता है।

तो क्या यह माना जाए कि टीवी सिर्फ खबर देने का काम करता है। उसके बाद उसकी खबर ट्विट जैसे माध्यमों से कई लोगों तक पहुंचती है। क्या जिनके पास ट्विट पहुंचता है वो टीवी ऑन करने की कोशिश करते हैं। लगता नहीं कि देखने की कोशिश करते हैं। जब उनके पास तस्वीर तक पहुंच रही है तो उनकी जिज्ञासा शांत भी हो रही है। इससे यह भी पता चलता है कि ख़बरों के फैलने का प्रभावशाली नेटवर्क क्या है। दर्शक रिपोर्टर बन कर खबर फैला रहा है। कुछ लोग मौके से ही रिपोर्टिंग कर रहे हैं। पहले भी यही होता था। कहीं दंगा हुआ तो लोग साइकिल लेकर इलाके के नजदीक तक जाते थे और लौट कर अपने मोहल्ले में वृतांत सुनाते थे। कुछ खबर होती थी,कुछ विश्लेषण और कुछ मिलावट। मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा हूं। पर यह दिलचस्प है कि आप किसी इमारत में हों, उसमें आग लगी हो और ट्विट कर रहे हों। मैं भी शायद यही करूंगा। तस्वीर लेकर फेसबुक पर मोबाइल अपलोड करूंगा।

ऊँ कंक्रीटाय नम, दिल्ली भयंकराय भव

दिल्ली की जान निकल रही है। सीमेंट कपार के ऊपर सरक रहा है। करनाल से आ रहा था। आजादपुर प्रवेश करते ही नीचे,मध्य और ऊपर सीमेंट के भीमकाय ढांचे भयभीत करने लगे। ऊपर से मेट्रो की लाइन,नीचे खूब गहराई में अंडरपास, और बगल से सड़क। देखकर जी घबराने लगा कि कहां आ गए हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स के बहाने दिल्ली फिर से बड़ी मात्रा में क्रंकीट हो रही है। जिस जगह को आप बरसो से देख रहे थे वो जगह पूरी तरीके से बदल दी गई है। माल रोड पर जाइये, मेट्रो स्टेशन की सजावट राहत देती है लेकिन जैसे ही मुखर्जीनगर की तरफ बढ़िये लगने लगता है कि इस शहर को फिर से देखने का मौका आ गया है। हर रास्ते बदल गए हैं। एक दो साल में दिल्ली कभी इस रफ्तार से नहीं बदली है।

पूरी दिल्ली में फ्लाईओवर किसी दैनिक भजन की तरह बज रहे हैं। उन पर गाड़ियां बजबजा रही हैं। मुनिरका,रोहिणी,आनंद विहार और अगर आप गांधीनगर से आईटीओ आ जाएं तो फ्लाईओवर महाकार रूप धारण करता है। कई रास्ते उड़ते हुए मिलने लगते हैं। दिमाग एक बार के लिए चकराता है,गाड़ी धीमी करता हूं कि दायें जाऊं कि बायें जाऊं। रास्ते के नक्शे को फिर से दिमाग में बिठाना पड़ रहा है। कभी कभी लगता है कि ये सारे विकास लोगों के खिलाफ हैं। ट्रैफिक जाम की समस्या दूर नहीं हुई लेकिन जगहों,चौराहों को लेकर एक खास किस्म की बेचैनी होने लगी है। डर लगता है कि रात में गए तो एक मामूली भूल आजादपुर की बजाय करोलबाग पहुंचा देगी।

अब यह अध्ययन करने का वक्त आ गया है कि मेट्रो के आने से दिल्ली के ट्रैफिक पर क्या असर पड़ा है। मुझे तो खास नहीं दिखता। पर आंकड़े जुटाने चाहिए कि मेट्रो के लिए कितने लोगों ने अपनी पांच लाख वाली फेरारी बेच दी। गाज़ीपुर आ जाइये। यहां भी भीमकाय फ्लाईओवर बन रहे हैं। कई दिशाओं से फ्लाईओवर आ कर मिलेंगे तो दिल्ली में घुसते ही कलेजा मुंह को आ जाएगा। यहां काम चल रहा है। लेकिन एक मामली बदलाव से अब लगता है कि फ्लाईओवर की ज़रूरत नहीं है। आप यूपी बार्डर से गाज़ीपुर आइये, सीधे चलते रहिए,बिना रेडलाइट के क्रास कर जायेंगे। चौराहे पर दायें मुड़ने की व्यवस्था खतम कर दी है। इसकी बजाय चौराहो से थोड़ी दूर आगे जाकर यू टर्न लेना पड़ता है। बस। लेकिन फ्लाईओवर तो बनेगा और इसका विरोध करेंगे तो आप विकास विरोधी हो जाएंगे।

ट्रैफिक जाम से मुक्ति एक ऐसा सपना है जो मैं रोज़ देखता हूं और फंसता हूं। इस ट्रैफिक जाम ने रेडियो एफएम का टाइम स्पेंट बढ़ा दिया है। उनका कारोबार चल निकला है। दिल्ली में ट्रैफिक जाम की वजह से ही एफएम रेडियो में इतनी बड़ी क्रांति आ गई है। इसकी वजह से महानगरों में टीआरपी का फर्जी मीटर प्राइम टाइम का टाइम अब दूसरा बता रहा है। सात या आठ बजे दर्शक कम होने लगे हैं। नौ से दस के बीच ज्यादा होते हैं। तब तक लोग कार में गाने सुन सुन कर पक चुके होते हैं। एफएम रेडियो कौन सी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं,उनके कंटेंट पर मीडिया के आलोचकों की नज़र नहीं है। मुझे तो हिन्दी न्यूज़ चैनल और एफएम रेडियो के कंटेंट में कोई फर्क नज़र नहीं आता। वहां भी जोकर हैं और यहां भी हैं। जाम से मुक्ति का मनोरंजन निर्बाध चल रहा है। एफएम रेडिया ट्रैफिक अपडेट देता है। जाम जैसी समस्या को मनोरंजन में बदलकर शहरी नागरिक चेतना को कुंद करता है। तभी इस दिल्ली में लाखों लोगों के हर घंटे जाम में फंसे होने के बाद भी शहर के निर्माण, ट्रैफिक बदलाव को लेकर कोई व्यापक नागरिक जनमत नहीं बन पाता है। इसके लिए आप एफएम रेडियो को दोष तो नहीं दे सकते लेकिन जब वो भी मीडिया हैं तो उनसे उम्मीद क्यों नहीं।

इस बदलती दिल्ली में आम आदमी कहां हैं। शनिवार को सीएसडीएस की लाइब्रेरी में एक सभा हुई। रवि सुंदरम, नारायणी गुप्ता,गौतम भान आदि जमा हुए। ये सब दिल्ली के इतिहास,वर्तमान और भविष्य को लेकर काम करने वाले लोग हैं। सब आज की दिल्ली को आम लोगों के खिलाफ मानते हैं। आज की दिल्ली में आम लोगों की सक्रिय भागीदारी चाहते हैं। उनके कई सवाल हैं। पार्कों में ताले जड़े जा रहे हैं,कालोनियों के गेट खास तरह के लोगों को बाहर करते हैं,फुटपाथ है नहीं। इन सब दैनिक समस्याओं के अलावा इनकी मूल चिन्ता है कि क्या दिल्ली की कोई योजना है और है तो उसे लागू करने में किस तरह की बातों का ध्यान रखा जा रहा है। दिल्ली को लेकर नागरिक चेतना क्यों नहीं बन पा रही है और कैसे बनेगी।

इन विद्वानों को लगता है कि अब वक्त आ गया है कि दिल्ली को लेकर सोचने वाले लोग एक मंच पर आएं और आवाज़ उठायें। नीति निर्धारक तत्वों को बतायें कि शहर को भयावह नहीं बनने देंगे। विकास का ढोल बजाइये लेकिन इतना ज़ोर से मत बजा दीजिए कि कान ही फट जाए। आप चाहें तो delhiurbanplatform.org पर जाकर इस अभियान से जुड़ सकते हैं।

लेकिन इतना तय है कि फ्लाईओवर इस देश के विकास का नया और सर्वमान्य चेहरा बन गया है। कई साल पहले दिनेश मोहन ने कहा था कि फ्लाईओवर एक नाकामी का प्रतीक है। तब मुझे लगा था कि बकवास कर रहे हैं। आज जब आश्रम पर बने तीन तीन फ्लाईओवरों के बाद भी घंटों जाम में फंसता हूं तो लगता है कि विद्वान ने बात ठीक कही थी। वही हाल बीआरटी का है। लेकिन ये कल्पना तो दिनेश मोहन की ही है। यह उदाहरण इसलिए ताकि पता चले कि हमारे विद्वान भी कोई सम्यक नज़रिया सामने नहीं ला पा रहे हैं। शायद इसलिए दिल्ली अर्बन प्लेटफार्म की पहली बैठक में अलग अलग लोगों को बोलने का मौका मिला। कई तरह के सवाल उठाये गए जो एक शहर को समझने के लिए सहायक साबित हो रहे थे। आप अगर फ्लाईओवर के दुष्प्रभाव को देखना चाहते हैं तो आश्रम और मूलचंद के बीच दोनों तरफ के मकानों को देख लीजिए। कभी वहां किसी ने खुला देखकर घर बनाया होगा। आज उनकी बालकनी के सामने से फ्लाईओवर गुज़र रहा है। नतीजा सारे घर स्टोर,दुकान,बैंक,अस्पताल में बदल गए हैं। रिंग रोड के इस हिस्से के घर दुकान हो गए हैं। कामनवेल्थ गेम्स के बाद बने फ्लाईओवरों का प्रभाव एक बार फिर दिल्ली पर दिखेगा।

अगले साल दिल्ली औपनिवेशिक,आधुनिक और आजा़द भारत की राजधानी के रूप में सौ साल की हो जाएगी। १२ दिसंबर १९११ को राजधानी कोलकाता से दिल्ली आ गई थी। फिर से एक मौका आ रहा है,दिल्ली को नए नज़र से देखने का। रिपोर्ट करने का और दिल्ली के इतिहास और वर्तमान को समझने का। अखबार से लेकर मैगज़िन तक दिल्ली के कार्यक्रमों से भर जायेंगे। टीवी वाले भी बौरायेंगे। मैं भी कुछ हाथ आज़मा लूंगा। आइडिया लीक कर दे रहा हूं ताकि लोग आज से ही पढ़ना शुरू कर दें। गोबर हमारे समय का बड़ा आइडिया है। मेरी ही कविता है। इसी ब्लॉग पर। जल्दी ही टीवी वाले दिल्ली के इतिहास को कच्चे पक्के ढंग से टीवी पर दिल्ली को गोबर की तरह पाथ देंगे। साथ ही ब्लॉग पर दिल्ली से संबंधित कई किताबों का ज़िक्र करूंगा। उन लोगों से बात करूंगा जो दिल्ली को ठीक से जानते हैं। लेकिन आप भी ज़रा बताइये, क्या आप भी भयभीत होते हैं आज की इस दिल्ली को देखकर। शीर्षक में मेरे द्वारा उत्पादित इस मंत्र का जाप करें। ये मंत्र प्राचीन है सिर्फ रचनाकार वर्तमान का है।

बाबा नाम केवलम









कुंभ के दौरान बाबाओं का स्टारडम देखने को मिलता है। सब किसी अदृश्य शक्ति से लैस फ्लैक्स के बोर्ड पर अवतरित हुए पड़े हैं। किसी को ग्लोबल वार्मिंग का ख़तरा सता रहा है तो कोई हिन्दू धर्म को लेकर टेंशन में हैं। एक बाबा का आशीर्वाद ही मिल जाए तो समझ लीजिए कि लाइफ धन्य हो चुका। एक बाबा तो कंदराओं में कैमरा लेकर जाते हैं और तपस्वी साधुओं के साथ क्लिक कराना नहीं भूलते। पता नहीं किस घड़ी में सहारनपुरवाले बाबा ने अपना नाम जहर रख लिया है। एक बाबा नो तो खुद को नेशनल लेवल का घोषित कर रखा है। बाबाओं की होर्डिंग देखने और पढ़ने लायक हैं। उनके पोज देखिये। चेहरे पर तेज बनाने की कोशिश की जाती है।

अब मत कहना कि ख़ान का मतलब...मुसलमान...

माय नेम इज़ ख़ान हिन्दी की पहली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म है। हिन्दुस्तान, इराक, अफग़ानिस्तान, जार्जिया का तूफ़ान और अमरीका के राष्ट्रपति का चुनाव। कई मुल्कों, कई कथाओं के बीच मुस्लिम आत्मविश्वास और यकीन की नई कहानी है। पहचान के सवालों से टकराती यह फिल्म अपने संदर्भ और समाज के भीतर से ही जवाब ढूंढती है। किसी किस्म का विद्रोह नहीं है,उलाहना नहीं है बल्कि एक जगह से रिश्ता टूटता है तो उसी समय और उसी मुल्क के दूसरे हिस्से में एक नया रिश्ता बनता है। विश्वास कभी कमज़ोर नहीं होता। ऐसी कहानी शाहरूख जैसा कद्दावर स्टार ही कह सकता था। पात्र से सहानुभूति बनी रहे इसलिए वो एक किस्म की बीमारी का शिकार बना है। मकसद है खुद बीमार बन कर समाज की बीमारी से लड़ना।

मुझे किसी मुस्लिम पात्र और नायक के इस यकीन और आत्मविश्वास का कई सालों से इंतज़ार था। राम मंदिर जैसे राष्ट्रीय सांप्रदायिक आंदोलन के बहाने हिन्दुस्तान में मुस्लिम पहचान पर जब प्रहार किया गया और मुस्लिम तुष्टीकरण के बहाने सभी दलों ने उन्हें छोड़ दिया,तब से हिन्दुस्तान का मुसलमान अपने आत्मविश्वास का रास्ता ढूंढने में जुट गया। अपनी रिपोर्टिंग और स्पेशल रिपोर्ट के दौरान मेरठ, देवबंद,अलीगढ़,मुंबई,दिल्ली और गुजरात के मुसलमानों की ऐसी बहुत सी कथा देखी और लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की। जिसमें मुसलमान तुष्टीकरण और मदरसे के आधुनिकीकरण जैसे फालतू के विवादों से अलग होकर समय के हिसाब से ढलने लगा और आने वाले समय का सामना करने की तैयारी में शामिल हो गया। तभी रिज़वान ख़ान पूरी फ‍िल्म में नुक़्ते के साथ ख़ान बोलने पर ज़ोर देता है। बताने के लिए पूर्वाग्रही लोग मुसलमानों के बारे में कितना कम जानते हैं।

मुझे आज भी वो दृश्य नहीं भूलता। अहमदाबाद के पास मेहसाणां में अमेरिका के देत्राएत से आए करोड़पति डॉक्टर नकादर। टक्सिडो सूट में। एक खूबसूरत बुज़ूर्ग मुसलमान। गांव में करोड़ों रुपये का स्कूल बना दिया। मुस्लिम बच्चों के लिए। लेकिन पढ़ाने वाले सभी मज़हब के शिक्षक लिए गए। नकादर ने कहा था कि मैं मुसलमानों की एक ऐसी पीढ़ी बनाना चाहता हूं जो पहचान पर उठने वाले सवालों के दौर में खुद आंख से आंख मिलाकर दूसरे समाजों से बात कर सकें। किसी और को ज़रिया न बनाए। इसके लिए उनके स्कूल के मुस्लिम बच्चे हर सोमवार को हिन्दू इलाके में सफाई का काम करते हैं। ऐसा इसलिए कि शुरू से ही उनका विश्वास बना रहे। कोशिश होती है कि हर मुस्लिम छात्र का एक दोस्त हिन्दू हो। स्कूल में हिन्दू छात्रों को भी पढ़ने की इजाज़त है।

नकादर साहब से कारण पूछा था। जवाब मिला कि कब तक हमारी वकालत दूसरे करेंगे। कब तक हम कांग्रेस या किसी सेकुलर के भरोसे अपनी बेगुनाही का सबूत देंगे। आज गुजरात में कांग्रेस हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियों के भय से मुसलमानों को टिकट नहीं देती है। हम किसी को अपनी बेगुनाही का सबूत नहीं देना चाहते। हम चाहते हैं कि मुस्लिम पीढ़ी दूसरे समाज से अपने स्तर पर रिश्ते बनाए और उसे खुद संभाले। बीते कुछ सालों की यह मेरी प्रिय सत्य कथाओं में से एक है। लेकिन ऐसी बहुत सी कहानियों से गुज़रता चला गया जहां मुस्लिम समाज के लोग तालीम को बढ़ावा देने के लिए तमाम कोशिशें करते नज़र आए। उन्होंने मोदी के गुजरात में किसी कांग्रेस का इंतज़ार छोड़ दिया। मुस्लिम बच्चों के लिए स्कूल बनाने लगे।रोना छोड़कर आने वाले कल की हंसी के लिए जुट गए।

माइ नेम इज खान में मुझे नकादर और ऐसे तमाम लोगों की कोशिशें कामयाब होती नज़र आईं, जो आत्मविश्वास से भरा मुस्लिम मध्यमवर्ग ढूंढ रहे थे। फिल्म देखते वक्त समझ में आया कि इस कथा को पर्दे पर आने में इतना वक्त क्यों लगा। खुदा के लिए,आमिर और वेडनेसडे आकर चली गईं। इसके बाद भी ये फिल्म क्यों आई। ये तीनों फिल्में इंतकाम और सफाई की बुनियाद पर बनी हैं। इन फिल्मों के भीतर आतंकवाद के दौर में पहचान के सवालों से जूझ रहे मुसलमानों की झिझक,खीझ और बेचैनी थी। माइ नेम इज ख़ान में ये तीनों नहीं हैं। शाहरूख़ ख़ान आज के मुसलमानों के आत्मविश्वास का प्रतीक है। उसका किरदार रिज़वान ख़ान सफाई नहीं देता। पलटकर सवाल करता है। आंख में आंख डालकर और उंगलियां दिखाकर पूछता है। इसलिए यह फिल्म पिछले बीस सालों में पहचान के सवाल को लेकर बनी हिन्दी फिल्मों में काफी बड़ी है। अंग्रेज़ी में भी शायद ऐसी फिल्म नहीं बनी होगी। इस फिल्म में मुसलमानों के अल्पसंख्यक होने की लाचारी भी नहीं है और न हीं उनकी पहचान को चुनौती देने वाले नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं की मौजूदगी है। यह फिल्म दुनिया के स्तर पर और दुनिया के किरदार-कथाओं से बनती है। हिन्दुस्तान की ज़मीं पर दंगे की घटना को जल्दी में छू कर गुज़र जाती है। यह बताने के लिए कि मुसलमान हिन्दुस्तान में जूझ तो रहा ही है लेकिन वो अब उन जगहों में भेद भाव को लेकर बेचैन है जिनसे वो अपने मध्यमवर्गीय सपनों को साकार करने की उम्मीद पालता है। अमेरिका से भी नफरत नहीं करती है यह फिल्म।

माय नेम इज़ ख़ान की कथा में सिर्फ मुस्लिम हाशिये पर नहीं है। यह कथा सिर्फ मुसलमानों की नहीं है। इसलिए इसमें एक सरदार रिपोर्टंर बॉबी आहूजा है। इसलिए इसमें मोटल का मालिक गुजराती है। इसलिए इसमें जार्जिया के ब्लैक हैं। अमेरिका में आए तूफानों में मदद करने वाले ब्लैक को भूल गए। लेकिन माइ नेम इज़ ख़ान का यह किरदार किसी इत्तफाक से जार्जिया नहीं पहुंचता। जब बहुसंख्यक समाज उसे ठुकराता है,उससे सवाल करता है तो वो बेचैनी में अमेरिका के हाशिये के समाज से जाकर जुड़ता है। तूफान के वक्त रिज़वान उनकी मदद करता है। उसके पीछे बहुत सारे लोग मदद लेकर पहुंचते हैं। फिल्म की कहानी अमेरिका के समाज के अंतर्विरोध और त्रासदी को उभारती है और चुपचाप बताती है कि हाशिये का दर्द हाशिये वाला ही समझता है।

इराक जंग में मंदिरा के अमेरिकी दोस्त की मौत हो जाती है। उसका बेटा मुसलमानों को कसूरवार मानता है। उसकी व्यक्तिगत त्रासदी उस सामूहिक पूर्वाग्रह में पनाह मांगती है जो एक दिन अपने दोस्त समीर की जान ले बैठती है। इधर व्यक्तिगत त्रासदी के बाद भी रिज़वान कट्टरपंथियों के हाथ नहीं खेलता। मस्जिद में हज़रत इब्राहिम का प्रसंग काफी रोचक है। यह उन कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए है जो यथार्थ के किसी अन्याय के बहाने आतंकवाद के समर्थन में दलीलें पेश करते हैं। रिज़वान उन्हें पकड़वाने की कोशिश करता है। वो कुरआन शरीफ से हराता है फिर एफबीआई की मदद मांगता है। घटना और किरदार अमेरिका के हैं लेकिन असर हिन्दुस्तान के दर्शकों में हो रहा था।

जार्ज बुश और बराक हुसैन ओबामा के बीच के समय की कहानी है। ओबामा मंच पर आते हैं और नई उम्मीद का संदेश देते हैं। यहीं पर फिल्म अमेरिका का प्रोपेगैंडा करती नज़र आती है। मेरी नज़र से इस फिल्म का यही एक कमज़ोर क्षण है। बराक हुसैन ओबामा रिज़वान से मिल लेते हैं। वैसे ही जैसे काहिरा में जाकर अस्सलाम वलैकुम बोलकर दिल जीतने की कोशिश करते हैं लेकिन पाकिस्तान और अफगानिस्तान पर उनकी कोई साफ नीति नहीं बन पाती। याद कीजिए ओबामा के हाल के भाषण को जिसमें वो युद्ध को न्यायसंगत बताते हैं और कहते हैं कि मैं गांधी का अनुयायी हूं लेकिन गांधी नहीं बन सकता।


इसके बाद भी यह हमारे समय की एक बड़ी फिल्म है। हॉल में दर्शकों को रोते देखा तो उनकी आंखों से संघ परिवार और सांप्रदायिक दलों की सोच को बहते हुए भी देखा। जो सालों तक हिन्दू मुस्लिम का खेल खेलते रहे। मुंबई में इसकी आखिरी लड़ाई लड़ी गई। कम से कम आज तक तो यही लगता है। एक फिल्म से दुनिया नहीं बदल जाती है। लेकिन एक नज़ीर तो बनती ही है। जब भी ऐसे सवाल उठाये जायेंगे कोई कऱण जौहर,कोई शाहरूख के पास मौका होगा एक और माइ नेम इज़ ख़ान बनाने का। फिल्म देखने के बाद समझ में आया कि क्यों शाहरूख़ ख़ान ने शिवसेना के आगे घुटने नहीं टेके। अगर शाहरूख़ माफी मांग लेते तो फिल्म की कहानी हार जाती है। ऐसा करके शाहरूख खुद ही फिल्म की कहानी का गला घोंट देते।
शाहरूख़ ऐसा कर भी नहीं सकते थे। उनकी अपनी निजी ज़िंदगी भी तो इस फिल्म की कहानी का हिस्सा है। हिन्दुस्तान में तैयार हो रही नई मध्यमवर्गीय मुस्लिम पीढ़ी की आवाज़ बनने के लिए शाहरूख़ का शुक्रिया।

जुनून बसता है मेरी आंखों में...सुकून कहीं और है





जूनून बसता है मेरी आंखों में...सुकून कहीं और है...क्या करूं देखते रहने की बेचैनी ने नींदें उड़ा दी हैं। हर तरफ,हर चीज़ देखने लेने का पागलपन। शहर-दर-शहर तस्वीरों,नारों,वाक्यों और रंगों में जन के मानस का चेहरा बनाता रहता हूं। उप-संपादक मुक्त,बिना सलीम-जावेद के,बिना प्रसून जोशी के,हर समय कोई न कोई रच रहा है। लुभा लेने के लिए, आपको बुला लेने के लिए,पक्का,एक दाम,असली और नकली के मर्म को भेदती हुईं ये पंक्तियां जब मुझे किसी होर्डिंग पर लटकी मिलती हैं तो तस्वीरों में उतार लेने का जुनून सवार हो जाता है। वैसे ही जैसे कोई बच्चा आम के बाग को देखते ही ढेला चलाने लगता है। जब तक आम नहीं टपकता तब तक उसके निशाने पर सारे आम होते हैं। कभी-कभी लगता है कि अख़बारों, टीवी और विज्ञापनों की दुनिया में बचे-खुचे लोग आते हैं। जबकि इनसे दूर सारे प्रतिभाशाली अपनी नैसर्गिक क्षमताओं का खुलेआम इज़हार कर रहे होते हैं। अनाम। कब तक क्लिक करता रहूं, कब तक ढूंढता चलूं,खुद को बयां कर देने की इस फितरत की तलाश में। कैमरा ऑन होने से पहले आंखों का फ्लैश चमक जाता है। दोस्तों, मैं भारत में आई फ्लैक्स क्रांति को यूं नहीं गुज़रने दूंगा। दर्ज करूंगा। एक फालतू इतिहासकार के रूप में ही सही।

ब्राकिंग न्यूज़- टीवी का संसार है सुनेत्रा की किताब

सुनेत्रा चौधरी NDTV 24x7 इंग्लिश न्यूज़ चैनल की जुझारू रिपोर्टर हैं। सुनेत्रा का पदनाम कुछ और होगा लेकिन मेरी नज़र में उनकी पहचान एक रिपोर्टर की ही है। वे ख़ूबसूरत भी हैं। जानबूझ कर खूबसूरत कहा। हिन्दी पत्रकारिता की गलियों से सुनेत्रा के बारे में भी आवाज़ आती रहती है। मर्द प्रधान हिन्दी पत्रकारिता में किसी का सुनेत्रा चौधरी होना सहज रूप से समझा जा सकता है। ये और बात है कि गिनाने के लिए हिन्दी टीवी पत्रकारिता में भी महिलाओं ने कामयाबी के परचम लहराये हैं जैसे वैदिक काल में महिलाओं की महानता बताने के लिए गार्गी और मैत्रेयी का नाम लिया जाता है। NDTV 24X7 में न जाने कितनी गार्गियां और मैत्रेइयां भरी पड़ी हैं।

सुनेत्रा उन्हीं में से एक सामान्य शख्सियत हैं और बेहतरीन रिपोर्टर। कभी कभी इंग्लिश की गलियों में भी उन्हें ग्लैम कह दिया जाता है। सुनेत्रा जब भी दफ्तर आती हैं मुस्कुराती हुई आती हैं। कितनी भी मुश्किल रिपोर्टिंग से लौट रही हों अपने साथ मुस्कान लाना नहीं भूलतीं। मुस्कान इस बात का प्रमाण है कि सुनेत्रा को अपना काम बहुत अच्छा लगता है। मेरा उनसे हाय-हलो से ज़्यादा का रिश्ता नहीं है लेकिन काम के प्रति उनकी ईमानदारी अच्छी लगती है। वर्ना कोई सातवें आठवें महीने की गर्भ से होने के बाद भी हाथ में माइक लेकर वो दिल्ली की सड़कों पर भाग नहीं रही होतीं। मैंने अपने हिन्दी चैनल में ऐसा दृश्य नहीं देखा है। पूरे दिन रिपोर्टिंग करने के बाद जब सुनेत्रा शाम को मेकअप लगाकर एंकरिंग की तैयारी कर रही होती हैं तो कई बार यकीन करना ही पड़ता है कि इस लड़की की जान पत्रकारिता में बसती है।

इतनी भूमिका इसलिए बांधी कि सुनेत्रा की अंग्रेजी में किताब आ रही है। पहली किताब है। ब्रेकिंग न्यूज़। नाम से आपको लगा होगा कि हिन्दी पत्रकारिता के फटीचर काल जैसी कोई बहस होगी। नहीं ऐसा नहीं है। ये किताब है एक लड़की के रिपोर्टर बनने के ख्वाब और उसे साकार करने के जद्दोज़हद की। एक झलक आप भी देख सकते हैं-

In ten minutes, the Editor called: ‘What is it, Sunetra? What is it? Are you homesick?’

I must have been crazy because I actually thought that he felt sorry for me and sympathetic towards my condition. I sniffed a teary, ‘Yes.’

‘Then you fucking come back to Delhi and fucking stay in the air-conditioned office! Homesick, Homesick!’ he thundered, going ballistic, shouting me out of my self-pity.

I’d ended up staying for a fortnight longer and no, the floods never came, and no, I never cried again.


आसान प्रवाह में लिखने वाली सुनेत्रा ने अपने अनुभवों को बेहतरीन किस्से में बदला है। सारी घटनाएं सच्ची हैं और सारे किरदार असली। प्रणय रॉय,बरखा दत्त,सोनिया वर्मा सिंह,राजदीप सरदेसाई। बतौर रिपोर्टर सुनेत्रा को जब पिछले लोकसभा चुनाव में दो महीने की निरंतर बस यात्रा के लिए कहा गया तो भारत के चुनावी कवरेज के इतिहास में दर्ज करने लायक कई बातें थीं। इस बस यात्रा के लिए किसी पुरुष रिपोर्टर को नहीं चुना गया। सुनेत्रा चौधरी और नग़मा सहर। बस इसी घटना को सुनेत्रा ने एक रिपोर्टर के इस मुश्किल सफर से गुज़रने की दास्तान में बदल दिया।

आप देख सकेंगे कि कैसे सुनेत्रा ने बिना अपने पति से पूछे दो महीने की चुनावी यात्रा के लिए हामी भर दी। लिखती हैं कि रिपोर्टर के पास ना कहने का विकल्प नहीं होता। इस प्रसंग को कई एंगल से पढ़ा जा सकता है। इसके इर्द गिर्द रची जाने वाली आपसी प्रतिस्पर्धायें, पारिवारिक तनाव, कुछ करने की इच्छा सब है। सुनेत्रा का एक प्रसंग लाजवाब है। नाइट शिफ्ट करने के बाद घर लौट रही थीं तभी फोन आया कि ऊना जाना है। वहां दो दिन गुज़ारने के बाद किसी और ठिकाने की तरफ जाने का आदेश आता है। सुनेत्रा कहती हैं कि उनके पास दो दिन के ही कपड़े थे और जिस लहज़े में संपादक की डांट उनके कानों में उतरती है, वो इस पेशे की चुनौतियों के कई रंगों को ज़ाहिर कर देता है। उस डांट को पेशेवर सहजता से स्वीकार करती हुई सुनेत्रा चौधरी ने तभी तय कर लिया कि कभी ना नहीं कहना है। बीच एंकरिंग में अपने पति सुदीप को संदेश भेजती हैं कि मैंने हां हां और हां कहा है। सुदीप के पास भी हां कहने का चारा नहीं बचता है। उसके बाद शुरू होता है बस यात्रा की चुनौतियों का वृतांत।


पूरी किताब किसी फिल्म की कहानी की तरह आंखों में उतरती है। आप कई चीज़ों को पढ़ सकते हैं। कैसे इतना बड़ा फैसला होता है और इस फैसले में तीन औरतें होती हैं। हिन्दी पत्रकारिता में आपने ऐसा मंज़र कब देखा है। सुनेत्रा काफी साहसिक शब्दों का इस्तमाल करती हैं। आप हैरान हो जाएंगे। हिन्दी पत्रकारिता में बहस चल पड़ेगी कि कोई अपने संपादक के बारे में ऐसे कैसे लिख सकता है। शायद नौकरी भी चली जाए। लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि जब सुनेत्रा की किताब आएगी तो बरखा और सोनिया भी होंगी। आप पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि जब महिला संपादक होती हैं तो मर्द रिपोर्टरों पर क्या गुज़रती है। सामंती और वर्गीय सोच कैसे दरकती है। बॉल ब्रेकर्स। सुनेत्रा कहती हैं कि मर्द रिपोर्टर महिला संपादकों से जब खौफ खाते हैं तो इन लफ्ज़ों में अपने भय को बयां करते हैं।

एनडीटीवी के इंग्लिश चैनल का इसी खूबी के कारण मैं मुरीद रहा हूं। कुछ लोग इसे मेरी किसी अनजान और अनाम कुंठा से जोड़ देते हैं ताकि वो खुद को साबित कर सके कि वे इस दुनिया में कुंठा फ्री और महान पैदा हुए हैं। लेकिन जब भी मैं इंग्लिश चैनल में तमाम पदों पर लड़कियों को फैसले लेते देखता हूं, सहजता और सख्ती से तो लगता है कि हिन्दी में भी मुमकिन होना चाहिए। इंग्लिश चैनल की इन लड़कियों ने किसी डायवर्सिटी प्लान के तहत अपना मुकान नहीं तय किया है बल्कि छीन कर लिया है। पिछले पंद्रह साल से इस कंपनी में हूं। एक दीवार की तरह यह हिन्दी वाला तमाम सरगोशियों का साक्षी रहा है। इतनी बड़ी मात्रा में महिला संपादक किसी भी अखबार या चैनल में नहीं हैं। आप चाहें तो इन्हें ग्लैम, बेब्स, सेक्सी, स्वीटी कह लीजिए लेकिन इन्हीं लड़कियों ने मिलकर और सिर्फ अपनी सलाहियत के दम पर एक स्तरीय चैनल बनाया है। लेकिन एक के पास भी ये हुनर नहीं है कि वे टीआरपी लाने का दंभ भर दें। पत्रकारिता के गलीज़ होने के समय में इन लड़कियों ने एक चैनल को तो बचाया ही है। अपने सौंदर्य रस से नहीं,बल्कि सिर्फ मेहनत से। मैं मर्दों के योगदान को कम नहीं कर रहा लेकिन इन लड़कियों के योगदान से तो कम ही है।


पहले दो चैप्टर पढ़ने के बाद ही लगा कि यह किताब पढ़ने लायक है। सुनेत्रा के वृतांतों के ज़रिये आप एक न्यूज़ चैनल के भीतर की सामाजिकता को ठीक तरीके से देख सकेंगे। सभी देख सकते हैं और अपने अनुभवों को जोड़ कर भी देख सकते हैं। खासकर उन लडकियों के लिए जो हिन्दी के सामंती परिवेश में भयंकर किस्म के सामंती जातिवादी टाइटलों से लैस संपादकों के नीचे पनपने का ख़्वाब देखती हों। ऐसी बात नहीं है कि हिन्दी के परिवेश में लड़कियां नहीं हैं लेकिन किस चैनल की कोई प्रमुख लड़की है ज़रा बता दीजिएगा। सुनेत्रा की किताब का नाम है ब्राकिंग न्यूज़। ब्रेकिंग न्यूज़ का अपभ्रंश किया गया है। कैसी है ये फैसला आपका होगा तो अच्छा रहेगा। अगले महीने आने वाली है। हैचेट प्रकाशन से।

डिवाइन दुकान और आपसे चंद सवाल




होर्डिंग के ज़रिये अभिव्यक्ति की शैली को समझना एक दिलचस्प सामाजिक अध्ययन है। अपने उत्पादों को घटोत्कची फॉन्ट और रंगीन फ्लैक्स पटल पर अभिव्यक्त करती हुईं दुकानें हिन्दुस्तान के कोने कोने में मिल जायेंगी। आपको पता चल जाए और याद रह जाए इसके चक्कर में कई सारे प्रयोग हो रहे हैं। ध्यानाकर्षण प्रस्ताव हर तरफ नज़र आता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि फ्लैक्स बोर्ड की चमक और हिन्दी न्यूज़ चैनलों के सुपर टिकर काफी मिलते जुलते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम संवाद और संचार के इन्हीं भड़कदार अभिव्यक्तियों के अभ्यस्त रहे हैं। आप सबकी राय चाहिए। ऐसा क्यों हैं कि बावासीर का विज्ञापन और डिवाइन दुकानदारी का यह बोर्ड अलग नहीं लगता। जितना मेरा अनुभव है उसके आधार पर कहने का मन करता है कि पूरे हिन्दुस्तान में फ्लैक्स अभिव्यक्ति की क्रांति हो चुकी है। किसी को बधाई देनी हो या सूचना देनी हो तो बोर्ड बनवा कर टांग देता है। मगर इसमें एक खास किस्म का पैटर्न नज़र आता है। उसी पैटर्न को समझने के लिए मैं तस्वीरें खींचता रहता हूं। बहुत कुछ आपने इस ब्लॉग पर देखी भी होंगी। फ्लैक्स अभिव्यक्ति समानार्थी है। भाषा-बोली में बदलकर भी फॉर्म यानी स्वरूप में बदलाव नहीं दिखता।


क्या हम लाउड किस्म की बोलचाल शैली वाले समाज में रहते हैं जहां ज्यादातर लोग इस तरह के संकेतों को पढते और समझते हैं। कुछ लोगों को छोड़ दीजिए तो अभिव्यक्ति में शालीनता या एस्थेटिक की जगह कम है। कम से कम हमारे समाज में। मैं बस हिन्दुस्तान की कथा-शैली को समझने और आपसे जानने की कोशिश कर रहा हूं। प्रवचनों में भी गया। माहौल आध्यात्म का है लेकिन संत हाई पिच पर कुछ बोल रहा है। अचानक आवाज़ नीचे आती है और फिर वो मूल कथा को छोड़ हरि बोल हरि बोल करने लगता है। एक मिनट में ही हरि बोल जनता के बीच नारों में बदल जाता है। संत कथा जारी रखता है और किसी एक वाक्य को ऊंचाई पर ले जाकर छोड़ देता है,जैसे ही वाचक उस वाक्य को छोड़ता है ठीक उसी जगह पर भजन संगीत चालू हो जाता है। बोर होने की गुज़ाइश नहीं छोड़ी जाती। रामायण अपने टेक्स्ट से लोकप्रिया हुआ या रामलीला की नाटकीय शैली से? कई घरों में सुंदरकाण्ड के पाठ के समय गया। पूजा का माहौल है। एक चौपाई शांति से तो अगली चौपाई बिल्कुल अलग नाटकीय शैली में पढ़ी जा रही है। अचानक ढोल मंजीरा बजने लगता है। लोक गीतों में भी हाई पिच ज्यादा देखा है। कहीं ऐसा तो नहीं हिन्दी न्यूज चैनलों ने बोलने सुनने की इन शैलियों को समझा है। जिसे हममें से कई लोग पसंद नहीं करते। घटिया कहने लगते हैं। आखिर लोगों ने ऊंची आवाज़ में बल्कि चीख चीख कर बोली जाने वाली खबरों को कभी सुनना बंद तो नहीं किया। जानते हुए कि ये खबर नहीं है,वो क्यों देख रहे हैं। आशाराम बापू और किसी हिन्दी न्यूज़ चैनल की बोल-चाल या प्रस्तुति शैली में बहुत फर्क क्यों नहीं है?

मैं अपनी बात सवाल के रूप में रख रहा हूं। हिन्दी और अंग्रेजी की बोल चाल शैली के पिच में फर्क क्यों होता है। क्यों टाइम्स नाउ कभी कभी हिन्दी चैनलों की तरह बोलता हुआ लगता है। क्यों लोग एनडीटीवी इंडिया के बारे में कहते हैं कि सुस्त लगता है। एनर्जी नहीं है। हमारी बोलचाल की शैली में सौम्यता अपवाद क्यों हैं? एक मिसाल दूरदर्शनल और रेडियो का भी है। पसंदीदा रेडियो चैनल ऑल इंडिया रेडियो में बोलचाल की शैली सामान्य और शांत है। वाक्य विन्यासों को संतुलित आवाज़ में पेश किया जाता है। लेकिन बाकी प्राइवेट एफएम को देखें तो एक किस्म की चीख है। उत्तेजना है। भाएं-भुईं हैं। मैं पिछले कई महीनों से इन विषयों के अध्य्यन में लगा हुआ हूं। टीवी अब न के बराबर देखता हूं। छह महीने में कुछ एक घंटा भी टीवी नहीं देखा होगा। मेरी एंकरिंग को इसमें शामिल न करें तो कुल मिलाकर यही अनुपात है। लेकिन जो लोग देख रहे हैं उन्हें ऐसे ही खारिज नहीं कर सकते। उन्हें समझना तो पड़ेगा ही, जानना तो पड़ेगा। आखिर क्या वजह थी कि एक एमएनसी में काम करने वाला लगभग साल के अस्सी लाख रूपये कमाने वाला शख्स पूरी तन्मयता के साथ दुनिया के खत्म हो जाने का कार्यक्रम देख रहा था। उसने कहा कि कितना रोचक है। आखिर क्या वजह है कि एक सुपारी काटने वाली महिला ने कह दिया कि आप से क्यों बात करें? आपके हिसाब से तो दुनिया अगले साल खतम हो जाएगी,फिर इंटरभू काहे लेने आए हो।

तमाम तरह की प्रतिक्रियाओं के बीच प्रस्तुति के संकट को समझने की कोशिश इन्हीं सब गलियों में क्यों भटक जाती है। लाल,पीला,हरा और नीला रंग। सफेद के बीच नीला। मोतियाबिंद दर्शकों के लिए हिन्दी न्यूज़ चैनल समाज सेवा कर रहे हैं या अपने समाज की ही भाषा-बोली में बात कर रहे हैं।

ये सब आपके लिए







कुछ दिनों से दिल्ली के मोहल्लों में भटक रहा हूं। कई तस्वीरें ली हैं। धीरे-धीरे आप तक लाने की कोशिश करूंगा। कुछ फेसबुक पर भी हैं।

असहमतियों के अमिताभ

ब्लॉग की एक ताकत है। सख़्त से सख़्त असहमतियों के प्रति सहज होने का अभ्यास कराता है। सहज का मतलब बेपरवाह होने से नहीं है बल्कि असहमतियों को पहचानने और स्वीकार करने से है। हम जो लिखते हैं उसकी प्रतिक्रिया उसी के नीचे और उसी वक्त होती है। वो भी लिखित रूप में। जब ब्लॉगिंग शुरू की थी तब असहमतियों से घबराहट होती थी, उसमें इरादे खोजता था। अब ऐसा नहीं है। उत्तर भारतीय मंझोले किस्म के सामंती परिवेश से आने के कारण ख़ुद को लोकतांत्रिक बनाने की प्रक्रिया में ये असहमतियां बहुत सहायक हो रही हैं। हम जो लिखते हैं, फ़ैसला नहीं है। वो सोच है जो हमारी समझदारी की सीमा में घटती बनती रहती है,उसी को लिखकर आज़माते हैं। अमिताभ बच्चन पर लिखे लेख से जो त्वरित और सख़्त प्रतिक्रियाएं आईं हैं,उससे मेरे भीतर सहनशीलता की मात्रा बढ़ी है।

मेरी कोई सफाई नहीं है। जिस तरह से सहमतियों के विशेषण होते हैं,उसी तरह से असहमतियों के भी होते हैं। महानायक और महानालायक,किसी भी शब्दहीन व्यक्ति के लिए आसान से समानार्थी विशेषण हैं। मेरा इरादा अमिताभ के समर्थकों को ठेस पहुंचाने का कत्तई नहीं था। समर्थक भी अमिताभ की फिल्में खारिज करते रहते हैं। फिल्मों में उनके योगदान को आलोचना-प्रशंसा के दायरे में देखा ही जाना चाहिए। मैंने भी उनकी अदाकारी की तारीफ की है लेकिन मैं नहीं मानता कि अमिताभ की आलोचना नहीं हो सकती। नरेंद्र मोदी की आलोचना नहीं हो सकती। इसका मतलब यह नहीं कि चौरासी के दंगों में कांग्रेस की भूमिका की आलोचना नहीं की है। इसी ब्लॉग पर जब पत्रकार साथी जरनैल ने चौरासी पर किताब लिखी तो उसकी समीक्षा की थी। इसी ब्लॉग पर कई बार कांग्रेस की सांप्रदायिकता की आलोचना की है। मैं किसी भी किस्म की(कांग्रेसी,बीजेपी,हिन्दू-मुस्लिम) सांप्रदायिकता का विरोधी हूं और रहूंगा। अगर कोई नेता अच्छी सड़के बनवाता है, उद्योग लगवाता है लेकिन उस पर सांप्रदायिक साज़िशों में शामिल होने का आरोप लगता है तो मैं अपने वैचारिक रूझान से उसके सांप्रदायिक पक्ष को ही देखूंगा। मैं गुजरात के दंगों को कभी नहीं भूल सकता। ये वो दर्द हैं जो अहमदाबाद में फ्लाईओवर बनवा कर दूर नहीं हो सकते। सांप्रदायिकता के प्रति अपने लिखने में सख्त रहूंगा। मेरा काम चुनाव में जाकर किसी को हराना नहीं है। लेकिन अपने दायरे में जहां भी मौका लगेगा मैं इसका विरोध करूंगा।

अमिताभ बच्चन क्यों आलोचनाओं से परे किये जाएं? क्या पत्रकारिता कैसी हो,इसे लेकर आप सख्त नहीं होते? क्या आपकी राय नहीं होती? क्या आप हमारी तमाम ग़लतियों को इसलिए स्वीकार करते चलेंगे कि हम पत्रकार हैं। जो सार्वजनिक जीवन में है वो हर तरह की प्रतिक्रिया का भागी होगा। उसकी आलोचना होगी। आज का अर्जुन,जादूगर,मर्द,मृत्युदाता का अमिताभ फटीचर था। ब्लैक,दीवार,सिलसिला और पा का अमिताभ श्रेष्ठ था। दोनों पहलू हैं लेकिन आलोचना का मतलब यह नहीं कि हम फिल्मों में उनके काम को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। ये तो किया ही नहीं। मैंने तो बस उनके सार्वजनिक जीवन की कुछ राजनीतिक हरकतों को लेकर लिखा है।

मैं तो पत्रकारिता के गुज़र रहे इस काल को भी फटीचर काल कहता हूं। महानालायक विशेषण का इस्तमाल अपनी बात को प्रभावी तरीके से करने के लिए किया। इस पर आपत्ति भी समझ सकता हूं मगर आशय इतना ही था कि आखिर अमिताभ पर्दे से उतर कर इस कदर क्यों हो जाते हैं जहां उनका काम बिना राजनीतिक सत्ता के नहीं चलता। बाला साहब ठाकरे को रण फिल्म दिखाने गए हैं। उसी बाला साहब ठाकरे की राजनीति का शाहरूख़ खा़न विरोध कर रहे हैं। कहा कि माफी नहीं मांगूगा लेकिन उसी वक्त में अमिताभ बाला साहब ठाकरे के पास जाते हैं। इसीलिए इनके बारे में मेरी राय नहीं बदली है।

दोबारा इसलिए लिख रहा हूं कि आप सबकी प्रतिक्रया को यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता। उन पर राय तो देनी ही पड़ेगी। आप सबके बीच में ही रहना है लेकिन क्या मजा कि अपनी राय पर कायम ही न हुए। चुप रहना आपकी असहमतियों का अनादर मानता हूं। इसलिए अपनी बात कह रहा हूं। मैं यह बिल्कुल नहीं मानता कि जो लिखता हूं वो अंतिम सत्य है। उसमें बदलाव भी करता हूं। कई बार प्रतिक्रियाओं के बाद बदलाव करता हूं। लेकिन कुछ बुनियादी सोच को आसानी से बदलना मुश्किल है। मुझे नहीं लगता कि महानालायक से अभद्रता प्रकट हुई है। लेकिन हां इस विशेषण की एक नाकामी स्वीकार करता हूं। वो ये कि इसने आपका ध्यान तो खींचा लेकिन लिखने का आशय नहीं प्रकट कर पाया और आपकी अहसमतियों का केंद्र बन गया। कई लोग विशेषण से आहत हैं तो कुछ अमिताभ के प्रशंसक होने के नाते। मैं भी लिखते वक्त आहत था। मैं भी प्रशंसक हूं अमिताभ का। लेकिन जैसा कि कुछ असहमतियों में दर्ज है कि घमंड से लिखा है, ऐसा नहीं है। न ही टीआरपी बटोरने के इरादे से इस विशेषण का चयन किया है। घमंड किस बात का। कस्बा पर आने के लिए और आते रहने के लिए आप सबका धन्यवाद। जिन लोगों ने सहमति प्रकट की है आशा है वो इस तरह की बहसों में बेबाक होकर सामने आयेंगे। उनका भी शुक्रिया। छद्म ही सही..धर्मनिरपेक्ष माहौल में जीने की खुशफहमी सांप्रदायिक होने के खतरे से ज्यादा भाती है। लेकिन जब दुनिया धर्मनिरपेक्ष हो सकती है तो छद्म भी क्यों स्वीकार करें। आते रहियेगा। आप सभी से ये गुज़ारिश हमेशा रहेगी। असहमतियों को जानना सबसे ज़रूरी है।

सदी का महानालायक

अमिताभ बच्चन पर्दे के बाहर भी कलाकार का ही जीवन जीते हैं। पैसा दो और कुछ भी करा लो। कांग्रेस में राजीव गांधी की डुग्गी बजाने के बाद छोटे भाई अमर सिंह के साथ सैफई तक जाकर नाच आए। मुलायम सरकार ने पैसे दिये तो गाने लगे यूपी में हैं दम क्योंकि जुर्म यहां है कम। सारी दुनिया हंसने लगी। जिस प्रदेश का चप्पा चप्पा अपराध में डूब गया हो,वहां फिर से पैदा होने की ख्वाहिश का महानायक पर्दे पर एलान करता है। समाजवादी पार्टी को लगा कि उनकी पार्टी और सरकार को ब्रांड अबेंसडर मिल गया।

पूरे चुनाव प्रचार में इस ब्रांड अंबेसडर का टायर पंचर कर दिया गया। अब अमिताभ बच्चन पहुंचे हैं नरेंद्र मोदी के पास। इस एलान के साथ कि कोई भी पैसा दे दे और उनसे कुछ भी बुलवा ले। शायद यही वो कलाकार है जिससे सिगरेट कंपनियां पैसे देकर बुलवा सकती हैं कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हितकारी है। अमिताभ बोल भी देंगे कि भई पैसे मिले हैं,हम कलाकार हैं और इस विज्ञापन को भी किरदार समझ कर कर दिया है। अमिताभ आज की मीडिया के संकट का प्रतीक है। अपनी विश्वसनीयता का व्यापार करने का प्रतीक। वैसे इनकी विश्वसनीयता तो काफी समय से सवालों के घेरे में हैं।

अब नरेंद्र मोदी को झांसा देने पहुंचे हैं। गुजरात सरकार के पर्यटन विभाग के ब्रांड अंबेसडर बनकर। जिस मोदी को देश के तमाम बड़े उद्योगपति प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे,उस मोदी के बगल में बैठ कर वो पा के टैक्स फ्री होने का मामूली ख्वाब देख रहे थे। ख़बरों के मुताबिक यहीं पर अमिताभ ने नरेंद्र मोदी से ब्रांड अंबेसडर बनने की पेशकश की थी। आज उनका सपना पूरा हो गया।

वैसे भी नरेंद्र मोदी राजनीति में परित्याग की वस्तु तो हैं नहीं। वो एक दल में हैं,जिसकी कई राज्यों में सरकार है। लेकिन गुजरात दंगों के संदर्भ में मोदी राजनीतिक रूप से ही देखे जायेंगे। यह दलील नहीं चलेगी कि वे मोदी का राजनीतिक विरोध करते हैं लेकिन सरकार से परहेज़ भी नहीं करते। अगर ऐसा है तो कम से कम यही कहें कि सरकार तो गुजरात की जनता की है। उसके किसी भी फैसले का सम्मान तो किया ही जाना चाहिए। पर अमिताभ जी उस सम्मान का मतलब यह नहीं कि बिना अपनी राजनीति साफ किये नरेंद्र मोदी के साथ हो लेना चाहिए। राजनीति साफ करने की उम्मीद इसलिए है क्योंकि पिछले हफ्ते तक अमिताभ समाजवादी पार्टी का गुणगान कर रहे थे,उससे पहले कांग्रेस का कर चुके हैं और अब गुजरात के पर्यटन विभाग का करेंगे। अमिताभ की एक दलील हो सकती है कि वो गुजरात में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए ये सब कर रहे हैं। पर ऐसा क्यों है कि पर्दे पर अभिनय के नये प्रतिमान कायम करते रहने वाले अमिताभ राजनीति के बारे में साफ राय नहीं रख पाते। गुजरात के लिए ज़रूर कुछ करना चाहिए लेकिन वो ब्रांड अंबेसडर बन कर ही क्यों? इससे तो किसी राज्य की सेवा नहीं होती। ब्रांड अंबेसडर बिल्कुल व्यावसायिक गठबंधन होता है।

राजनीति में अमिताभ छोटे भाई अमर सिंह के बड़े भाई हैं। जो पिछले हफ्ते ही मुलायमवादी से समाजवादी हुए हैं और लोकमंच बनाकर यूपी में घूमने निकले हैं। क्या अमिताभ छोटे भाई के नए मंच के भी ब्रांड अंबेसडर होने वाले हैं? अगर इसमें कोई दिक्कत नहीं तो क्या मोदी यूपी सरकार के ब्रांड अंबासडर बन सकते हैं? क्या क्रांस ब्रांडिंग हो सकती है? मेरा तुम करो और तुम्हारा मैं करता हूं। छोटे भाई के परिवार का यह बड़ा भाई नरेंद्र मोदी का ब्रांड अंबेसडर बन कर लोकमंच का प्रचार करेगा या नहीं,कहना मुश्किल है। अमिताभ को बताना चाहिए कि वे नरेंद्र दामोदर मोदी की राजनीति का समर्थन करते हैं या नहीं। गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका के बारे में साफ करना चाहिए। वो पर्यटन का बहाना न बनाए। अमिताभ के ब्रांड दूत बनने से पहले गुजरात कोई भूखा मरने वाला राज्य नहीं हैं। देश का नंबर वन राज्य है। यह मानना मुश्किल है अमिताभ ने सच्चे सेवा भाव से किया है। समाजवादी पार्टी में दरकिनार कर दिये जाने के बाद ही अमर सिंह को मायावती की पीड़ा समझ आ रही है। उससे पहले वो मायावती के बारे में कैसे बात करते थे,लोगों को याद होगा।


अमिताभ अक्सर कहते हैं कि वे राजनीति से दूर हैं। लेकिन मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह जैसे घाघ राजनेताओं की संगत में खूब जम कर रहे। अपनी पत्नी जया बच्चन को राज्य सभा में भेजा। अब जया भी अमर सिंह के साथ इस्तीफा नहीं दे रही हैं। दरअसल वे कभी सियासत की संगत से दूर ही नहीं रहे। कभी किसान बन कर ज़मीन लेने चले जाने का आरोप लगता है तो कभी ब्रांड दूत बन कर एक प्रदेश की जनता का सेवक होने का भाव जगाते हैं। अमिताभ इसीलिए एक मामूली कलाकार हैं। पर्दे पर मिली शोहरत की हर कीमत वसूल लेना चाहते होंगे। पर्दे पर पैसे की ताकत से लड़ने वाले किरदारों में ढल कर यह कलाकार महानायक बना लेकिन असली ज़िंदगी में पैसे की ताकत के आगे नतमस्तक होकर महानालायक लगता है।